विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विदेशों से मिल रही जबर्दस्त मदद के बावजूद कोरोना मरीजों का जो हाल भारत में हो रहा है, उसने सारे देश को ऐसे हिलाकर रख दिया है, जैसे कि किसी युद्ध ने भी नहीं हिलाया था। लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि हजारों ऑक्सीजन-यंत्र और हजारों टन ऑक्सीजन के जहाजों से भारत पहुंचने के बाद भी कई अस्पतालों में मरीज क्यों मर रहे हैं? उन्हें ऑक्सीजन क्यों नहीं मिल रही है?
जो लापरवाही हमने बंगाल में चुनाव के दौरान देखी और कुंभ के मेले ने जैसे कोरोना को गांव-गांव तक पहुंचा दिया, उसे हम अभी भूल भी जाएं तो कम से कम इतना इंतजाम तो अभी तक हो जाना चाहिए था कि करोड़ों लोगों को टीका लग जाता। लेकिन अभी तक मुश्किल से तीन करोड़ लोगों को पूरे दो टीके लगे हैं। उन्हें भी 20-25 दिन बाद पूर्ण सुरक्षित माना जाएगा।
यदि डॉक्टरों और नर्सों की कमी है तो देश की फौज और पुलिस कब काम आएगी ? यदि हमारे 20 लाख फौजी और पुलिस के जवान भिड़ा दिए जाएं तो वे कोरोना मरीजों को क्यों नहीं सम्हाल सकते हैं ? फौज के पास तो अपने अस्पतालों और डाक्टरों की भरमार है। ऑक्सीजन सिलेंडरों को ढोने के लिए उसके पास क्या जहाजों और वाहनों की कमी है ? फौज का इंजीनियरी विभाग इतना दक्ष है कि वह चुटकियों में सैकड़ों अस्पताल खड़े कर सकता है।
दिल्ली में पांच-हजार पंलगों के तात्कालिक अस्पताल का कितना प्रचार किया गया लेकिन खोदा पहाड़ और निकली चुहिया। अभी तक वहां मुश्किल से दो सौ-ढाई सौ लोगों का ही इंतजाम हो पाया है। लोग अस्पताल के बाहर कारों, फुटपाथों और बरामदों में पड़े दम तोड़ रहे हैं। अस्पतालों के बाहर बोर्डों पर लिखा हुआ है कि सब वयस्कों को टीके नहीं लग पाएंगे, क्योंकि हैं ही नहीं। सर्वोच्च न्यायालय और विविध उच्च न्यायालय सरकारों के कान जमकर खींच रहे हैं लेकिन उनका कोई ठोस असर होता दिखाई नहीं पड़ता।
केंद्र सरकार ने अभी तक विशेषज्ञों और जिम्मेदार अधिकारियों की कोई कमेटी भी नहीं बनाई है जो लोगों की समस्याओं को सुलझा सके और संकट में फंसे लोगों को राहत पहुंचा सके।
अकेला स्वास्थ्य मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय इस अपूर्व संकट को कैसे झेल सकता है? यह युद्ध से भी बड़ा संकट है। यह अपूर्व आफतकाल है। देश के विरोधी नेता अपनी आदतन बयानबाजी बंद करें और सरकार उनसे भी निरंतर परामर्श और सहयोग ले, यह जरुरी है।
हम जब अपने प्रतिद्वंदी चीन से हजारों वेंटिलेटर और आक्सीजन जनरेटर ले रहे हैं तो मेरी समझ में नहीं आता कि हमारे नेतागण आपस में तकरार क्यों कर रहे हैं ? जो गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठन हैं, जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन, साधुओं के अखाड़े तथा सारे गुरुद्वारों, गिरजों और मस्जिदों से जुड़ी संस्थाओं को भी सक्रिय किया जाए ताकि अगले एक हफ्ते में इस महामारी पर काबू कर लिया जाए। देश के हर नागरिक को मुफ्त टीका लगे और हर मरीज का इलाज हो, यह बहुत जरुरी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
भारत रत्न सत्यजीत राय 2 मई 1921 को पैदा हुए थे। यह मेरे लिए सुखद संयोग रहा कि 2 मई 1971 को उनके 50 वर्ष पूरे होने पर टाइम्स आॅफ इंडिया समूह की अग्रणी फिल्म पत्रिका ‘माधुरी‘ के संपादक अरविन्द कुमार ने सत्यजीत राय पर मेरी रचना को अनेक चित्रों के साथ केन्द्रीय लेख के रूप में छापा था। अरविन्द जी ने मुझसे कहा था कि यह लेख मैं किसी को नहीं दूं। बस यही एक रचना मैंने माधुरी को दी थी।......वर्षों बाद कभी संभवतः ‘सद्गति‘ फिल्म की शूटिंग को लेकर सत्यजीत राय रायपुर आए थे। तब मैंने संभालकर रखा वह अंक उनको दिया था। मुझे ख्याल पड़ता है कि सर्किट हाउस में हबीब तनवीर भी उनके साथ थे। बेहद गंभीर मुखमुद्रा के सत्यजीत राय के चेहरे पर लेख को देखकर कोई मुस्कराहट नहीं छाई। अलबत्ता अंगरेजी में उन्होंने कहा ‘धन्यवाद, यह मुझे मिल गया था।‘ आज भारत रत्न सत्यजीत राय 100 वर्ष के हो गए। बेहद खराब चल रहे समय में सोचा इस महान शख्सियत की अपनी लिपिबद्ध याद आपके साथ साझा करता चलूं।
सेल्युलायड का कवि
सेल्युलायड का कवि
प्रख्यात फिल्म निर्माता चिदानन्द दास गुप्ता ने सत्यजित राय को ‘एक अपवाद, एक घटना तथा कोणार्क के मन्दिर और बनारस के वस्त्रोद्योग की तरह भारत कि लिये गौरव की वस्तु‘ की संज्ञा दी थी। सत्यजित की फिल्मों में एक साथ गहरी स्थानिकता और विस्तीर्ण वैश्विकता रही है। बंगाल की धरती की महक, इठलाती नदियां, सादा ग्राम्य जीवन, रूमानी क्रांतिकारिता, रहस्यमयता और कलात्मक चेतना वाली सत्यजित राय की फिल्में बंग धरती की धड़कनें है। उनमें कविता है। विस्तृत औपन्यासिक कैनवस है। जिन्दगी के टूटते मूल्यों की असलियत का अहसास है। टैगोर के बाद सत्यजित राय ने ‘बांग्ला-जीवन‘ को सारे विश्व की सहानुभूति और संवेदना का केन्द्र बना दिया। उनके अनुसार जीवन के पुराने और नये मूल्यों का सतत संघर्ष उनकी फिल्मों का केन्द्रीय तत्व रहा है। सत्यजित की फिल्में केवल सतही दृष्टिकोण से परखी नहीं जा सकतीं। संवाद, प्रतीक-विधान, चरित्र कथा-वस्तु के अलावा मुख्य आग्रह पृष्ठभूमि अथवा वातावरण के प्रस्तुतिकरण में है। सत्यजित राय ने ही पहली बार प्रचलित फार्मूलों का बहिष्कार कर नवयथार्थवाद की नींव डाली और अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि के नक्षे पर हिन्दुस्तान को सम्मानजनक जगह दिलाई।
2 मई 1921 को बंगाल के प्रसिद्ध लेखक, चित्रकार और फोटोग्राफर सुकुमार राय के घर जन्मे सत्यजित राय में प्रतिभा का अंकुरण गुरुदेव टैगोर ने शांति निकेतन में किया। कोलकाता की एक व्यावसायिक विज्ञापन एजेन्सी ने कलाकार के रूप में युवा सत्यजित को 1950 में लन्दन जाने का मौका दिया। वहां उसने जी भर कर फिल्में देखीं। उनमें गहरे डूब कर पाया कलाकार का वह सौन्दर्य-बोध जिसके लिये वह भारत में छटपटाता रहा था। विश्वविख्यात इतालवी निर्देशक विक्टोरिया डी सिका की ‘बाइसिकल थीफ‘ ने नौजवान सत्यजित में आत्मविश्वास का संचार किया। कोलकाता में ही उसने विभूति बाबू की ‘पथेर पांचाली‘ पढ़ रखी थी। अब इसको फिल्माने की इच्छा ने एक आब्शेसन का रूप लिया। फिल्म उद्योग के लखपति निर्माताओं के रहते हुए विभूति बाबू के उत्तराधिकारियों ने केवल छः हजार रूपयों में उपन्यास की पट कथा के अधिकार सत्यजित राय को बेच दिये। यह उसके गहरे अध्यवसाय, तीखी कला संवेदनशीलता और कथाकार के मर्म की सही समझ का पहला पुरस्कार था।
राय ने ‘पथेर पंचाली‘ को बनाने का बीड़ा उठाया। प्रथमेश चन्द्र बरुआ के बाद निष्चेष्टता और संषय का एक विराम बंगाल की फिल्म-निर्माण कला पर छा गया था। तब आया मानवीय गरिमा के गीत गाता सत्यजित राय। उसने एक नहीं चार चार फिल्में बना कर बुलंदियों के आसमान को छू लिया। फिल्मों के जर्जर ढांचे को संवदेनाओं और मनोद्वेगों से पगी राय की ‘पथेर पांचाली‘ ने जोरदार टक्कर दी। चरमरा कर वह ढांचा टूट गया। ‘पथेर पांचाली‘ फिल्मी दुनिया का भूचाल या तूफान है। उसने पारंपरिक मूल्यों से जकड़े अप्रबुद्ध दर्शक को बौद्धिकता की कड़वी घुट्टी पीने कहा।
इटली और अमेरिका के नव यथार्थवादी निर्देशकों से प्रभावित सत्यजित राय ने ‘पथेर पांचाली‘ में प्राकृतिक परिवेश और शौकिया कलाकारों का उपयोग किया। फिल्म को बनाने उसने अपनी पुस्तकें, रेकार्ड आदि बेच कर किसी तरह बीस हजार रूपये इकठ्ठे किये। पैसों के अभाव में निर्माण कार्य ठप्प भी हो गया था। अमेरिकी निर्देशक जान हस्टन, न्यूयार्क माडर्न आर्ट म्यूजियम के मनरो व्हीलर तथा पश्चिमी बंगाल प्रशासन के उत्साहवर्द्धन और सहयोेग से फिल्म किसी तरह पूरी हुई। प्रख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर ने संगीत का दायित्व पूरा कर साबित किया कि जहां मानवीय कार्य व्यापार है, वहीं उत्कृष्ट कविता है। न्यूयार्क माडर्न आर्ट म्यूजियम में इस फिल्म का निजी शो जब एडवर्ड हैरिसन जैसी फिल्मी हस्ती ने देखा तो वह दंग रह गया। उसने न केवल ‘पथेर पांचाली‘ वरन सत्यजित की सभी आगामी फिल्मों के वितरण के अधिकार खरीद लिये। केन्स फिल्म महोत्सव में निर्णायकों ने ‘पथेर पांचाली‘ को सर्वोत्तम मानवीय दस्तावेज की संज्ञा देकर पुरस्कृत किया। यह बात अलग है कि मशहूर फ्रांसीसी फिल्म समीक्षक आन्द्रे बेजिन यदि अपनी कलम के बल पर ‘पथेर पांचाली‘ का तीसरी बार प्रदर्शन आयोजित नहीं करा पाता तो सत्यजित के जीवन की यह उपलब्धि गुमनामी के अंधेरे में खो जाती।
केन्स फिल्म महोत्सव ने सत्यजित राय को दुनिया के चोटी के निर्देशकों के साथ ला खड़ा किया। उसकी फिल्में अपराजितो (1957), जलसाघर (1958), पारस पाथर (1958), अपुर संसार (1959), देवी (1961) तीन कन्या (1961), रवीन्द्र नाथ टैगोर (1961), कंचनजंघा (1962), और अभिजान (1962) दुनिया की मषहूर कलात्मक और प्रयोगात्मक फिल्मों के रूप में सराही गई। 1957 में वेनिस में ‘अपराजितो‘ ने ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार जीत कर भारत को संसार के सांस्कृतिक नक्षे में सम्मानजनक जगह दिला दी। अकेले ‘अपु-त्रयी‘ ने सोलह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतेे हैं।
महान बांग्ला साहित्यकारों में सत्यजित रवीन्द्रनाथ ठाकुर से विशेष प्रभावित रहे हैं। शरत चंद्र ने उन्हें अधिक प्रभावित नहीं किया। रवीन्द्र की कृति ‘नष्ट नीड़‘ पर आधारित फिल्म ‘चारुलता‘ उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो के उच्च-मध्यवर्गीय बंगाली जीवन की गाथा है। पतिव्रत धर्म की आड़ में भी एक उपेक्षित विवाहिता नारी और पर-पुरुष के मांसल प्रणय की यह कहानी लिख कर स्वयं टैगोर ने अपने युग में क्रांतिकारी साहस का परिचय दिया था। पूरी फिल्म आश्चर्यजनक ढंग से उन्नीसवीं सदी की सांझ को अपने आयामों में समाए चलती है। वातावरण में महज सच्चाई है- कटु और तिक्त नाटकीयता कहीं कुछ नहीं। माधवी मुखर्जी (चारुलता) ने इसमें अपने जीवन का लगभग श्रेष्ठतम अभिनय किया है। समीक्षकों के अनुसार इसमें सत्यजित का निर्देशन अपनी पूर्व ऊँचाइयों पर स्थिर नहीं रह पाया। सत्यजित इसे अपनी श्रेष्ठतम फिल्म करार देते हैं। वैसे समीक्षक केनेथ टाइनन को फिल्म के प्रणय दृष्य मांसल-यौन संबंधों से रहित होने के कारण यथार्थ जीवन की अनुकृति नहीं मालूम पड़ते।
प्रेमेन्द्र मित्र और परशुराम की दो कहानियों को मिला कर बनाई फिल्म ‘कापुरुष ओ महापुरुष‘ कृतिकार की उपलब्धियों का कीर्तिध्वज तो नहीं कहा जा सकता लेकिन केवल ‘कापुरुष‘ सत्यजित राय की कला के सर्वश्रेष्ठ अंशों में है। काव्यात्मक अंतर्दृष्टि और अद्वितीय तकनीक से राय ने फिल्म में लिरिकल यथार्थवाद पर अपनी पकड़ का परिचय दिया। कथानक की गति सत्यजित के स्वाभाविक शैथिल्य से कहीं ज्यादा तेज है। सेटिंग में स्वप्नशीलता है, फिर भी यथार्थवादी है। सिने पटकथा लेखक अभिताभ राय, चाय बागानों के मालिक विमल गुप्ता, उनकी पत्नी और अभिताभ राय की भूतपूर्व प्रेमिका करुणा के चरित्र त्रिकोण में फंसी कहानी जिन्दगी के बहुत करीब है। ‘महापुरुष‘ एक अर्थ में पूर्व-कथा की प्रति-पराकाष्ठा है। विरंची बाबा की धूर्तता के कथा-तत्व से सत्यजित राय ने औसत निर्देशकों से कहीं ज्यादा सच्ची फिल्म निर्मित की है। फिर भी सत्यजित राय के सन्दर्भ में वह एक अनमने, अधूरे प्रयास का प्रतिफल मालूम पड़ती है। ‘महापुरुष‘ में कलात्मक आग्रह कुछ दब सा गया।
हावड़ा से दिल्ली जाने वाली डीलक्स ट्रेन में घटी कहानी का दूसरा नाम है ‘नायक।‘ आधुनिक जीवन की विडंबना के प्रतीक पात्रों की स्वार्थपरक, व्यवसायी प्रवृत्तियों को सत्यजित राय ने अपनी फिल्म-कथा में छोटी छोटी घटनाओें के संग्रहण से उभारा है। ऐसा करने में कैमरा-कोणों की और प्रयोजन पूर्व लिये गये कुछ विशेष ‘शाटों‘ की मदद ली है। आधुनिक जीवन की विसंगतियों के ये प्रतिनिधि पात्र कई बार राय की अतिरिक्त सतर्कता के कारण प्रभावरहित या ज्यादा कलात्मक हो जाते हैं। कौंध या बिम्ब की तरह उभरते है, लेकिन कोई समग्र प्रभाव नहीं पड़ता।
‘प्रतिद्वंद्वी‘ में सत्यजित ने समकालीन कलकत्ता की भागती दौड़ती तेज जिन्दगी के बीच बहुत चीजों को पकड़ा है। एक मध्यवर्गीय परिवार की आशंकाओं, चुनौतियों और समस्याओं के सन्दर्भ का कुशल फिल्मांकन औसत सर्वहारा जिन्दगी में भी कविता ढूंढ़ लेता है। बाल्यकाल के प्रति सत्यजित की संवेदनशीलता स्मृत्यवर्तन (फ्लैश बैक) के बार बार कौंधने से साबित हो जाती है। औसत और साधारण को अर्थवान बनाना औसत और साधारण आदमी का काम नहीं है। महानगर की भोगी जिन्दगी की तल्ख हकीकत का अहसास इस फिल्म की असली उपलब्धि है।
‘अरण्येर दिनरात्रि‘ और ‘गोपी गायन बाघा बायन‘ को आलोचना सहनी पड़ी। सत्यजित पर पिटे-पिटाए हल्के-फुल्के, व्यावसायिक नुस्खे अपनाने का आरोप लगा। ‘पारस पाथर‘ जैसी फिल्म सत्यजित को नहीं बनाना था। यही गलती ‘कांचनजंघा‘ में भी हुई। नामी कलाकारों से लैस ‘चिड़ियाखाना‘ ने भी सत्यजित के निर्देशन को नये अर्थ और प्रतिमान प्रदान नहीं किये। उन्होंने खुद माना कि ‘चिड़ियाखाना मेरी एक घटिया फिल्म है।‘
‘‘क्या सत्यजित राय की संभावनाएं चुक रही थीं?‘ एक विवादास्पद लेख में प्रभात मुखर्जी ने ऐसे संकेत उभारने की कोशिश की है। कला के स्खलन की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा है कि सत्यजित में कलात्मक चेतना के प्रति सजगता का क्रमिक लोप होता गया है और उसकी जगह प्रयोगधर्मिता के आग्रह ने ले ली है। खास ऊँचाई पर जाकर भी सत्यजित पीड़ित मानवता के प्रति अपनी हमदर्दी जतलाते हैं। उनकी व्यवस्था को स्वयं भोगते नहीं लगते। ‘अरण्येर दिनरात्रि‘ में डाकबंगले के चैकीदार की बीमार पत्नी के प्रति नायक (सौमित्र चटर्जी) की उदासीनता पर किये गये व्यंग्य और इसी फिल्म में लाखा को अपने अपमान का बदला लेते हुए देख कर यह आशंका हो रही थी कि राय अपनी ‘खास ऊँचाई‘ से नीचे उतर रहे थे। यथार्थवाद पर पकड़ के बावजूद उनका ‘जीवन‘ से अलगाव होता गया था। सत्यजित राय के लिये शायद ‘मनुष्य‘- उसकी भावनाएं, संवेदनाएं, अनुभूतियां आदि उसके परिवेश से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और अर्थवान हो उठी थी। इस तरह उनमें फिल्म जैसी सशक्त लोक-विधा के प्रतिनिधि होने के बावजूद सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना के प्रति उदासीनता साफ दीख रही थी। ‘महानगर‘ जैसी फिल्में यद्यपि अपवाद हैं। फिर भी बेखबर सत्यजित राय ऊबड़खाबड़पन भरे जन जीवन में कविता की तलाश में एकजुट रहे हैं।
आरोपों और प्रश्नों की बौछार के बावजूद सत्यजित राय का यष अक्षुण्ण है। वे भारतीय फिल्मों के युग निर्माता के रूप में अमर हैं। उनकी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भारत की राष्ट्रीय उपलब्धि है। उनकी फिल्मों में बौद्धिकता का संस्पर्श है और मानव-मूल्यों के द्वंद्व का अनोखा प्रतीकात्मक चित्रण भी। उनकी फिल्में बंगाल की, इसलिये भारत की, इसलिये विश्व की मौजूदा मूल्यों से जूझती जिन्दगी का शानदार आईना हैं। सत्यजित राय के बिना भारतीय फिल्म उद्योग का इतिहास असंभव रहेगा।
-रति सक्सेना
कल केरल में चुनाव के नतीजें आ रहे हैं, लेकिन आज भी ठीक 5.30 बजे विजयन पत्रकारों और जनता के सम्मुख है़ सबसे पहले वे बताते है कि आज 35630 लोगों को करोना निकला है़, कुल रोगियों की संख्या अब 146704 हो गई। आज की मृत्यु संख्या 48 है। 320300 लोगों की चिकित्सा चल रही है।
आज मई दिन है, मैं कोविड से जुड़े सभी स्वास्थ्य कर्मचारियों कामगारों का अभिवादन करता हूं, स्वास्थ्य कर्मचारी एक साल से बड़ी विषम स्थिति में काम कर रहे हैं। इसलिए यदि कोई छोटी-मोटी समस्या आती है तो स्वास्थ्य कर्मचारियों का अपमान ना करे़। यह सोचिये कि एक दिन में 500000 रोगियों की देखभाल की जिम्मेवारी उन पर हैं। हमारे समाज को उनकी समस्या भी समझनी चाहिये। भारत में आज एक दिन में 400000 करोना रोगी निकल रहे हैं। केरल में ही आज के दिन 300000 एक्टिव केस है। कल एर्णाकुलम जैसे एक प्रान्त में ही 50000 से ज्यादा की चिकीत्सा हो रही है। कोषिकोड में 31000 से ज्यादा है. यानी कि एक जिले मे ही पचास हजार से अधिक केस चल रहे हैं। हमें सोचना है कि हम कैसे समस्या को समझे।
सरकार में हम आवश्यकता अनुसार सुविधाएं तैयार कर चुके हैं, आइसीयू बेड, आक्सीजन बेड आदि तैयार कर चुके है, लेकिन हमें रोजाना बिस्तरों की संख्या बढ़ानी पड़ती है। जिनकी अधिक खराब हालत नहीं है, वे घर में भी आइसोलेशन में रहे हैं। जिलों के वार्ड भी मुस्तैदी से काम कर रहे हैं। सभी वार्ड के फोन नम्बर रोगियों के अपने पास रखना है। आरपीटीआर टेस्ट को हमने 15000 से 500 कर दिये तो बहुत सी प्राइवेट लैब ने काम करना बन्द कर दिया, लेकिन उन्हें समझना चाहिये कि इस टेस्ट का खर्चा 240 रुपये मात्र होता है, टेस्ट करने वाले का खर्चा जोड़ कर 500 टैस्ट का दाम रख दिया, आरटीपीसीआर टेस्ट नहीं करेगा, यह नहीं चल सकता है। फिर भी यदि वे मना करे तो शिकायत की जानी चाहिये, समय खराब है, इसलिए सभी को मदद के लिए आगे बढ़ना है, यह कोई लाभ उठाने का मौका नहीं है। आरटीपीसीआर की अलावा महंगे टेस्ट की खबर भी मिल रही है, लेकिन यह समय लाभ उठाने वाला नहीं है। सरकारी लैब में टेस्ट मुफ्त करना पड़ेगा, सरकारी टेस्ट फ्री होता है।
किसी भी तरह के अराधना गृह के लिए नियम है, पुलिस ख्याल रख रही है, बड़े -बड़े अराधना घर में पचास से ज्यादा लोग नहीं जाने चाहिये, छोटे अराधना घरों में पांच से ज्यादा लोग नहीं जाने चाहिये, इन नियमों का कड़ाई से पालन करना होगा।
कल वोट गणना है, सभी के लिए नियमों का पालन करना जरूरी है, वोट केन्द्र में किसी तरह की भीड़ नहीं होनी चाहिये. जो जीते तब भी जयघोष न करे। इसके लिए मीडिया को भी सहायता करनी चाहिये। लोगों को खुशी मनाने की इच्छा तो होगी, लेकिन आज की स्थिति को देखते हुए लोगों को अपने को वश में रखना पड़ेगा। जीते हुए सदस्यों को धन्यवाद देने की कोशिश भी बाद के लिए रख लेनी चाहिये। आप सोशल मीडिया का प्रयोग कर लें, सोशल मीडिया के द्वारा खुशी जाहिर कर सकते हैं। आज के समय धन्यवाद देने का मतलब समझिये, मीडिया का सहारा लीजिये, सोशल मीडिया का उपयोग कीजिये, कल ही मास्क के बिना 21733 लोग के विरोध केस रजिस्ट्रेशन, नियम ना पालन 11210 खिलाफ चालान, और 650750 पिछले दिनों चालान के रूप में ही राज्य को मिला।
हरेक जिलों को आक्सीजन भेज दी गईं हैं, पंचायत के स्वास्थ्य केन्द्रों में 24 घण्टे सेवा चलेगी।
जाग्रता एप रजिस्ट्रेशन अनेक हुए हैं। ग्राम पंचायते बेहतरीन काम कर रही हैं. ग्राम पंचायतों के साथ पुलिस का भी सहयोग मिलेगा।
वैक्सीनेशन सेन्टर रोग बढ़ाने का केन्द्र बनता जा रहा है, इसलिए अब दूसरी डोज के लिए केन्द्र मेनेजर खुद फोन कर के आमन्त्रित करेगा। अट्ठारह से ऊपर का वैक्सीनेशन के लिए देरी होगी, 94 करोड़ अधिक लोगों को वैक्सीनेशन लगेगी। केरल में 30 मई तक 45 से ऊपर लोगों को लग जाने का निर्णय लिया, लेकिन हमें उसके लिए जितनी वैक्सीनेशन मिलनी थी, उसका पचास प्रतिशत भी नहीं मिला है।
केन्द्र सरकार की वैक्सीनेशन में मदद चाहिये. वैक्सीनेशन कम्पनियों को सहायता करना है, लेकिन अभी समस्या बनी हुई है।
आप लोग मास्क पहनने पर ध्यान दीजिये, N 95 उपयोग में लाइये, या फिर सर्जीकल मास्क के साथ कपड़े के मास्क को प्रयोग में लाइये।
सुना है कि लोग घरों में आक्सीजन रख रहे है, कृपया ये बन्द करें। व्हाट्स अप मेसेज को देख कर लोग गलत काम कर रहे हैं।
हम आप लोगों की सुरक्षा के तत्पर हैं.
इसके बाद में उन्होंने दो लाख से दो हजार तक के सरकार को दिए चन्दे का ब्यौरा दिया, हरेक का नाम लेकर।
बाद में पत्रकारों ने सवाल जवाब किये, जो लगभग वैक्सीनेशन को लेकर थे, जिन्हे वे स्पष्ट करते रहे। बाद में एक पत्रकार ने कहा कि सुना है कि लेफ्ट जीतने वाली है, क्या आप मीडिया से बात चीत आखिरी बार कर रहे हैं, विजयन ने कहा, नहीं, मैं कल भी बोलूंगा, परसों क्या होगा, यह कल ही पता चलेगा।
इस तरह उन्होंने मुस्कुरा कर मिटिंग भंग कर दी।
सवाल, क्या इतनी स्पष्टता और ईमानदारी से कोई अन्य नेता बात कर रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
टी.वी. एंकर रोहित सरदाना के महाप्रयाण की खबर ने तो अभी-अभी गहरा धक्का पहुंचाया है लेकिन मेरे पास उनकी ही उम्र के लगभग आधा दर्जनों लोगों की खबरें पिछले दो हफ्तों में आ चुकी हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें मैंने गोद में खिलाया है या जो कभी मेरे छात्र रहे हैं या जिनके माता-पिता मेरे घनिष्ट मित्र रहे हैं। कई बुजुर्ग लोग भी जा चुके हैं। आपको भी अपने आत्मीय लोगों के बारे में ऐसी दुखद खबरें मिल रही होंगी।
दूसरे शब्दों में सारा देश ही गमगीन हो रहा है। कौन होगा, जिसे ऐसी दुखद खबरें नहीं मिल रही होंगी। यह इतना विचित्र समय है, जब दिवंगत व्यक्ति के परिवार के लोग ही आपसे आग्रह करते हैं कि आप दाह-संस्कार में उपस्थित न हों। मैंने कुछ ऐसे परिवार भी देखे हैं, जिनका मुखिया मरणासन्न है, और उस परिवार के जवान बेटे बीमारी का बहाना बनाकर घर में छिपे बैठे हैं। वे अपने बाप का हाल भी सीधे नहीं जानना चाहते। वे उनके मित्रों से अपने बाप का हाल पूछते रहते हैं।
लेकिन कुछ मित्र ऐसे भी देखे गए हैं, जो अपनी जान हथेली पर रखकर अपने मित्रों को अस्पताल पहुंचाते हैं और उनकी पूरी देखभाल भी कर रहे हैं। अनेक समाजसेवी सज्जन ऐसे भी हैं, जो अनजान मरीजों को भी अस्पताल पहुंचाने की हिम्मत कर रहे हैं, मुफ्त ऑक्सीजन बांट रहे हैं, मरीजों के निर्धन परिजनों को वे भोजन करवा रहे हैं, अपने प्रिय मित्र की जान बचाने के लिए हजार मील कार चलाकर ऑक्सीजन सिलेंडर पहुंचा रहे हैं, अपने रिश्तेदारों और मित्रों के इलाज के लिए सैकड़ों लोगों से नित्य संपर्क कर रहे हैं, अपनी बचत के पैसे खर्च करके अपने परिचितों को काढ़ा और आयुर्वेदिक औषधियां बांट रहे हैं।
इस संकट की अवधि में मनुष्य के दोनों रूप प्रकट हो रहे हैं, देव का भी और दानव का भी! उनसे नीच दानव कौन हो सकता है, जो इस संकट काल में भी ऑक्सीजन सिलेंडर 80-80 हजार और रेमडेसवीर का इंजेक्शन सवा-सवा लाख रु. में बेच रहे हैं।
इन नरपशुओं को, दानवों को, राक्षसों को सरकारें सिर्फ गिरफ्तार कर रही है, फांसी पर नहीं लटका रही हैं। वे जेल में पड़े-पड़े सरकारी रोटियां तोड़ते रहेंगे और सुरक्षित रहेंगे जबकि इन कालाबाजारियों की वजह से सैकड़ों लोग मौत के घाट रोज़ उतर रहे हैं। यदि देश के 5-10 शहरों में भी इन कालाबाजारी राक्षसों को लटका दिया जाए तो देश में अब दवाइयों और ऑक्सीजन की कमी नहीं होगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर केवल रूखमणी से मिलने के लिए ही कोलकाता से इतनी दूर आए हैं। उस जमाने में कोलकाता से बिलासपुर की ट्रेन यात्रा आज की तरह निरापद और शीघ्रगामी कहां रही होगी।
हम कल्पना कर सकते हैं उस समय कोलकाता से बिलासपुर की यात्रा कितनी कठिन तथा दूभर रही होगी। तब भी गुरुदेव ने रूखमणी से मिलने और जितनी भी राशि उनके पास है, वह सब उसे दे देने के लिए ही इस दुर्गम यात्रा का चुनाव किया था।
रेलवे स्टेशन के बड़े बाबू गुरुदेव पर कुपित हो रहे थे कि रूखमणी जैसी साधारण कुली की पत्नी, जो स्टेशन पर झाड़ू पोंछा किया करती थी, वह कहां गई? इसके बारे में भला कौन बता सकता है ?
गुरुदेव बड़े बाबू के सामने तब भी इस आशा के साथ खड़े हुए हैं कि शायद रूखमणी के बारे में कुछ पता चल सके, ताकि वे जिसकी खोज में इतनी दूर आए हैं, उससे उनकी भेंट संभव हो सके।
बड़े बाबू और गुरुदेव की बात सुनकर वहीं खड़ा हुआ टिकट बाबू हंसने लगा, फिर उसने बताया कि महीने भर पहले ही वे लोग शायद दार्जिलिंग या खुसरूबाग या पता नहीं कहां चले गए हैं। आगे टिकट बाबू ने यह भी जोड़ा कि उनके और कितने ठिकाने होंगे, यह कौन जानता है।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में इस प्रसंग का इस तरह से चित्रण किया है-
‘टिकट बाबू बलले हेंसे
तारा मासेक आगे
गेछे चले दार्जिलिंग
किंबा खसरूबागे
किम्बा आराकाने
शुधई जतो ठिकाना
तारा केऊ कि जाने’
रेल्वे स्टेशन के बड़े बाबू, टिकट बाबू और वहां बैठे सभी लोग विरक्त हो रहे हैं। गुरुदेव से कह रहे हैं वे यहां से कहां गए इसे भला कोई जान सकता है। उनके नए ठिकाने से किसी को क्या मतलब होगा।
गुरुदेव कैसे अपने हृदय को चीर कर दिखाएं, कैसे अपने हृदय में संचित भावनाओं को किसी के सामने प्रकट करें, कि रूखमणी को खोजते हुए वे यहां तक क्यों आए हैं ?
अपनी भावनाओं को प्रकट कर देने पर भी लोग क्या उसे ही मूर्ख सिद्ध करने नहीं लग जायेंगे ? क्या उसका ही उपहास नहीं उड़ायेंगे, कि रेल्वे स्टेशन पर झाड़ू पोंछा करने वाली एक अत्यंत साधारण सी महिला के लिए वे इतनी दूर से क्यों आए हैं।
यह जानकर तो लोग खुश ही होंगे कि उन्होंने अपनी पत्नी की बात न मान कर कम से कम पच्चीस रुपए तो बचा ही लिए। हर समझदार आदमी यही करता है, तो गुरुदेव ने भला क्या गलत किया। यह दुनिया तो ऐसे ही दुनियादारों से अटी पड़ी है, जिनके लिए भावनाओं और करुणा का कोई मोल ही नहीं।
उन सबके लिए अपने स्वार्थ तथा धन संग्रहण ही पृथ्वी की सबसे अनमोल संपत्ति है। संगीत, नृत्य चित्रकला, कविता, प्रकृति उनके लिए अर्थहीन है। ऐसे लोग गुरुदेव की पीड़ा को, उसके मर्म को भला कैसे समझ सकते हैं।
गुरुदेव की पीड़ा तो क्या किसी भी मनुष्य की पीड़ा और संवेदना को भी ऐसे लोग क्या कभी समझ पाते हैं ?
अपनी इस अथाह वेदना को गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में कुछ इस तरह से व्यक्त किया है-
‘तार ठिकानाय कार आछे
कोन काज
केमन करे बोझाई आमि
ओगो आमार आज’
गुरुदेव की वेदना को केवल गुरुदेव ही समझ सकते थे, गुरुदेव के हृदय सागर में उठ रही भावनाओं के ज्वारभाटा को गुरुदेव के अतिरिक्त कोई और नहीं जान सकता था।
गुरुदेव बिलासपुर रेल्वे स्टेशन पर अपार वेदना के भार में डूबे हुए समझ नहीं पा रहे हैं कि वे जीवनपर्यंत इस भार से कैसे मुक्त हो सकेंगे।
बिलासपुर रेल्वे स्टेशन पर अपना माथा किसी दीवार पर टिका कर गुरुदेव मन ही मन सोच रहें हैं, रूखमणी अगर मिल जाती तो उसे अपना सब कुछ सौंप कर निश्चिंत हो जाते और वापस कोलकाता लौट जाते।
मृणालिनी से किए गए छल से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते। पर हाय रे दुर्भाग्य ! उसे यह कौन सा दिन दिखला रहा है। हे निष्ठुर विधाता ! उसे कौन से पाप की इतनी बड़ी सजा दे रहा है।
गुरुदेव इस छोटे से रेल्वे स्टेशन की न जाने कितनी बार परिक्रमा कर चुके हैं, पर रूखमणी आज उन्हें स्टेशन पर कैसे मिल सकती थी, वह तो महीने भर पहले ही बिलासपुर छोड़ कर अपने पूरे परिवार के साथ न जाने कहां चली गई थी।
गुरुदेव का हृदय क्लांत है, चोखेर जल पलकों से बाहर आकर कभी भी भूमि पर टपक सकते हैं। गुरुदेव की आंखें जैसे किसी शून्य में विलीन हो गई हैं।
गुरुदेव केवल और केवल रूखमणी के बारे में ही सोच रहें हैं। उसकी फूल सी बेटी का ब्याह हुआ या नहीं, हुआ भी होगा तो वह अपनी बेटी को कोई आभूषण कैसे दे पाई होगी।
कोई माता-पिता अपनी बेटी के ब्याह में एक छोटा सा भी आभूषण न दे सके, तो उन पर क्या बीतती होगी? गुरुदेव सोच रहें है और उनकी आंखों से चोखेर जल किसी उद्दाम नदी की भांति बहता चला जा रहा है । (शेष अगले हफ्ते)
पहनावे के तौर पर जीन्स जितनी लोकप्रिय और आरामदेह है, पर्यावरण के लिए उतना ही बड़ा सरदर्द बन गयी है. जीन्स कारोबार के लिए ये दुविधा की स्थिति है. सुझाव बहुत से हैं लेकिन समस्याएं भी कम नहीं.
डॉयचे वैले पर थॉमस गॉर्डन मार्टिन का लिखा-
जब भी आप नई जीन्स खरीदते हैं तो समझिए कि अपना नल खुला छोड़कर 21 घंटे तक पानी बहाते रहते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि डेनिम का कपड़ा, कॉटन से बनता है और कॉटन उगाने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में पानी चाहिए होता है. एक जीन्स को तैयार करने में दस हजार लीटर पानी खर्च होता है. दुनिया में चौथी सबड़े बड़ी अंतःस्थलीय झील के रूप में विख्यात, अरल सागर का अधिकांश भाग सूख चुका है, इसकी एक वजह है यूरोपियन यूनियन के लिए मध्य एशिया में होने वाली सघन कॉटन खेती. बहुत बड़े पैमाने पर जीन्स चलन में है. हर साल दो अरब जीन्स खरीदी जाती हैं. लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था.
पर्यावरण संकट के लिए कुख्यात होता जीन्स उद्योग
1850 के दशक में फ्रांसीसी शहर निम्स से डेनिम का अमेरिका को निर्यात किया गया था. तभी इस कपड़े का ना नाम पड़ा "डे निम्स.” उसे खान मजदूरों की पोशाक के लिए एक मजबूत कपड़ा माना जाता था. सौ साल पहले जीन्स ने अन्य संस्कृतियों में अपनी जगह बनाई और फिर मुख्यधारा की पोशाक बन गयी. अब जीन्स उद्योग पर्यावरण संकट का हिस्सा बन गया है और ये दाग हटाने के लिए ये समझना जरूरी है कि डेनिम आखिर यहां तक कैसे आ पहुंचा. कैसे वो हवा, पानी और मजूदरों के फेफड़ों को प्रदूषित करता है. वो न सिर्फ बहुत सारा पानी इस्तेमाल करता है बल्कि एक नुकसानदेह प्रदूषक भी है.
लिवाइस का अनुमान है कि उनकी जींस का एक जोड़ा वायुमंडल में करीब साढ़े 33 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है- कार से एक हजार किलोमीटर से ज्यादा के सफर के बराबर. डेनिम से इतना अधिक सीओटू उत्सर्जन इसलिए है क्योंकि वो कपड़ा चीन और भारत जैसे देशों में तैयार होता है जहां बिजली के लिए कोयला एक मुख्य स्रोत है. डेनिम का ट्रेडमार्क नीला रंग सिंथेटिक नील की डाई के जरिए मिलता है जिसका नाता साइनाइड जैसे जहरीले रसायन से है. गंदे पानी के ट्रीटमेंट के लिए पैसा न देना पड़े, इसके लिए कंपनियां इन रसायनों को नदियों में डम्प कर देती है. 2019 के एक अध्ययन के दौरान बांग्लादेश में फैक्ट्रियों से निकले टेक्सटाइल डाई के अंश, पास ही उगायी जा रही फसलों में पाए गए थे.
काम के लिहाज से भी खतरनाक है डेनिम की फैक्ट्री
डेनिम फैक्ट्री में काम करना भी घातक हो सकता है. सैंडब्लास्टिंग को ही लीजिए. इस तरीके के तहत बहुत ज्यादा प्रेशर वाले होज पाइप से बालू का डेनिम पर छिड़काव किया जाता है. उससे जीन्स थोड़ा घिसी हुई दिखती है और उपभोक्ताओं में काफी पसंद भी की जाती है. इस प्रक्रिया में रेत के बारीक कण मजदूरों की सांस में मिल जाते हैं जिससे उन्हें फेफड़ों की जानलेवा बीमारी सिलिकोसिस होने की आशंका रहती है.
15 साल की उम्र में बेगो देमिर तुर्की की एक डेनिम सैंडब्लास्टिंग फैक्ट्री में काम करते थे जहां उनके देखते देखते 120 लोग सिलिकोसिस से मारे गए. देमिर ने डॉयचेवेले को बताया, "सैंडब्लास्टिग में आठ साल काम करने के बाद, मेरे आधे फेफड़े बेकार हो चुके हैं."
देमिर तुर्की में क्लीन क्लोद्स कैम्पेन (सीसीसी) के समन्वयक हैं. इस अभियान के तहत ही 2009 में सैंडब्लास्टिंग गैरकानूनी घोषित हो पायी थी. लेकिन अब ये लड़ाई, सैंडब्लास्टिंग की जगह इस्तेमाल हो रहे पोटैशियम परमैंगनेट के खिलाफ भी शुरू हो चुकी है. सीसीसी के लिए तैयार 2019 की एक रिपोर्ट में देमिर ने पाया कि तुर्की की डेनिम फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर पोटैशियम परमैंगनेट का इस्तेमाल करते हैं जिसकी वजह से उन्हें दमा और त्वचा पर खुजली की शिकायत होने लगी थी.
देमिर का कहना है कि दुनिया भर में डेनिम के उत्पादन में अब भी बड़े पैमाने पर पोटैशियम परमैंगनेट का इस्तेमाल किया जा रहा है. वह कहते हैं, "ब्रांड तो मानो इंतजार करते हैं कि उनके न रहने के बाद ही कुछ करेंगे. सैंडब्लास्टिंग फैक्ट्रियों में भी उनका यही रवैया था. बहुत सारे मजदूरों की मौत के बाद ही ब्रांड हरकत में आए थे."
डेनिम की अतिउत्पादन की समस्या
जीन्स की आपूर्ति और मांग की तीव्रता को बनाए रखने के चलते बड़े पैमाने पर और जरूरत से ज्यादा डेनिम का चौतरफा उत्पादन हो रहा है. जैसे अमेरिका को ही लीजिए जहां उपभोक्ताओं के पास औसतन सात जोड़ी जीन्स रहती है. 2017 में जीन्स उद्योग की कीमत 56 अरब डॉलर थी और आज कोविड-19 से पैदा हुई वैश्विक मंदी के बावजूद उद्योग फलफूल रहा है. ये व्यापार पूरब से पश्चिम का रुख करता है और उसका ध्यान एशिया-प्रशांत क्षेत्र में और वृद्धि पर टिका है.
मिसाल के लिए, बांग्लादेश, यूरोप के लिए डेनिम का सबसे बड़ा निर्यातक देश है और अमेरिका के लिए तीसरा सबसे बड़े निर्यातक है. बांग्लादेश की राजधानी ढाका का हा-मीम डेनिम 2007 में शुरू होने के बाद छह गुना वृद्धि कर चुका है. वो इस समय अमेरिका और यूरोप के बाजारों के लिए हर महीने चार हजार किलोमीटर – यानी न्यू यॉर्क और लॉस एंजेलिस शहरों के बीच की दूरी के बराबर डेनिम बना रहा है. हा-मीम डेनिम के जनरल मैनेजर रवीन्द्र शाह ने डायचेवेले को बताया "हम लोग फैशन ब्रांडों से लेकर टेस्को और लीड्ल जैसे ग्रॉसरों तक के लिए डेनिम बनाते हैं. हम लोग सबकी मांग पूरी करते हैं. उन्हें जो उत्पाद चाहिए, हम मुहैया कराते हैं."
वैश्विक मांग को संतुष्ट करते हुए डेनिम उद्योग सस्ती, लचीली जीन्स का इस्तेमाल बढ़ाने की तरफ मुड़ा है. ये कॉटन और पेट्रोल-आधारित इलास्टिक फाइबर को मिलाकर तैयार की जाती है. इस इलास्टिक को रिसाइकिल करना कठिन है. ये बायोडिग्रेडेबल नहीं है और इस तरह डेनिम के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को और बढ़ाता है.
हा-मीम फैक्ट्री में बनने वाला कोई 90 प्रतिशत डेनिम, लचीले फैब्रिक्स के साथ मिलाकर बनाया जाता है क्योंकि, रवीन्द्र शाह के मुताबिक "आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है. " उनके कहने का आशय ये है कि उपभोक्ता की पसंद, उद्योग की दिशा को प्रभावित करती है.
बायोडिग्रेडेबल फैब्रिक का रुख
लेकिन प्रवृत्तियां बदल रही हैं. 2020 में अमेरिकी परामर्शदाता एजेंसी मैकेंजी एंड कंपनी ने अमेरिका और यूरोप के खरीदारों के बीच एक सर्वे किया और उनसे पूछा कि क्या कोविड-19 ने फैशन के प्रति उनके रुझान को बदला है या नहीं. नतीजों में दिखाया गया कि 67 प्रतिशत लोग नये कपड़े खरीदते हुए अब टिकाऊ सामग्रियों को एक महत्त्वपूर्ण फैक्टर मानने लगे हैं.
कुछ ब्रांड वैकल्पिक डेनिम में निवेश कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, टिकाऊ ढंग से व्यवस्थित जंगलों में उगे पेड़ों की छाल के सेलुलोज से बना टेनसेल टीएम नाम के एक बायोडिग्रेडेबल फैब्रिक ने लिवाइस, क्लोज्ड और किंग्स ऑफ इंडिगो जैसे जानेमाने डेनिम ब्रांडों के साथ करार किए हैं.
इटली के मिलान शहर के नजदीक स्थित कानिडियानी कंपनी ने प्राकृतिक रबर कोरेवा से एक लचीली डेनिम बनायी है जो मिट्टी में विषैले पदार्थ मिलाए बिना छह महीने में ही जैविक रूप से नष्ट हो सकती है. कानिडियानी की वेबसाइट इसे "डेनिम इंडस्ट्री के लिए गेम चेंजर" मानती है. क्योंकि ये "निर्णायक समाधान में योगदान करती है. "
डेनिम समझौता बचाएगा अरबों लीटर पानी
लेकिन आलोचकों ने आगाह किया है कि टिकाऊ फैब्रिक का इस्तेमाल ही मामले का अकेला हल नहीं है. उद्योग को ओवर प्रोडक्शन पर काबू पाना ही होगा. डेनिम की चक्रीय अर्थव्यवस्था का समर्थन करने वाले गैर लाभकारी संगठन, द हाउस ऑफ डेनिम के सह संस्थापक जेम्स वीनहॉफ ने डॉयेचेवेले को बताया, "कॉटन को बायोडिग्रेड करने का पूरा विचार ही व्यर्थ है. लाओ, बनाओ, इस्तेमाल करो और फेंक दो."
अक्टूबर में वीनहॉफ ने ऐम्सटर्डम में एक डेनिम समझौते की अगुआई भी की जिसमें टॉमी हिलफिगर जैसे 30 नामीगिरामी डेनिम ब्रांडों ने 2023 तक नीदरलैंड्स में 20 प्रतिशत तक रिसाइकिल किए हुए फैब्रिक से कम से कम तीस लाख डेनिम उत्पाद बनाने की प्रतिबद्धता पर दस्तखत किए थे. नीदरलैंड्स के बाजार में हर साल दो करोड़ तीस लाख डेनिम चीजें बिक जाती हैं. अब इस डेनिम समझौते के तहत 15 अरब लीटर से ज्यादा पानी बचा लेने का लक्ष्य रखा गया है.
डेनिम की जड़ों की ओर लौटते हुए
बाकी वस्त्र उद्योग की तरह, डेनिम का बड़े पैमाने पर उत्पादन की लागत अब कोई राज़ नहीं रहा है और यही उद्योग अब बहुत सारे समाधानों की तलाश और बहस का मंच बन चुका है. लंबे समय से टिकाऊ फैशन के प्रमोटर और सस्टेनेबिलिटी के लिए जागरूक करने वाले संगठन रीमोकी में सलाहकार डालिया बेनेफाटो बताती हैं, "हम बातचीत के चरण में हैं. सफर शुरू हो चुका है."
बेनेफाटो का मानना है कि डेनिम को अपने उद्देश्य को फिर से खोजना चाहिए. इसके लिए, उपभोक्ताओं को भी इसका इतिहास समझने की जरूरत है- कामगार की पोशाक से लेकिन काउंटरकल्चर के एक प्रतीक तक.
वह कहती हैं, "1980 के दशक में, बाजार ने उपभोक्ता को विद्रोही बनने पर जोर दिया था. और आज हमें एक बार फिर से बगावत करनी होगी. हमें इसकी ब्रांडिंग शुरू करनी होगी और उपभोक्ता को एक पर्यावरणीय नायक के रूप में, हरित आंदोलन के लिए जूझते एक नये विद्रोही के रूप में महसूस कराना होगा." (dw.com)
भारत में हर साल 80 प्रतिशत बारिश उन चार महीनों में ही पड़ जाती है जो किसानों के लिए बड़े अहम हैं. समर मॉनसून की ये बरसात सामान्य नहीं है बल्कि कुछ असाधारण भौगोलिक कारणों से बेकाबू हो चुकी है.
डॉयचे वैले पर अजीत निरंजन का लिखा-
जिस देश की 20 प्रतिशत अर्थव्यवस्था खेती पर टिकी हो, वहां फसलों को बहा ले जाने वाली भारी बारिश के भुखमरी बढ़ाने की आशंका ज्यादा होती है. अपने भोजन के लिए भारत में एक अरब से ज्यादा लोग अस्थिर और अनिश्चित जलवायु व्यवस्था पर निर्भर हैं. दो अलग-अलग अध्ययनों के मुताबिक अरब प्रायद्वीप में गर्मियों में उठने वाला धूल का तूफान और दुनियाभर में जलता जीवाश्म ईंधन, यहां भारी मौसमी बारिशों की वजह बन रहे हैं.
मौसमी उलटफेर की मार गरीब देशों पर
अप्रैल में अर्थ-साइंस रिव्यूज जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में बताया गया है कि पश्चिम एशिया (मध्यपूर्व) के रेगिस्तानों के वायुमंडल में दाखिल होने वाले धूल के कण, धूप से इतने गरम हो जाते हैं कि वे अरब सागर के ऊपर वायु के दबाव में भी बदलाव कर देते हैं. आसमान में इसके चलते एक किस्म का हीट पंप बन जाता है, जो महासागर के ऊपर से नमी को खींचता हुआ उसे भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर तान देता है. इसकी बदौलत ज्यादा बारिश वाला मॉनसून सीजन बनने लगता है जो हवाओं को और मजबूत करता हुआ, धूल के और ज्यादा कणों को ऊपर फेंकता रह सकता है.
दूसरा अध्ययन अर्थ सिस्टम्स डाइनेमिक्ट जर्नल में बुधवार को प्रकाशित हुआ. उसमें बताया गया है कि मानव-निर्मित जलवायु परिवर्तन भारत के समर मॉनसून को ज्यादा बरसाती और ज्यादा अस्थिर बना रहा है. सबसे ताजा जलवायु मॉडलों के जरिए जर्मनी में पोट्सडाम इन्स्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) के शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान में हर अतिरिक्त डिग्री का इजाफा, मॉनसून की बारिश में पांच प्रतिशत की वृद्धि कर देता है.
औद्योगिक क्रांति के दिनों से पृथ्वी पहले ही एक डिग्री सेल्सियस से ज्यादा गरम हो चुकी है. नवंबर में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व नेताओं की वैश्विक तापमान को इस सदी में डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक रखने की योजनाएं "निराशाजनक रूप से अपर्याप्त” हैं. इसी रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक गर्मी इसकी दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है. इस मामले में सबसे कम जिम्मेदार देश जैसे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- विशेष रूप से गरीब देश हैं. वे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए कुख्यात देशों की अपेक्षा कृषि पर ज्यादा निर्भर हैं और मौसम की अत्यधिकताओं से पहले ही पीड़ित हैं.
पीआईके से जुड़ी प्रमुख लेखक आन्या कात्सेनबर्गर कहती हैं, "जैसा पहले सोचा जाता था - समर मॉनसून के लिहाज से - और ज्यादा संवेदनशील है. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के जरिए हमारे पास इन बदलावों की तीव्रता को आकार देने की ताकत है."
भारत में मॉनसून का बिगड़ा मिजाज
अंग्रेजी शब्द मॉनसून अरबी भाषा से आया हैः मौसम. इससे आशय हवाओं की दिशा में साल में दो बार होने वाले परिवर्तनों से है जो गर्मियों में जमीन पर ऊष्ण वर्षा (वॉर्म रेन) लाती है और सर्दियों में ठंडी सूखी हवा को समन्दर की ओर भेजती है. भारत के पश्चिमी घाट जैसे हिस्सों में, समर मॉनसून की आवाजाही, अर्ध-शुष्क पहाड़ों को हरेभरे लैंडस्केप में बदल देने की क्षमता रखती है.
साल दर साल बदलते रहने वाले मॉनसून से संचालित समयावधियों के हिसाब से किसान, हजारों वर्षों से चावल और गेहूं जैसी प्रमख खाद्य फसलें उगाते और काटते रहे हैं. लेकिन जैसे जैसे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से वायुमंडल अवरुद्ध हो रहा है, धूप रुकने लगी है और धरती गरम रहने लगी है, वैज्ञानिक मानते हैं कि मॉनसून और ज्यादा अस्तव्यस्त होता जाएगा.
कात्सेनबर्गर कहती हैं, "भविष्य में बारिश इतनी बेकाबू होती जाएगी तो किसानों के सामने उतनी भारी मात्रा में होने वाली बारिश से निपटने की चुनौती भी होगी." वह कहती हैं कि पहली नजर में देखें तो बरसात में इजाफा फसल के लिए अच्छा संकेत हो सकता है लेकिन बहुत ज्यादा ही होने लगेगी तो कुछ फसलों की पैदावार बहुत ही कम रह जाएगी.
खेती पर निर्भर समाज की चुनौतियां
बहुत से भारतीय अपने जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर हैं और उनकी फसलें बारिश की विभिन्नताओं के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील हैं. तीन अलग अलग संस्थानों से जुड़े जलवायु विशेषज्ञों ने डॉयचेवेले को ईमेल से बताया कि पीआईके का अध्ययन पिछले जलवायु मॉडल से मिलता-जुलता है जिसमें बताया गया है कि ग्रीन हाउस गैसों का लेवल बढ़ने से भारत में समर मॉनसून का मिजाज भी बिगड़ता जाएगा और बारिशें ज्यादा होंगी.
ब्रिटेन में रीडिंग यूनिवर्सिटी में मॉनसून सिस्टम्स के एसोसिएट प्रोफेसर एंड्रयू टर्नर कहते हैं, "सबसे हालिया मॉडलों पर आधारित ये नया शोधपत्र पुरानी रिसर्च को ही सपोर्ट करता है."
वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी वैंकूवर में स्कूल ऑफ एन्वायरोमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर दीप्ति सिंह कहती हैं कि इस अध्ययन में पाया गया है कि "कम उत्सर्जन वाली स्थितियों में प्रोजेक्ट की गयी सहने योग्य तपिश के दौरान भी मॉनसून बिगड़ सकता है. एक प्रमुख निष्कर्ष ये है कि इन सबसे नये क्लाइमेट मॉडलों में मॉनसून की और ज्यादा घोषित तीव्रता का अनुमान लगाया गया है."
लेकिन विश्लेषण में शामिल सभी नये क्लाइमेट मॉडल, मॉनसून सर्कुलेशन का सही सही अनुकरण नहीं करते हैं. इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मटियरियोलॉजी में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च से जुड़े रॉक्सी मैथ्यू का कहना है, "इससे नतीजों में भरोसा कम होता है. फिर भी एक बात ये है कि तमाम जलवायु मॉडल प्रक्षेपण इस बात से सहमत हैं कि अत्यधिक बरसात की घटनाएं तो बढ़ेंगी ही. बल्कि पर्यवेक्षणों में तो ये बात पहले ही दिखती है."
एरोसोल से मिलने वाली स्थानीय ठंडक
वैज्ञानिक मॉनसून के पैटर्न को समझने की जद्दोजहद में लगे हैं क्योंकि वे प्रतिस्पर्धी कारकों पर निर्भर रहते हैं. जलवायु परिवर्तन वैसे तो धरती को गरम कर रहा है लेकिन भू उपयोग में बदलाव और वाहनों के धुएं और फसल को जलाने से होने वाला एरोसोल उत्सर्जन ठंडक पहुंचाने वाला एक फैक्टर है.
1950 से भारत में समर मॉनसून की बारिश वास्तव में कम हुई है. वैज्ञानिक मानते हैं कि ऐसा, ऊर्जा को सोखने वाले एरोसोल्स के धूप को मद्धम करने वाले प्रभाव की वजह से होता है. टर्नर कहते हैं कि ये प्रभाव "अगले 10 या 20 वर्षों में ग्रीनहाउस गैसों की बदौलत होने वाली मॉनसूनी वर्षा वृद्धि को कुछ हद तक भड़काता रह सकता है." भले ही अधिकांश एरोसोल कम बरसात लाते हैं, तब भी कुछ ऐसे हैं जिनका असर विपरीत होता है.
ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने की चुनौती
धरती पर सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों वाले दक्षिण एशिया पर लटकी हुई ब्लैक कार्बन और सल्फेट की मोटी परतें सतह को ठंडा करती है और मॉनसून बारिश में कटौती करती हैं. तब भी खाड़ी से उड़कर आने वाली खनिज धूल वातावरण को गरम कर देती है और बारिश में वृद्धि करा सकती हैं. अर्थ-साइंस रिव्यूज जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक वैसे तो बहुत से अध्ययन इस पर सहमत हैं कि ये धूल के एरोसोल भारत के समर मॉनसून को मजबूत बनाते हैं. लेकिन बारिश कैसे और कहां होगी- इसे लेकर उनके आकलन बहुत भिन्न हैं.
अमेरिका में कन्सॉ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक चिनज्यान जिन कहते हैं कि इन प्रक्रियाओं को समझकर, मॉडल बनाने वालों को बारिश का अनुमान लगाने में बेहतर मदद मिल सकती है. ईमेल के जरिए उन्होंने बताया, "भले ही पिछले कई दशकों में हमने काफी तरक्की कर ली है लेकिन मॉनसून के बारे में हमारी समझ बहुत सीमित है." भारत में समर मॉनसून की बारिश के लिए शताब्दी के प्रारम्भ से ही ग्लोबल वॉर्मिंग, एरोसोल उत्सर्जन जैसी दूसरी इंसानी गतिविधियों से ज्यादा जिम्मेदार रही है. कात्सेनबर्गर का कहना है, "इस शताब्दी के शेष समय में भी ऐसा ही बना रहने का अनुमान है." (dw.com)
भारत प्रशासित कश्मीर में घरेलू हिंसा के मामले अमूमन दर्ज नहीं होते. इसकी एक वजह मीडिया की राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित रहने की प्रवृत्ति है. पर्यवेक्षक कहते हैं कि सामाजिक संघर्षों के कारण महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी है.
डॉयचे वैले पर रिफत फरीद का लिखा-
सात साल की लाइजा ने आख़री बार अपनी मां को वीडियो कॉल पर देखा था जब वह एक अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थीं. उनका चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था और उनका शरीर बुरी तरह से जला हुआ था. मां की एक झलक पाने के बाद लाइजा ने फोन को फेंक दिया क्योंकि इस दुखद स्थिति में वह अपनी मां को ज्यादा देर नहीं देख सकती थी.
28 साल की शाहजादा दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग जिले के ऐशमुकाम गांव की रहने वाली हैं और उनकी शादी नौ साल पहले मखूरा गांव में हुई थी. उनका वैवाहिक जीवन कभी सुखद नहीं रहा. 25 मार्च को तो इंतहां ही हो गई जब उनके पति और ससुराल वालों ने उन्हें कथित तौर पर आगे के हवाले कर दिया.
अस्पताल में रिकॉर्ड किए गए अपने एक वीडियो संदेश में शाहजादा कांपती आवाज में कह रही हैं कि उनके पति, सास और ससुर ने उनके ऊपर केरॉसिन डालकर आग लगा दी. शाजादा ने अपने बयान में बताया कि वह पिछले कई साल से घरेलू हिंसा की शिकार हो रही थीं.
इस घटना के नौ दिन बाद शाहजादा की श्रीनगर के महाराजा हरि सिंह अस्पताल में मौत हो गई. शाहजादा अपने पीछे एक बेटी और डेढ़ साल का एक बेटा छोड़ गई हैं.
इस घटना ने न सिर्फ शाहजादा के गांव में विरोध प्रदर्शनों को भड़का दिया बल्कि इस इलाक़े में घरेलू हिंसा जैसे लगभग उपेक्षित मुद्दे पर चर्चा को हवा दे दी.
‘वे जानवर हैं'
शाहजादा के दोनों बच्चे अब ऐशमुकाम गांव में अपने ननिहाल में रहते हैं. लगातार अविश्वास और सदमे में रह रहा शाहजादा का परिवार अपनी बेटी और बच्चों की मां के लिए शोकाकुल है. उन लोगों के मुताबिक, शाहजादा सुंदर और बहादुर थी.
शाहजादा की साठ वर्षीया मां डीडब्ल्यू को बेहद दुखी मन से बताती हैं, "उसके पति ने हमें आधी रात को फोन किया और ये कहते हुए अस्पताल आने को कहा कि उसने खुद को आग लगा ली है. लेकिन हमें इस बात पर भरोसा नहीं हुआ, हम समझ गए कि कुछ गलत हुआ है.”
शाहजादा की मां आगे ये भी बताती हैं कि उनकी बेटी आमतौर पर अपने पति की हिंसा का शिकार होती रहती थी. वह कहती हैं, "जब हम अस्पताल पहुंचे तो हमने देखा कि उसका पूरा शरीर जल चुका था. पैरों का चमड़ा शरीर के भीतर जा चुका था. नौ दिनों तक वह मौत से लड़ती रही. उसने हमें वह पूरी कहानी बताई कि किस तरह से ससुराल वालों ने उसके कपड़ों पर मिट्टी का तेल छिड़क कर माचिस से आग लगा दी. शाहजादा ने हमें बताया कि जब उसकी चमड़ी (त्वचा) जल रही थी तो उसे कितना दर्द हुआ. ये लोग इंसान नहीं बल्कि जानवर हैं.”
शाहजादा की मां अब उसके दोनों बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. लाइजा और उसका छोटा भाई घटना के वक्त सो रहे थे लेकिन लाइजा को अपनी मां की चिल्लाने की आवाज अभी भी याद है जिसकी वजह से उसकी नींद टूट गई थी.
शाहजादा की मां कहती हैं, "उसकी मां के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी वजह से वह अभी भी सदमे में है. शाम को जब हम सब भोजन कर रहे थे तो वो कहने लगी कि मैं कब्र में अपनी मां के साथ सोना चाहती हूं. हम चाहते हैं कि दोषियों को कड़ी सजा मिले.”
भारत-प्रशासित कश्मीर में घरेलू हिंसा पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं होती और न ही ऐसी घटनाओं को मीडिया कवरेज मिलता है जबकि ऐसी घटनाएं आमतौर पर होती रहती हैं और यह एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसका दायरा काफी बड़ा है.
एक यह भी बड़ा मुद्दा है कि यहां महिलाओं के आश्रय स्थलों की भी कमी है.
घरेलू हिंसा के बढ़ते मामले
संघर्ष से प्रभावित इस इलाके में पिछले दो साल से लैंगिक आधार पर हिंसा में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. इसके पीछे एक कारण यह भी है कि यहां लगातार लॉकडाउन की स्थिति जारी है जिसकी वजह से लोग अपने घरों में ही सीमित होकर रह गए हैं.
अगस्त 2019 में भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे को खत्म करते हुए राज्य को दो संघशासित क्षेत्रों में बांट दिया. किसी तरह के प्रतिरोध को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने लॉकडाउन लागू कर दिया और संचार माध्यमों को बंद कर दिया. कई महीनों बाद कुछ प्रतिबंधों के साथ इनमें ढील दी गई.
उसके बाद मार्च 2020 में कोरोना वायरस के संक्रमण को देखते हुए प्रशासन ने दोबारा लॉकडाउन लगा दिया.
भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से इस इलाके की चिंताजनक स्थिति का पता चलता है. इसके मुताबिक, साल 2019-20 में 18 से 49 साल के बीच की करीब 9.6 फीसद कश्मीरी महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं.
शाहजादा को आग के हवाले करने की घटना के कुछ दिन बाद 10 अप्रैल को अनंतनाग जिले में ही 32 साल की एक और महिला ने अपनी ससुराल में आत्महत्या कर ली. महिला के परिजनों ने उसके ससुराल वालों पर आरोप लगाया कि उसके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया और उसे आत्महत्या करने के लिए उकसाया गया.
दोनों ही मामलों में जांच जारी है. श्रीनगर में एक पुलिस हेल्पलाइन केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक, घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के फोन कॉल्स में तेजी से बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है.
साल 2019 में हेल्पलाइन में इस तरह की 55 कॉल्स आईं जबकि साल 2020 में इनकी संख्या बढ़कर 177 हो गई. हालांकि ऐसी फोन कॉल्स की संख्या में तेज बढ़ोत्तरी पिछले तीन महीनों में दर्ज हुई हैं जब घरेलू हिंसा से संबंधित मामलों में 120 फोन कॉल्स हेल्पलाइन नंबर्स पर दर्ज की गईं.
जानकारों का कहना है कि सैकड़ों मामले तो पुलिस में दर्ज ही नहीं हो पाते क्योंकि अक्सर महिलाएं डर के मारे शिकायत करने ही नहीं आती हैं.
पीड़ितों की मदद
पुलिस घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की मदद का दावा भले ही करती हो लेकिन सच्चाई यह है कि महिलाओं की जरूरत के हिसाब से यह मदद बहुत ही कम है.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया, "इस इलाके के सभी थानों में महिलाओं के लिए इमर्जेंसी रिस्पॉन्स सिस्टम है जिसे खुद महिलाएं ही संचालित करती हैं. यदि बहुत ही गंभीर मामला होता है तो संबंधित पुलिस थाने को मदद के लिए सूचित किया जाता है. उसके बाद जरूरी कानूनी कार्रवाई की जाती है.”
कश्मीर विश्वविद्यालय में महिला अध्ययन विभाग में प्रोफेसर शाजिया मलिक डीडब्ल्यू से बातचीत में कहती हैं कि कई महिलाएं घरेलू हिंसा को चुपचाप सहन करती रहती हैं और उनके परिजन इसे छिपा ले जाते हैं.
प्रोफेसर मलिक कहती हैं, "मुझे लगता है कि लोग ऐसी घटनाओं को छिपा ले जाते हैं. वे लोग इसे परिवार के सम्मान के साथ जोड़ने लगते हैं. इससे पहले भी कई महिलाएं जलाई गई हैं और उनकी जघन्य तरीके से हत्या हुई है.”
शाजिय मलिक कहती हैं कि महिलाओं के पास मदद का भी कोई सांगठनिक ढांचा नहीं है जिससे उन्हें चुप रहना पड़ता है. वह कहती हैं, "यदि कोई जघन्य हत्या या फिर आग लगा देने जैसी घटनाएं होती हैं तो यह मीडिया में आ जाता है और लोग इसके बारे में जान जाते हैं. लेकिन रोज-रोज होने वाली तमाम घटनाओं की ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता है. यदि हिंसा की घटना को पहले दिन से ही गंभीरता से लिया जाने लगे तो ऐसी जघन्य घटनाओं की स्थिति को शायद रोका जा सके. महिलाओं को इसलिए भी ये सब झेलना पड़ता है क्योंकि उनके पास संपत्ति का अधिकार नहीं है, परिवार का सहयोग नहीं है और न ही उनके पास कोई वित्तीय स्वतंत्रता है.”
श्रीनगर में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता इजाबिर अली डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "मामले चिंताजनक हैं. महिलाएं हर समय पुलिस तक पहुंच नहीं पाती हैं क्योंकि यहां की स्थिति ही ऐसी है. महिलाओं के मामले में कुछ और कदम उठाए जाने जरूरी हैं, मसलन, घरेलू हिंसा से संबंधित कानून कठोर किए जाएं और उनकी सुनवाई जल्दी हो. कश्मीर में हर महिला के पास अपना हाल बयां करने के लिए ढेरों कहानियां हैं लेकिन परिवार के दबाव और सामाजिक ढांचे ने उनके होंठ सिल रखे हैं.”
वह कहते हैं, "घरेलू हिंसा का शिकार महिलाओं और निजी संबंधों के मामलों में महिलाओं की मदद करने का कोई कायदे का तरीका नहीं है. बाहर निकलने पर महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर सकती हैं. महिला आयोग तो पिछले कई साल से एक मृतप्राय संस्था बनी हुई है. इन परिस्थितियों में महिलाएं सहयोग और समर्थन के लिए किसके पास जाएं?” (dw.com)
-रति सक्सेना
यूं तो आज की स्थिति में चुनाव चर्चा भी अश्लील मानी जा सकता है। माना भी चाहिये, लेकिन मैं केरल से एक ऐसा सन्दर्भ ले कर आ रही हूं, जो केवल मेरी स्टडी है।
देखिये केरल में लेफ्ट वापिस आ रही है, नहीं जिनाब, विजयन और शैलजा वापिस आ रही हैं। वह इसलिए कि जैसे ही केरल में लाकडाउन शुरु हुआ विजयन के नेतृत्व में ऐसे निर्णय लिए गये जो अपूर्व थे।
आप कहेंगे कि इसमें खास क्या है?
जी खास है, क्यों कि केरल दो बाढ़ आपदाओं से निकला है। धन के अभाव की स्थिति होती है, लेकिन कम लोग जानते हैं कि केरलीय अपने प्रदेश को दान भी खूब देते हैं।
सबसे बड़ी बात थी कि पूरे कोविद काल में विजयन खुद आकर पत्रकारों से ब्रीफिंग करते थे। कभी भी आरोपण का जवाब नहीं देते, शान्त अडिग शब्दों में सही ब्यौरा, कोई नाटक बाजी नहीं। इस बार फिर उन्होंने यह कार्यक्रम आरम्भ कर दिया।
साथ ही उन्होंने जो काम कर रहा था, उसे फ्रीडम दी, बाकी शक्ति अपने पास रखी. उन्होंने लेफ्ट की ब्रिगेडर टीम आरम्भ की , जो घर- घर जाकर सहायता करते थे, शैलजा टीचर के सहायक केन्द्र के नम्बर अभी भी काम करते हैं, मैंने खुद कुछ दिन पहले फोन किया था।
जो नुक्सान मन्दिर मस्जिद की राजनीति से बीजेपी ने करवाया था, विजयन दीवार से अडिग खड़े रहे.. बाद में केरल में धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उनकी कमेटी बनवा दी, जिसमें विरोधी पार्टी के अधिक रहे। निसन्देह जब सरकार विरोध ही नहीं कर रही तो विरोधियों को भी ध्यान रखना पड़ा, जैसे कि अनेक चर्चाओं के बाद पूरम उत्सव हुआ, लेकिन सरकार नियमों के अनुसार, यहां विरोधी पार्टी भी हक्की बक्की थी, कि विरोध किसका करें. लेकिन ऐतिहायत से, क्यों कि जवाबदेही उनकी बनती है।
चुनाव की रणनीति
केरल में वोटर परम्परा गत होते हैं, हर परिवार जन्मजात पार्टी वर्कर होता है, लेकिन विजयन नें इस बार महिलाओं को स्वतन्त्र निर्णय लेने को बाधित किया। वे हर राशन कार्ड को 18 समाग्रियों का बैग मुफ्त देते रहे, जी हां हमे भी मिला, जिसे मैंने मेरी सहायिका जी को दे दिया था, इसमें चाय पत्ती से लेकर गुड़, रवा, दाल चावल सब कुछ था। हर कामगार के बैंक में हजार रुपये मासिक पहुंच गये।
जिस वक्त महिलाओं के मर्द घर में बैठे उपद्रव कर रहे थे, उनका चूल्हा जल रहा था, और कामगार महिलाएँ घरों में काम भी कर रही थीं। लॉकडाउन में भी घर सहायिकाओंं को निकालना जरूरी नहीं हुआ था, और आप नहीं चाहते हैं तो सवेतन छुट्टी दें। मैंने अपनी सहायिका जी को सात महिने बिना काम के वेतन दिया था। मुझे कोई खेद ही नहीं, क्यों कि केरल में रह कर हम सब की मानसिकता ही कामगार सहयोगी बन गई है। यह मानसिकता है, ध्यान रखिये, बनानी पड़ती है।
अब कान्ग्रेस की गलती क्या हुई, वह यह कि कान्ग्रेस बी जे पी के साथ खड़ी दिखाई देने लगी, गोल्ड काण्ड में घमासान हड़ताल करना, प्रदर्शन करना, इससे केरल की जाथा प्रेमी जनता भी नाराज हो गई, भई, क्यों करोना फैला रहे हो, कान्ग्रेस मन्दिर के मामले में भी बी जे पी के साथ खड़ी दिखाई दी, और लगातार प्रदर्शन करती रही, वह इस भुलावे में रही कि केरल तो जाथा प्रेमी है, इन हड़तालों, प्रदर्शनों से खुश हो जायेगा। इस तरह एक अच्छी आवाज पश्चातल में चली गई, क्यों कि लोग समझने लगे कि करोना क्या है। यदि कांग्रेस सरकार में होती तो निश्चय, वह भी अच्छा काम करती, जैसा कि उसका स्वभाव है, लेकिन इस वक्त वह भटकावे में आ गई। मछुआरों ने सेल्फी तो राहुल के साथ ली, वोट राशन वाले को दिया।
केरल में लाकडाउन पूरा बहुत कम समय के लिए था, लाकडाउन समय में भी मछली बिकती थी, और सहायता केन्द्र काम कर रहे थे। दूध साग घर घर पहुंचाने के लिए ्र रू नामक सरकार सहयोगी संस्था अच्छा काम कर रही है़ कारुण्य और सेवा और कुटुम्ब श्री ने बाजार अपने हाथ में ले लिया, छोटी- छोटी दूकाने शुरु हुई, जिसके लिए सरकार ने फण्ड दिया, जो केवल महिलाओं द्वारा चलाई जाती है, यहां राशन कार्ड भी महिलाओं के नाम हैं, क्यों कि मर्द लोग राशन बेच कर शराब पी लेते थे, तो नारी शक्ति बढ़ी ही।
सबसे बड़ी बात मैं यह कहूंगी कि विजयन अपने काम के अलावा विरोधियों पर हमले नहीं करते, उनके हमलों का जवाब भी नहीं देते, और कांन्ग्रेस लैफ्ट की आम आदत के रूप में चल रही थी। लेफ्ट की आदत है, वह आक्रमण करता है, लेकिन इस बार विजयन के प्रभाव से किसी मंत्री ने उल्टा सीधा नहीं कहा। विजयन ने युवाओं को पार्टी में ऊंचे ओहदे दिये. ये सब पढ़े लिखे हैं, इसलिए एक नवीन शिक्षित वर्ग को आकर्षित किया। इनमें भी संख्या महिलाओं की अधिक है।
जैसे कि त्रिवेन्द्रम की मेयर एक छात्रा है, हां यह जरूर है कि वह पीढिय़ों से लैफ्ट दर्शन की है। लेकिन इस वक्त कांग्रेस सरकार की मदद कर रही है, कांग्रेसी नेता जैसे कि करुणाकरण का परिवार आदि भी खुलकर दान दे रहे हैं, लेकिन बीजेपी के केन्द्र मंत्री पोस्ट लिख रहे हैं कि यह धन मंत्रियों के खाते में जायेगा। विजयन से जब यह पूछा गया तो उन्होंने हंस कर कहा इस पर मैं क्या कह सकता हूं, जिसके जैसे विचार।
मेरे ख्याल से कांग्रेस को अपनी सहायक सेवा समिति बनानी चाहिये, घर-घर जाकर लोगो की मदद करनी चाहिये, गांधीवाद की याद करना चाहिये, बेकार नक्ल नहीं करनी चाहिये।
बीजेपी के लिए क्या कहा जाये, मंदिर को लेकर कितना चलोगे, हां अभियन्ता जी जीत जायेंगे क्यों कि वे पालघाट के उस भाग से खड़े हैं, जो तमिल ब्राह्मण मन्दिर सेवी समाज है, वह तो चरण सेवा करेगा ही, लेकिन सर जी को सरकार बनाने का सपना छोडऩा ही पड़ेगा।
सार इतना,
राजनेताओं प्रत्यारोपण मत करो, सिर्फ काम करो, काम जनता के पास पहुंचता है, चाहे देर से ही, फिर देखिये कि आप इतिहास बदल सकते हैं।
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना महामारी की रफ्तार जितनी तेज होती जा रही है, देश में उतना ही ज्यादा हड़कंप मचता जा रहा है। टीवी पर श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों के दृश्य देखकर लोगों का दिल बैठा जा रहा है। लेकिन देश के कोने-कोने से ऐसे सैकड़ों-हजारों लोग भी निकल पड़े हैं, जो अपना तन, मन, धन लगाकर मरीज़ों की सेवा कर रहे हैं। उनका जिक्र कुछ अखबारों में जरुर हो रहा है लेकिन हमारे टीवी चैनलों को क्या हुआ है ? वे उन दृश्यों को क्यों नहीं दिखाते? कई लोग आक्सीजन सिलेंडर मुफ्त में भर रहे हैं, कई मुफ्त वेक्सीन अपनी तरफ से लगवा रहे हैं, कुछ लोग जरुरतमंदों को रेमडेसिविर का इंजेक्शन सही कीमत पर उपलब्ध करवा रहे हैं। कुछ लोग अपनी जान हथेली पर रखकर मरीजों के लिए एंबूलेंस चला रहे हैं। उन डाॅक्टरों और नर्सों के क्या कहने, जो मौत के खतरे के बावजूद मरीजों की सेवा कर रहे हैं। अब टीके की कीमत भी घटी है और सरकार मुफ्त में भी टीके उपलब्ध करवा रही है लेकिन असली सवाल यह है कि नौजवानों को लगनेवाले करोड़ों टीके कब तक उपलब्ध होंगे ?
ऑक्सीजन एक्सप्रेस और विदेशी ऑक्सीजन यंत्रों के आयात के बावजूद दर्जनों लोग ऑक्सीजन के अभाव में दम क्यों तोड़ रहे हैं? चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के चुनाव-परिणाम के बाद की रैलियों पर प्रतिबंध लगाकर ठीक किया लेकिन बंगाल, तमिलनाडु और केरल के आंकड़े प्रतिदिन छलांग लगा रहे हैं। कुंभ में स्नान करनेवाले 35 लाख लोग अब इस महामारी को गांवों तक ले गए हैं। वहां न पर्याप्त अस्पताल हैं, न ऑक्सीजन है, न इंजेक्शन हैं। ऐसा लगता है कि जनसंख्या के हिसाब से मरीजों का अनुपात भारत में जो अभी एक-सवा प्रतिशत है, वह शीघ्र ही दुगुना-तिगुना हो जाएगा। ऐसी हालत में सरकार क्या कर पाएगी? ऐसी बुरी हालत में भी नेता लोग राजनीति करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को उप-राज्यपाल की जेब में इसी वक्त डाल देना कहां तक ठीक है ? कोरोना की लड़ाई में अभी विदेशों से जो भरपूर मदद की खबरें आ रही हैं, उन पर फूहड़ प्रतिक्रियाएं भी की जा रही हैं। कहा जा रहा है कि मोदी ने भारत को भिखारी बना दिया है। यह मानवीय मदद किसी व्यक्ति-विशेष की वजह से नहीं, भारत की अपनी वजह से आ रही है। उन देशों के लोगों के सीने में वही दिल धड़कता है, जो हमारे सीने में धड़क रहा है। भारतीय लोगों में अद्भुत सेवा-भाव है। उन्होंने दर्जनों देशों को मुफ्त वेक्सीन बांटी है। अब जो मुसीबतों का पहाड़ उस पर टूट पड़ा है, अपनी और सरकार की लापरवाही के कारण, वह उस पर भी विजय पाकर रहेगा। भारत हारेगा नहीं, जीतेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अंकित जैन
सीएमसी, वेल्लोर
नीति नियंता (beurocrates and health care) विमान को पायलट चलाते है, एक कमर्शियल पायलट बनने के लिए करीब 3-4 साल की ट्रेनिंग और 1500 घंटों का फ्लाइट एक्सपीरियंस चाहिए होता है। बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है। पायलट को जब हवाई जहाज उतराना होता है तब एयरपोर्ट पर एक एयर ट्रैफिक कंट्रोलर होता है जो पायलट को विमान को हवाई अड्डे पर उतरवाने में मदद करता है।
एयर ट्रैफिक कंट्रोलर बनने के लिए भी कम से कम 5 साल लग जाते हैं, क्योंकि ये भी बड़ी जिम्मेदारी का काम है। एक एयर ट्रै्रफिक कंट्रोलर पायलट की मदद करता है, किसी दिन जब अनिर्णय की स्थिति होती है तो अंतिम निर्णय पायलट का ही होता है उसे कब, कैसे, कहाँ,ंंं वह विमान को उतरेगा।
अब सोचिये की एयर ट्रैफिक कंट्रोलर की जगह एक इतिहास, समाजिक शास्त्र या पोलिटिकल एडमिनिस्ट्रेशन जैसे विषय पड़े हुए आदमी को बिठा दे और उसको पायलट का बॉस भी बना दे तो आप सोचिये क्या होगा। जो पायलट विमान को इतने वर्षों से निर्बाध रूप से उड़ा रहा था अब उसे एक अनुभवहीन व्यक्ति की बातें सुननी पड़ेगी और माननी पड़ेगी। प्लेन क्रैश होंगे और लोगो की जिंदगियां खतरे में पड़ जाएंगी।
ठीक ऐसा ही कुछ हुआ है हमारे हेल्थ केअर सिस्टम के साथ, हमने उस विषय के वरिष्ठ जानकार और अनुभव प्राप्त व्यक्ति के ऊपर एक इतिहास, समाजशास्त्र, और पोलटिकल ड्डस्र पड़े हुए नौकरशाह व्यक्ति को बैठा दिया। अब सारे निर्णय वही लेता है जिसे न मेडिकल फील्ड का ज्ञान है ना अनुभव। अगर कोई विषय का जानकार उसे कुछ समझाना भी चाहे तो वह नही सुनता। बंद ड्डष् कमरों में बैठकर कुछ बयूरोक्रेट निर्णय लेते है जिसका धरातल से कोई संबंध नहीं, और अनुभवी पायलट की राय को भी दरकिनार कर दिया जाता है, नतीजा क्रैश पर क्रैश हुए जा रहे है और लोग मर रहे हैं।
अब एक बयूरोक्रेट डॉक्टर को बताता है कि मरीज का इलाज कैसे करना है, कब करना है, किस मरीज को द्बष्ह्व देना है, कौन सी दवाई आनी है कौन सी नही आई है । जब दुनिया के सारे देशों में कोरोना की दूसरी लहर ने हाहाकार मचाया तो हमारे देश में कोई तैयारी क्यों नहीं की।
क्या प्रधानमंत्री की टीम में कोई एपिडेमियोलॉजिस्ट था, और अगर था तो क्या उसे कोई ऑटोनोमी थी। अगर होती तो ये विकराल स्थिति होती ही नही। फरवरी में जब धीरे धीरे केसेस बढऩे शुरू हुए तभी डॉक्टर्स और एक्सपर्ट ने आशंका जतानी शुरू कर दी कि संभवत: दूसरी लहर आने वाली है पर इतिहास पड़े हुए किसी नौकर शाह ने कोई निर्णय नही लिया, नतीजा क्रैश।
आज भी जब नीतिया बनाई जा रही है तब क्या किसी भी बड़े निर्णय में रेजिडेंट डॉक्टर या मेडिकल ऑफिसर की राय ली जा रही है जो कि धरातल पर काम कर रहे है और आधारभूत समस्याओं को जानते है? अब एक नौकरशाह जिसने अपने जीवन मे सिर्फ एक एग्जाम पास की है वह नीतिया बनाता है और एक डॉक्टर जिसने 10 साल पढ़ाई की अनुभव लिया, जीतोड़ मेहनत कर नीट और ठ्ठद्गद्गह्लश्चद्द पास किया ( यकीन मानिए हृश्वश्वञ्ज श्चद्द निकालने में क्कस्ष्ट से कही अधिक परिश्रम लगता है) उसे कही रखा भी नही जाता।
अगर आपको किसी सरकारी संस्थान का नाम लेना हो जो अपने आप मे एक मिसाल है, जिसका नाम और काम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है तो जो नाम सामने आएगा वह है ढ्ढस्क्रह्र. क्या आप जानते है इसरो में ड्ढद्गह्वह्म्शष्ह्म्ड्डष्4 नहीं है , और जो थोड़े बहुत बयूरोक्रेट है वह भी ढ्ढस्क्रह्र के पदाधिकारियों के अनुसार काम करते है उनके मालिक नहीं बनते। अब आप फर्ज करे कि ISRO का डायरेक्टर कोई नौकरशाह होता तो क्या आज हम मंगलयान, या चंद्रयान बना पाते। क्या हम अंतरिक्ष मे वह मुकाम हासिल कर पाते जो हमारे वैज्ञानिकों ने कर दिखाया है। आज चिकित्सा और स्वास्थ्य को भी नौकरशाही से आजादी की दरकार है।
-कृष्ण कांत
किसी को भी जीवन की आखिरी यात्रा में कंधा चाहिए, वह कंधा हिंदू का हो या मुसलमान का, इससे फर्क नहीं पड़ता।
इलाहाबाद के हाईकोर्ट के जॉइंट रजिस्ट्रार हेम सिंह की पत्नी और बेटी की पहले ही मौत हो चुकी थी। वे इलाहाबाद में अकेले रह रहे थे। एक हफ्ते पहले हेम सिंह खुद कोरोना पॉजिटिव हुए। उन्होंने इटावा में रहने वाले अपने दोस्त सिराज अहमद चौधरी को सूचना दी। सिराज ने उनको एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया। अस्पताल ने पैसे मांगे तो सिराज ने दो लाख रुपये भी जमा कराए। हालांकि, हेम सिंह बच नहीं सके। इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई।
हेम सिंह की तबियत बिगड़ी तो सिराज को जानकारी दी गई। वे इटावा से भागकर इलाहाबाद पहुंचे। हेम सिंह की मौत के बाद सिराज ने उनके रिश्तेदारों को फोन किया। एक-एक करके कम से कम 20 रिश्तेदारों और परिचितों से बात की लेकिन कोई कंधा देने को तैयार नहीं हुआ। रिश्तेदारों ने कोरोना संक्रमण का हवाला देकर संस्कार करने से मना कर दिया। जब कोई तैयार नहीं हुआ तो सिराज अपने दोस्त का शव एम्बुलेंस में लेकर फाफामऊ श्मशान घाट पहुंचे। उन्होंने हेम सिंह के साथ रहने वाले संदीप और एम्बुलेंस के दो लडक़ों की मदद से अंतिम संस्कार किया। सिराज अहमद ने खुद मुखाग्नि दी। अंतिम संस्कार करने के बाद सिराज तीन दिन तक हेम सिंह के यहां ही रुके रहे।
सिराज को जब हेम सिंह की तबियत बिगडऩे की खबर मिली तो वे इटावा से अपनी बहन की सास के जनाजे में शामिल होने आगरा जा रहे थे। वे आगरा न जाकर इलाहाबाद दोस्त के पास आ गए। सिराज ने बताया, ‘अंतिम संस्कार के लिए हेम सिंह के एक करीबी रिश्तेदार को जब फोन किया तो सपाट जवाब मिला, आप लोग हैं तो हमारी क्या आवश्यकता है। आप लोग पर्याप्त हैं।’
रिश्तेदारों ने किनारा कर लिया। दोस्त कैसे छोड़ सकता था? उसने दोस्ती का फर्ज निभाया। दोस्त को अंतिम विदाई देने के लिए 400 किलोमीटर का सफर तय किया और दोस्त को सम्मानजनक विदाई दी।
सम्मानजनक अंतिम संस्कार किसी भी व्यक्ति का अधिकार है। हमारे पिता जी किसी का अंतिम संस्कार कराने में सबसे आगे रहते थे। कहते थे कि किसी व्यक्ति को सम्मान के साथ मुखाग्नि देना पुण्य का काम है। पाप और पुण्य का मुझे नहीं पता, लेकिन व्यक्ति को गरिमापूर्ण विदाई देना मानवता है।
संकट का समय सबक लेने का भी समय होता है। ये महामारी हमें सिखा रही है कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। हमारी गंगा जमुनी तहजीब कोई मिथक नहीं है। वह इस पावन धरती का संस्कार है जो हम सबकी रगों में है। इसीलिए आज जाति धर्म का बंधन तोडक़र एक मुस्लिम एक हिंदू को रीति रिवाज के साथ अंतिम विदाई दे रहा है।
आपस में प्रेमभाव बनाए रखें और किसी के कहने से किसी से नफरत न करें। कौन जाने आपकी अंतिम यात्रा में आपको किसका कंधा नसीब होगा।
-मनोज खरे
विज्ञान को तर्क, आर्ट और आस्था के नजरिये से समझना अत्यधिक खतरनाक है। यह सोशल मीडिया पर साल भर पोस्ट किए जाने वाले षड्यंत्र सिद्धांतों, कुछ अलग दिखने के लिए कोरोना को सामान्य बीमारी करार देने और देसी-घरेलू नुस्खों से कोरोना पर चामत्कारिक जीत का दावा ठोकने के वर्तमान हस्र से साबित हो गया है।
कोरोना की एक तेज और नई लहर ने ऐसे सब विद्वानों के दावों को ध्वस्त कर दिया है। पर इस क्रम में इन विद्वानों के लिखे पर भरोसा करने वाले कई लोग नुकसान उठा गए हैं और कई तो अपनी जान भी गवां बैठे हैं।
ये विद्वान ऐसे थे जो तर्क, लॉजिक, आस्था और स्वाभाविक बुद्धि के साथ स्कूल में पढ़े एलिमेंट्री साइंस के आधार पर कोरोना जैसी कॉम्प्लेक्स और छलिया बीमारी के चिकित्सा विज्ञान संबंधी प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। एक बार फिर से यहां दोहरा रहा हूं कि ऐसे किसी चक्कर में न पड़े। यह जानलेवा हो सकता है।
विज्ञान अपने प्रश्नों के उत्तर कैसे ढूंढता है, यहां इसे मैं एक सरल उदाहरण से स्पष्ट कर रहा हूँ। योग कहता है कि प्राणायाम से ब्लड प्रेशर में सुधार होता है। यह अनुभवजन्य हो सकता है पर वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं है। बाबा रामदेव अपने शिविरों में अनेक भागीदारों के मुंह में माइक अड़ा कर टेस्टिमनी दिलवाते थे कि कैसे पांच दिन में उनका बीपी एकदम कम हो गया। यह अवैज्ञानिक विधि है।
अब देखिए प्राणायाम के बीपी पर प्रभाव को विज्ञान कैसे जांच सकता है। अध्ययनकर्ता बीपी के रोज गोलियां खाने वाले, मान लीजिए 1000 मरीजों का रैंडम चयन करेगा। उनके औसत बीपी और दवा के डोज का डेटा एकत्र करेगा फिर रेंडमली 500-500 के दो ग्रुपों में बांट देगा। अब ग्रुप-1 के सदस्यों से रोज निर्धारित तरीके और मात्रा में तीन महीने तक लगातार प्राणायम करने को कहा जायेगा। ग्रुप-2 को कोई टास्क नहीं दिया जाएगा। तीन माह बाद दोनों ग्रुपों के औसत बीपी और दवाइयों की जरूरत में आए बदलावों के आंकड़े एकत्र करेगा। दोनों ग्रुपों के सदस्यों के आंकड़ों के विश्लेषण और तुलना से पता लगेगा कि ग्रुप-1 को ग्रुप-2 की तुलना में कितना फायदा होगा। यह प्राणायाम के प्रभाव का वैज्ञानिक आकलन होगा। अध्ययन की सैम्पल साइज जितनी अधिक होगी, निष्कर्ष उतने ही प्रामाणिक माने जाएंगे।
पर इतना भर नही। यह अध्ययन चिकित्सा जर्नल में प्रकाशित किया जाएगा। दूसरे शोधकर्ता इस अध्ययन का पिअर रिव्यू करेंगे और जब इसे व्यापक स्वीकृति मिल जाएगी तब अध्ययन के निष्कर्ष वैज्ञानिक निष्कर्ष बन जाएंगे। प्राणायाम के अध्ययन के लिए मोटे तौर वैज्ञानिक विधि का एक उदाहरण मात्र है जो सामान्य लोगों की समझ के लिए पेश किया गया है। इसके अध्ययन के लिए अन्य विधियां डिजाइन की जा सकती हैं।
तो मॉरल ऑफ स्टोरी यही है कि कोरोना पर वैज्ञानिक विषय के एक्सपर्ट जो निष्कर्ष देते हैं, सिर्फ उन्हीं पर भरोसा कीजिए और किसी पर नहीं। किसी पर यानि किसी पर नहीं।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।
कोरोना के पहले दौर के बाद भारत की सरकारों और जनता ने जो लापरवाही की थी, उसे अब सारा देश भुगत रहा है। इस वक्त कोरोना से एक दिन में हताहत होने वालों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा हो गई है। यह बहुत दुखद है लेकिन इस गणित का दूसरा पहलू भी है। वह यह है कि पिछले साल से अब तक भारत में कुल 1 करोड़ 80 लाख लोगों को कोराना हुआ है और उनमें से 2 लाख लोगों की मौत हुई है।
देश की लगभग 140 करोड़ की आबादी में से 1.1 प्रतिशत लोगों की मौत हुई। मौत का यह प्रतिशत सिर्फ तुर्की (0.80) से ज्यादा है जबकि अमेरिका, यूरोप और अन्य महाद्वीपों के कई देशों में यह प्रतिशत भारत से दुगुना-तिगुना और कई गुना है। अमेरिका में 5.7 लाख, ब्राजील में 3.9 लाख और मेक्सिको में 2.15 लाख लोग मरे हैं। वे देश भारत के मुकाबले कितने छोटे हैं। ऐसा तब है जबकि उनमें से कई देशों में चिकित्सा-सुविधाएं भारत से कहीं बेहतर और सुलभ हैं।
यदि भारत में कुंभ का मेला और पांच राज्यों की बड़ी-बड़ी चुनावी सभाएं नहीं होतीं और करोड़ों लोग सावधानियां बरतते तो भारत दुनिया के सामने एक आदर्श उपस्थित कर सकता था लेकिन जो हो गया, सो हो गया, अब हमें आगे की सुध लेनी चाहिए। हमारे सर्वोच्च न्यायालय और कई उच्च न्यायालय काफी सक्रियता दिखा रहे हैं। कई बार उनकी भाषा और राय अतिवादी-सी लगती हैं लेकिन कोरोना के युद्ध में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
मद्रास हाईकोर्ट की आलोचना का ही शायद यह परिणाम है कि चुनाव आयोग ने चुनाव-परिणाम आने के बाद होने वाली रैलियों और सभाओं पर रोक लगा दी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कोरोनाग्रस्त जजों के लिए अशोक होटल में इलाज की विशेष व्यवस्था करनेवा ली दिल्ली सरकार को काफी आड़े हाथों लिया है। उसने दिल्ली में चल रही दवाइयों और इंजेक्शनों की कालाबाजारी पर भी दिल्ली सरकार को रगड़ा लगा दिया है। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि प्राणरक्षक चीजों की कालाबाजारी करनेवाले राक्षसों में से एक को भी अब तक फांसी पर क्यों नहीं लटकाया गया है ?
नौजवानों को भी अब टीका लगेगा लेकिन इतने टीके है कहां ? टीकों की संख्या और कीमतों पर भी काफी विभ्रम फैला हुआ है। केंद्र सरकार इस मामले पर सख्त रवैया क्यों नहीं अपनाती ? अब तक हमारी सरकार पड़ौसी देशों को टीके देकर वाहवाही लूट रही थी लेकिन अब चीन भी इस मैदान में उतर आया है।
उसने दक्षिण एशियाई राष्ट्रों को टीका देने के लिए दूर-सम्मेलन किया है लेकिन उसमें भारत, भूटान और मालदीव के अलावा सभी देशों ने भाग लिया है। यह ठीक है कि समर्थ देशों का भरपूर सहयोग भारत को मिल रहा है लेकिन अब भी लोग महामारी-संहिता का उल्लंघन कर रहे हैं और पुलिस को करोड़ों रु. जुर्माने में भर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
जिस तरह से मद्रास हाईकोर्ट द्वारा चुनाव आयोग पर की गई तल्ख टिप्पणियों को मीडिया में स्थान मिला है और जनता के एक बड़े वर्ग द्वारा इनका स्वागत किया गया है इससे यह स्पष्ट होता है कि आम जन मानस भी कोविड-19 की दूसरी लहर के प्रसार के लिए चुनाव आयोग के अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को उत्तरदायी समझता है। मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री बनर्जी ने 26 अप्रैल की सुनवाई के दौरान कहा- आप(चुनाव आयोग) वह एक मात्र संस्था हैं जो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। न्यायालय के हर आदेश के बावजूद रैलियों का आयोजन कर रही पार्टियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। संभवतः आपके चुनाव आयोग पर हत्या का आरोप लगना चाहिए। सुनवाई के दौरान एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा- जब इन राजनीतिक रैलियों का आयोजन हो रहा था तब क्या आप अन्य ग्रह पर थे। मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने उस बहुचर्चित प्रश्न पर भी अपनी स्पष्ट राय रखी जो आजकल बार बार पूछा जा रहा है-इन चुनावों का आयोजन न केवल संवैधानिक बाध्यता है बल्कि यह नैतिक रूप से सही है क्योंकि आम नागरिकों को समय पर अपनी सरकार चुनने का अधिकार है। क्या इस वैश्विक महामारी के भय से आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को निलंबित रखा जा सकता है? माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा- जन स्वास्थ्य एक सर्वोच्च अधिकार है और यह क्षोभजनक है कि संवैधानिक प्राधिकारियों को इस संबंध में स्मरण दिलाना पड़ता है। जब कोई नागरिक जीवित रहेगा तब ही वह उन अधिकारों का लाभ उठा सकेगा जिनकी गारंटी कोई लोकतांत्रिक गणराज्य करता है।----स्थिति अब स्वयं को बचाने और खुद की रक्षा करने की है, बाकी सब कुछ बाद में आता है।
मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का यह कथन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सरकार का अब भी मानना है कि चुनावों के आयोजन का कोविड-19 की इस दूसरी लहर से कोई संबंध नहीं है। देश के गृह मंत्री श्री अमित शाह ने कहा- पांच राज्यों में आए कोविड मामलों के उछाल के लिए हमें चुनावों को दोषी नहीं ठहराना चाहिए। चुनाव आवश्यक हैं और आवश्यक सावधानियों तथा सुरक्षा उपायों के साथ इनका आयोजन अवश्य होना चाहिए।
बहरहाल चुनावों की आवश्यकता के निर्धारण के गृह मंत्री के अपने पैमाने हैं तभी जम्मू-कश्मीर में चुनाव अलग-अलग कारण बताकर टाले गए हैं और वहां की जनता निर्वाचित सरकार प्राप्त करने के लोकतांत्रिक अधिकार की बाट जोह रही है जबकि इन पांच राज्यों में स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में चुनाव का आयोजन कर जन स्वास्थ्य को गंभीर संकट में डाला गया है।
मद्रास हाईकोर्ट के इस सख्त रवैये से बहुत ज्यादा उत्साहित होने की जरूरत नहीं है। उसकी इस कड़ी टिप्पणी के बावजूद यह सवाल अब भी अनुत्तरित ही है कि जब मद्रास हाईकोर्ट द्वारा 22 मार्च को राजनीतिक दलों एवं चुनाव आयोग से यह सुनिश्चित करने हेतु कहा गया था कि रैलियों के दौरान लोग मास्क पहनें और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें तब चुनाव आयोग एवं राजनीतिक पार्टियों ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह प्रश्न है कि जब बारंबार मद्रास हाईकोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन हुआ तो उसने वैसा कठोर रुख क्यों न अपनाया जैसा आज दिखा रहा है जब वह कोविड प्रोटोकाल का पालन न होने पर मतगणना रोकने की बात कह रहा है।
इसी प्रकार कलकत्ता हाईकोर्ट ने 22 अप्रैल को ऐसे ही एक विषय पर सुनवाई करते हुए कहा- चुनाव आयोग कार्रवाई करने हेतु अधिकृत है किंतु वह इस कोविड काल में मतदान के दौरान क्या कर रहा है? कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि चुनाव आयोग का कर्त्तव्य परिपत्र जारी करना और आंतरिक बैठकें करना ही नहीं है। चुनाव आयोग ने मात्र इतना ही करके अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली है और सब कुछ जनता पर छोड़ दिया है। जिस याचिका पर कलकत्ता उच्च न्यायालय सुनवाई कर रहा था उसमें याचिकाकर्ता का कहना था कि चुनाव आयोग को कोविड गाइडलाइंस का पालन कराने हेतु कोई संवैधानिक शक्तियां प्राप्त नहीं है और इसलिए न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए।
मद्रास हाईकोर्ट की भांति ही कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कठोर टिप्पणियां तो कीं किंतु पश्चिम बंगाल में बाकी चरणों के चुनाव एक साथ कराने या कोविड-19 की परिस्थितियां सुधरने के बाद शेष सीटों पर चुनाव कराने जैसे किसी कदम से उसने भी परहेज किया। चुनाव आयोग को विरोधी दल शेष चरणों का चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दे चुके थे जिसे उसने ख़ारिज कर दिया था। चुनाव आयोग ने भाजपा के रुख का समर्थन किया जिसने विरोधी दलों के इस सुझाव का विरोध किया था। कलकत्ता हाईकोर्ट का तो यह मानना था कि वैश्विक महामारी के दौर में भी उपयुक्त तरीके से चुनाव का सुरक्षित संचालन कर चुनाव आयोग को एक उदाहरण प्रस्तुत करना था एवं प्रजातंत्र को आगे बढ़ाना था।
मद्रास और कलकत्ता हाई कोर्ट का यह कठोर रुख आशा से अधिक चिंता उत्पन्न करता है। यह सख्ती तब दिखाई गई है जब चुनाव प्रक्रिया बंगाल को छोड़कर शेष राज्यों में पूर्ण हो चुकी है और बंगाल में भी अंतिम चरण में है। जब राजनीतिक दल कोविड नियमों की धज्जियां उड़ा रहे थे तो न्यायालय भी चुनाव आयोग की भांति मूक दर्शक बना हुआ था। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों एवं राज्य शासन को पत्र लिख रहा था और न्यायालय चुनाव आयोग को निर्देश दे रहा था। एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की इस हास्यास्पद प्रक्रिया के दौरान चुनाव सम्पन्न होते रहे और कोविड-19 की दूसरी लहर बेलगाम होकर फैलती रही।
इन चुनावों को इस प्रकार सम्पन्न कराया गया मानो यह वैश्विक महामारी समाप्त हो चुकी है। राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग के व्यवहार में सुधार लाने के प्रयोजन से अनेक लोग न्यायालय की शरण में गए। उत्तरप्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने जब दिल्ली उच्च न्यायालय में इस आशय की याचिका दायर की कि चुनावों में कोविड नियमों का लगातार उल्लंघन करने वाले प्रचारकों और प्रत्याशियों की चुनाव में भागीदारी पर रोक लगाई जाए तब भी दिल्ली उच्च न्यायालय ने 8 अप्रैल को चुनाव आयोग को कोविड प्रोटोकॉल के पालन हेतु जन जागरूकता फैलाने के निर्देश तो दिए लेकिन मूल विषय पर सुनवाई 30 अप्रैल को निश्चित की जब इन विधानसभा चुनावों के लिए मतदान पूर्ण हो जाता।
अब जब चुनाव हो चुके हैं तो अदालतों और चुनाव आयोग में स्वयं को निष्पक्ष और स्वतंत्र सिद्ध करने की होड़ लग रही है।मुख्य चुनाव आयुक्त ने बंगाल में कोविड-19 प्रोटोकॉल के पालन की समीक्षा बैठक के दौरान 24 अप्रैल को कहा- हमें इस बात को लेकर चिंता है कि सार्वजनिक प्रचार के दौरान आपदा प्रबंधन कानून 2005 का क्रियान्वयन आवश्यकता के अनुसार नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की एग्जीक्यूटिव कमिटी पर कोविड एप्रोप्रियेट बिहेवियर का पालन कराने की जिम्मेदारी है। जिले का सरकारी अमला ही चुनाव कार्यों के साथ साथ आपदा प्रबंधन कानून के क्रियान्वयन हेतु उत्तरदायी है। ऐसा ही उत्तर चुनाव आयोग ने मद्रास हाईकोर्ट में 28 अप्रैल को दिया जब उन्होंने कहा- "कोविड प्रोटोकॉल का पालन कराना स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की जिम्मेदारी है, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और भीड़ को एकत्रित होने दिया।" निश्चित ही अब राज्य सरकारों की तरफ से भी कोई दिखावटी और सजावटी जवाब आता होगा।
यदि इस जवाब तलब और वाद विवाद को कोई व्यक्ति विभिन्न स्वतंत्र लोकतांत्रिक संस्थाओं द्वारा अपनाई गई सहज प्रक्रिया के रूप में देखता है तो यह उसका भोलापन ही है। यह संस्थाएं सचमुच निष्पक्ष होने की बजाए खुद को निष्पक्ष जाहिर करने की कोशिश कर रही हैं। सच्चाई यह है कि इन चुनावों का आयोजन और संचालन जिस लापरवाही से जितनी भयंकर परिस्थिति में हुआ है वह सीधे सीधे जनता के जीवन से खिलवाड़ माना जा सकता है और न्यायालय अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।
यदि केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी को ऐसा नहीं लगता कि 8 चरणों में बंगाल चुनाव होने पर ही वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकती है (क्योंकि तब केंद्रीय सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती हर संवेदनशील विधानसभा क्षेत्र में हो सकती थी) तब भी क्या कोरोना की दूसरी लहर के बीच इतने लंबे चुनाव के लिए चुनाव आयोग तैयार होता? क्या चुनाव आयोग में इतना साहस था कि वह आदरणीय प्रधानमंत्री जी, गृह मंत्री जी और केंद्रीय मंत्रिमंडल के अनेक प्रमुख सदस्यों द्वारा रैलियों के दौरान कोविड प्रोटोकॉल के खुलेआम उल्लंघन पर कोई कार्रवाई करता ? यदि प्रधानमंत्री स्वयं कहते कि बंगाल और अन्य राज्यों में केवल डिजिटल चुनाव प्रचार होगा तो क्या चुनाव आयोग और न्यायालय इस सुझाव को खारिज कर सकते थे? यदि प्रधानमंत्री यह प्रस्ताव देते कि कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए ये चुनाव एक ही चरण में संपन्न कर लिए जाएं तो क्या इसे अस्वीकार कर दिया जाता? क्या चुनाव आयोग और न्यायपालिका आदरणीय प्रधानमंत्री जी के किसी अनुचित आचरण या इच्छा के विरोध का नैतिक साहस रखते हैं?
न्यायालय का यही रवैया कोरोना की दूसरी लहर के लिए उत्तरदायी समझे जा रहे उत्तराखंड में आयोजित कुंभ मेले के संदर्भ में देखा गया जब यह स्वीकारते हुए भी कि कुंभ मेले के समय भारी भीड़ एकत्रित होगी, राज्य शासन की तैयारियां चिंताजनक रूप से घोर अपर्याप्त हैं तथा यह मेला कोविड-19 के प्रसार का केंद्र बन सकता है, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने इस संभावना पर विचार तक नहीं किया कि न्यायिक हस्तक्षेप कर कुम्भ मेला रोका भी जा सकता है।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री यह कहते रहे कि "कुंभ में मां गंगा की कृपा से कोरोना नहीं फैलेगा। कुंभ और मरकज की तुलना करना गलत है। मरकज से जो कोरोना फैला वह एक बंद कमरे से फैला, क्योंकि वे सभी लोग एक बंद कमरे में रहे। जबकि हरिद्वार में हो रहे कुंभ का क्षेत्र नीलकंठ और देवप्रयाग तक है।" इधर संक्रमण बुरी तरह फैलता रहा,अनेक शीर्षस्थ संत संक्रमित हुए और इनमें से एक की मृत्यु के बाद अखाड़े भी कुंभ से हटने लगे किंतु लगभग सारे प्रमुख स्नानों तक कुंभ अबाधित चलता रहा। इस दौरान उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने स्वयं को परिपत्र और निर्देश जारी करने तक सीमित रखा।
लगभग इसी कालावधि में जामा मस्जिद ट्रस्ट द्वारा बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिका लगाई गई जिसमें उन्होंने 7000 लोगों को स्थान देने की क्षमता रखने वाली एक मस्ज़िद में केवल 50 लोगों को कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए रमजान के महीने के दौरान धर्म पालन के अधिकार के तहत नमाज अदा करने की अनुमति माँगी। किंतु बॉम्बे हाई कोर्ट ने 14 अप्रैल को यह याचिका खारिज करते हुए कहा- यद्यपि समाज के सभी अंगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए किंतु किसी पर्व के आयोजन के लिए -चाहे वह किसी विशेष धार्मिक समुदाय के लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो- जीवन और जन स्वास्थ्य के अधिकार की बलि नहीं दी जा सकती।
एक ऐसी ही मिलती जुलती याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने 15 अप्रैल को एक निजामुद्दीन मरकज को दिन में 5 बार नमाज अदा करने के लिए केवल 50 लोगों को प्रवेश देने की अनुमति प्रदान की साथ ही कोविड नियमों के पालन की सख्त हिदायत भी दी।
क्या बॉम्बे और दिल्ली हाई कोर्ट जैसा सख्त रुख उत्तराखंड उच्च न्यायालय नहीं अपना सकता था? क्या उत्तराखंड उच्च न्यायालय का व्यवहार बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय के प्रति केंद्र और राज्य सरकार की अतार्किक सहानुभूति से प्रभावित नहीं था? क्या बॉम्बे और दिल्ली हाई कोर्ट ऐसा कठोर रुख तब भी लेते यदि यह याचिका बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक आस्थाओं से सम्बंधित होती? यह प्रश्न अवश्य पूछे जाएंगे।
बहरहाल सारे जिम्मेदार व्यक्तियों और संवैधानिक संस्थाओं की अनदेखी के कारण कोरोना की दूसरी लहर विनाशक बन गई और देश में दवाओं, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, बिस्तरों तथा अन्य आवश्यक सुविधाओं के अभाव में अराजकता का वातावरण बन गया। लोग अपने अपने प्रदेशों के उच्च न्यायालय की शरण में जाने लगे। उच्च न्यायालय भी प्रो एक्टिव रवैया अख्तियार करने लगे। तब अब तक मौन धारण करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सक्रिय हुए और उन्होंने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन इस विषय पर सुनवाई की। कठिन पलों में केंद्र सरकार की याचित-अयाचित सहायता की सफल-असफल कोशिशों के आरोपों से सदैव घिरे रहने वाले आदरणीय बोबडे जी ने इस सुनवाई का कारण बताते हुए कहा- हम न्यायालय के रूप में कुछ मुद्दों का स्वतः संज्ञान लेना चाहते हैं। हम देखते हैं कि दिल्ली, बॉम्बे, सिक्किम, मध्यप्रदेश, कलकत्ता और इलाहाबाद हाई कोर्ट अपने न्यायिक अधिकार क्षेत्र का सर्वश्रेष्ठ उपयोग कर रहे हैं। हम इसकी प्रशंसा करते हैं। किंतु इससे भ्रम और संसाधनों के व्यपवर्तन की स्थिति पैदा हो रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- "इन उच्च न्यायालयों द्वारा कतिपय आदेश पारित किए गए हैं जिनका प्रभाव कुछ लोगों को सेवाओं की तीव्रतर और प्राथमिकता के साथ उपलब्धता के रूप में दिख रहा है। (किंतु) कुछ अन्य समूहों(चाहे वे स्थानीय, क्षेत्रीय या अन्य समूह हों) के लिए इन सेवाओं की उपलब्धता इन आदेशों के कारण धीमी हुई है।" यह आश्चर्यजनक है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी इस टिप्पणी के समर्थन में उच्च न्यायालयों द्वारा पारित किसी आदेश विशेष का उल्लेख नहीं किया।
अनेक विधि विशेषज्ञों ने श्री हरीश साल्वे के एमिकस क्यूरी के रूप में चयन पर यह कहते हुए आपत्ति उठाई कि श्री साल्वे वेदांता की ओर से तूतीकोरिन कॉपर प्लांट को ऑक्सीजन उत्पादन हेतु खोलने विषयक याचिका हेतु सर्वोच्च न्यायालय में ही पक्ष रख रहे हैं। इस प्रकार हितों के टकराव की स्थिति बन रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस आपत्ति पर अप्रसन्नता व्यक्त की।
बहरहाल श्री बोबड़े की सेवानिवृत्ति के बाद इसी विषय पर 27 अप्रैल को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट का रुख कुछ बदला बदला नजर आया। उसने स्पष्ट किया कि उसका उद्देश्य उच्च न्यायालयों की भूमिका को समाप्त या कम करना नहीं है। वह उच्च न्यायालयों से कोविड-19 विषयक उन मामलों को नहीं लेगा जिनकी सुनवाई वे कर रहे हैं। उच्च न्यायालय उनकी अपनी क्षेत्रीय सीमाओं के मध्य वैश्विक महामारी के प्रसार संबंधी घटनाक्रम पर नजर रखने हेतु बेहतर स्थिति में हैं। राष्ट्रीय संकट की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय मूक दर्शक बना नहीं रह सकता। हमारी भूमिका पूरक प्रकृति की है। यदि हाई कोर्ट अपनी क्षेत्रीय सीमाओं के कारण किसी मुद्दे पर कठिनाई का अनुभव करते हैं तो हम उनकी सहायता करेंगे। हमें राज्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने जैसे कुछ राष्ट्रीय विषयों पर हस्तक्षेप करने की आवश्यकता पड़ सकती है।
जब सरकारें संवेदनहीन हो जाती हैं, जब राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति को ही अपना चरम-परम लक्ष्य बना लेते हैं तब जनता के लिए न्यायालय अंतिम शरण स्थली होती है। कोविड-19 की इस विनाशकारी लहर के दौरान स्पष्ट कुप्रबंधन और अव्यवस्था के कारण लोगों की मृत्यु हो रही है। वे किससे गुहार लगाएं? इस संकट काल में भी न्याय किसी ईमानदार और निष्पक्ष न्यायाधीश की सांयोगिक उपस्थिति पर ही निर्भर है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-प्रकाश दुबे
मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी और न्यायाधीश सेंथिलकुमार रामास्वामी ने चुनाव कराते समय कोरोना कहर की अनदेखी करने के लिए सिर्फ और सिर्फ निर्वाचन आयोग को जिम्मेदार माना है। उनकी टिप्पणी विधि सम्मत है, परंतु लगता है, अधूरी है। अनेक देशवसियों को मौत के मुंह में झोंकने की जिम्मेदारी से अन्य कुछ संस्थाएं बच नहीं सकतीं। केन्द्र सरकार ने 14 मार्च 2020 को कोरोना कोविड-19 को आपदा घोषित किया। दसवें दिन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने सभी को परस्पर दूरी का पालन करने के निर्देश दिए। 13 महीने में प्राधिकरण की बैठकें हुईं? किसी एक में भी लगातार सोशल डिस्टेंसिंग के आदेश की निर्वाचन आयोग द्वारा अवहेलना पर विचार हुआ। प्रधानमंत्री प्राधिकरण के पदेन अध्यक्ष हैं।
आपदा प्रबंधन अधिनियम-2005 के अध्याय-दस में प्राधिकरण को अधिकार दिया गया है कि बाधा डालने या निर्देश का पालन न करने पर एक वर्ष तक कारावास में भेजा जा सकता है। प्राधिकरण ने कोई कदम नहीं उठाया। सफदरजंग के वातानुकूलित कमरों में आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ भाड़ तो नहीं झोंकते होंगे। किसी को केन्द्र सरकार के कैबिनेट मंत्री का दर्जा है, कोई राज्यमंत्री। किसी को सचिव की बराबरी का ओहदा है। महामारी के बीच यह जानकारी विवेकी व्यक्तियों को बीमार कर देगी कि प्राधिकरण में सदस्य और अधिकारियों के पद खाली पड़े हैं।
तमिलनाडु के राज्यपाल ने महामारी से बचाव के लिए निर्देश जारी किए। पुष्पहार और भेंट लाने पर रोक लगा रखी है। वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन राज्य निर्वाचन प्राधिकारी ए के लखोनी ने चोरी-छिपे धन और सामान बांटने वालों को पकड़ा। चुनाव गड़बड़ी रूकी। जयललिता सरकार ने आने के बाद लखोनी को मामूली से विभाग में भेजकर पुरस्कृत किया। आपदा प्रबंधन में अनदेखी कई राज्यों के साथ ही पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोड़ा तक के विरुद्ध कार्रवाई करना संभव है। नियम इसकी अनुमति देते हैं। अरोड़ा अब तो खुलकर बता सकते हैं कि कितने बार बिहार, असम, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में महामारी की विकरालता और राजनीतिक व्यक्तियों और प्रशासकों द्वारा की गई अनदेखी की समीक्षा की। कार्रवाई करने में उनके सामने क्या दिक्कत थी? दु:खद संयोग है कि एक तरफ अदालतें एक के बाद एक महामारी का सामना करने में असफलता पर टिप्पणी कर रही हैं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और एक अन्य आयुक्त पूरी सतर्कता के बावजूद दिल्ली में संक्रमित हैं। भेड़-बकरियों की तरह प्रचार का तमाशा देखने जुटाए देश के आम आदमी की संवेदना और घबराहट उन्होंने महसूस नहीं की। नेता और जनता, सत्ता और प्रतिपक्ष, अपने और पराए के आधार पर भेदभाव के आरोप लगाना जारी है। कार में अकेले बैठने और घर में रहते हुए मास्क लगाने के फरमान जारी होते हैं। उच्चतम न्यायालय ने अपने बचाव के लिए आभासी सुनवाई की। इसके बावजूद न्यायाधीश संक्रमित हुए। अनेक वकीलों ने बढ़ते संक्रमण की जानकारी दी। पूर्व मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े अपने कार्यकाल में न्यायाधीशों की नियुक्तियां नहीं करा सके। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगाई की जगह सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति नहीं हुई। श्री बोबड़े जाते जाते महिलाओ के मुख्य न्यायाधीश बनने का सपना दिखा गए। उनकी सेवानिवृत्ति के दिन मात्र एक महिला उच्चतम न्यायालय में पदस्थ थी। उनसे संक्रमण पर कड़ा रुख अपनाने की अपेक्षा थी। किसान आंदोलन और महामारी दोनों मुद्दों पर उनकी सोच समान थी। किसी तीसरे को जिम्मा सौंपो। कुछ न्यायविद मानते हैं कि शीर्ष अदालत पल्ला झाड़ रही है। इसका फायदा सत्ता को मिलेगा।
महामारी के दौरान महाभारत के दो पात्र सजीव हो उठे। एक अभिमन्यु। दूसरा अश्वत्थामा। दोनों बाप के लाडले। महाभारत के 13वें दिन युधिष्ठिर को बंदी बनाने की योजना के तहत चक्रव्यूह रचा। जानकार अर्जुन को कुरुक्षेत्र से दूर लडऩे के लिए बाध्य किया। उनकी गैरहाजिरी में सोलह वर्षीय अभिमन्यु को घेर कर मारा गया। अगले दिन जवाबी अनैतिकता के अंतर्गत कौरवों के सेनापति द्रोणाचार्य को झूठी खबर दी गई-अश्वत्थामा मारा गया। पुत्र मोह में उन्होंने हथियार डाले। द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने द्रोण का सिर काटा। कुपित अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांच बेटों और भाई धृष्टद्युम्न को मारकर बदला लिया। अभिमन्यु का अर्थ है-निर्भय क्रोधी। अश्वत्थामा का मतलब उग्र स्वभाव वाला।
महामारी के महाभारत में चक्रव्यूह न बेध पाने वाला कुपित अभिमन्यु मारा जाता है। अतीत के अश्वत्थामा को उसकी मां कृपि की पीड़ा का ध्यान कर द्रौपदी ने माफ किया था। अर्जुन ने उसके माथे से मणि छीनकर शक्तिहीन और घायल किया। अश्वत्थ संस्कृत में पीपल को कहा जाता है। पीपल के पत्ते हमेशा हिलते रहते हैं। गांव-देहातों में बच्चों को रात में पीपल के पेड़ के निकट जाने से रोका जाता है। अश्वत्थ यानी पीपल के पेड़ और अश्वत्थामा के वास का कोई तार्किक प्रमाण नहीं है। कई लोग मानते हैं कि पांच हजार वर्ष तक अमरता का वरदान पाने वाला अश्वत्थामा मध्य प्रदेश के बुरहानपुर से 20 किलोमीटर दूर असीरगढ़ के किले में आकर पूजा करता है। मान्यताओं से उपजेअंधविश्वास को छोडक़र विचार करें-लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत करने के लिए बनी संस्थाएं अश्वत्थामा की तरह क्यों भटक रही हैं?
महान भारतीय गणितज्ञ आर्यभट की गणना के अनुसार महाभारत युद्ध ईसापूर्व 18 फरवरी 3102 को हुआ था।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-कृष्ण कांत
जम्बूद्वीपे भारतखंडे एक: ठग्गू बाबा अस्ति। इससे ज्यादा संस्कृत नहीं आती, इसलिए महामारी के समय लूट की ‘दैवीय दुर्घटना’ को हिंदी में लिखने का पाप कर रहा हूं।
कोरोना महामारी फैली तो ठग्गू बाबा ने कुछ आयुर्वेदिक दवाओं को मिलाकर एक किट तैयार की और 545 रुपये में लॉन्च कर दी। यूं तो ये ठगी की टूलकिट थी, लेकिन इसका नाम रखा गया कोरोनिल किट। सर्वप्रथम ठग्गू बाबा उवाच- ये कोरोना की कारगर दवाई है। इस पर देश के नामी डॉक्टरों ने कहा- हे पेट को मरोडक़र घुमाने वाले, भारत का काला धन वापस लाने वाले, पेट्रोल को 35 रुपये में बिकवाने वाले, रुपया डॉलर के बराबर ले आने वाले, भारत भूमि से भ्रष्टाचार भगाने वाले, ऋषियों के ऋषि अर्थात महर्षि और अवतारी पुरुष के चुनाव सहयोगी महामानव! काहे जनता को गुमराह कर रहे हो?
केंद्र सरकार ने भी बाबा को समझाइश दी कि इसे इम्युनिटी बूस्टर कहो। मानवता पर एहसान करते हुए ठग्गू बाबा पलट गए और कहने लगे कि ये कोरोना की दवाई नहीं है, ये इम्युनिटी बूस्टर है। इसे खाने से इम्युनिटी बूस्ट करके माउंट एवरेस्ट के बराबर पहुंच जाएगी और हिमालय की तरह मजबूत हो जाएगी। शायद धंधा मंदा ही रहा होगा तो इन्होंने वही दवाई केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री की मौजूदगी में फिर से लॉन्च कर दी और बोले इस बार डब्ल्यूएचओ से प्रमाणित है। अगले दिन डब्ल्यूएचओ ने खंडन कर दिया कि हमने किसी पारंपरिक दवाई को कोई मान्यता नहीं दी है।
खैर, ठग्गू बाबा ने महामारी से फैले भय के बीच जनता का खूब भयादोहन करने की कोशिश की। उम्मीद है कि बाबा ने करोड़ों की कमाई की होगी। अब ठग्गू बाबा के अपने ही कई संस्थानों में कुल मिलाकर 83 लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। क्या बाबा के कर्मचारियों की इम्युनिटी बूस्ट नहीं हुई? क्या बाबा ने उन्हें कोरोनिल किट नहीं खिलाई? क्या बाबा का दावा सही था? अगर बाबा ने सच में कोई दवा बनाई थी जो कोरोना से लडऩे में मदद करती तो वे लगातार इतने झूठ क्यों बोले? इन सवालों के जवाब बनारस वाले बाबा विश्वनाथ भी नहीं दे सकते।
आश्चर्य इस बात का है कि बाबा के इस गोरखधंधे पर कायदे से सवाल भी नहीं उठे। बाबा पर बादशाह का वरदहस्त है। बाबा के पास दुनिया के 'हर मर्ज का अचूक इलाज' है, बाबा का अपना अरबों का चिकित्सकीय धंधा है। लेकिन बाबा का अपना सिपहसालार फूड प्वाइजनिंग से बीमार पड़ता है तो एम्स पहुंच जाता है। तो इस प्रकार है भारतवर्ष के भक्तगणों! कलियुग में चाहे चिकित्सा हो चाहे राजनीति, जो मनुष्य ठगों से सावधान नहीं रहता है वह ठगी क्रिया का भुक्तभोगी होता है।
इतिश्री ठग्गू बाबा ठगी क्रोनोलॉजी कथा।
नोट- अगर आयुर्वेद में आपका विश्वास है तो ठगों से सावधान रहते हुए उसे बनाए रखें। आयुर्वेद अच्छी चिकित्सा पद्धति है, लेकिन आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा का विकल्प नहीं है।
-कनुप्रिया
कमाल की बात यह है कि आज जो चैनल ‘व्यवस्था’ पर ठीकरा फोड़ रहे हैं, वो कल तक देश की व्यवस्था छोड़ मंदिर और मस्जिद पर कवरेज कर रहे थे। वो मंदिरों के अवशेष ढूँढ रहे थे, अपने चैनल्स पर बैठकर चिन्दी चोर मौलानाओ और पन्डतों को बुलाकर दिन रात धर्म मज़हब की बहस करा रहे थे।
यही चैनल्स अंधविश्वास फैलाने वाले कार्यक्रमों, नागलोक, पाताललोक , स्वर्ग की सीढ़ी और एलियन्स जैसी मूर्खताओं से भरे रहते थे। ये यन्त्र, ताबीज़, नजऱ के टोटके बेच रहे थे। और जब उनसे जी भर जाता था तो पाकिस्तान के षडय़ंत्र इस तरह दिखाते थे मानो भारतीय ख़ुफिय़ा एजेंसीज पहली ब्रेकिंग न्यूज़ इन्हें ही देती हैं, तब भी इन्हें पुलवामा का पता नही चला।
इन चैनल्स ने पिछले 7 साल में व्यवस्था की बिल्कुल सुध नही ली, बिहार में जब दिमाग़ी बुख़ार से मौतें हो रही थीं तो अंजना ओम कश्यप बिहार की सरकार से सवाल पूछने की जगह अस्पताल में घुसकर डॉक्टर्स को लताड़ लगा रही थीं, मानो पत्रकार न होकर ख़ुद सरकार हों। यही चैनल्स थे जिन्होंने उत्तरप्रदेश में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों पर सवाल न करके डॉक्टर कफ़ील ख़ान की गिरफ्तारी में ज़्यादा रुचि दिखाई थी, बल्कि कहें कि भूमिका निभाई थी।
जिस समय देश की चिकित्सा व्यवस्था पर बात करने उसके खोखलेपन और कमी को दिखाने की।ज़रूरत थी उस समय यही चैनल्स जमातियों को कोरोना जिहादी साबित करने पर अपना एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे।
जब जरूरत थी कि व्यवस्था के जरूरी अंग प्रवासी मजदूरों की तकलीफ पर फोकस किया जाता ये सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के लिये एक लडक़ी को बलि का बकरा बनाने में मशगूल थे।
जिन्होंने व्यवस्था के सारे ज़रूरी सवालों को गुनाह के स्तर तक नजऱंदाज़ करके सिफऱ् नफऱत, मूर्खता, अफ़वाह न और टुटपुँजियपन को हवा देने का काम किया, जिन्हें 7 साल में व्यवस्था शब्द को याद तक करना उचित नही समझा, वो अचानक से ढेर समझदार होकर देश की इस मारक दुर्दशा पर सिस्टम सिस्टम अलाप रहे हैं, मानो सिस्टम अब तक कोई निहायत ही अदृश्य वस्तु थी जो अचानक प्रकट हो गई हो।
आज अगर देश का सिस्टम खऱाब है तो इसमें सबसे बड़ा योगदान इन्ही मीडिया चैनल्स का है, और ये आज भी उसे मज़ीद खऱाब करने में ही लगे हुए हैं।
सिस्टम का सबसे ज़्यादा सड़ चुका भाग ये गोदी मीडिया चैनल ही हैं, ये महीने भर भी बंद हो जाएँ तो देश को व्यवस्था की इस दुर्गंध से थोड़ी राहत मिल जाए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह संतोष का विषय है कि भारत में कोरोना मरीजों के लिए नए-नए तात्कालिक अस्पताल दनादन खुल रहे हैं, ऑक्सीजन एक्सप्रेस रेलें चल पड़ी हैं, कई राज्यों ने मुफ्त टीके की घोषणा कर दी है, कुछ राज्यों में कोरोना का प्रकोप घटा भी है, ज्यादातर शहरों और गांवों में कुछ उदार सज्जनों ने जन-सेवा के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है।
कोरोना का डर इतना फैल गया है कि लोगों ने अपने घरों से निकलना बंद कर दिया है। जहां-जहां तालाबंदी और कर्फ्यू नहीं लगा हुआ है, वहां भी बाजार और सड़कें सुनसान दिखाई दे रही हैं। लोगों के दिल में डर बैठ गया है। कुछ लोगों का कहना है कि मरने वालों की संख्या जितनी है, उसे घटाकर लगभग एक-चौथाई ही बताई जा रही है ताकि लोगों में हड़कंप न मच जाए। यह आशंका कितनी सच है, पता नहीं लेकिन श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों के दृश्य देख-देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने ऐसे दृश्यों को अपने रोजमर्रा के काम-काज का हिस्सा ही बना लिया है। असलियत तो यह है कि देश के कोने-कोने में इतने लोग संक्रमित हो रहे हैं और मर रहे हैं कि बहुत कम ऐसे लोग बचें होंगे, जिनके मित्र और रिश्तेदार इस विभीषिका के शिकार नहीं हुए होंगे। मौत का डर लगभग हर इंसान को सता रहा है। नेताओं की भी सिट्टी-पिट्टी गुम है, क्योंकि वे अपने चहेतों के लिए चिकित्सा और पलंगों का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं और डर के मारे घर से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
जो विपक्ष में हैं, वे सत्तारुढ़ नेताओं की टांग-खिंचाई से बिल्कुल नहीं चूक रहे। उनसे आप पूछें कि इस संकट के दौर में आपने जनता के भले के लिए क्या किया तो वे बगलें झांकने लगते हैं। देश के बड़े-बड़े सेठ लोग अपने खजानों पर अब भी कुंडली मारे बैठे हुए हैं। वे देख रहे हैं कि मरने वालों को चिता या कब्र में खाली हाथ लिटा दिया जाता है लेकिन अभी भी सांसारिकता से उनका मोह-भंग नहीं हुआ है। कई घरों के बुजुर्ग कोरोना-पीड़ित हैं, लेकिन उनके जवान बेटे, बेटियां और बहू भी उनके नजदीक तक जाने में डर रहे हैं।
कई अस्पताल मरीज़ों को चूसने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। नकली इंजेक्शन और नुस्खे पकड़े जा रहे हैं। कई नेताओं ने अपने मोबाइल फोन बंद कर दिए हैं या बदल लिये है ताकि लोग उन्हें मदद के लिए मजबूर न करें। अभी तक किसी आदमी को दंडित नहीं किया गया है, जो कोरोना की दवाइयों, इंजेक्शनों और आक्सीजन यंत्रों की कालाबाजारी कर रहा हो।
इस महामारी ने सिद्ध किया कि भारत के नेता और जनता, दोनों ही जरुरत से ज्यादा भोले हैं। दोनों अपनी लापरवाही की सजा भुगत रहे हैं। दुनिया के हर प्रमुख राष्ट्र ने महामारी के दूसरे दौर से मुकाबले की तैयारी की है लेकिन भारत पता नहीं क्यों चूक गया ? (नया इंडिया की अनुमति से)
-विजय मिश्रा ‘अमित’
कोरोना वायरस के संक्रमण काल ने स्कूल-कॉलेज में भले ही ताला बंदी कर रखा है, लेकिन कोरोना गुरू घंटाल ने लोगों को शिक्षित करने के मामले में देश की आजादी के सत्तर साल को पीछे छोड़ दिया है। देश में शिक्षा के क्षेत्र में जो विकास सात दशकों में नहीं हुआ उससे कहीं ज्यादा कोरोना ने अपने एक साल के कार्यकाल में लोगों को गजब शिक्षित कर दिया है। खासकर अंग्रेजी के शब्दों के ज्ञान के मामले में पिछले एक साल का इतिहास तो देश में स्वर्णिम काल के रूप में जाना जाएगा।
बीते एक वर्ष में जहां अनेक स्कूल-कॉलेज बंद हो गए, वहीं बिना प्रयास के देशभर में चारों ओर कोरोनावायरस का स्कूल खुल गया है। इस स्कूल में छोटे बड़े बूढ़े नौजवान युवक युवती सभी भर्ती हो गए हैं। चौक-चौराहों, पान-गुपचुप ठेलों में खड़े-खड़े लोग कई कठिन अंग्रेजी शब्दों को ऐसी सहजता से बोल रहे हैं मानों सदियों से वे उसका इस्तेमाल करते आ रहे हैं। अंग्रेजी मीडियम के बच्चे की तो छोडि़ए सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल के बच्चे और गांव खेड़े के लोग भी कोरोना स्कूल की अंग्रेजी पढ़ाई में अव्वल चल रहे हैं।
कोरोना मैडम द्वारा सिखाए गए अंग्रेजी शब्दों को बोलने की होड़ सी मच गई है। कोरोना स्कूल में अंग्रेजी शब्दों का ज्ञान अनायास हुए बरसात के बाद बाजार में सस्ते हो चले टमाटर के भांति बेभाव मिल रहा है। अंग्रेजी के जिन कठिन कठिन शब्दों को मार मार के स्कूल में रटाए जाते थे, ऐसे अंग्रेजी के शब्दों से भी कहीं ज्यादा ‘टीपिकल और लेटेस्ट’ शब्दों को घर में बैठे-बैठे कोरोना मैडम सबको सीखा दे रहीं हैं। कोरोना स्कूल का शानदार रिजल्ट ‘ग्लो साईन बोर्ड’ की तरह चमक रहा है। कोरोना मैडम के द्वारा लोकप्रिय बनाए गए अंग्रेजी शब्दों का प्रताप धूंआंधार दिखाई दे रहा है। अंधे-गूंगे-बहरे भी इन शब्दों को देख-बोल-सुन पा रहे हैं।
शहरियों की तो छोडि़ए गंवई गांव के लोग भी ठांय-ठांय कोरोनामय अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। जिसे सुन सुन कर कोरोना स्कूल के हेड मास्टर कोविड महाशय की छाती छप्पन इंच हुए जा रही है। वे गर्व से सीना ठोक-ठोक कर देशवासियों को बता रहे हैं कि भय बिना प्रीत न होई गोपाला।
कोरोना स्कूल ‘चलता-फिरता शिक्षालय (शौचालय)’ की तरह गली मोहल्ले में अंग्रेजी का असामान्य ज्ञान बांटते फिर रहा है। दिन-रात लोगों के आगे पीछे चलते-फिरते कोरोना संबद्ध अंग्रेजी शब्दों को बोलने के लिए सबके सिर पर डंडा बरसा रहा है। जिसका सुपरिणाम है कि सोते जागते आदमी तो आदमी रेडियो, टीवी,और अखबार भी एंटीजन सैंम्पल, आरटीपीएस आर, निगेटिव, पॉजि़टिव, सेनेटाइजर, मास्क, सोशल डिस्टेसिंग, रेमडेसिविर, लॉकडाउन, हैंडवाश, इम्यूनिटी, वेक्सीनेशन, ग्रीन-टी,ग्लब्स, ऑक्सीजन बेड, कोविड केयर सेंटर, होम आइसोलेशन, आक्सीमीटर, ग्लूकोमीटर, थर्मामीटर, क्वांरेटाइन सेंटर, वर्चुअल मीटिंग, होम डिलीवरी, एक्टिव केस, फ्लैग मार्च, रेड अलर्ट,ऑक्सीजन लेवल, ऑक्सीजन कंसट्रेटर, अनलाक, कंटेंटमेंट जोन, वेंटिलेटर फ्रंटलाइन कोरोना वारियर्स, जैसे अंग्रेजी शब्दों से लदे गूंथे पड़े हैं।
उत्तरप्रदेश में तो शिक्षा (व्यवसाय) जगत के किसी डेढ़ होशियार ने बकायदा कोरोना इंटरनेशनल स्कूल भी आरंभ कर दिया है। अस्पतालों में तो कुछ शिशु जन्मदाताओं ने नए नामकरण की अंधी चाहत में नवजात शिशु का नामकरण कोरोना बाई, कोविड सिंह, वेक्सीन कुमार, इम्यूनिटी ठाकुर, कंटेंटमेंट जोन रखना आरंभ कर दिया है। ए सब देख-सुनकर कहना पड़ेगा ‘तेरा क्या होगा रे कालिया।’
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना के विरुद्ध भारत में अब एक परिपूर्ण युद्ध शुरु हो गया है। केंद्र और राज्य की सरकारें, वे चाहे किसी भी पार्टी की हों, अपनी कमर कसके कोरोना को हराने में जुट गई हैं। इन सरकारों से भी ज्यादा आम जनता में से कई ऐसे देवदूत प्रकट हो गए हैं, जिन पर कुर्बान होने को जी चाहता है। कोई लोगों को आक्सीजन के बंबे मुफ्त में भर-भरकर दे रहा है, कोई मरीजों को मुफ्त खाना पहुंचवा रहा है, कोई प्लाज्मा-दानियों को जुटा रहा है और कोई ऐसे भी हैं, जो मरीजों को अस्पताल पहुंचाने का काम भी सहज रुप में कर रहे हैं। हम अपने उद्योगपतियों को दिन-रात कोसते रहते हैं लेकिन टाटा, नवीन जिंदल, अडानी तथा कई अन्य छोटे-मोटे उद्योगपतियों ने अपने कारखाने बंद करके आक्सीजन भिजवाने का इंतजाम कर दिया है। यह पुण्य-कार्य वे स्वेच्छा से कर रहे हैं। उन पर कोई सरकारी दबाव नहीं है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की पहल पर ऑक्सीजन की रेलें चल पड़ी हैं। हजारों टन तरल आक्सीजन के टैंकर अस्पतालों को पहुंच रहे हैं। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने ऑक्सीजन -परिवहन का शुल्क भी हटा लिया है। हमारे लाखों डॉक्टर, नर्सें और सेवाकर्मी अपनी जान पर खेलकर लोगों की जान बचा रहे हैं। अब प्रधानमंत्री राहत-कोष से 551 आक्सीजन-संयत्र लगाने की भी तैयारी हो चुकी है।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, उ.प्र. के योगी आदित्यनाथ तथा कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों ने मुफ्त टीके की भी घोषण कर दी है। फिर भी एक दिन में साढ़े तीन लाख लोगों का कोरोना की चपेट में आना और लगभग तीन हजार लोगों का दिवंगत हो जाना गहरी चिंता का विषय है। दिल्ली में इसीलिए एक हफ्ते तक तालाबंदी बढ़ा दी गई है। ऑक्सीजन के लेन-देन और आवाजाही को खुला करने की भी पूरी कोशिश की जा रही है। दुनिया के कई देश दवाइयां, उनका कच्चा माल, ऑक्सीजन यंत्र आदि हवाई जहाजों से भारत पहुंचा रहे हैं लेकिन भारत में ऐसे नरपशु भी हैं, जो ऑक्सीजन, रेमडेसवीर के इंजेक्शन, दवाइयों और इलाज के बहाने मरीज़ों की खाल उतार रहे हैं। उन्हें पुलिस पकड़ तो रही है लेकिन आज तक एक भी ऐसे इंसानियत के दुश्मन को फांसी पर नहीं लटकाया गया है। पता नहीं हमारी सरकारों और अदालतों को इस मामले में लकवा क्यों मार गया है ? अस्पताली लूट-पाट के बावजूद मरीज़ तो मर ही रहे हैं लेकिन उनके घरवाले जीते-जी मरणासन्न हो रहे हैं, लुट रहे हैं। हमारे अखबार और टीवी चैनल बुरी खबरों को इतना उछाल रहे हैं कि उनकी वजह से लोग अधमरे-जैसे हो रहे हैं। वे हमारे घरेलू काढ़े, गिलोय और नीम की गोली तथा बड़ (वटवृक्ष) के दूध जैसे अचूक उपायों का प्रचार क्यों नहीं करते ? कोरोना को मात देने के लिए जो भी नया-पुराना, देसी-विदेशी हथियार हाथ लगे, उसे चलाने से चूकना उचित नहीं। (नया इंडिया की अनुमति से)
पत्रकार किशनलाल से कल मालूम हुआ कि छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय पहचान रखते ख्यातनाम कहानीकार विश्वेश्वर का दुखद निधन हो गया। यह नाम मेरे लिए अनजान नहीं है। यह अलग बात है कि विश्वेश्वर से काफी अरसे से संपर्क नहीं हो पाया था। लगभग 1978 की बात है। जब विश्वेश्वर पहली बार मुझसे मिलने दुर्ग आए थे। मैं नगरपालिका परिषद में पार्षद भी था। मेरे कहने पर संस्कृति, कला और क्रीड़ा की गतिविधियों के लिए परिषद ने एक उपसमिति बनाई थी और मुझे ही उसका अध्यक्ष बनाया था। विश्वेश्वर की माली हालत उस समय काफी खस्ता थी। उनके व्यक्तित्व, आंखें, आवाज़ और उनके कहे की कशिश में एक चमक मुझे दिखी थी। दुर्ग के भुला दिए गए बेहद प्रिय गज़लकार जनक दुर्गवी और विश्वेश्वर को मैंने कुछ समय के लिए दुर्ग नगर का इतिहास लिखने के लिए अनुबंधित किया। उन्हें मात्र 300 रुपये महीने नगरपालिका ने देना तय किया। हम जानते थे पुस्तकालयों, किताबों, यात्राओं और अन्य लिपिकीय सुविधाओं के अभाव में इतिहास लेखन जैसा काम समयावधि में करना एक कवि और एक कहानीकार के लिए संभव नहीं होगा। फिर भी हमें उन्हें मदद तो करनी थी। नगरपालिका के नगरनिगम बनते ही हमारा कार्यकाल ही अधूरा हो गया।
विश्वेश्वर लगातार मिलते रहे। हमारे परिवार का एक छोटा मकान पद्मनाभपुर में खाली कराकर विश्वेश्वर को दिया ताकि वे दुर्ग शहर में रहकर गुजरबसर करें। मैंने उनके लिए कुछ और सामान्य व्यवस्थाएं भी की थीं। बाद में महसूस हुआ लेखक को सामाजिक जीवन की चैहद्दी में किसी खूंटे से बंधकर रहना उसकी रुचियों में शामिल नहीं है। उद्दाम पहाड़ी नदी में मैदानी नदी बन जाने के अपने भविष्य तक की ललक, उम्मीद या आश्वस्ति नहीं है। उसे नहीं मालूम कि कहां जा रहा है। इतना लेकिन जानता है कि वह कहीं जा तो रहा है। और यह भी जिं़दगी के ऊबडख़ाबड़ रास्तों पर लहूलुहान होकर चलना ही उसकी नियति है। रचनात्मक प्रतिभा के बावजूद व्यक्तिगत व्यवहार में विश्वेश्वर अव्वल दर्जे का अडिय़ल, सनकी और जिद्दी लोगों को लगता था। मैं उन दिनों वकालत के अतिरिक्त राजनीतिक कामों में भी लिप्त था। लिहाज़ा साहित्यिक या बौद्धिक सहकार के लिए विश्वेश्वर को भी समय देना मेरे लिए कठिन था। वह भी अपनी अनिश्चित मानसिकता लिए कहीं चला गया। कभी कभार की क्षणिक मुलाकातें रिश्ते की डोर बने रहने का आभास देती रहीं।
वर्षों बाद फिर विश्वेश्वर से गंभीर लंबी बातचीत हुई। मैंने उसे एक दूसरा बौद्धिक प्रोजेक्ट दिया जिसे लिखने के लिए रायपुर में रहना जरूरी था क्योंकि वहां अपेक्षाकृत बेहतर सुविधाएं थीं। कॉफी हाउस में एक किराए का कमरा लेकर उसे व्यवस्थित किया। देशबंधु पत्रसमूह के संपादक ललित सुरजन से अनुरोध किया कि कॉफी हाउस प्रबंधन को सूचना देकर आश्वस्त करें कि जो भी खर्च होगा हम पटाएंगे। हमने लेकिन आशंकित खतरा उठाया था। हवाओं के एक बवंडर को कमरे में कैद किया था। पढऩा लिखना उसकी रुचि में था लेकिन वह सरहदों को तोड़ देता था। ललित का फोन आया कि बौद्धिक प्रयोजन के प्रोजेक्ट में वहां खानपान का बिल ज़्यादा बढ़ रहा है, बल्कि पानखान का। आपको सचेत रहना है। विश्वेश्वर से फिर बात की। उसने कहा जिस तरह आपने काम करने का सुझाव दिया है, वह मेरे जीवन को एक नहर की तरह बहाना चाहता है। मुझे नहर बनना होता तो इतने दिन अपने जीवन के साथ प्रयोग नहीं करता होता। मैं बंधना नहीं चाहता लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने से मैं वह सब नहीं कर पा रहा हूं जो कर पाने की मेरी इंद्रियां मुझे उकसाती हैं। हमारा मिलना फिर स्थगित हो गया।
बहुत बाद फिर कभी मिलने पर उसका स्वास्थ्य कुछ बेहतर लगा, कुछ कपड़े लत्ते भी। मुझे यह देखकर अच्छा लगा। विश्वेश्वर ने अपनी कई किताबें मुझे दे रखी थीं। वे आकार में बहुत मोटी नहीं ही थीं और पढऩे में कठिन भी नहीं। 1978 में ही मैंने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की स्मृति में एक समारोह आयोजित करना चाहा था। विश्वेश्वर की पहल पर प्रख्यात लेखक कमलेश्वर से गुज़ारिश की गई। कमलेश्वर ने उलाहना, आश्वस्ति और प्रेम को मिलाकर विश्वेश्वर को लगभग निजी पत्र लिखा था। मुझे उन दोनों की नज़दीकियों का तब तक कोई भान तक नहीं था। बख्शी समारोह अंतत: मैं 1994 में ही कर पाया। तब तक कमलेश्वर से परिचय हो चुका था। मैंने उनके घर दिल्ली में उन्हें आने का निमंत्रण दिया। कमलेश्वर ने पूरे छत्तीसगढ़ में केवल विश्वेश्वर की याद की और कहा उससे मिलने की बहुत इच्छा है।
विश्वेश्वर में जीवन की आग थी। मनुष्य होने की ताब थी लेकिन वह सामाजिक संबंधों के मनोवैज्ञानिक समीकरणों की गणित का फेल विद्यार्थी हो जाता था। उसे पूंजीवाद से सख्त नफरत थी। मुझसे भी कहता आपकी आर्थिक हालत के लिए आपने कई समझौते किए हैं। जो जितना अमीर है, वह उतना ही समझौतापरस्त है। मैं जीवन में बिना समझौता किए अमीर होकर उसका सुख क्यों नहीं उठा पाता? वह असंभव संभावनाओं को अपनी जिरह शैली के जरिए परास्त करना चाहता था। जब राजनीति में मेरे अच्छे दिन आकर सत्ता की कुर्सी मिली तब अपने साहित्यिक गुरु डा0 नन्दूलाल चोटिया की पांडुलिपियां मैं प्रकाशित करना चाहता था लेकिन मुझे नहीं मिल पाईं। विश्वेश्वर को खबर भेजी थी लेकिन वह भोपाल नहीं आना चाहता रहा होगा। उसकी अपेक्षित मदद नहीं कर पाने का मुझे मलाल और दुख है।
उसने विवाह करने में भी हिन्दू कानूनों और पारंपरिक रिश्तों तथा सामाजिक रूढिय़ों को चुनौती दी थी। ऐसा ही उद्दाम तो अंगरेज़ी के महान कवि लॉर्ड बायरन में भी था। जब मुझसे अकेले में बात करता तो उसमें उत्तेजना, विनम्रता और मासूमियत एक साथ झरती रहतीं। गोष्ठियों में वह दूसरों की बातें सुनकर भी उलझने के साथ साथ स्वगत में कुछ कहता चलता। जैसे शास्त्रीय रागों का कोई गायक खुद की बनाई हुई आरोह अवरोह की जुंबिशों में एकालाप करता है। वह चाहता था लोग उसे समर्थन करें लेकिन कुछ बकझक के बाद विरोध तो क्या असमर्थित होने पर भी उससे कोफ्त होती। वह खीज में भी तब्दील होती। फिर एक तरह के सामाजिक क्रोध में और उसकी विद्रोही निजी तथा लेखकीय अभिव्यक्तियों में भी।
विश्वेश्वर दुर्ग जिले के निपट ग्रामीण परिवेश में जन्मा था। ब्राह्मण परिवार से होने के बाद भी जातीय, आनुवांशिक और वर्णाश्रम के विग्रहों को कुचलने वीरोचित मुद्रा में आ जाता था। कभी कभी अच्छा श्रोता बन जाता था और तत्काल कोई जवाब नहीं भी देता था। फिर कुछ दिनों के बाद मिलने पर पुरानी जिरह को तरोताज़ा कर किश्तों में क्रमश: बनाता चलता था। विश्वेश्वर इलाहाबाद, बनारस जैसी जगहों पर होता तो उसके रचनात्मक कौशल में वहां के पुश्तैनी नस्ल की अभिव्यक्तियों के उस्तादों के संपर्कों से उभार भी आता। कभी कभी लगता है मनुष्य के बौद्धिक, सामाजिक और रचनात्मक विकास में उत्कर्ष का दरवाजा इसलिए बंद हो जाता है क्योंकि वह भूगोल के किसी उपेक्षित इलाके से आया है। क्या हमारा छत्तीसगढ़ बौद्धिकों के श्रेष्ठि वर्ग में ऐसा ही समझा जाता है जिसे विश्वेश्वर का व्यक्तित्व अपनी नियति के कारण नीयत की भाषा में परिभाषित नहीं कर पाया।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में फैले कोरोना की प्रतिध्वनि सारी दुनिया में सुनाई पड़ रही है। अमेरिका से लेकर सिंगापुर तक के देश चिंतित दिखाई पड़ रहे हैं। जो अमेरिका कल-परसों तक भारत को वैक्सीन या उसका कच्चा माल देने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था, आज उसका रवैया थोड़ा नरम पड़ा है। अमेरिका के कई सीनेटरों और चेम्बर आॅफ काॅमर्स ने बाइडन प्रशासन से खुले-आम अनुरोध किया है कि वह भारत को तुरंत सहायता पहुंचाए।
इस समय अमेरिका के पास 30 करोड़ टीके तैयार पड़े हुए हैं लेकिन वह ट्रंप के घिसे-पिटे नारे ‘अमेरिका पहले’ से चिपका पड़ा है। वह भूल गया कि जब कोरोना की मार शुरु हुई थी तो भारत ने ट्रंप के अनुरोध पर कुछ तात्कालिक दवाइयां तुरंत भिजवाई थीं। बाइडन प्रशासन में कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति रहते हुए और कई भारतीय मूल के लोगों के अमेरिकी संसद में होते हुए अमेरिका उदासीन रहे यह संभव नहीं है। जर्मनी और फ्रांस ने भी मदद की पहल की है।
सिंगापुर और संयुक्त अरब अमारात से हवाई जहाजों के जरिए ऑक्सिजन का आयात हो रहा है। भारत में ऑक्सिजन की कमी से हो रही मौतों और उनके दृश्यों ने सारी दुनिया का दिल दहला रखा है। जो लोग भारत के प्रति दुश्मनी या ईर्ष्या का भाव रखते हैं, उनके दिल भी पिघल रहे हैं। मुझे पाकिस्तान और चीन से कई नेताओं, विद्वानों और पत्रकारों के फोन आ रहे हैं। जो लोग बहस के दौरान मुझसे भिड़ पड़ते थे, वे भी चिंता और सहानुभूति व्यक्त कर रहे हैं। वे भारत का हाल जानने के लिए उत्सुक हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान, आसिफ जरदारी और मियां नवाज शरीफ की बेटी मरियम के संदेश पढ़कर ऐसा लगा कि चाहे भारत और पाक एक-दूसरे से युद्ध लड़ते रहते हैं लेकिन ये दोनों देश मूलतः हैं तो एक ही बड़े परिवार के सदस्य। कराची की अब्दुल सत्तार एधी फाउंडेशन ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर 50 एंबुलेंस कारें और सेवाकर्मी भेजने का प्रस्ताव किया है। पाकिस्तान के कुछ नामी-गिरामी मित्रों ने यह सुझाव भी दिया कि चीनी टीका सस्ता और पूर्ण कारगर है। आप उसे क्यों नहीं ले लेते ? वे लोग वही टीका ले रहे हैं।
चीनी सरकार ने दुबारा दवा भिजवाने का प्रस्ताव किया है। चीन और पाकिस्तान के इन बयानों को हमारे कुछ लोग इन देशों की कूटनीतिक चतुराई कहकर दरकिनार कर सकते हैं और यह भी मान सकते हैं कि मोदी सरकार की छवि बिगाड़ने के लिए ही यह सब नाटक किया जा रहा है लेकिन हम यह न भूलें कि इसी सरकार ने दर्जनों पड़ौसी और सुदूर देशों को पिछले साल लाखों टीके भिजवाए थे।
अब जबकि भारत में कोरोना-संकट गहराता जा रहा है, दुनिया के राष्ट्र भी दुबकनेवाले नहीं हैं। वे आगे आएंगे। भारत की मदद करेंगे लेकिन फिलहाल जरुरी यह है कि भारत की सभी सरकारें और जनता हिम्मत न हारें, सभी सावधानियां बरतें, परस्पर टांग-खिंचाई की बजाय सहयोग करें और शीघ्र ही इस महामारी से मुक्ति पाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
कभी देश के मुखिया ने कहा था कि ‘उन्हें कपड़ों से पहचाना जा सकता है।’ आज हम लोगों को उनके लहू के रंग से पहचान रहे हैं जो एक-दूसरे की रगों में उतरकर हम सबकी जान बचा रहा है। मैं कहना चाहता हूं कि हमें हमारे कपड़ों से मत पहचानो। हमें हमारे लहू के लाल रंग से पहचानो।
कहानी उसी झारखंड की है जहां पर कपड़ों से पहचानने की सलाह दी गई थी। पलामू के मेदिनीनगर में कुछ मुसलमान युवकों को पता चला कि उनके हिंदू दोस्त की मां को कोरोना लील गया। बेचारा बेटा मां की लाश के साथ अकेला पड़ गया था। कोई परिवार साथ नहीं आया था। मरे हुए को कंधा देने के लिए चार कंधे चाहिए होते हैं। ये वक्त बुरा है। जनता को सहारा देने के लिए जालिम हुकूमत ने अपना कंधा खींच लिया है। डर के मारे किसी मरहूम के अपने भी कंधा खींच ले रहे हैं। लेकिन युवक के दोस्त मोसैफ, फैशल, सुहैल, आसिफ, शमशाद जाफर, महबूब सभी श्मशान पहुंच गए।
वे सभी रमजान के महीने में रोजा रखे हुए थे। पर इससे क्या, इंसानी सेवा बड़ी कोई इबाबत नहीं। वे अपने दोस्त के पास पहुंचे। मां के शव को लेकर साथ श्मशान गए। दोस्त को मुश्किल घड़ी में सहारा दिया। मरहूम मां को एंबुलेंस से उतरवाया, कंधा दिया। पूरे हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार संपन्न हुआ।
ये कोई अकेली मिसाल नहीं है। शामली के आसिफ ने रोजा तोडक़र एक गर्भवती महिला की जान बचाई है। झालावाड़ के आबिद ने रोजा तोडक़र एक 15 दिन की बच्ची की जान बचाई है। उदयपुर के अकील मंसूरी ने रोजा तोडक़र दो हिंदू महिलाओं के लिए प्लाज्मा डोनेट किया है। समाज में रोज हजारों लोग हजारों लोगों की जान बचा रहे हैं। इसके उलट सियासत इस ‘आपदा में भी अवसर’ खोज रही है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, गुजरात के एक श्मशान में कुछ मुस्लिम स्वयंसेवक क्रियाकर्म में सहयोग कर रहे थे तो कुछ बीजेपी के नेताओं ने आपत्ति दर्ज करा दी कि हिंदुओं का अंतिम संस्कार मुसलमान कैसे करा सकते हैं? उन्हें श्मशान पहुंचकर भी नफरत ही सूझी। उनके बताए रास्ते पर मत चलो। उन्हें अपने रास्ते पर लाओ।
समाज मुश्किल में है लेकिन समाज से मानवता खत्म नहीं होगी। इंसान जब तक रहेगा, इंसानियत सिर उठाकर साथ चलती रहेगी। आज इंसानियत निभाने में वायरस का खौफ भी है लेकिन इंसानी साहस और प्रेम का जुनून अब भी मजबूत है।
सोचने पर लगता है कि ये तो आम बात है। इंसान ही इंसान के काम आता है। इसमें नया क्या है? लेकिन फिर लगता है कि जब आपके बच्चों को देश की सियासत पोशाक और हुलिये से पहचान करने जैसी नफरत सिखा रही हो, तब उन्हें ये भी बताना जरूरी हो जाता है कि नहीं, कपड़ों से मत पहचानो, इंसानियत के जज्बे से पहचानो। आपसी मोहब्बत से पहचानो। उस लहू के रंग से पहचानो जो हम सबकी रगों में उतरने से इनकार नहीं करता, बल्कि जिंदगी अता करता है।
-विवेक उमराव
कोविशील्ड (असली नाम आक्सफोर्ड-अस्ट्राजेनेका) वैक्सीन का उत्पादन की गति काफी धीमी है। दुनिया के अनेक देशों की कंपनियों की तरह ही भारत की सीरम कंपनी ने जब अस्ट्राजेनेका वैक्सीन के उत्पादन के अधिकार लिए थे तो उत्पादन की शर्तें तय हुईं थीं।
सीरम ने अस्ट्राजेनेका का नाम तो कोविशील्ड कर दिया (जिन लोगों को जानकारी नहीं, उन लोगों को यह लगता है कि कोविशील्ड की खोज भारत की सीरम कंपनी व इसके वैज्ञानिकों ने की है), लेकिन उत्पादन की शर्तों को पूरा कर पाने में असमर्थ है।
दुनिया के देशों को जब कोविशील्ड वैक्सीन भेजी जाती है तो भारत में बहुत लोगों को यह लगता है कि दुनिया भारत की खोजी वैक्सीन का प्रयोग कर रही है। जबकि ऐसा नहीं है, दुनिया के देश अस्ट्राजेनेका वैक्सीन ले रहे होते हैं, जिसकी आपूर्ति सीरम के कारखाने से की जाती है क्योंकि अस्ट्राजेनेका का उत्पादन भारत की सीरम कंपनी भी कर रही है। वह अलग बात है कि सीरम ने इसका नाम कोविशील्ड कर दिया है (इस कारण बहुत लोगों को कन्फ्यूजन है)।
दुनिया के अनेक देशों की कंपनियां अस्ट्राजेनेका का उत्पादन कर रहीं हैं, लेकिन सीरम कंपनी जैसे अलग से नाम बदल कर नहीं। नो प्राफिट नो लास पर उपलब्ध कराई गई वैक्सीन के लिए इतना तो नैतिक धन्यवाद सीरम कंपनी को दिखाना ही चाहिए था, लेकिन नहीं दिखाया। खैर।
अस्ट्राजेनेका ने दुनिया के अनेक देशों को सप्लाई करने का जो वादा किया है, चूंकि सीरम कंपनी ने उत्पादन का अधिकार हासिल किया है तो दुनिया भर के देशों से अस्ट्राजेनेका को मिले आर्डर की आपूर्ति में भारत की सीरम कंपनी को भी सहयोग करना होगा जैसा कि अन्य देशों की उत्पादन कंपनियां कर रहीं हैं। भारत में बहुत लोग राष्ट्र-गौरव के इस फर्जी दंभ में जी रहे हैं कि उनके देश की खोजी वैक्सीन दुनिया के देशों में लोगों का जीवन बचा रही है।
सीरम कंपनी को जितनी सप्लाई करनी थी उसका पांचवा हिस्सा भी नहीं कर पाई है। इसलिए अस्ट्राजेनेका सीरम कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही भी कर सकती है।
भारत में 135 करोड़ लोग हैं, यदि हर्ड इम्युनिटी के फंडे की गुणा गणित लगाकर कम से कम वैक्सीन की भी बात की जाए और लगभग 110 करोड़ लोगों को भी वैक्सीन लगे तो 220 करोड़ वैक्सीन चाहिए होंगी। सीरम कंपनी यदि सारे काम धाम छोडक़र केवल कोविशील्ड वैक्सीन का ही उत्पादन फुल कैपेसिटी से करे, तब भी 220 करोड़ डोजों का उत्पादन करने में कुछ कम अधिक लगभग डेढ़ साल का समय लगेगा। वह भी तब जब सीरम को दुनिया के अन्य देशों को आपूर्ति नहीं करनी हो।
जाहिर है कि सीरम के उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा अन्य देशों को आपूर्ति करनी होगी क्योंकि कोविशील्ड सीरम कंपनी की वैक्सीन नहीं है, अस्ट्राजेनेका वैक्सीन है।
इसलिए भारत में 110 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगते-लगते चार-पांच साल लगने हैं। (बायोटेक वाली वैक्सीन को भी जोडक़र, कुछ महीने ऊपर नीचे)।
चार-पांच सालों में कोविड-19 वायरस जैसा बहुत स्मार्ट वायरस कितनी बार खुद को मॉडीफाई करके और ताकतवर बनाते हुए हमला करता रहेगा यह कहा नहीं जा सकता है। वर्तमान वैक्सीन कई बार मॉडीफाई हो चुके वायरस पर कितनी कारगर होगी यह भी नहीं कहा जा सकता है।