विचार/लेख
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में राजद्रोह के अपराध को कई कारणों से दुबारा जांचने की जरूरत महसूस की है। यह एक अच्छा लक्षण है। राजद्रोह तो सांप है जो जनता को डस रहा है। जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ दिक्कत यही है कि वे अपनी पूरी प्रतिभा का फलसफा गढ़ पाने में कहीं न कहीं संकोच कर रहे हैं। वे कर गए, तो कर गए। बाकी आगे क्या है? जो है सो है। इसलिए यह लेख लिखने का मन हो गया। जानता हूं बहुत से लोग नहीं पढ़ते हैं। भरमाते जरूर रहते हैं कि आप लिखते रहिए। हम तो आपको पढ़ते हैं। लेखक वही सच्चा होता है, जो लिखता रहता है। भले कोई उसे पढ़े या न पढे़। उसकी किताब छापकर प्रकाशक उसे धोखा देकर देश का सबसे बड़ा प्रकाशक भी कहलाने लगे।
धरती पर क्यों आए हुजूर?
1704 में इंग्लैंड में चीफ जस्टिस सर जाॅन होल्ट ने राजद्रोह के अपराध की परिभाषा में सुधार लाते कहा था लोग सरकार के खिलाफ बुरी भावना या बददिमागी रखें तो जवाबदेही तय किए बिना सरकार का चलना संभव नहीं होगा। लोगों को सरकार के लिए सद्भावना रखनी चाहिए। भले ही आरोप लगाने वाले सच भी क्यों न बोल रहे हों। ज़्यादा गंभीर मामलों में पूरा सच उजागर करने से सरकार की छवि का नुकसान तो होता ही है। भारत में भारतीय दंड संहिता केे रचनाकार लाॅर्ड मैकाले ने शुरुआत में राजद्रोह का अपराध शामिल नहीं किया था। मैकाॅले की टक्कर के न्यायशास्त्री जेम फिट्ज़ेम्स स्टीफन ने दस साल बाद राजद्रोह को जोड़ते कहा यह धोखे से छूट गया था। कारण असल में यह था कि 1863 से 1870 तक भारत में आज़ादी के लिए मशहूर वहाबी आंदोलन चला था। उससे निपटने सरकार को राजद्रोह का दंड संहिता में बीजारोपण करना मुफीद लगा। राजद्रोह अपराध का गर्भगृह इंग्लैंड का ‘द ट्रेजन फेलोनी एक्ट‘ काॅमन लाॅ में रहा। भारत में 1892 में ‘बंगबाशी‘ पत्रिका के संपादक जोगेन्द्र चंदर बोस एवं अन्य के खिलाफ अदालती विचारण में आया। मामले में चीफ जस्टिस पेथेरम ने कहा आरोपी की सरकार के खिलाफ नफरत या मनमुटाव की भावना साफ झलकती है।
इंग्लैंड में जन्मे, तिलक तक पहुंचे
राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मुकदमे एक के बाद एक आकर लोकमान्य तिलक को नागपाश में बांधने की कोशिश कर गए। 1859 में तिलक का पहला मामला उनके भाषण और भक्तिपूर्ण भजन गायन को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की स्मृति संबंधी आयोजन में दर्ज हुआ। दूसरा मुकदमा 1908 में चस्पा किया गया। बंगाल विभाजन के नतीजतन मुजफ्फरपुर में अंगरेजी सत्ता के खिलाफ बम कांड हुआ। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए जा रहे अत्याचारों की तिलक ने समाचार पत्र ‘केसरी‘ में कड़ी आलोचना की। जज दावर ने तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहराया। 1908 में तिलक के अपराधिक प्रकरण में बचाव पक्ष के वकील मोहम्मद अली जिन्ना की जानदार तकरीर भी काम नहीं आई। तिलक को छह वर्ष के लिए कालापानी की सजा दी गई।
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गांधी ने राजद्रोह को आईना दिखाया
सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ। 1922 में सम्पादक गांधी और समाचार पत्र ‘यंग इंडिया‘ के मालिक शंकरलाल बैंकर पर तीन आपत्तिजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। सुनवाई में बहुत महत्वपूर्ण राजनेता अदालत में हाजिर रहते। देश में उस मामले को लेकर सरोकार था। जज स्टैंªगमैन के सामने गांधी ने तर्क किया कि वे साम्राज्य के पक्के भक्त रहे हैं लेकिन अब गैरसमझौताशील, असंतुष्ट बल्कि असहयोगी नागरिक हैं। ब्रिटिश कानून की मुखालफत करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। यह कानून वहशी है। जज चाहें तो अधिकतम सजा दे दें। कहा कि राजद्रोह भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है। वह नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है। जज ने कहा वे मजबूर हैं। गांधी को छह वर्ष के कारावास की सजा दी गई।
1910 में गणेश दामोदर सावरकर ने कई द्विअर्थी कविताओं का प्रकाशन किया था। पढ़ने पर नहीं कहा जा सकता था कि खुले आम कोई नफरत या हुक्मउदूली की जा रही है। लेकिन आरोप था कि लेखक का आशय हिन्दू देवी देवताओं के नामोल्लेख के जरिए अंगरेज़ी हुकूमत के खिलाफ नफरत और मुखालफत का इजहार करना ही था। 1927 में सत्यरंजन बख्शी के मामले में राजद्रोह का हथियार फिर चलाया गया। 1942 में मशहूर मुकदमा निहारेन्दुदत्त मजूमदार का हुआ। उनके प्रकरण में चीफ जस्टिस माॅरिस ग्वाॅयर ने लेकिन पारंपरिक ब्रिटिश कानून की व्याख्या का अनुसरण करते यही सही ठहराया कि जब आरोपी के कहने से लोक शांति के भंग या भंग होने की युक्तियुक्त सम्भावना या खतरा प्रतीत हो तो ही वह अपराधी ठहराया जाएगा। अपराधी की मानसिक स्थिति भर से अपराध होने का कोई आधार नहीं माना गया। लेकिन आगे चलकर सदाशिव नारायण भालेराव के प्रकरण में प्रिवी काउंसिल ने निहारेंदु दत्त मजूमदार के प्रकरण के फैसले के आधारों को पलट दिया।
संविधान सभा से खारिज
संविधान सभा में ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने इस संड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे। इतिहास का सच है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी के प्रतिबंध के रूप में शामिल किया। संविधान सभा में सोमनाथ लाहिरी ने वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोड़ा बनाए जाने पर बेहद कड़ी आलोचना की। उन्होंने व्यंग्य में पूछा क्या सरदार पटेल सोचते हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार को ब्रिटिश सरकार से भी ज़्यादा नागरिक विरोधी शक्तियां मिलनी चाहिए? महत्वपूर्ण है जवाहरलाल नेहरू ने संविधान बनने के बाद अनुच्छेद 19 (1) (क) के सिलसिले में संविधान में प्रथम संशोधन होते वक्त साफ कहा था मैं इस राजद्रोह को कायम रखने के पक्ष में कभी नहीं रहा। इसे व्यावहारिक और ऐतिहासिक कारणों से हटा दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य लेकिन यही है कि जाने क्यों राजद्रोह का अपराध कायम रहकर अपने बाज जैसे जबड़ों में हर तरह के अभिव्यक्तिकारक विरोध को गौरेया समझकर दबा लेता है।
1954 में रामनंदन नामक राजनीतिक व्यक्ति ने कांग्रेस और नेहरू के खिलाफ बहुत आपत्तिजनक भाषण दिए थे। निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को पलटते इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस गुर्टू ने फैसले में लिखा ऐसी आलोचना करते वक्त लोकव्यवस्था और लोकशांति को ध्वस्त करने के कृत्य किए ही जाएं, तब ही राजद्रोह का अपराध घटित होना माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसके पहले 1951 में पंजाब हाईकोर्ट ने तारासिंह गोपीचंद के प्रकरण में ऐसा ही फैसला दिया था कि भारत अब सार्वभौम लोकतांत्रिक राज्य है। सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी और राज्य की बुनियाद को हिलाए बिना उन्हें रुखसत करने के कारण भी पैदा किए जा सकते हैं। ( बाकी हिस्सा कल )
-पुष्य मित्र
मनमोहन सिंह के हाथ जोड़ लेने के पीछे वही स्वाभिमान था। जो आने वाले दिनों में बढ़ता गया। मैं मनमोहन सिंह का बहुत प्रशंसक नहीं हूं। वे भारत में विनाशकारी बाजारवाद के अगुआ रहे हैं। आज हमारा देश जिन नीतियों पर चल रहा है, उसकी शुरुआत उन्होंने ही की और इन नीतियों के जरिये हमारे देश में अमीर और अमीर हुए, गरीब और गरीब। मगर उनका दुर्भाग्य और देश का सौभाग्य था कि उनकी दस साल की सरकार पर लगातार साम्यवादी और समाजवादी नियंत्रण रहा। पहले वाम दलों का, फिर सोनिया गांधी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का। इसलिए वे सब्सिडी का खात्मा, सरकारी कंपनियों की बिक्री और कारपोरेट को खुली छूट उस तरह से नहीं दे पाये, जैसा वे चाहते थे या कहें तो जैसा विश्व बैंक चाहती है।
कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो एक देश के रूप में आपको कभी न भूलने वाला गौरव देती हैं। आजादी के बाद कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिन्हें आज भी लोग देश के गौरव के रूप में याद करते हैं। जैसे- नेहरू का गुटनिरपेक्ष देशों के नेता के रूप में उभरना, शास्त्री जी की यह कोशिश कि वे अपने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना लें, इंदिरा गांधी के प्रयासों से बांग्लादेश की आजादी, इसके अलावा लोग दो परमाणु परीक्षणों को भी उस कड़ी में जोड़ते हैं। मगर जब मैं आजादी के इतिहास के बाद किसी ऐसी घटना की कड़ी तलाशता हूं जो एक देश के रूप में दुनिया में भारत को प्रतिष्ठित करती हो तो मुझे 2004 दिसंबर की वह घटना याद आती है, जब सुनामी के भीषण प्रकोप के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। उस आपदा से उबरने के लिए पूरी दुनिया भारत को मदद करने के लिए तैयार खड़ी थी, मगर उन्होंने बड़ी विनम्रता से कह दिया कि हमें लगता है कि हम इस आपदा से खुद निपटने में सक्षम हैं, अगर फिर भी ऐसा लगा कि हम अपने लोगों की मदद नहीं कर पा रहे तो आपकी मदद स्वीकार कर लेंगे।
मनमोहन सिंह के इस बयान को उस वक्त काफी हैरत के साथ देखा गया था। उस वक्त लोग इस बात को स्वाभाविक मानते थे कि आपदा के वक्त में दुनिया भर के मुल्क सहायता तो करते ही हैं। 1991 में उत्तरकाशी के भूकंप और 1993 में लातूर के भूकंप के वक्त हमें खूब अंतरराष्ट्रीय सहयोग मिला था। 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण के बाद हमारे ऊपर कई मुल्कों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये थे। मगर जनवरी, 2001 में जब गुजरात में भूकंप आया तो फिर कम से कम 20 मुल्कों ने हमें इस आपदा से निपटने के लिए सहयोग किया। मगर 2004 की सुनामी जो कि इन आपदाओं के मुकाबले काफी बड़ी आपदा थी, के वक्त हमारी सरकार ने दुनिया भर के आगे हाथ जोड़ लिये। कहा, एक बार हमें कोशिश कर लेने दीजिये। नहीं होगा तो मांग लेंगे। उस साल हमारी सरकार ने न सिर्फ खुद अपने लोगों को राहत और पुनर्वास उपलब्ध कराया, बल्कि श्रीलंका की भी मदद की।
इस घटना के बाद भारत जैसे मुल्क में ‘नो एड पॉलिसी’ की शुरुआत हुई। आपदाओं के वक्त सरकार हर बार विदेशी मुल्कों के सामने हाथ जोड़ती रही। फिर चाहे वह 2005 का कश्मीर का भूकंप हो, 2013 में उत्तराखंड की भीषण बाढ़ या 2014 की कश्मीर की बाढ़। हर बार हमारी सरकार ने अपने दम पर इन आपदाओं का सामना किया और अपने लोगों को राहत पहुंचायी। कश्मीर में आये भूकंप के वक्त तो भारत सरकार ने अपने इलाके में राहत चलाने के साथ-साथ पीओके के लिए भी मदद उपलब्ध कराया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई के बाद मुझे भारत सरकार का यह फैसला सबसे अधिक गौरवान्वित करता है।
इस फैसले को मैं उस घटना से जोड़ता हूं। 2001 की भूकंप के वक्त हम लोग राहत अभियान में भाग लेने के लिए गुजरात गये थे। वहां कच्छ के इलाके में राहत बांटते वक्त हमने देखा था गुजरात के पटेलों का स्वाभिमान। अमूमन हर जगह पटेलों ने हमारे आगे हाथ जोड़ लिये। हमें जरूरत नहीं, हम कैसे भी कर लेंगे। गरीबों को बांटिये। जबकि उनके घर भी ध्वस्त पड़े थे, लोगों की मौतें हुई थीं। परेशानी और अभाव उनके सामने भी था। मगर वे हाथ जोडक़र मना कर देते थे। 15 दिन तक चले उस राहत अभियान में हमने ज्यादातर भोजन पटेलों के घर किया। पारंपरिक गुजराती भोजन, मगर वे परिवार जो हमें भोजन कराते, वे भी राहत का एक दाना लेने के लिए तैयार नहीं थे।
बाद में मुझे समझ आया कि मनमोहन सिंह के हाथ जोड़ लेने के पीछे वही स्वाभिमान था। जो आने वाले दिनों में बढ़ता गया। मैं मनमोहन सिंह का बहुत प्रशंसक नहीं हूं। वे भारत में विनाशकारी बाजारवाद के अगुआ रहे हैं। आज हमारा देश जिन नीतियों पर चल रहा है, उसकी शुरुआत उन्होंने ही की और इन नीतियों के जरिये हमारे देश में अमीर और अमीर हुए, गरीब और गरीब। मगर उनका दुर्भाग्य और देश का सौभाग्य था कि उनकी दस साल की सरकार पर लगातार साम्यवादी और समाजवादी नियंत्रण रहा। पहले वाम दलों का, फिर सोनिया गांधी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का। इसलिए वे सब्सिडी का खात्मा, सरकारी कंपनियों की बिक्री और कारपोरेट को खुली छूट उस तरह से नहीं दे पाये, जैसा वे चाहते थे या कहें तो जैसा विश्व बैंक चाहती है। जो मौका बाद में नरेंद्र मोदी की सरकार को मिला, क्योंकि इस सरकार पर जनसरोकारी कार्यों का कोई दबाव नहीं है। इसके वोटरों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश आर्थिक रूप से बेहतर हो। तबाह हो जाये तो हो जाये, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने तो यह सरकार मुसलमानों को दबाकर रखने के लिए चुनी है।
तो खैर, भले मुझे मनमोहन सिंह की नीतियां पसंद नहीं हैं, मगर उनका यह फैसला मुझे अच्छा लगा। इसने मुझे गौरवान्वित किया। बाद में नरेंद्र मोदी सरकार ने इस नीति का इस्तेमाल विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारों को दबाने में किया। 2018 में जब केरल में बाढ़ आयी तो यूएई ने राज्य सरकार को 700 करोड़ की सहायता का ऑफर किया। मगर उसे लेने से मोदी जी की सरकार ने इसलिए मना कर दिया कि हमारी अपनी पॉलिसी नो एड की है।
पर अब सरकार ने एक तरह से उस पॉलिसी को ताक पर रख दिया है। अब हर किसी की मदद का स्वागत है। यह मदद इसलिए है कि हमने सही वक्त पर अपनी तैयारी नहीं की और अपने लोगों को बचाने में विफल रहे। लिहाजा हमने स्वास्थ्य उपकरणों के साथ-साथ हर तरह की मदद को स्वीकार करना शुरू कर दिया है।
कहा जा रहा है कि भारत सरकार ने मदद नहीं मांगी है। मदद खुद आ रही है। मगर सरकारें कब मदद मांगती हैं। मदद तो खुद आती हैं। हां, आपमें वह आत्मविश्वास है तो पूरी विनम्रता से इनकार कर दीजिये। अगर नहीं है तो स्वीकार करना ही होगा। कहा जा रहा है कि मदद सरकार नहीं ले रही, रेड क्रॉस सोसाइटी ले रही है। मगर क्या यह सच नहीं कि इन मदद को स्वीकार करने के लिए रेड क्रॉस सोसाइटी को अधिकृत केंद्र सरकार ने ही किया है। इस तरह हम माने न माने मगर पिछले सोलह सालों का गौरव बोध अब खत्म हो गया है। सरकार ने नो एड पॉलिसी को बायपास करने रास्ता निकाल लिया है। हमारे हवाई अड्डे पर मदद के लिए सामान लेकर उतरा हर विमान यही कह रहा है कि भारत अब वह मुल्क नहीं जो कभी मदद का ऑफर करने वाली हर विदेशी पहल के आगे हाथ जोड़ लेता था। अभी रहने दीजिये, एक बार कोशिश कर लेने दीजिये। अब इसे वैधता देने के लिए तो भाजपा की आईटी सेल ने कई तरह के तर्क गढ़े हैं। वे ऐसा करते रहते हैं। मगर सच तो यही है।
-प्रकाश दुबे
केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के निदेशक सुबोध कुमार जायसवाल कोलकाता की कलह-कहानी की चुनौती पर गौर कर रहे हैं। धुर दक्षिण में तमिलनाडु में दूसरा बखेड़ाखड़ा हो सकता है। तूतीकोरिन में वेदांता के स्टरलाइट कापर कारखाने में साल 2018 में गोली चली। नेता हिरासत में लिए गए। मुख्यमंत्री मुथुवेल करुणानिधि स्टालिन ने 38 प्रकरण वापस लेने का आदेश जारी कर दिया। मत्स्य विकास मंत्री अनिता राधाकृष्णन को सीधा फायदा मिलेगा। सहयोगी दलों के नेताओं के साथ शशिकला के भतीजे दिनाकरन भी मुकदमेबाजी और जांच से बचे। केन्द्र सरकार के दबाव में शशिकला चुप रहीं। भतीजे दिनाकरन ने विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार खड़े कर अण्णा द्रमुक-भाजपा मोर्चे की हार पक्की कर दी। स्टालिन ने केन्द्र सरकार को चिढ़ाने वाला एक और फैसला किया। पिछली सरकार ने जिन 93 किसानों और नेताओं को स्टरलाइट विरोधी आंदोलन में जेल में ठूंसा था, उन सबको सरकारी खजाने से एक एक लाख रुपए मुआवजा दिया जाएगा। स्टरलाइट की सीबीआई जांच के दायरे में आने वाले मामलों की वापसी पर फिलहाल राज्य सरकार ने पत्ते नहीं खोले।
दो टकिया की महामारी
निर्वाचन सदन में बैठे लोग महामारी जैसी छोटी मोटी चीजों से नहीं डरते। हाल के विधानसभा चुनावों में क्या कमी रह गई? इसका पता लगाने के लिए जांच समिति गठित की है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने इसकी घोषणा कर दी है। हो सकता है, यास चक्रवात और जांच टीम साथ साथ ही कोलकाता के आसपास पहुंचे हों। निर्वाचन सदन वाले डरते हैं तो मानसून से। बरखा रानी केरल की धरती को छूने वाली है। आयोग ने दादरा एवं नगर हवेली, खंडवा और हिमाचल प्रदेश के मंडी के लोकसभा उपचुनाव टाले। मानसून के बाद तक विधानसभा के उपचुनाव भी टाल दिये। उत्तराख्ंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत इस फैसले से परेशान हैं। मानसून जुलाई तक हिमालय को छूता है। तीरथ के मुख्यमंत्री बनने और चुनाव टलने का फैसला लगभग साथ हुआ। अब तक किसी विधायक ने इस्तीफा देकर तीरथ सिंह के लिए जगह खाली नहीं की। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बावजूद तीरथ ने लोकसभा सदस्यता से त्यागपत्र नहीं दिया। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के पैंतरों से अलग बौखलाहट है। छह महीने के अंदर विधानसभा का सदस्य बनना है। उत्तराखंड में विधान परिषद नहीं है। वरना तीरथ वैतरणी पार करते।
सदन-सूचना
बात बात में कह दिया जाता है कि केन्द्रीय जांच एजेंसिया काम नहीं करतीं। एकतरफा रवैया अपनाती हैं। खास लोग जांच और छापों के शिकार बनते हैं। कुछ खास लोग बच जाते हैं। अदालत की फटकार एजेंसियां सुनती हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने बैठक में गैरहाजिर रहकर प्रधानमंत्री की बेअदबी की। बेचारे संबित पात्रा खाली कुर्सियों की तस्वीर भेज रहे हैं। इससे पहले गृह मंत्री के विज्ञान-ज्ञान का भरी सभा में मखौल उड़ाया। मंत्रियों की गिरफ्तारी के बाद एजेंसियों से पूछा जा रहा है कि शिशिर अधिकारी को हिरासत में क्यों नहीं लिया? खबरखोजी पत्रकार ने दावा किया था कि नारद घोटाले में घूस तो शिशिर ने ली थी। शिशिर लोकसभा के सदस्य थे। साल भर पहले लोकसभा अध्यक्ष से अनुमति मांगी थी। लोकसभा सचिवालय से उत्तर नहीं मिला। शिशिर अधिकारी अब विधायक हैं। कानूनपरस्त एजेंसियों को इसकी जानकारी मिलने पर बात बढ़ेगी।
ऑक्सीजन सिलिंडर चुप
दिल्ली से प्राणवायु की सप्लाई में बाधा आ रही है। यह वाक्य न तो केन्द्र सरकार पर आक्षेप है और न इसका कोरोना महामारी से निपटने से कोई ताल्लुक है।कर्नाटक के मंत्री आर अशोक ने मंजूर किया कि मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की कुर्सी डांवाडोल है। मुख्यमंत्री के वफादार अशोक को दिल्ली से आक्सीजन मिलने की आस है। बंगलूरु और अन्य शहरों में असंतुष्ट विधायक गुटों में बैठकें कर रहे हैं। पर्यटन मंत्री योगीश्वर विधायकों तथा शिकायतों और आरोपों का ग_र लेकर दिल्ली जा धमके। पर्यटन मंत्री योगीश्वर सैर सपाटे के लिए दिल्ली नहीं गए थे। किसी सक्षम युवा को मुख्यमंत्री बनाने की मांग की। येदियुरप्पा की तुलना में तो सभी युवा हैं। अक्खड़ येदियुरप्पा को कुर्सी खाली करने के लिए राजी नहीं हैं। सांसद बेटे को केन्द्र में राज्यमंत्री बनाने के लालच में नहीं आने वाले।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजद्रोह से अधिक गंभीर अपराध क्या हो सकता है, खास तौर से जब किसी देश में किसी राजा का नहीं, जनता का शासन हो। लोकतंत्र में राजद्रोह तो उसे ही माना जा सकता है, जो ऐसा काम हो, जिसकी वजह से तख्ता-पलट हो जाए या देश के टुकड़े हो जाएं या देश में गृहयुद्ध छिड़ जाए। इस तरह की कोई हरकत या बात आंध्र के एक सांसद आर.के. राजू ने नहीं की लेकिन फिर भी आंध्र की सरकार ने उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा ठोक दिया।
इसके लिए उनके उस भाषण को आधार बनाया गया, जिसमें उन्होंने कोरोना के इंतजाम में आंध्र सरकार की कड़ी आलोचना की थी। उस तेलुगु भाषण का अनुवाद जब सर्वोच्च न्यायालय ने सुना तो उसने उन्हें जमानत दे दी लेकिन आंध्र सरकार ने उन दो तेलुगु न्यूज़ चैनलों को भी पुलिस थाने में घसीट लिया, जिन्होंने राजू के भाषण को जारी किया था। उस भाषण को अन्य कई माध्यमों ने भी जारी किया था लेकिन आंध्र सरकार ने सिर्फ उन दो चैनलों को ही कठघरे में खड़े करने की कोशिश की।
सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र सरकार से अगले एक महिने में कुछ सवालों का जवाब मांगा है। जाहिर है कि सरकार के लिए यह सिद्ध करना लगभग असंभव होगा कि उन दोनों चैनलों ने राजद्रोह का कार्य किया है। स्वयं अदालत ने कहा है कि अंग्रेज के जमाने के राजद्रोह-कानून को आज के भारत में लागू करना अजीब-सा है। इस कानून की आड़ में संचार-माध्यमों का गला घोटना सर्वथा अनुचित है।
इस कानून के अनुसार राजद्रोह का अपराध सिद्ध होने पर दोषी व्यक्ति को तीन साल से लेकर आजीवन सजा और जुर्माना भी हो सकता है। यह कानून 1870 में अंग्रेजों ने बनाया था। इसके अंतर्गत अनेक क्रांतिकारियों, कांग्रेसियों, लेखकों और पत्रकारों को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया था। जब भारत आजाद हुआ तो हमारे संविधान से यह ‘राजद्रोह’ शब्द बाहर निकाल दिया गया और धारा 19 (1) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सभी नागरिकों को दिया गया। लेकिन भारतीय दंड सहिता की राजद्रोह संबंधी धारा 124 (ए) अपनी जगह बनी रही।
इसे बल मिला, 1951 के उस संविधान-संशोधन से जो धारा 19 (2) के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ ‘तर्कसम्मत प्रतिबंध’ लगा सकती है। ऐसे प्रतिबंध कभी-कभी आवश्यक हो जाते हैं लेकिन इन प्रतिबंधों का सरकारें कितना दुरुपयोग करती हैं, इसका पता आपको इस तथ्य से मिल जाएगा कि 2019 में इस कानून के तहत 96 लोग गिरफ्तार किए गए और उनमें से अभी तक सिर्फ दो लोग दोषी पाए गए, 29 लोग बरी हो गए। बाकी लोगों पर अभी मुकदमा चल रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय का यह इरादा सराहनीय है कि अबकी बार वह इस कानून की गहराई में जाकर चीड़-फाड़ करेगी और यह तय करेगी कि वह किसे राजद्रोह कहे और किसे नहीं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
आज महामारी में हमारे डॉक्टर्स जिस तरह कोरोना से निर्णायक युद्ध लड़ रहे , जिस तरह 834 डॉक्टर्स शहीद हुए, जिस तरह वो सभी की जिंदगी बचा रहे ऐसे में जरूरत है इन डॉक्टर्स के साथ मजबूती, प्रेम के साथ खड़े होकर इनके उत्साह वर्धन की।
हमने ग्यारहवीं कक्षा तक एलोपैथिक गोलियां निगलना नहीं सीखा था। डॉ. बी सी गुप्ता और बी आर गुहा जैसे दिग्गज होमियोपैथी के डॉक्टर हमारा सम्पूर्ण ट्रीटमेंट करते थे।
एक दौर ऐसा भी आया जहाँ होमियोपैथी को ठिठकते पाया खुद डॉ बी सी गुप्ता ने एलोपैथी लेने की सलाह दी थी।
एलोपैथी जीवन रक्षक साबित हुई भी।
जहाँ दूसरी पैथी ख़त्म होती है वहां एलोपैथी शुरू होती है। एलोपैथी एक ऐसा विज्ञान है जो चमत्कारी, अतिशयोक्तिपूर्ण दावे नहीं करता बल्कि हक़ीक़त, रिपोर्ट्स, रिसर्च, महत्वपूर्ण विश्व्यापी ट्रायल की जमीन पर बात करता है ।
खुशी की बात है आयुर्वेद में भी ट्रायल बढ़ते जा रहे।
ख़ुद आयुर्वेद डॉक्टर एलोपैथी सरकारी अस्पतालों से विधिवत इंटर्नशिप लेकर प्रैक्टिस करते हैं वे आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों लिखते हैं और ऐसे कई वरिष्ठ डॉक्टर तो आयुर्वेद के साथ एलोपैथी के भी परम विद्वान हैं।
एलोपैथ के कई डॉक्टर भी जहाँ आयुर्वेद की दवाओं की ज़रूरत हो लिखते हैं।
इस शहर के ही आयुर्वेद के डॉक्टरों से जिनसे मेरी मुलाकात होती रही उनका एलोपैथी का ज्ञान बहुत उच्च स्तर का देखा और वैसी ही प्रैक्टिस।
इसी तरह एलोपैथी के डॉक्टरों का अन्य पाठ्य में रुझान और उनकी विद्वता नजदीक से देखीं ।
राजनीति को दूर रखिये, रामदेव की मत सुनिए तो देखेंगे कि इनके बीच कैसे घनिष्ठ और परस्पर सम्मान के संबंध हैं। ये बात और है कि व्यापार और राजनीति से भी मुनाफा कमाने वाले रामदेव जान बूझकर इस घनिष्ठता और प्रेम पर पर्दा डाले रखेंगे।
फार्मा में लंबा समय गुजारते हुए इन पर मैंने स्वस्थ बहस देखीं पर विवाद कभी नहीं देखा ।
पिछले कुछ सालों से जरूर निजी स्वार्थ के चलते रामदेव ने ख़ुद को बचाने या माल खपाने के उद्देश्य से विवाद पैदा किया पर ऐसे विवाद पहले कभी नहीं हुए। ये विवाद टीवी तक ही रहा और कभी मैंने किसी का दिल खट्टा होते नहीं देखा ख़ुद रामदेव का परिवार कैसे एलोपैथी की शरण में रहा ये हम लगातार देख रहे हैं, फिर भी वो बयानबाजी कर रहे ये अलग बात है । रामदेव का एलोपैथी 1ह्य आयुर्वेद का असर सोशल मीडिया और उस टीवी तक ही सीमित है ,जो इनके विज्ञापनों से सांस लेता है ।
दरअसल, एलोपैथी त्वचा से लेकर दिमाग के एक-एक सेल का ऐसा सर्वाधिक विकसित विज्ञान है जो हर पल नई खोज नए मॉलिक्यूल नए ट्रायल और हार दावे के लिए ठोस वैज्ञानिक प्रमाण की खोज में जुटा रहता है। सर्जरी में जिस मुकाम पर पहुँच चुका उसे घूरने के लिए भी इतना ऊंचा देखना होगा कि गर्दन अकड़ जाएगी।
इसी तरह इस देश के आयुर्वेद ने दुनिया में एक मुकाम हासिल किया है। कोरोना काल में अपनी इम्युनिटी बढ़ाने में लोगों ने भरपूर आयुर्वेद काढ़े का इस्तेमाल किया। यही नहीं शुरू से ही केरल के आयुर्वेद की दुनिया में धूम रही, ऐसे ही दुनिया भर के लोग केरल नहीं आते रहे।
इस देश में जिस तरह इंडियन, चायनीज़, इटालियन, वेज, नॉन वेज या अलग-अलग तरह की थाली लोग प्रेम से खाते आ रहे वैसे ही अलग-अलग पैथी से इलाज भी लेते आ रहे कोई विवाद न रहा, कोई आपत्ति नहीं। अमन-चैन से सब कुछ चलता आ रहा।
इस देश में एलोपैथी और आयुर्वेद की घनिष्ठता का इतना सुंदर इतिहास है कि रामदेव लाख उकसावे के बयान दें कभी सफल नहीं होंगे।
आज महामारी में हमारे डॉक्टर्स जिस तरह कोरोना से निर्णायक युद्ध लड़ रहे , जिस तरह 834 डॉक्टर्स शहीद हुए, जिस तरह वो सभी की जिंदगी बचा रहे ऐसे में जरूरत है इन डॉक्टर्स के साथ मजबूती, प्रेम के साथ खड़े होकर इनके उत्साह वर्धन की। हम यही तो कर सकते हैं और यही शहीद डॉक्टर्स के लिए श्रद्धांजलि होगी ।
-कृष्ण कांत
31 मई को छपी खबर के मुताबिक, ठग रामदेव ने मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा की है। यह धूर्त व्यापारी महामारी के समय जो कर रहा है, परसाई जी उसे बहुत पहले हमें समझा गए थे। असली खेला धंधे का है। इस ठग बाबा को अपना व्यापार बढ़ाना है। सरकार को देश भर में हो रही मौतों से जनता का ध्यान हटाना है। इन्हीं दो वजहों से इस धंधेबाज शूटर को उतारा गया है।
यह विवाद शुरू हुआ था जब इस फर्जी योगी ने वॉट्सएप मैसेज पढ़ते हुए एलोपैथी को बेकार और दिवालिया बताया था। फिर कहने लगा कि वैक्सीन लगवाकर 10 हजार डॉक्टर मर गए। फिर बोला कि दुनिया के हर मर्ज का शर्तियां इलाज बस हमारे पास है। फिर कहने लगा कि दुनिया भर की सरकारें ड्रग माफिया के कब्जे में हैं। मेरी लड़ाई उनसे है। अब कह रहा है कि पतंजलि खुद मेडिकल कॉलेज खोलेगा। क्या कोई बता सकता है कि रामदेव का विरोध किस मुद्दे पर है? नहीं। क्योंकि कोई मुद्दा है ही नहीं। मुद्दा है आपदा में अवसर। एलोपैथी को बदनाम करके इसे अपना धंधा शुरू करना है।
यह वही धूर्त है जिसने फटी जींस का मजाक उड़ाया, फिर पतंजलि की फटी जींस लॉंच की थी। मैगी को लेकर उल्टे सीधे बयान दिए, फिर मैगी लॉन्च की। बाजार के हर उत्पाद पर इसने पहले भ्रम फैलाया, फिर अपना माल उतारा। यह इसकी मॉडस ऑपरेंडी है। पहले विवाद खड़ा करके लोगों का ध्यान खींचो और फिर दावा करो कि हमारा वाला बढिय़ा है और धंधा बढ़ाओ।
सदियों से इस्तेमाल होने वाली चीजें तेल, हल्दी, मसाले वगैरह को यह औषधीय गुणों से युक्त बताकर बेचता है, लेकिन वे सामान मिलावटी होते हैं। कई बार जुर्माना भरने के बावजूद मिलावटखोरी जारी रखने वाला यह शख्स यह मूल रूप से एक ठग है जो खुद को योगी, स्वामी और जाने क्या क्या कहता है।
ऐसा नहीं है कि एलोपैथी पर सवाल नहीं हैं। लेकिन अंतिम सच ये है कि मौजूदा महामारी से निपटने में जो थोड़ी बहुत सफलता मिलेगी, वह एलोपैथी के ही कारण है। दोनों चिकित्सा पद्धतियों की अपनी खूबियां और खामियां हैं। दोनों के बिजमैन को अपनी जेबें भरनी हैं। इस ठग की कोरोनिल लॉचिंग का नतीजा वैसा नहीं रहा, जैसा इसने सोचा था। इसलिए अब ये लगातार डॉक्टरों को निशाना बना रहा है।
चाहें रामदेव हों, चाहे उनके चेले बालकृष्ण हों, चाहे कोई मंत्री, बीमार होने पर सबको एम्स में बेड चाहिए। आज ही डॉ निशंक एम्स में भर्ती हुए हैं। देश में हर व्यक्ति को सर्वोत्तम इलाज चाहिए, जो कि अच्छी बात भी है। फिर डॉक्टरों और मेडिकल साइंस पर हमला करने के लिए एक ठग को छूट क्यों दी गई है? उसे वैक्सीन और इलाज के बारे में भ्रम फैलाने और भ्रामक दावे करने की इजाजत क्यों दी जा रही है? उस पर कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है?
जिन डॉक्टरों पर भारत सरकार ने हेलीकॉप्टर से फूल बरसाए, उनपर कोई व्यापारी हमला कर रहा है, क्या ये बात सामान्य है? क्या रामदेव सरकार से ऊपर हो गए हैं? इस आपराधिक कृत्य में अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का भी समर्थन है जो न इसपर कार्रवाई कर रही है, न ही इसे चुप नहीं करा रही है। अपना धंधा फैलाने के लिए ये आदमी समाज के प्रति अपराध कर रहा है और सरकार इसे बढ़ावा दे रही है।
अंग्रेजी चिकित्सा में भी जमकर लूट होती है, लेकिन उसका कारण वह पद्धति नहीं है। उसका कारण ये है कि मेडिकल क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप न के बराबर है। उसके लिए मेडिकल साइंस पर हमला बोलना समाज को सौ साल पीछे धकेलने की कोशिश करना है।
याद रखें, देश आजाद हुआ था तो हमारी सामूहिक औसत आयु 30 से 35 साल थी। अब ये 65 से 70 के बीच है। ये सिर्फ मेडिकल साइंस के दम पर संभव हुआ है। अगर वह कमजोर हुआ तो लोग मुर्गियों की तरह मरेंगे। हो सकता है कि अपना कॉलेज खोलकर उससे भी अरबों कमाए, लेकिन जो हरकत ये कर रहा है, उसके नतीजे भयानक होंगे।
हरिशंकर परसाई ने कहा था-‘धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं।’
-कनुप्रिया
आप और हम देश के क़ब्रिस्तान और श्मशान बन जाने को लेकर रोते रहेंगे, चिताओं की पर्देदारी होती रहेगी, मनुष्य पहले बॉडी, फिर खबर और फिर आँकड़ों में बदलते रहेंगे, मगर राजनीति की ज़मीन तो मंदिर और मस्जिद पर ही तैयार होगी और उस ज़मीन की खुदाई के आदेश जारी हो गए हैं। 2024 के चुनाव में देश 2020-21की त्रासदी पर रोना भूलकर ज्ञानवापी मस्जि़द और काशी विश्वनाथ पर वोट कर रहा होगा।
इतिहास वर्तमान तक की यात्रा को दजऱ् करता है तो समझ बढ़ाने के लिए, उसे यथासंभव दृष्टा की तरह देखने की जरूरत रहती है, मगर पिछले कई सालों से हम सुबह का इंतज़ार करते हुए भविष्य के सूरज की ओर से पीठ किये हुए, पश्चिम की ओर मुख किये सौइयो सालो पहले बीती रातों का हिसाब किताब कर रहे है। जब हम कृतघ्न और अहसान फऱामोश में से क्या बोला जाए, शुक्रिया कहें कि धन्यवाद, मुबारक कहें कि शुभकामना इसी में व्यस्त हैं, वर्तमान विश्व बदल चुका है।
टेक्नोलॉजी मनुष्य का विकल्प बन रही है, कॉरपोरेट विश्व संसाधनो पर कब्ज़ा कर खेत मे क्या बोया जाएगा और हम अपने घरों में क्या खाएँगे पियेंगे, जीने की शर्तें तक तय कर रहा है। प्रकृति मानव हमले सहते सहते अब ह्म्द्गड्डष्ह्लद्बशठ्ठ द्वशस्रद्ग में आ चुकी है, और इस सदी के बाद तक धरती का तापमान इतना होने वाला है कि आधी जनसंख्या ख़त्म होने के कगार पर है। कोरोना ने भी बता दिया है कि वो भेदभाव नहीं करता, उसने जीवन के लिए जरूरी व्यवस्थाओं को बहुत गहरे रेखांकित कर दिया है और भविष्य के लिये बहुत स्पष्ट संदेश दे दिए हैं।
फिर भी अगर हम नहीं जागते, वर्तमान को देखते हुए भविष्य के खतरों को नहीं पहचानते, अपनी मूर्खताओं से सबक़ नही लेते, अपने असल भयों की पहचान नही करते तो हमे नष्ट होने से कोई मंदिर मस्जिद बचा नही सकेंगे।
इन मंदिर-मस्जिदों की खुदाई में इतिहास के मंदिर मस्जि़द दफन हैं कि नहीं मगर भविष्य के क़ब्रिस्तान और श्मशान ज़रूर छिपे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका और कनाडा दुनिया के सबसे अधिक सभ्य और मालदार देश माने जाते हैं। दुनिया के ईसाई भी उन पर गर्व करते हैं लेकिन कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत से एक ऐसी खबर आई है, जो रोंगटे खड़े तो कर ही देती है, वह ईसाइयत और अमेरिकी सभ्यता पर कालिख भी पोत देती है। इस प्रांत में 19 वीं सदी के उत्तरार्ध से 20 वीं सदी के उत्तरार्ध तक एक ऐसा स्कूल चलता रहा, जिसके कब्रिस्तान में 215 छात्रों के शव मिले हैं। इनमें तीन-तीन साल के बच्चे भी थे। इन शवों को एक नई तकनीक के द्वारा खोजा गया है। ये बच्चे कौन थे और ये क्यों मर गए थे? बच्चों के स्कूल-परिसर में कब्रिस्तान की जरुरत क्यों थी? ये बच्चे कनाडा के आदिवासियों के थे।
जब यूरोप के गोरे अमेरिकी महाद्वीप में गए तो उन्होंने वहां के आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्जा तो किया ही, उन्हें खत्म करने की भी कोशिश की। उनके बच्चों को जबर्दस्ती अपने स्कूलों में भर्ती करने और उन्हें छात्रावासों में रहने के लिए मजबूर किया जाता था। उन स्कूलों का नाम अक्सर ‘इंडियन’ स्कूल हुआ करता था। अमेरिका में अब भी वहां के आदिवासियों को ‘रेड इंडियन’ कहा जाता है। 50 साल पहले मुझे ऐसे कई रेड इंडियन गांवों में इन अमेरिकी आदिवासियों के साथ रहने का मौका मिला था। उनका खान-पान, रहन-सहन, भाषा और भूषा अमेरिकियों से बिल्कुल अलग थी। उनके बच्चों को इन स्कूलों में भर्ती करके उन पर अंग्रेजी लादी जाती थी, उन्हें ईसाई बनाया जाता था और कोशिश यह होती थी कि किसी भी बहाने उनकी हत्या कर दी जाए। उन बच्चों के साथ बलात्कार किया जाता था, उन्हें भूखा रखा जाता था और उनके साथ क्रूर मारपीट की जाती थी। जो भी आदिवासी अपने बच्चों को पादरियों के इन स्कूलों में भेजने से मना करता था, उसे कड़ा दंड दिया जाता था।
अमेरिका के 30 राज्यों में ऐसे 350 ‘इंडियन स्कूल’ थे। इस तरह के स्कूलों के छात्रावासों में रहने वाले लगभग 60 हजार बच्चों की हत्या के प्रमाण अभी तक मिल चुके हैं। इस राक्षसी षडय़ंत्र के विरुद्ध 19 वीं सदी के अंत में कर्नल रॉबर्ट इंगरसोल जैसे बागी विचारकों ने युद्ध छेड़ दिया था। 2009 में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इन आदिवासियों से बाकायदा प्रस्ताव पारित करके माफी मांगी थी। अभी जब कनाडा में इस हत्याकांड का पता चला तो उसके प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो ने काफी शर्मिंदगी जाहिर की है और अपने देश के आदिवासियों से क्षमा मांगी है। अमेरिकी महाद्वीप के इन देशों में पिछली पीढिय़ों के गोरों ने जो अत्याचार किए हैं, वे लोमहर्षक हैं लेकिन संतोष का विषय यह है कि वे ही गोरे अब इन गड़े मुर्दों को खुद उखाड़ रहे हैं और अपने पूर्वजों द्वारा किए गए राक्षसी कृत्यों का कच्चा-चि_ा दुनिया के सामने खुद ही पेश कर रहे हैं। लेकिन रोम में सुशोभित पोप महोदय से भी मैं अपेक्षा करुंगा कि ईसाई मिश्नरियों ने अपने स्कूलों में जो यह ईसा-विरोधी हिंसक कार्य किया है, उसके लिए वे कम से कम दुख तो प्रकट करें। यदि वे ऐसा करेंगे तो वह काम यूरोप के एक हजार साल के अंधकार-कालीन ईसाई-इतिहास में थोड़ी-सी रोशनी ले आएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
30 मई को भारत में हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। इसी दिन कोलकाता से 1826 में याने 195 साल पहले हिंदी का पहला समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशक और संपादक श्री युगलकिशोर शुक्ल थे। वह साप्ताहिक अखबार था। उसकी 500 प्रतियाँ छपती थीं लेकिन आज हिंदी के अखबारों की लाखों प्रतियाँ छपती हैं। यह पहला हिंदी अखबार अहिंदीभाषी बंगाल प्रांत से निकला था। हिंदी का पहला दैनिक अखबार ‘समाचार सुधावर्षण’ भी कलकत्ता से ही निकला था और उसके संपादक थे, डॉ. अमर्त्य सेन के नानाजी श्री क्षितिमोहन सेन। लेकिन अब हिंदी इतनी फैल गई है कि उसके अखबार हिंदी-अहिंदी प्रदेशों के अलावा संसार के कई देशों से नियमित छप रहे हैं।
आज देश भर से निकलनेवाले लगभग एक लाख 20 हजार पत्रों में से सबसे ज्यादा हिंदी में ही निकलते हैं। हिंदी को गर्व है कि लगभग 50 हजार पत्र-पत्रिकाएँ आज हिंदी में प्रकाशित हो रही है और जहां तक प्रसार का सवाल है, उसमें भी हिंदी बेजोड़ है। देश में अंग्रेजी का रुतबा जरुर बड़ा भारी है। उसका मूल कारण हमारे बुद्धिजीवियों, नौकरशाहों और नेताओं की दिमागी गुलामी है लेकिन अंग्रेजी अखबारों की पाठक संख्या देश में सिर्फ 5 करोड़ के आस-पास है जबकि हिंदी पाठकों की संख्या 20 करोड़ से भी ज्यादा है। यह तो सरकारी आंकड़ा है लेकिन आप यदि कस्बों और गांवों में चले जाएं तो आपको मालूम पड़ेगा कि एक-एक हिंदी अखबार को मांग-मांगकर दर्जनों लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी अखबारों को घर की महिलाएं और बच्चे भी नहीं पढ़ते। हिंदी अखबारों और हिंदी पत्रकारों ने पराधीन भारत में जो कुर्बानियां की थीं, उनका प्रामाणिक ब्यौरा मेरे ग्रंथ ‘हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम’ में विस्तार से दिया गया है। स्वयं महात्मा गांधी मानते थे कि स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता का असाधारण योगदान था। यह ठीक है कि आपात्काल के दौरान अखबारों का गला घोंट दिया गया था। इसीलिए जब जून 1976 में राष्ट्रपति भवन में मेरे उस ग्रंथ का विमोचन हुआ तो मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अलावा देश और कांग्रेस के लगभग सभी शीर्ष नेताओं को निमंत्रित किया था। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों की उपस्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर दिया गया था।
आज भी देश में घुटन का माहौल है लेकिन ऐसे अनेक अखबार और पत्रकार हैं, जो सारे दबावों के बावजूद ईमान की बात कहने से कतराते नहीं हैं। कोई सरकार उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। जो डरे हुए हैं, वे डरते हैं, अपने स्वार्थों के कारण! हिंदी के कुछ बड़े अखबार सचमुच स्वनामधन्य हैं, जो दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। कुछ हिंदी के बड़े अखबार तो ऐसे हैं, जिनकी स्पष्टवादिता का मुकाबला अंग्रेजी अखबार कर ही नहीं सकते और देश-विदेश की कुछ खबरों में भी अंग्रेजी अखबारों से वे आगे निकल जाते हैं। हिंदी के कुछ टीवी चैनलों की निर्भीकता तो एतिहासिक है। पत्रकारिता-दिवस पर हिंदी का मान बढ़ानेवाले पत्रों, पत्रकारों, चैनलों को तथा हिंदी के करोड़ों पाठकों को मेरी हार्दिक बधाई!!
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनुप्रिया
आज से 2 साल पहले एक दोस्त ने मुझे कहा था कि मोदी के आने से पहले हमें इस बात का अहसास तक नहीं था कि हमें हिन्दू होने पर गर्व होना चाहिए। आज हमें इस बात पर गर्व है कि हम हिन्दू हैं और यह अहसास यह गर्व इस मोदी सरकार की ही देन है, उसकी उपलब्धि है। मैं सकते में उसका मुँह देखती रह गई, मुझे समय पर जवाब नहीं सूझते। आज देश चारों तरफ मरघट बना हुआ है, मौत मानो आसमान से बरस रही है, लोग ऐसे मर रहे हैं जैसे इंसान न होकर क्षुद्र जीव जंतु हों, ऑक्सीजन की कमी से साँसे बन्द हो रही हैं, लोकतांत्रिक संस्थाएँ पहले ही मुर्दा हो चुकी हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट तक ने इस ऑक्सीजन की कमी पर सुनवाई के लिए 30 अप्रैल की तारीख दी है, वो अगली तारीख भी लगा सकता है, देश लाइन में रहे।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के वाइस प्रेजिडेंट डॉक्टर नवजोत दाहिया ने कहा है कि कोविड की सेकंड वेव त्रासदी के लिये मोदी जिम्मेदार हैं, वो बतौर प्रधानमंत्री फेल हुए हैं। वहीं गृह मंत्री गदगद हैं कि प्रधानमंत्री जिस पीएम केयर फंड का पैसा अब तक दबाए रहे, जो जनता का ही दिया हुआ है और इस आपदा ही के लिये दिया हुआ है उसमें से बेहद उदारता स्वरूप कुछ धन ऑक्सीजन प्लांट्स के लिए वो अब अलॉट कर रहे हैं। भक्त जन इस बात पर लहालोट हो रहे हैं, दुबारा ताली थाली बजाने को तैयार हैं। उस मित्र से मुझे अब ये कहने में कोई संकोच नही कि 2014 से पहले चाहे जो स्थिति रही हो कम से कम मुझे भारतीय होने पर गर्व तो होता था, अब वो गर्व भी नही रहा, वो गर्व भी शर्मिंदगी में बदल गया है। दुनिया देख रही है कि इस फर्जी हिन्दू गर्व के चलते हमने अपने देश का क्या हाल कर दिया है। हमने मूर्खता और कट्टरता की प्रतिस्पर्धा में अपनी सहज बुद्धि तक गंवा दी, वो हमारी कमजोरी और मूर्खताओं पर हँस रही है, तरस खा रही है और हम अब भी आँख खोलने को तैयार नहीं।
आज अखबार में खबर है कि दुनिया के सबसे बड़े धनपति बिजोस और मस्क चाँद पर कब्जे की लड़ाई लड़ रहे हैं, धरती इन धनपतियों और इनकी दलाल सरकारों ने रहने लायक छोड़ी नहीं, पानी के बाद हवा पर कब्जे की तैयारी है, मगर हमें कुछ नजर आता नहीं, हम धार्मिक-जातीय वर्ग में अँधे हुए पड़े हैं। उन्हें पता है मूर्ख जीने योग्य नहीं होते, शक्तिशाली को ही जीने का अधिकार होता है, हमने मान लिया है कि हम इसी योग्य हैं इसलिए हम अपने मृत्यु पत्रों पर ख़ुद ही हस्ताक्षर कर रहे हैं।
अप्रैल के महीने में गर्म हवाओं ने धान के खेतों को बुरी तरह से प्रभावित किया। किसानों ने कर्ज लेकर धान की खेती की थी, उपज की उम्मीद लगाए किसान अब नुकसान उठा रहे हैं। कर्ज में डूबे किसान इस बार बहुत चिंतित हैं।
बांग्लादेश के उत्तर-पूर्वी जिले में अपने धान के खेत में खड़े शफीक-उल-इस्लाम तालुकदार के पास मु_ी भर खाली डंठल हैं। वह भूसी भर है। अप्रैल के महीने में दो दिनों तक चली तेज गर्म हवाओं के कारण धान के खेत नष्ट हो गए। किशोरगंज के 45 साल के किसान तालुकदार कहते हैं कि उनका पूरा परिवार इसी फसल पर साल भर निर्भर रहता है। आंखों में आंसू के साथ वे कहते हैं, ‘मेरे बगल के खेत के साथ भी ऐसा ही हुआ। मेरे सपनों की फसल खत्म हो गई।’ रोते हुए तालुकदार कहते हैं, ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि पूरे परिवार का साल भर कैसे पेट भरूं। मैंने अपनी बचत को खेत में निवेश किया और 12 एकड़ से अधिक पर धान की खेती की। अब यह सब खत्म हो गया है।’
हीट स्ट्रेस (गर्मी से होने वाला तनाव) उच्च तापमान, कम बारिश और कम नमी के कारण होता है, इस वजह से बांग्लादेश में इस बार हजारों एकड़ धान की फसल बर्बाद हो गई। जलवायु विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इस तरह की घटनाओं से खाद्य आपूर्ति को खतरा हो सकता है। बांग्लादेश चावल अनुसंधान संस्थान (बीआरआरआई) के मुताबिक अप्रैल के शुरू में लगातार दो दिनों तक तापमान 36 डिग्री पर पहुंचने से कम से कम 36 जिले प्रभावित हुए। देश के मौसम विभाग के अनुसार बांग्लादेश में अप्रैल के लिए औसत अधिकतम तापमान लगभग 33 डिग्री सेल्सियस है। जबकि अन्य फसलें जो प्रभावित हुईं- उनमें मक्का, मूंगफली और केला शामिल हैं।
आंकड़ों के मुतााबिक 68,000 हेक्टेयर से अधिक चावल दो दिनों के भीतर में या तो आंशिक या पूरी तरह से नष्ट हो गए, जिससे तीन लाख किसान प्रभावित हुए और 3।3 अरब टका का नुकसान हुआ। बांग्लादेश पहले से ही तेजी से कठोर मौसम का सामना कर रहा है। देश सूखा, बाढ़ और तूफान समेत अन्य मौसमी झटके महसूस कर रहा है, लेकिन बीआरआरआई के 2012 में शुरू होने के बाद से रिकॉर्ड पर नजर डाली जाए तो अप्रैल का महीना सबसे विनाशकारी साबित हुआ।
कर्ज लेकर किसान खेती करते हैं
राइस इंस्टीट्यूट के कीटविज्ञान विशेषज्ञ मोहम्मद नजमुल बारी कहते हैं, ‘बांग्लादेशी किसानों के लिए हीट स्ट्रेस एक बिल्कुल नई समस्या है।’ वे कहते हैं, ‘पहले (2012) में कोई उल्लेखनीय गर्मी का झटका नहीं था,’ उन्होंने बताया कि पहली दर्ज की गई घटना में केवल चार जिलों की फसल प्रभावित हुई थीं। उनके मुताबिक इस साल अप्रैल में अनुभव की गई गर्मी अब तक का सबसे खराब ‘गर्मी का हमला था।’ बारी कहते हैं, ‘तापमान दिन-ब-दिन बढ़ रहा था, वहां बहुत बारिश नहीं थी, हवा में नमी बहुत कम थी। यह भीषण गर्मी के झटके का मुख्य कारण है।’
खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा
बांग्लादेश के कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रुमीजुद्दीन कहते हैं फसलों पर गर्मी का दबाव सीधा जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है और खास तौर पर चावल के लिए उच्च तापमान खतरनाक है। बुजुर्ग किसान हिलाल मियां कहते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के 60 सालों में इतनी गर्म हवा कभी महसूस नहीं की। बल्लभपुर गांव के रहने वाले हिलाल मियां की चार हेक्टेयर की फसल गर्म हवा के कारण जल गई।
वे कहते हैं, ‘मैंने धान की खेती के लिए पैसे उधार लिए हैं। मैं कैसे कर्ज को चुकाऊंगा? मैं अपनी पत्नी और बच्चों का कैसे पेट भरूंगा। मुझे अपनी आंखों के सामने अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता।’ जलवायु विशेषज्ञों चेतावनी देते हैं कि अगर बांग्लादेश में इसी तरह से भीषण गर्मी आती रही तो देश को भोजन का संकट हो सकता है। (डायचेवैले)
चीन ने दो-बच्चों की कड़ी नीति को समाप्त करते हुए घोषणा की है कि वह अब हर जोड़े को तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति देगा।
सरकारी मीडिया शिन्हुआ ने बताया है कि चीन ने यह फैसला राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में हुई पोलित ब्यूरो की बैठक में लिया है।
यह फैसला तब लिया गया है जब हाल ही में चीन की जनसंख्या के आंकड़े सार्वजनिक किए गए थे जिसमें पता चला था कि उसकी जनसंख्या बीते कई दशकों में सबसे कम रफ्तार से बढ़ी है। इसके बाद चीन पर दबाव बढ़ा कि वह जोड़ों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करे और जनसंख्या की गिरावट को रोके।
इस महीने की शुरुआत में जारी जनसंख्या के आंकड़ों में बताया गया था कि बीते साल चीन में 1.2 करोड़ बच्चे पैदा हुए हैं जो कि 2016 के बाद हुई बड़ी गिरावट है और 1960 के बाद से सबसे कम बच्चे पैदा हुए हैं। 2016 में चीन में 1.8 करोड़ बच्चे पैदा हुए थे।
जनसंख्या के इन आंकड़ों के बाद यह माना जाने लगा था कि चीन बच्चे पैदा करने की पारिवारिक नीतियों में ज़रूर ढील देगा।
परिवार नियोजन और जबरन गर्भपात
2016 में चीन की सरकार ने विवादित वन-चाइल्ड पॉलिसी को खत्म कर दिया था और लोगों को दो बच्चे पैदा करने की अनुमति दे दी थी। लेकिन इस नियम में ढील देने के बाद भी देश में जन्म दर शुरुआती दो सालों में बढ़ी लेकिन फिर गिरने लगी।
द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की प्रमुख अर्थशास्त्री यू सू कहती हैं, ‘दूसरे बच्चे की नीति के सकारात्मक असर जन्म दर पर पड़े लेकिन यह बेहद कम समय के लिए साबित हुए।’
1979 में जनसंख्या वृद्धि को सीमित करने के उद्देश्य से चीन ने वन-चाइल्ड पॉलिसी लागू की थी जिसके कारण जनसंख्या के आंकड़े उसी हिसाब से सामने आते रहे। जो भी परिवार इस नियम का उल्लंघन करते थे उन्हें जुर्माना, रोजग़ार खोने का डर या कभी-कभी जबरन गर्भपात का सामना करना पड़ता था।
लिंग अनुपात में काफी अंतर
वन-चाइल्ड पॉलिसी के कारण देश में लिंग अनुपात में बड़ा अंतर सामने आया है। इसमें वह ऐतिहासिक संस्कृति भी जि़म्मेदार है जिसके तहत लडक़ों को लड़कियों पर अधिक वरीयता दी जाती है।
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के सोशियॉलोजी डिपार्टमेंट के डॉक्टर मू जेंग कहते हैं, ‘इसके कारण विवाह के बाज़ार के सामने भी दिक्कतें खड़ी हुईं हैं। ख़ासतौर से उन पुरुषों के लिए जिनके पास कम सामाजिक-आर्थिक संसाधन थे।’
विशेषज्ञों का अनुमान था कि चीन के नए आंकड़ों के बाद बच्चों के जन्म पर लगी पाबंदियों को हटा लिया जाएगा लेकिन अब लग रहा है कि चीन इस पर सावधानी से क़दम आगे बढ़ा रहा है।
कुछ विशेषज्ञों ने इस पर भी आपत्ति ज़ाहिर की है कि इस क़दम के कारण ‘अन्य परेशानियों’ की भी संभावनाएं हैं जिनमें उन्होंने शहरी और ग्रामीण लोगों के बीच भारी असमानता की ओर ध्यान दिलाया है।
उनका कहना है कि बीजिंग और शांघाई जैसे महंगे शहरों में रह रही महिलाएं बच्चे पैदा करने में देरी कर सकती हैं लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में रह रहे लोग परंपरा का अभी भी पालन करना चाहते हैं और बड़े परिवार चाहते हैं।
नीतियों पर नजऱ रखने वाले एक विश्लेषक ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा, ‘अगर नीति में पूरी तरह छूट दे दी जाए तो देश के ग्रामीण हिस्सों के लोग शहरों के मुक़ाबले अधिक बच्चे पैदा करेंगे और इससे अन्य दिक्कतें पैदा हो सकती हैं।’
विश्लेषकों का मानना है कि इससे ग्रामीण परिवारों पर गरीबी और रोजगार का दबाव बढ़ेगा।
विशेषज्ञ पहले चेतावनी दे चुके थे कि चीन की जनसंख्या की गिरावट का असर दुनिया के दूसरे हिस्सों पर बुरी तरह से पड़ सकता है।
विस्कॉन्सिन-मेडिसन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉक्टर यी फ़ुक्सियान कहते हैं, ‘चीन की अर्थव्यवस्था बेहद तेज़ी से बढ़ रही है और दुनिया के अधिकतर उद्योग चीन पर निर्भर हैं। जनसंख्या में गिरावट का असर इस मामले में बहुत बड़ा है। (bbc.com)
-कृष्ण कांत
कांगो और रवांडा जैसे देश हमारी जान बचाने के लिए मदद भेज रहे हैं और हमारे प्रधानमंत्री अपने लिए 20 हजार करोड़ का हवा महल बनवा रहे हैं।
इस सरकार ने देश को पाकिस्तान, कांगो और रवांडा से भी पीछे धकेल दिया है। भारत की ऐसी छवि तो तब भी नहीं बनी थी जब हम तीसरी दुनिया के गरीब देशों में गिने जाते थे।
शिवसेना ने एकदम सही कहा है कि ‘देश अभी नेहरू-गांधी के बनाए सिस्टम की वजह से सर्वाइव कर रहा है। कई गरीब देश भारत की मदद कर रहे हैं। पहले पाकिस्तान, रवांडा और कॉन्गो दूसरों से मदद लेते थे। लेकिन भारत के मौजूदा शासकों की गलत नीतियों की वजह से देश इस स्थिति से गुजर रहा है।
छोटे पड़ोसी देश महामारी से निपटने में भारत को मदद दे रहे हैं, वहीं मोदी सरकार दिल्ली में कई करोड़ के सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का काम रोकने के लिए तैयार नहीं है। नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका जैसे देश आत्मनिर्भर भारत को मदद की पेशकश कर रहे हैं।’
इंटरनेशनल मेडिकल जर्नल द लैंसेट ने लिखा है कि मोदी सरकार को अपनी गलतियां स्वीकार करते हुए जिम्मेदार नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। खतरे के बारे में आगाह करने पर सुपरस्प्रेडर इवेंट हुए। अब जब तबाही मची है तो सरकार इसे रोकने के प्रयास करने की जगह फेसबुक और ट्विटर पर अपनी आलोचना करने वालों पर शिकंजा कसने में जुटी है।
दुनिया के सभी बड़े मीडिया संस्थान कोरोना की दूसरी लहर में मची तबाही के लिए भारत में ‘अक्षम सरकार’ और लुंजपुंज नेतृत्व को जिम्मेदार मान रहे हैं जिसने महामारी के समय चुनावी रैलियां कीं, कुंभ आयोजित किया और लोगों के बेपरवाह होने में अहम भूमिका निभाई। जब देश को कोरोना से निपटने की तैयारी करनी थी, तब भारत के प्रधानमंत्री झूठ का कारोबार करने में व्यस्त थे। अब जब मामला हाथ से निकल गया है तो सरकार अपनी छवि चमकाने में व्यस्त है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) स्वास्थ्य मंत्रालय से गुजारिश कर रहा है कि ‘सरकार अब तो जाग जाओ’। एसोसिएशन कोरोना संकट पर केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए कह रहा है कि वह स्वास्थ्य मंत्रालय की ‘सुस्ती’ देखकर हैरान है।
आईएमए ने कहा है, ‘महामारी की दूसरी वेव की वजह से पैदा हुए संकट से निपटने में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की सुस्ती और अनुचित कार्रवाई देखकर हम हैरान हैं...सामूहिक चेतना, सक्रिय संज्ञान और आईएमए समेत दूसरे समझदार साथियों के निवेदन को कूड़ेदान में डालकर और बिना जमीनी हालात समझे फैसले लिए जाते हैं।’
एसोसिएशन का कहना है कि ‘सरकार झूठ बोलना बंद करे। आंकड़ों में पारदर्शिता लाए। कोविड मौतों को गैर-कोविड मौतें बताना बंद करे। देश में ऑक्सीजन का प्रोडक्शन पर्याप्त है, लेकिन दिक्कत उसके डिस्ट्रीब्यूशन में है।’
झूठ के रेत के सहारे नए भारत बनाने की प्रचार-पिपासा ने देश को ऐसे संकट में धकेल दिया है जहां कितने लाख मारे जाएंगे, किसी को अंदाजा तक नहीं है।
-कनुप्रिया
2019 के चुनाव के बाद मोदी जी ने कहा था कि हमारे पिछले 5 साल तो 70 साल के गड्ढे भरने में ही निकल गए। असल काम तो हम अब करेंगे। उसके बाद क्या असल काम किया वो हमें मालूम ही है।
ये 70 साल का रोना पिछले 7 साल में बहुत सुना है, 70 में इतना खराब हुआ, 70 साल की व्यवस्था है अकेले मोदी क्या करेंगे, 70 साल में देश बर्बाद हुआ, तब सोचती हूँ जो मोदी नेहरू से इतनी हसद रखते हैं कि उनकी भौंडी नकल करते हैं, जिन्हें नेहरू से बड़ा कद करने की इतनी हसरत है कि ख़ुद को बहुत से मायनों में पहला प्रधानमंत्री कहते हैं, जो अपनी हर नाकामी का ठीकरा नेहरू पर फोड़ते हैं, जिन्होंने नेहरू की कमियाँ गिनाने में ही 7 साल खर्च कर दिए, उनसे कोई पूछे कि नेहरू से तुलना ही करनी है तो बताइए कि नेहरू को कैसा भारत मिला था।
बकौल खुद संघियों के नेहरू को मिला था 1000 की ग़ुलामी से निकला भारत, 200 साल अंग्रेजों द्वारा बुरी तरह लूटा गया, भयानक अकालों से गुजऱा भारत। वो भारत तो विघटन के जख्म सहला रहा था, एकता के सूत्र ढूँढ रहा था, बना रहा था, जो इतिहास के सबसे बुरे दंगे झेलकर निकला था, साम्प्ररदायिकता और अविश्वास के चरम पर था, संविधान बन रहा था, खजाना खाली था, गरीबी और अशिक्षा फैली हुई थी। चर्चिल ने तो पहले ही संदेह जता दिया था कि इन भारतीयों के बस का कुछ नहीं, चुनौतियाँ आज से कहीं ज़्यादा थीं और कहीं बड़ी थीं, ऐसा भारत मिला था जो नेहरू के नेतृत्व में धीरे धीरे राष्ट्रनिर्माण की ओर बढ़ा, साम्प्रदायिकता पर काबू करके अंदरूनी शांति बहाल हुई, शांति में ही विकास होता है, और इंफ्रास्ट्रक्चर, विज्ञान, तकनीक, कला, फिल्म, साहित्य, खेल सबमे धीरे-धीरे विकास करते हुए राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत स्थिति में पहुँचा।
नेहरू के पास कोसने को बहुत लोग थे, रोने को बहुत कुछ था, मगर न अकेले पड़े न अकेले काम किया,।उन्होंने बढिय़ा टीम बनाई, लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण किया, आलोचनाओं का मुँह बन्द नही किया, चुनौतियों का सामना किया, न जवाबदेही से मुँह मोड़ा, न बहाने बनाए न अपनी विफलताओं का ठीकरा फोड़ा। जिसे वाकई राष्ट्र निर्माण करना होता है वो 70 साल क्या 700 साल को भी नहीं रोता। ये नेहरू की पनपाई सम्पदा ही थी जिसे बेच-बेचकर मोदी अपने लिए नया घर, सेंट्रल विस्ता और 8000 करोड़ के विमानों की।
अय्याशियाँ भोग रहे हैं। हाल ये है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर दो-दो बार बदले गए और ऐसा आदमी गवर्नर बनाया गया जो अर्थशास्त्री भी नहीं है ताकि सारा रिजर्व धन अपने और अपने मालिकों के लिए निकाला जा सके। ये जाएँगे तो देश कितना उजाड़ होगा कल्पना भी नही की जा सकती।
तो मोदीजी तो पिछले क्या आगे के कई साल भी नेहरू को कोसकर निकाल सकते हैं, अपनी जाहिलियत, अक्षमताओं, गैरजिम्मेदारी और कमजोरी का ठीकरा नेहरू पर, विपक्ष पर, जनता पर, राज्यों पर फोड़ सकते हैं। मगर जिन्हें वाकई राष्ट्र निर्माण करना होता है वो वही करते हैं, हर हाल में करते हैं, सफलता का सेहरा और विफलताओं के लिए सर नहीं ढूँढते।
मोदी के पास शुक्र है कि नेहरू हैं, नेहरू के पास कोई नेहरू नहीं था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर आजकल अमेरिका के नेताओं, अफसरों और विदेश नीति विशेषज्ञों से गहन संवाद कर रहे हैं। यह बहुत सामयिक है, क्योंकि इस कोरोना-काल में सबका ध्यान महामारी पर लगा हुआ है और विदेश नीति हाशिए में सरक गई है। लेकिन चीन-जैसे राष्ट्र इसी मौके को अवसर की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
भारत के पड़ौसी राष्ट्रों और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन ने अपने पांव पसारने शुरु कर दिए हैं। पाकिस्तान के साथ चीन की इस्पाती-दोस्ती या लौह-मैत्री तो पहले से ही है। पाकिस्तान अब अफगान-संकट का लाभ उठाकर अमेरिका से भी सांठ-गांठ करना चाहता है, इसलिए उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने हाल ही में एक ताजा बयान भी दिया है कि पाकिस्तान किसी खेमे में शामिल नहीं होना चाहता है याने वह चीन का चप्पू नहीं है लेकिन उसकी पुरजोर कोशिश है कि अमेरिका की वापसी के बाद वह अफगानिस्तान पर अपना पूर्ण वर्चस्व कायम कर ले।
यों भी अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान की असीम दखलंदाजी है। कल ही हेलमंद घाटी में तालिबान के साथ घायल एक पाकिस्तानी फौजी अफसर की मौत हुई है। अफगानिस्तान आजाद रहे, भारत यही चाहता है। इसीलिए हमारे विदेश मंत्री की कोशिश है कि अमेरिका वहां से अपनी वापसी के लिए जल्दबाजी नहीं करे। पाकिस्तान के साथ तो चीन एकजुट है ही लेकिन अब वह श्रीलंका पर भी डोरे डालने में काफी सफल हो रहा है।
अब श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में ‘कोलंबो पोर्ट सिटी’ बन रही है, जिस पर चीन 1.4 बिलियन डॉलर खर्च करेगा। इसकी भव्यता पर 15 बिलियन डॉलर का विनियोग होगा। इसे लेकर श्रीलंकाई संसद ने एक कानून बना दिया है। कानून पर चली बहस के समय कई विपक्षी सांसदों ने कहा कि श्रीलंका की राजधानी में यह ‘चीनी अड्डा’ बनने जा रहा है। इस पूरे क्षेत्र पर अब श्रीलंका की नहीं, चीन की संप्रभुता होगी। श्रीलंका सरकार ने एक चीनी कंपनी को कोलंबो में ऊँची-ऊँची सडक़ें बनाने का भी मोटा ठेका दिया है।
चीनियों ने अभी से अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया है। उनके निर्माण-कार्य जहां-जहां चल रहे हैं, वहां-वहां उन्होंने जो नामपट लगाए हैं, वे सब सिंहल, चीनी और अंग्रेजी में हैं। उनमें से श्रीलंका की दूसरी राजभाषा तमिल को गायब कर दिया गया है, क्योंकि वह भारतीय भाषा भी है। इसे लेकर आजकल श्रीलंका में काफी विवाद चल रहा है। यों तो श्रीलंका के नेता भारत-श्रीलंका मैत्री को बेजोड़ बताते थकते नहीं हैं लेकिन भारत के अड़ोस-पड़ोस में अब चीन का वर्चस्व इतना बढ़ रहा है कि भारत के विदेश मंत्रालय को अब पहले से अधिक सजग और सक्रिय होना होगा। जयशंकर चाहें तो दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के लिए बाइडन-प्रशासन को विशेष सहायता की नई व्यावहारिक पहल भी सुझा सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
सन् 1880 में तहसीलदार के रूप में ठाकुर जगमोहन सिंह ने धमतरी में अपना पदभार ग्रहण किया। ठाकुर जगमोहन सिंह को पहली बार छत्तीसगढ़ को देखने और समझने का अवसर मिला। हालांकि उस समय तक मध्यप्रदेश का ही कोई अस्तित्व नहीं था, छत्तीसगढ़ अभी भविष्य में रूपाकर ग्रहण करने वाले मध्यप्रदेश के गर्भ में ही कहीं अटका हुआ था। मध्यप्रदेश सी.पी.एंड बरार का ही एक अभिन्न हिस्सा था।
ठाकुर जगमोहन सिंह ने कभी सोचा ही नहीं था कि बनारस के क्वींस कॉलेज में पढऩे और विजयराघवगढ़ रियासत के राजकुमार होने के बाद भी उन्हें छत्तीसगढ़ में तहसीलदार के रूप में नौकरी करनी पड़ेगी। कहां विजयराघवगढ़ जैसी रियासत के राजकुमार और कहां अंग्रेजों की गुलामी वाली चाकरी। यह दिन भी उनके नसीब में शायद देखना लिखा था।
ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपनी इस मनोव्यथा को अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘श्यामा सरोजनी’ में कुछ इस तरह से व्यक्त करने की कोशिश की है-
‘छूटी धरती धन धाम विराम कछु
यह पूरब जन्म की रेखा
सुशासक जो अब शासित हवे
जगमोहन के यह कर्म को देखा’
ठाकुर जगमोहन सिंह ने धमतरी में रहते-रहते आस-पास के ग्रामीण जनजीवन को भी निकट से देखा-परखा था। नगरी सिहावा भी धमतरी तहसील के अधीन था, सो सन् 1881 में वे दौरा करते हुए नगरी सिहावा की यात्रा पर निकल पड़े थे।
ठाकुर जगमोहन सिंह आज के प्रशासकों जैसे नहीं थे, जो किसी सुरम्य स्थल में ठहरते और रात में विलासिता के संसाधन जुटवाते।
वे एक बेहद संवेदनशील प्रशासक थे, जो मनुष्य और प्रकृति से प्रेम करना जानते थे। धन संचय और विलासिता से जिनका कोसों दूर तक कोई रिश्ता नाता ही नहीं था।
सिहावा पहुंचकर उनके भीतर विद्यमान गंभीर सर्जक और कवि जैसे जाग उठे थे। सिहावा के जंगल, पहाड़ और महानदी के अपूर्व सौंदर्य ने उन्हें सम्मोहित कर लिया था।
दो सतत् अन्वेषणशील चक्षु ने अपनी गहरी दृष्टि के साथ अन्वेषण तथा उत्खनन का कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन चक्षुओं ने महानदी के उदगम स्थल का अवलोकन किया। महानदी के उदगम स्थल को देखकर हृदय और मेधा दोनों एक साथ सक्रिय हो उठे। वे पहाड़ों पर अवस्थित श्रृंगी ऋषि आश्रम तक जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने ढेर सारे नोट्स लिए, जिसका उपयोग उन्होंने सन् 1885 में लिखित अपनी सुदीर्घ कविता ‘प्रलय’ में किया है।
सन् 1881 के सिहावा को ठाकुर जगमोहन सिंह की आंखों से देखना हमें किंचित रोमांचित और विस्मित कर सकता है-
‘सिहावा जहां महानदी का स्रोत है एक छोटा सा ग्राम पर्वत के मूल में जिसे लोग श्रृंगी ऋषि का आश्रम कहते हैं, बसा है। यहां ऐसा घोर वन है कि सूर्यास्त के पश्चात व्याघ्र और अनेक वन्य पशु ग्राम के भीतर स्वच्छंद विचरते हैं। ग्रामवासी इनके भय से सांझ ही टट्टी लगाकर घर से बाहर नहीं निकलते।’
आज सिहावा का वह रूप नहीं रह गया है। न वनों को हम बचा पाए हैं और न ही वन्य जीवों को ही। इसके साथ ही प्रकृति के उस नयनाभिराम छवि को ही हम कहां सुरक्षित रख पाएं हैं।
सन् 1881 के आस-पास ही ठाकुर जगमोहन सिंह का स्थानांतरण धमतरी से शिवरीनारायण हो गया।शिवरीनारायण में वे लंबे समय तक रहे। शिवरीनारायण में रहते-रहते ही उन्होंने अपना सर्वोत्तम साहित्य रचा।
कहा जाता है कि शिवरीनारायण में रहते हुए उन्हें श्यामा नामक एक अपूर्व सुंदरी से प्रेम हो गया। श्यामा संभवत: एक विधवा ब्राह्मण स्त्री थी।
ठाकुर जगमोहन सिंह के हृदय में श्यामा की सुंदर छवि इस प्रकार रच बस गई थी कि उन्होंने अपनी प्रमुख कृतियों के शीर्षक श्यामा के नाम पर ही रख दिए।
यथा-
‘श्यामा सरोजनी’, ‘श्यामा स्वप्न, ‘श्यामा लता’।
शिवरीनारायण में रहते-रहते उन्होंने अपने प्रिय सखा भारतेंदु हरिश्चंद्र के भारतेंदु मंडल के तर्ज पर अपना एक मंडल बनाया जिसे उन्होंने नाम दिया ‘सज्जनाष्टक’। ठाकुर जगमोहन सिंह के इस मंडल में आठ प्रमुख कवि सम्मिलित थे जो शिवरीनारायण में ही रहते थे। यह ठाकुर जगमोहन सिंह की सोहबत का कमाल था कि वे सभी कविता लेखन की ओर प्रेरित हुए थे। शिवरीनारायण में रहते-रहते उन्होंने अनेक दुर्लभ साहित्यिक ग्रंथों का सृजन किया।
वे शिवरीनारायण में एक लोकप्रिय तथा संवेदनशील प्रशासक के रूप में जनता में लोकप्रिय हुए। सन् 1885 में शिवरीनारायण में आई हुई बाढ़ के समय उन्होंने वहां की जनता की सुरक्षा के लिए जो भी कारगर कदम उठाए, उसे उनकी सुदीर्घ कविता ‘प्रलय’ को पढ़े बिना नहीं जाना जा सकता है।
‘प्रलय’ एक ऐतिहासिक कविता है। जिसमें ठाकुर जगमोहन सिंह ने शिवरीनारायण में 21, 22, 23 जून सन 1885 में महानदी में आई हुई प्रलयंकारी बाढ़ का सजीव चित्रण किया है। इस कविता के फुटनोट में जिस तरह से महानदी का विशद वर्णन किया गया है, वह देखते ही बनता है।
‘प्रलय’ कविता में बाढ़ की विभीषिका का चित्रण करते हुए ठाकुर जगमोहन सिंह ने सार छंद में यह लिखा है-
‘प्रबल प्रलय के मेघ तीन दिन
बरसे बूंद अटूटे
छहर मूसल सी धार वारि की
जलद न ततिकौ फूटे’
शिवरीनारायण में ही उन्होंने सन 1885 में अपना प्रथम उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’ लिख कर पूर्ण किया। ‘श्यामा स्वप्न’ को उन्होंने ‘चार खंडों में एक कल्पना’ का नाम दिया है।
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि केदार नाथ सिंह सहित अनेक विद्वानों का यह मत है कि कल्पना शब्द का हिंदी में पहले पहल प्रयोग ठाकुर जगमोहन सिंह ने किया है। उनसे पूर्व कल्पना शब्द का प्रयोग अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है।
इसी तरह अंग्रेजी के प्रमुख कवि बायरन की सुप्रसिद्ध कविता ‘प्रिजनर ऑफ शिलन’ का हिंदी अनुवाद भी उन्होंने किया है। ठाकुर जगमोहन सिंह हिंदी के ऐसे पहले साहित्यकार हैं, जिन्होंने किसी अंग्रेजी कविता का हिंदी में अनुवाद किया। उनसे पूर्व तब तक हिंदी के किसी अन्य साहित्यकार ने अंग्रेजी से हिंदी में कोई अनुवाद नहीं किया था।
(शेष अगले हफ्ते)
-कनुप्रिया
जीवन रुकता नहीं, प्रलय के बाद भी नहीं, सकारात्मक होने के लिए अतिरिक्त प्रयास की ज़रूरत ही नहीं, वह जीवन नामक इस अपरिहार्यता में शामिल है। आप लाख नकारात्मक होकर चाहें कि साँस रुक जाए तो वह रुकती नहीं, और साँस चलती है तो जीवन की गतिविधियाँ भी चलती हैं। मरा हुआ मन भी चुप मारे पड़े नहीं रह सकता, व्यवहार जगत का निर्वाह वह भी करता रहता है।
सुबह रसोई में काम करते समय रेडियो चलता रहता है, आज विविध भारती जाने कौन से गीत सुना रहा था (फिल्मी नहीं), गीत कह रहा था हम चाहे चले जाएँ भारत बचना चाहिए। कौन सा भारत? कैसा भारत? वो कौन सा भारत है जो सब भारतजनों के शवों पर भी बचा रहेगा? क्या यही देशभक्ति है? यह क्या सिखाया जा रहा है? मैंने चैनल बदल दिया, आशा भोंसले गा रही थी ‘रात बाकी बात बाकी’, मन चाहे उदास हो उस गीत से तो यह गीत चलेगा मैंने सोचा। तभी रेडियो जॉकी ने सकारात्मकता का गान शुरू कर दिया, एक मेंटल ट्रेनर लाया गया जो कहता है अमेरिका में युद्ध के सिपाहियों के अवसादग्रस्त मन को अपने अवचेतन मन की ट्रेनिंग के जरिये ठीक किया गया। सकारात्मक सोचिये, मैं बताता हूँ वो करिए, सोचिये कि मैं स्वस्थ हूँ, मैं स्वस्थ हूँ। इस पागलपन के बाद मैंने रेडियो बन्द कर दिया। इनके लिए कोविड भी युद्ध है जहाँ कोरोना वॉरियर होते हैं सेवियर नहीं।
जीवन के अत्यंत त्रासद दिनो में मैंने पत्थर भाटे सब पूजे, Art of living से लेकर योग ध्यान के कई शिविरों के चक्कर लगाए, न शांति मिली न सवालों के जवाब। ये केंद्र आपको सिखाते हैं कि बाहर से आने वाली नकारात्मकता अपरिहार्य है आप उसे महसूस करना बंद कर दीजिये, ख़ुद को बदलिए और उससे डील कीजिये, उसे बदलने की बात मत कीजिये। कुल मिलाकर ये ज्यादातर सिस्टम के उपकरण होते हैं जो आपकी तर्क और संवेदनशक्ति कुंद करके आपको सिस्टम का अंतिम तौर पर गुलाम बनाते हैं, आपके भीतर उसके प्रति उठने वाले सवाल तक खत्म कर देते हैं। गजब ये है कि सिस्टम के लिये इस कदर अहिंसक ये केंद्र धार्मिक हिंसा और साम्प्रदायिकता पर चुप्पी मार जाते हैं।
कल एक श्रद्धांजलि देती पोस्ट पर मेरे दुख के इमोटिकॉन पर एक भक्त हँसकर चला गया। इनके लिए भले 3 लाख की जगह 5 लाख मर जाएँ, ये अपने लक्ष्य और उद्देश्य के लिए फोकस्ड हैं, वह उद्देश्य जो नागपुर में निर्धारित होता है। ये मृतकों के लिए ‘हमारी बला से भाड़ में जाओ’ की जगह एक पवित्र शब्द चुनते हैं ‘मुक्ति’, इनके लिए शववाहिनी गंगा भी पवित्र बनी रहती है।
प्रेम, ईश्वर, धर्म, मुक्ति, पवित्रता, देशभक्ति, बलिदान, सकरात्मकता, योग आदि-आदि कितने ही शब्द जो अपने निहित मानवीय उद्देश्यों के कारण खूबसूरत माने जाते हैं छल और मूर्ख बनाने के उत्तम औजार बन चुके हैं। शब्द अपने आप में अप्रशनेय नहीं होते, उद्देश्य बदलते ही उनके मायने बदल जाते हैं, असल बात उस उद्देश्य को समझने की है।
हम दु:ख, अवसाद, धक्के से जूझने वाले लोग, जो गतिशील बने रहने के लिये ख़ुद को जीवन की न रुकने वाली अनिवार्य धारा से ही सींचते हैं। ऐसे लोगों से संघर्षरत हैं जो सकारात्मकता और आस्था की आड़ में संवेदनहीन हैं। यह दोधारी लड़ाई निश्चित तौर पर कठिन है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
‘न्यूयार्क टाईम्स’ ऐसी बेसिर-पैर की खबर छाप सकता है, इसका विश्वास मुझे नहीं होता। उसमें 12 विशेषज्ञों के हवाले से यह छापा है कि भारत में पिछले साल भर में कोरोना से लगभग 42 लाख लोगों की मौत हुई है और 70 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित या बीमार हुए हैं। क्या भारत के हर दूसरे आदमी को कोरोना हुआ है? यह आंकड़ा कितना बनावटी है, इसका अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि यह सर्वेक्षण करनेवा लों में पहले समूह ने माना है कि 40 करोड़ लोग संक्रमित हुए और सिर्फ 6 लाख लोग मरे।
इसी सर्वेक्षण के दूसरे समूह ने कहा कि 53 करोड़ रोगी हुए और 16 लाख मरे। अब आप ही बताइए किसे सच मानें ? कहाँ 6 लाख और कहाँ 42 लाख ? इन डाक्टरों ने छलांग भी छोटी-मोटी नहीं लगाई। वे पूरे सात गुनी ऊँचाई पर उछल पड़े। इतनी ऊँची छलांग तो कोई भांग खाकर ही लगा सकता है। वह जान-बूझकर भी लगाई जा सकती है।
‘न्यूयार्क टाईम्स’ अमेरिका का सबसे बड़ा अखबार है। यह यहूदियों का अखबार है। उसे भारत से यह शिकायत हो सकती हैं कि उसके प्रतिनिधि ने सुरक्षा परिषद में पहले फिलीस्तीनियों के पक्ष में तगड़ा बयान क्यों दे दिया था? उसने यह चलताऊ खबर छापकर शायद यह संदेश देने की कोशिश की है कि कोरोना-युद्ध में भारत मात खा गया है। अमेरिका उससे कहीं आगे है। लेकिन असलियत क्या है ? अमेरिका में कोरोना से छह लाख लोग मरे हैं तो भारत में कम से कम छह लाख तो मारने ही पड़ेंगे। लेकिन छह लाख भी कम हैं, क्योंकि भारत की जनसंख्या अमेरिका से 6-7 गुनी है।
इसलिए उसे 47 लाख कर दिया गया। यह ठीक है कि 3-4 लाख मौतों का सरकारी आंकड़ा एक दम तथ्यात्मक नहीं हो सकता है, क्योंकि गांवों में कौन कोरोना से मरा है और कौन नहीं, इसका पता करना आसान नहीं है लेकिन भारत को नीचा दिखाने के लिए आप कुछ भी ऊटपटांग सर्वेक्षण हमें परोस दें और हम उसे चुपचाप मान लें, यह कैसे हो सकता है ? यह सर्वेक्षण पेश करने वाले 12 डॉक्टरों को क्या यह पता नहीं है कि एलोपेथी पर अरबों-खरबों रुपया खर्च करके भी अमेरिका इतना पिट लिया जबकि भारत अपने घरेलू मसालों, काढ़ों, आयुर्वेदिक, हकीमी और होम्योपेथी दवाइयों के दम पर कोरोनों से लड़ रहा है।
पिछले साल यदि भारत की सभी सरकारें और जनता लापरवाही नहीं करतीं तो भारत में हताहतों का प्रतिशत नहीं के बराबर ही रहता। भारत ने लगभग 100 देशों को 6 करोड़ टीके दिए हैं और एलोपेथी-चिकित्सा करने में हमारे डाक्टरों और नर्सों ने जबर्दस्त सेवा और कुबार्नियां की हैं लेकिन गैर-सरकारी अस्पतालों ने जो लूट-पाट मचाई है, क्या वैसी लूटपाट भारतीय वैद्यों, हकीमों और होम्योपेथों ने मचाई है ? यदि भारत में अमेरिका-जैसी स्वास्थ्य-सेवाएं होतीं तो कोरोना से हताहतों की संख्या यहाँ सैकड़ों या हजारों तक ही सीमित रहतीं।
इसमें शक नहीं कि इस महामारी ने पूरे भारत को प्रकंपित कर दिया है और हमारी सरकारों और नेताओं की छवि को विकृत भी कर दिया है लेकिन यह भी न भूलें कि लगभग 20 करोड़ लोगों को टीके लग चुके हैं और ज्यादातर राज्यों की स्थिति में काफी सुधार है। केंद्र और राज्यों की सरकारें तथा अगणित जनसेवी संगठन गजब की सेवा और मुस्तैदी दिखा रहे हैं। अमेरिका सहित दर्जनों राष्ट्र भी भारत की यथासंभव सहायता करने में जुटे हुए हैं। भारत इससे जल्दी ही पार पाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
सन् 1880 में तहसीलदार के रूप में ठाकुर जगमोहन सिंह ने धमतरी में अपना पदभार ग्रहण किया। ठाकुर जगमोहन सिंह को पहली बार छत्तीसगढ़ को देखने और समझने का अवसर मिला। हालांकि उस समय तक मध्यप्रदेश का ही कोई अस्तित्व नहीं था, छत्तीसगढ़ अभी भविष्य में रूपाकर ग्रहण करने वाले मध्यप्रदेश के गर्भ में ही कहीं अटका हुआ था। मध्यप्रदेश सी.पी.एंड बरार का ही एक अभिन्न हिस्सा था।
ठाकुर जगमोहन सिंह ने कभी सोचा ही नहीं था कि बनारस के च्ींस कॉलेज में पढऩे और विजयराघवगढ़ रियासत के राजकुमार होने के बाद भी उन्हें छत्तीसगढ़ में तहसीलदार के रूप में नौकरी करनी पड़ेगी। कहां विजयराघवगढ़ जैसी रियासत के राजकुमार और कहां अंग्रेजों की गुलामी वाली चाकरी। यह दिन भी उनके नसीब में शायद देखना लिखा था।
ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपनी इस मनोव्यथा को अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘श्यामा सरोजनी’ में कुछ इस तरह से व्यक्त करने की कोशिश की है-
‘छूटी धरती धन धाम विराम कछु
यह पूरब जन्म की रेखा
सुशासक जो अब शासित हवे
जगमोहन के यह कर्म को देखा’
ठाकुर जगमोहन सिंह ने धमतरी में रहते-रहते आस-पास के ग्रामीण जनजीवन को भी निकट से देखा-परखा था। नगरी सिहावा भी धमतरी तहसील के अधीन था, सो सन 1881 में वे दौरा करते हुए नगरी सिहावा की यात्रा पर निकल पड़े थे।
ठाकुर जगमोहन सिंह आज के प्रशासकों जैसे नहीं थे, जो किसी सुरम्य स्थल में ठहरते और रात में विलासिता के संसाधन जुटवाते।
वे एक बेहद संवेदनशील प्रशासक थे, जो मनुष्य और प्रकृति से प्रेम करना जानते थे। धन संचय और विलासिता से जिनका कोसों दूर तक कोई रिश्ता नाता ही नहीं था।
सिहावा पहुंचकर उनके भीतर विद्यमान गंभीर सर्जक और कवि जैसे जाग उठे थे। सिहावा के जंगल, पहाड़ और महानदी के अपूर्व सौंदर्य ने उन्हें सम्मोहित कर लिया था।
दो सतत् अन्वेषणशील चक्षु ने अपनी गहरी दृष्टि के साथ अन्वेषण तथा उत्खनन का कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन चक्षुओं ने महानदी के उदगम स्थल का अवलोकन किया। महानदी के उदगम स्थल को देखकर हृदय और मेधा दोनों एक साथ सक्रिय हो उठे। वे पहाड़ों पर अवस्थित श्रृंगी ऋषि आश्रम तक जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने ढेर सारे नोट्स लिए, जिसका उपयोग उन्होंने सन् 1885 में लिखित अपनी सुदीर्घ कविता ‘प्रलय’ में किया है।
सन् 1881 के सिहावा को ठाकुर जगमोहन सिंह की आंखों से देखना हमें किंचित रोमांचित और विस्मित कर सकता है-
‘सिहावा जहां महानदी का स्रोत है एक छोटा सा ग्राम पर्वत के मूल में जिसे लोग श्रृंगी ऋषि का आश्रम कहते हैं, बसा है। यहां ऐसा घोर वन है कि सूर्यास्त के पश्चात व्याघ्र और अनेक वन्य पशु ग्राम के भीतर स्वच्छंद विचरते हैं। ग्रामवासी इनके भय से सांझ ही टट्टी लगाकर घर से बाहर नहीं निकलते।’
आज सिहावा का वह रूप नहीं रह गया है। न वनों को हम बचा पाए हैं और न ही वन्य जीवों को ही। इसके साथ ही प्रकृति के उस नयनाभिराम छवि को ही हम कहां सुरक्षित रख पाएं हैं।
सन् 1881 के आस-पास ही ठाकुर जगमोहन सिंह का स्थानांतरण धमतरी से शिवरीनारायण हो गया।शिवरीनारायण में वे लंबे समय तक रहे। शिवरीनारायण में रहते-रहते ही उन्होंने अपना सर्वोत्तम साहित्य रचा।
कहा जाता है कि शिवरीनारायण में रहते हुए उन्हें श्यामा नामक एक अपूर्व सुंदरी से प्रेम हो गया। श्यामा संभवत: एक विधवा ब्राह्मण स्त्री थी।
ठाकुर जगमोहन सिंह के हृदय में श्यामा की सुंदर छवि इस प्रकार रच बस गई थी कि उन्होंने अपनी प्रमुख कृतियों के शीर्षक श्यामा के नाम पर ही रख दिए।
यथा-
‘श्यामा सरोजनी’, ‘श्यामा स्वप्न, ‘श्यामा लता’।
शिवरीनारायण में रहते-रहते उन्होंने अपने प्रिय सखा भारतेंदु हरिश्चंद्र के भारतेंदु मंडल के तर्ज पर अपना एक मंडल बनाया जिसे उन्होंने नाम दिया ‘सज्जनाष्टक’। ठाकुर जगमोहन सिंह के इस मंडल में आठ प्रमुख कवि सम्मिलित थे जो शिवरीनारायण में ही रहते थे। यह ठाकुर जगमोहन सिंह की सोहबत का कमाल था कि वे सभी कविता लेखन की ओर प्रेरित हुए थे। शिवरीनारायण में रहते-रहते उन्होंने अनेक दुर्लभ साहित्यिक ग्रंथों का सृजन किया।
वे शिवरीनारायण में एक लोकप्रिय तथा संवेदनशील प्रशासक के रूप में जनता में लोकप्रिय हुए। सन् 1885 में शिवरीनारायण में आई हुई बाढ़ के समय उन्होंने वहां की जनता की सुरक्षा के लिए जो भी कारगर कदम उठाए, उसे उनकी सुदीर्घ कविता ‘प्रलय’ को पढ़े बिना नहीं जाना जा सकता है।
‘प्रलय’ एक ऐतिहासिक कविता है। जिसमें ठाकुर जगमोहन सिंह ने शिवरीनारायण में 21, 22, 23 जून सन 1885 में महानदी में आई हुई प्रलयंकारी बाढ़ का सजीव चित्रण किया है। इस कविता के फुटनोट में जिस तरह से महानदी का विशद वर्णन किया गया है, वह देखते ही बनता है।
‘प्रलय’ कविता में बाढ़ की विभीषिका का चित्रण करते हुए ठाकुर जगमोहन सिंह ने सार छंद में यह लिखा है-
‘प्रबल प्रलय के मेघ तीन दिन
बरसे बूंद अटूटे
छहर मूसल सी धार वारि की
जलद न ततिकौ फूटे’
शिवरीनारायण में ही उन्होंने सन 1885 में अपना प्रथम उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’ लिख कर पूर्ण किया। ‘श्यामा स्वप्न’ को उन्होंने ‘चार खंडों में एक कल्पना’ का नाम दिया है।
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि केदार नाथ सिंह सहित अनेक विद्वानों का यह मत है कि कल्पना शब्द का हिंदी में पहले पहल प्रयोग ठाकुर जगमोहन सिंह ने किया है। उनसे पूर्व कल्पना शब्द का प्रयोग अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है।
इसी तरह अंग्रेजी के प्रमुख कवि बायरन की सुप्रसिद्ध कविता ‘प्रिजनर ऑफ शिलन’ का हिंदी अनुवाद भी उन्होंने किया है। ठाकुर जगमोहन सिंह हिंदी के ऐसे पहले साहित्यकार हैं, जिन्होंने किसी अंग्रेजी कविता का हिंदी में अनुवाद किया। उनसे पूर्व तब तक हिंदी के किसी अन्य साहित्यकार ने अंग्रेजी से हिंदी में कोई अनुवाद नहीं किया था।
(शेष अगले हफ्ते)
-आनंद बहादुर
रामदेव महाशय ने एलोपैथिक चिकित्सा के बारे में जो वक्तव्य दिया है उस पर विचार किया जाना जरूरी है, क्योंकि उन्होंने बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं जिनसे एलोपैथिक पद्धति का तथा उस पद्धति से इलाज करने-कराने वाले लोगों का बहुत अपमान हुआ है। उनके समर्पण और शहादत की खिल्ली उड़ी है और उनका हौसला और साहस टूटा है।
हम सब जानते हैं कि किस तरह अभी साल डेढ़ साल पहले कोरोना आया, और एकदम से, बिल्कुल एक काली आंधी की तरह पूरे विश्व पर छा गया। उससे पहले वायरस के इस म्यूटेंट रूप की कहीं कोई पहचान नहीं थी। पूरे विश्व में लाखों लोग रोज कोरोना से कॉल कवलित होने लगे। सिर्फ एलोपैथी ही नहीं, लोग हर प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों की शरण में गए, और विश्वास तथा अंधविश्वास से भरे हुए बहुत सारे तरीकों से इसका सामना करने की कोशिश की। इनमें से कुछ तो इतने हास्यास्पद हैं कि उनका उल्लेख तक करना उचित नहीं महसूस हो रहा है। दुनिया की सारी चिकित्सा पद्धतियां इसका इलाज करने का तरीका ढूंढने लगीं, जिसमें, जैसा तय ही था, बहुत जल्द एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में बढ़त हासिल कर ली। अन्य पद्धतियां अनुमानों और अटकलों के आधार पर आगे बढ़ीं। उन्होंने दावे तो बहुत किए लेकिन उनकी सफलता का कोई प्रमाणिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया। कुछ ने तो बहुत सारी पुरानी पुरानी चीजों को खोजकर सामने रखना शुरू कर दिया, लेकिन उनसे दुनिया का दुख दर्द कम नहीं हुआ, न मरीजों में कोई विश्वास ही पैदा हुआ।
उधर एलोपैथी ने बिल्कुल वैज्ञानिक सोच और चिकित्सकीय तार्किकता के आधार पर अपना अनुसंधान शुरू किया और बहुत तेज गति से अपने रास्ते पर आगे बढ़ी। आज दुनिया में एलोपैथी पर लोगों को सबसे अधिक विश्वास है तो इसका कारण है कि यह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर खड़ी चिकित्सा पद्धति है और उसकी चंगा करने की क्षमता अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों से निर्विवाद रूप से श्रेष्ठ है। जो लोग इसकी आलोचना करते रहते हैं, जब जान पर बन आती है तो वे भी एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के शरण में ही जाते हैं।
जब कोरोना आया तो अन्य चिकित्सा पद्धतियों की ही तरह एलोपैथी के पास भी इसका कोई जवाब नहीं था। लेकिन अपने हजारों सालों के संचित ज्ञान और अनुभव के आधार पर उसने उससे जूझने की कोशिश शुरू की। इसी बीच, जब हम कोरोनावायरस के बारे में अनभिज्ञ के होने के कारण बिल्कुल भंवर में थे, उसने उपलब्ध एंटीवायरल दवाओं और वायरस संबंधि अपने अनुभव तथा ज्ञान के आधार पर व्यावहारिक निष्कर्ष निकालते हुए कोरोना के मरीजों को ठीक करने की कोशिश की। लाखों की संख्या में एलोपैथिक अस्पतालों में उनकी सही देखभाल, सही पद्धति से ऑक्सीजन देने की कोशिश, उनके फेफड़े, हृदय, गुर्दे इत्यादि के संक्रमणों की जांच, सही नर्सिंग और उपलब्ध दवाओं की मदद से करोड़ों लोगों को निश्चित मौत से बचाया। क्योंकि वायरस बिल्कुल अज्ञात और नया था, इसलिए एलोपैथी के पास उस वायरस का कोई ज्ञात और ठोस इलाज नहीं था। लेकिन मरीजों को बरतने का उसका एक तरीका है, वायरस को फैलने से रोकने का जो एक ज्ञान उसके पास है, उसका इस्तेमाल उसने किया। उसने सबसे पहले वायरस की प्रकृति को डिकोड किया और बताया कि जब तक उसका इलाज नहीं निकल आता, तब तक किस तरह मास्क लगाकर,
फिजिकल डिस्टेंसिंग अपना कर, और हाथ को साफ रखकर, उससे बचा जा सकता है। आज हमारे पास इस बारे में जो भी जानकारी है, जिसकी सहायता से ज्यादातर लोग अपने आप को सुरक्षित रखने में कामयाब हुए हैं, वह ज्ञान भी एलोपैथी की ही देन है, किसी अन्य चिकित्सा पद्धति ने यह समझदारी हमें नहीं दी है। इस समझदारी को रामदेव महाशय हमारे लिए लेकर नहीं आए हैं।
इसी बीच, इतने सब को अंजाम देते हुए, एलोपैथी ने इस वायरस से लोगों को बचाने के लिए वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया शुरू की, और मानव इतिहास में जितनी तेजी से किसी एक वायरस की वैक्सीन कभी नहीं बनी थी, एक नहीं, दर्जनों वैक्सीन तैयार कर दुनियाभर को सौंप दिया। आज कोरोना के दंश से घायल, हताश-निराश मानवता के मुंह पर जो हल्की सी आशा की मुस्कान हम-आप देख रहे हैं, वह वैक्सीन और कोरोना की दवाओं की खबरों की बदौलत ही है, जो हम तक लगातार पहुंच रही हैं, और हमारा हौसला बढ़ा रही हैं। अभी हम उस सटीक दवाओं को हासिल नहीं कर पाए हैं जिनको लेते ही हमको रोना से मुक्त हो जाएं, लेकिन एलोपैथिक रिसर्च सतत् उस दिशा में आगे बढ़ रहा है और वह दिन अब ज्यादा दूर भी नहीं है। तब तक के लिए, जानकारी के अभाव में भी एलोपैथी ने बहुत संभलकर और समझदारी के साथ, वायरस के ट्रीटमेंट की एक सटीक तलाश शुरू की है, यह उसी का नतीजा है कि आज विश्व में प्रतिदिन दसियों लाख लोग कोरोनावायरस पीडि़त हो रहे हैं लेकिन मृत्यु दर कुछ प्रतिशत ही है। चूंकि करोड़ों लोग बीमार हो रहे हैं, तो दो चार प्रतिशत की मृत्यु दर भी कई लाख की संख्या हो जाती है। इसी को आधार बनाकर रामदेव महाशय ने ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया है। खुद उनके पास इसका कोई साक्ष्य नहीं है कि जो लोग आयुर्वेद सहित अन्य चिकित्सा की शरण में जा रहे हैं, उनमें कितने प्रतिशत ठीक हो रहे हैं। इसके अलावा कोई प्रणाम नहीं है कि जो लोग आयुर्वेद और अन्य चिकित्सा ले रहे हैं, उदाहरण के लिए जो लोग कोरोनिल ले रहे हैं, या गोबर-गौमूत्र चिकित्सा करवा रहे हैं, वे जरूरत पड़ते ही या साथ ही साथ एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति का सहारा नहीं ले रहे। वे क्रोसिन नहीं खा रहे हैं, वैक्सीन नहीं ले रहे हैं, रेमडेसिवीर नहीं ले रहे हैं। उनका अपना दावा केवल विज्ञापनबाजी और मनगढ़ंत लफ्फाजी पर आधारित है।
इसी बीच हमने देखा है कि कैसे एलोपैथिक मेडिकल स्टाफ, सीमा पर लड़ते सैनिकों की तरह कोरोना से युद्ध में अपना सब कुछ होम कर रहे हैं। वे लाखों अनजाने लोगों को बचाने में अपनी जान तक से खेल जा रहे हैं। उन्हें एहसास हौसला और भरोसा कहां से मिलता है? अपनी चिकित्सा पद्धति के प्रति उनका गहरा विश्वास ही उन्हें यह अदम्य साहस और हौसला दे रहा है। आज रामदेव महाशय के बयान ने उस साहस और हौसले को तोडऩे का प्रयास किया है। आज अगर रामदेव महाशय की बातों को मानकर तमाम एलोपैथिक मेडिकल स्टॉफ हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं, तो सोचिए दुनिया भर के मरीजों की क्या दशा होगी? और इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? रामदेव महाशय के दम्भ से भरे बयान ने उन सभी शहीद डॉक्टरों, नर्सों, और मेडिकल स्टाफ का ऐसा अपमान किया है जिसे भुलाना मानवता के इतिहास में असंभव होगा।
रामदेव महाशय शायद यह नहीं जानते हैं कि सामान्य लोगों से अलग, उनके जैसे प्रसिद्ध लोग दोहरा जीवन जीते हैं। एक जीवन अपने वर्तमान में और एक और जीवन इतिहास में। वर्तमान में तो अपने ताकतवर मित्रों की सहायता से वे जो चाहे कर लेते हैं, मगर इतिहास उनका हिसाब किताब बराबर कर के रख देता है। उस समय वे ताकतवर दोस्त काम नहीं आते। उस समय अरबों खरबों की वह तिकड़म से कमाई दौलत काम नहीं आती।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
व्हाट्सएप और हमारी सरकार के बीच बड़ा मजेदार और अजीब-सा दंगल चल रहा है। इसी साल फरवरी में बहस चली थी कि व्हाट्सएप और फेसबुक जैसी संस्थाएँ नागरिकों की निजता पर हमला करती हैं। सरकार को उन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए और व्हाट्सएप ने अब दिल्ली के उच्च न्यायालय में जाकर गुहार लगाई है कि भारत सरकार नागरिकों की निजता भंग करना चाहती है। उस पर रोक लगाई जाए। हमारी सरकार और इन संचार-कंपनियों के अपने अपने तर्क हैं। दोनों कुछ हद तक ठीक लगते हैं और कुछ हद तक गलत !
सरकार का कहना है कि वह जो नया कानून ला रही है, उसके मुताबिक व्हाट्सएप को ऐसे संदेशों का मूल-स्त्रोत खोजकर बताना होगा, जो आपत्तिजनक हैं। आपत्तिजनक वे संदेश माने जाएंगे, जो भारत की सुरक्षा, शांति-व्यवस्था, कानून आदि के लिए खतरनाक हों। आजकल भारत में लगभग 45 करोड़ लोग व्हाट्साप आदि का इस्तेमाल करते हैं। इस पर आने-जानेवाले संदेशों के बारे में पूर्ण गोपनीयता का वादा किया जाता है। इस सुविधा का फायदा उठाकर आतंकवादी, चोर, विदेशी दलाल, जासूस, अपराधी, अफवाहबाज़ और नादान भोले-भंडारी लोग भी ऐसी खबरें, विचार, संदेश, दृश्य आदि भेजते रहते हैं, जिन पर प्रतिबंध न केवल तत्काल आवश्यक होता है बल्कि ऐसे लोगों को तुरंत दंडित भी किया जाना चाहिए। यह तभी हो सकता है, जबकि व्हाट्साप उसकी पटरी पर चल रहे सारे संवादों को सुरक्षित रखे और शिकायत मिलने पर उनकी जाँच करे और सरकार को उनके नाम-पते बताए।
व्हाट्सएप का कहना है कि ऐसा करने से उसका गोपनीय रहने का महत्व खंड-बंड हो जाएगा। दुनिया के करोड़ों लोग फिर उसका इस्तेमाल क्यों करेंगे ? उसका मानना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। ऐसा हो जाने पर लोग अपने मन की बात खुलकर कभी करेंगे ही नहीं। वे पकड़े जाने के डर से चुप रहेंगे या झूठ बोलेंगे। व्हाट्सएप के इस तर्क में थोड़ा दम जरुर है, क्योंकि दुनिया के ज्यादातर लोग दब्बू हैं। वे अपने विचार प्रकट भी करना चाहते हैं और अपनी खाल भी बचाना चाहते हैं लेकिन मेरा सोच यह है कि सांच को आंच क्या ? किसी भी बात को छिपाना क्यों ? सरकार हमारे जिस भी संवाद को पढऩा चाहे, पढ़े। वह कोई भी गलत कदम उठाएगी तो कानून है, लोकमत है, संसद है, अखबार और चैनल हैं, जो नागरिकों की रक्षा करेंगे। हाँ, व्हाट्साप जैसे सभी संगठन यह मांग रखें तो वह जायज होगी कि यदि सरकार किसी के भी संदेश या बातचीत का सुराग लगाना चाहे तो वह काम मनमाना और निराधार नहीं होना चाहिए। उसके लिए बाकायदा एक उच्च-स्तरीय कमेटी होनी चाहिए और उसका सगुण व ठोस आधार होना चाहिए। ताकि अभिव्यक्ति और उसके साथ-साथ निजता की स्वतंत्रता की रक्षा तो अवश्य हो लेकिन षडय़ंत्र और मूर्खता का पर्दाफाश भी हो जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जेके कर
भारत में कोविड-19 के संबंध में हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स में आंकड़ों का जो तीन अनुमान लगाया गया है उसके अनुसार सबसे बुरी हालत में भारत में 700.7 मिलियन याने करीब 70 करोड़ लोग संक्रमित हुये हैं तथा 42 लाख की मौत हुई है. बतौर न्यूयार्क टाइम्स यदि 70 करोड़ लोग संक्रमित हुये हैं तो इसमें उन करीब 20 करोड़ लोगों को जोड़ लीजिये जिन्हें वैक्सीन लग चुका है. यदि वैक्सीन का 1 डोज़ भी लग जाता है तो एक बार कोरोना से संक्रमित होने के बराबर का एंटीबॉडी बन जाता है. इस तरह से दोनों को मिलाकर करीब 90 करोड़ लोगों में हर्ड इम्युनिटी आ जानी चाहिये. भारत की जनसंख्या को यदि 135 करोड़ मान लिया जाता है तो यह उसका 66.66 फीसदी होता है. इस तरह से भारत में हर्ड इम्युनिटी आ गई है यह माना जाना चाहिये या हम उसके काफी निकट पहुंच चुके हैं. ज्यादा-से-ज्यादा इन्हीं 20 करोड़ या 10-15 करोड़ और लोगों को दोनों टीका लगा देना चाहिये. फिर तो और ज्यादा वैक्सीनेशन की जरूरत ही नहीं है. यह आंकड़ा हज़म करने लायक नहीं है.
25 मई'2021 को दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित अखबार माने जाने वाले न्यूयार्क टाइम्स में 'Just How Big Could India’s True Covid Toll Be?' के शीर्षक से एक लेख/खबर प्रकाशित हुई है. जिसके बाद से प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया में इसको लेकर लगातार खबरें आ रहीं हैं. हमने तटस्थ रूप से इन आंकड़ों का अध्ययन किया है. हालांकि, मामला इतना संवेदनशील है कि हम भी किसी नतीजे की घोषणा करने से परहेज कर रहें हैं लेकिन आपके सामने इन आंकड़ों की गहराई में जाकर उन्हें प्रस्तुत कर रहें हैं.
न्यूयार्क टाइम्स में भारत में कोरोना संक्रमण तथा उससे हुई मौतों पर चार तरह के आंकड़ें दिये गये हैं. पहला आंकड़ां सरकारी है. जिसके अनुसार भारत में उस तारीख तक 2 करोड़ 69 लाख संक्रमण तथा 3 लाख 07 हज़ार 231 मौतों की बात की गई है.
दूसरा 'एक रूढ़िवादी परिदृश्य' है. जिसके अनुसार 40 करोड़ 42 लाख संक्रमण एवं 6 लाख मौतें हुई हैं. इसी तारीख को केन्द्र सरकार द्वारा जारी विज्ञप्त्ति के अनुसार 20 करोड़ 04 लाख 94 हज़ार 991 (मोटे तौर पर 20 करोड़) टीके लग चुके हैं. यह आंकड़ा एक तथा दोनों टीके लग जाने का है. अब यदि इन दोनों को जोड़ा जाये तो 60 करोड़ 42 लाख लोगों में कोरोना के प्रति प्रतिरोध विकसित हो जानी चाहिये. यह भारत की आबादी का 44.75 फीसदी होता है. इस तरह से और 26 करोड़ लोगों को टीका लगाये जाने की जरूरत है.
तीसरा, 'एक अधिक संभावित परिदृश्य' है. जिसके अनुसार भारत में 53 करोड़ 90 लाख लोग संक्रमित हो चुके हैं तथा 16 लाख लोगों की मौत हो चुकी है. अब संक्रमण के इस आंकड़ें को टीकाकरण के आंकड़ों से जोड़ देते हैं तो यह 73 करोड़ 90 लाख का हो जाता है जो हमारी आबादी का 54.74 फीसदी है. इसके अनुसार हर्ड इम्युनिटी के लिये और 16 करोड़ लोगों का टीकाकरण करने की जरूरत है. चौथा, 'एक बदतर परिदृश्य' है जिसकी चर्चा हमने सबसे पहले की है.
न्यूयार्क टाइम्स ने यह खबर दर्जनभर विशेषज्ञों तथा बड़े स्तर पर किये गये एँटीबॉडी टेस्टके आधार पर किया है. वहीं इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि "On Friday, a report by the World Health Organization estimated that the global death toll of Covid-19 may be two or three times higher than reported." हम इससे सहमत है कि कोरोना से हुई मौंतों का सही आंकड़ा पेश नहीं किया जा रहा है या ऐसा नहीं हो पा रहा है. हमने अपने अध्धयन में मौतों नहीं न्यूयार्क टाइम्स में छपे संक्रमण के आंकड़ों को लिया है तथा उसके आधार पर अपनी प्रस्तुति दे रहें हैं. (nytimes.com)
-कृष्ण कांत
दिल्ली में कई जगहों पर पोस्टर लगाए गए। इन पर लिखा था, ‘मोदी जी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया।’ पोस्टर लगाकर ये सवाल पूछने के ‘जघन्य अपराध’ में दिल्ली पुलिस ने पूरी दिल्ली में अब तक 25 एफआईआर दर्ज कर चुकी है। इस सिलसिले में अब तक 25 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है।
अमर उजाला ने लिखा है कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है कि इस मामले में अभी और एफआईआर दर्ज की जाएंगी। पुलिस जांच कर रही है कि किसके कहने पर ये पोस्टर शहर भर में लगाए गए और आगे कार्रवाई की जाएगी। अदभुत ये है कि कल से आज तक जो खबरें हैं, वे बताती हैं कि लगातारी एफआईआर और गिरफ्तारियों की संख्या बढ़ रही है।
उत्तरी दिल्ली में एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया जिसने बताया कि ये पोस्टर लगाने के लिए उसे पांच सौ रुपये दिए गए थे। अब आप सोचिए कि पांच सौ रुपये पर पोस्टर लगाने वाले मजदूर तक की जवाबदेही है, लेकिन पूरे देश में हुए भयानक नरसंहार के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों समेत किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है। इस पोस्टर में ऐसा है कि जिसे लेकर इतनी बड़ी कार्रवाई की जा रही है। यही सवाल अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी पूछ रही है। यही सवाल कई विपक्षी नेता पूछ रहे हैं। फिर यही सवाल पूछने वाले नागरिक दोषी कैसे हो गए?
कुछ समय पहले तक हम लोग कहते थे कि दिल्ली पुलिस सबसे स्मार्ट, सबसे कुशल और सबसे अच्छी पुलिस है। दुर्भाग्य से अब इस एजेंसी को अपने ही निर्दोष नागरिकों को प्रताडि़त करने और सरकारी बदला लेने जैसे दुष्कृत्य के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
ये सिर्फ तानाशाही नहीं है, ये घनघोर अत्याचार है। लोगों को गिरफ्तार करने से ये सच्चाई नहीं बदल जाएगी कि देश में जो हुआ है वह पूर्वनियोजित जनसंहार है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसान आंदोलन को चलते-चलते आज छह महिने पूरे हो गए हैं। ऐसा लगता था कि शाहीन बाग आंदोलन की तरह यह भी कोरोना के रेले में बह जाएगा लेकिन पंजाब, हरयाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश के किसानों का हौसला है कि अब तक वे अपनी टेक पर टिके हुए हैं। उन्होंने आंदोलन के छह महिने पूरे होने पर विरोध-दिवस आयोजित किया है। अभी तक जो खबरें आई हैं, उनसे ऐसा लगता है कि यह आंदोलन सिर्फ ढाई प्रांतों में सिकुडक़र रह गया है। पंजाब, हरयाणा और आधा उत्तरप्रदेश। इन प्रदेशों के भी सारे किसानों में भी यह फैल पाया है नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता। यह आंदोलन तो चौधरी चरणसिंह के प्रदर्शन के मुकाबले भी फीका ही रहा है। उनके आहवान पर दिल्ली में लाखों किसान इंडिया गेट पर जमा हो गए थे।
दूसरे शब्दों में शक पैदा होता है कि यह आंदोलन सिर्फ खाते-पीते या मालदार किसानों तक ही तो सीमित नहीं है ? यह आंदोलन जिन तीन नए कृषि-कानूनों का विरोध कर रहा है, यदि देश के सारे किसान उसके साथ होते तो अभी तक सरकार घुटने टेक चुकी होती लेकिन सरकार ने काफी संयम से काम लिया है। उसने किसान-नेताओं से कई बार खुलकर बात की है। अब भी उसने बातचीत के दरवाजे बंद नहीं किए हैं। किसान नेताओं को अपनी मांगों के लिए आंदोलन करने का पूरा अधिकार है लेकिन आज उन्होंने जिस तरह से भी छोटे-मोटे विरोध-प्रदर्शन किए हैं, उनमें कोरोना की सख्तियों का पूरा उल्लंघन हुआ है। सैकड़ों लोगों ने न तो शारीरिक दूरी रखी और न ही मुखपट्टी लगाई। पिछले कई हफ्तों से वे गांवों और कस्बों के रास्तों पर भी कब्जा किए हुए हैं।
इसीलिए आम जनता की सहानुभूति भी उनके साथ घटती जा रही है। हमारे विरोधी नेताओं को भी इस किसान विरोध-दिवस ने बेनकाब कर दिया है। वे कुंभ-मेले और प. बंगाल के चुनावों के लिए भाजपा को कोस रहे थे, अब वही काम वे भी कर रहे हैं। उन्हें तो किसान नेताओं को पटाना है, उसकी कीमत चाहे जो भी हो। कई प्रदर्शनकारी किसान पहले भयंकर ठंड में अपने प्राण गवां चुके हैं और अब गर्मी में कई लोग बेमौत मरेंगे। किसानों को उकसाने वाले हमारे नेताओं को किसानों की जिंदगी से कुछ लेना-देना नहीं है। सरकार का पूरा ध्यान कोरोना-युद्ध में लगा हुआ है लेकिन उसका यह कर्तव्य है कि वह किसान-नेताओं की बात भी ध्यान से सुने और जल्दी सुने। देश के किसानों ने इस वर्ष अपूर्व उपज पैदा की है, जबकि शेष सारे उद्योग-धंधे ठप्प पड़े हुए हैं। सरकार और किसान नेताओं के बीच संवाद फिर से शुरु करने का यह सही वक्त अभी ही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-मनोहर नोतानी
भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को लेकर तरह-तरह के मनगढंत किस्से-कहानियां प्रचलित हैं और इतिहास को पीठ दिखाने की राजनीति के इस दौर में ये कहानियां और भी चटखारे लेकर सुनी-कही जा रही हैं। ऐसे में भारतीय पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी और लंबे समय तक पं. नेहरू के सुरक्षा प्रमुख रहे केएफ रुस्तमजी की किताब ‘’आइ वॉज़ नेहरू'स शैडो’’ उन्हें ज्यादा मानवीय, विद्वान और वैश्विक राजनेता की तरह स्थापित करती है। प्रस्तुत है, किताब के अनुवादक मनोहर नोतानी द्वारा की गई उसकी समीक्षा।
पुस्तक आइ वॉज़ नेहरू'स शैडो’के लेखक स्वर्गीय केएफ रुस्तमजी स्वतंत्र भारत की आइपीएस की पूर्ववर्ती ब्रिटिशकालीन सेवा आइपी (इंडियन पुलिस) के एक अफसर थे। इस किताब का हिन्दी अनुवाद ‘मैं नेहरू का साया था’शीर्षक से मैंने किया है। यह किताब एक तरह से छह साल तक नेहरू के चश्मदीद गवाह रहे रुस्तमजी की रोचक 'आंखों देखी दास्तान' है।
केएफ रुस्तमजी एक लिक्खाड़ व्यक्ति थे। अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए वे नियमित रूप से लिखा करते थे। अपने लेखों में वे पुलिस-प्रशासन और कानून-व्यवस्था, समाज व राजनीति में व्याप्त बुराइयों को बड़े बेबाक ढंग से व्यक्त करते थे। ‘पद्म विभूषण' उन्हें मुख्यत: उनके द्वारा किये गये अनेक भंडाफोड़ों के लिए मिला था।
‘नेहरू की प्रतिष्ठा शायद उनके उत्तराधिकारियों के लिए निरंतर एक बाधा बनी रह सकती है और वे नेहरू को नीचा दिखाने के तरीके और तदबीरें खोजते रहेंगे।’ये शब्द लिखते समय केएफ रुस्तमजी गोया एक नजूमी लगते हैं। उन्होंने लिखा है, जिस तरह से मैंने नेहरू को जाना, उस तरह से बहुत कम लोगों ने उन्हें जाना है; और बहुत कम लोग उन्हें कभी इस तरह जान पाएंगे।
इस पुस्तक में रुस्तमजी द्वारा खींची गयी नेहरू की तस्वीर एकदम अलहदा है। रोज़ाना की छोटी-से-छोटी बात भी उनकी चौकस नज़र से बच नहीं पायी है। तिस पर हर चीज़, हर बात को दिलचस्प अंदाज़ में प्रामाणिक तरीके से दर्ज कर पाने के उनके रसभरे अंदाज़ के चलते नेहरू की विचित्रता और उनकी ख़ब्त की दिलचस्प झलकियां हमें मिलती हैं।
रुस्तमजी के लेखन का सबसे सशक्त पहलू उनके इन शब्दों में बयां होता है मैंने किसी को खुश करने की ख़ातिर नहीं लिखा है, मैंने छपास या प्रसिद्धि के लिए भी नहीं लिखा। मुझे यह सब लिखने में आनंद आया और मैं इसके लेखक होने का गर्व छिपा नहीं सकता। मेरी इच्छा है कि मेरी डायरियों को कोई संपादित करे और अब से बरसों बाद, लोग जब इन्हें पढ़ें तो कुछ पलों के लिए ही सही, वे उस वक्त को महसूस करें जिसमें मैं जिया हूं, उन लोगों की सांसें सुनें जो मेरी जि़ंदगी में महत्व रखते थे।
रुस्तमजी की पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत ही यही है कि यह कोई ‘हैगिओग्राफी’(संत-चरित लेखन) नहीं है। इसमें नेहरू की निडरता, दूरदृष्टि, लोकतंत्र और भारत की एकता में उनकी गहरी आस्था के साथ-साथ उनके अकारण व सकारण गुस्से और उनके अन्य दोषों पर भी बेबाकी से लिखा गया है। इसमें कुल बारह अध्याय हैं।
1952 से लेकर 1958 तक रुस्तमजी प्रधानमंत्री के मुख्य सुरक्षा अधिकारी होने के नाते नेहरू के करीब रहे। नतीजतन, यह पुस्तक हमें नेहरू का एक अनूठा क्लोज़-अप देती है मैंने उन्हें बेझिझक घूरा है, उनके लिए सिगरेटें सुलगायी हैं और यह भी देखा है कि उनका भी कोई नाखून कभी मैला हो सकता है।
उनके जग-विख्यात गुस्से को तो पूरा-का-पूरा एक अध्याय समर्पित है।
नेहरू के साथ रुस्तमजी की नज़दीकियां इस कदर थीं कि पुस्तक में प्राय: वे नेहरू जी के लिए आत्मीय संबोधन जेएन का प्रयोग करते हैं।
जेएन के साथ मेरी सेवाओं की एक अजीब बात यह थी कि उनके साथ मेरे कार्यभार का ब्यौरा देता कोई सरकारी दस्तावेज़ न था। चूंकि वे बहुत कम सामान के साथ चलते थे – उनके साथ बस एक स्टेनो और मैं चलता, साथ में एक और सुरक्षा अधिकारी और उनका नौकर हरि (हम लोग उनकी स्थायी टीम होते थे) इसके चलते मेरे ऊपर कई और ऐसी जि़म्मेदारियां भी आन पड़ीं जो मेरे कार्यभार का हिस्सा न थीं।
प्रधानमंत्री नेहरू के काम और व्य्वहार से जुड़ी इतनी बारीक और करीबी जानकारियां हमें कहीं और नहीं मिलतीं। कुल मिलाकर, यह पुस्तक नेहरू जी के व्यक्तित्व को लेकर एक विहंगम दृष्टि भी देती है और उसकी एक बेहद अंतरंग प्रस्तुति भी। अंतरंग इसलिए कि रुस्तमजी को प्रधानमंत्री का पहला सुरक्षा प्रमुख होने के नाते नेहरू को एक अभूतपूर्व और अन्यथा अनुपलब्ध निकटता से देखने का विशेषाधिकार मिला।
उनका सुरक्षा अधिकारी होने के नाते मुझे उनके करीब रहने का मौका तो मिला ही, साथ ही एक प्रेक्षक के नाते भी मैंने उन्हें भाषण देते, किताबें पढ़ते और सफर व बैठकों में बातें करते सुना है। वे मुझे नियमित रूप से महत्वपूर्ण बैठकों में उपस्थित रहने को कहते। लंबी-लंबी यात्राओं में और नाश्ते के समय भी उनके साथ अकेला मैं ही होता था वे मुझ पर बेहिसाब भरोसा रखते थे।
नेहरू जी अत्यंत लोकप्रिय थे और उन्हें भी लोगों से बेपनाह प्यार था। अपने इस प्यार में बहकर अक्सर वे सुरक्षा उपायों की धज्जियां ही नहीं उड़ाते, बल्कि ऐसा करने में उन्हें एक प्रकार का परमसुख भी मिलता था। जो लोग आज भक्तों का गुणगान करते हैं, उनके लिए एक समूचा अध्याय ‘नेहरू-मेनिआ’ (नेहरू के प्रति दीवानगी) पर भी है।
नेहरू को लेकर रुस्तमजी का समग्र आकलन कुछ यों है
निस्संदेह, वे एक उत्तम पुरुष थे। आज उनकी महानता कुछ लोगों को नहीं दिख सकती, जैसे कि गांधी की महानता उनके जीते जी उनके छुटभैया निंदकों को नहीं समझ आती थी। जिस दिन वे मरेंगे, मैं सोचता, इस देश के दुखी दिल से चीर देने वाली एक कातर रुलाई फूट पड़ेगी। फ़ुज़ूल की चख़-चख़ भुला दी जाएंगी और पीढि़यों तक लोग उन्हें संसार के एक महान स्टेट्समैन का सम्मान देंगे।
नेहरू की छवि मुख्यत: एक ईमानदार और बड़े आदमी की है आधुनिक, ऊर्जावान और बहुत मेहनती इंसान। मैं जब उनकी टीम में शामिल हुआ तब वे 63 बरस के थे, लेकिन उनके जोश-ओ-ख़रोश को देख उनकी उम्र 33 बरस लगती थी और वो भी अच्छे और सेहतमंद 33 बरस वे सादा जीवन जीते थे और खानपान की उनकी आदतें भी बहुत साधारण थीं।
इस पुस्तक में नेहरू की सामान्य दैनंदिनी के इतने अद्भुत और आत्मीय किस्से और संस्मरण हैं जिन्हें पढ़ते हुए आप बरबस मुस्कुराने लगते हैं।
बावजूद अपनी कमियों के नेहरू प्रगतिशील थे।
नेहरू जी की सोच हमेशा भविष्योन्मुखी होती थी। अतीत के बारे में वे बहुत कम बोलते थे। यहां तक कि वर्तमान भी उनको बहुत ज़्यादा भाता नहीं था। भविष्य को लेकर वे दीवाने रहते। हमारा उद्देश्य क्या है? हमें आगे कैसे बढ़ना चाहिए? हमें किन रास्तों पर चलना चाहिए? एक तरह से उनका चित्त ही भविष्यदृष्टा था। वे हमेशा आने वाले कल में झांकते और अपना पथ चुनने के बाद वे उसे लेकर एकदम निश्चिंत रहा करते।
नेहरू-मेनिआ’नामक अध्याय में रुस्तमजी लिखते हैं, आम लोगों में नेहरू का चुंबकीय आकर्षण उन लोगों के लिए अविश्वसनीय है जिन्होंने उसे अपनी आंखों से नहीं देखा है। उनके पास होने, उन्हें देखने और उन्हें छू लेने की तमन्ना इतनी शिद्दत से होती थी कि लोग अपना आपा खो बैठते। उस ज़माने के ज़्यादातर लोगों ने कभी-न-कभी ऐसा महसूस किया होगा।
विश्व इतिहास में शायद ही किसी और इंसान को वह श्रद्धाभाव मिला हो जितना नेहरू को आजीवन नसीब हुआ।
पंडित नेहरू का निष्ठावान सिपाही होने के बावजूद केएफ रुस्तमजी अपनी निरपेक्षता नहीं खोते हैं। नतीजतन, एक पूरा अध्याय वे नेहरू के दोषों पर एकाग्र रखते हैं। देखिये उनके लेखन की बानगी, अपने जीवन के उत्तरार्ध में नेहरू, औरंगज़ेब की तरह हो गये थे। कॉन्ग्रेस के पुराने संरक्षक धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे थे। कॉन्ग्रेस में नये आने वाले लोगों को नेहरू का सामना करने में डर लगता था
जहां तक नेहरू की बात है, वे अक्सर कॉन्ग्रेसियों की मूढ़ता के चलते हैरान-परेशान रहा करते; उन्हें किसी भी दिशा से कोई भी सहारा नहीं मिलता, जबकि उनके सामने तमाम मुश्किल काम होते थे। ऐसे समय में, उन्हें काबिल लोगों को तलाश कर उन्हें परखना चाहिए था, आगे आने के लिए उनकी हौसला-अफ़ज़ाई करनी चाहिए थी, ताकि वे अपने काम उनके ज़रिये पूरे करवा पाते। लेकिन ठीक ऐसे ही क्षणों में, उनकी चुप्पी और तुनकमिज़ाजी बढ़ती जा रही थी। किसी भी किस्म की आलोचना से वे भड़क उठते
हमारे समय का आकलन करने वाले शायद ये कहेंगे कि नेहरू का सबसे बड़ा दोष था कि उन्होंने चहुं-ओर के भ्रष्टाचार को बेधड़क फलने-फूलने दिया।
नेहरू के नकारात्मक आंकलन के इस अध्याय की समाप्ति रुस्तमजी एक सकारात्मक नोट पर करते हैं।
दोषों, कमियों के बावजूद नेहरू में ऐसे सद्गुण थे जो उन्हें महान बनाते थे। उनकी बुद्धि असाधारण रूप से प्रखर थी और उनका परिश्रम तो ग़ज़ब ही था। वे सत्य्वादी थे, दो-टूक थे, और थे बहुत करुणामय। वे एक महान द्रष्टा़ और खरे सिद्धांतवादी थे, इसे लेकर मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं।
भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को लेकर तरह-तरह के मनगढंत किस्से-कहानियां प्रचलित हैं और इतिहास को पीठ दिखाने की राजनीति के इस दौर में ये कहानियां और भी चटखारे लेकर सुनी-कही जा रही हैं। ऐसे में भारतीय पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी और लंबे समय तक पं. नेहरू के सुरक्षा प्रमुख रहे केएफ रुस्तमजी की किताब ‘’आइ वॉज़ नेहरू’स शैडो’’ उन्हें ज्यादा मानवीय, विद्वान और वैश्विक राजनेता की तरह स्थापित करती है। प्रस्तुत है, किताब के अनुवादक मनोहर नोतानी द्वारा की गई उसकी समीक्षा। (spsmedia.in)