विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वतंत्र भारत में इंदिराजी के 'कामराज प्लानÓ के बाद सबसे बड़ी साहसिक पहल प्र.मं. नरेंद्र मोदी ने की है। नए और युवा मंत्रियों को अपने अनुशासन में रखना और उनसे अपने मन मुताबिक काम करवाना आसान रहेगा लेकिन उनसे कौन से काम करवाना है, यह तो प्रधानमंत्री को ही तय करना होगा। पिछले सात वर्षों में इस सरकार ने कुछ भयंकर भूलें की हैं तो कई अच्छे कदम भी उठाए हैं, जिनका लाभ जनता के विभिन्न वर्गों को बराबर मिल रहा है।
लेकिन जैसा राष्ट्र गांधी, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय बनाना चाहते थे, वैसा राष्ट्र बनाना तो दूर रहा, उस लक्ष्य के नजदीक पहुंचना भी हमारी कांग्रेस, जनता पार्टी और भाजपा सरकारों के लिए मुश्किल रहा है। इस समय नरेंद्र मोदी चाहें तो उक्त महापुरुषों के सपनों को कुछ हद तक साकार कर सकते हैं। क्योंकि इस वक्त पार्टी, सरकार और देश में उनका एकछत्र राज है। उनकी पार्टी और विपक्ष में उनके विरोधियों के हौंसले पस्त हैं। उनकी लोकप्रियता थोड़ी घटी जरुर है, कोरोना की वजह से लेकिन आज भी उनकी आवाज पर पूरा देश आगे बढऩे को तैयार है। इस नए मंत्रिमंडल का पहला लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि देश में प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा और चिकित्सा मुफ्त मिले। शिक्षा मन और बुद्धि को मजबूत बनाए और चिकित्सा तन को। देश का तन और मन स्वस्थ रहे तो धन तो अपने आप पैदा हो जाएगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निजी अस्पतालों और शिक्षा-संस्थाओं पर पूर्ण प्रतिबंध लगे या उन्हें नियंत्रित किया जाए। देश में शत-प्रति-शत लोगों को शिक्षा और चिकित्सा उपलब्ध हो। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में भारत, यूनान और चीन की प्राचीन पद्धतियों का लाभ बेखटके उठाया जाए।
दूसरा, उच्चतम स्तर तक शिक्षा का माध्यम स्वभाषा हो। विदेशी भाषा के माध्यम पर कड़ा प्रतिबंध हो। विदेशी भाषाएं जरुर पढ़ाई जाएं लेकिन सिर्फ ऊँची कक्षाओं में स्वैच्छिक तौर पर और कम समय के लिए। तीसरा, जातीय आरक्षण खत्म किया जाए और राजनीतिक दल ऐसा माहौल बनाएं कि लोग जातीय उपनाम लगाना बंद करें। यह काम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से शुरु होकर नीचे तक चला जाए।चौथा, देश में अंतरर्जातीय, अंतरधार्मिक और अंतरभाषिक विवाहों को प्रोत्साहित किया जाए। पांचवाँ, शारीरिक और बौद्धिक श्रम का फासला घटाया जाए। लोगों की आमदनी और निजी खर्च का अंतर कौडिय़ों और करोड़ों में न हो। यह अंतर अधिक से अधिक एक से बीस तक हो।
छठा, पुराने आर्यावर्त्त का जो सपना महावीर स्वामी, महर्षि दयानंद और डॉ. लोहिया ने देखा था, उसे साकार करने के लिए दक्षिण और मध्यएशिया के देशों का महासंघ खड़ा किया जाए, जिसका साझा संविधान, साझी संसद, साझा बाजार और सांझी संस्कृति हो। सातवाँ, भारत सरकार विश्वपरमाणु निरस्त्रीकरण की पहल करे। यदि इस नए मंत्रिमंडल को लेकर यह सरकार इन कामों को पूरा कर सके या इस दिशा में आगे बढ़ सके तो इतिहास उसे याद रखेगा वरना इतिहास का कूड़ेदान तो काफी बड़ा होता ही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें जैसे सिर पर पाँव रखकर भागी हैं, क्या उससे भी भारत सरकार ने कोई सबक नहीं लिया। बगराम सहित सात हवाई अड्डों को खाली करते वक्त अमेरिकी फौजियों ने काबुल सरकार को खबर तक नहीं की। नतीजा क्या हुआ? बगराम हवाई अड्डे में सैकड़ों शहरी लोग घुस गए और उन्होंने बचा-खुचा माल लूट लिया। अमेरिकी फौज अपने कपड़े, छोटे-मोटे कंम्प्यूटर और हथियार, बर्तन-भांडे-फर्नीचर वगैरह जो कुछ भी छोड़ गई थी, उसे लूटकर काबुल में कई कबाडिय़ों ने अपनी चलती-फिरती दुकानें खोल लीं। यहां असली सवाल यह है कि अमेरिकियों ने अपनी बिदाई भी भली प्रकार से क्यों नहीं होने दी ? गालिब के शब्दों में 'बड़े बेआबरु होकर, तेरे कूचे से हम निकले।Ó क्यों निकले ?
क्योंकि अफगान लोगों से भी ज्यादा अमेरिकी फौजी तालिबान से डरे हुए थे। उन्हें इतिहास का वह सबक याद था, जब लगभग पौने दो सौ साल पहले अंग्रेजी फौज के 16 हजार फौजी जवान काबुल छोड़कर भागे थे तो उनमें से 15 हजार 999 जवानों को अफगानों ने कत्ल कर दिया था। अमेरिकी जवान वह दिन नहीं देखना चाहते थे। लेकिन उसका नतीजा यह हो रहा है कि अफगान प्रांतों में तालिबान का कब्जा बढ़ता चला जा रहा है। एक-तिहाई अफगानिस्तान पर उनका कब्जा हो चुका है। कई मोहल्लों, गांवों और शहरों में लोग हथियारबंद हो रहे हैं ताकि गृहयुद्ध की स्थिति में वे अपनी रक्षा कर सकें। डर के मारे कई राष्ट्रों ने अपने वाणिज्य दूतावास बंद कर दिए हैं और काबुल स्थित राजदूतावासों को भी वे खाली कर रहे हैं। भारत ने अभी अपने दूतावास बंद तो नहीं किए हैं लेकिन उन्हें कामचलाऊ भर रख लिया है।
अफगानिस्तान में भारत की हालत अजीब-सी हो गई। तीन अरब डॉलर वहां खपानेवाला और अपने कर्मचारियों की जान कुर्बान करनेवाला भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा है। भारत की वैधानिक सीमा (कश्मीर से लगी हुई) अफगानिस्तान से लगभग 100 किमी. लगती है। अपने इस पड़ौसी देश के तालिबान के साथ चीन, रूस, तुर्की, अमेरिका आदि सीधी बात कर रहे हैं और दिग्भ्रमित पाकिस्तान भी उनका दामन थामे हुआ है लेकिन भारत की विदेश नीति बगलें झांक रही है। यह ठीक है कि भाजपा में विदेश नीति के जानकर नहीं के बराबर हैं और मोदी सरकार नौकरशाहों पर पूरी तरह निर्भर है।
आश्चर्य है कि नरेंद्र मोदी ने दक्षता के नाम पर अपने लगभग आधा दर्जन वरिष्ठ मंत्रियों को घर बिठा दिया लेकिन विदेश नीति के मामले में उनकी कोई मौलिक पहल नहीं है। इस समय भारत की विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती अफगानिस्तान है। उसके मामले में अमेरिका का अंधानुकरण करना और भारत को अपंग बनाकर छोड़ देना राष्ट्रहित के विरुद्ध है। यदि अफगानिस्तान में अराजकता फैल गई तो वह भारत के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदेह साबित होगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुसंस्कृति परिहार
विगत दिनों आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने गाजियाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान हिंदू-मुस्लिमों के पूर्वजों को एक बताते हुए कहा था कि हिंदू-मुस्लिमों की पूजा-पद्धति आज भले ही अलग हो गई है, लेकिन दोनों के पूर्वज एक थे, दोनों का डीएनए एक है। उनके इस बयान के बाद संघ के अनुषंगिक संगठनों के कार्यकर्ताओं में जबरदस्त नाराज़गी है। अनुशासन की तलवार उनकी गर्दन पर लटकी हुई है इसलिए प्रतिरोध के स्वर उभरकर सामने नहीं आ रहे हैं बैचेनी इस हद तक है कि वे इस डी एन ए को गंवारा करने की बजाय संघ से पंगा लेने की मन:स्थिति में हैं। राजनैतिक हलकों में इसे कूट संघीय चाल माना जा रहा है जिसे अमूमन भारत के तमाम सेकुलर दल भली-भांति जानते और समझते हैं।
इस खलबली के बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक के एक स्वयंसेवक के रूप में अपनी पारी शुरू कर विश्व हिंदू परिषद का 32 वर्ष नेतृत्व करने वाले प्रवीण भाई तोगड़िया ने बड़ी दिलेरी के साथ मोहन भागवत के इस बयान को हिंदू समाज को दिग्भ्रमित करने वाला बताया है। उन्होंने कहा कि हिंदू-मुसलमान के पूर्वज एक हैं, तो क्या महाराणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह की लड़ाई गलत थी, जिन्होंने अपनी धर्म रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिए? मोहन भागवत के 'मॉब लिंचिंग' पर दिए बयान पर उन्होंने कहा कि आज तक भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने गौरक्षा करने वालों को आतंकी नहीं कहा, लेकिन मोहन भागवत के बयान से यही इशारा होता है। उन्होंने कहा कि अगर गौरक्षा करने वाले आतंकी हैं तो मोहन भागवत को बताना चाहिए कि क्या आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के कैंपों में आज तक 'आतंकी' तैयार किये जा रहे थे जो गौरक्षक बनकर गायों को बचाने का काम कर रहे थे। उन्होंने गौरक्षकों को अपराधी समझने की बात का विरोध किया और कहा कि आरएसएस के सभी नेता गौरक्षा के लिए केंद्रीय कानून बनाने की मांग करते रहे हैं। आज जब केंद्र में आरएसएस समर्थित भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है, आज गौरक्षा का केंद्रीय कानून क्यों नहीं बनाया जा रहा है?
तोगड़िया ने हिंदू-मुस्लिमों के पूर्वजों को एक बताने का विरोध किया। उन्होंने कहा कि गुरु गोविंद सिंह, महाराजा रणजीत सिंह, महाराणा प्रताप, शिवाजी और धर्म न बदलने के कारण अपनी जान गंवाने वाली हरियाणा की बेटी निकिता तोमर जैसे लोग उनके पूर्वज हैं, लेकिन वे लोग उनके पुरखे नहीं हैं जो हिंदुओं के धर्मांतरण के अपराधी रहे हैं, जिन्होंने अपनी तलवार के दम पर निरपराध लोगों का जबरन धर्मांतरण कराया।
उन्होंने कहा कि इस तरह की बात केवल हिंदू समुदाय मानता है, अगर मुस्लिम समुदाय भी इसी तरह सबको एक समान मानता तो कश्मीर में लाखों हिंदुओं का कत्ल और पलायन नहीं होता। उन्होंने कहा कि भाईचारे की जिम्मेदारी सब धर्मों पर एक समान लागू होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर हम सभी लोगों को अपना पुरखा मानने लगेंगे, तो क्या अब हिंदुओं को औरंगजेब, मुहम्मद गौरी और गजनी का भी श्राद्ध-तर्पण करना चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर ऐसे लोगों का तर्पण होगा तो उनका गोत्र क्या बताना होगा, यह भी बताना चाहिए।
तोगड़िया ने पूछा कि अगर शिवाजी-महाराणा प्रताप मुगलों से लड़ रहे थे तो क्या वे गलत कर रहे थे? क्या उन्हें इन लोगों से लड़ना नहीं चाहिए था, बल्कि उनसे अपनी बहन-बेटियों की शादी कर देनी चाहिए थी क्योंकि (मोहन भागवत के बयान के अनुसार) वे भी एक ही वंशज के पत्र थे। उन्होंने कहा कि इस तरह का बयान केवल हिंदू समाज को दिग्भ्रमित करने की कोशिश है।
भागवत के इस बयान के बाद सियायी पारा एकदम से चढ़ गया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भागवत ने अपने बयान से हिंदुत्व के दार्शनिक आधार को व्यापक रूप दिया।बसपा सुप्रीमो मायावती ने संघ प्रमुख के बयान ' को मुंह में राम, बगल में छुरी' की तरह है. उन्होंने कहा, भागवत देश की राजनीति को विभाजनकारी बताकर कोस रहे हैं, वह ठीक नहीं है. सच्चाई तो यह है कि जिस बीजेपी और उसकी सरकारों को वह आंख बंद करके समर्थन देते चले आ रहे हैं, उसी का परिणाम है कि जातिवाद, राजनीतिक द्वेष और सांप्रदायिक हिंसा का जहर सामान्य जनजीवन को त्रस्त कर रहा है.ओवैसी ने भी अपने ट्वीट में लिखा, 'आरएसएस प्रमुख भागवत ने कहा कि लिंचिंग करने वाले हिंदुत्व विरोधी। इन अपराधियों को गाय और भैंस में फर्क नहीं पता होगा, लेकिन कत्ल करने के लिए जुनैद, अखलाक, पहलू, रकबर, अलीमुद्दीन के नाम ही काफी थे। ये नफरत हिंदुत्व की देन है, इन मुजरिमों को हिंदुत्ववादी सरकार की पुश्त पनाही हासिल है।कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी भागवत के बयान पर पलटवार किया। दिग्विजय सिंह ने ट्वीट कर पूछा, ''मोहन भागवत यह विचार क्या आप अपने शिष्यों, प्रचारकों, विश्व हिंदू परिषद/ बजरंग दल कार्यकर्ताओं को भी देंगे? क्या यह शिक्षा आप मोदी-शाह व भाजपा मुख्यमंत्री को भी देंगे?"
महज एनसीपी ने किया भागवत के बयान का स्वागत किया है लेकिन उसमें गहरा तंज है एनसीपी नेता नवाब मलिक ने संघ प्रमुख के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ''मोहन भागवत का बयान कि भारत में रहने वाले सभी लोगों का डीएनए एक है। अगर भागवत जी का हृदय बदल रहा है तो हम उसका स्वागत करते हैं। वर्ण व्यवस्था में विश्वास करने वाला संगठन अगर धर्म की हदों को तोड़ना चाहता है तो ये अच्छी बात है।''
वस्तुत:यह अल्पसंख्यक समुदाय को रिझाने का एक सोचाा समझा शातिराना फार्मूला है लेकिन यह चलने वाला नहीं है क्योंकि संघ के अंदर सेे ही विद्रोह पनपना शुरू हो गया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा सरकार ने अपने कुछ नए राज्यपाल और नए मंत्री लगभग एक साथ नियुक्त कर दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पिछली पारी में तीन बार अपने मंत्रिमंडल में फेर-बदल किया था। अब इस दूसरी पारी में यह पहला फेरबदल है। मैं समझता हूं कि मंत्रिमंडलीय फेर-बदल की तलवार हर साल ही लटका दी जानी चाहिए और हर मंत्री को उसके मंत्रालय के लक्ष्य निर्धारित करके पकड़ा दिए जाने चाहिए या उसे इन लक्ष्यों को स्वयं निर्धारित करके घोषित कर देना चाहिए। मंत्रियों को यह पता होना चाहिए कि यदि उन्होंने घोषित लक्ष्य पूरे नहीं किए तो साल भर में ही उनकी छुट्टी हो सकती है।
वर्तमान फेर-बदल इस अर्थ में एतिहासिक और सराहनीय है कि राज्यपालों और केंद्रीय मंत्रियों में जितना प्रतिनिधित्व महिलाओं, पिछड़ों आदिवासियों, अनुसूचितों, उच्च शिक्षितों और युवा लोगों को मिल रहा है, उतना अभी तक किसी मंत्रिमंडल में नहीं मिला है। महिलाओं की जितनी बड़ी संख्या मोदी मंत्रिमंडल में है, उतनी बड़ी संख्या भारत की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में भी नहीं थी। इसी प्रकार शायद इतना बड़ा फेर-बदल किसी मंत्रिमंडल में पहले नहीं हुआ। यह अदभुत भूल सुधार है। इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए।
वर्तमान फेरबदल के पीछे कई दृष्टियां हैं। पहली तो यह कि अगले साल जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनके कुछ प्रभावशाली नेताओं को दिल्ली की गद्दी पर बिठाया जाए ताकि उन राज्यों के मतदाताओं का हित-संपादन विशेष रुप से हो, जिसके कारण भाजपा का वोट-प्रतिशत बढ़े। दूसरी दृष्टि यह है कि जिन मंत्रियों के काम-काज में कमियां पाई गईं या उन्हें लेकर अनावश्यक विवाद हुए, उनसे सरकार को मुक्त कर दिया गया। कुछ मंत्रियों ने अपने इस्तीफे पहले ही दे दिए। तीसरी दृष्टि यह रही हो सकती है कि अब कोरोना का खतरा लगभग समाप्त-सा दिखाई दे रहा है तो देश की राजनीति में ताजगी लाई जाए। इसीलिए युवाओं के मंत्री बनने से अब मोदी मंत्रिमंडल की औसत आयु 58 वर्ष हो गई है लेकिन यहां एक पेंच है। वह बड़ा खतरा भी सिद्ध हो सकता है। मोदी मंत्रिमंडल की सबसे बड़ी कमी उसकी अनुभवहीनता है।
प्रधानमंत्री बनने के पहले मोदी खुद कभी केंद्र में मंत्री नहीं रहे। उनके मंत्रियों में राजनाथ सिंह जैसे कितने मंत्री हैं, जो पहले केंद्र में मंत्री रह चुके हों। आप योग्यता आसानी से जुटा सकते हैं लेकिन अनुभव तो अनुभव से ही आता है। उसका कोई विकल्प नहीं है। मोदी सरकार ने कुछ गंभीर मुद्दों पर इसलिए गच्चा खाया कि उसने अपने अनुभवी नेताओं को मार्गदर्शक मंडल की ताक पर बिठा दिया। कई महत्वपूर्ण मंत्रियों के इस्तीफे आखिर यही तो बता रहे हैं कि अनुभवहीनता सरकार पर कितनी भारी पड़ती है। यह नया मंत्रिमंडल पता नहीं कैसा काम करके दिखाएगा ? यह भी देखना है कि यह नया मंत्रिमंडल 2024 में मोदी सरकार की वापसी को कैसे मजबूत करेगा?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
दिलीप साहब ने ‘आत्मकथा‘ में लिखा है उन्हें राजनीति में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। बाद में राज्यसभा के सदस्य बनाए गए। धुंधली हो रही घटनाओं, संस्मरणों और यादों के साथ निहत्थापन है कि उन पर कोई भरोसा तो कर ले!
किस्सा 1972 का है। विद्याचरण शुक्ल रक्षा उत्पादन मंत्री थे। प्राध्यापकी छोड़कर वकालत के पहले मैं सहसा प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया, नवभारत टाइम्स और नवभारत वगैरह का संवाददाता हो गया था। अभिजात्य आदतों में रचे बसे शुक्ल को छोटे भाई की उम्र के मुझ पत्रकार को दिल्ली दरबार की ठसक दिखाने का एक दिन भी आया। मैं रेसकोर्स की उनकी कोठी में ठहरा था। उस इतवार लंच के तीन निमंत्रण मंत्री जी के पास थे। एक महाराष्ट्र के राज्यपाल नवाब अली यावर जंग, दूसरा केन्द्रीय मंत्री इंद्रकुमार गुजराल और तीसरा पत्रकार सुदर्शन भाटिया का जिनकी पत्नी मक्के की रोटी और सरसों का साग अपने हाथों बनाकर खिलाने वाली थीं। शुक्ल ने मुझसे मेजबान चुनने कहा। बेतुके कपड़ों, हीन भावना और पत्रकारिक मित्र से परिचय पाने की ललक में मैंने मक्के की रोटी और सरसों का साग चुना।
शुक्ल स्पोर्ट्स् कार में, जीन्स और टी शर्ट पहने फिल्मी हीरो लगते सामने की सीट पर कुर्ता पाजामा पहने बैठे मुझे ले चले। गुजराल की कोठी में कार घुस रही थी। सामने से एक खूबसूरत कार आ रही थी। मंत्री बुदबुदाए, ‘ये हज़रत उतरेंगे। तुम इन्हें संभालना। मैं गुजराल से माफी मांगकर आता हूं।‘ उस कार की पिछली सीट पर बैठा व्यक्ति ‘शुक्ला साहब, शुक्ला साहब‘ कहता अपनी कार को पलटाकर हमारी कार के पीछे दौड़ा आया। उतरते उतरते उसने विद्याचरण शुक्ल को घेरा। शुक्ल ने मुझसे तआरुफ कराया ‘ये मेरे राजनीतिक सचिव हैं। छोटे भाई और बड़े पत्रकार भी। इनकी सलाह से राजनीतिक फैसले करता हूं।‘ हर नेता की तरह शुक्ल ने हजारों कामचलाऊ झूठ बोले ही होंगे। इस झूठ से लेकिन मेरे लिए सपना झरने लगा।
उस आकर्षक पुरुष ने मेरा दायां हाथ गर्मजोशी से पकड़ा और मिनटों तक नहीं छोड़ा। इतनी देर तक तो अपनी फिल्मों में किसी नायिका का हाथ पकड़े मैंने उसे नहीं देखा था। उसके हाथों में उसकी भाषा थी। उसके मन को बयान कर रही थी। उसकी आंखों में जुंबिश थी जो हर फिल्म में इस कदर साफ साफ बोलती रहीं कि अंधे को भी दिखाई पड़ जाता। आज ज़रूरी नहीं होने पर भी वह जुबान से बोल रहा था कि मैं शुक्ल के मन की थाह लूं। खुद्दार अतिमानव बीस वर्ष छोटे युवक का हाथ पकड़े खड़ा था। मुझे राजनीति में रुचि नहीं पैदा हो रही थी।
मेरे लिए वे दिलीप कुमार नहीं, देवदास थे। कितने सौभाग्यशाली क्षण थे। मेरा देवदास पारो की ड्योढ़ी पर मरने वाले मेरा हाथ पकड़ने दिल्ली के सरकारी बंगले की चौहद्दी के अंदर खड़ा है। मैं देवदास से मुखातिब होता हूं। दिलीप कुमार को अभिनय कला की उनकी चापलूसी में दिलचस्पी नहीं है। मैं ‘देवदास‘ के कारुणिक संवादों का रटा हुआ कोलाज़ बिखेरता हूं। ये डायलाॅग फिल्म में उनके द्वारा बोले जाने पर चंद्रमुखी, धरमदास, पारो, उनकी मां और चुन्नी बाबू तक की आंखों में आंसू छलछलाए थे। मैं झुंझलाता हूं। कैसा देवदास है जो दिलीप कुमार बने रहने का अभिनय कर रहा है। ज़मींदार का बेटा होकर ऊंची जाति की गरीब लड़की पारो से प्रेम के कारण इसी ने ऐसी त्रासद मौत पाई। हम जैसे लोग जीवन में कुछ पाने के बदले इसके जैसी त्रासद मौत चाहते रहे। हमें पी.सी. बरुआ या बिमल राॅय नहीं मिले। कितना निष्ठुर है कलाकार!
मैं ‘देवदास‘ के मुकाबले उसकी एक कम प्रसिद्ध फिल्म की गोद में पनाह मांगता हूं। पूछता हूं, ‘आपको ‘शिकस्त‘ में अपना अभिनय कैसा लगा?‘ ‘शिकस्त‘ में भी तो बांग्ला कहानी का ही नायक है। बांग्ला कुमारिकाओं ने काॅलेज के हम दोस्तों को घास नहीं डाली। तब हम दिलीप कुमार में अपना नायक ढूंढ़ते रहे। ‘शिकस्त‘ में दिलीप का अभिनय अंगरेज़ी के महान रूमानी कवि कीट्स के मृत्यु-लेख की तरह अमर है। कीट्स ने लिखा है, ‘यहां वह लेटा है, जिसका नाम पानी पर खुदा है।‘ मैं शिकस्त हो रहा हूं। मेरे अभिनय का दिलीप कुमार पर असर नहीं हो रहा है। उन्हें आज राजनीति के कीड़े ने काट खाया है। नेता अभिनेता को तबाह कर रहे हैं।
पठान के हाथ ने मेरी हथेली को दबोचा। स्पर्श ने मनुष्य होने की समझ मुझमें विकसित और विस्तारित कर दी। पठान का कड़ा हाथ ब्राह्मण पुत्र के मुलायम हाथ को शिकंजे में कस चुका। पठान ने अपनी नायिकाओं के हाथ भी इतनी सख्ती से नहीं पकड़े होंगे। मेरे मुकाबले वे बेचारियां कोमलांगी ही होंगी। हाथों में क्या दम तो इसके पैदा होने में ही है। कभी उसके हाथ पांव, देह और हम नहीं रहेंगे। तब उसका इतिहास और हमारी गुमनामी एक साथ होंगे। अकेले में शुक्ल ने मुझे बताया तो था कि दिलीप साहब के राज्यसभा में जाने की बात चल रही है।
मैंने उस दोपहर दायां हाथ नहीं धोया। सुदर्शन भाटिया के घर बाएं हाथ से खाया। शुक्ल की कोठी पहुंचकर मैंने आदत के खिलाफ पत्नी से हाथ मिलाया। वह चौकी। मैंने कहा मेरे इस हाथ में दिलीप कुमार का स्पर्श है।
-रवि प्रकाश
पीटर मार्टिन ‘बगइचा’ के उसी कमरे में रहते हैं, जो कभी फादर स्टैन स्वामी का आशियाना था। यह बगइचा (स्टेन स्वामी का दफ़्तर) के पहले तल पर है।
बाहर से लाल और अंदर सफ़ेद रंग से पुती हुई दीवारों वाली यह दो मंजि़ला बिल्डिंग स्टैन स्वामी का दफ़्तर और घर दोनों थी। यहीं काम करते हुए उनकी पहचान देश के मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर बनी। वे पूरी जि़ंदगी आदिवासियों और दलितों के हक़ की लड़ाई लड़ते रहे। यहीं रहते हुए उन्होंने कऱीब छह दर्जन किताबें और नोट्स लिखे।
साल 2020 के अक्तूबर महीने की आठ तारीख़ को राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) द्वारा गिरफ़्तार किए जाने तक वे यहीं रहे। अब यहाँ उनसे जुड़ी यादें हैं। 84 साल के स्टैन स्वामी भीमा कोरेगाँव मामले में न्यायिक हिरासत में थे। उन पर हिंसा भडक़ाने का मामला चल रहा था और यूएपीए के तहत मामला दर्ज था।
पीटर मार्टिन ये सारी बातें बताते हुए भावुक भी हुए और उनकी आवाज़ एकाध दफ़ा लडख़ड़ाई भी।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘फ़ादर स्टैन स्वामी आदिवासियों के अधिकारों की बात करने वाली एक बुलंद आवाज़ थे, जो लोगों के आक्रोश को स्वर देते थे। जब कभी, जहाँ कहीं भी समाज में आम जनता के प्रताडऩा की बात सामने आई, वह आवाज़ मुखर रही। वे कभी किसी से डरे नहीं। जब तक वे थे, उनकी आवाज़ कभी नहीं डगमगाई। आने वाले वक्त में लोग उन्हें इसी रूप में याद करेंगे। उनके जाने (निधन) से जो शून्यता आई है, उसकी भरपाई शायद नहीं हो सकेगी।’
पीटर मार्टिन ने यह भी कहा, ‘साल 2017 में वे विचाराधीन क़ैदियों के अधिकारों और उनकी प्रताडऩा के मामले को लेकर अदालत में गए। अब उनका निधन भी एक विचाराधीन क़ैदी के रूप में सरकार से लड़ते हुए हुआ, यह अफ़सोसजनक है।’
‘फ़ादर की मौत नहीं, उनकी हत्या हुई’
फ़ादर स्टैन स्वामी के निधन की ख़बर फैलते ही झारखंड की राजधानी राँची समेत कई शहरों-क़स्बों में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किए। राँची और बगोदर में इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पुतले फूँके गए। प्रदर्शनकारियों ने कहा कि फ़ादर स्टैन स्वामी की मौत को स्वाभाविक नहीं मान सकते। यह सुनियोजित हत्या जैसी घटना है।
फ़ादर स्टैन स्वामी की संस्था बगइचा के मौजूदा निदेशक पीएम टोनी ने बीबीसी से कहा कि फ़ादर स्टैन स्वामी की मौत के लिए केंद्र सरकार और उसकी एजेंसी एनआईए जि़म्मेदार है। अगर उन्हें समय पर ज़मानत मिल गई होती, तो वे शायद कई और सालों तक जीवित रहते।
उन्होंने कहा, ‘भीमा-कोरेगाँव मामला पूरी तरह से बनाया हुआ केस है। फ़ादर स्टैन स्वामी को न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा था, इसलिए उन्हें ज़मानत की उम्मीद थी। लेकिन, उनके मामले की सुनवाई टलती रही। तीन अक्तूबर को भी उनकी ज़मानत पर हियरिंग थी, लेकिन नहीं हो सकी। उन पर इसका बड़ा असर पड़ा। उनकी तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई और वे कोमा में चले गए। अंतत: उनका निधन हो गया।’
‘फ़ादर स्टैन स्वामी हमेशा अलर्ट रहते थे। उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों के संरक्षण की लड़ाई लड़ी। उन्हें न केवल जागृत, बल्कि संगठित भी किया। उन्हें समझाया कि विकास के नाम पर सरकारें किस तरह से आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का हनन करती हैं। वे मानते थे कि आदिवासी जब अपने अधिकारों को समझ जाएँगे, तो ख़ुद ही अपनी लड़ाई लड़ेंगे। इसलिए उन्होंने आदिवासियों को ही आंदोलनों की रूपरेखा तय करने दिया। आदिवासियों की तरह सादा जीवन और उनके मूल्यों को जिया।’
‘उम्मीद थी वे लौट आएँगे’
झारखंड जनाधिकार महासभा से जुड़े चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता सिराज दत्ता फ़ादर स्टैन स्वामी के कऱीब रहे हैं।
उन्होंने कहा, ‘इस बात का शक तो था कि फ़ादर स्टैन स्वामी के साथ यह सलूक हो सकता है। उनकी गिरफ़्तारी के बाद से अब तक के 10 महीने आक्रोश और निराशा के भी रहे हैं। मुझे फिर भी उनकी वापसी की उम्मीद थी। सरकार उन्हें तोड़ नहीं सकी, तो मार दिया। लेकिन, इससे समानता और इंसाफ़ की लड़ाई कमज़ोर नहीं पड़ेगी। इस फ़ासिस्ट सरकार के ख़िलाफ़ फ़ादर स्टैन स्वामी ने जो संघर्ष शुरू किया, वो आगे भी जारी रहेगा।’
इस बीच राँची के सीपीआई दफ़्तर में सोमवार की शाम हुई एक बैठक में कहा गया, ‘स्टैन स्वामी की मौत को हम प्राकृतिक मौत नहीं मानते। हमारी यह स्पष्ट धारणा है कि वे मोदी सरकार और भारतीय न्याय व्यवस्था की क्रूरता के शिकार हुए हैं। हमारी झारखंड सरकार से माँग है कि उनके पार्थिव शरीर को राँची लाने की व्यवस्था करे, जो स्टैन की कर्मभूमि रही है।’
इस बैठक में शामिल रहीं आलोका कुजूर ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि सीपीआई दफ़्तर में हुई बैठक में कई जाने-माने बुद्धिजीवी, स्टैन के सहयोगी रहे कार्यकर्ता और सोशल एक्टिविस्ट शामिल हुए।
‘मेरी जि़ंदगी का सबसे दुखद दिन’
मशहूर अर्थशास्त्री, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज़ और फ़ादर स्टैन स्वामी की सालों पुरानी पहचान रही है। दोनों ने तमाम आंदोलनो में साथ काम किया है। उन्होंने एक टीवी डिबेट में कहा कि स्टैन का निधन उनकी जि़ंदगी की सबसे दुथद घटनाओं में से एक है।
ज्यां द्रेज़ ने कहा, ‘84 साल का एक आदमी जो पार्किंसन जैसी बीमारी से ग्रसित हो, उनकी ज़मानत का विरोध करने के लिए एनआईए को कभी माफ़ नहीं किया जा सकता। मैं उन्हें पिछले 15-20 सालों से जानता था। वे शानदार शख़्सियत के मालिक और जि़म्मेदार नागरिक थे। मैं नहीं मानता कि वे माओवादी थे। अगर वे थे भी, तो उन्हें ज़मानत और इलाज का अधिकार था।’
‘दरअसल, यूएपीए से जुड़े मामलों में इसके अभियुक्तों को बग़ैर सबूत सालों जेलों में विचाराधीन रखना नियमित प्रैक्टिस हो गई है।
जबकि इसका कन्विक्शन रेट सिफऱ् दो फ़ीसद है। फ़ादर स्टैन स्वामी को भी यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किया गया था। अब इस पर तत्काल बहस की ज़रूरत है कि ऐसे मामलों में लोगों को कई-कई सालों तक अंडर ट्रायल रखना कितना उचित है। जबकि ऐसे अधिकतर मामलों में एजेंसियाँ कोई सबूत नहीं पेश कर पातीं और लोग बाद में रिहा हो जाते हैं।’ (bbc.com)
-गिरीश मालवीय
‘कांवड़ यात्रा को लेकर जो लोग हरिद्वार आना चाहते हैं, उनके लिए संदेश है कि इस बार कांवड़ यात्रा प्रतिबंधित है। इसके बावजूद भी अगर हरिद्वार कोई कांवडिय़ा आता है तो उसके खिलाफ महामारी ऐक्ट में मुकदमा दर्ज किया जाएगा और साथ ही 14 दिन के लिए क्वारंटीन भी किया जाएगा।’
यह बात इसी हफ्ते मंगलवार को उत्तराखंड के डीजीपी अशोक कुमार ने कही है, मंगलवार को उत्तराखंड पुलिस महानिदेशक अशोक कुमार की अध्यक्षता में बैठक हुई। जिसमें 6 राज्यों के पुलिस अधिकारी शामिल हुए। बैठक में यूपी, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, चंडीगढ़ व इंटेलिजेंस ब्यूरो के अफसरों ने हिस्सा लिया। पहली बैठक में तय हुआ कि सरकार के आदेश के क्रम में कोई भी राज्य कांवडियों को हरिद्वार न आने दें। इसके लिए उत्तराखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा बल भी तैनात करने का निर्णय लिया गया।
लेकिन अब यह आदेश पलटाया जा रहा है क्योंकि कुछ महीने बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं और योगी महाराज कह रहे हैं कि हम तो कांवड़ यात्रा करवा कर ही मानेंगे इसके बाद यूपी के सीएम योगी ने उत्तराखंड मुख्यमंत्री धामी से बात की इसके बाद कहा जाने लगा कि हरिद्वार में प्रतिबंध की गई कांवड़ यात्रा पर अब नए सिरे से पुनर्विचार किया जाएगा। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और सीएम पुष्कर धामी के बीच हुई बात के बाद सरकार ने यू टर्न ले लिया है।
पूरी दुनिया को पता है कि दूसरी लहर के फैलने का एक बड़ा कारण उत्तराखंड के हरिद्वार में हुआ कुम्भ भी था पूरी दुनिया की मीडिया कुम्भ कराने के निर्णय को लेकर।मोदी सरकार।की कड़ी आलोचना कर रही थी इसके बावजूद भी कुम्भ का आयोजन करवाया गया और आधिकारिक रूप से 90 लाख लोगों ने इसमे हिस्सा लिया। इससे दूसरी लहर की विकरालता में वृद्धि हुई भीड़ में संक्रमण तेजी से फैला।
कुछ दिन पहले आयी एसबीआई की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में कोरोना की तीसरी लहर अगस्त में आने की संभावना है। एसबीआई रिसर्च द्वारा प्रकाशित 'कोविड -19: द रेस टू फिनिशिंग लाइन' शीर्षक वाली रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत देश में दूसरी लहर अभी खत्म भी नहीं हुई है सितंबर में लहर का पीक आ सकता है इस रिपोर्ट में वैश्विक डेटा के हवाले से कहा गया है कि औसतन, तीसरी लहर के मामले दूसरी लहर के समय चरम मामलों के लगभग 1.7 गुना होता है यानी यदि दूसरी लहर की पीक पर 4 लाख मामले आए थे तो इस बार पीक में 7 लाख मामले प्रतिदिन तक जा सकते है।
उसके बावजूद 25 जुलाई से योगी सरकार कांवड़ यात्रा का आयोजन करने का मन बना चुकी है?
मनाली में पर्यटकों की भारी भीड़ की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है इस पर कल ढ्ढष्टरूक्र के डायरेक्टर डॉ. बलराम भार्गव ने कहा कि हिल स्टेशनों से आ रहीं तस्वीरें भयावह हैं। लोगों को कोरोना से बचाव के लिए जरूरी व्यवहार का ध्यान रखना चाहिए। लव अग्रवाल ने कोरोना के हालात पर होने वाली नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में हिल स्टेशनों पर भारी भीड़ का जिक्र करते हुए कहा कि ऐसा करना अब तक के फायदे को कम कर सकता है। यदि प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया जाता है तो हम पाबंदियों में दी गई ढील को फिर से खत्म कर सकते हैं।
लेकिन किसी ढ्ढष्टरूक्र समेत किसी स्वास्थ्य सचिव की यह हिम्मत नही है कि योगी आदित्यनाथ को यह कह सके कि यह यात्रा करवाना खतरनाक है जबकि कोरोना के खतरे को देखते हुए उत्तराखंड में चार धाम यात्रा निरस्त की जा चुकी है, पुरी की रथयात्रा भी निरस्त हुई है, जम्मू कश्मीर में अमरनाथ यात्रा भी स्थगित की जा चुकी है उसके बावजूद कांवड़ यात्रा करवाने पर योगी सरकार अड़ी हुई है क्योंकि इस साल चुनाव है और चाहे इसमे भाग लेकर हजारों लाखों लोग संक्रमित हो जाए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर के गुपकार-गठबंधन ने अपना जो संयुक्त बयान जारी किया है, उसमें मुझे कोई बुराई नहीं दिखती। प्रधानमंत्री के साथ 24 जून को हुई बैठक के बाद यह उसका पहला बयान है। इस बयान में कहा गया है कि 24 जून की बैठक 'निराशाजनकÓ रही लेकिन उनका अब यह कहना जरा विचित्र-सा लग रहा है, क्योंकि उस बैठक से निकलने के बाद सभी नेता उसकी तारीफ कर रहे थे। उस बैठक की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि उसमें जरा भी गर्मागर्मी नहीं हुई। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी बात बहुत ही संतुलित ढंग से रखी। उस समय ऐसा लग रहा था कि कश्मीर का मामला सही पटरी पर चल रहा है। बात तो अभी भी वही है लेकिन गुपकार का यह नया तेवर बड़ा मजेदार है। उसका यह तेवर सिद्ध कर रहा है कि 24 जून की बैठक पूरी तरह सफल रही। वह अब जो मांग कर रहा है, उसे तो सरकार पहले ही खुद स्वीकृति दे चुकी है।
सरकार ने उस बैठक में साफ-साफ कहा था कि वह जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा फिर से बरकरार करेगी। अब गुपकार गठबंधन यही कह रहा है कि पूर्ण राज्य का यह दर्जा चुनाव के पहले घोषित किया जाना चाहिए। उसके संयुक्त बयान में कहीं भी एक शब्द भी धारा 370 और धारा 35 ए के बारे में नहीं कहा गया है। इसका मतलब क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि जम्मू-कश्मीर की लगभग सभी प्रमुख पार्टियों ने मान लिया है कि अब जो कश्मीर वे देखेंगी, वह नया कश्मीर होगा। उन्हें पता चल गया है कि अब कश्मीर का हुलिया बदलने वाला है। कांग्रेस की मौन सहमति तो इस बदलाव के साथ 24 जून को ही प्रकट हो गई थी। भारत के कश्मीरियों को ही नहीं, पाकिस्तान के 'कश्मीरप्रेमियोंÓ को भी पता चल गया है कि अब कश्मीर को पुरानी चाल पर चलाना असंभव है। कई इस्लामी देशों ने भी इसे भारत का आंतरिक मामला बता दिया है। ऐसी स्थिति में यदि कश्मीरी नेता यह मांग कर रहे हैं कि कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा चुनाव के पहले ही दे दिया जाए तो इसमें गलत क्या है?
मैं तो शुरु से ही कह रहा हूं कि कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के बराबर राज्य बनाया जाए। न तो वह उनसे ज्यादा हो और न ही कम! हां कश्मीरियत कायम रहे, इसलिए यह जरुरी है कि अन्य सीमा प्रांतों की तरह वहाँ कुछ विशेष प्रावधान जरुर किए जाएँ। गुपकार-गठबंधन की यह मांग भी विचारणीय है कि जेल में बंद कई अन्य नेताओं को भी रिहा किया जाए। जो नेता अभी तक रिहा नहीं किए गए हैं, उन पर शक है कि वे रिहा होने पर हिंसा और अतिवाद फैलाने की कोशिश करेंगे। यह शक साधार हो सकता है, लेकिन उनसे निपटने की पूरी क्षमता सरकार में पहले से है ही। इसीलिए जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य तुरंत घोषित करना अनुचित नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
एक ‘मजबूत सरकार’ को 84 साल के एक बुजुर्ग से खतरा था। वह बूढ़ा व्यक्ति पार्किंसन का मरीज था। बाकी शरीर की तरह कान भी कम काम करते थे। जो हाथ अपना निवाला अपने मुंह में नहीं डाल सकते थे, उन कांपते हाथों से मजबूत प्रधानमंत्री की जान को खतरा था। जो कान किसी की बात नहीं सुन सकते थे, उन कानों से भी इस बहरी सरकार को खतरा था। खतरा इतना ज्यादा था कि उन्हें जेल डाल दिया गया। वे लंबे समय तक बीमार रहे और कल उनकी मौत हो गई।
ये मौत नहीं है। ये बिना गोली मारे, बिना जहर दिए की गई हत्या है।
उन्होंने अपील की थी कि उनके हाथ कांपते हैं, पानी पीने के लिए एक स्ट्रॉ दे दिया जाए। सरकार और अदालत मिलकर बहस करने लगीं और उन्हें स्ट्रॉ नहीं दे सकीं। वे जिंदगी नहीं दे सकते। वे मौत दे सकते हैं। उन्होंने उस बूढ़े को मौत अता की। जीवन के आखिरी पड़ाव पर उन्हें जेल में सड़ाकर मार डाला गया। जिंदगी भर गरीबों के मानवाधिकार के लिए लडऩे वाले एक भले व्यक्ति को मानवाधिकार से वंचित करके मारा गया।
आतंक से लडऩे के लिए एक राष्ट्रीय एजेंसी बनाई गई है। वह आज तक किस आतंक से लड़ी, कोई नहीं जानता। वह एक निकृष्ट एजेंसी है जो तमाम बूढ़े सामाजिक कार्यकर्ताओं को सताने का काम करती है। इस फूहड़ एजेंसी की फूहड़ थ्योरी है कि कई बूढ़े कार्यकर्ता और लेखक मिलकर प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रच रहे थे। प्रधानमंत्री न हुआ, गली में घूमती मुर्गी हो गया जिसे 84 साल के बूढ़े भी मार देंगे और वह मर जाएगा। ऐसी अश्लील कहानी पर अदालत ने भी भरोसा किया और इस घटिया कहानी के दम पर आज कई बुजुर्ग जेलों में बंद हैं।
ये वही केस है जिसके बारे में वाशिंगटन पोस्ट ने दावा किया है कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के लैपटॉप में मालवेयर के जरिये सबूत प्लांट किए गए फिर उसी आधार पर उनको गिरफ्तार किया गया। इस केस में अब तक कुछ भी साबित नहीं हुआ है लेकिन दर्जनों बुद्धिजीवी महीनों से जेल में बंद हैं।
फादर स्टेन स्वामी पूरी जिंदगी देश की सबसे गरीब आबादी के मानवाधिकार के लिए लड़ते रहे। सरकार ने उनसे उनका मानवाधिकार और उनका जीने का अधिकार भी छीन लिया। जिसका सम्मान करना चाहिए था, उसे जेल में बंद करके मार दिया गया। अगर आप ऐसी क्रूरता के हिमायती हैं तो एक दिन ये आपके दरवाजे तक भी पहुंचेगी। आपके पास दो विकल्प हैं- पहला, आप सवाल पूछे कि बीमार बूढ़े मानवाधिकार कार्यकर्ता की जिंदगी क्यों छीन ली गई। दूसरा, आप अपनी बारी का इंतजार करें जब आपको भी ऐसी ही बर्बरता से मारा जाए।
ये अतिशयोक्ति नहीं है। जब कोई प्रशासन क्रूरता और दमन के दम पर देश चलाने की हिमाकत करता है तो उसका काम सिर्फ एक हत्या से पूरा नहीं होता।
फादर स्टेन स्वामी की ये हत्या करने वालों ने देश के माथे पर कभी न मिटने वाला कलंक लगाया है। वे देश के वंचितों की लड़ाई लड़े। उनका कद उनके हत्यारों से हमेशा ऊंचा रहेगा।
-गोपाल लाल पांडेय
अब्राहम लिंकन चर्मकार (अपभ्रंश....चमार) थे, उनके पिताजी जूते बनाते थे, जब वह राष्ट्रपति चुने गए तो अमेरिका के अभिजात्य वर्ग को बड़ी ठेस पहुँची।
सीनेट के समक्ष जब वह अपना पहला भाषण देने खड़े हुए तो एक सीनेटर ने ऊँची आवाज में कहा, मिस्टर लिंकन याद रखो कि तुम्हारे पिता मेरे और मेरे परिवार के जूते बनाया करते थे। इसी के साथ सीनेट भद्दे अट्टहास से गूँज उठी। लेकिन लिंकन किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे।
लिंकन ने कहा- मुझे मालूम है कि मेरे पिता जूते बनाते थे। सिर्फ आपके ही नहीं यहाँ बैठे कई माननीयों के जूते उन्होंने बनाये होंगे। वह पूरे मनोयोग से जूते बनाते थे, उनके बनाए जूतों में उनकी आत्मा बसती है। अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण के कारण उनके बनाए जूतों में कभी कोई शिकायत नहीं आई। क्या आपको उनके काम से कोई शिकायत है? उनका पुत्र होने के नाते मैं स्वयं भी जूते बना लेता हूँ और यदि आपको कोई शिकायत है तो मैं उनके बनाए जूतों की मरम्मत कर देता हूँ। मुझे अपने पिता और उनके काम पर गर्व है।
सीनेट में उनके इस तर्कवादी भाषण से सन्नाटा छा गया और इस भाषण को अमेरिकी सीनेट के इतिहास में बहुत बेहतरीन भाषण माना गया है, और उसी भाषण से एक थ्योरी निकली Dignity of Labour (श्रम का महत्व) और इसका ये असर हुआ कि जितने भी कामगार थे। उन्होंने अपने पेशे को अपना सरनेम बना दिया जैसे कि कोब्लर, शूमेकर, बूचर, टेलर, स्मिथ, कारपेंटर, पॉटर आदि।
अमेरिका में आज भी श्रम को महत्व दिया जाता है इसीलिए वो दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति है। वहीं भारत में जो श्रम करता है उसका कोई सम्मान नहीं है, वो छोटी जाति का है, नीच है। यहाँ जो बिल्कुल भी श्रम नहीं करता वो ऊंचा है। जो यहाँ सफाई करता है, उसे हेय (नीच) समझते हैं और जो गंदगी करता है उसे ऊँचा समझते हैं। ऐसी गलत मानसिकता के साथ हम दुनिया के नंबर एक देश बनने का सपना सिर्फ देख सकते हैं, लेकिन उसे पूरा नहीं कर सकते। जब तक कि हम श्रम को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे, जातिवाद और ऊँच-नीच का भेदभाव किसी भी राष्ट्र निर्माण के लिए बहुत बड़ी बाधा है।
-मो. जाहिद
ओवैसी के गृह राज्य तेलंगाना में कुल 119 सीट है और वहाँ ओवैसी की एमआईएम कुल आठ सीटों पर चुनाव लड़ती है।
काहे? काहे की इसलिए कि मुस्लिम वोटों का इन 119 सीटों पर बंटवारा ना हो और उनके पसंद की सरकार तेलंगाना में बन जाए।
काँग्रेस, समाजवादी पार्टी और अन्य सेकुलर पार्टियों को पानी पी पीकर कोसने वाले ओवैसी को तेलंगाना में इन सेकुलर पार्टी से भी गई गुजरी चन्द्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस अच्छी लगती है।
काहे? काहे की इसलिए कि टीआरएस हैदराबाद में ‘दारुस्सलाम’ के वित्तीय साम्राज्य की रक्षा करे। इसके बावजूद कि 2014 के बाद मुसलमानों के खिलाफ बने 10 से अधिक कानूनों को संसद में के.चन्द्रशेखर राव की टीआरएस ने समर्थन दिया था। फिर भी ओवैसी ना तो वहाँ उनका विरोध करते हैं और ना टीआरएस के खिलाफ उम्मीदवार उतारते हैं।
काहे ? काहे कि वहाँ उनको हिस्सेदारी नहीं चाहिए, वहाँ उनको, उनके परिवार को, उनके वित्तीय संस्थान और उनके छोटे भाई की गुंडागर्दी की सुरक्षा चाहिए।
बाकी जहाँ जहाँ चुनाव होगा, वह हिस्सेदारी माँगेंगे और दूसरी पार्टी के समर्थकों को उनके ट्रोल सपा या काँग्रेस का दरी बिछाने वाले कहेंगे। जबकि हकीकत यह है कि तेलंगाना में आज कांग्रेस की सरकार बन जाए तो ओवैसी का खानदान कल से कांग्रेस की वहाँ दरी बिछाने लगेगा।
जैसे आज खुद ओवैसी और उनका पूरा खानदान तेलंगाना में केसीआर की दरी बिछाता है और उनकी औकात नहीं कि केसीआर के खिलाफ तेलंगाना में नौवां उम्मीदवार उतार दें। और उत्तर प्रदेश में जहाँ जुमा जुमा 4 ठो उनके सोशलमीडिया ट्रोल हैं वहाँ 100 सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान कर रहे हैं।
काहे? काहे कि इसलिए कि हर चुनाव में एकजुट होकर एकतरफा पडऩे वाला मुसलमान वोट बिखरकर अपनी ताकत खो दे और इनकी फाइनेन्सर भाजपा जीत जाए।
दरअसल पिछले 4 साल से देखिए तो भाजपा संकुचन के दौर से गुजर रही है और उसकी यदि कहीं जीत मिली भी है तो बहुत मार्जिनल जीत है। जैसे असम में काँग्रेस को भाजपा से अधिक वोट मिले पर 100-500-1000 वोटों से भाजपा के विधायक जीते। यही बिहार में हुआ, वहाँ भाजपा गठबंधन का राजद गठबंधन से वोट का प्रतिशत 0.75 प्रतिशत अर्थात मात्र 54000 वोट अधिक था। ऐसे ही मध्यप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा में भी हुआ, ओवैसी उत्तरप्रदेश की ऐसी ही संभावना में वोट प्रतिशत का अंतर भाजपा के पक्ष में कराने के लिए 100 उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर रहे हैं। उनको अपने राज्य में तो खुद की सुरक्षा करती सरकार चाहिए पर और राज्यों में उनको भाजपा की सरकार अपनी कयादत और भागीदारी की कीमत पर चुन ली जाए तो भी चलेगी।
यह खेल है, योगीजी का बयान उसी खेल को चर्चा में लाने के लिए है वर्ना जो योगीजी मायावती पर दो शब्द खर्च नहीं करते वह ओवैसी पर क्यों कर रहे हैं ? अपने गृह प्रदेश की मात्र 8 सीटों पर चुनाव लडऩे वाले को बड़ा नेता बता रहे हैं। दरअसल ओवैसी जमीन पर काम ना करके एक राजनैतिक ब्लैकमेलर की तरह सेकुलर पार्टी को ब्लैकमेल कर रहे हैं कि मुझसे गठबंधन करो नहीं तो मैं मुस्लिम वोट बिखेर दूंगा।
सेकुलर पार्टी उनके साथ गठबंधन करके भाजपा के इस आरोप को लगाने का मौका नहीं देना चाहती कि वह इस्लामिक स्टेट की सोच वालों के साथ खड़े हैं। मुसलमान सब समझ रहा है, उसको कयादत भागीदारी के चोचले में फंसाकर भाजपा को मदद करते ओवैसी की असलियत पता है। और वह इससे भी वाकिफ है कि शेष सेकुलर पार्टियाँ भी मुसलमानों को भागीदारी देती ही रही हैं। जिसे ओवैसी भागीदारी नहीं मानते, काहे? काहे कि इसलिए कि जो ओवैसी का समर्थक नहीं वह इनकी नजर में मुसलमान नहीं मुनाफिक है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने मुसलमानों के बारे में जो हिम्मत दिखाई, यदि नरेंद्र मोदी चाहते तो वैसी हिम्मत वे चीन के बारे में भी दिखा सकते थे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल पूरे होने पर चीन के राष्ट्रपति शी जिन फिंग को अनेक राष्ट्राध्यक्षों ने बधाइयां दी, लेकिन हमारे मोदीजी चुप्पी खींच गए, हालांकि दोनों की काफी दोस्ती रही है। मोदी की मजबूरी थी, क्योंकि वे बधाई देते तो कांग्रेसी उनके पीछे पड़ जाते। वे कहते कि गलवान घाटी पर हमला बोलने वाले चीन से सरकार गलबहियां कर रही है। उधर 4 जुलाई को अमेरिका का 245 वां जन्म-दिवस था। मोदी ने बाइडन को बड़ी गर्मजोशी से बधाई दी। यह बिल्कुल ठीक किया लेकिन अब पता नहीं कि चीन के स्थापना दिवस (1 अक्तूबर) पर वे उसको बधाई भेजेंगे या नहीं? इसी प्रकार 1 अगस्त को चीन की पीपल्स आर्मी के जन्म दिन पर क्या हमारा मौन रहेगा?
15 अगस्त के मौके पर शी जिन फिंग की भी परीक्षा हो जाएगी लेकिन इनसे भी बड़ा सवाल यह है कि ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन इस साल दिल्ली में होना है। क्या उसमें चीनी राष्ट्रपति को हम बुलाएंगे और क्या वे आएंगे ? वैसे तो पिछले दिनों हुई शांघाई-बैठक में भारत और चीन के विदेश मंत्रियों ने सद्भावनापूर्ण भाषण दिए और एक-दूसरे पर कोई छींटाकशी नहीं की। गलवान-कांड पर दोनों देशों के फौजियों की वार्ता भी ठीक-ठाक चल ही रही है तो मैं सोचता हूं कि नरेंद्र मोदी को चीन को बधाई संदेश जरुर भेजना चाहिए था और उसमें यह साफ-साफ कहा जाना चाहिए था कि चीन के राष्ट्रपतिजी आप चीन को एक भयंकर शक्ति बनाने की बजाय प्रियंकर शक्ति बनाएं। चीन और भारत मिलकर दुनिया के सबसे उत्तम और प्राचीन आदर्शों के मुताबिक एक नई दुनिया पैदा करें और 21 वीं सदी को एशिया की सदी बनाएं।
मुझे खुशी है कि मोहन भागवत ने वही बात कहने का साहस कर दिखाया, जो बात आज तक किसी सरसंघचालक ने पहले कभी नहीं कही। यही बात अटलबिहारी वाजपेयी कभी सूत्र रुप में कहा करते थे और जिसका प्रतिपादन मेरी पुस्तक 'भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमानÓ में मैंने काफी विस्तार से किया है। मोहनजी के ये वाक्य कितने गजब के हैं कि यदि कोई हिंदू यह कहे कि भारत में कोई मुसलमान नहीं रहना चाहिए, वह हिंदू नहीं हो सकता। सच्चे हिंदू के लिए सभी पंथ, सभी मजहब, सभी संप्रदाय, सभी धर्म बराबर हैं। कोई हिंदू हो या मुसलमान, हम सब एक हैं। भारतीय हैं।
हिंदुत्व के नाम पर गोरक्षा के बहाने जो लोग मानव-हत्या करते हैं, वे हिंदुत्व के विरोधी हैं। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई सख्ती से होनी चाहिए। हमारा संविधान सभी को समान सुरक्षा प्रदान करता है। इसीलिए 'इस्लाम खतरे में हैंÓ, यह नारा भी खोखला है। क्या मोहनजी के अमृत-वाक्यों को भारत के हिंदुत्ववादी, संघ के स्वयंसेवक, भाजपा के करोड़ों सदस्य और मुसलमान भाई भी अमल में लाएंगे?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राघवेंद्र राव
चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत और वायु सेनाध्यक्ष आरकेएस भदौरिया
भारत में सेना के तीनों अंगों को मिलाकर 'इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड' बनाने का मसला फिर सुर्ख़ियों में है, और साथ ही यह चर्चा भी छिड़ गई है कि इसको लेकर सामने आ रहे शीर्ष अधिकारियों के सार्वजनिक बयानों के पीछे क्या चल रहा है.
ऐसी चर्चा रही है कि भारतीय वायु सेना इंटीग्रेटेड या एकीकृत थिएटर कमांड स्थापित करने के विचार को लेकर उत्साहित नहीं है. ऐसी स्थिति में चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत के हाल ही में दिए एक बयान ने मामले को और पेचीदा बना दिया है.
जनरल रावत ने वायु सेना को सशस्त्र बलों की 'सहायक शाखा' कहा है, उन्होंने उसकी तुलना तोपखाने और इंजीनियरों से की है, जनरल रावत ने कहा है कि वायु सेना के हवाई रक्षा चार्टर के अनुसार संचालन के समय वह थल सेना के सहायक की भूमिका निभाती है.
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चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत
वायु सेना की 'सहायक भूमिका' की बात जनरल रावत ने एक सम्मेलन में एक सवाल के जवाब में कही थी.
दरअसल, सम्मेलन में जनरल रावत से पूछा गया था कि ऐसी धारणा है कि भारतीय वायु सेना 'इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड' की स्थापना को लेकर उत्साहित नहीं है.
जब वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल आरके एस भदौरिया से जनरल रावत की टिप्पणियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वायु सेना की भूमिका केवल सहायक की नहीं है, और किसी भी एकीकृत युद्ध भूमिका में वायु शक्ति की "बहुत बड़ी भूमिका" होती है.
एयर चीफ़ मार्शल भदौरिया ने साथ ही यह भी कहा कि भारतीय वायु सेना इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड के स्थापना के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है, लेकिन साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि इस प्रक्रिया को "ठीक ढंग से पूरा किया जाना चाहिए".
शुरुआत
1999 में कारगिल युद्ध के बाद बनी समीक्षा समिति से लेकर कई अन्य समितियों ने सेना के इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड और चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ के पद की स्थापना के सुझाव दिए थे.
15 अगस्त 2019 को लाल किले से दिए स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में सैन्य व्यवस्था, सैन्य शक्ति और सैन्य संसाधनों के विषय में सुधार पर चल रही चर्चा का ज़िक्र किया था.
मोदी ने कहा था कि भारत की तीनों सेनाओं--थल सेना, नौसेना और वायु सेना--में समन्वय तो है और वे अपने-अपने तरीके से आधुनिकीकरण के लिए भी प्रयास करते हैं लेकिन जिस तरह युद्ध के दायरे और रूप-रंग बदल रहे हैं और जिस तरह की टेक्नोलॉजी की भूमिका बढ़ रही है उसके कारण भारत को भी टुकड़ों में सोचने से काम नहीं चलेगा, देश की पूरी सैन्यशक्ति को एकजुट होकर एक साथ आगे बढ़ना होगा.
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15 अगस्त 2019 को लाल किले से दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीफ ऑफ़ डिफ़ेंस (सीडीएस) का पद बनाने की घोषणा की थी
प्रधानमंत्री ने कहा था, "ऐसी स्थिति से काम नहीं चलेगा जिसमे तीनों सेनाओं में से एक आगे रहे, दूसरा दो कदम पीछे रहे और तीसरा तीन कदम पीछे रहे. उन्होंने कहा था कि तीनों सेनाओं को एक साथ एक ही ऊंचाई पर आगे बढ़ना चाहिए और दुनिया में बदलते हुए युद्ध और सुरक्षा के माहौल के अनुरूप उनमें अच्छा समन्वय होना चाहिए".
इसी के साथ मोदी ने चीफ ऑफ़ डिफ़ेंस (सीडीएस) का पद बनाने की घोषणा करते हुए कहा था कि इससे तीनों सेनाओं को शीर्ष स्तर पर प्रभावी नेतृत्व मिलेगा.
क्या है इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड?
इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड एक एकीकृत कमांड है जिसके तहत खतरे की गंभीरता के आधार पर सेना, नौसेना और वायु सेना के सभी संसाधनों को बेहतर तालमेल के साथ इस्तेमाल किया जा सके, इसके तहत सेना के सभी अंग एक-दूसरे के संसाधनों का ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल कर सकते हैं.
इस विचार के पीछे का मुख्य भाव यह है कि जहां एक ओर भारतीय सशस्त्र बल अपने कर्तव्यों का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं और संकट की स्थितियों के दौरान अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं, वहीं वे शायद और भी बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं अगर उनके बीच अधिक सामंजस्य और समन्वय हो.
पिछले कई सालों से भारत में एकीकृत कमान बनाने की बात चल रही थी पर इसे गति तब मिली जब जनवरी 2020 में जनरल बिपिन रावत को सीडीएस नियुक्त किया गया.
सीडीएस बनने पर रावत की मुख्य ज़िम्मेदारियों में तीनों सेवाओं के संचालन, रसद, परिवहन, प्रशिक्षण, सहायता सेवाओं, संचार, मरम्मत और रखरखाव में तालमेल लाना और बुनियादी ढांचे का सही उपयोग सुनिश्चित कर सेवाओं के बीच संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल को बढ़ावा देना था.
इस प्रस्ताव के अंतर्गत चार से पांच थिएटर कमांड बनाने पर विचार किया जा रहा है और हर कमांड का नेतृत्व एक तीन-सितारा अधिकारी को सौंपने की बात की जा रही है. योजना के तहत हर थिएटर कमांड के पास तीनों बलों के संसाधन होंगे और इन्हें इस्तेमाल करने का अधिकार थिएटर के कमांडर के पास होगा.
ऐसा माना जा रहा है कि सभी थिएटर कमांडों का नियंत्रण अंततः सीडीएस के अधीन आ जाएगा और सेना प्रमुखों की मुख्य ज़िम्मेदारी अपने बलों को बढ़ाने, प्रशिक्षण देने और बनाए रखने की होगी.
सेना का हेलिकॉप्टर
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पहले चरण में एयर डिफेंस कमांड और मैरीटाइम थिएटर कमांड की स्थापना का प्रस्ताव है. एयर डिफेंस या वायु रक्षा कमान तीनों सेवाओं के वायु रक्षा संसाधनों को नियंत्रित करेगा और साथ ही सैन्य संपत्तियों को हवाई दुश्मनों से बचाने की ज़िम्मेदारी भी इसी की होगी. इसी तरह मैरीटाइम थिएटर कमांड का काम भारत को समुद्री खतरों से बचाना होगा और इस कमांड में थल और वायु सेना भी शामिल होंगे.
आने वाले समय में पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी मोर्चों को सुरक्षा देने के लिए तीन और एकीकृत डिफेंस कमांड बनाए जाने की योजना है.
एकीकृत थिएटर कमांड का बड़ा फायदा यह माना जा रहा है कि इनमें संसाधनों का अधिक कुशल उपयोग और तीनों सेवाओं के बीच समन्वय बढ़ेगा. उदाहरण के तौर पर जानकार कहते हैं कि भले ही वायु रक्षा की ज़िम्मेदारी वायु सेना की है लेकिन सेना के तीनों अंगो के पास मिसाइल जैसे वायु रक्षा उपकरण मौजूद हैं. अब अगर एक एकीकृत वायु रक्षा कमांड स्थापित कर दी जाए तो वायु रक्षा से जुड़ी सभी सम्पत्तियाँ एक ही कमांड के नियंत्रण में आ जाएँगी जिससे संकट की स्थिति में बिना समय गंवाए त्वरित कार्रवाई करने में आसानी होगी.
चुनौतियाँ और दिक्कतें
ऐसी चर्चा है कि वायु सेना इस प्रस्ताव की रूपरेखा से संतुष्ट नहीं है, एयर मार्शल भदौरिया के इस प्रक्रिया को "ठीक ढंग से" पूरा करने की बात कहने से इस धारणा को और बल मिला है.
जानकारों के अनुसार वायु सेना इस बात से चिंतित है कि इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड बन जाने के बाद वो अपनी वायु संपत्तियों का नियंत्रण खो देगी. साथ ही वायु सेना की एक चिंता यह भी है कि थिएटर कमांड बन जाने से उसकी सारी संपत्ति कई जगह थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बंट जाएगी.
इन्हीं मतभेदों को सुलझाने के लिए जून में तीनों सेनाओं के उप-प्रमुखों की एक समिति का गठन किया गया.
एक अन्य मसला यह है कि इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड के ढाँचे में कौन किसे रिपोर्ट करेगा, कर्मियों और मशीनरी की ऑपरेशनल कमांड सेना प्रमुख के हाथ में होगी या थिएटर कमांडर के?
पिछले साल अक्टूबर में सेना प्रमुख जनरल नरवणे ने कहा था कि रक्षा सुधारों की प्रक्रिया में अगला तार्किक कदम युद्ध और शांति के दौरान तीनों सेनाओं की क्षमताओं के तालमेल के लिए एकीकृत थिएटर कमांड का गठन था. साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि यह एक सोची-समझी और विचारशील प्रक्रिया होगी जिसके फलने-फूलने में कई साल लगेंगे.
जनरल नरवणे ने साथ ही यह भी कहा था कि इस प्रक्रिया में "मिड-कोर्स करेक्शन" यानी चलती हुई प्रक्रिया के दौरान सुधारों की ज़रूरत पड़ सकती है.
वर्तमान स्थिति क्या है?
फिलहाल भारत में 17 सैन्य कमांड हैं. इनमें से थल और वायु सेना की सात कमांड हैं और नौसेना की तीन कमांड हैं. साथ ही दो त्रिसेवा कमांड भी हैं- अंडमान और निकोबार कमांड (एएनसी) जिसका नेतृत्व तीनों सेनाओं के अधिकारी करते हैं और स्ट्रैटेजिक फोर्स कमांड जो भारत की परमाणु संपत्ति के लिए जिम्मेदार है.
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चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत
क्या कहते हैं सीडीएस बिपिन रावत?
सीडीएस जनरल बिपिन रावत ने हाल ही में इंडिया टुडे टीवी को एक साक्षात्कार में कहा कि नए सुधारों में कुछ बाधाएं हैं लेकिन तीनों सेवाएं इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर सहमत हैं. उन्होंने कहा कि ये बाधाएं भी जरूरी हैं क्योंकि इनसे हमें एहसास होता है कि और अधिक चर्चाओं की आवश्यकता है.
जनरल रावत ने कहा कि वे और अधिक चर्चाओं के साथ इस योजना को आगे बढ़ा रहे हैं और तीनों सेनाओं के बीच एकता लाने के लिए निर्धारित समय सीमा के अनुरूप थिएटर कमांड बनाने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है.
विशेषज्ञों की राय
भारतीय वायु सेना के सेवानिवृत्त एयर कमोडोर और रणनीतिक मामलों के समीक्षक प्रशांत दीक्षित कहते हैं कि इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड के प्रस्ताव को गहन आत्मनिरीक्षण के साथ देखने की जरूरत है, इसका एक बहुत ही लागत बनाम लाभ के नज़रिए से गंभीर विश्लेषण किया जाना चाहिए.
वे पूछते हैं, "जब हमारे संसाधन इतने कम हैं तो हमें थिएटर कमांड की आवश्यकता क्यों है जबकि इन संसाधनों को विभिन्न स्थानों पर वितरित करके समय पड़ने पर उनकी मोर्चाबंदी करना बेहद मुश्किल होगा?"
दीक्षित के अनुसार भारत के पास ऑपरेशन पराक्रम का अनुभव है "जहां सेना को संगठित करने में ही छह महीने लग गए". वे कहते हैं, "थिएटर कमांड में भारतीय वायु सेना के संचालन पर मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि यह व्यर्थ है. भारतीय वायु सेना के पास ऐसे संसाधन नहीं हैं जो पूरे थिएटर कमांड में वितरित किए जा सकें."
उनका कहना है कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वायु शक्ति के पास पहुंच है और यह एक विलक्षण लाभ है. 'गगनशक्ति' अभ्यास का उदाहरण देते हुए दीक्षित कहते हैं कि उस अभ्यास ने ये साबित कर दिया कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान सुदूर-पूर्व से उड़न भरकर भारतीय प्रायद्वीप को पार कर लक्षद्वीप में निर्धारित लक्ष्यों को निशाना बना सकते हैं.
वायु सेना के सेवानिवृत एयर मार्शल पीके बरबोरा कहते हैं कि वायु सेना के मुख्य सिद्धांत हैं इसका लचीलापन, तेज़ प्रतिक्रिया, मारक क्षमता और वायु रक्षा. वे कहते हैं, "वायु सेना राष्ट्रीय वायु रक्षा के लिए जिम्मेदार है. तो इन सिद्धांतों के आधार पर वायु सेना के पास विभिन्न कमानों को देने के लिए संपत्ति नहीं है. अचानक से भारतीय वायुसेना प्रत्येक थिएटर के लक्ष्य के लिए एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित नहीं हो सकती है. पश्चिमी देशों के कई सेना प्रमुख स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि हवाई संपत्ति को विभाजित नहीं किया जा सकता है."
भारतीय सेना
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एयर मार्शल (रिटायर्ड) बरबोरा कहते हैं, "यदि आप इस तरह से हवाई संपत्ति को तोड़ते हैं तो आप रक्षा की राष्ट्रीय क्षमता को कमजोर कर रहे हैं. भारतीय वायु सेना सहायक भुजा नहीं है. यह राष्ट्रीय रक्षा की एक संपत्ति है जिसका उपयोग राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए अन्य दो सेवाओं के संयोजन में किया जाना चाहिए.
एयर मार्शल (रिटा.) बरबोरा 1948, 1965 और 1971 के युद्धों का उदहारण देते हुए कहते हैं कि भारतीय वायु सेना ने हर बार सेना के अन्य अंगों के साथ उत्कृष्ट संयुक्त कौशल का प्रदर्शन किया. वे कहते हैं, "1971 में अगर भारतीय वायु सेना मज़बूत नहीं होती तो पाकिस्तानी सेना और वायु सेना ने वास्तव में आत्मसमर्पण नहीं किया होता और वो लड़ाई और लंबी चलती."
उनका मानना है कि इस पूरे मामले में जल्दबाज़ी करने की कोशिश हो रही है.
इस पूरी योजना पर एयर कमोडोर (रिटा.) दीक्षित कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि यह बदलाव जरूरी है. वे कहते हैं, "सिर्फ इसलिए कि अमेरिका ने ऐसा किया, हमें ऐसा करने की जरूरत नहीं है."
उनके अनुसार यह वायु शक्ति को समझने की बात है. वे कहते हैं कि अगर हम शक्ति के प्रयोग या युद्ध के सिद्धांतों के बारे में सोचें तो लचीलेपन और पहुंच का अधिक महत्त्व है. "यह एक हवाई मंच है और यह कई भूमिकाएं निभा सकता है. ऐसी नहीं है की वायु सेना को लग रहा है कि उसके रुतबे में कोई कमी आ जाएगी. बात सिर्फ वायु शक्ति के प्रयोग की हो रही है."
एयर कमोडोर (रिटा.) दीक्षित का मानना है कि भारतीय वायु सेना जितनी बड़ी सेना को यह कहना कि वो कुछ जहाज़ एक जगह खड़े कर दे और कुछ जहाज़ कहीं और, ये सबकी मिलकियत अलग-अलग होगी ये एक पिछड़ी हुई विचारधारा है.
वे कहते हैं, "लोकतंत्रों में इस तरह के विवाद उठ चुके हैं. यह नई चीज़ नहीं है. यह टर्फ वार लगेगा क्योंकि एक ऐसी बात उठाई गई है जिसमें एक फ्रंटलाइन कॉम्बैट सर्विस का अस्तित्व नीचा दिखाने का प्रयत्न किया जा रहा है. मुझे आश्चर्य इस बात का है कि तीनों सेनाओं में काफी बुद्धिजीवी लोग हैं और उनके होने के बावजूद इस तरह की बात सीडीएस के स्तर पर उठाई जा रही है. ये हास्यासपद है."
एयर कमोडोर (रिटा.) दीक्षित का कहना है कि भारतीय वायु सेना संसाधनों के मौजूदा प्रबंधन के साथ कहीं भी पहुंच सकती है. "लेकिन एवेक्स, हवा में ईंधन भरने वाले विमान और लड़ाकू विमानों की कम संख्या के कारण हमें अपने संसाधनों को और कम नहीं करना चाहिए और वायु सेना को उसी तरह से संचालित करना चाहिए जैसे वह वर्षों से कर रही है."
लेकिन दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों की तादाद भी कम नहीं है जो इंटीग्रेटेड थिएटर कमांड को आधुनिकीकरण और विकास से जोड़कर देखते हैं और उनका कहना है कि इस योजना को जल्द से जल्द लागू किया जाना चाहिए. (bbc.com)
-मोहित कंधारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही में जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ हुई सर्वदलीय बैठक के बाद से ही परिसीमन आयोग लगातार चर्चा में बना हुआ है.
जम्मू-कश्मीर के सियासी दलों के साथ-साथ आम जनता का ध्यान भी परिसीमन आयोग के छह जुलाई से शुरू होने वाले चार दिवसीय दौरे पर टिका हुआ है.
न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) रंजना प्रकाश देसाई की अगुवाई में आयोग पहले दो दिन कश्मीर संभाग और अगले दो दिन जम्मू संभाग में रहेगा.
केंद्र सरकार ने मार्च 2020 में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में परिसीमन आयोग का गठन किया था. पूर्व जज रंजना प्रकाश देसाई के अलावा चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव आयुक्त केके शर्मा इस परिसीमन आयोग के सदस्य हैं.
राज्य में 1991 में जनगणना नहीं हुई थी. इस वजह से 1996 के चुनावों के लिए 1981 की जनगणना को आधार बनाकर सीटों का निर्धारण हुआ था.
जम्मू-कश्मीर में परिसीमन जम्मू-कश्मीर रीऑर्गेनाइजेशन एक्ट के प्रावधानों के तहत होगा. इसे अगस्त 2019 में संसद ने पारित किया था. इसमें अनुसूचित जनजाति के लिए सीटें बढ़ाने की बात भी कही गई है.
परिसीमन की तैयारियां
परिसीमन आयोग ने जून महीने में जम्मू-कश्मीर के 20 ज़िला अधिकारियों को पत्र लिख कर उनसे 18 बिंदुओं पर जानकारी माँगी थी.
इसमें टोपोग्राफ़िक सूचना, डेमोग्राफ़िक पैटर्न और प्रशासनिक चुनौतियां शामिल हैं. यह जानकारी महत्वपूर्ण है क्योंकि कमीशन ख़ानाबदोश समुदायों की जनसंख्या देखना चाहता है, जिसके आधार पर रिज़र्व सीटें तय होंगी.
फ़रवरी 2021 में परिसीमन आयोग ने प्रक्रिया पर पहली बैठक बुलाई थी. पर पाँच में से दो सदस्य ही शामिल हुए थे. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह और भाजपा सांसद जुगल किशोर शर्मा तो बैठक में आए थे, पर अन्य सदस्यों ने दूरी बना ली थी.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद और पार्टी चीफ़ फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने उस समय कहा था कि उन्होंने JKRA को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और जब तक सुनवाई पूरी नहीं हो जाती, तब तक वे परिसीमन की प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे.
अब्दुल्ला के साथ-साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद मोहम्मद अकबर लोन और हसनैन मसूदी भी इस पैनल के सदस्य हैं. लेकिन दिल्ली में 24 जून की बैठक के बाद नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने कहा है कि वो परिसीमन की प्रक्रिया में हिस्सा लेंगे.
कोविड महामारी की वजह से पिछले साल परिसीमन आयोग अपना काम शुरू नहीं कर पाया था इसलिए सरकार ने उन्हें इसी साल मार्च में एक साल का एक्सटेंशन दिया है और परिसीमन की प्रक्रिया को पूरा करने के आदेश जारी किये हैं.
इस दौरान आयोग के सदस्य विभिन्न राजनीतिक दलों के नुमाइंदों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ बैठक करेंगे और उनसे उनके सुझावों पर चर्चा करेंगे.
कश्मीर घाटी की तुलना में जम्मू संभाग में इस दौरे को लेकर बड़ी उम्मीदें जगी हैं.
परिसीमन के बाद सीटों की संख्या बदलेगी
परिसीमन होने के बाद विधानसभा सीटों की संख्या और क्षेत्र में परिवर्तन होना तो तय है लेकिन लोगों को इस बात की चिंता है कि आख़िर क्या बदलाव होंगे.
जम्मू-कश्मीर में आख़िरी परिसीमन साल 1995 में हुआ था.
फ़िलहाल जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 83 सीटें हैं जिनमें 37 सीटें जम्मू क्षेत्र में और 46 सीटें कश्मीर क्षेत्र में आती हैं. इसके साथ ही 24 सीटें पाक प्रशासित कश्मीर के लिए भी आरक्षित हैं.
ऐसे में राजनीतिक दल ही नहीं केंद्र शासित प्रदेश की जनता भी इस मामले को बड़ी उत्सुकता से देख रही है और अंतिम रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही है.
परिसीमन की पूरी प्रक्रिया समाप्त होने के बाद उम्मीद है कि जम्मू कश्मीर में विधान सभा के चुनाव करवाने के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा.
प्रक्रिया की गंभीरता
इसी वजह से हर सियासी दल इस आयोग की कार्यवाही को बड़ी गंभीरता से ले रहा है. हालाँकि अभी यह साफ़ नहीं है कि परिसीमन आयोग से मिलने कश्मीर घाटी में कौन-कौन से सियासी दल अपना प्रतिनिधि मंडल भेजेंगे.
उम्मीद है कि नेशनल कांफ्रेंस, जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी, पीपल्स कांफ्रेंस के सदस्य अपना पक्ष रखने के लिए आयोग के सदस्यों से मुलाक़ात ज़रूर करेंगे लेकिन महबूबा मुफ़्ती ने अभी अपनी पार्टी का रुख़ साफ़ नहीं किया है.
आयोग से मिलने का अंतिम फ़ैसला उन्हें ख़ुद करना है.
इस बीच जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय दलों के नेता भी आयोग के सामने पेश होंगे और अपने सुझाव प्रस्तुत करेंगे.
उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने कहा है कि जिसका लोकतंत्र में विश्वास है और जो विधानसभा चुनाव चाहते हैं वो निश्चित रूप से इस प्रक्रिया में शामिल होंगे.
आम लोगों की क्या है राय?
लेकिन अगर बात जम्मू और कश्मीर के आम नागरिकों की करें तो कश्मीर घाटी में बड़ी संख्या में लोगों का मानना है कि जब धारा 370 के निरस्त होने के बाद से राज्य का विशेष दर्जा ही समाप्त हो गया फिर ये परिसीमन आयोग विधान सभा की सीटों का बंटवारा कर के क्या हासिल करना चाहता है.
उनके मन में इस बात को लेकर भी शक पैदा हो रहा है कि जब पूरे देश में परिसीमन की प्रक्रिया 2026 में होने वाली है फिर जम्मू-कश्मीर को उससे अलग क्यों किया गया है.
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह भी कई बार यह सवाल उठा चुके हैं.
इसी सवाल के जवाब में जम्मू में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता रविंदर शर्मा ने बीबीसी हिंदी से कहा, "जब पूरे देश में परिसीमन पर 2026 तक रोक लगी है फिर क्या वजह है कि सरकार जम्मू कश्मीर में अलग से परिसीमन करवाने पर ज़ोर दे रही है."
उन्होंने 24 जून को दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक का हवाला देते हुए बताया कि जम्मू कश्मीर के नेताओं ने सर्वदलीय बैठक में भी यही सवाल उठाया था.
शर्मा के अनुसार इस सवाल के जवाब में सरकार ने कहा था, "केंद्र शासित प्रदेश बन जाने के बाद जम्मू और कश्मीर में परिसीमन करवाना लाज़मी था. इसलिए यह निर्णय लिया गया है ताकि जम्मू कश्मीर विधान सभा से जो लद्दाख क्षेत्र की चार सीटें कम हो गईं थीं और जो महिला सदस्यों के लिए सीटें आरक्षित थीं उनका भी हिसाब पूरा करना था."
कश्मीर में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हारून रशीद ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में बताया, "5 अगस्त 2019 को जिस प्रकार से जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किया गया उससे न सिर्फ़ कश्मीर घाटी में बल्कि बड़ी संख्या में जम्मू संभाग में भी लोग ख़ुश नहीं थे और अब ऐसे माहौल में परिसीमन की कार्यवाही उनके मन में शक पैदा करती है कि आख़िर अब क्या नया होने वाला है".
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परिसीमन पर सवाल
यह पूरी प्रक्रिया उसी पुनर्गठन अधिनियम के तहत है जिसके तहत अनुच्छेद 370 और 35-A रद्द कर दिया गया था और राज्य का दर्जा भी छीन लिया गया था.
हारून रशीद ने बीबीसी हिंदी को बताया कि अभी तो इस बात पर आम राय नहीं बन पाई है कि परिसीमन आयोग जनसंख्या व क्षेत्रफल के आधार पर अपनी कार्यवाही करेगा या फिर कोई और फ़ॉर्मूला लागू होगा. उनका मानना है कि परिसीमन आयोग को अपना काम संविधान के मुताबिक़ करना चाहिए न कि किसी विशेष समुदाय या इलाक़े को नज़र में रखकर इस कार्यवाही को अंजाम दिया जाना चाहिए.
परिसीमन की इस प्रक्रिया पर सिर्फ़ कश्मीर घाटी के ही लोग सवाल नहीं उठा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर की वरिष्ठ पत्रकार और स्थानीय अख़बार की कार्यकारी सम्पादक अनुराधा भसीन भी इस पूरी प्रक्रिया पर कई सवाल उठाती हैं.
अनुराधा भसीन ने बीबीसी से कहा, "सबसे पहले बुनियादी मुद्दा ये है कि क्या इस समय परिसीमन करवाया जाना चाहिए या नहीं? पाँच अगस्त, 2019 के फ़ैसलों के आधार पर इस आयोग का गठन किया गया है, तो जब वही फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है तो सरकार को यह फ़ैसला भी नहीं लेना चाहिए था?"
अनुराधा भसीन ने बीबीसी हिंदी से कहा, "भाजपा सरकार ने 2019 के बाद जो भी नीतियां अपनाई हैं उससे साफ़ लगता है कि उनका एजेंडा बस इतना है कि किस तरह से मुस्लिम आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में हिन्दू मेजोरिटी लागू कर दी जाए."
"उनकी महत्वाकांक्षा है कि यहाँ एक हिन्दू मुख्यमंत्री होना चाहिए. इन फ़ैसलों की वजह से कश्मीर घाटी में एक अजीब क़िस्म की घबराहट महसूस की जा रही है. घाटी के लोगों को इस बात का डर सता रहा है कि जम्मू संभाग को ज़्यादा सीटें मिलेंगी और कश्मीर को कम."
अनुराधा भसीन ने बीबीसी हिंदी से कहा भाजपा की सरकार ने अलग-अलग राज्यों के लिए अलग मापदंड अपना रखें हैं. जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार मौजूद नहीं है. यहाँ एक डर का माहौल है, लोग खुल के बोल नहीं रहे हैं ऊपर से 2021 की जनगणना का इंतज़ार किए बिना 2011 की जनगणना के अनुसार परिसीमन की प्रक्रिया करवाना कहाँ तक जायज़ माना जाएगा.
अनुराधा भसीन कहती हैं, "अगर असम के चुनाव बिना परिसीमन के कराए जा सकते हैं तो जम्मू कश्मीर में क्यों नहीं, यहाँ किस बात की इमरजेंसी है."
क्या कहते हैं जम्मू के लोग?
जम्मू संभाग में हमेशा से यह माँग उठती रही है कि जनसंख्या और क्षेत्रफल के आधार पर जितनी सीटें जम्मू के हिस्से में आनी चाहिए थीं वो उन्हें कभी नहीं मिलीं. अब 26 सालों के बाद जब परिसीमन आयोग गठित किया गया है तो उसे 2011 कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन की प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए कहा गया है. 2011 की जनगणना के अनुसार कश्मीर घाटी की जनसंख्या 68,88,475 है जबकि जम्मू की जनसंख्या 53,78,538 है.
कांग्रेस के प्रवक्ता रविंदर शर्मा भाजपा से सवाल करते हैं, "जब आप विपक्ष में थे 2011 के सेन्सस के आंकड़ों पर सवाल खड़े करते थे और अब जब केंद्र में भाजपा की सरकार क़ाबिज़ है, उन्होंने 2011 के सेन्सस के आधार पर परिसीमन करवाने के आदेश दिए हैं. ऐसे में जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों को कैसे इंसाफ़ मिलेगा?"
शर्मा अपना तर्क रखते हुए कहते हैं, "सीटों का बंटवारा करने के लिए सिर्फ़ आबादी ही पैरामीटर नहीं है. इसके लिए भूभाग, आबादी, क्षेत्र की प्रकृति और पहुँच को आधार बनाया जाना चाहिए ताकि पिछड़े इलाक़ों को भी उनका हक़ मिल सके."
उन्होंने कहा कि बड़ी संख्या में जम्मू संभाग में लोग यह आरोप लगाते हैं कि कश्मीर घाटी में सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए जम्मू संभाग की अनदेखी की गई है जिसके चलते दूरदराज़ के इलाक़े में रह रही आबादी को लम्बे समय तक उनके अधिकारों से वंचित रखा गया.
परिसीमन किस आधार पर?
कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि सबको उनका बराबरी का हक़ मिलना चाहिए.
जम्मू में विशेषज्ञों का मानना है कि यदि निष्पक्ष परिसीमन हुआ तो सात सीटों में से अधिकतर जम्मू के खाते में जाने की संभावना नज़र आ रही है.
इसके पीछे उनका तर्क है कि सीट बढ़ाने के लिए सिर्फ़ आबादी ही पैरामीटर नहीं है. इसके लिए भूभाग, आबादी, क्षेत्र की प्रकृति और पहुँच को आधार बनाया जाएगा.
जम्मू में जानकार बताते हैं कि पूर्व की कश्मीर केंद्रित सरकारों ने कश्मीर में सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए जम्मू संभाग की अनदेखी की है और यहां दूरदराज़ के इलाक़े में रह रही आबादी को लम्बे समय तक उनके अधिकारों से वंचित रखा है.
पूरे राज्य में जम्मू का क्षेत्रफल 25.93% है और आबादी में हिस्सेदारी 42.89% है. दूसरी तरफ़ क्षेत्र में कश्मीर की हिस्सेदारी 15.73% और आबादी में हिस्सेदारी 54.93% है.
जम्मू भाग में छह ज़िले मुस्लिम बहुल हैं, इनमें 16 सीटें हैं.
ये ज़िले पुंछ, राजौरी, डोडा, किश्तवाड़, रियासी, रामबन हैं. इन छह ज़िलों में मुस्लिम आबादी 50 से 91% तक है.
परिसीमन से इन क्षेत्रों में बदलाव होने की संभावना है. इन इलाक़ों में सीटों की सीमाओं को नए सिरे से गढ़ा जाएगा. ऐसे में कश्मीरी नेताओं को संदेह है कि कुछ सीटों की डेमोग्राफ़ी में बदलाव हो सकता है. इससे कुछ सीटें हिंदू बहुसंख्यक वाली निकल सकती हैं, जिससे उन्हें नुक़सान हो सकता है. लेकिन यह परिसीमन की क़वायद पूरी होने के बाद ही पता चलेगा.
जम्मू यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हरिओम कहते हैं, "जम्मू संभाग को आज तक विधानसभा में उसके हिस्से की सीटें नहीं मिलीं. आज तक किसी भी परिसीमन आयोग ने तय मानकों के आधार पर सीटों का बंटवारा ना कर, मनमाने ढंग से जनगणना के आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर कश्मीर के हक़ में फ़ैसला सुनाया है."
प्रोफ़ेसर हरिओम का दावा है कि 2002 तक जम्मू संभाग में कुल मतदाता कश्मीर की तुलना में हमेशा अधिक थे लेकिन फिर भी जम्मू संभाग को उसके हक़ से महरूम रखा गया.
प्रोफ़ेसर हरिओम कहते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनावों के आंकड़ों के मुताबिक़ जम्मू संभाग में 3733078 मतदाता पंजीकृत हैं और कश्मीर में 4009570 जिसमें 1.20 लाख कश्मीरी पंडित मतदाता भी शामिल हैं.
उनके मुताबिक़ जम्मू संभाग की दो लोकसभा सीटों के लिए लगभग 18.66 लाख मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हैं और कश्मीर में तीन लोकसभा सीटों के लिए 12.96 लाख मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हैं. इसी प्रकार से जम्मू कश्मीर की विधान सभा में 37 सीटों के लिए जम्मू संभाग से एक उमीदवार के हक़ में 100894 मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हैं और कश्मीर घाटी में 84338 मतदाता अपना एक उमीदवार चुनते हैं.
सीधे शब्दों में कहें तो कश्मीर संभाग जिसका क्षेत्रफल जम्मू संभाग से कम है और जहाँ जम्मू से सिर्फ़ 1.56 लाख अधिक मतदाता हैं वो जम्मू की तुलना में नौ विधायक अधिक चुनते हैं.
प्रोफ़ेसर हरिओम को इस बात पर भी यकीन नहीं होता कि इस दफ़ा परिसीमन आयोग जम्मू संभाग को उस का हक़ दे पाएगा. उनका कहना है कि जब तक 2011 के जनगणना के आंकड़ों के आधार पर गठित परिसीमन आयोग अपनी कार्यवाही करेगा जम्मू संभाग को उसका हक़ दिलाना मुश्किल होगा.
वो कहते हैं कि जम्मू संभाग को उसका हक़ तभी मिल पाएगा अगर परिसीमन आयोग हाल ही में जुटाए गए जनगणना के आकड़ों के आधार पर अपनी कार्यवाही करेगा.
दूसरी ओर 1947 से वेस्ट पाकिस्तान से विस्थापित होकर जम्मू संभाग में रह रहे वेस्ट पाकिस्तानी शरणार्थी इस बात से तो ख़ुश हैं कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद उन्हें जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल गयी लेकिन आज भी इन लोगों को अपने वोटर आईडी कार्ड बनवाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ रहा है.
रिफ्यूजी नेता लाभाराम गाँधी ने बीबीसी हिंदी को बताया कि वो सरकार से अपील करते हैं कि जम्मू, साम्बा, कठुआ और बाक़ी ज़िलों में रह रहे वेस्ट पाकिस्तानी शरणार्थियों के वोटर आईडी कार्ड बनाने की प्रक्रिया तेज़ की जाए.
गांधी ने बताया कि वो परिसीमन आयोग के सामने भी अपना पक्ष रखेंगे ताकि वो भी आने वाले समय में अपना नुमाइंदा चुन सकें.
वो कहते हैं, "हमारी जनसंख्या के अनुपात में हमारे लिए कम से कम जम्मू-कश्मीर असेंबली में दो सीटें रिज़र्व होनी चाहिए ताकी 70 वर्षों के बाद हम अपनी मनमर्ज़ी से अपने वोट का इस्तेमाल कर सकें."
राज्य में अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व सीट नहीं
ट्राइबल मामलों के जानकार और लेखक जावेद राही ने बीबीसी हिंदी को बताया कि राज्य में अनुसूचित जनजाति के लिए अभी एक भी सीट रिज़र्व नहीं है. उन्होंने बताया कि वो परिसीमन आयोग के सामने अपना पक्ष रखेंगे और जम्मू-कश्मीर में रह रहे अनुसूचित जनजाति के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण की माँग करेंगे.
उनके अनुसार जम्मू-कश्मीर में गुज्जर, बकरवाल, सिप्पी, गद्दी आदि को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है. इसमें गद्दी समुदाय आबादी सबसे कम है और यह ग़ैर-मुस्लिम है जो किश्तवाड़, डोडा, भद्रवाह और बनी के इलाक़े में ही हैं जबकि अन्य पूरे प्रदेश में हैं. राजौरी, पुंछ, रियासी, बनिहाल, कुलगाम, बारामुला, शोपियां, कुपवाड़ा, गांदरबल में जनजातीय समुदाय की एक अच्छी ख़ासी तादाद है.
ये लंबे समय से अपने लिए रिज़र्व सीटें माँग रहे हैं. लेकिन उनके अनुसार 1991 से लेकर अब तक किसी ने भी इन्हें इनका हक़ नहीं दिया.
जावेद राही कहते हैं, "हम परिसीमन आयोग से उम्मीद करते हैं कि वो सिर्फ़ जनसँख्या के हिसाब से नहीं बल्कि भूभाग के हिसाब से हमारी अनुसूचित जनजाति के लिए विधान सभा में सीटें आरक्षित करेंगे जिससे कश्मीर घाटी में रह रहे बड़ी संख्या में गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोगों को फ़ायदा मिलेगा."
उन्होंने परिसीमन आयोग का जम्मू-कश्मीर में स्वागत करते हुए कहा, "प्रधानमंत्री जी ने सर्वदलीय बैठक में भी परिसीमन की प्रक्रिया समय पर कराने का वादा किया है इससे हमें उम्मीद जगी है कि हमारे समुदाय के साथ हो रही नाइंसाफ़ी समाप्त होगी.''
इस वजह से जम्मू और कश्मीरी क्षेत्रों के अन्य निवार्चन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के लोग प्रतिनिधित्व करने से वंचित हैं. कश्मीरी नेताओं को अंदेशा है कि यदि इन सीटों का रोटेशन विपक्षी सीटों को लक्षित कर किया जाएगा तो इससे उन्हें नुक़सान हो सकता है.
कश्मीर घाटी में लम्बे समय से रह रहे सिख नेता जगमोहन रैना ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा, "हम परिसीमन आयोग का जम्मू-कश्मीर में स्वागत करते हैं और इस बात की उम्मीद करते हैं कि बंद कमरों में बैठ कर तैयार की गई रिपोर्ट को यहां लागू नहीं किया जाएगा."
रैना कहते हैं कि बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग कश्मीर घाटी के विभिन्न हिस्सों में रहते हैं लेकिन आज तक उनके लिए एक भी सीट रिज़र्व नहीं की गई है. वो कहते हैं, "जब जम्मू-कश्मीर रियासत का गठन हुआ था उस समय भी सिख समुदाय के नेता असेंबली में थे लेकिन 1990 के दशक से जब से कश्मीर घाटी के हालात बिगड़े हैं सिख समुदाय को विधान सभा में हिस्सेदारी नहीं मिली है."
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि परिसीमन आयोग को पूरी प्रक्रिया से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए और ज़मीनी स्तर से जुड़े नेताओं को विश्वास में लेकर परिसीमन की कार्यवाही को अंजाम देना चाहिए ताकि किसी धर्म, जाती, और संभाग के नाम पर होने वाली सियासत पे विराम लगाया जा सके और दूर दराज़ के इलाक़ों में रह रही जनता को उनके हक़ मिल सकें, उनके इलाक़े में विकास की जा सके और उनका राजनीतिक सशक्तिकरण किया जा सके.
विस्थापित कश्मीरी पंडितों के नेता वीरेंदर रैना ने कहा है कि परिसीमन आयोग को कश्मीर से आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के लिए पाँच निर्वाचन क्षेत्रों को आरक्षित करना चाहिए.
लेखक डॉ रमेश तामीरी ने बीबीसी से कहा, "जम्मू-कश्मीर में परिसीमन करवाया जाना अपने आप में ऐतिहासिक क़दम है. आयोग को इस कार्य को अंजाम देते समय जनसंख्या, भूभाग, क्षेत्रफल का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि बिना इसके परिसीमन की प्रक्रिया अधूरी रहेगी."
डॉ रमेश तामीरी आगे कहते हैं परिसीमन की प्रक्रिया 2011 की जनगणना के आधार पर नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसपर पहले से सवाल खड़े किये गए हैं. इसलिए परिसीमन आयोग को जनसँख्या के 2021 सेन्सस के आंकड़े जुटाने चाहिए ताकि पारदर्शी तरीक़े से प्रक्रिया संपन्न की जा सके.
डॉ तामीरी ने एक और सुझाव देते हुआ कहा कि जब तक विस्थापित कश्मीरी पंडित समाज के सदस्यों को बसाया नहीं जाता तब तक उनके लिए परिसीमन की प्रक्रिया लंबित रखा जाए.(bbc.com)
-कृष्ण कान्त
एक 'मजबूत सरकार' को 84 साल के एक बुजुर्ग से खतरा था। वह बूढ़ा व्यक्ति पार्किंसन का मरीज था। बाकी शरीर की तरह कान भी कम काम करते थे। जो हाथ अपना निवाला अपने मुंह में नहीं डाल सकते थे, उन कांपते हाथों से मजबूत प्रधानमंत्री की जान को खतरा था। जो कान किसी की बात नहीं सुन सकते थे, उन कानों से भी इस बहरी सरकार को खतरा था। खतरा इतना ज्यादा था कि उन्हें जेल डाल दिया गया। वे लंबे समय तक बीमार रहे और कल उनकी मौत हो गई।
ये मौत नहीं है। ये बिना गोली मारे, बिना जहर दिए की गई हत्या है।
उन्होंने अपील की थी कि उनके हाथ कांपते हैं, पानी पीने के लिए एक स्ट्रॉ दे दिया जाए। सरकार और अदालत मिलकर बहस करने लगीं और उन्हें स्ट्रॉ नहीं दे सकीं। वे जिंदगी नहीं दे सकते। वे मौत दे सकते हैं। उन्होंने उस बूढ़े को मौत अता की। जीवन के आखिरी पड़ाव पर उन्हें जेल में सड़ा कर मार डाला गया। जिंदगी भर गरीबों के मानवाधिकार के लिए लड़ने वाले एक भले व्यक्ति को मानवाधिकार से वंचित करके मारा गया।
आतंक से लड़ने के लिए एक राष्ट्रीय एजेंसी बनाई गई है। वह आज तक किस आतंक से लड़ी, कोई नहीं जानता। वह एक निकृष्ट एजेंसी है जो तमाम बूढ़े सामाजिक कार्यकर्ताओं को सताने का काम करती है। इस फूहड़ एजेंसी की फूहड़ थ्योरी है कि कई बूढ़े कार्यकर्ता और लेखक मिलकर प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रच रहे थे। प्रधानमंत्री न हुआ, गली में घूमती मुर्गी हो गया जिसे 84 साल के बूढ़े भी मार देंगे और वह मर जाएगा। ऐसी अश्लील कहानी पर अदालत ने भी भरोसा किया और इस घटिया कहानी के दम पर आज कई बुजुर्ग जेलों में बंद हैं।
ये वही केस है जिसके बारे में वाशिंगटन पोस्ट ने दावा किया है कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के लैपटॉप में मालवेयर के जरिये सबूत प्लांट किये गए फिर उसी आधार पर उनको गिरफ्तार किया गया। इस केस में अब तक कुछ भी साबित नहीं हुआ है लेकिन दर्जनों बुद्धिजीवी महीनों से जेल में बंद हैं।
फादर स्टेन स्वामी पूरी जिंदगी देश की सबसे गरीब आबादी के मानवाधिकार के लिए लड़ते रहे। सरकार ने उनसे उनका मानवाधिकार और उनका जीने का अधिकार भी छीन लिया।
जिसका सम्मान करना चाहिए था, उसे जेल में बंद करके मार दिया गया। अगर आप ऐसी क्रूरता के हिमायती हैं तो एक दिन ये आपके दरवाजे तक भी पहुंचेगी। आपके पास दो विकल्प हैं: पहला, आप सवाल पूछे कि बीमार बूढ़े मानवाधिकार कार्यकर्ता की जिंदगी क्यों छीन ली गई। दूसरा, आप अपनी बारी का इंतजार करें जब आपको भी ऐसी ही बर्बरता से मारा जाए।
ये अतिशयोक्ति नहीं है। जब कोई प्रशासन क्रूरता और दमन के दम पर देश चलाने की हिमाकत करता है तो उसका काम सिर्फ एक हत्या से पूरा नहीं होता।
फादर स्टेन स्वामी की ये हत्या करने वालों ने देश के माथे पर कभी न मिटने वाला कलंक लगाया है। वे देश के वंचितों की लड़ाई लड़े। उनका कद उनके हत्यारों से हमेशा ऊंचा रहेगा।
-सुसंस्कृति परिहार
विगत दिनों, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व निर्देश के पालन में राज्य शासन की तरफ से जातिगत आंकड़ा पेश कर दिया गया है। इसके मुताबिक, राज्य में 50.09 फीसद यानी आधी आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की है। इसी तरह प्रदेश में अनुसूचित जाति (एससी) की आबादी 15.6 फीसद है। इस वर्ग को 16 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिल रहा है। आबादी के अनुपात में 0.4 फीसद आरक्षण अधिक मिल रहा है। अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी 21.1 फीसद है। इस वर्ग को 20 फीसद आरक्षण मिल रहा है। यानी जनसंख्या के अनुपात में 1.1 फीसद आरक्षण का लाभ कम हासिल हो रहा है। अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी 50.09 फीसद के मुकाबले इस वर्ग को पुराने प्रावधान के तहत महज 14 फीसद आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है।
यह जानकारी जनहित याचिका लगाने वाले ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन के अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर ने दी। उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग (पीएससी) की राज्य सेवा प्रारंभिक परीक्षा-2019 में आरक्षित श्रेणी के ओबीसी आवेदकों को संशोधित प्रावधान के तहत 27 फीसद आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा रहा है। इसी रवैये को चुनौती दी गई है। इसी मामले में जारी नोटिस के जवाब में राज्य शासन की ओर से जातिगत आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। ये आंकड़े वर्ष 2011 की जनगणना पर आधारित हैं। कोरोना की वजह से 2021 की जनगणना नहीं हो पाई है
उनके मुताबिक, ओबीसी को संशोधित प्रावधान के तहत 27 फीसद आरक्षण न मिल पाने की सबसे ब़ड़ी वजह सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश है, जिसके तहत किसी भी सूरत में आरक्षण 50 फीसद से अधिक नहीं दिया जा सकता। बहरहाल, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद रफीक की अध्यक्षता वाली युगलपीठ ने राज्य शासन की जानकारी को रिकॉर्ड पर ले लिया है। आगामी सुनवाई के दौरान आंकड़ो की रोशनी में विचार कर आदेश पारित किए जाने की संभावना है।
सरकार ने 24 जुलाई, 2019 को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक विधानसभा में पेश किया, जो सर्वसम्मति से पारित हो गया। इस विधेयक को तत्कालीन राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने मंजूरी भी दे दी। सरकार और विधानसभा के इस फैसले को आकांक्षा दुबे और अन्य ने उच्च न्यायालय जबलपुर में चुनौती दी। उनका कहना था कि यह इंदिरा साहनी मामले में न्यायालय के फैसले का उल्लंघन है, जिसमें 50 प्रतिशत से ऊपर सीटें आरक्षित न किए जाने का आदेश दिया गया है।
इस याचिका पर सुनवाई करने के बाद उच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश में आरक्षण पर रोक लगा दी। इसके बाद अलग-अलग विभागों के नियुक्तियों के कई मामलों में न्यायालय के फ़ैसले आए। कुल मिलाकर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का मामला अटक गया। इस बीच केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने गैर आरक्षित तबके यानी सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया। मध्य प्रदेश में भी यह आरक्षण लागू है। यह इंदिरा साहनी मामले में 50 प्रतिशत तक आरक्षण सीमित रखने के फैसले का उल्लंघन भी है, क्योंकि केंद्र व राज्यों में इस आरक्षण के लागू होने के बाद अमूमन आरक्षण 60 प्रतिशत के करीब हो गया है। इसके बावजूद किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय ने मोदी सरकार के इस आरक्षण पर एक मिनट के लिए भी रोक नहीं लगाई और वह जारी है।
अब राज्य सरकार ने 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़ ओबीसी की संख्या साफ कर दी है। इसके मुताबिक़ भोपाल में ओबीसी की आबादी सबसे ज्यादा 63.14 प्रतिशत है और 61.69 प्रतिशत आबादी के साथ इंदौर दूसरे स्थान पर है। मंदसौर और नीमच में भी ओबीसी की आबादी 61 प्रतिशत से ऊपर है। कुल मिलाकर ओबीसी की आबादी 50 प्रतिशत से ऊपर होने के बावजूद राज्य में 14 प्रतिशत आरक्षण ही ओबीसी के लिए है। वहीं राज्य सरकार के मुताबिक़ राज्य में सवर्णों यानी गैर आरक्षित तबक़े की आबादी 13.21 प्रतिशत है, उनके लिए भी राज्य में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया है।
आंकड़ों के मुताबिक़, ओबीसी को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है। यह स्थिति सिर्फ मध्य प्रदेश की ही नहीं है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश भर में ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत है और उसे केंद्र सरकार व कुछ राज्य महज 27 प्रतिशत आरक्षण देते हैं। आरक्षण मिलने के बावजूद केंद्रीय विश्वविद्यालयों व तमाम सरकारी संस्थानों में ओबीसी की आबादी नगण्य है और उच्च पदों पर बमुश्किल 5 प्रतिशत ओबीसी हैं।बीजेपी की विभिन्न सरकारों ने तरह-तरह के नियम लाकर ओबीसी को आरक्षण से वंचित किया है, जिसकी वजह से उन्हें सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में घुसने नहीं दिया जाता है। मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए नीट परीक्षा होती है। उसमें केंद्र की सीटों पर ओबीसी आरक्षण न होने की वजह से हर साल ओबीसी विद्यार्थियों को करीब 11,000 मेडिकल सीटों का नुकसान होता है।
केंद्र सरकार ने इसमें गरीबी के आधार पर सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है, लेकिन वह ओबीसी आरक्षण देने को तैयार नहीं है। इस मामले में तमिलनाडु की स्टालिन सरकार न्यायालय में गई और उसने नीट परीक्षा स्थगित करने की अपील की। तमिलनाडु बीजेपी के महासचिव कारू नागराजन ने मद्रास उच्च न्यायालय में मुकदमा दर्ज कर बगैर ओबीसी आरक्षण के ही मेडिकल एडमिशन टेस्ट कराने की अपील कर दी।
दिलचस्प यह है कि ओबीसी तबका आरक्षण को लेकर मुखर नहीं है। यह इस तबके का पिछड़ापन ही है कि उसे नहीं पता कि प्रशासनिक नौकरियों, विश्वविद्यालयों की नौकरियों सहित आईआईटी, आईआईएम और मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी नगण्य हैं। ओबीसी तबके की तरफ से मांग न उठने के कारण राजनेता भी मुखर होकर ओबीसी के पक्ष में नहीं आते हैं। भारतीय समाज का एक बड़ा तबका तमाम धांधलियों के कारण उच्च पदों और बेहतर शिक्षा से वंचित है, जिसकी आबादी 50 प्रतिशत से ऊपर है।
प्रधानमंत्री भले ही ख़ुद को चुनावी मंच से पिछड़ा घोषित करते हैं लेकिन हकीकत यह है पिछड़ों के प्रतिनिधित्व को सरकार पूरी तरह ख़ामोश है।याद करें कि आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग बिहार चुनाव में उठी थी। बिहार के वाल्मीकि नगर में एक चुनावी सभा के दौरान, नीतीश कुमार ने कहा था कि जातियों को आबादी के हिसाब से आरक्षण मिलना चाहिए।उस वक्त ये चर्चा सुर्खियों में रही ।संघ ने तब इस विषय पर चुप्पी साध ली थी।
मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग आंदोलन के विसलब्लोअर एड. वैभव सिंह ने सर्वप्रथम 2014 में मध्यप्रदेश में इंदिरा साहनी प्रकरण में हुए निर्णय अनुसार पिछड़ा वर्ग आरक्षण 14% से 27% करने हेतु सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई थी। तदुपरांत उनके के नेतृत्व में जनवरी 2019 में पिछड़ा वर्ग के अधिकारों हेतु भारत देश में सर्वाधिक लंबे समय का धरना सागर, दमोह आदि अन्य जगहों पर दिया गया। पूरे देश में जागृति अभियान भी चला। इसी आंदोलन के दौरान ओबीसी महासभा का उदय हुआ और वैभव सिंह को राष्ट्रीय संरक्षक का दायित्व मिला। वर्तमान में ओबीसी महासभा देश का सबसे बड़ा गैर राजनीतिक पिछड़ा वर्ग संगठन बनकर उभरा है। इन्हीं जन आंदोलनों के चलते मध्य प्रदेश सरकार कोर्ट में पिछड़ा वर्ग के आंकड़े देने के लिए मजबूर हुई।
ओ बी सी महासभा के मुताबिक आगामी रणनीति के अंतर्गत आरक्षण को संविधान की धारा 340 अनुसार लागू करवाना मुख्य विषय होगा । यह आरक्षण की व्यवस्था जिला स्तर पर जाकर लागू होना चाहिए एवं पिछड़ा वर्ग को उसके अधिकार कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, मीडिया, प्राइवेट सेक्टर, बजट एवं भू अधिकार में मिलना चाहिए।नई रणनीति के अंतर्गत ओबीसी महासभा ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक माह की 13 तारीख को अपने अधिकारों के लिए ग्राम स्तर पर ज्ञापन दिये जाते हैं जिसकी बदौलत पिछड़ा वर्ग में जागरण संभव हुआ है।
इसके साथ ही आंदोलन को नई धार देते हुए ओबीसी महासभा के द्वारा भारत देश में 'आई सपोर्ट ओबीसी' का फेसबुक टैग लाया गया जिसको फेसबुक पर 14 करोड़ 83 लाख ने टैग किया, यह पिछड़ा वर्ग आंदोलनों में सोशल मीडिया पर मिली सबसे बड़ी सफलता थी। जब तक पिछड़ा वर्ग को उसकी संपूर्ण अधिकार नहीं मिलेंगे तब तक हम संघर्ष करते रहेंगे ये कहना है ओबीसी के प्रखर नेता महेंद्र सिंह लोधीजी का। वहीं एडवोकेट धर्मेंद्र कुशवाहा ग्वालियर का कहना है कि 74 साल से पिछड़ा वर्ग की जनगणना नहीं करा कर हमारे वर्गों के साथ बहुत अन्याय किया गया है।
कुल मिलाकर पिछड़े वर्ग का यह आंदोलन सरकार के गले की हड्डी बन गया है कतिपय लोगों इसे उप्र में मुख्यमंत्री योगी के लिए बड़ी चुनौती मान रहे हैं। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा हाई कोर्ट में आंकड़े देने को इसे योगी विरोधी मुहिम का हिस्सा बताया जा रहा है। बहरहाल एक बात साफ़ हो चुकी है कि ओबीसी संगठन पूरे देश में मज़बूत स्थिति में है उसकी उपेक्षा ख़तरनाक होगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा होने वाली है। साल-दो साल में वह चीन को पीछे छोड़ देगा। भारत शीघ्र ही डेढ़ अरब याने 150 करोड़ के आंकड़े को छू लेगा। हमें शायद गर्व होगा कि हम दुनिया के सबसे बड़े देश हैं। हां, बड़े तो होंगे आबादी के हिसाब से लेकिन हम जितने अभी हैं, उससे भी छोटे होते चले जाएंगे, क्योंकि दुनिया की कुल जमीन का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा हमारे पास है और दुनिया की 20 प्रतिशत आबादी उस पर रहती है।इस आबादी को अगर रोटी, कपड़ा, मकान और इलाज वगैरह उचित मात्रा में मिलता रहे तो यह संख्या भी बर्दाश्त की जा सकती है, जैसा कि चीन में चल रहा है। पिछले 40 साल में चीन के प्रति व्यक्ति की आमदनी 80 गुना बढ़ी है जबकि भारत में सिर्फ 7 गुना बढ़ी है। आज भी भारत में करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार हैं। भूख से मरने वालों की खबरें भी हम अक्सर पढ़ते रहते हैं।
भूख के हिसाब से दुनिया में भारत का स्थान 102 वां है याने जिन देशों का पेट भरा माना जाता है, उनकी कतार लगाई जाए तो भारत एकदम पिछड़े हुए देशों में गिना जाता है। लोगों का पेट कैसे भरेगा, यदि करोड़ों लोग बेरोजगार होते रहेंगे या जो लगातार रोजगार से वंचित रहेंगे। रोजगार ही नहीं, देश में सारी सुविधाएं इसीलिए कम पड़ रही है, क्योंकि हमारे यहां जनसंख्या बहुत ज्यादा है। यह ठीक है कि पिछले 50 साल में जनसंख्या बढऩे की रफ्तार भारत में अपने आप आधी हो गई है लेकिन वह किनकी हुई है? पढ़े-लिखों की, शहरियों की, संपन्नों की और किनकी बढ़ गई है? अनपढ़ों की, ग्रामीणों की, गरीबों की, मेहनतकशों की!
यह अनुपात का असंतुलन भारत को डुबो मारेगा। इसीलिए मांग की जा रही है कि दो बच्चों का प्रतिबंध हर परिवार पर लगाया जाए। जिनके दो बच्चों से ज्यादा हों, उन्हें कई शासकीय सुविधाओं से वंचित किया जाए? ऐसा करना ठीक नहीं होगा। सार्थक नहीं होगा, क्योंकि जिनके ज्यादा बच्चे होते हैं, वे लोग प्राय: शासन के फायदों से दूर ही रहते हैं।बेहतर तो यह होगा कि शादी की उम्र बढ़ाई जाए, स्त्री-शिक्षा को अधिक आकर्षक बनाया जाए, परिवार-नियंत्रण के साधनों को मुफ्त में वितरित किया जाए, संयम को महिमा-मंडित किया जाए और छोटे परिवारों के लाभों को प्रचारित किया जाए। शारीरिक और बौद्धिक श्रम के फासलों को कम किया जाए। जाति और मजहब के थोक वोट पर आधरित लोकतंत्र को सेवा, योग्यता और तर्क पर आधारित शासन-पद्धति बनाया जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुसंस्कृति परिहार
मध्यप्रदेश में इन दिनों महिलाओं की हत्याओं और उन पर घरेलू हिंसा के अलावा सार्वजनिक तौर पर बेइंतहा मारपीट की रोज़ाना वारदातें सामने आ रही हैं। कोरोना कर्फ्यु की वजह से आंकड़ों में कमी बनी रही लेकिन उस वक्त की वारदातें अब सामने भी आने लगी हैं इनमें से इन दिनों देवास जिले का नेमावर नरसंहार काफी चर्चा में है। जिसमें चार महिलाओं और एक बच्चे के शव एक गहरे गड्ढे से पुलिस ने बरामद किए हैं। हत्यारे इतने बैख़ौफ रहे कि उन्होंने प्रेम-प्रसंग को ख़त्म करने पांच लोगों की योजनाबद्ध तरीके से हत्या कर दी। उन्हें एक गहरे गड्ढे में इकट्ठा दफ़न करने से पहले, वे शीघ्र गल जाएं इसलिए उन पर यूरिया और नमक भी डाल दिया।ये लोग 13 मई से लापता थे। तकरीबन डेढ़ माह बाद इसका रहस्य सामने आया है।अब तक प्रेम प्रसंगों में शायद ही कहीं इतनी हत्याएं एक साथ कहीं हुई हों।
गंभीर बात ये है कि ये मृतक आदिवासी परिवार से है जिससे आदिवासी हलकों में काफ़ी रोष है। शुक्रवार सुबह से ही ट्विटर पर #नेमावर_हत्यारों_को_फांसी_दो ट्रेंड कर रहा है। सीएम शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामले की सुनवाई होगी और आरोपियों को सख्त से सख्त सजा दी जाएगी। महत्वपूर्ण बात ये है कि मुख्य आरोपी सुरेन्द्र सिंह चौहान किसी हिन्दू संगठन का सक्रिय कार्यकर्ता बताया जाता है उसके भाई, दो दोस्त और दो नौकरों ने मिलकर इस स्त्रियां कांड को अंजाम दिया।ये रसूखदार परिवार है जिसके कारण मामला लंबे समय तक सामने नहीं आ सका। बताते हैं आदिवासी परिवार की एक युवती सुरेन्द्र से प्यार करती थी। सुरेन्द्र का किसी अन्य युवती से विवाह होने वाला था। इसलिए लड़की शादी करने पर ज़ोर देने लगी थी फलस्वरूप उसे रास्ते से हटाने इस वीभत्स नरसंहार को किया गया। एक आदिवासी युवती को प्रेम करने की इतनी बड़ी सजा मिली कि उसकी मां, बहिन व एक नाबालिग बहन और भाई को मौत के घाट उतरना पड़ा ।पुलिस ने काफी मेहनत करके इस रहस्य को खोज निकाला है।
एक और घटना मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले के मोहन बड़ोदिया थाना क्षेत्र के ग्राम बिजाना में दलित समाज के वृद्ध दंपत्ति और उनकी बहू के साथ मारपीट करते हुए हाथ पैर बांधकर खेत में पटकने का मामला सामने आया है. पीड़ितों का कहना है कि उनकी पट्टे की जमीन जिसे कर्ज चुकाने के लिए उन्होंने दो साल के लिए लीज पर दिया था उस जमीन की संबंधितों ने धोखाधड़ी करके बिक्री पत्र बनवा लिया । सोशल मीडिया में बंधे हुए तड़फते इन लोगों के दृश्य देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।आज भी सामंती समाज के अत्याचारों के ये दृश्य सरकार के सारे दलितों के लिए किए जा रहे कामों की बखिया उधेड़ रहे हैं।
इसी भांति मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के एक गांव में 20 साल की शादीशुदा युवती जो नाराज होकर ,बताते हैं उसका पति काम करने गुजरात चला गया था अपने ससुराल से बिना बताये मामा के घर चली आई।इस बात से ख़फ़ा युवती के मायके वालों ने उसे एक पेड़ में रस्सी से बांध कर लटकाया और तेज गति से उसे झुलाते हुए लाठी डंडों से बारी बारी से पीटते रहे वह चीखती चिल्लाती रही महिलाएं और पुरुष तमाशबीन खड़े देखते रहे। वीडियो बाहर आने के बाद पुलिस ने एक्शन लिया है। तथा इस मामले में पीड़ित महिला के चार भाइयों को आईपीसी की धारा 151 के तहत शुक्रवार को गिरफ्तार कर लिया गया है और उप संभागीय मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है।
सिलसिलेवार आईं ये तीनों वीभत्स घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि हमारे समाज में ना तो प्रेम करने वाली लड़की सुरक्षित है ना ही ससुराल से अपनी मर्जी से मा के घर जाने वाली लड़की।समाज कब इन बच्चियों की सुरक्षा में खड़ा होगा।आज भी सामंती ढर्रा बरकरार है। पुरातन संस्कार कमज़ोर होने की बजाए समाज को जकड़ रहे हैं। मध्यप्रदेश जहां मामा राज हो। भांजियों के लिए मामा बेचैन रहते हों वहां ये सब कितना दुखद है? अदालतें इस जुर्म की जो भी सजा मुकर्रर करें वह तो ठीक लेकिन समाज यदि इसी तरह सोता रहा, जागा नहीं तो लड़की यूं ही मर्दवादी सोच की शिकार होती रहेगी।
इससे पहले झाबुआ की रहने वाली एक महिला ने भारतीय जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष लक्ष्मण सिंह नायक के खिलाफ यौन शोषण के आरोप लगाये थे, महिला ने पुलिस चौकी बामनिया से लेकर एसपी कलेक्टर, प्रभारी मंत्री से लेकर पुलिस के आला अधिकारीयों को शिकायत की, लेकिन उसके आरोपों पर ना तो जांच हुई और ना ही आरोपी जिलाध्यक्ष के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई, महिला अपनी पीड़ा लेकर झाबुआ पहुंची थी।
वैसे भी रेप के मामलों में मध्यप्रदेश का नाम पूरे देश के राज्यों की लिस्ट में पहले नंबर पर है। शहरों में इंदौर में सबसे ज्यादा मामले महिलाओं के अपहरण के दर्ज किए गए हैं। इनकी संख्या 453 है। जबकि भोपाल में इन मामलों की संख्या 431 है। जबलपुर में पिछले एक साल में 363 मामले किडनेपिंग के दर्ज किए गए हैं। पिछले एक साल में 4391 मामले रेप के दर्ज किए गए। यह आंकड़ा महाराष्ट्र में जहां 4, 144 है, तो राजस्थान में 3,644 वहीं उत्तर प्रदेश का नंबर चौथे स्थान पर है। यहां महिलाओं के साथ रेप के 2, 934 मामले दर्ज किए गए हैं। एनसीआरबी की इस रिपोर्ट ने प्रदेश को महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों में नंबर एक पर ला खड़ा किया है। जबकि पूरे देश में रेप के 34, 556 मामले दर्ज किए गए हैं।
यह स्थिति भयावह है इसे सरकार, सामाजिक संगठनों और समाज के मुखियाओं को गंभीरता से लेना होगा । सबसे अहम तो महिलाओं की भूमिका है जो महिलाओं के साथ खड़ी होने का साहस नहीं दिखाती।
-डाॅ. परिवेश मिश्रा
जिन साथियों को किसी हवाई अड्डे में प्रवेश करने का अवसर मिला है वे भी भली भाँति जानते हैं आज के समय में किसी अनधिकृत चिड़िया के लिए भी आसान नहीं कि सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर वह एयरपोर्ट में प्रवेश कर पाए।
किन्तु एयरपोर्ट की ऐसी चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था हमेशा नहीं थी। साठ के दशक तक लाठी लिए होमगार्ड के एक या दो सैनिक हवाई अड्डे की सुरक्षा ड्यूटी में होते थे। बहुत छोटे एरोड्रोम हों तो गांव के कोटवार पर्याप्त थे। कलकत्ता के डमडम, दिल्ली के पालम और बम्बई के सांताक्रूज आदि बड़ों में शुमार थे सो वहां स्थानीय थाने की पुलिस को यह काम सौंपा जाता था। उस थाना क्षेत्र मे जिस दिन किसी वी.आय.पी का कार्यक्रम हो या कोई कानून व्यवस्था की समस्या हो, पुलिस को एयरपोर्ट ड्यूटी से हटा कर उधर भेज दिया जाता था। ये हाल सिर्फ एरोड्रोम के भवनों के ही नहीं बल्कि हवाई पट्टियों के भी थे। अधिकांश स्थानों में मैदानों में फेन्सिंग भी नहीं थी। वर्षों तक मध्यप्रदेश के स्टेट पायलट रह चुके स्व. ज़ेड. ए. बेकर ने मुझे बताया था अनेक अवसरों पर हवाई पट्टी पर चरते गाय-बकरियों के बीच विमान लैन्ड कराना उनके अनुभवों में शुमार था।
जिस घटना के कारण भारत में हवाई अड्डों की सुरक्षा पर पहली बार सरकार का ध्यान गया, उस घटना में दिल्ली के सफदरजंग एरोड्रोम का बड़ा रोल है। पालम से पहले दिल्ली का मुख्य एरोड्रोम यही था। लाॅर्ड माऊंटबैटन जब अंतिम वायसराॅय बनकर भारत आये तो उनका विमान मध्य दिल्ली में यहीं उतरा था। हाल तक यहां फ्लाईंग क्लब काम करता था। प्राणघाती दुर्घटना के दिन 23 जून 1980 को संजय गांधी का विमान यहीं से उड़ा था। पास ही स्थित प्रधान मंत्री आवास की सुरक्षा के चलते यहां की गतिविधियों पर अब लगाम लग चुकी है।
हमारी कहानी के हीरो (आप चाहें तो विलेन कह सकते हैं) हैं डेनियल हैली वाॅलकाॅट। तीस-एक साल की उम्र में इस अमरीकी ने एक छोटा विमान खरीदकर अपने देश में समुद्र पार से माल ढुलाई का कारोबार शुरू किया। आज के संदर्भ में कुरियर कम्पनी। हालांकि तब तक यह जानकारी बाहर नहीं आयी थी कि इनका असली काम सामान के साथ साथ बिना कागज़ात वाले लोगों की स्मगलिंग का था।
वाॅलकाॅट को भारत में बड़ा काम 1962 में मिला जब एयर इंडिया ने उन्हें बड़े रेल्वे स्टेशनों से माल उठाकर अफगानिस्तान पहुंचाने का ठेका दिया। वाॅलकाॅट ने अपनी पत्नी के साथ दिल्ली के अशोका होटल में अस्थायी निवास बनाया और अपने "पाईपर अपाशे" विमान के साथ काम शुरू कर दिया। स्मगलिंग का अनुभव तो था ही। सो साथ ही साथ भारत में शिकार के शौकीन लोगों से सम्पर्क कर बन्दूकों की गोलियां भी सप्लाई करने लगे।
सितम्बर 1962 में दिल्ली पुलिस ने छापा मारकर होटल के कमरे के अलावा इनके पाईपर अपाशे विमान से बड़ी मात्रा में बन्दूक की गोलियां जब्त की।
एस.डी.एम ने वाॅलकाॅट को न्यायिक अभिरक्षा में तिहाड़ जेल भेज दिया। सफदरजंग एरोड्रोम पर खड़े विमान को भी जब्त कर लिया गया। एक महीने के बाद जब जमानत मिली तो वाॅलकाॅट ने भारत से भागने का प्रयास किया। किन्तु वाघा सीमा पर इन्हे पकड़ कर फिर से तिहाड़ में डाल दिया गया।
उसी समय भारत पर चीन का आक्रमण हुआ और देशप्रेम बाकी हर बात पर हावी हो गया। देश के लिए कुछ कर गुज़रने के लिए भारतीय लालायित हो गये थे। ऐसे समय में वाॅलकाॅट ने कोर्ट में आवेदन दे कर कहा उसके पास विमान है, विमान उड़ाने का अनुभव है, और यदि आवश्यकता पड़े तो वह भारत की सेवा में अपने विमान को समर्पित करना चाहेगा। मांग बस इतनी थी कि उसे विमान को चालू हालत में रख सकने की अनुमति दी जाए। अनुमति मिल गयी और जेल का वाहन वाॅलकाॅट को नियमित रूप से सफदरजंग एरोड्रोम ले जाने लगा। उन्हें थोड़ा पेट्रोल दिया जाता ताकि वे एंजिन को कुछ समय चालू रख सकें। यह अनदेखा रह गया है कि वाॅलकाॅट हर बार कुछ पेट्रोल बचा कर इकट्ठा करते जा रहे हैं।
साल भर में दोबारा जमानत मिली तो वाॅलकाॅट की अमेरिका वापसी स्वाभाविक मानी जाती। किन्तु दो समस्याएं बाधा बन गई थीं। वाॅलकाॅट पर टाटा की ओर साठ हज़ार रुपयों की देनदारी बाकी थी और दूसरे उनका विमान अभी तक वापस नहीं मिला था। जब पैसा वसूली की उम्मीद कम हुई तो टाटा के वकीलों ने इनके विरुद्ध गैर-जमानती वाॅरंट की प्रक्रिया शुरू कर दी। वाॅलकाॅट के लिए निर्णायक कदम उठाने का समय आ गया था।
23 सितम्बर 1963 की सुबह जब वाॅलकाॅट सफदरजंग एरोड्रोम पहुंचे तब तक पुलिस का जवान इन्हे वहां देखने का आदी हो चुका था। वाॅलकाॅट ने वहां पहुंच कर हर बार की तरह विमान को स्टार्ट किया। यह अप्रत्याशित नहीं था। कुछ देर के बाद जवान का ध्यान उस ओर लौटा तब तक विमान रन-वे पर पहुंच चुका था। उसने दौड़कर विमान को रोकने का प्रयास किया पर देर हो चुकी थी। जवान ने लौटकर कार्यकाल का दरवाजा खुलवाया, फोन के डब्बे से रिसीवर उठाकर ऑपरेटर के "नम्बर प्लीज़" कहने की प्रतीक्षा की और हवाई जहाज के भाग जाने की सूचना आगे दी। भारतीय वायु सेना के दो हंटर विमानों को पीछा करने भेजा गया किन्तु तब तक वाॅलकाॅट का विमान पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश कर चुका था।
लेकिन इस से पहले वाॅलकाॅट ने एक काम किया। सफदरजंग एरोड्रोम से उड़ने के बाद उसने तिहाड़ जेल के चक्कर लगाये और ऊपर से सिगरेट और चॉकलेट के पैकेट गिराये। जेल के मित्रों के लिए यह वाॅलकाॅट का उपहार था।
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और जो हुआ सो हुआ, लेकिन इस घटना के फ़ौरन बाद सरकार ने हवाई अड्डों की सुरक्षा के तरीके ढूंढ़ने के लिये एक समिति बनाई थी। तमिलनाडु काडर के पुलिस अधिकारी आर.एन. माणिक्कम इंटेलिजेंस ब्यूरो में थे और "राॅ" के भीतर एविएशन रिसर्च सेन्टर के संस्थापक के रूप में याद किये जाते हैं। वे इस समिति के मेम्बर सेक्रेटरी थे। अपनी पुस्तक "सिक्योरिटी, एस्पियोनेज एन्ड काऊंटर इन्टेलिजेन्स" में लिखते हैं कि पहली बार भारत के हवाई अड्डों की सुरक्षा के लिए केन्द्र शासन के अधीन किसी समर्पित व्यवस्था का सुझाव दिया गया।
1969 से फिलिस्तीन वालों ने हवाई जहाज हाइजैक करने का सिलसिला शुरू किया। इनमें महिला हाइजैकर लैला खालिद का बड़ा नाम हुआ था। इसके बाद हवाई अड्डों की सुरक्षा और चौकस की गयी। 30 जनवरी 1971 में पहली बार भारत में विमान का अपहरण हुआ। व्यवस्था और बढ़ाई गयी। और तब से यह चक्र चल रहा है। धीरे धीरे बात बढ़ती रही और राज्य शासन के एस.पी. स्तर के अधिकारियों से बढ़ कर सी.आर.पी.एफ. और सी.आय. एस.एफ. से भी आगे निकल गयी। अप्रैल 1993 में तत्कालीन विमानन मंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने संसद में घोषणा की कि प्रमुख हवाई अड्डों की सुरक्षा के लिए केन्द्र विशेष रूप से प्रशिक्षित बल तैनात करेगा।
1960 का काल और तिहाड़ जेल पर सिगरेट और चॉकलेट की बारिश का किस्सा अब इतिहास बन चुका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब इंदिरा गांधी के ‘आपातकाल’ पर प्रहार करते हैं तो डर लगने लगता है और चार तरह की प्रतिक्रियाएँ होतीं हैं। पहली तो यह कि जब हर कोई कह रहा है कि इस समय देश एक अघोषित आपातकाल से गुजर रहा है तो ऐसी आवाज़ें मोदी जी के कानों तक भी पहुँच ही रहीं होंगी! इस तरह के आरोप लगाने वाले ‘उस’ आपातकाल और ‘इस’ आपातकाल के बीच तुलना में कई उदाहरण भी देते हैं। इन उदाहरणों में संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण से लगाकर ‘देशद्रोह’ के झूठे आरोपों के तहत निरपराध लोगों की गिरफ़्तारियां और मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ शामिल होती हैं। ऐसे में लगने लगता है कि इस सबके बावजूद अगर प्रधानमंत्री 1975 के आपातकाल की आलोचना करते हैं तो उन्हें निश्चित ही ज़बरदस्त साहस जुटाना पड़ता होगा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था कि आपातकाल के काले दिनों को इसलिए नहीं भुलाया जा सकता है कि उसके ज़रिए ‘कांग्रेस ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला है।’
प्रधानमंत्री के कहे पर दूसरी प्रतिक्रिया इस आंतरिक आश्वासन की होती है कि उनकी सरकार घोषित तौर पर तो कभी भी देश में आपातकाल नहीं लगाएगी। नोटबंदी और लॉक डाउन की आकस्मिक घोषणाओं के कारण करोड़ों लोगों द्वारा भुगती हुई यातनाओं को प्रधानमंत्री निश्चित ही अपनी सरकार के आपातकालीन उपक्रमों में शामिल नहीं करना चाहते हैं। वे अब नोटबंदी का तो ज़िक्र तक नहीं करते।
तीसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि भविष्य में किसी अन्य प्रधानमंत्री को अगर आपातकाल की आलोचना करनी पड़ी तो उसके सामने समस्या खड़ी हो जाएगी कि किस आपातकाल का किस तरह से उल्लेख किया जाए। जब बहुत सारे आपातकाल जमा हो जाएँगे तो उनकी सालगिरह या ‘काला दिन’ मनाने में जनता भी ऊहापोह में पड़ जाएगी।
चौथी और अंतिम प्रतिक्रिया सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे किसी दस्तावेज या गवाह का सार्वजनिक होना बाक़ी है जो दावा कर सके कि आपातकाल के दौरान या उसके आगे या पीछे किसी भी कांग्रेसी शासनकाल में मोदी जी को उनके राजनीतिक प्रतिरोध के कारण जेल जाना पड़ा हो या नज़रबंदी का सामना करना पड़ा हो। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, आपातकाल के बीस महीनों के दौरान कोई एक लाख चालीस हज़ार लोगों को बिना मुक़दमों के जेलों में डाल दिया गया था। इनमें संघ, जनसंघ, समाजवादी पार्टियों, जयप्रकाश नारायण समर्थक गांधीवादी कार्यकर्ता और पत्रकार आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जनसंघ के तब के कई प्रमुख नेता इस समय मार्गदर्शक मंडल की सजा काट रहे हैं। जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार ,मोदी जी उस समय वेश बदलकर संघ या पार्टी का कार्य कर रहे थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल को तो हाल के महीनों में भारत से अपना कामकाज ही समेटना पड़ा है।
देश में जब आपातकाल लगा था तब मोदी जी की उम्र कोई चौबीस साल नौ माह की रही होगी। यह वह दौर था जब उनकी आयु के नौजवान गुजरात और बिहार में सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे। आपातकाल को लागू करने का कारण 1974 का बिहार का छात्र आंदोलन था। बिहार आंदोलन की प्रेरणा गुजरात के छात्रों का 1973-74 का नव निर्माण आंदोलन था। दोनों ही राज्यों में तब कांग्रेस की हुकूमतें थीं। दोनों आंदोलनों को ही अन्य विपक्षी दलों और संगठनों के साथ-साथ जनसंघ और उसके छात्र संगठनों का समर्थन प्राप्त था। गुजरात आंदोलन को चलाने वाली नव-निर्माण समिति के छात्र नेता उन दिनों जे पी से मिलने दिल्ली आते रहते थे और हम लोगों की उनसे बातचीत होती रहती थी। आपातकाल के दौरान गुजरात में कुछ समय विपक्षी दलों के जनता मोर्चा की सरकार रही (जून ‘75 से मार्च ‘76) उसके बाद राष्ट्रपति शासन हो गया (मार्च 76 से दिसम्बर ‘76) और 1977 में लोक सभा चुनावों के पहले तक चार महीने कांग्रेस की सरकार रही (दिसम्बर ‘76 से अप्रैल ‘77)।
नरेंद्र मोदी को आपातकाल के ‘काले दिनों’ और उस दौरान ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ को कुचले जाने की बात इसलिए नहीं करना चाहिए कि कम से कम आज की परिस्थिति में ‘भक्तों’ के अलावा सामान्य नागरिक उसे गम्भीरता से नहीं लेंगे। उनकी पार्टी के अन्य नेता, जिनमें कि आडवाणी, डॉ जोशी, शांता कुमार और गोविन्दाचार्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है, इस बारे में ज़्यादा अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं।
आपातकाल की अब पूरी तरह से छिल चुकी पीठ पर कोड़े बरसाते रहने के दो कारण हो सकते हैं: पहला तो इस अपराध बोध से राहत पाना कि जो लोग ‘उस’ आपातकाल के विरोध के कारण तब जेलों में बंद थे, आज उस सत्ता की भागीदारी में है जो आरोपित तौर पर न सिर्फ़ तब से भिन्न नहीं है, ज़्यादा रहस्यमय भी है। प्रधानमंत्री अपनी ओर से कैसे बता सकते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाएं और मूल्य 1975 के आपातकाल के मुक़ाबले आज कितनी बेहतर स्थिति में हैं?
दूसरा महत्वपूर्ण कारण वर्तमान के ‘उस’ (कांग्रेसी) परिवार को निशाने पर लेना हो सकता है जिसके पूर्वज इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। आपातकाल के समय राहुल गांधी पाँच साल के और प्रियंका तीन साल की रही होंगी। इनके पिता राजीव गांधी राजनीति में थे ही नहीं। वे तब हवाई जहाज़ उड़ा रहे थे। उनके छोटे भाई संजय गांधी को इतिहास में आपातकाल के लिए उतना ही ज़िम्मेदार माना जाता है जितना इंदिरा गांधी को। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी तब पूरी तरह से संजय गांधी के कहे में थीं और देश का सारा कामकाज प्रधानमंत्री कार्यालय के बजाय प्रधानमंत्री निवास से चलता था।आपातकाल लगने के नौ माह पूर्व संजय गांधी का विवाह हो चुका था। उपलब्ध जानकारी में यह भी उल्लेख है कि उनकी पत्नी हर समय उनके साथ उपस्थित रहकर उनके कामों में मदद करतीं थीं। प्रधानमंत्री जिस आपातकाल का ज़िक्र करते हैं वह उन ‘काले दिनों’ का सिर्फ़ आधा सच है। बाक़ी का आधा सम्भवतः उनकी ही पार्टी में मौजूद है।
- नासिरूद्दीन
बात फरवरी 1897 की है. कोलकता का बाग़ बाज़ार इलाका. स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के एक भक्त प्रियनाथ के घर पर बैठे थे. रामकृष्ण के कई भक्त उनसे मिलने वहाँ पहुँचे थे. तरह-तरह के मुद्दों पर चर्चा हो रही थी.
तभी वहाँ गोरक्षा एक प्रचारक आ पहुँचे और स्वामी विवेकानंद ने उनसे बात करने गए, स्वामी विवेकानंद और गोरक्षा के प्रचारक संन्यासी के बीच एक दिलचस्प संवाद हुआ जिसे शरतचंद्र चक्रवर्ती ने बांग्ला भाषा में कलमबंद किया था. यह संवाद स्वामी विवेकानंद के विचारों के आधिकारिक संकलन का हिस्सा भी बना.
स्वामी विवेकानंद ने गोरक्षा के काम में जुटे इस प्रचारक से क्या कहा होगा? थोड़ी कल्पना कीजिए.
अमरीका के शिकागो में 1893 में विश्व धर्म संसद में हिन्दू धर्म की पताका लहराकर लौटे थे विवेकानंद, गेरुआ वस्त्र पहनने वाले संन्यासी ने गोरक्षक जो कुछ कहा उसकी कल्पना करना आपके लिए आसान नहीं होगा.
गोरक्षक ने भी साधु-संन्यासियों जैसे कपड़े पहने थे. सर पर गेरुए रंग की पगड़ी थी. वह बंगाल से बाहर हिन्दी पट्टी के लग रहे थे. विवेकानंद अंदर के कमरे से गोरक्षक स्वामीजी से मिलने आए. अभिवादन के बाद गोरक्षा के प्रचारक ने गौ माता की एक तस्वीर उन्हें दी.
इसके बाद वे गोरक्षा के प्रचारक से बातचीत करने लगे. बेहतर तो यही है, इन दोनों की बातचीत वैसे ही पढ़ी जाए जैसा कंप्लीट वर्क्स ऑफ़ विवेकानंद में दर्ज है.
विवेकानंद: आप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है?
प्रचारक: हम देश की गोमाताओं को कसाइयों के हाथों से बचाते हैं. स्थान-स्थान पर गोशालाएँ स्थापित की गई हैं. यहाँ बीमार, कमज़ोर और कसाइयों से मोल ली हुई गोमाताओं को पाला जाता है.
विवेकानंद: यह तो बहुत ही शानदार बात है. सभा की आमदनी का ज़रिया क्या है?
प्रचारक: आप जैसे महापुरुषों की कृपा से जो कुछ मिलता है, उसी से सभा का काम चलता है.
विवेकानंद: आपकी जमा पूँजी कितनी है?
प्रचारक: मारवाड़ी वैश्य समाज इस काम में विशेष सहायता देता है. उन्होंने इस सत्कार्य के लिए बहुत सा धन दिया है.
विवेकानंद: मध्य भारत में इस समय भयानक अकाल पड़ा है. भारत सरकार ने बताया है कि नौ लाख लोग अन्न न मिलने की वजह से भूखों मर गए हैं. क्या आपकी सभा अकाल के इस दौर में कोई सहायता देने का काम कर रही है?
प्रचारक: हम अकाल आदि में कुछ सहायता नहीं करते. यह सभा तो सिर्फ़ गोमाताओं की रक्षा करने के उद्देश्य से ही स्थापित हुई है.
विवेकानंद: आपकी नज़रों के सामने देखते-देखते इस अकाल में लाखों-लाख मानुष मौत के मुँह में समा गए. पास में बहुत सारा पैसा होते हुए भी क्या आप लोगों ने एक मुट्ठी अन्न देकर इस भयानक अकाल में उनकी सहायता करना अपना कर्तव्य नहीं समझा?
प्रचारक: नहीं. यह लोगों के कर्मों का फल है- पाप की वजह से ही अकाल पड़ा है. जैसा 'कर्म होगा है, वैसा ही फल' मिलता है.'
गोरक्षक की यह बात सुनकर स्वामी विवेकानंद की बड़ी-बड़ी आँखों में मानो जैसे ज्वाला भड़क उठी. मुँह गुस्से से लाल हो गया. मगर उन्होंने अपनी भावनाओं को किसी तरह दबाया.
स्वामी विवेकानंद ने कहा, 'जो सभा-समिति इंसानों से सहानुभूति नहीं रखती है, अपने भाइयों को भूखे मरते देखते हुए भी उनके प्राणों की रक्षा करने के लिए एक मुट्ठी अनाज तक नहीं देती है लेकिन पशु-पक्षियों के वास्ते बड़े पैमाने पर अन्न वितरण करती है, उस सभा-समिति के साथ मैं रत्ती भर भी सहानुभूति नही रखता हूँ. इन जैसों से समाज का कोई विशेष उपकार होगा, इसका मुझे विश्वास नहीं है.'
फिर विवेकानंद कर्म फल के तर्क पर आते हैं. वे कहते हैं, "अपनों कर्मों के फल की वजह से मनुष्य मर रहे हैं- इस तरह कर्म की दुहाई देने से जगत में किसी काम के लिए कोशिश करना तो बिल्कुल बेकार साबित हो जाएगा. पशु-पक्षियों के लिए आपका काम भी तो इसके अंतर्गत आएगा. इस काम के बारे में भी तो बोला जा सकता है- गोमाताएँ अपने-अपने कर्मफल की वजह से ही कसाइयों के हाथ में पहुँच जाती हैं और मारी जाती हैं इसलिए उनकी रक्षा के लिए कोशिश करना भी बेकार है."
फिर विवेकानंद ने किया व्यंग्य
विवेकानंद के मुँह से यह बात सुनकर गोरक्षक झेंप गए. उन्होंने कहा, "हाँ, आप जो कह रहे हैं, वह सच है लेकिन शास्त्र कहता है- गाय हमारी माता है."
अब विवेकानंद को हँसी आ गई. उन्होंने हँसते हुए कहा, "जी हाँ, गाय हमारी माता हैं, यह मैं बहुत अच्छी तरह से समझता हूँ. अगर ऐसा न होता तो ऐसी विलक्षण संतान को और कौन जन्म दे सकता है!"
गोरक्षक ने इस मुद्दे पर और कुछ नहीं कहा. वह शायद विवेकानंद का व्यंग्य भी नहीं समझ पाए. फिर गोरक्षक ने विवेकानंद से कहा, "इस समिति की तरफ आपके पास कुछ भिक्षा पाने के लिए आया हूँ."
विवेकानंद: मैं तो ठहरा संन्यासी फ़कीर. मेरे पास रुपैया पैसा कहाँ कि मैं आपकी सहायता करूँगा? लेकिन यह भी कहे देता हूँ कि अगर मेरे पास कभी पैसा हुआ तो सबसे पहले उसे इंसान की सेवा के लिए ख़र्च करूँगा. सबसे पहले इंसान को बचाना होगा- अन्नदान, विद्यादान, धर्मदान करना पड़ेगा. ये सब करने के बाद अगर पैसा बचा तब ही आपकी समिति को कुछ दे पाऊँगा.
विवेकानंद का यह जवाब सुनकर गोरक्षक चले गए.
'इंसानियत, बड़ा धर्म'
वहाँ मौजूद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य शरतचंद्र के शब्दों में, "इसके बाद विवेकानंद हम लोगों से कहने लगे, 'क्या बात कही? क्या कहा- अपने कर्म फल की वजह से इंसान मर रहा है, इसलिए उनके साथ दया दिखा कर क्या होगा? हमारे देश के पतन का यही जीता-जागता प्रमाण है? तुम्हारे हिंदू धर्म का कर्मवाद कहाँ जाकर पहुँचा है! मनुष्य होकर जिनका मनुष्य के लिए दिल नहीं दुखता है, तो क्या वे मनुष्य हैं?' यह बोलते-बोलते स्वामी विवेकानंद का पूरा शरीर क्षोभ और दु:ख से तिलमिला उठा.
यह पूरी बातचीत 121 साल पहले की है. लेकिन क्या इस बातचीत का हमारे वक्त में कोई मतलब है?
इस संवाद से यही लगता है कि स्वामी विवेकानंद के लिए इंसान और इंसानियत की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है. मगर स्वामी विवेकानंद का नाम लेते वक्त हममें से कौन, उनके इस रूप को याद रखता है?
थोड़ी कल्पना और कीजिए
28 साल के रकबर ख़ान की हाल ही में कथित गोरक्षकों की पिटाई के बाद मौत हो गई थी
दिमाग़ का इस्तेमाल, दिमाग़ को तेज़ करता है, ऐसा गुणीजन बताते हैं. तो चलते-चलते एक और कल्पना करते हैं. अगर आज गेरुआ वस्त्रधारी भगवा पगड़ी वाले स्वामी विवेकानंद हमारे बीच होते तो इन घटनाओं पर क्या कहते-
• झारखंड की संतोषी, मीना मुसहर, सावित्री देवी, राजेन्द्र बिरहोर… और दिल्ली की तीन बहनों शिखा, मानसी, पारुल जैसों की भूख से मौत.
• अख़लाक़, अलीमुद्दीन, पहलू ख़ान, क़ासिम, रकबर खान जैसों की गोतस्करी के आरोप में हत्या.
• गुजरात, आंध्र प्रदेश जैसी जगहों पर गोरक्षकों के नाम पर दलितों की पिटाई.
• और इन हत्या, पिटाई या दूसरी हिंसा को इधर-उधर से जायज ठहराने की कोशिश.
• गोशालाओं में गायों की मौत.
• फसल की बर्बादी झेल रहे कर्ज में डूबे हजारों किसानों की मौत.
हम ऊपर के उनके संवाद से आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि वे क्या कहते. है ना?
वैसे, क्या यह सवाल करना बेमानी होगा कि अगर आज स्वामी विवेकानंद होते और किसी गोरक्षक से ऐसे ही संवाद करते तो उनके साथ क्या होता?
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रहते हैं. लेखन और शोध के अलावा सामाजिक बदलाव के कामों से जमीनी तौर पर जुड़े हैं)
-विश्वदीपक
तीन साल पहले लिखी इस रिपोर्ट के बदले 5000 करोड़ के मानहानि के मुकदमे के आलावा पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में इतने तरह के झंझावात झेलने पड़े कि...बहुत कुछ ख़तम हो गया, बहुत कुछ ऐसा रह- रह कर टूटता गया जिसे मैं चाहकर भी नहीं जोड़ सका.
बहरहाल, मेरी इस रिपोर्ट के बाद ही भारत को और दुनिया को पता चला कि अनिल अंबानी ने राफेल डील के मात्र 12 दिन पहले ही अपनी कथित डिफेंस फैक्ट्री स्थापित की थी. ना ही अनिल अंबानी को, ना ही उसकी कंपनी को रक्षा उत्पादन का ए, बी, सी, डी पता था फिर 30 हज़ार करोड़ का ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट उसे कैसे मिला ? यह सवाल आज तक अनुत्तरित है.
याद दिला दूं कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने पेरिस में जाकर इस डील का ऐलान किया था. अब फ्रांस में राफेल डील की जो जांच शुरू हुई है उसमें मोदी- मैक्रों-अंबानी के त्रिकोणीय रिश्ते पर खास निगाह होगी.
आगे चलकर 2019 लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान यह कहानी ही विपक्ष के हमले का मुख्य आधार बनी. हालांकि कारवां, एक्सप्रेस, हिन्दू जैसे दूसरे मीडिया ने भी इस डील के बारे में, इसके अलग अलग पक्षों को लेकर शानदार रिपोर्टिंग की लेकिन ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट का पूरा तर्क और भ्रष्टाचार जिस एक रिपोर्ट के बाद ध्वस्त हुआ -- वह यही रिपोर्ट थी.
राफेल डील पर सुप्रीम कोर्ट में हुई बहस के दौरान भी इस कहानी का जिक्र किया गया. बाद में अनिल अंबानी ने कई लोगों के खिलाफ मुकदमा किया पर शुरुआत यहीं से हुई थी.
रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद अनिल अंबानी के कारिंदे ने पहले ऑफिस कॉल किया, फिर मोबाइल पर फिर नोटिस की धमकी दी और आखिर में मुकदमा भी कर दिया.
अनिल अंबानी का कारिंदा मेरा जीवन संवारने वाला ऑफर लिए घूम रहा था. वो बार-बार कह रहा था कि बस बार मिल लीजिए. उसके फोन आने तभी बंद हुए जब राहुल गांधी ने इस बारे में ट्वीट किया. अफसोस कि उस बेचारे का मुझसे मुलाकात का सपना अधूरा ही रह गया!
इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्यूंकि आज जब फ्रांस में राफेल डील के जांच की खबर आई तो मीडिया पार्ट्स की रिपोर्ट को उद्धृत करते हुए कुछ महान पोर्टल्स ने ऐसे खबर चलाई जैसे यह तथ्य पहली बार सामने आया हो कि अनिल अंबानी की कंपनी मात्र बारह दिन पुरानी थी या कि अनिल अंबानी और मोदी सरकार के बीच डील से पहले भी, एक डील हुई थी.
इससे चिंतित मेरे एक मित्र ने फोन करके कहा : अरे कहां हो? क्या कर रहे हो? तुम्हारी राफेल वाली रिपोर्ट की चर्चा हो रही थी मेरे ऑफिस में. तुम अपनी रिपोर्ट भुना नहीं पाए आदि.
मैंने कहा : धान का बीज तैयार करने से पहले मिट्टी को पैरों तले रौंदना पड़ता है ताकि वह नरम हो जाए. वही कर रहा हूं. इसके बाद जामुन खाने का प्लान है.
हां, अनिल अंबानी मुझसे एक बात और जानना चाह रहा था कि मेरा सोर्स कौन है -- वह सरकार में है या उसकी कंपनी में?
मैंने कहा : खुद पता कर लो. मुझे खुशी है कि मेरा सोर्स सलामत है! (nationalheraldindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज के अखबारों में भ्रष्टाचार की खबरें भरी पड़ी हैं। ठगी, धोखाधड़ी और तस्करी जैसे अपराधों की खबरें तो हम आए दिन सुनते ही रहते हैं लेकिन सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें कई राज्यों से एक साथ फूट रही हैं। इन अफसरों पर भ्रष्टाचार के कागजी आरोपों की जांच तो चल ही रही है लेकिन उनके घरों पर जो छापे पड़े हैं, वे हैरतअंगेज हैं। एक-एक अफसर, जिसकी आमदनी कुछ हजार रु. महिना है, उसके यहां करोड़ों रु. का जेवर, लाखों रु. की नकदी, करोड़ों रु. के दर्जनों बैंक खाते, कई मकान और फॉर्म हाउस पकड़े गए हैं। उनके परिजनों और रिश्तेदारों के बैंक खातों में करोड़ों की राशि पाई गई है।यह भी पता चला है कि विदेशी बैंकों में भी उन्होंने मोटी राशियां छिपा रखी हैं। रिश्वत में ऐंठे गए पैसे को छिपाने की कला कोई सीखना चाहे तो अपने इन भ्रष्ट अफसरों से सीखे। भ्रष्टाचार के किस्सों की यह भरमार देखकर दो सवाल उठते हैं। पहला, यह कि हमारी नौकरशाही इतनी भ्रष्ट क्यों हैं ? इसके कारण क्या हैं ? और दूसरा, यह कि इसका उपचार क्या है?
हमारी नौकरशाही अपने नेताओं की अंधभक्त है। हमारे अफसर नेताओं को लाखों-करोड़ों रु. डकारते हुए और गलत को भी सही घोषित करते हुए रोज देखते हैं। उन्हें नेताओं के भ्रष्टाचार की सूक्ष्मतम और गोपनीयतम जानकारी होती है। तो वे भी लोभ-संवरण नहीं कर पाते। वे नेताओं से भी ज्यादा बारीक तरकीबें निकालकर भ्रष्टाचार को अपना रोजमर्रा का धंधा ही बना लेते हैं। उन्हें पक्का भरोसा रहता है कि उनके नेता को पता चल भी गया तो भी वह उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकता।इसका उपचार तो यही है कि नेता लोग पैसा खाना बंद करें। वे कैसे करेंगे? उन्हें चुनावों में और उसके पहले भी ठाठ-बाट से रहने के लिए मोटे पैसे की जरुरत होती है। न तो वे कोई नौकरी करते हैं, न ही खेती और न ही कोई व्यवसाय। उनकी मजबूरी है कि वे लोगों से जैसे-तैसे पैसा ऐंठें। जब तक देश में लोकतंत्र है, चुनाव होंगे, उनमें पैसा बहेगा तो वह आएगा कहां से ? इसीलिए हमारी चुनाव-पद्धति में आमूल-चूल सुधार की जरुरत है ताकि वह न्यूनतम खर्चीली बने।
दूसरा, नेताओं और अफसरों की मुफ्त सरकारी सुविधाओं में अधिकतम कटौती की जाए। तीसरा, भ्रष्टाचार करते हुए जो भी नेता व अफसर पकड़ा जाए, उसे पदमुक्त तो किया ही जाए, उसे जेल तो भेजा ही जाए, उसकी सारी चल-अचल संपत्ति भी जब्त की जाए। उसके जिन रिश्तेदारों, मित्रों और चेलों पर संदेह हो, उन पर भी कड़ी कार्रवाई की जाए। देश के बड़े-बड़े नेता (और साधु-संत भी) अपना निजी जीवन सादगी और शुद्धता की मिसाल बनाकर देशवासियों के प्रेरणा-स्त्रोत बनें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
वामन बलीराम लाखे, माधवराव पाध्ये, केशवराव पाध्ये जेल में माधवराव सप्रे से मिलकर माफीनामा पर दस्तखत करने के लिए मान-मनौव्वल करते रहे, पर माधवराव सप्रे अपने निर्णय में अडिग थे।
माधवराव सप्रे के इस निर्णय के विषय में वामन बलिराम लाखे ने पितातुल्य बड़े भाई बाबूराव को जानकारी दी। उस समय तक बाबूराव भी अपने भाई को किसी तरह जेल से छुड़ाने के लिए नागपुर पहुंच चुके थे।
बाबूराव ने माधवराव सप्रे के मित्रों से कहा कि अगर माधवराव सप्रे माफीनामा पर दस्तखत नहीं करते हैं, तो वे आत्महत्या करने के लिए विवश होंगे।
वामन बलिराम लाखे, केशवराव पाध्ये और माधवराव पाध्ये ने जेल जाकर यह बात माधवराव सप्रे को बताई। माधवराव सप्रे अपने पिता तुल्य बड़े भाई के इस निश्चय को सुनकर विचलित हो उठे। उनके मन में अपने पितातुल्य बड़े भाई के प्रति अपार सम्मान का भाव था। वे अपने पितातुल्य बड़े भाई को इस तरह मरते हुए नहीं देख सकते थे ।
उन्होंने रोते हुए माफीनामा पर दस्तखत कर दिए। माधवराव सप्रे रो रहे थे, दस्तखत करते हुए उनके हाथ कांप रहे थे।
माधवराव सप्रे का हृदय भी रो रहा था। वे जान रहे थे कि इस तरह से जेल से माफी मांग कर छूटने से वे जीवन भर इस अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाएंगे ।इस अभिशाप को उन्हें जीवन भर को ढोने के लिए विवश होना पड़ेगा। उन्हें इसके लिए जीवन भर कोई माफ भी नहीं करेगा। वे जानते थे कि वे स्वयं भी इसके कभी खुद को माफ नहीं कर पाएंगे। पर उनके सामने और कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। उनके पितातुल्य ज्येष्ठ भ्राता बाबूराव का जीवन उनके लिए अमूल्य था।
जिस दिन माधवराव सप्रे की अदालत में पेशी थी, उस दिन उनके वकील केशवराव गोखले और अदालत में उपस्थित सभी लोगों को उस समय गहरी ठेस पहुंची, जब जज ने माधवराव सप्रे द्वारा दिए गए माफीनामा को पढक़र सुनाया।
अदालत में सन्नाटा छा गया, किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि हिंदकेसरी माधवराव सप्रे अंग्रेज सरकार से इस तरह माफी मांग कर छूटेंगे।
जेल से छूटने पर पंडित जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल माधवराव सप्रे से मिलने गए। माधवराव सप्रे ने उनसे कहा कि आप ‘हिंदी केसरी’ के अगले अंक में मेरे इस कृत्य की आलोचना कीजिए।
जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल ने माधवराव सप्रे के निर्देश का पालन किया। ‘हिंदी केसरी’ के अगले ही अंक में यह मोटे-मोटे अक्षरों में प्रकाशित हुआ।
‘माफी मांग कर सप्रेजी ने अपने राजनैतिक सार्वजनिक जीवन का सत्यानाश कर लिया है। इस घटना से सार्वजनिक आंदोलन को विशेषकर हिंदी पत्रों के बढ़ते हुए जोश की बड़ी हानि हुई है। हिंदी संसार में, हिंदी समाचार पत्रों के इतिहास में यह पहला ही राजद्रोह का मुकदमा था, इसलिए अन्यों की अपेक्षा हिंदी में इसका कहीं अशेष महत्व था।’
इस दुखद घटना के कुछ दिनों पश्चात ‘हिंदी केसरी’ और ‘हिंदी ग्रंथ माला’ जैसी हिंदी के दो श्रेष्ठ पत्रों का अंत हो गया। अंग्रेजी हुकूमत के डर से अब लोगों से आर्थिक सहायता मिलनी भी बंद हो गई थी। कर्ज भी काफी हो गया था, प्रेस भी कर्ज की बलि चढ़ गया था।
‘हिदी केसरी’ और ‘हिंदी ग्रंथ माला’ की पूरी टीम बिखर चुकी थी। पंडित जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल प्रयाग चले गए और लक्ष्मीधर वाजपेयी माधवराव सप्रे के साथ रायपुर आ गए।
(शेष अगले सप्ताह)
यह तय माना जा रहा है कि पश्चिमी ताकतों के अफगानिस्तान छोड़ने से पहले भारत सरकार ने तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू कर दी है. लेकिन भारत को तालिबान से बातचीत कर क्या हासिल हो सकता है?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
सालों पहले अफगानिस्तान से निकलने के उद्देश्य से अमेरिका ने जब 'अच्छा तालिबान और बुरा तालिबान' की अवधारणा देकर तालिबान से बातचीत शुरू की थी, तब भारत ने इसका सख्त विरोध किया था. भारत का कहना था कि 'अच्छा तालिबान' जैसी कोई चीज है ही नहीं, इसलिए तालिबान से बात करने का कोई फायदा नहीं है. लेकिन आज जब अमेरिका और नाटो के अन्य सदस्य देशों की सेनाएं अफगानिस्तान छोड़ कर जा रही हैं, हालात नाटकीय रूप से बदल चुके हैं. इतने कि भारत सरकार और तालिबान के बीच सीधी बातचीत होने के दावे किए जा रहे हैं.
हाल ही में जब नई दिल्ली में एक पत्रकार वार्ता में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से पूछा गया कि क्या भारत सरकार वाकई तालिबान से बातचीत कर रही है, तो उन्होंने कहा कि सरकार "अफगानिस्तान में सभी स्टेकहोल्डरों से बात कर रही है." कुछ पत्रकारों ने यहां तक दावा किया है कि यह बातचीत उच्चतम स्तर पर हो रही है और खुद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान के नेताओं से मिल कर बातचीत की है. भारत सरकार ने इस संबंध में अभी तक कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है, लेकिन मीडिया में आई कुछ खबरों में सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि सरकार ने इस दावे से इंकार किया है.
भारत की चिंताएं
बातचीत विदेश मंत्री के स्तर पर हो या किसी अधिकारी के स्तर पर, यह तय माना जा रहा है कि भारत सरकार ने तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू कर दी है. अब सवाल यह उठता है कि इस बातचीत की रूपरेखा क्या है? दोनों पक्ष एक दूसरे से क्या चाहते हैं और उनके बीच किन विषयों पर चर्चा हो रही है? किसी आधिकारिक बयान के अभाव में इस संबंध में पुख्ता जानकारी नहीं है और ऐसे में सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है.
भारत के पूर्व विदेश सचिव शशांक कहते हैं कि तालिबान से बात करने के भारत के तीन उद्देश्य हो सकते हैं, बीते सालों में अफगानिस्तान की अलग अलग विकास परियोजनाओं में किए गए करीब तीन अरब डॉलर निवेश की रक्षा, हिंसा की वजह से देश छोड़ कर जा रहे अफगानी शरणार्थियों को बड़ी संख्या में भारत में आने से रोकना, और आतंकवादी संगठनों से लड़ने में अपनी क्षमताओं को बढ़ाना.
शशांक ने यह भी कहा कि भारत में कुछ लोगों का यह भी मानना है कि तालिबान के साथ ताल्लुकात रखने से भारत को लंबी अवधि में पाकिस्तान के साथ बातचीत करने में भी मदद मिल सकती है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के अलावा भारत में भी अफगानिस्तान मामलों के ऐसे कई विशेषज्ञ हैं जो काफी समय से तालिबान के साथ बातचीत के दरवाजे खुले रखने की जरूरत पर जोर देते रहे हैं. विदेश मंत्रालय में सचिव रह चुके विवेक काटजू उनमें से हैं. काटजू ने डीडब्ल्यू को बताया कि वो कई सालों से अपने लेखों में कहते रहे हैं कि भारत को तालिबान के साथ संपर्क स्थापित करना चाहिए.
तालिबान का खतरा
विवेक काटजू कहते हैं कि अभी अफगानिस्तान में जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए ऐसा करने की जरूरत और बढ़ गई है. इस समय अमेरिका और अन्य नाटो देशों की सेना काफी जल्दी जल्दी अफगानिस्तान छोड़ कर जा रही हैं. अमेरिका इस साल 11 सितंबर 2001 को हुए हमलों की वर्षगांठ से पहले इस प्रक्रिया को पूरा कर लेना चाहता है. इसी हफ्ते 20 साल से गैर-युद्धक भूमिका में देश में मौजूद जर्मनी के आखिरी सैनिकों ने अफगानिस्तान छोड़ दिया. जैसे जैसे पश्चिमी सेनाएं देश छोड़ कर जा रही हैं, देश में हिंसा और तालिबान की महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं.
अफगानिस्तान में करीब 400 जिले हैं और संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि इनमें से कम से कम 50 पर तालिबान का कब्जा हो चुका है. मीडिया रिपोर्टों में तो कम से कम 100 जिलों पर तालिबान के कब्जे का दावा किया जा रहा है. नई दिल्ली के आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो सुशांत सरीन मानते हैं कि भारत सरकार को तालिबान से संपर्क जरूर करना चाहिए क्योंकि भारत के लिए यह जानना जरूरी है कि तालिबान परोक्ष रूप से किस हद तक पाकिस्तान के हितों को आगे बढ़ाता है. दूसरा, भारत यह भी जानना चाहेगा कि आने वाले दिनों में अगर तालिबान पूरे देश पर कब्जा कर लेता है तो ऐसे में उसकी भारत से क्या अपेक्षा होगी.
पाकिस्तान और तालिबान के संबंध
भारत के तालिबान से रिश्तों पर 1999 के विमान अपहरण प्रकरण का गहरा साया है. तालिबान ने उस समय ऐसा दिखाया था कि अपहरणकर्ताओं से समझौता करने में उसने भारत की मदद की थी, लेकिन कई लोग मानते हैं कि पूरे प्रकरण में तालिबान की भूमिका विवादित थी. तालिबान पर अक्सर पाकिस्तान के प्रॉक्सी होने का आरोप लगता आया है. सरीन याद दिलाते हैं कि तालिबान के वरिष्ठ नेताओं में से एक सिराजुद्दीन हक्कानी के नेतृत्व में काम करने वाले हक्कानी नेटवर्क को अमेरिका के पूर्व सेना प्रमुख एडमिरल माइक मलेन ने प्रामाणिक रूप से आईएसआई की ही एक शाखा बताया था.
आज हक्कानी नेटवर्क के कई नेताओं के परिवारों के सदस्य पाकिस्तान में रहते हैं और जानकार मानते हैं उनके जरिए आज भी पाकिस्तान तालिबान पर प्रभाव रखता है. इस वजह से यह मानना मुश्किल लगता है कि निकट भविष्य में तालिबान और पाकिस्तान मिल कर काम नहीं करेंगे. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने भी 'द ट्रिब्यून' में हाल ही में छपे एक लेख में लिखा है कि एक बार अमेरिकी चले गए और तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया, तो पाकिस्तान वहां फिर से जिहादी अड्डे बना कर परोक्ष रूप से भारत को निशाना बनाएगा.
तालिबान और आतंकवाद का खतरा
पश्चिमी ताकतों के चले जाने के बाद अफगानिस्तान में आतंकवादी संगठनों के फिर से सर उठाने को लेकर अमेरिका भी चिंतित है. तालिबान के साथ जिस शांति समझौते पर सहमति हुई है उसमें स्पष्ट रूप से तालिबान से यह वादा लिया गया है कि वो किसी भी आतंकवादी संगठन को अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा. लेकिन 17 जून को अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन और सेना प्रमुख जनरल मार्क मिली ने अमेरिकी संसद की एक समिति को बताया कि उनका अनुमान है कि करीब दो साल में अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठन अफगानिस्तान में फिर से खुद को खड़ा सकते हैं.
दुनिया भर के बड़े आतंकवादी संगठनों का अध्ययन करने वाले कई विशेषज्ञों का कहना है कि अफगानिस्तान में अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के साथ और भी कई आतंकवादी संगठन मौजूद हैं और भविष्य में ये तालिबान के साथ मिल कर काम करें इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. भारत में कुछ जानकार मानते हैं कि तालिबान से बातचीत करने के पीछे भारत की बड़ी चिंताओं में से एक यह है.
आईएस के बढ़ने की आशंका
नई दिल्ली में पत्रकार और 'द ग्रेट गेम इन अफगानिस्तान' किताब के लेखक कल्लोल भट्टाचार्य कहते हैं कि संभव है कि भारत तालिबान को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ एक प्रतिरोधक के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहा हो, क्योंकि भारत में हो रही घटनाओं से इस्लामिक स्टेट के किसी न किसी रूप से जुड़े होने के संकेत सामने आने लगे हैं. उन्होंने बताया, "जम्मू में वायु सेना के अड्डे पर जो ड्रोन हमला हुआ है उस पर इस्लामिक स्टेट के प्रमाण चिह्न अंकित हैं, जिससे भारत की चिंताएं और बढ़ गई हैं." इस्लामिक स्टेट को आतंकवाद के लिए ड्रोन का सबसे पहले और व्यापक रूप से इस्तेमाल करने के लिए जाना जाता है.
एक समय था जब इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट हर महीने 70 से 100 ड्रोन हमलों को अंजाम दिया करता था. भारत में पाकिस्तान की सीमा के पास संदिग्ध ड्रोन पिछले दो सालों से हथियार गिराते हुए पकड़े जा रहे हैं, लेकिन यह पहली बार है जब ड्रोन के जरिए हमला हुआ भी है, और वो भी एक सैन्य अड्डे के अंदर. अधिकांश जानकारों ने कहा है कि भारत इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था, और सरकार अब जाकर ड्रोन के खतरे को गंभीरता से ले रही है.
भारत में अधिकारी जम्मू हमले के पीछे पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-इ-तोइबा का हाथ होने की संभावना जाहिर कर चुके हैं और इससे एक बार फिर भारत-पाकिस्तान रिश्तों में तनाव आ गया है. ऐसे में तालिबान से भारत सरकार की बातचीत की प्रक्रिया क्या करवट लेगी और क्या रंग लाएगी, यह अभी कहना मुश्किल है. पूरे प्रांत में घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों की निगाहें इस बात पर हैं कि आने वाले दिनों में भारत-पाकिस्तान-अफगानिस्तान का त्रिकोणीय रिश्ता किस तरह बदलता है. (dw.com)