विचार/लेख
-गिरीश मालवीय
न्यू वल्र्ड ऑर्डर का सबसे अहम और सबसे घातक हथियार सामने आ रहा है और वह है ‘डिजिटल मनी।’
दरअसल कोरोना महामारी ने वैश्विक समाज के सभी क्षेत्रों, खासतौर पर अर्थव्यवस्था में जिन कमजोरियों को उजागर किया है। उससे पूंजीवाद के वर्तमान रूप क्रोनी कैपटलिज्म पर एक बड़ा संकट आ खड़ा है और इस संकट को दूर करने के लिए पूरे विश्व के विभिन्न देशों के रिजर्व बैंकों के बीच डिजिटल मुद्रा की दौड़ शुरू हो गई है। यह कदम एक क्रांतिकारी परिवर्तन साबित होने जा रहा है अभी तक हम जिस जीवनशैली को जानते हैं उसमें नगदी यानी कागजी मुद्रा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन अब पूरी व्यवस्था ही बदलने जा रही है।
दुनिया इस समय अपने पूरे इतिहास के सबसे बड़े आर्थिक और सामाजिक प्रयोग के बीच में है, इसमे इंटरनेट सबसे महत्वपूर्ण होकर उभरा है अब इस तकनीक के जरिए हमारे पूरे जीवन को पूरी तरह से डिजिटाइज करने की कोशिश कर रही है।
मार्च 2020 में विश्व अर्थव्यवस्था को जो जोरदार झटका लगा है उसका सबसे बड़ा असर मौद्रिक प्रणाली पर पड़ा है यह संकट सिर्फ नोट छापने और ब्याज दरों में कटौती से खत्म नही होने वाला है , न्यू वल्र्ड आर्डर कहता है कि जो इस डिजिटल मुद्रा की तरफ अपने कदम नहीं बढ़ाएगा वह अपनी मुद्रा के बुरे से बुरे अवमूल्यन के लिए तैयार रहे
पिछले कई वर्षों से वित्तीय क्षेत्र में हम पर डिजिटलीकरण थोपा जा रहा है। नोटबंदी का घोषित उद्देश्य काला धन रोकना नहीं बल्कि मुद्रा का डिजिटलीकरण करना था अब आश्चर्यजनक रूप से बैंक मर्ज किए जा रहे हैं। शाखाएं बंद की जा रही हैं, नकदी को पीछे धकेला जा रहा है।
यह कोई कांस्पिरेसी थ्योरी नहीं है यह सच्चाई है! जिससे हमारे बुद्धिजीवी नजरे चुरा रहे हैं, कोरोना ऐसी व्यवस्था के लिए गोल्डन अपॉर्च्युनिटी लेकर आया है क्योंकि अर्थव्यवस्था उद्योगपतियों के कर्ज के बोझ के नीचे दबी हुई है और यह लोन डूब रहा है, मरता क्या न करता वाली सिचुएशन है।
अब ब्रम्हास्त्र चलाने का समय है भारत का रिजर्व बैंक हमारे समय की अब तक की सबसे महत्वपूर्ण परियोजना पर काम कर रहे हैं वह है डिजिटल मुद्रा की शुरूआत।
अमेरिका में भी यूएस डॉलर को पूरी तरह से डिजिटल बनाने का विचार, जो कुछ साल पहले अकल्पनीय था अब तूल पकड़ता जा रहा है. डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स दोनों ने पारंपरिक कागजी डॉलर के साथ साथ अब ‘डिजिटल डॉलर’ पर विचार करना शुरू किया है लेकिन इस खेल में। अमेरिका अभी पीछे है
इस खेल में सबसे आगे है चीन जिसने कई महीने पहले ही डिजिटल युआन जारी कर दिया है दरअसल चीन में हाल के वर्षों में ऑनलाइन भुगतान की कई सेवाएं लोकप्रिय हुई हैँ। उनमें एन्ट ग्रुप का अली-पे और टेसेन्ट ग्रुप का वीचैट-पे सबसे लोकप्रिय हैं। (जैसे भारत में पेटीएम ) इनकी बढ़ती लोकप्रियता से चीन सरकार को ये अंदेशा हुआ कि देश में सारा वित्तीय लेनदेन निजी हाथों में जा सकता है। इसलिए उसका तोड़ उसने डिजिटल युआन के रूप में निकाला है।
लोग इतने भोले है कि उन्हें डिजिटल मनी ओर क्रिप्टो करंसी के बीच मूलभूत अंतर की समझ नही है वो इसे एक ही समझ रहे हैं दरअसल यह मुद्रा सेंट्रल बैंक ( भारत में रिजर्व बैंक ) द्वारा जारी डिजिटल करेंसी है, यह बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी नही है बल्कि यह उसके लगभग विपरीत है। क्योंकि क्रिप्टो करेंसी विकेंद्रीकृत होती है; वे सरकारों द्वारा जारी या समर्थित नहीं होती लेकिन, डिजिटल करेंसी को केंद्रीय बैंक द्वारा जारी और विनियमित किया जाता है और लीगल टेंडर के रूप में इसकी स्थिति की गारंटी राज्य द्वारा दी जाती है।
यह क्रिप्टोकरंसी या पेटीएम जैसी नहीं है डिजिटल मुद्रा के अस्तित्व में आने के बाद कोई भी व्यापारी इसे स्वीकार करने से इनकार नहीं कर सकता।
दरअसल चीन द्वारा जारी डिजिटल मुद्रा डिजिटल युआन पूरी दुनिया मे डॉलर की बादशाहत को चुनौती देने की बड़ी कोशिश है पूरी दुनिया मे डिजिटल मुद्रा की रेस एक नए प्रकार के संघर्ष को जन्म दे रही है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कल ऐसी बात कह दी है, जिसे कहने की हिम्मत आज तक पाकिस्तान का कोई फौजी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भी नहीं कर सका है। आजकल पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर में आम चुनाव चल रहे हैं। एक चुनावी सभा में बोलते हुए इमरान ने कह दिया कि पाकिस्तान सरकार उसके कश्मीर की जनता को आत्म-निर्णय का ऐसा विकल्प देगी, जिसके अन्तर्गत वह चाहे तो पाकिस्तान में मिल सकता है या वह स्वतंत्र राष्ट्र भी बन सकता है।
यह स्वतंत्र राष्ट्र का विकल्प एक बम-विस्फोट की तरह है। पाकिस्तान के सारे विरोधी नेता इमरान पर टूट पड़े हैं। इमरान ने यह बात शायद इसलिए कह दी कि उन पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि वे 'आजाद कश्मीरÓ को पाकिस्तान का पांचवाँ प्रान्त बनाना चाहते हैं। ऐसे प्रचार से कश्मीर में उनकी पार्टी के वोट कटने की अफवाहें फैलने लगी थीं। लेकिन इमरान की यह बात ऐसी है, जिसका खंडन लियाकतअली खान से लेकर नवाज़ शरीफ तक सभी प्रधानमंत्री और अयूबखान, याह्याखान, जिया-उल-हक और मुशर्रफ तक सारे फौजी राष्ट्रपति भी करते रहे हैं।
इस्लामाबाद में जब प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो से मैं पहली बार मिला तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप पहले अपने कश्मीर में प्लेबिसिट (आत्म-निर्णय) करवाइए। मैंने उनसे पूछा कि आपने सुरक्षा परिषद का 1948 का प्रस्ताव क्या पढ़ा नहीं है? कृपया प्लेबिसिट की पहली शर्त पढि़ए। उसके शुरु में ही कहा गया है कि आपके कब्जाए कश्मीर से एक-एक सिपाही और एक-एक सरकारी कर्मचारी को वहां से हटाइए। उसके बाद ही दोनों कश्मीर में जनमत-संग्रह हो सकता है। मैंने उनसे पूछा कि जनमत-संग्रह में क्या वे तीसरे विकल्प से सहमत हैं। याने कश्मीर की आजादी का विकल्प आपको स्वीकार है? उन्होंने कहा 'बिल्कुल नहीं।Ó
लेकिन रावलपिंडी में मुझसे मिले कश्मीरी नेताओं ने मुझसे कहा था कि हम तीसरा विकल्प भी चाहते हैं याने भारत में या पाकिस्तान में मिलने के अलावा हमें 'स्वतंत्र राष्ट्रÓ का विकल्प भी चाहिए। बेनजीर ने परेशान होकर मुझसे कहा कि 'द थर्ड आप्शन इज़ रुल्ड आउटÓ। आपकी-हमारी बातचीत 'आफ द रिकार्डÓ रखिएगा। कश्मीरी आंदोलनकारियों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि तीसरे विकल्प पर पाकिस्तानी सरकार की आधिकारिक राय क्या है?
उस राय को अब इमरान खान ने उलट ही नहीं दिया है बल्कि उसे सबके सामने प्रकट भी कर दिया है। हो सकता है कि इसका फायदा वे कश्मीरी चुनाव में उठा ले जाएं लेकिन पाकिस्तान की फौज और जनता तो उससे कतई सहमत नहीं हो सकती। इमरान खान ने एक नई मुसीबत मोल ले ली है। वे प्रधानमंत्री तो बन गए हैं लेकिन उनका खिलाड़ीपन ज्यों का त्यों कायम है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तराखंड की सरकार ने हरिद्वार में चल रहे बूचड़खानों पर रोक लगा दी थी। वहां के उच्च न्यायालय ने इस रोक को अवैध घोषित कर दिया है। उसका फैसला यह है कि जिन्होंने रोक की अर्जी लगाई थी, उनका तर्क गलत था लेकिन उनकी बात सही है। याचिकाकर्ताओं का तर्क यह था कि बूचडख़ानों पर रोक लगने से हरिद्वार के मुसलमानों के अधिकारों का हनन होता है, क्योंकि वे मांसाहारी हैं। यह मामला अल्पसंख्यकों के साथ होनेवाले अन्याय का है। अदालत ने इस तर्क को रद्द कर दिया है। उसने कहा है कि उत्तराखंड के 72 प्रतिशत लोग, जिनमें हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई भी शामिल हैं, मांसाहारी हैं। इसलिए यह अल्पसंख्यकों का मामला ही नहीं है।
यह मामला मानव अधिकार का है। हर व्यक्ति का अपना अधिकार है कि अपना खाना वह क्या खाएगा, यह वह खुद तय करे। अदालत या सरकार को क्या अधिकार है कि वह किन्हीं लोगों को मांसाहार या शाकाहार करने से मना करे। अदालत का यह फैसला कानूनी हिसाब से तो बिल्कुल ठीक है लेकिन इस मुद्दे से जुड़े दो तर्क हैं, जिन पर गौर किया जा सकता है। एक तो हरिद्वार को हिंदुओं का अति पवित्र स्थल माना जाता है। इसलिए वहां बूचडख़ाने बंद किए जाएं, यह मांग स्वाभाविक लगती है। यदि वहां मांस नहीं बिकेगा तो गाय और सूअर, भेड़, बकरी का भी नहीं बिकेगा। याने मुसलमानों को परेशानी होगी तो मांसाहारी हिंदुओं को भी परेशानी होगी। अर्थात यह कदम सांप्रदायिक नहीं है।
दूसरी बात यह है कि इन व्यक्तिगत मामलों में कानूनी दखलंदाजी बिल्कुल गलत है लेकिन इस बुनियादी सवाल पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या मांसाहार मनुष्यों के लिए स्वास्थ्यप्रद है? दुनिया के सभी वैज्ञानिकों ने माना है कि आदमी की आंत और उसके दांत मांसाहार के लिए बने ही नहीं हैं। अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए शाकाहार ही सर्वोत्तम है। किसी भी धर्मग्रंथ- बाइबिल, कुरान, जिंदावस्ता, गुरुग्रंथ साहब, वेद और पुराण में यह नहीं लिखा है कि जो मांस नहीं खाएगा, वह घटिया यहूदी या घटिया ईसाई या घटिया मुसलमान या घटिया सिख या घटिया हिंदू कहलाएगा। जहां तक कुर्बानी का सवाल है, असली कुर्बानी तो अपने प्रिय बेटों की होती है लेकिन पशुओं की फर्जी कुर्बानी करनेवालों के लिए यह जरुरी नहीं है कि वे कुर्बानी का मांस खाएं ही। मांसाहार विश्व की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण की दृष्टि से भी बहुत हानिकर है। जो लोग अपनी खान-पान की परंपरा को भी तर्क और विज्ञान की तुला पर तोल सकते हैं, वे स्वत: अपने आप को मांसाहार से मुक्त करते जा रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
माखनलाल चतुर्वेदी जैसा मेधावी शिष्य माधवराव सप्रे जैसे प्रतिभाशाली गुरु की खोज थे। खंडवा से बुलाकर उन्होंने ही जबलपुर में " कर्मवीर ” पत्र के संपादन का गुरूतर भार सौंपा था।
योग्य गुरु ने माखनलाल चतुर्वेदी के भीतर छिपी हुई प्रतिभा को पहचान लिया था।
माधवराव सप्रे के अंतिम दिनों तक गुरु और शिष्य का साथ बना रहा। दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे।
माधवराव सप्रे के निधन के पश्चात माखनलाल चतुर्वेदी ने मई 1926 में अपने गुरु पर एक मार्मिक कविता लिखी है। यह कविता आज गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु और शिष्य का पुण्य स्मरण करते हुए प्रस्तुत है :
कहाँ चले? क्या अपने मठ का पथ भूले हो? कहाँ चले?
कहाँ चले? संयम का जीवन-
रथ भूले हो? कहाँ चले?
कहाँ चले? क्या वहाँ राष्ट्र भाषा का हित है? कहाँ चले?
कहाँ चले? रे तपी बता क्या स्वप्रोत्थित है? कहाँ चले?
क्या सम्मेलन है कोई? क्या 'शास्त्री' ने बुलवाया है
या नर्मदा तीर से तुझको बता बुलावा आया है?
श्वेत केश ही काफी है, तू-पुतली मत कर श्वेत सखे !
हरियाले दिन की आशा को मत अभाव से रेत सखे।
कष्टों का रथ काफी है, मत वीर 'रथी' अपनावे तू
उत्तरा खंड में चलो चलें इस दशा भूल मत जावे तू।
जो अपनी भूमि जगाने को सहसा नंगे पैरों दौड़ा,
आहा ! नंगे ही पावों यों पथ नहीं मृत्यु का भी छोड़ा !
"विश्राम कर्म को कहते हैं" यह कहाँ सुनाई पड़े कहो ?
"भगवान कर्म में रहते हैं " क्यों कर दिखलाई पड़े कहो?
चल बस, कर्म करते-करते रे राष्ट्र-धुरीण कर्मयोगी!
निन्दा झिड़की, अपमान, द्वेष, सप्रेम महान् कष्टभोगी!
अपनों ही के होते अपार तुझ पर प्रहार थे 'कभी-कभी'
हम तेरा गर्व गिराते थे ऐसे उदार थे कभी-कभी!
"मैं विद्यार्थी हूँ" पढ़ो तुम्हारे कष्ट हटाये जायेंगे,
"मैं रोगी, भाषा-सेवी हूँ" सेवा अवश्य ही पावेंगे,
"मैं भावों का दीवाना हूँ" बस मातृभूमि पर चढ़ जाओ,
"लेखनी लिये हूँ" क्रान्ति करो, लिख चलो, युद्ध में बढ़ जाओ;
लाओ जागृति के चरणों में युवकों के शीश चढ़ा डालूँ,
थैलियाँ हजारों माता पर- हँस कर बरबाद करा डालूँ।
बेकार तुम्हारा जाना है है, 'नारायण'' नेत्रों आगे,
तुम तज 'अनन्त' को, यो अनन्त के पथ में क्यों चर अनुरागे?
बलि का शिर सहसा झुके- जहाँ, वह 'वामन' का अवतार यहाँ
रवि - रश्मि नसा दे अन्धकार है वह प्यारा व्यापार यहाँ।
गणपति', शंकर, हैं सेवा में बलि हो जायेंगे
यही रहो इस रुदन मालिका को, कुंठित हैं, क्या शीर्षक दें तुम्हीं कहो?
जिसके लेने से जगते थे जागृति का पावन नाम चला,
फल की आशा को ठुकराये उन्मुक्त मुक्ति धन काम चला!
आत्माभिमान की बेदी का पिछड़े प्रदेश का दाम चला
सब बोल उठे 'जयराम' और दुखियों से अपना राम चला!'
यह नाम चला, यह काम चला यह दाम चला, यह राम चला!
साहित्य कोकिला कहाँ रमें? अपना अभिमत आराम चला!
ना, ना, मत आग लगाओ, हा, लग जायेगी यह लाखों में!
क्यों देते हो तुम 'दाग', दाग? पड़ जाय कहीं मत आँखों में!
क्या मुट्ठी भर हड्डियाँ? नहीं, ये अभिलाषाएँ राख हुई !
गलियाँ कल तक हरियाली थीं सहसा अब वे वैषाख हुई !
मत छेड़ो, जी भर रोने दो, मत रोको अन्तरतम खोलो ;
बस करुण कंठ से एक बार दृढ़ हो, माधव माधव !! बोलो।
वह मूर्ति कर्म में जीती थी हो परम शान्त प्रस्थान किया.
अगणित अनुनय बेकार हुए निष्ठुर हरि ने कब ध्यान दिया !
दुनियाँ की आँखमिचौनी से वे दोनों आँखें बन्द हुई,
बन्धन ठुकराकर, तपोमयी वह आत्मा अब स्वच्छंद हुई
किन्तु प्रेम के अंतस्तल में उलझा उसका काम
स्मृतियों के एकांत देश में लिखा मधुर वह नाम।
अन्तर्धान हुए, पर, सूरत-अभी दृष्टि आती है,
अन्तक हार गया, ध्वनि प्यारी अभी सुनी जाती है।
भुजा न पहुँचे, हृदय चरण तक अभी पहुँच पाता है
खुलने पर मत रहे, बन्द आँखों में आ जाता है!
शोक तरंगिणि में मत छूटे, सहसा मेरा धीर,
सिसक बन्द हो, धुल मत जाये, यह उज्ज्वल तसवीर।
देख न पाये श्रद्धास्पद् वह तेरा देश-निकाला,
देख न पाये, खारूं के तट जलने वाली ज्वाला;
देख न पाये मनसूबों की कैसी थी वह धूल,
देख न पाये, जल जाने पर कैसे थे वे फूल !
देख न पाये मधुर वेदना जीवित है पछताना,
कह न सके "अलविदा-" लौट कर इसी भूमि पर आना?
जिन हाथों पुष्पांजलियाँ थीं उन हाथों हैं ज्वाला,
और कपाल-क्रिया करने को है प्रहार का प्याला!
गा देता था, हँसते देखा मैंने कभी श्मशान,
किन्तु आज नीरस वंशी है नहीं लौटते प्राण।
करुणा बढ़ती है. री मुरली री अगणित अघ-छिद्रा !
हा!हा!! माधव की बढ़ती है यह अपार चिरनिद्रा !
किस मुँह से लौटू अपनों में? क्या सन्देश सुनाऊँ?
बलियों के वे गीत आज मैं किसके स्वर में गाऊँ?
कैसे धन को शील सिखाऊँ?
गुण को धीर बँधाऊँ?
कुटी और महलों तक कैसे हृदय-ज्योति पहुँचाऊँ?
किसको दूनी लगन लगेगी घावों के पाने पर,
और कौन हुंकार उठेगा आँसू आ जाने पर ?
मित्र बना, छत्तीसोगढ़ में कौन प्रकाशन करेगा.
'दास-बोध' में कौन शिवाजी पाने को उतरेगा?
'भारतीय युद्धों का किसको आवेगा उन्माद?
विजय प्राप्ति में किसको आवेगा दिन दूना स्वाद
कौन लोकमान्यत्व लायँगे केसरि हों गरजेंगे
लख 'हिन्दी- गीता रहस्य किस पर लाखों लरजेंगे?
किसे न छू पायेगा अपनी विद्या का अभिमान ?
अपनी मृत्यु कौन देखेगा जीते जी मतिमान ?
किसे करेगी विकल राष्ट्रभाषा की एक पुकार?
टूटे हृदय कौन जोड़ेगा-झुककर अगणित बार!
किसे दिखाई देंगे छोटे-राष्ट्र-हितैषी जीव?
कौन भोग से अधिक-त्याग में तत्पर रहे अतीव?
आगे आने वाली घड़ियाँ किसे दीख जायेंगी?
सम्मानों की राशि कहाँ निश्चित ठोकर पायेंगी?
कहाँ आप्त जन पर बरसेगा गुरुजन का सम्मान ?
कहाँ 'घात का बदला होगा प्रेम और सम्मान ?
किसे कुमारी से हिमगिरि तक 'महाराष्ट्र' दीखेगा?
कौन तपस्वी, घोर तपस्या यों किससे सीखेगा?
किसमें शत्रु वीर श्री पायेंगे: अपने अपना सा?
कौन बधिक के निश्चय को कर डालेगा सपना-सा ?
चढ़ जावेगा कौन अभय हो अपनों के चरणों पर?
अंजलियाँ अर्पित होवेंगी किसके आचरणों पर?
किसे वेदना होगी सबको हिला-मिला देने की?
अपने ही शिर, आप स्वयं एकान्तवास लेने की ?
अहह ! बिना बादल बिजली गिर पड़ी निठुर व्यापार हुआ!
मृत्यु द्वार खुल पड़ा, हाय! यह महँगा देशोद्धार हुआ।
विमल विजय सानी गीता का वीर गान गाते-गाते.
"मैं न मरूँगा अभी" यही ध्वनि अंतिम पल तक गुंजाते;
विकल रायपुर, आकुल परिजन मध्यप्रदेश श्मशान हुआ,
दीन राष्ट्रभाषा चीत्कारी! माधव का प्रस्थान हुआ !
अगले रविवार पिंगलाचार्य जगन्नाथ प्रसाद ’भानु’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी के सबसे बड़े और सबसे प्रामाणिक अखबार, भास्कर, पर छापों की खबर ने देश के करोड़ों पाठकों और हजारों पत्रकारों को हतप्रभ कर दिया है। जो नेता और पत्रकार भाजपा और मोदी के भक्त हैं, वे भी सन्न रह गए। ये छापे मारकर क्या सरकार ने खुद का भला किया है या अपनी छवि चमकाई है ? नहीं, उल्टा ही हुआ है। एक तो पेगासस से जासूसी के मामले में सरकार की बदनामी पहले से हो रही है और अब लोकतंत्र के चौथे खंभे खबरपालिका पर हमला करके सरकार ने नई मुसीबत मोल ले ली है। देश के सभी निष्पक्ष अखबार, पत्रकार और टीवी चैनल इस हमले से परेशान हैं।
सरकारी सूत्रों का कहना है कि सरकार ने 'भास्करÓ पर छापे इसलिए मारे हैं कि उसने अपनी अकूत संपत्तियों को विदेशों में छिपा रखा है ताकि उसे आयकर न देना पड़े। इसके अलावा उसने पत्रकारिता के अलावा कई धंधे चला रखे हैं। उन सबकी अनियमितता को अब सप्रमाण पकड़ा जाएगा। यदि ऐसा है तो यहां सरकार से मेरे तीन सवाल हैं। पहला, ये छापे अभी ही क्यों डाले गए? पिछले 6-7 साल से मोदी सरकार क्या सो रही थी ? अभी ही उसकी नींद क्यों खुली? उसका कारण क्या है? दूसरा, यह छापा सिर्फ भास्कर पर ही क्यों डाला गया? क्या देश के सारे नेतागण, व्यापारी और व्यवसायी वित्तीय-कानूनों का पूर्ण पालन कर रहे हैं? क्या देश के अन्य बड़े अखबार और टीवी चैनलों पर भी इस तरह के छापे डाले जाएंगे? तीसरा, अखबार के मालिकों के साथ-साथ संपादकों और रिपोर्टरों के भी फोन जब्त क्यों किए गए?
उन्हें दफ्तरों में लंबे समय तक बंधक बनाकर क्यों रखा गया? उन्हें डराने और अपमानित करने का उद्देश्य क्या था? इन छापों का एकमात्र उद्देश्य है, स्वतंत्र पत्रकारिता के घुटने तोडऩा। भास्कर देश का सबसे लोकप्रिय और शक्तिशाली अखबार इसीलिए बन गया है कि वह निष्पक्ष है और प्रामाणिक है। यदि उसने कोरोना के दौरान सरकारों की लापरवाहियों को उजागर किया है तो ऐसा करके उसने सरकार का भला ही किया है। उसने उसे सावधान करके सेवा के लिए प्रेरित ही किया है। यदि उसने गुजरात की भाजपा सरकार की पोल खोली है तो उसने राजस्थान की कांग्रेस सरकार को भी नहीं बख्शा है। भास्कर के पत्रकार और मालिक अपनी प्रखर पत्रकारिता के लिए विशेष सम्मान के पात्र हैं।
संत कबीर के शब्दों में 'निदंक नियरे राखिए, आंगन-कुटी छबायÓ! भास्कर के साथ उल्टा हुआ। भाजपा सरकारों ने उसे विज्ञापन देने बंद कर दिए। मैं भास्कर को सरकार का अंध विरोधी या अंध-समर्थक अखबार नहीं मानता हूं। पिछले 40 साल से मेरे लेख भास्कर में नियमित रुप से छप रहे हैं लेकिन आज तक किसी संपादक ने एक बार भी मुझसे नहीं कहा कि आप सरकार की किसी नीति का समर्थन या विरोध क्यों कर रहे हैं। भास्कर में यदि कांग्रेस के बुद्धिजीवी नेताओं के लेख छपते हैं तो भाजपा के नेताओं को भी उचित स्थान मिलता है। भास्कर पर डाले गए इस सरकारी छापे से सरकार को नुकसान और भास्कर को फायदा ही होगा। भास्कर की पाठक-संख्या में अपूर्व वृद्धि हो सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
डाॅ. परिवेश मिश्रा
सर आईज़ैक न्यूटन के साथ जुड़ी सेव गिरने की कहानी हम सब सुनते आये हैं। वही थोड़ी और.....
सेव न्यूटन के सिर पर गिरा कि नहीं यह तो कहानियां स्पष्ट नहीं करती किन्तु सेव के गिरने के कारण विचारों की श्रृंखला चल निकली, यह न्यूटन को उद्धृत करते हुए उनके मित्र ने पुस्तक में लिखा है।
सेव सीधा नीचे ज़मीन की ओर क्यों गिरा? दायीं या बायीं ओर या ऊपर क्यों नहीं गिरा? इन सब प्रश्नों की खाल उधेड़कर पृथ्वी के "गुरुत्वाकर्षण के नियम" प्रतिपादित करने का अवसर प्लेग की महामारी ने दिया था।
स्कूली पढ़ाई में आये व्यवधानों के चलते सन् 1661 में स्वाभाव से अंतर्मुखी और एकांत में किताबें पढ़ने के शौकीन उन्नीस वर्षीय, आईज़ैक न्यूटन जब कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी काॅलेज पहुंचे तो दूसरे छात्रों की तुलना में उम्र अधिक थी। (संयोगवश, यह वही काॅलेज है जहां आगे चलकर अमर्त्य सेन जैसे शिक्षक और डाॅ. मनमोहन सिंह जैसे विद्यार्थी हुए)।
1665 में इंग्लैंड में फैली प्लेग की महामारी के कारण कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी को बन्द कर दिया गया था। शिक्षण संस्थाएं दो वर्ष तक बंद रहीं। विद्यार्थी अपने अपने घरों को लोट गये और अपनी अपनी पसंद के अनुसार समय व्यतीत करने लगे।
न्यूटन के लिए यह अवसर था पुस्तकों के साथ बगीचे में वृक्षों के नीचे अध्ययन-मनन के अपने पुराने शौक की ओर लौटने का।
मानव जाति इस बात की सदा ऋणी रहेगी की उन दिनों "ऑनलाइन शिक्षा", मोबाईल और टेलीविज़न अस्तित्व में नहीं थे और न्यूटन को महामारी के दौरान "वर्क फ्राॅम होम" के अवसर का भरपूर फायदा उठाने में किसी अवरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
कहानी एक तरह से यहां पूरी हो जाती है। फिर भी आगे पढ़ना चाहें तो.......
..........1643 में इंग्लैंड के एक गांव में जन्म होने से पहले ही इन्होने पिता को खो दिया था। दो वर्ष होते तक मां ने दूसरा विवाह कर लिया और बच्चे को नानी के पास दूसरे गांव भेज दिया था। अगले आठ साल बाद मां के दूसरे पति की भी मृत्यु हो गयी। दूसरे पति की ज़मीन ज़ायदाद न्यूटन की मां को मिली। इसे संभालने की जिम्मेदारी दे कर मां ने न्यूटन को पास बुला लिया। किन्तु तब तक गुमसुम और अपनी ही उधेड़बुन में रहना बालक का स्वाभाव बन चुका था। इन्हे मवेशियों को चराने का जिम्मा मिला लेकिन ये जनाब मवेशियों की सुध छोड़ किसी वृक्ष के नीचे पुस्तक पढ़ने में लीन पाये जाते।
गांव के सयानों ने मां को समझाया, जोकि वैसे भी स्पष्ट था, - जो काम न्यूटन को सौंपा गया है उसके लिए वे अनुपयुक्त हैं। उन्हे पढ़ने के लिए एक बार फिर गांव के स्कूल भेज दिया गया। व्यवधानों के बीच स्कूली शिक्षा पूरी हुई। किन्तु इस बीच मवेशियों के बहाने जो घंटों पेड़ों के नीचे बैठकर पुस्तकों में लीन रहने की आदत पड़ी वह आगे चलकर मानव इतिहास में विज्ञान की क्रांति को आगे बढ़ाने में बड़ी सहायक बनी।
डाॅ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ (छत्तीसगढ)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के बारे में बात करने के लिए हमारे विदेश मंत्री पिछले दो-तीन सप्ताहों में कई देशों की यात्रा कर चुके हैं लेकिन अभी तक उन्हें कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है लेकिन अगले एक सप्ताह में दो विदेशी मेहमान दिल्ली आ रहे हैं— अफगान सेनापति और संयुक्तराष्ट्र संघ महासभा के नए अध्यक्ष! यदि हमारे नेतागण इन दोनों से कुछ काम की बात कर सकें तो अफगान-संकट का हल निकल सकता है। अफगानिस्तान के सेनापति जनरल वली मोहम्मद अहमदजई चाहेंगे कि तालिबान का मुकाबला करने के लिए भारतीय फौजों को हम काबुल भेज दें।
जाहिर है कि इसी तरह का प्रस्ताव प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने 1981 में जब मेरे सामने रखा था तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से पहले ही पूछकर मैंने उन्हें असमर्थता जता दी थी। नजीबुल्लाह के राष्ट्रपति-काल में भारत ने अफगान फौजियों को प्रशिक्षण और साज-ओ-सामान की मदद जरुर दी थी। अब भी पाकिस्तानी मीडिया में प्रचार हो रहा है कि भारत अपनी मशीनगनें गुपचुप काबुल भिजवा रहा है। भारत अपनी फौज और हथियार काबुल भेजे, उससे भी बेहतर तरीका यह है कि वह अफगानिस्तान में संयुक्तराष्ट्र की शांति-सेना को भिजवाने की पहल करे।
इस पहल का सुनहरा अवसर उसके हाथ में ही है। इस समय संयुक्तराष्ट्र महासभा का अध्यक्ष मालदीव को चुना गया है। वह भारत की पहल और मदद से ही वहां तक पहुंचा है। संयुक्तराष्ट्र महासभा के नव-निर्वाचित अध्यक्ष मालदीवी विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद भी दिल्ली आ रहे हैं। महासभा के अध्यक्ष के नाते वे काबुल में शांति-सेना का प्रस्ताव क्यों नहीं पारित करवाएं? उस प्रस्ताव का विरोध कोई नहीं कर सकता। यदि वह सं.रा. महासभा में सर्वसम्मति या बहुमत से पारित हो गया तो सुरक्षा परिषद में उसके विरुद्ध कोई देश वीटो नहीं करेगा। चीन पर शक था कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए वह 'शांति-सेनाÓ का विरोध कर सकता है लेकिन पाकिस्तान खुद अफगान गृह-युद्ध से घबराया हुआ है और चीन ने भी ईद के दिन तालिबानी बम-वर्षा की निंदा की है।
भारत की यह पहल तालिबान-विरोधी नहीं है। भारत के इस प्रस्ताव के मुताबिक शांति-सेना रखने के साल भर बाद अफगानिस्तान में निष्पक्ष आम चुनाव करवाए जा सकते हैं। उसमें जो भी जीते, चाहे तालिबान ही, अपनी सरकार बना सकते हैं। संयुक्तराष्ट्र की शांति सेना में यदि अफगानिस्तान के पड़ौसी देशों की फौजों को न रखना हो तो बेहतर होगा कि यूरोपीय और अफ्रीकी देशों के फौजियों को भिजवा दिया जाए। अफगानिस्तान की दोनों पार्टियों तालिबान और सरकार से अमेरिका, रुस, चीन, तुर्की और ईरान भी बात कर रहे हैं लेकिन भारत का तालिबान से सीधा संवाद क्यों नहीं हो रहा है? भारतीय विदेशनीति की यह अपंगता आश्चर्यजनक है। वह दोनों को क्यों नहीं साध रही है? इस अपंगता से मुक्त होने का यही समय है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकारी जासूसी को लेकर आजकल भारत और दुनिया के कई देशों में जबर्दस्त हंगामा मच रहा है। पेगासस के संयंत्र से जैसी जासूसी आजकल होती है, वैसी जासूसी की कल्पना आचार्य कौटिल्य और निकोला मेकियाविली (इतालवी चाणक्य) कर ही नहीं सकते थे। उन दिनों न टेलिफोन होते थे और न केमरे। मोबाइल फोन और कंप्यूटर की तो कल्पना भी नहीं थी। लेकिन जासूसी होती थी और बाकायदा होती थी। कई-कई तरीकों से होती थी। जिनकी जासूसी होती थी, उनके पीछे लोगों को दौड़ाया जाता था, उनकी बातों को चोरी-छिपे सुना जाता था, उनके घरेलू नौकरों को पटाया जाता था, उन्हें फुसलाने के लिए वेश्याओं का इस्तेमाल भी किया जाता था लेकिन आजकल जासूसी करना बहुत आसान हो गया है।
जिसकी जासूसी करना हो, उसके कमरे में, उसके कपड़ों पर या उसकी चीजों पर माइक्रोचिप फिट कर दीजिए। आपको सब-कुछ मालूम पड़ जाएगा। टेलिफोन को टेप करने की प्रथा तो सभी देशों में उपलब्ध है लेकिन आजकल मोबाइल फोन सबका प्राणप्रिय साधन बन गया है। वह चौबीसों घंटे साथ रहता है। माना जाता था कि जो कुछ व्हाट्साप पर बोला जाता है, वह टेप नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार ई-मेल की कुछ सेवाओं के बारे में ऐसा ही विश्वास था लेकिन अब इस्राइल पेगासस-कांड ने यह भ्रम भी दूर कर दिया है। जो कुछ सेटेलाइट और सूक्ष्म केमरों से रिकार्ड किया जा सकता है, उससे भी ज्यादा पेगासस- जैसे संयंत्रों से किया जा सकता है।
पेगासस को लेकर दुनिया के दर्जनों देश आजकल परेशान हैं। कई राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी इसकी पकड़ में जकड़ गए हैं। उनकी गोपनीय गतिविधियां और एकदम निजी जिंदगी भी उजागर हो गई हैं। अब से 52 साल पहले जब मैं पहली बार विदेश गया तो हमारे राजदूत ने पहले ही दिन जासूसी से बचने की सावधानियां मुझे बताईं। अपनी दर्जनों विदेश-यात्राओं में मुझे जासूसी का सामना करना पड़ा। अमेरिका, रूस, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में एक से एक मजेदार और हास्यास्पद अनुभव हुए। मेरे घर आनेवाले विदेशी नेताओं और राजदूतों पर होनेवाली जासूसी भी हमने देखी। विदेशी सरकारें हम पर जासूसी करें, यह तो समझ में आता है लेकिन हमारी अपनी सरकारें जब यह करती हैं तो लगता है कि या तो वे बहुत डरी हुई हैं या फिर वे लोगों को डरा-धमकाकर अपनी दादागीरी कायम करना चाहती हैं। ऐसा करना नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन है। लेकिन यदि जासूसी सघन और सर्वव्यापक हो जाए तो उसका एक फायदा शायद यह भी हो जाए कि जो लोग चोरी छुपे गलत काम करते हैं वे वैसा करना बंद कर दें। उन्हें पता रहेगा कि उनका कोई गलत काम, अनैतिक या अवैधानिक, अब छिपा नहीं रह पाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विजय शंकर सिंह
दुनियाभर के देशों ने पेगासस जासूसी के खुलासे पर अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दिया है, पर भारत इसे विपक्ष की साजि़श बता कर इस जासूसी के खिलाफ अभी कुछ नहीं कर रहा है। क्या जांच की आँच सरकार को झुलसा सकती है या सरकार फिर एक बार शुतुरमुर्गी दांव आजमा रही है।
- फ्रांस ने न्यूज़ वेबसाइट मीडियापार्ट की शिकायत के बाद पेगासस जासूसी की जाँच शुरू कर दिया है।
- अमेरिका में बाइडेन प्रशासन ने पेगासस जासूसी की निंदा की है।
- व्हाट्सएप प्रमुख ने सरकारों व कंपनियों से आपराधिक कृत्य के लिए पेगासस निर्माता एनएसओ पर कार्रवाई की मांग की।
- अमेजन ने एनएसओ से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और अकाउंट बंद किया।
- मैक्सिको ने कहा है कि, एनएसओ से किए गए पिछली सरकार के कॉन्ट्रैक्ट रद्द होंगे।
- भारत इसे विपक्ष की साजिश बता रहा है !
फ्रांसीसी अखबार ला मोंड ने लिखा है कि नरेंद्र मोदी जब जुलाई 2017 में इजरायल गये थे, तब वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति बेंजामिन नेतान्याहू से उनकी लंबी मुलाकात हुई थी। इसके बाद पेगासस स्पाईवेयर का भारत में इस्तेमाल शुरू हुआ, जो आतंकवाद और अपराध से लडऩे के लिए 70 लाख डॉलर में खरीदा गया था। पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहा है कि दुनिया के 45 से ज़्यादा देशों में इसका इस्तेमाल होता है, फिर भारत पर ही निशाना क्यों ?
जैसा खुलासा हो रहा है, सरकार ने पेगासस का इस्तेमाल सिर्फ अपने ही लोगों पर नहीं, बल्कि चीन, नेपाल, पाकिस्तान, ब्रिटेन के उच्चायोगों और अमेरिका की सीडीसी के दो कर्मचारियों की जासूसी तक में किया है। द हिन्दू अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने कई राजनयिकों और विदेश के एनजीओ के कर्मचारियों की भी जासूसी की है।
पेगासस एक व्यावसायिक कम्पनी है जो पेगासस स्पाइवेयर बना कर उसे सरकारों को बेचती है। इसकी कुछ शर्तें होती हैं और कुछ प्रतिबंध भी। जासूसी करने की यह तकनीक इतनी महंगी है कि इसे सरकारें ही खरीद सकती हैं। यह स्पाइवेयर आतंकी घटनाओं को रोकने के लिये आतंकी समूहों की निगरानी के लिए बनाया गया है। सरकार ने यदि यह स्पाइवेयर खरीदा है तो उसे इसका इस्तेमाल आतंकी संगठनों की गतिविधियों की निगरानी के लिये करना चाहिए था। पर इस खुलासे में निगरानी में रखे गए नाम, जो विपक्षी नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों, पत्रकारों, और अन्य लोगों के हैं उसे सरकार को स्पष्ट करना चाहिए।
अगर सरकार ने यह स्पाइवेयर नहीं खरीदा है और न ही उसने निगरानी की है तो, फिर इन लोगों की निगरानी किसने की है और किस उद्देश्य से की है, यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। अगर किसी विदेशी एजेंसी ने यह निगरानी की है तो यह मामला और भी संवेदनशील और चिंतित करने वाला है। सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि,
- 0 उसने पेगासस स्पाइवेयर खरीदा या नहीं खरीदा।
- यदि खरीदा है तो क्या इस स्पाइवेयर से विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों और कर्मचारियों की निगरानी की गयी है ?
- यदि निगरानी की गई है तो क्या सरकार के पास उनके निगरानी के पर्याप्त कारण थे ?
- यदि सरकार ने उनकी निगरानी नहीं की है तो फिर उनकी निगरानी किसने की है ?
- यदि यह खुलासे किसी षडयंत्र के अंतर्गत सरकार को अस्थिर करने के लिये, जैसा कि सरकार कह रही है, किये जा रहे हैं, तो सरकार जो इसका मजबूती से प्रतिवाद करना चाहिए।
पेगासस का लाइसेंस अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत मिलता है और इसका इस्तेमाल आतंकवाद से लडऩे के लिये आतंकी संगठन की खुफिया जानकारियों पर नजऱ रख कर उनका संजाल तोडऩे के लिये किया जाता है। पर मोदी सरकार ने इन नियमों के विरुद्ध जाकर, पत्रकार, विपक्ष के नेता और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ अपने निहित राजनीतिक उद्देश्यों के लिये किया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की भी निगरानी की बात सामने आ रही है।
नियम और शर्तों के उल्लंघन पर पेगासस की कंपनी एनएसओ भारत सरकार से स्पाईवेयर का लाइसेंस रद्द भी कर सकती है। क्योंकि, राजनयिकों और उच्चायोगों की जासूसी अंतरराष्ट्रीय परम्पराओ का उल्लंघन है और एक अपराध भी है । अब वैश्विक बिरादरी, इस खुलासे पर सरकारों के खिलाफ क्या कार्यवाही करती है, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा। फ्रांस की सरकार ने इस खुलासे पर अपने यहां जांच बिठा दिया है।
सरकार फोन टेप करती हैं, उन्हें सुनती हैं, सर्विलांस पर भी रखती है, फिजिकली भी जासूसी कराती हैं, यह सब सरकार के काम के अंग है। इसीलिए इंटेलिजेंस ब्यूरो, रॉ, अभिसूचना विभाग जैसे खुफिया संगठन बनाये गए हैं और इनको अच्छा खासा धन भी सीक्रेट मनी के नाम पर मिलता है। पर यह जासूसी, या अभिसूचना संकलन, किसी देशविरोधी या आपराधिक गतिविधियों की सूचना पर होती है और यह सरकार के ही बनाये नियमों के अंतर्गत होती है। राज्य हित के लिए की गई निगरानी और सत्ता हित के लिये किये गए निगरानी में अंतर है। इस अंतर के ही परिपेक्ष्य में सरकार को अपनी बात देश के सामने स्पष्टता से रखनी होगी।
पेगासस जासूसी यदि सरकार ने अपनी जानकारी में देशविरोधी गतिविधियों और आपराधिक कृत्यों के खुलासे के उद्देश्य से किया है तो, उसे यह बात संसद में स्वीकार करनी चाहिए। यदि यह जासूसी, सत्ता बनाये रखने, ब्लैकमेलिंग और डराने के उद्देश्य से की गयी है तो यह एक अपराध है। सरकार को संयुक्त संसदीय समिति गठित कर के इस प्रकरण की जांच करा लेनी चाहिए। जांच से भागने पर कदाचार का संदेह और अधिक मजबूत होगा। सबसे हैरानी की बात है सुप्रीम कोर्ट के जजों की निगरानी। इसका क्या उद्देश्य है, इसे राफेल और जज लोया से जुड़े मुकदमों के दौरान अदालत के फैसले से समझा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के जज और सीजेआई पर महिला उत्पीडऩ का आरोप लगाने वाली सुप्रीम कोर्ट की क्लर्क और उससे जुड़े कुछ लोगों की जासूसी पर सुप्रीम कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेकर एक न्यायिक जांच अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच करानी चाहिए।
भारत सहित दुनियाभर में पेगासस स्पाईवेयर एक बार फिर चर्चा में हैं। इसराइल की सर्विलांस कंपनी एनएसओ ग्रुप के सॉफ्टवेयर पेगासस का इस्तेमाल कर कई पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नेताओं, मंत्रियों और सरकारी अधिकारियों के फोन की जासूसी करने का दावा किया जा रहा है।
50 हजार नंबरों के एक बड़े डेटा बेस के लीक की पड़ताल द गार्डियन, वॉशिंगटन पोस्ट, द वायर, फ्रंटलाइन, रेडियो फ्रांस जैसे 16 मीडिया संस्थानों के पत्रकारों ने की।
एनएसओ समूह की ओर से ये साफ कहा जा चुका है कि कंपनी अपने सॉफ्टवेयर अलग-अलग देश की सरकारों को ही बेचती है और इस सॉफ्टवेयर को अपराधियों और आतंकवादियों को ट्रैक करने के उद्देश्य से बनाया गया है।
पेरिस के एक गैर-लाभकारी मीडिया संगठन फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल को 50 हजार फोन नंबरों का डेटा मिला और इन दोनों संस्थाओं ने दुनिया की 16 मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर रिपोर्टरों का एक समूह बनाया जिसने इस डेटा बेस के नबंरों की पड़ताल की।
इस पड़ताल को ‘पेगासस प्रोजेक्ट’ का नाम दिया गया है। दावा किया जा रहा है कि ये 50 हजार नंबर एनएसओ कंपनी के क्लाइंट (कई देशों की सरकारें) ने पेगासस सिस्टम को उपलब्ध कराए हैं। ये डेटा बेस साल 2016 से लेकर अब तक का बताया जा रहा है।
हालांकि जिन 50 हजार नंबरों का डेटा लीक हुआ है वो सभी नंबर पेगासस से हैक किए गए या हैकिंग की कोशिशों का शिकार हुए, ये निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
कोई डिवाइस पेगासस का शिकार हुआ है या नहीं, इसका सटीक जवाब डिवाइस की फोरेंसिक जांच के बाद ही पता लगाया जा सकता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल की टेक लैब ने 67 डिवाइसों की फोरेंसिक जांच की है और पाया कि 37 फोन पेगासस का शिकार हुए थे। इनमें से 10 डिवाइस भारत के थे।
फॉरबिडेन स्टोरीज का पक्ष
फॉरबिडन स्टोरीज के संस्थापक लॉरें रिचर्ड ने बीबीसी के शशांक चौहान से फोन पर बातचीत में कहा, ‘दुनिया भर के सैकड़ों पत्रकार और मानवाधिकारों के समर्थक इस सर्विलेंस के शिकार हैं, यह दिखाता है कि दुनिया भर में लोकतंत्र पर हमला हो रहा है।’
‘हमें बहुत सारे फोन नंबरों की सूची मिली थी, हम ये पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि यह सूची आखिर कहाँ से निकाली गई है। इस लिस्ट में जितने नंबर हैं उनका ये मतलब नहीं है कि वे सभी नंबर हैक किए गए हैं। हमें एमनेस्टी इंटरनेशनल की मदद से पता लगा कि इनमें से कुछ नंबरों की निगरानी एनएसओ (पेगासस बनाने वाली इसराइली कंपनी) कर रहा था।’
उन्होंने कहा, ‘पेगासस स्पाईवेयर को इस मामले में हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया है, आने वाले हफ्तों में बहुत सारी दमदार रिपोर्टें और कई तरह के लोगों के नाम सामने आएँगे।’
10 देशों में यूएई और सऊदी के साथ भारत का नाम
पेगासस प्रोजेक्ट में कथित तौर पर 1571 नंबर किसके हैं, इसकी जांच की गई है। दावा के मुताबिक जांच में सामने आया है कि 10 देश एनएसओ के ग्राहक हैं जो सिस्टम में ये नंबर डाल रहे थे। इन देशों के नाम है- भारत, अजरबैजान, बहरीन, कजाकिस्तान, मैक्सिको, मोरक्को, रवांडा, सऊदी अरब, हंगरी और संयुक्त अरब अमीरात।
पड़ताल करने वाली पत्रकारों की टीम का मानना है कि कुल 50 हज़ार नंबरों का डेटा बेस 45 देशों का हो सकता है।
पेगासस प्रोजेक्ट की अब तक दो रिपोर्ट्स सामने आई हैं जिसमें कहा गया है कि लीक डेटा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, पूर्व चुनाव आयोग के सदस्य अशोक लवासा, वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग, केंद्र सरकार के नए केंद्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव और केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल सहित कश्मीर के अलगवादी नेता और सिख कार्यकर्ताओं के नंबर इस लिस्ट में हैं।
इसके अलावा भारतीय पत्रकारों के नंबर भी कथित एनएसओ की लीक लिस्ट में शामिल हैं। जिसमें द वायर के दो संस्थापकों, वायर की कंट्रीब्यूटर रोहिणी सिंह और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार सुशांत सिंह का नाम शामिल है।
एनएसओ ने क्या कहा है?
वॉशिंगटन पोस्ट को दिए गए बयान में एनएसओ ग्रुप के सह-संस्थापक शेल्वी उलियो ने पेगासस के इस्तेमाल के जरिए मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच कराने का दावा किया है।
लेकिन उलियो ने कहा है कि हजारों नंबर वाली लीक लिस्ट का एनएसओ से कोई लेना-देना नहीं है। जबकि जांच में जानकारों ने ये साफ कहा है कि ये नंबर एनएसओ के ग्राहक देशों के हैं।
इससे पहले जारी बयान में एनएसओ ने पड़ताल में किए गए दावों को ‘गलत और आधारहीन’ बताया था, लेकिन इसके साथ ही कहा था कि वह ‘पेगासस से जुड़े सभी विश्वसनीय दावों की जांच करेगा और उचित कार्रवाई करेगा।’ इसके साथ ही उन्होंने 50 हजार नंबर वाले डेटा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा डेटा बताया था।
एनएसओ का दावा है कि उसने बीते 12 महीने में दो ग्राहकों को दिया गया सॉफ्टवेयर सिस्टम बंद कर दिया है।
कंपनी का कहना है कि वह अपना सॉफ्टवेयर 40 देशों की सेना, कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसी और इंटेलिजेंस एजेंसी को बेचती है। इन क्लाइंट देशों के मानवाधिकारों को लेकर क्या रिकॉर्ड हैं, इसकी जांच की जाती है। हालांकि कंपनी इन 40 देशों का नाम नहीं बताती।
भारत सरकार पेगासस के इस्तेमाल
से पूरी तरह इंकार नहीं करती?
रविवार को पेगासस प्रोजेक्ट की पहली कड़ी प्रकाशित होने के बाद सोमवार से शुरू हुए संसद के मॉनसून सत्र में विपक्ष ने जमकर हंगामा किया। इस मामले पर आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने रिपोर्ट के जारी होने के समय को लेकर सवाल खड़े किए।
सदन में बयान देते हुए उन्होंने कहा, ‘रविवार रात एक वेब पोर्टल पर बेहद सनसनीखेज स्टोरी चली, इस स्टोरी में बड़े-बड़े आरोप लगाए गए। मॉनसून सत्र से एक दिन पहले प्रेस रिपोर्टों का आना संयोग नहीं हो सकता है। ये भारतीय लोकतंत्र को बदनाम करने की साजिश है। उन्होंने साफ किया कि इस जासूसी कांड से सरकार का कोई लेना-देना नहीं। डेटा से ये साबित नहीं होता कि सर्विलांस हुआ है। सर्विलांस को लेकर सरकार का प्रोटोकॉल बेहद सख्त है, कानूनी इंटरसेप्शन के लिए भारतीय टेलीग्राफ एक्ट और आईटी एक्ट के तय प्रावधानों के अंतर्गत ये किया जा सकता है।’
केंद्रीय मंत्री वैष्णव के इस बयान के कुछ देर बाद ही पेगासस प्रोजेक्ट की दूसरी रिपोर्ट सामने आई, जिसमें कथित जासूसी वाले नंबर में उनका नाम भी शामिल था। इस दूसरी कड़ी में नेता, मंत्रियों, नौकरशाहों और राजनीति से जुड़े लोगों के नाम शामिल थे।
देर शाम इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के पूर्व आईटी मंत्री और बीजेपी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने प्रेस कॉंफ्रेंस की। उन्होंने ने भी रिपोर्ट की टाइमिंग पर सवाल उठाए और रिपोर्ट को एमनेस्टी जैसी संस्थाओं का भारत विरोधी एजेंडा बताया।
इसके बाद गृह मंत्री अमित शाह ने सोमवार शाम एक बयान जारी करके आरोपों को ‘साजि़श’ बताया और कहा, ‘विघटनकारी और अवरोधक शक्तियां अपने षडय़ंत्रों से भारत की विकास यात्रा को नहीं रोक पायेंगी।’
कांग्रेस ने मांगा अमित शाह
का इस्तीफ़ा
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के दो मोबाइल नंबर उन भारतीय नंबरों में शामिल हैं जिसे पेगासस से कथित जासूसी करने या संभावित निशाना बनाने का दावा किया जा रहा है।
हालांकि राहुल गांधी के फोन की फोरेंसिक जांच नहीं हो सकी है। ऐसे में पेगासस उनके फोन पर इस्तेमाल किया गया या इसकी महज कोशिश की गई या नहीं की गई, ये निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। लेकिन रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि राहुल गांधी के नंबर को 2018 से 2019 के बीच लिस्ट में शामिल किया गया था।
इस रिपोर्ट के आने के बाद कांग्रेस ने इस मामले पर प्रेस कॉफ्रेंस कर गृह मंत्री अमित शाह से इस्तीफा मांगा है।
राज्यसभा में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े, लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी और पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने एक प्रेस कॉंफ्रेंस की।
मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा, ‘लोकतंत्र में विरोधी दल के नेताओं की जासूसी करने, खुद के मंत्रियों की भी जासूसी करने के सबूत मिले हैं। हमारे राहुल गांधी की भी जासूसी की गई है। इसकी जांच होने के पहले खुद अमित शाह साहब को रिज़ाइन करना चाहिए। मोदी साहब की इंचयरी होनी चाहिए। अगर लोकतंत्र के उसूलों से चलना चाहते हैं तो आप इस जगह पर होने के काबिल नहीं हैं।’
कांग्रेस नेताओं ने आरोप लगाया, ‘इसके लिए गृहमंत्री अमित शाह के सिवा कोई जिम्मेदार नहीं हो सकता। हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति के बिना ये नहीं हो सकता।’
कब से चल रहा था पूरा मामला?
जिन लोगों के फोन में पेगासस की पुष्टि हुई है उनमें से एक हैं चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर। बीते 14 जुलाई को प्रशांत किशोर के फोन की फॉरेंसिक जांच की गई और पाया गया कि जिस दिन उनके फोन की जांच की गई उस दिन भी फोन को पेगासस से हैक किया गया था।
प्रशांत किशोर साल 2014 के चुनाव में बीजेपी के साथ काम कर चुके हैं, इस साल हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में वह टीएमसी के रणनीतिकार के तौर पर काम कर रहे थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल की लैब ने पाया कि अप्रैल में जब वह बंगाल चुनाव के काम में लगे थे उस दौरान भी प्रशांत किशोर के फोन को हैक किया गया था। हाल ही में उन्होंने एनसीपी नेता शरद पवार और कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी।
ये पड़ताल दावा करती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साल 2017 के इसराइल दौरे के साथ ही एनएसओ के सिस्टम में भारतीय नंबरों की एंट्री शुरू हुई।
इस लिस्ट में सिर्फ राजनेताओं, नौकरशाहों और पत्रकारों के ही नाम शामिल नहीं हैं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस और वर्तमान में बीजेपी से राज्यसभा सांसद रंजन गोगोई पर यौन शोषण का आरोप लगाने वाली महिला और उससे जुड़े 10 लोगों के नंबर भी इस डेटा बेस लिस्ट का हिस्सा हैं।
महिला के आरोप लगाने के कुछ दिन बाद ही उनके पति और परिवार के अन्य सदस्यों के नंबर को इस लिस्ट में जोड़ा गया। सुप्रीम कोर्ट के पैनल ने पूर्व चीफ जस्टिस पर लगे आरोपों को खारिज कर दिया था।
जानी-मानी वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग के नंबर को भी संभावित हैकिंग की सूची में रखा गया था। साल 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की ओर से आचार संहिता के उल्लंघन की बात कहने वाले चुनाव आयोग के सदस्य अशोक लवासा का फोन नंबर भी संभावित हैकिंग की सूची में शामिल है।
सवाल जिनके जवाब नहीं मालूम
क्या भारत सरकार एसएसओ ग्रुप की क्लाइंट है? इस सवाल पर सरकार ने ‘हाँ’ या ‘ना’ में जवाब नहीं दिया है।
क्या सभी 1571 नंबर जिसके बारे में पेगासस प्रोजेक्ट में जांच की गई है, उनकी हैकिंग हुई है? इसका जवाब नहीं मिल सका है।
50 हजार के डेटा बेस में 1571 नंबर जाँच के लिए क्यों और कैसे चुने गए?
सोमवार से भारत की संसद का मानसून सत्र शुरू हो रहा था। रविवार देर शाम ये रिपोर्ट आई। क्या ये महज संयोग है?
कथित जासूसी लिस्ट में शामिल लोगों के बारे में किस तरह की सूचना जमा की जा रही थी?
लीक डेटा बेस कहाँ से मिले इसकी पुख्ता जानकारी नहीं है।
लीक डेटा बेस में भारत के कुल कितने लोग शामिल हैं, इसकी पुख्ता जानकारी नहीं है।
एनएसओ जिस जाँच की बात कर रहा है, क्या वो अब संभव है?
एनएसओ को इस जासूसी स्पाईवेयर के लिए पैसे कौन दे रहा था? (bbc.com/hindi)
भारत में कई ऐसे राज्य हैं, जिनकी आबादी करोड़ों में है. हमने विकसित और विकासशील देशों से इन राज्यों की तुलना कर यह जानने की कोशिश की कि भारत के राज्य अगर देश होते, तो उनकी प्रतिस्पर्धा किन देशों से होती.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
भारत दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक जनसंख्या के मामले में यह 2027 तक चीन को भी पीछे छोड़ देगा. हाल ही में भारत की एक सरकारी संस्था ने जनसंख्या करीब 140 करोड़ होने का अनुमान लगाया.
पाकिस्तान से कई मोर्चों पर पिछड़ा उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश (UP) की जनसंख्या अब करीब 23 करोड़ है जो पाकिस्तान की जनसंख्या के लगभग बराबर है. अमेरिका की जनसंख्या इससे कुछ ज्यादा है. यूपी में प्रति 1000 पुरुषों पर सिर्फ 878 महिलाएं हैं, जबकि पाकिस्तान में यह आंकड़ा 971 और अमेरिका में 1031 है.
यूपी में लोगों की औसत आयु 65 साल है. पाकिस्तान और अमेरिका दोनों ही इस मामले में यूपी से आगे हैं. यूपी की जीडीपी भी पाकिस्तान से कम है. वहीं अमेरिका की जीडीपी यूपी से 900 गुना से भी ज्यादा है. इसी तरह यूपी में प्रति व्यक्ति आय 65 हजार रुपये है जबकि पाकिस्तान में यह 94 हजार रुपये और अमेरिका में 42 लाख रुपये है.
महाराष्ट्र वालों से 3.5 गुना ज्यादा कमाते हैं मेक्सिको के लोग
मेक्सिको और महाराष्ट्र दोनों ने ही कोरोना का सबसे बुरा असर झेला. दोनों की जनसंख्या भी लगभग बराबर है. इसके अलावा रूस की जनसंख्या भी लगभग इतनी ही है. महाराष्ट्र में साक्षरता दर 84.8 है लेकिन मेक्सिको (96) और रूस (99.7) बेहतर स्थिति में हैं. महाराष्ट्र में प्रति 1000 पुरुषों पर सिर्फ 881 महिलाएं हैं जबकि मेक्सिको में यह आंकड़ा 1028 और रूस में 1159 है.
भारत के सबसे बड़े औद्योगिक राज्यों में से एक महाराष्ट्र की जीडीपी मेक्सिको से तीन गुना कम और रूस से चार गुना कम है. महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति आय 2 लाख रुपये है जबकि मैक्सिको में हर व्यक्ति सालाना 7 लाख और रूस में सालाना 8.5 लाख रुपये कमाता है.
इथोपिया से भी पीछे बिहार
बिहार की जनसंख्या अब करीब 12.3 करोड़ है, जो इथोपिया और जापान की जनसंख्या के लगभग बराबर है. बिहार में प्रति 1000 पुरुषों पर 900 महिलाएं हैं जबकि इथोपिया में यह आंकड़ा 1010 और जापान में 1054 है.
बिहार की जीडीपी 86 अरब डॉलर है जबकि गृह युद्ध में फंसे इथोपिया की जीडीपी भी 97 बिलियन डॉलर है. वहीं जापान की जीडीपी बिहार से 60 गुना ज्यादा है. बिहार में प्रति व्यक्ति आय सालाना 46 हजार रुपये है जबकि इथोपिया तक में यह 63 हजार रुपये और जापान में 32 लाख रुपये सालाना है.
फिलीपींस और मिस्र से पिछड़ा बंगाल
पश्चिम बंगाल की जनसंख्या अब करीब 10 करोड़ है जो फिलीपींस और मिस्र के लगभग बराबर है. बंगाल में प्रति 1000 पुरुषों पर 939 महिलाएं हैं जबकि फिलीपींस में यह आंकड़ा 996 और मिस्र में 992 है. हाल ही में चुनावों से गुजरे बंगाल में बेरोजगारी दर 22 फीसदी के भयानक स्तर पर है, जो फिलीपींस में 7.7 और मिस्र में 7.4 फीसदी है.
पश्चिम बंगाल की जीडीपी 180 अरब डॉलर है जबकि फिलीपींस और मिस्र दोनों की ही जीडीपी इसके दोगुने से भी ज्यादा है. बंगाल में प्रति व्यक्ति सालाना आय 1.1 लाख रुपये है जो फिलीपींस में 2.7 लाख और मिस्र में 2.8 लाख रुपये सालाना है.
मध्य प्रदेश से 7 गुना कमाते हैं तुर्की वाले
मध्य प्रदेश (MP) की जनसंख्या करीब 8.7 करोड़ है जो कॉन्गो और तुर्की की जनसंख्या के बराबर है. यहां साक्षरता दर 73.7 है, जो कॉन्गो और तुर्की दोनों से ही कम है. एमपी में हजार पुरुषों के मुकाबले 916 महिलाएंहैं, जबकि कॉन्गो (998) और तुर्की (1005) में यह आंकड़ा कहीं ज्यादा है.
एमपी की जीडीपी 130 बिलियन डॉलर है जबकि कॉन्गो की जीडीपी 55 बिलियन डॉलर और तुर्की की जीडीपी 6 गुना ज्यादा करीब 790 बिलियन डॉलर है. एमपी में प्रति व्यक्ति आय सालाना 1 लाख रुपये है जबकि कॉन्गो के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 31 हजार और तुर्की के लोगों की आय करीब 7 लाख रुपये सालाना है.
ईरान से हर पायदान पर पिछड़ा राजस्थान
राजस्थान की जनसंख्या फिलहाल 8.2 करोड़ है, जो ईरान और जर्मनी के आस-पास है. राजस्थान में साक्षरता दर 70 फीसदी है. ईरान (96%) और जर्मनी (99% से ज्यादा) दोनों ही इससे बहुत आगे हैं. राजस्थान में हजार पुरुषों के मुकाबले 856 महिलाएं हैं जबकि ईरान (972) और जर्मनी (1040) की हालत इसके मुकाबले बहुत अच्छी है.
राजस्थान में बेरोजगारी दर 26.2 फीसदी के भयानक स्तर पर है, जो ईरान और जर्मनी दोनों से बहुत ज्यादा है. राजस्थान में लोगों की अधिकतम औसत आयु भी 68.5 साल है, जो ईरान में 77 साल और जर्मनी में 81.5 साल है. राजस्थान की जीडीपी 130 बिलियन डॉलर है जबकि ईरान की जीडीपी 680 बिलियन डॉलर और जर्मनी की करीब 4300 बिलियन डॉलर है. राजस्थान में प्रति व्यक्ति आय सालाना 1.1 लाख रुपये है. ईरान में यह करीब 6 लाख रुपये और जर्मनी में करीब 34 लाख रुपये सालाना है.
गुजरात से दोगुनी है थाईलैंड की इकॉनमी
भारत में गुजरात को उद्योगों के एक बड़े गढ़ के तौर पर देखा जाता है. इसकी अर्थव्यवस्था के कई बार उदाहरण दिए जाते हैं लेकिन यह राज्य ज्यादातर मुद्दों पर इतनी ही जनसंख्या वाले थाईलैंड से पीछे है. गुजरात की जनसंख्या करीब 6.4 करोड़ है, जो थाईलैंड के अलावा ब्रिटेन के करीब है. गुजरात में हजार पुरुषों के मुकाबले 855 महिलाएं हैं जबकि थाईलैंड (1035) और ब्रिटेन (1031) में यह संख्या कहीं ज्यादा है.
गुजरात की अधिकतम औसत आयु 69.7 साल है, जबकि थाईलैंड (77.3 साल) और ब्रिटेन (81.5 साल) इस मामले में बहुत आगे हैं. गुजरात की जीडीपी 230 बिलियन डॉलर है जो थाईलैंड की जीडीपी (540 बिलियन डॉलर) की आधी और ब्रिटेन की जीडीपी (21500 बिलियन डॉलर) से करीब 950 गुना कम है. गुजरात में प्रति व्यक्ति आय भी सिर्फ 2 लाख है, जो थाईलैंड की प्रति व्यक्ति आय (2.5 लाख रुपये) और ब्रिटेन की प्रति व्यक्ति आय (30 लाख रुपये) से कम है. (dw.com)
कोविड-19 गांवों में पहुंच चुका है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इतना गहरा असर डाल सकता है कि पिछले साल की तरह उसे बचाना मुश्किल होगा
- प्रणब सेन
इस बार महामारी तेजी से गांवों में फैली। पिछले साल पहली लहर के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा था और कृषि व गैर कृषि गतिविधियां आराम से चल रही थीं। किसानों ने रबी की बंपर पैदावार की थी जो मुख्य रूप से नकदी फसल होती है। किसान उसे बाजार में ठीक से पहुंचा पाए थे। समस्या कुछ समय बाद यानी रबी की फसल की कटाई के बाद तब शुरू हुई थी, जब उन्होंने खरीफ से पहले की फसल उगाई। राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान किसानों को यातायात और मार्केटिंग की समस्या के कारण दिक्कत आई। ये अल्पकालीन बागवानी फसल का समय था जिसकी उम्र ज्यादा नहीं होती। रिवर्स माइग्रेशन के कारण पंजाब जैसे राज्यों को मजदूरों की कमी का सामना करना पड़ा। लेकिन यह असर थोड़े समय के लिए था और पूरे देश में ऐसी समस्या नहीं आई। दक्षिण भारत तो इससे लगभग अछूता ही रहा। खरीफ का मौसम भी ज्यादा परेशानी भरा नहीं था।
इस साल भी रबी का खाद्यान्न उत्पादन अच्छा रहा और फसल थोड़ी बहुत परेशानियों के बावजूद फसल बाजार में पहुंच गई। मुझे असल चिंता अप्रैल में बोई जाने वाली और खरीफ फसल की है। कोविड-19 के गांवों में तेजी से पैर पसारने से मजदूरों की कमी गंभीर चिंता का विषय हो सकती है। आशंका है कि उत्पादन भी पिछले साल जितना नहीं रहेगा। हो सकता है कि किसान किसी तरह बुवाई कर लें लेकिन उपज में भारी कमी आ सकती है।
गैर-कृषि ग्रामीण गतिविधियों (बढ़ई का काम, निर्माण और साइकिल की मरम्मत) को बहुत नुकसान होने वाला है क्योंकि इसके लिए मानव संपर्क की आवश्यकता होती है। पिछले साल तेजी से बढ़ने वाले उपभोक्ता उत्पादों (एफएमसीज) जैसे जिन क्षेत्रों ने ग्रामीण मांग के आधार पर अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया था, इस बार उतना अच्छा नहीं करने जा रहे हैं। नुकसान का स्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि ग्रामीण भारत में महामारी का भय कितनी तेजी से फैलता है और अपनी चपेट में लेता है। इस बार डर बहुत अधिक है, विशेष रूप से उन ग्रामीण भारत में जहां चिकित्सा सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं। यदि भय लगातार बना रहता है, तो नुकसान काफी होने वाला है। इसलिए हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि ग्रामीण भारत देश की अर्थव्यवस्था को उस तरह से बचाए रखेगा जैसा उसने पिछले साल किया था। यही असली समस्या है।
कोविड-19 संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए पिछले साल लगाया गया राष्ट्रीय लॉकडान दो महीने से थोड़ा अधिक समय तक चला। इस दौरान आवश्यक सेवाओं के अलावा अन्य सभी आर्थिक गतिविधियां ठप रहीं। इस बार ऐसा नहीं है। यह सुनने में भले ही अच्छा लगे लेकिन दुर्भाग्य से इस बार लॉकडाउन को लेकर अनिश्चितता बहुत बड़ी है। पिछली बार नुकसान बड़ा था लेकिन एक निश्चित अवधि के लिए सीमित था। जैसे ही लॉकडाउन प्रतिबंधों में ढील दी गई, आर्थिक गतिविधियों ने बहुत तेजी से वापसी की। इस बार नुकसान आंशिक होगा, लेकिन यह लंबे समय तक बना रहेगा। एक एकीकृत उत्पादन या परिवहन प्रणाली में लोगों को पहले से योजना बनाने की जरूरत होती है। यदि आप सुनिश्चित नहीं हैं कि लॉकडाउन कब और कहां लगाया जा रहा है, तो यह अनिश्चितता की ओर ले जाता है और आपकी निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है। इससे निवेश पर असर पड़ेगा, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
अभी हमारे पास पर्याप्त सारे खाद्य भंडार हैं और वितरण और खाद्य आपूर्ति श्रृंखला ठीक काम कर रही है। लेकिन हम नहीं जानते कि भविष्य में क्या होने वाला है क्योंकि बहुत कुछ रबी के बाद के मौसम में उत्पादन पर निर्भर करता है। बागवानी उत्पादन निश्चित रूप से बुरी तरह प्रभावित होने वाला है। बुवाई के आंकड़े ही बताएंगे कि स्थिति कितनी खराब होने वाली है।
देश की ग्रामीण गरीबी बद से बदतर होती जा रही है। मुख्यत: तीन कारणों से कोविड-19 ग्रामीण गरीबों को प्रभावित करने वाला है। सबसे पहले, रिवर्स माइग्रेशन के कारण। शहरी गरीबी का एक बड़ा हिस्सा अब ग्रामीण क्षेत्रों में लौट रहा है। पिछले साल हमने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद शहरी क्षेत्रों से मजदूरों का बड़े पैमाने पर पलायन देखा। इस साल सिर्फ लॉकडाउन ही नहीं, बल्कि वायरस का खौफ भी है, जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मजदूर अपने गांव वापस जा रहे हैं। दूसरा कारण है बागवानी और खरीफ फसलों को नुकसान। कई फार्महाउस जो भूमिहीन मजदूरों को काम देते थे, डर के कारण इस बार ऐसा नहीं कर पाए हैं। इसका मतलब है कि बहुत से भूमिहीन मजदूर, जो पहले से ही गरीब हैं, अब और गरीब हो जाएंगे। तीसरा, जैसा कि मैंने पहले बताया, बहुत सी गैर-कृषि गतिविधियां इस बार गंभीर रूप से प्रभावित होने वाली हैं। अध्ययन दिखाते हैं कि महामारी के पिछले एक साल के दौरान ग्रामीण वेतनभोगी रोजगार में गिरावट आई है।
महंगाई पर असर
कुछ सप्ताह पहले तक मुझे अंदाजा नहीं था कि महामारी ग्रामीण भारत में बुरी तरह फैल जाएगी। उस समय मेरा डर सिर्फ आपूर्ति श्रृंखला पर केंद्रित था। लेकिन अब उत्पादन का संकट भी है। शहरी भारत को होने वाली खाद्य उत्पादों की आपूर्ति (अनाज के अतिरिक्त), आपूर्ति श्रृंखला बाधित होने और कम उत्पादन से प्रभावित होने वाली है। इससे बहुत जल्द महंगाई बढ़ेगी, खासकर खाद्य पदार्थ महंगे हो जाएंगे। भारत को सब्जियों जैसे खाद्य उत्पादों के आयात की जरूरत पड़ सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि भारत परंपरागत रूप से बागवानी उत्पादों जैसे आलू और प्याज का निर्यातक देश रहा है। इससे वैश्विक बाजार पर गहरा असर पड़ेगा क्योंकि एक तरफ हम अंतरराष्ट्रीय बाजार में आपूर्ति बंद कर देंगे और दूसरी तरफ हम खुद खरीदार बन जाएंगे। इसका नतीजा यह निकलेगा कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत आसमान छूने लगेगी।
सुधार के उपाय
महामारी के दौरान पिछले साल सरकार द्वारा शुरू किए गए कुछ महत्वपूर्ण उपायों में मुफ्त भोजन वितरण, सभी महिला जन धन खाताधारकों को तीन महीने के लिए 500 रुपए नकद हस्तांतरण और महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत काम की मजदूरी बढ़ाना शामिल थे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत मुफ्त राशन लंबे समय तक जारी रहना चाहिए। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि जन धन खातों के माध्यम से कमजोर परिवारों को नकद हस्तांतरण से लोगों को मदद मिली है, लेकिन इसने एक सीमित सीमा तक ही काम किया। इसे जारी रखना कोई बुरा विचार नहीं है। चूंकि पीडीएस की पहुंच बेहतर है, इसलिए नकद हस्तांतरण के लिए इस पर विचार किया जाना चाहिए। इसके बाद मनरेगा आता है।
हम जानते हैं कि मनरेगा कार्यों की मांग काफी बढ़ गई है। सवाल यह है कि एक बार मनरेगा साइटों का संचालन शुरू हो जाने के बाद क्या भय लोगों को वहां आने से रोकेगा? क्या हम मनरेगा साइटों को इस तरह से प्रबंधित करने में सक्षम होंगे जो कोविड-उपयुक्त हों? अगर नहीं तो मनरेगा पिछले साल की तरह ग्रामीण आजीविका को प्रभावी तरीके से सहयोग नहीं कर पाएगा। हमें तुरंत आपूर्ति श्रृंखला पर ध्यान केंद्रित करके उसे बेहतर बनाना होगा। हम जानते हैं कि पिछले साल क्या गड़बड़ी हुई थी। तब स्पष्टता और समन्वय का पूर्ण अभाव था। कम से कम इसे ठीक करना होगा। इस बार दो बातों पर ध्यान देकर इसे बेहतर किया जा सकता है। एक, केंद्र, राज्य और स्थानीय प्राधिकरणों को इस बात पर एकमत होना पड़ेगा कि किसकी अनुमति है और किसनी नहीं। पूरी स्पष्टता के साथ यह बात कानून व्यवस्था संभालने वाली मशीनरी तक पहुंचाई जानी चाहिए। यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि इन निर्देशों के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान है।
कोविड-19 भारत की पहली ग्रामीण महामारी नहीं है। हैजा एक ग्रामीण महामारी थी। इसने कई लोगों की जान ले ली और बहुत लंबे समय तक बीमारियों का कारण बना। टाइफाइड के लिए भी यही सच था। वर्तमान महामारी के बारे में जो नई बात है वह यह है कि ये एक वायुजनित रोग है। चूंकि संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल रहा है, इसलिए भय बहुत अधिक है। यह सामाजिक रूप से भी विघटनकारी है। हमारी दीर्घकालिक आशा टीकाकरण है। अब तक हमने प्रक्रिया में काफी ढील दे दी है। हम जितनी तेजी से टीकाकरण शुरू करेंगे, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा, क्योंकि यह भय को दूर करने का एकमात्र तरीका है।
(स्निग्धा दास से बातचीत पर आधारित। प्रणब सेन राष्ट्रीय सांख्यकीय आयोग के अध्यक्ष एवं योजना आयोग में मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। वर्तमान में वह अंतरराष्ट्रीय ग्रोथ सेंटर में भारत के कंट्री निदेशक हैं) (downtoearth.org.in/hindistory)
भारतीय दंड संहिता के जरिए सरकारों को बहुत गुमान है कि राजद्रोह उनका गोद लिया पुत्र है। वह अंगरेज मां की कोख से जन्मा है। भारतीय दंड संहिता अंगरेज शिशु की धाय मां है। अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए! वह सुप्रीम कोर्ट के केदारनाथ सिंह के फैसले के कारण गोदनामा वैध बना हुआ है। यह अंगरेज बच्चा भारत माता के कोखजाए पुत्रों को अपनी दुष्टता के साथ प्रताड़ित करता रहता है। दुर्भाग्य है इस अपराध को दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सका। पराधीन भारत की सरकार की समझ, परेशानियां और चिंताएं और सरोकार अलग थे। राजद्रोह का अपराध हुक्काम का मनसबदार था। अब तो लेकिन जनता का संवैधानिक राज है। राष्ट्रपति से लेकर निचले स्तर तक सभी लोकसेवक जनता के ही सेवक हैं। फिर भी मालिक को लोकसेवकों के कोड़े से हंकाला जा रहा है।
राजद्रोह की परिभाषा को संविधान में वर्णित वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में विन्यस्त करते केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में सार्थक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह के अपराध को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर विचार में आ सकता था। दंड संहिता के अध्याय 6 में शामिल राजद्रोह के साथ साथ कुछ और अपराध भी हमजोली करते हैं। उनके लिए राजद्रोह के मुकाबले कम सजाओं का प्रावधान नहीं है। मसलन अनुच्छेद 121 के अनुसार जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करेगा या युद्ध करने के लिए भड़काएगा वह मृत्यु या आजीवन करावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। धारा 121-क में लिखा है जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने जैसे अपराधों को लेकर देश के अंदर या बाहर षड्यंत्र करेगा या किसी राज्य सरकार को आपराधिक बल या अपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करने का षडयंत्र करेगा, वह भी आजीवन कारावास से दंडित हो सकेगा। अध्याय 6 में राज्य के विरुद्ध हिंसक अपराधों का ब्यौरा है। उन्हें भी अंगरेजों के समय से कायम रखा गया है।
केन्द्र सरकार के नागरिकता अधिनियम से बवंडर उठ खड़ा हुआ। पुलिस ने गांधी पुण्यतिथि के दिन दिल्ली में आरएसएस मुख्यालय पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों और नागरिकों को लाठी और लात, घूंसों से पीटा कुचला। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का भी पालन पुलिस द्वारा नहीं किया जाता। देश की रक्षा का जिम्मा केन्द्र सरकार का ही है। इसलिए केन्द्र सरकार का मजाक भी नहीं उड़ाया जा सकता? हिन्दुस्तान मुश्किलों में घिरा है। पुलिस के सामने खुले आम गोपाल नाम के एक व्यक्ति ने पिस्तौल से हवाई फायर किए। एक युवक घायल भी हुआ। जेएनयू और जामिया के छात्र बच्चे नहीं, मतदाता हैं। देश के युवजनों के जेहन में नया देश और नई दुनिया बनाने की अवधारणाएं तिर रही हैं। विधायिका में आधे से अधिक अपराधी घुसे बैठे हों। उनसे विश्वविद्यालयों की बौद्धिक स्वायत्तता को लेकर जिरह कैसे हो? मीडिया देशद्रोह और राष्ट्रदोह जैसे झूठे, अजन्मे शब्दों की जुगाली कर रहा है। देश के विश्वविद्यालय बांबी नहीं हैं जिनमें औघड़ बाबाओं, दकियानूसों, पोंगा पंडितों, गुंडों, मजहबी लाल बुझक्कड़ों के सांप घुस जाएं। संविधान, देश और भविष्य का तकाजा है कि हर सवाल के लिए जनभावना के अनुकूल देश, संसद और सरकार मिल जुलकर सहिष्णुतानामा लिखें। दस दिनों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश की धड़कन बना रहा। कथित तौर पर कुछ नारे गूंजे। ‘कश्मीर की आजादी, भारत की बरबादी‘, ‘पाकिस्तान जिंदाबाद', ‘घर-घर होगा अफजल‘ वगैरह।
कुछ शब्द मसलन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, नकली धर्मनिरपेक्षता, वंदेमातरम, हिन्दुत्व, पाकिस्तान जाओ, जयश्रीराम, पुलिस, गोगुंडे, टुकड़े-टुकड़े गैंग, योगी आदित्यनाथ, रिपब्लिक टीवी, साध्वी प्रज्ञा, सुधीर चौधरी मिलकर सत्ता सुख की सक्रियता में होते हैं। कार्ल माक्र्स, बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा गांधी, दलित, संविधान, ज्योतिबा फुले, रवीश कुमार, रोहित वेमुला, राष्ट्रीय ध्वज, कन्हैयाकुमार, जेएनयू, जामिया मिलिया, शरजील इमाम, शाहीन बाग वगैरह गहरी असहमति में होते रहे हैं। शरजील को पुलिस ने राजद्रोह सहित अन्य अपराध में गिरफ्तार कर लिया। विपक्ष दक्षिणपंथी हस्तक्षेप के खिलाफ जागरूक विरोध करता रहा है। छात्रों, अध्यापकों और पर्दानशीन महिलाओं तक ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध कायम कर रखा।
राजद्रोह का अपराध वहां भी एक असंगत अपराध है जो हिंसक गतिविधियों से अलग हटकर बोलने, लिखने और किसी भी तरह की अभिव्यक्ति या संकेत तक को आजीवन कारावास देने से डराता है। राजद्रोह पूरी तौर पर असंवैधानिक है। अलग परिस्थितियों में उसे संविधानसम्मत ठहराया गया। राज्य की सुरक्षा आवश्यक है। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर संविधान में दी गई सुरक्षा गारंटियां भी हैं। केदारनाथ सिंह के प्रकरण में किसी पत्रकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का कथित उल्लंघन करने का आरोप नहीं था। एक राजनीतिक व्यक्ति ने भी यदि सरकार के खिलाफ और आपत्तिजनक भाषा में जनआह्वान किया तो वह भी अपने परिणाम में टांय टांय फिस्स निकला था। सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिए यही कहा कि यदि कोई लोक दुर्व्यवस्था हो जाए या कोई लोक दुर्व्यवस्था होने की संभावना बना दे तो उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा होने की संभावना बनती है। राज्य की सुरक्षा रहना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
राज्य की सुरक्षा नामक शब्दांश बेहद व्यापक और संभावनाशील है। सरकार या सरकार तंत्र में बैठे हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध का बिगुल बजाता है तो उससे भर राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा। इसी नाजुक मोड़ पर गांधी सबके काम आते हैं। अंगरेजी हुकूूमत के दौरान गांधी कानूनों की वैधता को संविधान के अभाव में चुनौती नहीं दे पाते थे। फिर भी उन्होंने कानून का निरूपण किया। जालिम कानूनों का विरोध करने के लिए गांधी ने जनता को तीन अहिंसक हथियार दिए। असहयोग, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी। अंगरेजी हुकूमत से असहयोग, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाने पर तिलक, गांधी और कांग्रेस के असंख्य नेताओं को बार-बार सजाएं दी गईं। इन्हीं नेताओं के वंशज देश में बाद में हुक्काम बने। आजादी के संघर्ष के दौरान जिस विचारधारा ने नागरिक आजादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी। आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढ़ूढ़ सकते हैं।
राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है। अंगरेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज केे खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पेगासस जासूसी कांड निश्चय ही तूल पकड़ रहा है। संसद के दोनों सदनों में दूसरे दिन भी इसे लेकर काफी हंगामा हुआ है। विपक्षी नेता मांग कर रहे हैं कि या तो कोई संयुक्त संसदीय समिति इसकी जांच करे या सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश करे। सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश जांच तो करे लेकिन जो रहस्योद्घाटन हुआ है, उससे पता चला है कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रंजन गोगोई का नाम भी इस कांड में शामिल है। जिस महिला ने यौन-उत्पीडऩ का आरोप उन पर लगाया था, उस महिला और उसके पति के फोनों को भी पेगासस की मदद से टेप किया जाता था। यदि यह घटना-क्रम प्रमाणित हो गया तो भारत सरकार की बड़ी भद्द पिटेगी।
यह माना जाएगा कि गोगोई को बचाने में या उनके कुछ फैसलों का एहसान चुकाने के लिए सरकार ने उनकी करतूत पर पर्दा डालने की कोशिश की थी। इसके अलावा सूचना तकनीक के नए मंत्री अश्विनी वैष्णव का नाम उस सूची में होना इस सरकार के लिए बड़ा धक्का है। आप जिस पर जासूसी कर रहे थे, उसे ही आपने मंत्री बना दिया है और वही व्यक्ति अब उस जासूसी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है। यह अजीब-सी जासूसी है। उसने या किसी अन्य मंत्री या प्रधानमंत्री ने अभी तक इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है कि पेगासस का जासूसी यंत्र भारत सरकार ने खरीदा है या नहीं ?
लगभग 500 करोड़ रु. का यह जासूसी तंत्र सरकार ने खरीदा हो तो वह साफ़-साफ़ यह कहती क्यों नहीं ? वह यह भी बताए कि पेगासस का इस्तेमाल उसने किन-किन लोगों के विरुद्ध किया है ? उनके नाम न ले किंतु संकेत तो करे। वह यदि आतंकवादियों, दंगाप्रेमियों, तस्करों और विदेशी जासूसों के विरुद्ध इस्तेमाल हुआ है तो उसने ठीक किया है लेकिन यदि वह पत्रकारों, नेताओं, जजों और उद्योगपतियों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है तो सरकार को उसका कारण बताना चाहिए। यदि ये लोग राष्ट्रविरोधी हरकतों में संलग्न थे तो इनके विरुद्ध जासूसी करना बिल्कुल गलत नहीं है लेकिन क्या 300 लोग, जिनमें भाजपा के मंत्रियों के नाम भी हैं, क्या वे ऐसे कामों में लिप्त थे ?
जो सरकार पत्रकारों पर जाूससी करती है, उसका आशय साफ है। वह उन सूत्रों को खत्म कराना या डराना चाहती है, जो पत्रकारों को खबर देते हैं ताकि लोकतंत्र के चौथे खंभे— खबरपालिका— को ढहा दिया जाए। यह ठीक है कि जासूसी किए बिना कोई सरकार चल ही नहीं सकती लेकिन जो जासूसी नागरिकों की निजता का उल्लंघन करती हो और जो सत्य को प्रकट होने से रोकती हो, वह अनैतिक तो है ही, वह गैर-कानूनी भी है। जायज जासूसी की प्रक्रिया भी तर्कसम्मत और प्रामाणिक हो तथा संकीर्ण स्वार्थपरक न हो, यह जरुरी हो।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बात 1 नवम्बर 2001, वाल्मीकि तीर्थ अमृतसर की है। साहेब कांशी राम ‘मजहबी वाल्मीकि सम्मेलन’ के बैनर तले बहुजन समाज पार्टी पंजाब के निमंत्रण पर ‘भगवान वाल्मीकि’ जी के प्रकट दिवस के शुभ अवसर पर इस प्रोग्राम में मुख्य वक्ता के रूप में शामिल होने पहुंचे थे। कुमारी मायावती इस कार्यक्रम की मुख्य मेहमान थीं। साहेब ने इस मौके पर चार लाख से अधिक लोगों के समूह को संबोधन करते हुए कहा कि ‘चमारों ने डॉ. आंबेडकर को अपना आदर्श भी माना और उन्हें समझा भी। इसलिए चमार आगे बढ़े और उन्होंने उन्नति भी की। चमार अफसर बने, चमार मिनिस्टर बने और यहाँ तक कि चमार (मायावती की तरफ इशारा करते हुए) मुख्यमंत्री भी बने। यह सब किसकी बदौलत संभव हुआ? सिर्फ डॉ. आंबेडकर की बदौलत। दूसरी तरफ मजहबी वाल्मीकि समाज ने गाँधी को अपनाया।
वाल्मीकि समाज के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण गाँधी ही है। इसलिए आप लोग आज तक इधर उधर भटक रहे हो। आपका किसी भी शासन-प्रशासन में कोई नामोनिशान नहीं है। क्यूंकि आप ने गांधी को दिल्ली के बिरला मंदिर में झाड़ू लगाते देख लिया और इसीलिए आप लोग उस झाड़ू मारने वाले के पीछे चल दिए। और, जब डॉ. आंबेडकर के इस देश में आंदोलन चल रहा था तब गाँधी ने वाल्मीकि समाज को भ्रमित करने के लिए इनके मोहल्लों में भी झाड़ू लगाना शुरू कर दिया। जबकि गाँधी की सोच तो यह थी कि मोची का बेटा मोची और सफाई सेवक का बेटा सफाई सेवक ही रहना चाहिए और कुछ नहीं होना चाहिए। क्यूंकि गाँधी वर्णव्यवस्था का पक्षधर था, इसीलिए आपने डॉ. आंबेडकर के हाथ में पकड़ी हुई कलम नहीं देखी, आपने गाँधी के हाथ में पकड़ा हुआ झाड़ू देख लिया। अगर आप भी चमारों की तरह डॉ. आंबेडकर के हाथ में पकड़ी हुई कलम देख लेते तो इस देश में आपकी भी अलग पहचान होती। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि आप आज भी डॉ. आंबेडकर को आदर्श मानकर शासन और प्रशासन में भागीदारी लेकर इस देश में मान-सम्मान की जिंदगी व्यतीत कर सकते हो।’
इस अवसर पर साहेब ने मजहबी वाल्मीकि समाज से वादा करते हुए कहा था कि ‘यदि पंजाब में इस बार हमारी सरकार बनती है तो हम डॉ. आंबेडकर के नाम पर एक विशाल यूनिवर्सिटी का निर्माण पहल के आधार पर करेंगे। इस काम के लिए बाबा पूरणनाथजी ने हमसे वादा किया है कि वह काफी जमीन इस यूनिवर्सिटी के लिए अपने आश्रम में से देंगे और बाकी जमीन का प्रबंध हमारी सरकार करेगी। क्यूंकि हम इस यूनिवर्सिटी का निर्माण हजारों एकड़ में करेंगे और यहाँ हर तरह से पढ़ाई का प्रबंध होगा।’
बहुजन समाज को हुक्मरान बनाना ही मेरा मुख्य उद्देश्य है-कांशी राम
( मैं कांशीराम बोल रहा हूं ‘किताब से’)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारी संसद के दोनों सदन पहले दिन ही स्थगित हो गए। जो नए मंत्री बने थे, प्रधानमंत्री उनका परिचय भी नहीं करवा सके। विपक्षी सदस्यों ने सरकारी जासूसी का मामला जोरों से उठा दिया है। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वह देश के लगभग 300 नेताओं, पत्रकारों और जजों आदि पर जासूसी कर रही है। इन लोगों में दो केंद्रीय मंत्री, तीन विरोधी नेता, 40 पत्रकार और कई अन्य व्यवसायों में लगे लोग भी शामिल है। यह जासूसी इस्राइल की एक प्रसिद्ध कंपनी के सॉफ्टवेयर 'पेगाससÓ के माध्यम से होती है। इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके सरकार देश के महत्वपूर्ण लोगों के ई-मेल, व्हाट्साप और संवाद सुनती है। यह रहस्योदघाटन सिर्फ भारत के बारे में ही नहीं हुआ है। इस तरह के सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल 40 देशों की संस्थाएं कर रही हैं।
यह जासूसी लगभग 50,000 लोगों पर की जा रही है। इस सॉफ्टवेयर को बनानेवाली कंपनी एनएसओ ने दावा किया है कि वह अपना यह माल सिर्फ संप्रभु सरकारों को ही बेचती है ताकि वे आतंकवादी, हिंसक, अपराधी और अराजक तत्वों पर निगरानी रख सकें। इस कंपनी के रहस्यों का भांडाफोड कर दिया फ्रांस की कंपनी 'फारबिडन स्टोरीज़Ó और 'एमनेस्टी इंटरनेशनलÓ ने। इन दोनों संगठनों ने इसकी भांडाफोड़ खबरें कई देशों के प्रमुख अखबारों में छपा दी हैं। भारत में जैसे ही यह खबर फूटी तहलका-सा मच गया। अभी तक उन 300 लोगों के नाम प्रकट नहीं हुए है लेकिन कुछ पत्रकारों के नामों की चर्चा है। विरोधी नेताओं ने सरकार पर हमला बोलना शुरु कर दिया है।
उन्होंने कहा है कि इस घटना से यह सिद्ध हो गया है कि मोदी-राज में भारत 'पुलिस स्टेटÓ बन गया है। सरकार अपने मंत्रियों तक पर जासूसी करती है और पत्रकारों पर जासूसी करके वह लोकतंत्र के चौथे खंबे को खोखला कर रही है। सरकार ने इन आरोपों का खंडन किया है। उसने कहा है कि पिछले साल भी 'पेगाससÓ को लेकर ऐसे आरोप लगे थे, जो निराधार सिद्ध हुए थे। नए सूचना मंत्री ने संसद को बताया कि किसी भी व्यक्ति की गुप्त निगरानी करने के बारे में कानून-कायदे बने हुए हैं। सरकार उनका सदा पालन करती है। 'पेगाससÓ संबंधी आरोप निराधार हैं। यहां असली सवाल यह है कि इस सरकारी जासूसी को सिद्ध करने के लिए क्या विपक्ष ठोस प्रमाण जुटा पाएगा ?
यदि ठोस प्रमाण मिल गए और सरकार-विरोधी लोगों के नाम उनमें पाए गए तो सरकार को लेने के देने पड़ सकते हैं। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की हत्या की संज्ञा दी जाएगी। यों तो पुराने राजा-महाराजा और दुनिया की सभी सरकारें अपना जासूसी-तंत्र मजबूती से चलाती हैं लेकिन यदि उसकी पोल खुल जाए तो वह जासूसी-तंत्र ही क्या हुआ ? जहां तक पत्रकारों और नेताओं का सवाल है, उनका जीवन तो खुली किताब की तरह होना चाहिए। उन्हें जासूसी से क्यों डरना चाहिए ? वे जो कहें और जो करें, वह खम ठोककर करना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
78 बरस की आयु में भी सूबे में उसका दबदबा कायम है। एक बार सूबेदार को बदला। उसने पलटवार कर तख्ता पलट करने वालों का सूबे में सूपड़ा साफ कर दिया। वैसे वह राज-सन्यासी या सन्यासी-राजा है। सौदा-सुलफ, तबादले वगैरह बेटे के सिपुर्द कर रखे हैं। सूबे की गद्दी छिनने की हलचल भांपकर मांगों का कटोरा लेकर इंद्रप्रस्थ जा पहुंचा। दिल बड़ा कर कहा- सूबेदारी छोड़ दूंगा। इंद्रप्रस्थ दिल्ली की जमींदारी का कुछ हिस्सा कटोरे में मेरे लाडलों के लिए डाल दो। सूबे की एक रानी को बादशाह सलामत ने जमींदारी सौंपी। तब से बेटा बौखलाया है। कड़ी धूप में बेटे-पोते के साथ साधारण कहवाघर में काफी चुस्कियाते सूबेदार का नाम समझे? सूबेदारों का नाम बेरहम दिल्ली के बादशाह सलामत और उनके मोठा भाई तय करते हैं। कर्नाटक के लिए वैधानिक चेतावनी-नाम का संतोष भी सिर्फ संगठन पाकर सदा सुखी नहीं रहता।
परिषद का पढ़ाकू
नए शिक्षा मंत्री की प्रधान पात्रता क्या है? यही, कि उनकी डिग्री को लेकर बखेड़ा खड़ा नहीं होगा। एमए की डिग्री सच्ची है। पीएचडी का झूठा दावा नहीं किया। उनके प्रतिनिधित्व पर जरूर तीन तीन दावे किए जा सकते हैं। प्रधान दावा पैदाइश और शिक्षा के आधार पर ओडिशा का है। संसद में पहुंचने का पहला अवसर बिहार से मिला। मेहमानों की आवभगत में मध्यप्रदेश को अजब गजब महारत हासिल है। लालकृष्ण आडवाणी, एम जे अकबर, प्रकाश जावड़़ेकर, रामदास आठवले मध्य प्रदेश से राज्यसभा में पहुंचे। दूसरी बार राज्यसभा में मध्य प्रदेश से पहुंचे प्रधान को प्रधानमंत्री ने शिक्षा महकमे का मानीटर बनाया। केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की परीक्षा रद्द करने में आनाकानी करने पर हेड मास्टर ने निशंक को क्लास से निकाल दिया। शिक्षा मंत्री बने धर्मेन्द्र अनुशासित विद्यार्थी परिषदिया हैं। दूरदर्शन दौर के चमकदार टीवी पत्रकार प्रभात डबराल ने मित्र निशंक के आंसू पोंछे। कहा-उत्तराखंड के कोटद्वार में जन्मे दो वीर हेड मास्टर की मनमानी नहीं मानते। वे हैं-उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और रमेश पोखरियाल निशंक। प्रभात स्वयं कोटद्वारिया हैं।
बंदिनी पिया की
सौतिया डाह का बखान करने की अपनी हैसियत कहां? कई धुरंधर ज्ञानी बैठे हैं। तीन तलाक का समर्थन करना अलग बात है। इतना कहने की हिम्मत करें
कि सौतों को आपस में भिड़ाकर चैन की सांस ली जा सकती है। दिल्ली के उपराज्यपाल पसंदीदा सौत की तरह हैं। उन्हें अधिक अधिकार हैं। और जब सैंया हों कोतवाल तो डर काहे का? मतदाता माई-बाप ने सात वचन के साथ पेरे लगवाए। इसलिए निर्वाचित रानी की मनीषा को यह बात नागवार गुजरी। उपराज्यपाल अनिल बंसल के पास दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया की शिकायती चिट्ठी पहुंची। इबारत का मजबून कुछ यूं था-बहना। अपनी देहरी मत लांघो। वे तो बदनाम हैं ही। तुम किसे मुंह दिखाओगी। हमारे अहाते में घुसकर इस तरह दखलंदाजी करना ठीक नहीं है। इस दिलचस्प सियासी खींचतान में दो उपरानियां भिड़ी हैं। उपराज्यपाल और उपमुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री मैच का नतीजा देख रहे हैं। मुख्य और प्रधान बनने पर यह गुण अपने आप आ जाता है।
पढ़ो और पढ़ाओ
इस पाठशाला में बिना परीक्षा दिए पास होना कठिन है। परीक्षा हमेशा आन लाइन नहीं होती। दिल्ली बारिश को तरस रही है। संसद में वर्षाकालीन अधिवेशन के मेघ बस बरसने को हैंअचानक बड़ा ओहदा पाने वाले हों या राज्यमंत्री, सब पढ़ाई में जुटे हैं। मंत्रियों को सिखाने-पढ़ाने लिखाने का जिम्मा संभालने वाले कुछ नौकरशाह मंत्री बन गए। वे अपने बाद अफसरी करने वालों से सबक सीख रहे हैं। तीन कृषि कानून, चुनावी खींचतान वगैरह की बिजली कडक़ रही है। माहौल पर काबू पाने के लिए मंत्रालयों से जानकारियां मंगाकर सत्तापक्ष के सांसदों को सौंपी जा रहीं हैं। पढक़र सही जवाब देना, ताकि सदन में सरकार का बचाव हो सकें। सत्ता पक्ष के मुख्य सचेतक के सिर पर इस बार एक और जिम्मेदारी है। अन्य दलों से आए सांसदों को अपनी पार्टी की कार्य-संस्कृति में ढालना आसान काम नहीं है। मुख्य सचेतक राकेश सिंह ने सभी संसदों को लोकसभा की पाठशाला में हाजिर रहने का आदेश जारी कर दिया है। इसे सचेतक यानी व्हिप कहते हैं। व्हिप यानी चाबुक। सत्र के दौरान कई मर्तबा मंत्री तक सदन से गैरहाजिर पाए जाते हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-दिलीप सी मंडल
जब भी कोई दावा करे कि वह अपने मेरिट से और अपने संघर्ष से बड़ा बना/बनी है तो उस व्यक्ति का सोशल कैपिटल यानी नेटवर्क, कनेक्शन, संपर्क, पैरवी करा पाने की क्षमता, जान पहचान का दायरा जरूर चेक करना चाहिए।
संघर्ष के किस्सों के पीछे पहला मौका या अमिताभ बच्चन जैसे केस में असफल होने के 17 मौके कैसे मिले, ये समझने की जरूरत है। शाहरुख खान को मुंबई में पहला मौका क्यों और कैसे मिला। उसे पहला फ्लैट रहने को किसने दिलाया?
वे मेहनती हैं। लेकिन मेहनत करने का मौका उन्हें कैसे मिला? किसने दिलाया?
इन तस्वीरों में अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान की माताएँ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से गपशप कर रही हैं। समझिए नेटवर्क की ताकत।
सोशल कैपिटल के बारे में ज़्यादा जानने के लिए अपने आसपास के सफल लोगों का बैकग्राउंड चेक करें या पियरे बॉरद्यू (Bourdieu) की थीसिस - The Forms of Capitals पढ़ें।
जिन परिवारों के लोग तीन या चार पीढ़ी से अमेरिका जा रहे हैं, वे कनेक्शन के दम पर वहाँ जाते हैं और कहते हैं कि मैं अपने टैलेंट के कारण यहाँ पहुँचा हूँ। करोड़ों स्टूडेंट्स को यही नहीं पता कि GRE और GMAT क्या है। उन्हें बताएगा कौन?
कनेक्टेड परिवार के बच्चे एमए के बाद पीएचडी या विदेश जाने की सोचते हैं। कनेक्शन या आस पास ऐसे लोग न हों, तो एमए का टॉपर बच्चा बीएड कर लेता है। इस फर्क को समझिए कि ऐसा क्यों होता है।
आपको संपर्क विरासत में भी मिलता है। जैसे संपत्ति मिलती है। आपके संपर्कों की चलिटी आपके जीवन की उपलब्धियों को काफी हद तक निर्धारित करती है। कल्पना कीजिए उस परिवार के वारिस की जिन्होंने 1901 की जनगणना में अपनी भाषा इंग्लिश लिखाई थी। हो पाएगा मुक़ाबला?
मैं ऐसे परिवारों को जानता हूँ जो ज़मीन बेचकर करोड़पति बने। लेकिन उन्हें पता ही नहीं कि बच्चा विदेश कैसे भेजते हैं। इन्वेस्टमेंट कैसे करते हैं। एक पीढ़ी में वे अपेक्षाकृत गरीब पर कनेक्टेड परिवारों से काफी नीचे हो गए। उनके किराएदार उनसे आगे निकल गए।
संपत्ति के कई रूप है। आपकी शिक्षा, भाषा, संपर्क सब आपकी संपत्ति है। इनमें एक का इस्तेमाल आप दूसरी चीज को हासिल करने के लिए कर सकते हैं।
कनेक्शन से मिली सफलता समाज का नियम है। लाखों में एक अपवाद मिल जाएगा। लेकिन वह लाखों में एक होगा। इसी लिए ऐसी कहानियाँ छपती हैं।
फिर आप कहेंगे कि हर दो साल में एक रिक्शावाला या सब्जी वाले का बच्चा ढ्ढ्रस् कैसे बन जाता है? क्योंकि ऐसा किए बिना सिस्टम टिकाऊ नहीं हो सकता। 2000 सिविल सर्वेंट में दो ऐसे किस्से का होना जरूरी है।
‘सिर्फ मेहनत से कामयाब होना एक मिथ है, जिसे बहुत मेहनत से खड़ा किया गया है।’
जमीन-जायदाद की ही तरह, कनेक्शन, नेटवर्किंग, सपनों की ऊँचाई, मिलने वाले मौके, भाषा संस्कार भी पीढिय़ों का संचय है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज नेल्सन मंडेला का जन्मदिन है। यदि वे आज हमारे बीच होते तो 103 साल के होते। उन्हें 95 साल की आयु मिली। दुनिया के मैं किसी बड़े नेता को नहीं जानता हूं, जो 27 साल लगातार जेल में रहा हो और जिसे इतनी लंबी आयु मिली हो। तो सबसे पहले हमें यही जानना चाहिए कि इस लंबी आयु का रहस्य क्या हो सकता है ? नेल्सन मंडेल का मैं महात्मा गांधी की तरह दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, संपूर्ण अफ्रीका का गांधी मानता हूं। वे द. अफ्रीका के उसी तरह राष्ट्रपिता हैं, जैसे गांधी भारत के हैं।
वे 76 साल की आयु में द. अफ्रीका के राष्ट्रपति बने और 81 साल की आयु में सेवा-निवृत्त हो गए। वे चाहते तो अगले डेढ़ दशक तक भी अपने पद पर बने रह सकते थे लेकिन सत्ता के प्रति अनासक्ति के भाव ने ही उन्हें जिंदा रखा। ऐसे कई बादशाह और प्रधानमंत्री मेरे मित्र रहे हैं, जिन्हें मैंने सत्ता से हटते ही या कुछ साल बाद स्वर्ग सिधारते हुए देखा है। मंडेला इसके अपवाद थे।
यह ठीक है कि मंडेला जब जवान थे, शार्पविल में हुए नरसंहार ने उन्हें प्रतिहिंसा के लिए प्रेरित किया लेकिन बाद में जेल जाने पर उन्होंने गांधी साहित्य का अध्ययन किया, जिसने उनकी जीवन-दृष्टि ही बदल दी। उन्होंने जेल में किए जानेवाले अत्याचारों के विरुद्ध अहिंसक प्रतिकार किए और काले लोगों के दमन के विरुद्ध शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलन को प्रेरित किया। 1994 में द. अफ्रीका का चुनाव जीतने पर राष्ट्रपति बनने के बाद भी उन्होंने बहुत ही अहिंसक और संतुलित नीति चलाई। उन्होंने कालों को गोरों के ख़िलाफ़ कभी भड़काया नहीं।
काले लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने कई कदम उठाए। विषमता की खाई, जो 10 गुनी गहरी थी, उसमें थोड़ी कमी आई लेकिन आज भी द. अफ्रीका की संपदा पर गोरों का वर्चस्व बना हुआ है। 90 प्रतिशत काले लोगों में से 2-3 प्रतिशत लोग मालदार जरुर हो गए हैं लेकिन मंडेला के सपनों का राष्ट्र तभी बनेगा जबकि दक्षिण अफ्रीका में समतामूलक समाज का निर्माण हो। गांधी के भारत में जैसे आज भी जातिभेद हुंकार भर रहा है, मंडेला के द. अफ्रीका में रंगभेद अपने सूक्ष्म रुपों में कायम है। गांधी और मंडेला की मंडली मिलकर दोनों महाद्वीपों, एशिया और अफ्रीका में, समतामूलक क्रांति ला सकें तो 21 वीं सदी इतिहास की सबसे सुंदर सदी बन सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-श्याम मीरा सिंह
आज गूगल कादम्बिनी गांगुली को याद कर रहा है। कादम्बिनी गांगुली भारत की पहली महिला ग्रेजुएट थीं, पहली महिला डॉक्टर भी, पहली वर्किंग वीमेन भी। कादम्बिनी जब डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थीं तब कट्टरपंथी हिंदू ग्रुप उनकी पढ़ाई-लिखाई के खिलाफ थे और बदनाम करने के लिए जो बन पड़ता था, करते थे। हिन्दूवादी कट्टरपंथी ग्रुप कादम्बिनी के खिलाफ इस कदर कैंपेन चला रहे थे कि एक रूढि़वादी मैगजीन बंगबासी ने उन्हें वेश्या ही ठहरा दिया। ये कोई 1891 की बात है। कादम्बिनी ने मैगजीन के एडिटर महेश चंद्र पाल के खिलाफ केस किया और। महेश को अंग्रेजों ने इस बात के लिए 100 रुपए जुर्माना लगाते हुए 6 महीने के लिए जेल में भेज दिया।
उस समय के अंग्रेजों में इतनी समझ थी कि भारतीय महिलाओं, दलितों और शोषितों के अधिकारों को कैसे कुचला गया है और उन्हें कैसे इससे मुक्त किया जा सकता है। अंग्रेजों ने सताए हुए वर्गों को जितनी आजादी दी, उतनी आजादी भारतीय राजाओं ने कभी नहीं दी। भारतीय राज्य रूढि़वाद आधारित धर्मंतंत्र से संचालित रहे जिसमें महिलाओं, दलितों का कोई स्थान नहीं था। जिस ढ्ढढ्ढरूष्ट संस्थान से मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है उसने कल एक फर्जी सर्वे प्रकाशित किया, जिसे लगभग हर बड़े अख़बार ने प्रमुखता से छापा, उस फर्जी सर्वे में क्लेम किया गया कि 82 प्रतिशत भारतीय पत्रकार मानते हैं कि विदेशी मीडिया ने कोविड के समय भारत की पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग की, और भारत की छवि खराब करने की कोशिश की। ये संवेदनशीलता दक्षिणपंथियों की इस देश के लिए है। खुद सत्ता चाटुकारिता में मुंह से कुछ न बोले, अगर विदेशी मीडिया ने उसे कवर किया तो उसे भारत विरोधी करार दे दिया। वैसे ही पढऩे लिखने वाले दलितों, महिलाओं को हिन्दू विरोधी करार दिया जाता था।
हिन्दू कट्टरपंथियों का इतिहास अगर उठाया जाए तो वो शर्म, निर्लज्जता और घृणा का एक पूरा इतिहास है। आज उन्हीं कट्टरपंथियों का संसद में बहुमत है। तभी महिला आयोग की महिला सदस्य भी कह देती है कि महिलाओं को फोन देना बंद कर देना चाहिए।
आजादी के आंदोलन में भी कादम्बिनी की भूमिका रेखांकित करने योग्य है। जब महात्मा गांधी साउथ अफ्रीका में भारतीय मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे थे तब कादम्बिनी ने भारत से चंदा इकठ्ठा करके साउथ अफ्रीका भेजा। वे भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन को संबोधित करने वाली पहली महिला थीं। उन्हीं कादम्बिनी का आज जन्मदिवस है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के प्रतिभाशाली और युवा फोटो-पत्रकार दानिश सिद्दिकी अफगानिस्तान में शहीद हो गए, यह भारत के लिए बेहद दुखद खबर है। अफगान सेनाओं और तालिबान के बीच स्पिन बल्दाक में चल रहे युद्ध के दौरान वे चित्र ले रहे थे। भारत के लिए गंभीर दुख की खबर यह भी है कि ताशकंद में चल रही मध्य एशिया संबंधी बैठक में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के नेता आपस में भिड़ गए और उन्होंने एक-दूसरे के खिलाफ बयान दे दिए।
उसका एक बुरा नतीजा यह भी हुआ कि आज इस्लामाबाद में दोनों देशों के बीच संवाद होना था, वह टल गया! दोनों देश बैठकर यह विचार करनेवाले थे कि अफगानिस्तान में अमेरिकी वापसी से जो संकट पैदा हो रहा है, उसका मुकाबला कैसे किया जाए। यह सदभावनापूर्ण बैठक होती, उसके बदले दोनों सरकारों ने एक-दूसरे पर आरोपों का कूड़ा उंडेलना शुरु कर दिया है। ताशकंद में अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने आरोप लगाया कि हमलावर तालिबान की मदद करने में पाकिस्तान की फौज जी-जान से लगी हुई है।
स्पिन-बल्दाक याने पाक-अफगान सीमांत पर तालिबान इसीलिए जोर मार रहे हैं कि पाकिस्तानी फौज उनकी पीठ ठोक रही है। पाकिस्तान के फौजी प्रवक्ता ने कहा कि यदि सीमांत पर अफगान हवाई हमले होंगे तो पाक-फौज चुप नहीं बैठेगी। अशरफ गनी ने कहा है कि पाकिस्तान ने अफगान-सीमा में 10 हजार तालिबान घुसेड़ दिए हैं। उसने तालिबान पर पर्याप्त दबाव नहीं डाला, वरना वे बातचीत के जरिए इस संकट को हल कर सकते थे। इमरान खान ने इन आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि अगर पाकिस्तान की कोशिश नहीं होती तो तालिबान बातचीत की मेज़ पर ही नहीं आते। पाकिस्तान के लगभग 70,000 लोग इस संकट के कारण मारे गए हैं और 30 लाख से ज्यादा अफगान पाकिस्तान में आ बसे हैं।
यदि अफगानिस्तान में गृह-युद्ध हुआ तो पाकिस्तान एक बार फिर लाखों शरणार्थियों से भर जाएगा। पाक-अफगान नेताओं का यह वाग्युद्ध अब कौन शांत करवा सकता है ? यह काम सबसे अच्छा अमेरिका कर सकता था लेकिन वह अपना पिंड छुड़ाने में लगा हुआ है। रूस, चीन और तुर्की दोनों अफगान पक्षों के संपर्क में हैं लेकिन उनका पलड़ा काफी हल्का है।
यह काम दक्षिण एशिया का सिरमौर भारत सफलतापूर्वक कर सकता है लेकिन उसके विदेश मंत्रालय के पास योग्य लोग नहीं हैं, जिनका काबुल सरकार और तालिबान, दोनों से संपर्क हो। यदि भारत पहल करे तो वह पाकिस्तानी नेताओं को भी उनके आसन्न संकट से बचा सकता है और आगे जाकर कश्मीर पर भी पाकिस्तान को राजी कर सकता है। हमारे विदेश मंत्री ने ताशकंद बैठक में भारत का रटा-रटाया पुराना राग फिर से गा दिया लेकिन वह क्यों नहीं समझते कि यदि अफगानिस्तान में अराजकता फैल गई तो भारत में आतंकवाद बढ़ेगा और अफगानिस्तान में हमारा 3 बिलियन डॉलर का विनियोग व्यर्थ चला जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Smruti Koppikar
Of all of us in the field, photojournalists are the bravest and take the most risks. More than any reporter-writer does.
And their work bears witness in ways that surpass in a single frame any story told in hundreds of words. All photojournalists carry the capacity to stun us and alert us at the same time, their cameras literally become the eyes of society, every frame a part of history. The best among them, as Danish was, bear witness with sensitivity and quiet flair, shooting frames which remain witness to the history of those moments, capturing entire stories in those pixels.
Danish’s passing has brought back the highest regard I have always had for photojournalists. As reporters-writers, we take risks. They go a few steps further. See Danish’s frames of the last year, the shooter on Delhi’s streets or the Rohingya refugees or the Muslim man being lynched (where people weren’t allowed to whip out their mobiles, he got this frame).
I’m thinking also of others like Raghu Rai (Bhopal gas tragedy being one example), Prashant Panjiar (rath yatra and it’s bloody trail, Babri demolition) late Hemant Pithwa, Fawzan Husain, Sherwin Crasto and others with whom I covered Bombay riots, Mahendra Parikh, Neeraj Priyadarshi, Kevin D’souza, Sebastian D’Souza (that Ajmal Kasab photo) and so many former colleagues and friends. Rai, the only one in this list I didn’t work with.
In places like Reuters, they are taught to evaluate risks, reach decisions on when to stay in a place and when to run, how to find cover and so on. Yet, all of this falls short on some days and someone like Danish goes.
He went bearing witness to yet another unfolding tragedy of our times, capturing people’s travails and trauma in frames. His work will always be cited.
And then to see the organised mocking of his work, celebration of his death, scorn for who he was, is just gutting.
What have we become as a people?!
(1) पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के खिलाफ। तो न्यायालय पहली व्याख्या के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 1960 में दि सुपिं्रटेंडेंट प्रिज़न फतेहगढ़ विरुद्ध डाॅ. राममनोहर लोहिया प्रकरण में भी पुलिस की यह बात नहीं मानी थी कि किसी कानून को नहीं मानने का जननेता आह्वान भर करे। तो उसे राजद्रोह की परिभाषा में रखा जा सकता है। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया था। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई।
(2) सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों को हौसला देता रहता है। बिहार की फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और अत्याचार सहित कई आरोप बेहद भड़काऊ भाषा में लगाए थे। पूंजीपतियों, जमींदारों और कांग्रेस नेताओं को उखाड़ फेंकने के लिए जनक्रांति का आह्वान भी किया। निचली अदालत और हाईकोर्ट से केदारनाथ को राजद्रोह के अपराध में एक साल की सजा दी गई। मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच तक पहुंचा। उसमें कई और लंबित पड़े मुकदमे भी जुड़ गए, ताकि राजद्रोह के अपराध की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एकबारगी सम्यक परीक्षण किया जा सके। चुनौतियां दी गई थीं कि राजद्रोह का अपराध पूरी तौर पर असंवैधानिक होने से उसे बातिल कर दिया जाए। केदारनाथ सिंह के प्रकरण ने सरकारों के प्रति नफरत फैलाने और सरकार के खिलाफ हिंसक कृत्यों के लिए भड़काए जाने की दोनों अलग अलग दिखती मनोवैज्ञानिक स्थितियों की तुलना की। बेंच ने राजद्रोह नामक अपराध की बहुत व्यापक परिभाषाओं में उलझने के बदले कहा कि भड़काऊ मकसदों, उद्देश्योें या इरादों से संभावित लोकशांति, कानून या व्यवस्था के बिगड़ जाने या हिंसा हो जाने की जांच की।
(3) लंबे विचार विमर्श के बाद राजद्रोह के अपराध को दंड संहिता से निकाल फेंकने की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्कार कर दिया। केदारनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं। यदि हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। अन्य कई पहले के फैसलों को भी साथ साथ पलटते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चाहे जिस प्रणाली की हो, प्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को दंड देने की शक्ति भी होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं। ऐसी दुर्भावना इसी नीयत से फैलाना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसे किसी कानून को संवैधानिक संरक्षण मिलना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में सुरक्षित समझा जा सकता है।
(4) केदारनाथ सिंह से अलग सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने लोहिया के प्रकरण में इसके उलट आदेश दिया था। पिछली पीठ के चार जज इसी दरमियान रिटायर हो चुके थे। जानना दिलचस्प है कि केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तथ्य भी उल्लिखित नहीं किया। इसके और पहले 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आर्गनाइज़र‘ में क्रमषः मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे। उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संषोधन करते हुए अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों को संशोधित करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह का अपराध ‘राज्य की सुरक्षा‘ ‘लोकव्यवस्था‘ की चिंता करता हुआ बनाया गया है। इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता। यह भी समझना होगा कि कानूनसम्मत सरकार अलग अभिव्यक्ति है। उसको चलाने वाले अधिकारियों को सरकार नहीं माना जा सकता। सरकार कानूनसम्मत राज्य का दिखता हुआ प्रतीक है। सरकार ध्वस्त हो गई तो राज्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। इस लिहाज़ से राजद्रोह को दंड संहिता की परिभाषा में रखा जाना मुनासिब होगा, बशर्ते ऐसा कृत्य अहिंसक हो। क्रांति वगैरह की गुहार में हिंसा के तत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। सरकार के खिलाफ कितनी ही कड़ी भाषा का इस्तेमाल करते उसके प्रति भक्तिभाव नहीं भी दिखाया जाए, तो उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता। जनभावना को हिंसा के लिए भड़काने और लोकव्यवस्था को ऐसे कृत्यों द्वारा खतरे में डालने की स्थिति में ही राजद्रोह के अपराध की संभावना मानी जा सकती है।
(5) दरअसल केदारनाथ सिंह के प्रकरण में बहुत बारीक व्याख्या करने के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजों के जमाने के इस आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को भी असुविधा महसूस होनी चाहिए। रमेश थापर के प्रकरण में मद्रास सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी को ही अवैध घोषित कर उस विचारधारा से जुड़ी पत्रिका ‘ क्राॅसरोड्स‘ के वितरण पर इसलिए भी प्रतिबंध लगा दिया था कि पत्रिका नेहरू की कड़ी आलोचना करती थी। ‘आर्गनाइज़र‘ के खिलाफ दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने यह आदेश दिया था कि उन्हें सभी सांप्रदायिक नस्ल की खबरें और खतरे को पाकिस्तान से जुड़े समाचारों को स्क्रूटनी के लिए भेजना होगा।
-ओम थानवी
सुरेखा (वर्मा) सीकरी नहीं रहीं। अखबार में पहले पन्ने पर खबर देखकर अच्छा लगा। लेकिन मायूसी भी हुई कि उन्हें महज फिल्म-टीवी की अभिनेत्री के रूप में समझा गया। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का जिक्र हुआ। संगीत नाटक अकादमी सम्मान का नहीं। न किसी अभिनीत नाटक का।
यह ठीक है कि परदे पर भी उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी। बालिका वधू ने अन्य अभिनेत्रियों के लिए एक लकीर खींच दी। मगर सुरेखाजी मुंबई बहुत बाद में गईं। रंगकर्म तो उन्होंने आधी शती से भी पहले अपना लिया था।
अलीगढ़ से बीए कर वे साठ के दशक में दिल्ली आईं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में इब्राहिम अलकाजी की छाया में अभिनय की दीक्षा ली। सुधा (शर्मा) शिवपुरी ने संस्थान छोड़ा तब उत्तरा बावकर और सुरेखा सीकरी आग हुईं। हालाँकि (हेमा सिंह बताती हैं) सुरेखाजी को ‘स्कूल’ में सीमित अवसर मिले।
1968 में वे एनएसडी से ‘पासआउट’ हुईं और स्वतंत्र मंच पर सक्रिय हो गईं। 1972 में रमेश बक्षी के नाटक देवयानी का कहना है (निर्देशक राजेंद्र गुप्ता) से उन्हें विशेष पहचान मिली। आइफैक्स में हुआ था वह मंचन। अलकाजी देखने आए। अपनी अभिनेत्री को रंगमंडल (एनएसडी रेपर्टरी कंपनी) लिवा लाए, जहां सुरेखाजी को अपार शोहरत मिली। 1987 तक वे वहीं रहीं। सिनेमा-टीवी के बुलावे वहीं रहते आए।
रेपर्टरी में उनकी प्रतिभा का जलवा बुलंदी पर था। मैंने सबसे पहले उन्हें वहीं रिहर्सल करते देखा। फिर कुछ नाटक भी देखे। तुगलक वागीश भाई की मेहरबानी से मुश्किल से मिले ‘टिकट’ पर देख सका। (उन दिनों मैं भी रंगकर्म से गहरे जुड़ा था)। रेपर्टरी में लुक बैक इन ऐंगर और आधे-अधूरे से सुरेखाजी की ख़ूब धाक जमी। फिर मुख्यमंत्री, संध्याछाया, जसमा ओडन, तुगलक, आठवाँ सर्ग, बीवियों का मदरसा, महाभोज, कभी न छोड़ें खेत, चेरी का बगीचा ... सुरेखा सीकरी आगे बढ़ती चली गईं।
उन्होंने कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया था। इनमें तीन टके का स्वाँग (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का थ्री पैनी ओपेरा) तो जर्मनी के प्रसिद्ध रंगकर्मी फ्रिट्ज बेनेविट्ज ने दिल्ली में निर्देशित किया।
आज सुबह एनएसडी के पूर्व निदेशक देवेंद्रराज अंकुर से लम्बी बात हुई। वे और सुरेखाजी स्कूल के दिनों के साथी रहे। रंगमंडल में निर्मल वर्मा की कहानियों पर आधारित तीन एकांत अंकुरजी ने ही निर्देशित किया था; वीकेंड में सुरेखाजी का अभिनय था। अंकुरजी भी इससे हैरान लगे कि एक सिद्ध रंगमंच अभिनेत्री के बुनियादी योगदान को कितना जल्दी भुला दिया जा रहा है।
मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने सुरेखाजी को मंच पर अभिनय करते, चरित्रों को जीते हुए करीब से देखा। काश मीडिया को रंगमंच की भी कुछ खबर रहा करे।
-रमेश अनुपम
पिछली कड़ी में मुझसे एक चूक हो गई थी।
मैंने पिछली कड़ी में लिखा था कि सन् 1922 में आर्थिक अभाव के कारण ‘कर्मवीर’ को बंद करना पड़ा। वस्तुत: ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन सन् 1924 में बंद हुआ, लेकिन सन् 1925 में उसे पुन: खंडवा से प्रारंभ किया गया।
सन् 1922 में आर्थिक अभाव तथा कर्ज के चलते ‘कर्मवीर’ के प्रकाशन में संकट के बादल जरूर लहराने लगे थे और स्थिति काफी विषम हो चुकी थी। ‘कर्मवीर’ का प्रबंधक मंडल इसके लिए तत्कालीन संपादक माखनलाल चतुर्वेदी को दोषी मान रहा था। नए संपादक की खोज शुरू हो गई थी ।
इसलिए सन् 1922 में ‘कर्मवीर’ का संपादन का दायित्व माधवराव सप्रे के सुझाव पर कुलदीप सहाय को सौंपा गया। कुलदीप सहाय उन दिनों जबलपुर में आयकर निरीक्षक के पद पर कार्य कर रहे थे। ठाकुर छेदीलाल और ई राघवेंद्र राव उनके मित्र थे, उनकी सलाह पर ही उन्होंने सरकारी नौकरी छोडक़र ‘कर्मवीर’ का संपादक पद स्वीकार कर लिया था।
इस तरह कुलदीप सहाय के संपादन और माधवराव सप्रे के कुशल निर्देशन में जबलपुर से ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन सन 1924 तक निरंतर होता रहा।
बाद में 4 अप्रैल सन 1925 में माखनलाल चतुर्वेदी ने पुन: इसका प्रकाशन खंडवा से प्रारंभ किया।
माधवराव सप्रे ने देहरादून में सन् 1924 में 9 नवंबर से प्रारंभ तीन दिवसीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। देहरादून से वे लखनऊ होते हुए वापस रायपुर लौटे।
रायपुर लौटकर वे पुन: स्वाधीनता आंदोलन के काम में जुट गए। पंडित रविशंकर शुक्ल माधवराव सप्रे के अनन्यतम प्रशंसक थे, उनके साथ वे भी राष्ट्रीय स्वाधीनता का अलख जगाने के लिए छत्तीसगढ़ के अनेक नगरों की यात्राएं करने लगे थे।
रायपुर में माधवराव सप्रे आनंद समाज लाइब्रेरी में भी नियमित रूप से आया जाया करते थे। रायपुर में सन् 1902 में स्थापित आनंद समाज लाइब्रेरी से वे प्रारंभ से ही अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे।
सन् 1925 से उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता चला गया। अनेक चिकित्सकों को दिखाने के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें ज्वर रहने लगा, आंव और दस्त से भी वे परेशान रहने लगे।
मात्र पचपन वर्ष की उम्र में 23 अप्रैल सन् 1926 को रायपुर में हिंदी नवजागरण के इस अग्रदूत का निधन हो गया।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदीग्रंथ माला’, ‘हिंदी केसरी’ और ‘कर्मवीर’ जैसी पत्रिकाओं के संपादक और प्रकाशक, ‘दासबोध’, ‘महाभारत मीमांसा’, ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य’ जैसी कृतियों के अनुवादक, श्री जानकी देवी महिला पाठशाला और रामदासी मठ के संस्थापक माधवराव सप्रे सदा-सदा के लिए अनंत में विलीन हो गए। छत्तीसगढ़ का एक उज्ज्वल नक्षत्र कहीं सुदूर अंतरिक्ष में खो गया।
मेरे मन में एक सवाल बार बार उठता है कि पूरी दुनिया में छत्तीसगढ़ का नाम रोशन करने वाले माधवराव सप्रे के लिए इस युवा राज्य ने क्या किया है ?
सन 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की कल्पना ही अपने आपमें किसी महान घटना से कम नहीं है। सन् 1900 में छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग ही बहुत बड़ी बात थी ।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के पहले ही अंक में जो नियमावली प्रकाशित की गई है उसमें क्रमांक 3 में लिखा गया है :
‘छत्तीसगढ़ विभाग में विद्या की वृद्धि करने के लिए, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुंचाने के लिए और हिंदी भाषा की उन्नति करने के लिए यथामति तन मन धन से प्रयत्न करना यही इस पुस्तक के प्रकाशकों का उद्देश्य है।’
आज से एक सौ बीस पूर्व एक परतंत्र देश के छत्तीसगढ़ जैसे एक अविकसित अंचल में ज्ञान के प्रचार प्रसार को महत्व देने वाले, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुंचाने की बात करने वाले, हिंदी भाषा की उन्नति का स्वप्न देखने वाले माधवराव सप्रे आज छत्तीसगढ़ में ही उपेक्षित हैं।
राज्य के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय में उनके नाम से एक पीठ की स्थापना और एक स्कूल का नामकरण उनके नाम पर करने के अतिरिक्त हमारे इस राज्य ने और क्या किया है।
कम से कम राज्य के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम तो उनके नाम पर रखा जा सकता था,पर नहीं रखा गया ।
उनके शिष्य माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर मध्यप्रदेश में एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय और दूसरे शिष्य पंडित रविशंकर शुक्ल के नाम पर रायपुर में विश्वविद्यालय हैं, पर गुरु के नाम पर कुछ भी नहीं है।
पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में माधवराव सप्रे की एक भी मूर्ति ढूंढने से भी कहीं नहीं मिलेगी। इसे क्या कहा जाए, छत्तीसगढ़ राज्य का दुर्भाग्य या और कुछ।
माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को प्रथम हिंदी कहानी का दर्जा दिलवाने वाले तथा जीवनपर्यंत उनकी रचनाओं को ढूंढ़-ढूंढक़र रचनावली के रूप में प्रकाशित करवाने का स्वप्न देखने वाले श्री देवी प्रसाद वर्मा बच्चू जांजगिरी अब इस संसार में नहीं हैं।
अच्छा तो यह होता कि राज्य सरकार उनके द्वारा संपादित रचनावली के प्रकाशन की ओर ध्यान देती। कम से कम यही इस सरकार की एक उपलब्धि होती ।
माधवराव सप्रे की एक मुकम्मल जीवनी लेखन के काम पर भी अगर सरकार ध्यान दे तो यह बेहतर कार्य होगा, जिससे आने वाली पीढ़ी देश के इस महान सपूत के बारे में बेहतर ढंग से जान पाएगी।
अगले सप्ताह माधवराव सप्रे पर केंद्रित माखनलाल चतुर्वेदी की एक दुर्लभ कविता।
(बाकी अगले हफ्ते)