विचार/लेख
- विष्णु नागर
राहुल गांधी क्या कभी देश के प्रधानमंत्री बन सकेंगे? मुझे शक है। इसकी वजहें हैं।एक तो वे अंबानी-अडाणी पर लगातार हमलावर हैं और ये देश के दो सबसे बड़े थैलीशाह हैं।ये कभी ऐसे आदमी को प्रधानमंत्री बनते हुए देखना नहीं चाहेंगे,जो आज उनकी सख्त आलोचना करता हो और जो अपनी आलोचनाओं में गंभीर भी दिखता हो। जो पैदल चल कर गरीब जनता का दुख- दर्द किताबों से नहीं, अपने प्रत्यक्ष अनुभव से जान रहा हो। संभव है सत्ता आने पर कुछ ऐसा करने की कोशिश भी करे,जो इनके बुनियादी हितों के खिलाफ जाए!और कुछ करने की फिर भी कोशिश करे तो उनकी पार्टी ही उनका साथ न दे!
दूसरा अगर आज जैसी गंभीरता राहुल गांधी दिखा रहे हैं, उसके प्रति अगर वह सच्चे रह पाते हैं तो वह अकेले ऐसे राजनीतिक व्यक्ति होंगे, जिसे गरीबों का दुख-दर्द वाकई सालता हुआ लगता है। जो तीन गरीब बच्चियों को फटे कपड़ों में ठंड से कांपता देखकर इतना पिघल जाता है कि खुद भी तय करता है कि तब तक मैं ऊनी कपड़े नहीं पहनूंगा, जब तक कांपने नहीं लग जाता, जब तक ठंड बर्दाश्त से बाहर नहीं हो जाती! जिस दिन इनके शरीर पर स्वेटर होगा, मेरे शरीर पर भी होगा!
और जो अपने साथ चल रहा एक यात्री जब गर्व से कहता है कि हम तीन हजार किलोमीटर चल चुके हैं। तो राहुल गांधी उससे कहते हैं कि सुनो, तुम-हम दिन में तीन बार खाते हैं। गरीब मजदूर इससे भी ज्यादा चलता है और आधी रोटी खाकर चलता है। वास्तविक समस्या यह है कि लोगों की तपस्या का इस देश में मोल नहीं है। और भी बुरी बात यह है कि इन करोड़ों लोगों की तपस्या का फल कुछ लोग हड़प जाते हैं।
जब इस देश को गरीबों का नकली हमदर्द, अमीरों का अमीरों से अधिक असली हमदर्द नेता मिला हुआ है,जो नफरत, हिंसा और झूठ का खेल खेलने में बेहद माहिर है, वाक्चातुर है, तो अमीरउमरा मिलकर राहुल गांधी को क्यों प्रधानमंत्री बनाना चाहेंगे? अपने नोटों का खेल फिर से क्यों नहीं दिखाएंगे। क्यों नफरत का चक्र तेजी से नहीं घुमवाएंगे?
वैसे भारत का आदमी हमेशा उम्मीद में जीता है और हमेशा ठगा जाता है, यह भी एक कटु सत्य है।
रोमान अब्रामोविच के याट और टेलर स्विफ्ट के प्राइवेट जेट से लेकर जेफ बेजोस की अमेजन कंपनी के पूरी दुनिया में फैले गोदामों तक, खरबपतियों की जीवनशैलियां और कारोबारी दिलचस्पियां, धरती को सुलगा रही हैं.
डॉयचे वैले पर अजीत निरंजन की रिपोर्ट-
ये प्रचंडता उस समय और तूफानी हो गई जब मेकअप की सरताज काइली जेनर ने पिछली जुलाई में अपने दोस्त ट्रैविस स्कॉट के साथ एक तस्वीर पोस्ट की जिसमें उनके दो प्राइवेट जेट भी देखे जा सकते थे और कैप्शन था, "तुम मेरा वाला लोगे या अपना वाला?"
जेनर की इस पोस्ट पर वायरल होने वाले बहुत सारे ट्वीटों में से एक में ईटिंग डिसऑर्डर अभियान से जुड़ीं कारा लिसेटे ने लिखा, "यूरोप जल रहा है, जबकि काइली जेनर अपने प्राइवेट जेट में 15 मिनट की उड़ानों का मज़ा उठा रही हैं. मैं हर चीज रिसाइकिल कर सकती हूं, अपने तमाम कपड़े सेकंड हेंड खरीद सकती हूं, अपना खुद का खाना उगा सकती हूं लेकिन तब भी जेनर की एक उड़ान के फुटप्रिंट का मुकाबला नहीं कर सकती."
जेनर की इंस्टाग्राम पोस्ट ने अमीर देशों के युवाओं में पनप रहे विरोध को हवा दे दी जो अपने कार्बन फुटप्रिंट में कटौती को लेकर दबाव महसूस करते हैं. इसमें दिखता है कि दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषकों और जलवायु परिवर्तन से डरी हुई पीढ़ी के बीच कितनी खाई है, वो पीढ़ी जो नाइंसाफी से गुस्से में है और अपनी खुद की जीवनशैलियों के खर्चीले, भड़काऊ तरीकों को न छोड़ने पर भी आमादा है. 24 साल की एक ट्विटर यूज़र ने लिखा, "इसीलिए मैंने कोशिश करना छोड़ दिया."
हाल में टेलर स्विफ्ट और किम कर्दिशयान जैसी शख्सियतों के प्राइवेट जेट ने वे उड़ाने भरीं जो कुछ ही घंटों की ड्राइव पर थीं. मिनटों के हिसाब से उनकी यात्राओं ने एक औसत भारतीय के सालाना उत्सर्जन के मुकाबले ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की थी. फ्लाइट डाटा दिखाता है कि शुरुआती दिसंबर में एक रात, काइली जेनर और ट्रेविस स्कॉट के प्राइवेट जेटों ने वही उड़ान भरी, और पांच घंटे के अंतराल में कैलिफोर्निया के वान न्युस एयरपोर्ट पर उतर गए.
कार्बन प्रदूषण का 'हास्यास्पद' स्तर
फिर भी, हवा में सेलेब्रिटी के पैदा किए उत्सर्जन समन्दर में उनके उत्सर्जन के मुकाबले कुछ भी नहीं. रूसी कुलीन रोमन अब्रामोविच की 162 मीटर लंबी नाव में दो हैलीपेड और एक स्विमिंग पुल है और वो कई किलों, महलों, विमानों और लीमोसिन कारों के मुकाबले कई गुना ज्यादा सीओटू उत्सर्जित करती है. 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक अब्रामोविच की याट ने 2018 में 11,000 लोगों की आबादी वाले प्रशांत द्वीप के राष्ट्र टुवालु से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की थी.
इस अध्ययन के अगुआ और इंडियाना यूनिवर्सिटी में रिसर्चर बिएट्रीज बैरोस कहते हैं, "ये खासतौर पर निराश कर देने वाली बात है. क्योंकि द्वीप राष्ट्र, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी जैसे जलवायु परिवर्तन के जोखिमों से सबसे ज्यादा घिरे हुए हैं."
दशकों से कार्बन उत्सर्जनो की सबसे बड़ी असमानताएं, अमीर और गरीब देशों के बीच रही हैं. अब देशों के भीतर असमानताएं साफ और गंदी जीवनशैलियो के बीच की खाई को स्पष्ट करती हैं. सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाले दुनिया के एक फीसदी शीर्ष लोग- 132000 डॉलर की सालाना पगार वाले लोग- पिछले 30 साल में कार्बन प्रदूषण की 20 फीसदी वृद्धि के जिम्मेदार हैं. वे दुनिया के तमाम बड़े शहरो में मौजूद हैं- मुंबई से लेकर मियामी तक.
उत्सर्जन असमानता पर काम कर रहे स्टॉकहोम पर्यावरण संस्थान से जुड़ी वैज्ञानिक अनीशा नजारेथ कहती हैं, "शीर्ष एक फीसदी लोग, नीचे के 50 फीसदी लोगों जितनी मात्रा खर्च करते हैं. और पैमाने के स्तर पर जाहिर है ये कार्बन बजट का एक हास्यास्पद अनुपात है."
उस टॉप आय ब्रैकट में आने वाले लोगों की खरबपतियों जैसी विलासिता भरी जीवनशैली नहीं है. भले ही प्राइवेट जेट और विशाल नावें इस पैमाने के चरम छोर पर हैं, यात्री जहाज और यात्री विमान, उनसे ठीक पीछे ही हैं.
मिसाल के लिए उड़ान, दुनिया में सबसे ज्याद प्रदूषणकारी गतिविधियों में से एक है. एविशयन यानी उड्ययन से भले ही वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का तीन फीसदी हिस्सा आता हो लेकिन उड़ान भरने वालों के लिए तो ये प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है. जानकारों का अनुमान है कि हर साल दो से चार फीसदी वैश्विक आबादी विमान से यात्रा करती है.
इसी तरह किसी और के मुकाबले, अरबपति ज्यादा फॉसिल ईंधन जलाते हैं. साफ ऊर्जा के परामर्शदाता और स्वतंत्र लेखक केतन जोशी, अमीर देशों के मध्यवर्गीय लोगों का हवाला देते हुए कहते हैं, "दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो हमें उसी रोशनी में देखते हैं. आप भी तो किसी के काइली जेनर हैं."
अमीर जीवनशैलियों के लिए 'आश्चर्यजनक समर्थन'
शोधकर्ताओं ने इससे निपटने के तरीके निकाले हैं. टैक्स बढ़ाकर, कानूनी कमियों को भरकर और टैक्स जन्नतों पर अंकुश लगाकर नीति निर्माता, आलीशान जीवनशैलियों वाली कार्बन की भरपूर खपत की अतियों को रोक सकते हैं. धरती को गरम होने से रोकने के लिए जरूरी साफ ऊर्जा के बुनियादी ढांचे में निवेश के जरूरी पैसे भी निकल सकते हैं.
लेकिन टैक्स बढ़ाने की नीतियों का अक्सर तीखा विरोध होता है. उनसे भी, जिन्हें उनसे लाभ होगा. स्वीडन में लुंड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर स्टीफान ग्योसलिंग के मुताबिक, "असल में, अति संपन्न लोगों की जीवनशैलियों के प्रति हम हैरानी भरा समर्थन देखते हैं." ग्योसलिंग ने उड़ान के उत्सर्जनों में गैरबराबरी का अध्ययन किया है. अमीरों को आदर्श मानने वाली संस्कृतियों में पले बढ़े लोग अपनी जिंदगियों को प्रतिबंधित करने वाली नीतियों का अक्सर विरोध करते हैं.
फ्लाइट टैक्स का बोझ, मिसाल के लिए, प्रमुख रूप से अमीर लोगों को नुकसान पहुंचाएगा- खासकर बिजनेस क्लास के यात्रियों को. यूरोपीय संघ में, हवाई यात्रा का आधा खर्च 20 फीसदी सबसे अमीर वर्ग से आता है. अमेरिका और कनाडा में 79 फीसदी उड़ानों में साल में चार बार जाने वाले 19 फीसदी वयस्क होते हैं. कुछ वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों ने फ्रीक्वेन्ट फ्लायर यानी विमान से अक्सर यात्रा करने वाले लोगों के लिए कर का सुझाव रखा है जिसमें हर अतिरिक्त उड़ान पर व्यक्ति को ज्यादा कीमत चुकानी होगी.
इन असमानताओं का मतबल उड़ानों पर टैक्स लगाने की नीतियों से सबसे सक्षम लोगों से राजस्वकी वसूली की जा सकती है. पर्यावरणीय थिंक टैंक, इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्ट के अक्टूबर में कराए एक अध्ययन के मुताबिक ग्लोबल फ्रीक्वेन्ट फ्लायर लेवी से 121 अरब डॉलर की राशि निकाली जा सकती है जो 2050 तक एविएशन को कार्बनमुक्त करने के लिए हर साल निवेश के लिए जरूरी है. हर साल छह से ज्यादा उड़ान लेने वाले, फ्रीक्वेंट फ्लायर्स को उस लेवी का 81 फीसदी चुकाना होगा. विमान से ही यात्रा करने वाले अति-संपन्न लोग, कुल आबादी का 2 फीसदी हिस्सा हैं.
नीति निर्माता, केरोसीन से चलने वाले प्राइवेट जेटों पर भी रोक लगाकर, अति संपन्न लोगों के कारण होने वाले उत्सर्जनों में कटौती कर सकते हैं. ऐसे प्रतिबंध से उड़ानों का सिर्फ एक छोटा सा प्रतिशत ही प्रभावित होगा लेकिन अरबपतियों के हाथ में साफ तकनीकों में निवेश के लिए रकम छोड़ जाएगा जो पर्यावरणीय अनुकूल उड़ानों के लिए जरूरी है. विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसे शुरुआती निवेश सभी के लिए, टिकाऊ विमान ईंधन और इलेक्ट्रिक उड़ानें तैयार करने में काम आ सकेगा. जितना तेजी से उनका विस्तार होगा उतना ही तेजी से कीमतें नीचे आएंगी.
शोधकर्ताओं का जोर इस पर भी है कि शीर्ष एक फीसदी लाभार्थियों- और हर साल 37200 यूरो की कमाई वाले शीर्ष के 10 फीसदी लोगों को- जलवायु कार्रवाई अपनी खरीद तक ही सीमित नहीं रखनी चाहिए.
नेचर पत्रिका में 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक उपभोक्ता, निवेशक, रोल मॉडल, सांगठनिक भागीदार और नागरिक के तौर पर अमीर लोग, जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को कम करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं. इसका अर्थ ये है कि ये काम, फॉसिल ईंधन कंपनियों को कर्ज देने वाले बैंकों से अपनी जमा राशि निकालकर, स्थानीय प्रशासन की बैठकों में सार्वजनिक परिवहन के पक्ष में अभियान चलाकर या अपने कंपनी प्रबंधन को बिजनेस उड़ानों के बदले वर्चुअल बैठकें करने का दबाव डालकर किया जा सकता है.
जलवायु वैज्ञानिक और अध्ययन के शीर्ष लेखक क्रिस्टियान नीलसन कहते हैं, "अगर समाज के उच्च वर्ग के ये लोग अपनी आय और प्रभाव के दम पर सक्रियता से ये काम करते तो आज हम बदलावों की गति में और तेजी देख रहे होते. ये सुविधा औसत व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है."
लेकिन इस मामले का दूसरा पहलू भी है. दुनिया के चुनिंदा सबसे ज्यादा संपन्न लोगों और कंपनियों ने फॉसिल ईंधनों पर रोक लगाने वाली नीतियों के खिलाफ लॉबीइंग में भी पैसा झोंका हुआ है. स्टॉकहोम पर्यावरण संस्थान से जुड़ी अनीशा नजारेथ कहती हैं कि "अति-संपन्न लोगों के साथ ज्यादा बड़ी समस्या ये है कि वे अभियानों को डोनेशन देकर, राजनीतिक प्रभाव हासिल करते हैं- और इस तरह आमतौर पर बाकी तमाम लोगों की जीवनशैलियों को भी प्रभावित करते हैं." (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भोपाल में कर्णी सेना ने एक अपूर्व प्रदर्शन आयोजित किया और मांग की कि सरकारी नौकरियों, चुनावों और शिक्षण संस्थाओं में, जहां भी आरक्षण की व्यवस्था है, वहाँ सिर्फ गरीबी के आधार पर आरक्षण दिया जाए। यह कर्णी सेना राजपूतों का संगठन है। इसने जातीय आरक्षण के विरुद्ध सीधी आवाज नहीं उठाई है, क्योंकि यह खुद ही जातीय संगठन है लेकिन इस समय देश में जहाँ भी आरक्षण दिया जा रहा है, वह प्रायः जातीय आधार पर ही दिया जा रहा है। यदि सिर्फ गरीबी के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था बन जाए तो जाति भेदभाव के बिना भी देश के सभी कमजोर लोगों को आरक्षण मिल सकता है।
यह मांग तो भारत के कम्युनिस्टों को सबसे ज्यादा करनी चाहिए, क्योंकि कार्ल मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ में सबसे ज्यादा हिमायत इसी गरीब वर्ग की है। उन्होंने इसे सर्वहारा (प्रोलेटेरिएट) कहा है। कम्युनिस्टों की क्या कहें, देश की सभी पार्टियां थोक वोटों की गुलाम हैं। थोक वोटों का सबसे बड़ा श्रोत जातियाँ ही हैं। इसीलिए देश के किसी नेता या पार्टी में इतना दम नहीं है कि वह जातीय आरक्षण का विरोध करे। बल्कि कई अन्य जातियों के नेता आजकल अपने लिए आरक्षण के आंदोलन चला रहे हैं।
यदि कर्णी सेना के राजपूत लोग अपने आंदोलन में सभी जातियों को जोड़ लें (अनुसूचित जातियों को भी) तो वह सचमुच महान राष्ट्रीय आंदोलन बन सकता है। अनेक अनुसूचित लोग, जो स्वाभिमानी हैं और दूसरों की दया पर निर्भर रहना गलत मानते हैं, वे भी कर्णी सेना के साथ आ जाएंगे। कर्णी सेना की यह मांग भी सही है कि किसी भी परिवार की सिर्फ एक पीढ़ी को आरक्षण दिया जाए ताकि अगली पीढ़ियाँ आत्म-निर्भर हो जाएं। कर्णी सेना की यह मांग भी उचित प्रतीत होती है कि उस कानून को वापिस लिया जाए, जिसके मुताबिक किसी भी अनुसूचित व्यक्ति की शिकायत के आधार पर किसी को भी जाँच किए बिना ही गिरफ्तार कर लिया जाता है।
इसमें शक नहीं है कि देश के अनुसूचितों ने सदियों से बहुत जुल्म सहे हैं और उनके प्रति न्याय होना बेहद जरूरी है लेकिन हम भारत में ऐसा समाज बनाने की भूल न करें, जो जातीय आधार पर हजारों टुकड़ों में बंटता चला जाए। भारत और पड़ौसी देशों के तथाकथित अनुसूचित और पिछड़े लोगों को आगे बढ़ाने का उपाय जातीय आरक्षण नहीं है।
उन्हें और तथाकथित ऊँची जातियों के लोगों को भी जन्म के आधार पर नहीं, जरूरत के आधार पर आरक्षण दिया जाए। यदि हम आरक्षण का आधार ठीक कर लें तो देश में समता और संपन्नता का भवन तो अपने आप ही खड़ा हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। कई देशों में लोकतंत्र खत्म हुआ और तानाशाही आ गई लेकिन भारत का लोकतंत्र जस का तस बना हुआ है लेकिन क्या इस तथ्य से हमें संतुष्ट होकर बैठ जाना चाहिए? नहीं, बिल्कुल नहीं। भारतीय लोकतंत्र ब्रिटिश लोकतंत्र की नकल पर घड़ा गया है। लंदन का राजा तो नाम मात्र का होता है लेकिन भारत में पार्टी-नेता सर्वेसर्वा बन जाते हैं। सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह या तो कुछ व्यक्तियों या कुछ परिवारों की निजी संपत्तियां बन गई हैं। उनमें आंतरिक लोकतंत्र शून्य हो गया है। चुनावों के द्वारा जो सरकारें बनती हैं, वे बहुमत का प्रतिनिधित्व क्या करेंगी? उन्हें कुल मतदाताओं के 20 से 30 प्रतिशत वोट भी नहीं मिलते और वे सरकारें बना लेती हैं। हमारी संसद और विधानसभाओं को पक्ष और विपक्ष के दल एक अखाड़े में तब्दील कर डालते हैं। चुनावों में खर्च होनेवाले अरबों-खरबों रु. नेताओं को भ्रष्टाचारी बना डालते हैं। तब क्या किया जाए?
पिछले दिनों मैंने इन समस्याओं पर ‘आचार्य कृपलानी स्मारक व्याख्यान’ दिया था। उसके कुछ बिंदु संक्षेप में देश के सुधिजन के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं। सबसे पहले तो हम चुनाव-प्रणाली ही बंद कर दें। इसकी जगह हर पार्टी को उसकी सदस्य-संख्या के अनुपात में सांसद और विधायक भेजने का अधिकार मिले। इसके कई फायदे होंगे। चुनाव खर्च बंद होगा। भ्रष्टाचार मिटेगा। करोड़ों लोग राजनीतिक रूप से सक्रिय हो जाएंगे। अभी सभी पार्टियों की सदस्य-संख्या 15-16 करोड़ के आस-पास है। फिर वह 60-70 करोड़ तक हो सकती है। इस नई प्रणाली का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि जो भी सरकार बनेगी, उसमें सभी दलों को प्रतिनिधित्व मिल जाएगा। वह सरकार राष्ट्रीय सरकार होगी, दलीय नहीं, जैसी कि आजादी के तुरंत बाद बनी थी। इस क्रांतिकारी प्रणाली की कई कमियों को कैसे दूर किया जा सकेगा, यह विषय भी विचारणीय है।
जब तक यह नई प्रणाली शुरु नहीं होती है, हमारी वर्तमान प्रणाली में भी कई सुधार किए जा सकते हैं। सबसे पहला सुधार तो यही है कि जब तक किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट नहीं मिलें, उसे चुना नहीं जाए। इसी प्रकार चुने हुए सांसदों की सरकार सचमुच बहुमत की सरकार होगी। उम्मीदवारों की उम्र 25 साल से बढ़ाकर 40 साल की जाए और 50 साल के होने पर ही उन्हें मंत्री बनाया जाए। संसद सदस्यों की संख्या 1 हजार से डेढ़ हजार तक बढ़ाई जाए। सभी जन-प्रतिनिधियों की आय और निजी संपत्तियों का ब्यौरा हर साल सार्वजनिक किया जाए। देश में ‘रेफरेन्डम’ और ‘रिकाल’ की व्यवस्था भी लागू की जानी चाहिए। सारे कानून राजभाषा में बनें और सभी अदालतें अपने फैसले स्वभाषाओं में दें। सांसदों और विधायकों की पेंशन खत्म की जाए। उनके, अफसरों और मंत्रियों के खर्चों पर रोक लगाई जाए। अन्य सुझाव, कभी और!
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
1857 के स्वातंत्र्य-संग्राम से घबराए अंग्रेजों ने भारत की एकता को भंग करने के लिए दो बड़े षड़यंत्र किए। एक तो उन्होंने जातीय जन-गणना का जाल फैलाया और दूसरा, हिंदू-मुसलमान का भेद फैलाया। कांग्रेस और गांधीजी के भयंकर विरोध के कारण 1931 में यह जातीय-जनगणना तो बंद हो गई लेकिन हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता ने 1947 में देश के दो टुकड़े कर दिए। पिछली मनमोहनसिंह सरकार ने जातीय-जनगणना फिर शुरु की थी लेकिन उसके विरुद्ध मैंने ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन शुरु किया तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उस जन-गणना को बीच में ही रूकवा दिया।
2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उन अधूरे आंकड़ों को प्रकाशित करवाने पर रोक लगा दी थी लेकिन मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ने बिहार में उस भारत-तोड़ू जन-गणना को फिर से शुरु करवा दिया है। वैसे नीतीशकुमार के बारे में मेरी व्यक्तिगत राय काफी अच्छी है लेकिन यह भी सत्य है कि वे जरूरत से ज्यादा व्यावहारिक हैं। उन्होंने यदि बिहार के गरीब परिवारों की मदद के लिए यह जनगणना शुरु करवाई है तो वे सिर्फ गरीबों की जनगणना करवाते। उसमें जाति और मजहब का ख्याल बिल्कुल नहीं किया जाता।
लेकिन नेता लोग जाति और धर्म का डंका जब पीटने लगें तो यह निश्चित है कि वे अंधे थोक वोटों का ढोल बजाने लगते हैं। इन देशतोड़ू साधनों का सहारा लेने की बजाय नीतीश जैसे साहसी नेता को चाहिए, जैसे कि उन्होंने बिहार में शराबबंदी का साहसिक कदम उठाया है, वैसा वे कोई जात-तोड़ो आंदोलन खड़ा कर देते। उनकी इज्जत भारत कि किसी भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से ज्यादा हो जाती। वे युग पुरुष बन जाते। वे भारत के इतिहास में महामानव की उपाधि के हकदार होते।
उनकी गिनती महर्षि दयानंद सरस्वती, डाॅ. राममनोहर लोहिया और डाॅ. आंबेडकर जैसे महापुरुषों के साथ होती लेकिन नीतीशकुमार तो क्या, हमारी सभी पार्टियों के नेता वोट और नोट का झांझ पीटने में लगे रहते हैं। देश के किसी नेता में दम नहीं है कि वह इस भारततोड़ू जनगणना का स्पष्ट विरोध करे, क्योंकि मूलतः सभी एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इस जनगणना में 500 करोड़ रु. खर्च होंगे और साढ़े पांच लाख लोग मिलकर इसे पूरा करवाएंगे।
बिहार में 250 से ज्यादा बड़ी जातियां हैं और उनमें हजारों उप-जातियां हैं। एक जिले में जो ऊंची जात है, वह किसी दूसरे जिले में नीची जात है। नीची जात के कई लोग लखपति-करोड़पति हैं और ऊँची जाति के कई लोग कौड़ीपति हैं। यह जातीय जनगणना गरीबी कैसे दूर करेगी? यह बिहार जैसे पिछड़े हुए प्रांत को अब से भी ज्यादा गरीब बना देगी। गरीब तो गरीब होता है। उसकी गरीबी ही उसकी जाति है। आप उसकी गरीबी दूर करेंगे तो उसकी जाति अपने आप मिट जाएगी और आप उसकी जाति गिनेंगे तो उसकी गरीबी बढ़ती चली जाएगी क्योंकि ऊँची जातियों के लोग उसके विरूद्ध गोलबंद हो जाएंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित मौर्य
क्या आप जानते हैं कि भारत में सडक़ दुर्घटनों में हर घंटे 18 लोगों की जान जा रही है। वहीं इन हादसों में हर घंटे औसतन 44 लोग घायल हो जाते हैं।
यह जानकारी सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट "रोड एक्सीडेंट्स इन इंडिया 2021" में सामने आई है।
रिपोर्ट में जो आंकड़े साझा किए गए हैं उनके मुताबिक 2021 में 4,12,432 हादसे हुए थे। इन हादसों में करीब 1,53,972 बदनसीबों की मौत हो गई थी, जबकि 3,84,448 लोग किसी न किसी रूप में घायल हुए थे।
गौरतलब है कि यह रिपोर्ट राज्?यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पुलिस विभागों द्वारा एकत्र आंकड़ों और उनसे प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है।
यदि 2019 से तुलना की जाए तो इस वर्ष देश में हुए सडक़ हादसों और उनसे होने वाली मौतों और घायलों की संख्?या में अभूतपूर्व कमी दर्ज की गई है। हालांकि यह सडक़ नियमों की वजह से नहीं बल्कि कोविड-19 महामारी के प्रकोप और विशेष रूप से मार्च-अप्रैल, 2020 के दौरान हुए देशव्यापी लॉकडाउन और धीरे-धीरे अनलॉकिंग और नियंत्रण उपायों के चलते संभव हुआ है।
देखा जाए तो इन हादसों से जुड़े प्रमुख संकेतकों के मामले में 2019 की तुलना में 2021 प्रदर्शन बेहतर हुआ है। गौरतलब है कि 2021 में हुई सडक़ दुर्घटनाओं में 8.1 फीसदी और घायलों की संख्?या में 14.8 फीसदी की कमी आई है। हालांकि, 2019 की समान अवधि की तुलना में 2021 में सडक़ दुर्घटनाओं से होने वाली मृत्यु दर में 1.9 फीसदी की वृद्धि हुई है।
हालांकि यदि 2020 से तुलना की जाए तो 2021 में सडक़ हादसों में औसतन 12.6 फीसदी का इजाफा हुआ। वहीं इन हादसों में मरने वाले लोगों की संख्या में 16.9 फीसदी और घायलों के आंकड़े में 10.4 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है।
गौरतलब है कि 2020 में कुल 3,66,138 सडक़ हादसे हुए थे, जिनमें 1,31,714 लोगों की मौत हो गई थी वहीं 3,48,279 लोग घायल हुए थे। देखा जाए तो 2020 में हर 100 हादसों में 36 लोगों की मौत हुई थी।
सडक़ नियमों की अनदेखी लोगों पर पड़ रही भारी
सडक़ सम्बन्धी नियम कितने जरूरी हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में सीट बेल्ट नहीं लगाने से 2021 में 16,397 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। इनमें से 8,438 चालक जबकि 7,959 यात्री थे। इसी तरह 2021 के दौरान कुल 46,593 व्यक्ति हेलमेट न पहनने के कारण सडक़ दुर्घटनाओं का शिकार हो गए थे।
इनमें 32,877 टू-व्हीलर चालक जबकि 13,716 सह-यात्री थे। इसी तरह रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में हेलमेट न पहनने से 93,763 लोगो घायल हो गए थे, जबकि सीट बेल्ट न लगाने से 39,231 लोगों को चोटें आईं थी।
इसी तरह जानलेवा सडक़ दुर्घटनाएं 2021 में 17.7 फीसदी की वृद्धि के साथ 2020 में 1,20,806 से बढक़र 2021 में 1,42,163 पर पहुंच गई थी। देखा जाए तो यह जानलेवा हादसे, कुल सडक़ दुर्घटनाओं का 34.5 फीसदी हिस्सा थी।
इसी तरह जानलेवा सडक़ दुर्घटनाएं 2021 में 17.7 फीसदी की वृद्धि के साथ 2020 में 1,20,806 से बढक़र 2021 में 1,42,163 पर पहुंच गई थी। देखा जाए तो यह जानलेवा हादसे, कुल सडक़ दुर्घटनाओं का 34.5 फीसदी हिस्सा थी। इतना ही नहीं रिपोर्ट से पता चला है कि सडक़ दुर्घटनाओं के मामले में 18-45 वर्ष की आयु के लोग सबसे ज्यादा दुर्भाग्यशाली थे। 2021 में इन हादसों में हुई कुल मौतों में इस आयु वर्ग की करीब 67 फीसदी हिस्सेदारी रही।
यदि वैश्विक स्तर पर भी देखें तो सडक़ दुर्घटनाओं में होने वाली 90 फीसदी मौतें निम्न और मध्यम-आय वाले देशों में होती हैं। वहीं भारत विश्व की सडक़ हादसों में होने वाली 11 फीसदी मौतों के साथ शीर्ष पर है। 2021 में ट्रैफिक नियम के उल्लंघन को देखें तो ओवर स्पीडिंग की वजह से 69.6 फीसदी लोगों की मौत हुई थी। वहीं गलत दिशा में ड्राइविंग से 5.2 फीसदी मौतें दर्ज की गई थी।
इसी तरह 46.9 फीसदी दुर्घटनाएं खुले क्षेत्रों में हुई थी, जहां आबादी नहीं थी। वहीं 54.2 फीसदी मौतें और 46.9 फीसदी चोटें खुले क्षेत्र में लोगों को लगी थी, जो इस बात को दर्शाता है कि रफ्तार कहीं ज्यादा घातक सिद्ध हुई थी।
वहीं यदि वाहनों के लिहाज से देखें तो 2021 के सडक़ हादसों में हुई कुल मौतों में दोपहिया सवारों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा करीब 45.1 फीसदी रही। इसके बाद इन हादसों में 18.9 फीसदी मौतें पैदल यात्रियों की हुई थी। जो दर्शाता है आज भी भारत में पैदल यात्री और दोपहिया चालक सडक़ों पर सुरक्षित नहीं हैं।
रिपोर्ट से पता चला है कि 2021 में देश में नेशनल हाइवे पर कुल 1,28,825 सडक़ हादसे हुए थे। जिनमें 56,007 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि इन हादसों में 1,17,765 लोग घायल हुए थे। (downtoearth.org.in/)
-डॉ. लखन चौधरी
नया साल 2023 का आग़ाज हो गया है। सभी इस साल को अपने लिए खास और बेहद खास बनाना चाहते हैं। इस तरह का संकल्प होना भी चाहिए, लेकिन बेहद खास होने के मायने समझने की जरूरत है। बेहद खास का मतलब क्या हो ? क्या होना चाहिए ? क्या हो सकता है ? यह समझना बेहद जरूरी है। जरूरी है अपनी सोच और विचारधारा को वैचारिक प्रदूषकों से बचाकर रखें।
जीवन में हमेशा याद रखी जानी चाहिए कि जीवन में बहुत सारी बातें समय के पहले समझ में नहीं आती हैं। जीवन का तर्जुबा समय के साथ ही समझ में आता है, इसके लिए चाहे आप कितनी भी कोशिश कर लीजिए। कई बार इंसान छोटी-छोटी ऐसी गलतियां करता है, जिसके लिए बुद्धिमता की जरूरत ही नहीं होती है। बहुत छोटी बातें मगर कुछ महत्वपूर्णं बातें, वे बातें जो व्यक्ति को 55 की उम्र के बाद समझ में आती हैं, जीवन की असली समझदारी की बातें होती हैं। फिर इंसान अक्सर सोचता है कि यदि यही बातें उसे 25 की उम्र में समझ में आ गई होतीं तो उसकी जिन्दगी कुछ अलग ही होती ? लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
बेहतर जीवन और जीवन को बेहतर ढ़ंग से जीने के लिए दिलचस्प एवं उपयोगी बातें तथा जानकारियां पढऩी, सुननी चाहिए। अच्छे एवं बेहतर लोगों से मिलने रहना चाहिए। तरह-तरह के लोगों से मिलते जुलते रहने से इंसान को तमाम तरह के खट्टे-मीठे अनुभव सीखने को मिलते हैं। जीवन की असली समझ यही होती है। यहीं से जीवन को सीख मिलती है। यहीं से जीवन संवरता है। यहीं से जीवन में समझदारी आती है।
कोविड-19 के ढाई-तीन साल गुजर जाने के बावजूद कोरोना का खौफ गया नहीं है, कहा जाये कि जा नहीं रहा है। रह-रह कर कोरोना के मामले आते जा रहे हैं, जिससे लोगों की चिंताएं खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि कोरोना के नाम पर कई लोग, कंपनियां, सरकारें लोगों को जिस तरह से हिदायतें, नसीहतें दे रहीं हैं, इससे भी लोगों में भय, खौफ, डर का माहौल बना हुआ है।
इधर कोरोना कालखण्ड के बाद लोगों में ’पोस्ट कोविड साईड इफेक्ट’ भी देखने को मिल रहे हैं। तरह-तरह के मनोरोग एवं मानसिक विकृतियां उभर कर सामने आ रहे हैं। लोगों की मानसिक स्थितियां बिगड़ रहीं हैं। छोटी-छोटी और बेमतलब की बातों के लिए लोग आत्महत्या जैसे गंभीर कदम उठा रहे हैं। पिछले दो-तीन सालों में आत्महत्या की घटनाएं तेजी से बढ़ीं हैं। लोगों की सहनशीलता तेजी से कम होती जा रही है। कई लोग इसे कोरोना के साईड इफेक्ट के तौर पर देखते हैं, तो कई लोगों का मानना है कि लोगों की अति महात्वाकांक्षाएं इसके लिए जिम्मेदार हैं। कारण जो भी हों, लेकिन परिणाम दुखद एवं अस्वीकार्य है। किसी भी परिस्थिति में इस तरह की घटनाओं से बचने एवं अपने आस-पास के लोगों को बचाने की जरूरत है।
पिछले कुछेक महिनों या कहें सालों से दुर्घटनाओं की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। सडक़ दुर्घटनाएं इतनी बड़ी संख्या में होने लगी हैं कि रोज-रोज हजारों लोगों की मौत सडक़ दुर्घटनाओं से होने लगी है। इसकी अनेकों वजह हो सकती हैं और हैं, लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह वैयक्तिक लापरवाही, जल्दबाजी एवं नासमझी है। दरअसल में हम बहुत कुछ, बल्कि सब कुछ बहुत जल्दी और दूसरों से पहले पा लेना चाहते हैं। इसी तरह की सोच एवं महात्वाकांक्षाओं की वजह से आत्महत्याएं एवं दुर्घटनाएं लगातार बढ़ी हैं, बढ़ती जा रहीं हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। इस तरह की घटनाओं को हर हाल में रोका जाना चाहिए।
दरअसल में लोग जिन्दगी को वीडियो गेम, किताबी कहानी, टीवी धारावाहिक अथवा फिल्म समझने लगे हैं, हकीकत यह है कि जीवन इस तरह की फंतासियों से नहीं चलता है, कहा जाये कि जीवन वीडियो गेम, किताबी कहानी, टीवी धारावाहिक अथवा फिल्म नहीं होती है। जीवन में यह समझने की जरूरत है कि जीवन में हर समय अपनी भावनाओं पर विश्वास करना खतरनाक भी हो सकता है। भावनाओं से जिंदगी नहीं चलती है। जीवन को बेहतर बनाने के लिए हकीकतों का सामना करना पड़ता है। जीवन की वास्तविक सच्चाईयों से गुजरना होता है, और हकीकत एचं सच्चाई कई बार बहुत कड़वे होते हैं।
आजकल लोगबाग अक्सर अपनी खूबियों एवं हुनर को जाने-परखे बगैर हर क्षेत्र में भाग्य आजमाना चाहते हैं। उस फील्ड या क्षेत्र में भी अपनी धाक जमाना चाहते हैं, जहां उनकी कोई दक्षताएं या क्षमताएं नहीं होती हैं, लिहाजा निराशा हाथ लगती है। ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यदि मैं शतरंज का अच्छा खिलाड़ी नहीं हूं तो मुझे शतरंज के बजाय दूसरा वो खेल खेलना चाहिए जो मैं जानता हूं। आजकल लोग पसंद को कॅरियर बनाना चाहते है, बगैर सोच समझे कि इस पसंद में रूचि या दक्ष्ता कितनी है ? यदि मैं केवल इसलिए शंतरंज खेलना चाहता हूं कि मुझे शतरंज खेलना पसंद है, तो यह मेरी मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है, और मुझे इसमें कभी भी बड़ी सफलता नहीं मिल सकती है।
याद रखिए, जिदंगी में हमें हमेशा असहज, असामान्य, असाधारण बुद्धि की जरूरत होती है जो कि हमें असामान्य एवं असाधारण विचारों, अनुभवों, असामान्य लोंगों से मिलती है ? ऐसा कतई नहीं है और ऐसा सोचना भी कतई जरूरी नहीं है। बहुत सामान्य तरीके से बहुत सहज तरीके से भी जीवन को बहुत अच्छे से जीया जा सकता है। कम महात्वाकांक्षाओं के साथ, कम जरूरतों के साथ, बहुत साधारण तरीके से जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।
नव वर्ष 2023 की शुभकामनाएं। जीवन को समय की निरर्थक भागदौड़ एवं गैरजरूरी आपाधापी से बचाकर अपनी तरह से, अपने तरीके से, अपनी दक्षताओं, अपनी सीमाओं और मर्यादाओं के साथ जीने का संकल्प लें, तो 2023 आपके लिए भी यादगार हो सकता है। दुनिया की महात्वाकांक्षी भागदौड़ और सबकुछ पा लेने की अंधी होड़ एवं अंतहीन आपाधापी से बचने की जरूरत है, जिससे जीवन को बचाया जा सके, तभी जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विश्व विद्यालय अनुदान आयोग ने एक जबर्दस्त नई पहल की है। उसने दुनिया के 500 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए हैं। वे अब भारत में अपने परिसर स्थापित कर सकेंगे। इस साल भारत के लगभग 5 लाख विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने के लिए पहुंच चुके हैं। विदेशी पढ़ाई भारत के मुकाबले कई गुनी मंहगी है। भारत के लोग अपनी कड़ी मेहनत की करोड़ों डालरों की कमाई भी अपने बच्चों की इस पढ़ाई पर खर्च करने को मजबूर हो जाते हैं।
इन लाखों छात्रों में से ज्यादातर छात्रों की कोशिश होती है कि विदेशों में ही रह जाएं और वहां रहकर वे मोटा पैसा बनाएं। भारत से प्रतिभा पलायन का यह मूल स्त्रोत बन जाता है। अब जबकि विदेशी विश्वविद्यालय भारत में खुल जाएंगे तो निश्चय ही यह प्रतिभा-पलायन घटेगा और देश का पैसा भी बचेगा। इसके अलावा वि.वि.अ. आयोग की मान्यता है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा-पद्धतियां भारत में प्रारंभ हो जाएंगी, जिसका लाभ हमारे पड़ौसी देशों के विद्यार्थी भी उठा सकेंगे।
इन सब लाभों की सूची तो ठीक है लेकिन क्या हमारे शिक्षाशास्त्रियों ने इस मामले के दूसरे पहलू पर भी विचार किया है? इसके दूसरे पहलू का सबसे पहला बिंदु यह है कि भारत में चल रहे विश्वविद्यालयों का क्या होगा? ये विश्वविद्यालय पिछले डेढ़-दो सौ साल से अंग्रेजों और अमेरिकियों के नकलची बने हुए हैं? क्या वे ठप्प नहीं हो जाएंगे? जिन माता-पिताओं के पास पैसे होंगे, वे अपने बच्चों को हमारे भारतीय विश्वविद्यालयों में क्यों पढ़ाएगें? वे सब विदेशी विश्वविद्यालयों के पीछे दौड़ेंगे।
दूसरा, इन विदेशी विश्वविद्यालयों को शुल्क, पाठ्यक्रम, प्रवेश-नियम और अध्यापकों की नियुक्ति में पूर्ण स्वायत्तता होगी। वे भारत के हित की बात पहले सोचेंगे या अपने देश के हित की बात? तीसरा, क्या अब हमारे देश में इस नई शिक्षा-व्यवस्था के कारण युवा-पीढ़ी में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं पैदा हो जाएगा? चौथा, हमारे देश की सारी शिक्षा-व्यवस्था क्या तब पूर्ण नकलची बनने की कोशिश नहीं करेगी? पांचवाँ, विदेशी शिक्षा-संस्थाओं में पढ़ाई का माध्यम क्या होगा?
क्या वे भारतीय भाषाओं को माध्यम बनने देंगे? कतई नहीं। उसका नतीजा क्या होगा? प्रतिभा-पलायन रूक नहीं पाएगा। छठा, इस भाजपा सरकार को बने आठ साल हो गए लेकिन नई शिक्षा-नीति किसी कागजी शेर की तरह खाली-पीली दहाड़ मारती रहती है। उसमें किसी भारतीयता या मौलिकता का समावेश अभी तक नहीं हुआ है। जब तक सर्वोच्च अध्ययन और अनुसंधान भारतीय भाषाओं के जरिए नहीं होगा और अंग्रेजी का एकाधिकार समाप्त नहीं होगा, यह नई पहल काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शुमाएला जाफरी
चरमराती अर्थव्यवस्था और सिर उठाता चरमपंथ पाकिस्तान के लिए बड़ी चिंता का सबब बना हुआ है। पाकिस्तान के सामने ये संकट इतना गंभीर हो चुका है कि इससे निपटने के रास्तों पर विचार करने के लिए राजधानी इस्लामाबाद में दो दिनों तक मंथन चला। ये मीटिंग थी पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की।
एनएससी पाकिस्तान में नागरिक और सैन्य मसलों पर विचार विमर्श के लिए सबसे बड़ा फोरम है। इसकी मीटिंग की अध्यक्षता प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने की, जिसमें वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री और खुफिया प्रमुख के साथ सेना प्रमुख सैयद असीम मुनीर भी शामिल हुए।
मीटिंग में चर्चा किस मसले पर हुई?
दो दिन के गहन विचार विमर्श के बाद एक विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें अफगानिस्तान का सीधा जिक्र तो नहीं था लेकिन इसमें परोक्ष रूप से अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को एक चेतावनी जरूर थी।
पीएम ऑफिस की तरफ से जारी प्रेस रिलीज़ में ये साफ लिखा गया है कि पाकिस्तान किसी भी देश में आतंकवाद को पनाह देने, इसे सम्मानित करने का समर्थन नहीं करता। पाकिस्तान अपनी आवाम की सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक क़दम उठाने के लिए स्वतंत्र है।’
एनएससी ने पूरी ताकत के साथ हिंसा भडक़ाने या इसका सहारा लेने वाली सभी संस्थाओं, व्यक्तियों से निपटने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। फोरम में आतंकवाद के खिलाफ ‘नेशनल एक्शन प्लान’ को नए सिरे से तेज़ करने का फैसला किया गया। साथ ही इस बात पर जोर दिया गया केन्द्र से लेकर राज्य सरकारें ऐसे सभी कदमों को लागू करने में अपनी भूमिका निभाएंगी। इसके अलावा एनएससी ने देश की कानून व्यस्था संभालने वाली सभी एजेंसियों, खासतौर पर काउंटर टेरेरिजम डिपार्टमेंट की क्षमता बढ़ाने का फैसला किया। पाकिस्तान में आतंकवाद पर काबू करने के लिए बनाई गई ये संस्था सबसे ज्यादा आतंकी हमलों के निशाने पर रही है।
प्रेस रिलीज़ के एक बड़े हिस्से में देश की लगातार बिगड़ती आर्थिक हालत का जिक्र था। इसमें कहा गया था कि फोरम को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से चल रही बातचीत की जानकारी दी गई। पाकिस्तान फि़लहाल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यक्रम को पटरी पर लाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
कुछ आर्थिक विशेषज्ञ ये आशंका जता रहे हैं कि अगर वक्त रहते अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद नहीं मिली, तो लगातार कम होते विदेशी मुद्रा भंडार और डॉलर की कमी की वजह से पाकिस्तान डिफॉल्टर बनने की कगार पर पहुंच जाएगा।
यहां गौर करने वाली बात है कि मदद हासिल करने के लिए अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष की कुछ आधार शर्ते होती हैं। मसलन सब्सिडी में कमी करना और पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की कीमतें बढ़ाना। लेकिन जनता की नाराजगी मोल लेने वाले इन कदमों पर पहल करने से पाकिस्तान की मौजूदा पीडीएम गंठबंधन सरकार हिचक रही है।
सरकार के मुताबिक देश में डॉलर की कमी की एक वजह है अफग़ानिस्तान के लिए अवैध फ्लाइट। इसे देखते हुए एनएससी ने अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने के लिए हवाला समेत अवैध मुद्रा के दूसरे सभी कारोबारों पर लगाम कसने का फ़ैसला किया है।
टीटीपी से कोई बातचीत नहीं
पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों तक पहुँच रखने वाले कुछ पत्रकारों और विशेषज्ञों की मानें तो सरकार जल्द से जल्द आतंकी संगठनों के खिलाफ बड़ा ऑपरेशन करने पर विचार कर रही है। खासतौर पर खैबर पख्तुनख़्वा और बलूचिस्तान में सक्रिय आतंकी संगठनों को लेकर सरकार गंभीर है। जबसे प्रतिबंधित तहरीक-ए-तालिबान ने युद्धविराम खत्म करने की घोषणा की है, तब से पाकिस्तान में कानून व्यस्था संभालने वाली एजेंसियों पर आतंकी हमले तेजी से बढ़े हैं। इसे देखते हुए पाकिस्तानी सेना ट्राइबल इलाकों में पहले से ही कई ऑपरेशन चला रही है। सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार आने वाले दिनों में ऐसे और भी ऑपरेशन शुरू करने वाली है।
पिछले 15 सालों में टीटीपी पाकिस्तान के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन के रूप में उभरा है। इस दौरान इसने हजारों आम लोगों के साथ सैनिकों को भी निशाना बनाया है। पिछले साल पाकिस्तान सरकार ने टीटीपी के साथ अनौपचारिक बातचीत शुरु की थी। ये बातचीत अफगान तलिबान की मध्यस्थता में हो रही थी। लेकिन पीटीटी की गैर-वाजिब मांगों की वजह से बातचीत बीच में ही बिगड़ गई। इसके बाद पिछले दिसंबर में टीटीपी ने सरकार के साथ युद्धविराम खत्म करने और पूरे देश में आतंकी हमले शुरू करने का ऐलान कर दिया।
पाकिस्तान की आवाम पहले भी टीटीपी के साथ बातचीत के खिलाफ थी। अब गृहमंत्री राना सनानुल्लाह ने हालिया इंटरव्यू में ये माना कि ‘टीटीपी ने बातचीत की पेशकश को सरकार की कमजोरी माना।
इस बात का एहसास सेना को भी हो चुका है। इसलिए सरकार अब ऐसी कोई भी पेशकश नहीं करने वाली। बल्कि हमारी तरफ से साफ बात ये है कि अब टीटीपी या किसी भी आतंकी संगठन से कोई बातचीत नहीं होगी।
एनएससी की बैठक के बाद पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने भी एक इंटरव्यू में साफ कहा कि ‘अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ किया जा रहा है। पाकिस्तान की सरकार पहले से ही ये दावा करती रही है कि सरहद के पास अफगानिस्तान के इलाके टीटीपी के लिए सुरक्षित पनाहगाह बने हुए हैं। टीटीपी के आका अफगानिस्तान में बैठ कर पाकिस्तान में हमलों की योजना बनाते हैं और वहीं से अंजाम देते हैं।’
पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ने ये भी कहा कि सरकार अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ बातचीत करेगी और उन्हें याद दिलाएगी कि दोहा समझौते में उन्होंने आतंकी संगठनों को अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देने का जो वादा अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किया था, उसका सख्ती से पालन करे।
पाकिस्तान के गृह मंत्री ने इस बात के संकेत दिए कि अगर जरूरत पड़ी तो टीटीपी के आकाओं का पीछा अफगानिस्तान में घुसकर किया जाएगा।
सलीम सैफी के मुताबिक अब ‘अच्छे तालिबान’ और ‘बुरे तालिबान’, या ‘अफगान तालिबान’ और ‘पाकिस्तान तालिबान’ के बीच फर्क करने का कोई तुक नहीं। ये सब बकवास साबित हो चुका है। उनकी नजर में सरहद के आस पास सक्रिय दोनों तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक ही विचारधारा में यकीन रखते हैं। दोनों ने ही अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले के खिलाफ जंग छेड़ी। आतंकवाद के खिलाफ इस जंग में पाकिस्तान अमेरिका का साझीदार बना तो इस बात से नाराज टीटीपी ने पाकिस्तान में आतंकी हमलों को अंजाम देना शुरू कर दिया।’ इसलिए सलीम सैफी को ऐसा कतई नहीं लगता कि पाकिस्तानी तालिबान को काबू करने के लिए अफगान तालिबान से मदद लेना फायदेमंद होगा। उनका मानना है कि अफगान तालिबान कभी भी टीटीपी के खिलाफ़ कार्रवाई नहीं करेगा।
एनएससी के फैसलों पर प्रतिक्रिया
अमेरिका ने एनएससी के फैसलों का पुरजोर समर्थन किया है। अपने साप्ताहिक मीडिया ब्रीफिंग में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा कि ‘पाकिस्तान को पूरा हक है, खुद को आतंकवाद से बचाने का।’
नेड प्राइस ने आगे कहा ‘पाकिस्तान की जनता आतंकी हमलों से बुरी तरह प्रभावित हुई है। अफग़ानिस्तान की तालिबान सरकार को आतंकवाद के लिए अपनी जमीन नहीं इस्तेमाल होने देने का वादा निभाना चाहिए। लेकिन तालिबान सरकार या तो ऐसा करना नहीं चाहती या फिर कर नहीं पा रही।’
उधर तालिबान के रक्षा मंत्री ने राना सनाउल्लाह के उस बयान पर कड़ा ऐतराज जताया जिसमें उन्होंने टीटीपी के खिलाफ अफगानिस्तान में घुसकर कार्रवाई की बात कही थी। तालिबानी रक्षा मंत्री ने कहा कि 'इससे दोनों देशों के रिश्ते खराब होंगे। टीटीपी के आतंकी अड्डे अफगानिस्तान में नहीं, बल्कि पाकिस्तान में ही हैं।’
तालिबान सरकार के प्रवक्ता जबिउल्लाह मुजाहिद ने भी पाकिस्तान सरकार से अपील की कि वो ऐसे बिना किसी आधार वाले भडक़ाऊ बयानों से बचे। उन्होंने पाकिस्तान के मंत्रियों के बयानों को ‘अफसोसनाक’ करार देते हुए कहा कि उनकी सरकार पूरी कोशिश कर रही है कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल पाकिस्तान या किसी दूसरे देश के खिलाफ न हो।
विशेषज्ञों का मानना है कि टीटीपी पर कार्रवाई को लेकर मतभेद का असर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संबंधों पर साफ दिखने लगा है। ये ऐसा रिश्ता है जिससे कमजोर करना दोनों में से किसी के हित में नहीं।
सलीम सैफी के मुताबिक तालिबान सरकार भी बड़ी मुश्किल में फंसी हुई है। ‘उन्हें पता है पूरी दुनिया में अगर कोई अफगानिस्तान के साथ खड़ा रहने वाला देश था, वो पाकिस्तान था। खाने पीने की चीजों से लेकर इलाज के लिए दवाइयों की सप्लाई के मामले में वो इस्लामाबाद की राह देखते रहे हैं। इसे वो तोडऩा नहीं चाहेंगे। लेकिन उनकी हरकतों से ऐसा भी नहीं लगता कि टीटीपी के आतंकियों को पकडऩे में वो पाकिस्तान का साथ देंगे।’
सीनियर जर्नलिस्ट जाहिद हुसैन की नजऱ में आतंकवादियों के ख़िलाफ़ त्वरित सैन्य करवाई से भले ही इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये इस जटिल समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता।
जाहिद कहते हैं ‘अब भी मसले की तह तक जाने की बजाय पूरा ज़ोर सिफऱ् सतह पर लगी आग को बुझाने में लगाया जा रहा है। आज की तारीख में हमें अपनी आतंकवाद विरोधी रणनीति की गंभीर समीक्षा की जरूरत है, जो अब तक अपने मक़सद को हासिल करने में नाकाम साबित हुई है।’
टीटीपी का बढ़ता खतरा
सबसे बड़ा खतरा तो पाकिस्तान की मौजूदा सरकार के ऊपर ही मंडरा रहा है। टीटीपी ने हालिया धमकी में ये साफ कर दिया है कि वो अब तक आम लोगों और सेना के जवानों को निशाना बना रहे थे। अब सरकार में शामिल पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के नेताओं पर हमले तेज करेंगे।
टीटीपी ने ये भी कहा है कि अगर ये दोनों पार्टियां उनके संगठन के खिलाफ बनी रहीं, तो उनके नेताओं को नहीं छोड़ेंगे। इन्होंने आम लोगों को भी चेतावनी दी है कि वो इन नेताओं के इर्द-गिर्द न जाएं। टीटीपी ने खासतौर पर विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी और शहबाज शरीफ का नाम लया है।
आर्थिक मोर्चे पर क्या होगा?
एनएससी की बैठक के बाद जारी विज्ञप्ति में देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने वाले किसी रोड मैप पर गहन विचार का जिक्र नहीं है। लेकिन एक बात पर सहमति जरूर दिखी- आईएमएफ के कार्यक्रम को वापस पर पटरी पर लाने के लिए सभी लोग मिल जुलकर काम करें।
जानकारों की मानें तो अगर बैठक में इस तरह की सहमति बनी है तो इसका मतलब साफ है कि पीडीएम की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार जल्द ही कुछ सख्त फैसले ले सकती है, जो अब तक वो लोगों का समर्थन खोने के डर से नहीं ले रही थी।
12 पार्टियों की गठबंधन सरकार के लिए इमरान ख़ान की बढ़ती लोकप्रियता पहले से ही चुनौती बनी हुई है। ये बात सभी सर्वेक्षणों में साफ तौर पर कही जा रही है कि अगले आम चुनाव में इमरान खान की जीत तय है। लेकिन एनएससी की बैठक में ये बात साफ कर दी गई कि सरकार के पास अब तेजी से फैसले लेने के सिवा कोई चारा नहीं।
सीनियर जर्नलिस्ट सैयद तलत हुसैन भी मानते है कि ‘सरकार की निर्णय लेने में अक्षमता देश को डिफॉल्ट जैसी स्थिति में धकेल रही है। इन्हें अब सोचना होगा कि अब ये ज़्यादा दिनों तक चीजों को टाल नहीं सकते। आईएमएफ प्रोग्राम को जारी रखने के लिए सरकार को उनकी शर्तें माननी ही होंगी।’ हालांकि सरकार ने इस दिशा में प्रयास किए। जैसे कि बिजली बचाने के लिए बाजारों को रात के 8.30 बजे तक और शादी घरों को रात 10 बजे तक बंद करना फैसला। लेकिन सरकार के इन आदेशों का कारोबारी लोगों ने कड़ा विरोध किया। ख़ासतौर पर पंजाब और खैबर पख्तुनवा प्रांत में जहां विपक्षी तहरीक़-ए-इंसाफ़ पार्टी की सरकार है। मीडिया में भी सरकार की इन नीतियों का मज़ाक उड़ा गया।
देश के जाने माने बिजनेस संवाददाता शाहबाज़ राना ने 'एक्सप्रेस ट्रिब्यून' में अपनी छपी रिपोर्ट में ये दावा किया कि आईएमएफ़ प्रोग्राम बहाल करने के लिए बिजली और गैस की क़ीमतों में वृद्धि और दूसरे टैक्सों में बढ़ोतरी में आशंका की वजह से महंगाई दर 24।5 फ़ीसदी तक पहुंच गई।
इस दिशा में पाकिस्तान की वित्त राज्य मंत्री डॉक्टर आयशा पाशा की तरफ़ से संकेत ये है कि आईएमएफ के साथ जो बातचीत नवंबर में टल गई थी वो अब जेनेवा में नौ जनवरी को हो सकती है। इसका मतलब ये है कि बैठक के बाद करेंसी एक्सचेंज रेट को लेकर कुछ कड़े फैसले लिए जा सकते हैं। (bbc.com/hindi)
-सचिन कुमार जैन
जैन समाज ने श्री सम्मेद शिखर क्षेत्र के बारे में सरकार द्वारा बनाई जा रही नीति पर एक ठोस पक्ष लेते हुए एक महत्वपूर्ण सन्देश भी दिया है। सन्दर्भ यह है कि झारखंड सरकार ने जैन समाज के पवित्र स्थान श्री सम्मेद शिखर को ‘एक पर्यटन क्षेत्र’ के रूप में वर्गीकृत किया है। सरकार का तर्क यह है कि जब कोई स्थान ‘पर्यटन क्षेत्र’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, तभी सरकार उन स्थानों के विकास के लिए योजना बना सकती है। अगर सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल घोषित नहीं किया जाएगा तो वहां सरकार कोई व्यय नहीं कर पाएगी।
इसके दूसरी तरफ जैन समाज का पक्ष है। जो यह मानता है कि धर्म के अपने कुछ खास व्यवहार होते हैं, सिद्धांत होते हैं। अगर सरकार सम्मेद शिखर को पर्यटन क्षेत्र घोषित करेगी, तो इससे वहां की व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
वास्तव में यह प्रकरण धर्म और धार्मिक स्थलों में सरकार के दखल-अंदाजी और धर्म की राजनीति का सबसे प्रासंगिक उदाहरण है। जब सरकार धर्म और धार्मिक स्थलों की व्यवस्था में दखल देना शुरू करती है, तब उसका मुख्य मकसद आर्थिक लाभ कमाना होता है। दूसरा मकसद राजनीतिक हितलाभ होता है। सरकार ‘सार्वजनिक धन’ का उपयोग खास धर्मों के संरक्षण के लिए करके राजनीतिक लाभ अर्जित करने का प्रयास करती है।
जैन समाज ने हिंदुत्ववादी सोच के ठीक विपरीत पक्ष लिया है। आज हम देख रहे हैं कि पूरे देश में हिन्दू समाज यह चाहता है कि उसके ईश्वर की मूर्तियाँ भी सरकार बनाये, मंदिरों की शिखर भी सरकार बनाए, धर्मशालाएं भी सरकार बनाये, धार्मिक स्थलों के प्रचार का काम भी सरकार ही करे और इससे आगे बढक़र धार्मिक स्थलों को विलासिता के केंद्र बना दे। मूलत: सिद्धांत तो यह है कि समाज को धर्म का प्रबंधन करना चाहिए, लेकिन राजनीति ने सरकारों को धर्म का प्रबंधक बना दिया है और इस काम में हिंदुत्ववादी राजनीति ने हमेशा मुख्य भूमिका निभाई है।
ऐसा लगता है कि आज के समय में धार्मिक स्थलों को पर्यटन स्थल बनाने के लिए या धर्म की राजनीति करने के लिए सार्वजनिक/सरकारी धन का उपयोग एक अच्छी बात मान लिया गया है, जबकि वास्तव में यह एक अनैतिक और असंवैधानिक नीति है। जो धार्मिक समुदाय यह मानते हैं कि उनके धर्मों का प्रबंधन सरकार को करना चाहिए, वे भीतर से बेहद कमज़ोर, पिलपिले और असुरक्षित धार्मिक समुदाय हैं। जऱा सोचिये कि सार्वजनिक/सरकारी धन से धार्मिक स्थलों के विज्ञापनों में ईश्वर/आराध्य के समानांतर सरकारी नुमाइंदों और जनप्रतिनिधियों के प्रचार वाले विज्ञापनों का प्रकाशन समाज को उचित और नैतिक मानना चाहिए? वह भी सरकारी खर्चे पर!
जैन धर्म के पालकों ने वास्तव में यह सन्देश दिया है कि अपने धर्म और धार्मिक स्थलों का सरकारीकरण और राजनीतिकरण होना उन्हें कतई मंज़ूर नहीं है। जैन समाज खुद अपने धार्मिक स्थलों का संचालन और प्रबंधन करेगा। सरकार कुछ करोड़ रुपये व्यय करके, धर्म और समुदाय की भूमिका को नियंत्रित नहीं कर सकती है।
सरकार की भूमिका केवल इतनी है कि वह धार्मिक स्थलों की क़ानून-व्यवस्था को बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाये और यह सुनिश्चित करे कि देश के संविधान की व्यवस्था और मूल्यों के खिलाफ कोई व्यवहार न किया जाए।
- प्रकाश दुबे
आग और धारदार पत्थर को पहला वैज्ञानिक शोध मानने के लिए आधुनिक वैज्ञानिक तैयार हों या न हों, आम धारणा यही है। जीभ के स्वाद और जीवनशैली की सुविधा ने प्रागैतिहासिक मानव को वैज्ञानिक शोध के लिए प्रेरित किया। स्वाद और सुविधा बटोरने की ललक में वैज्ञानिक शोध हुए।
वैज्ञानिक अनुसंधानों की बदौलत बेहतर जिंदगी की खटपट आसान हुई। रोगों से निजात पाने और दुनिया मुटठी में करने का हौसला बढ़ा। वहीं सबको भरपेट भोजन और बेहतर सुविधाएं दिलाने का लक्ष्य बदलकर व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ की तलाश करने वालों के मुनाफे का गणित बनता गया। 16 जुलाई 1946 को जूलियस राबर्ट ओपनहाइमर परमाणु विस्फोट का प्रयोग करने में सफल हुए। बम बना। लाखों लोग मारे गए। धरती अब तक भारी विध्वंस का परिणाम भुगत रही है।
अमेरिका की नागासाकी और हिरोशिमा पर बमबारी के बाद वेदना को व्यक्त करते हुए ओपनहाइमर ने श्रीमदभगवत्गीता के कृष्ण की उक्ति दोहराई। कहा- मैं काल (मृत्यु), दुनिया का विनाशकर्ता बना। विज्ञान के अहंकारी और मुनाफाखोर प्रयोग से अशांत कुछ वैज्ञानिकों ने पाश्चाताप करना चाहा। अल्फ्रेड नोबल की जन्मभूमि स्वीडन। पिता ने रूस में कारोबार किया। 1864 में नाइट्रोग्लिसरिन से प्रयोगशाला में विस्फोटक बना चुके थे। 25 नवम्बर 1867 को बारूद यानी डायनामाइट को इंग्लैंड से पेटेंट पा लिया। कहते हैं सगा भाई प्रयोग में प्राण गवां बैठा था। मिलते जुलते नाम के व्यक्ति की मौत के बाद खबर छपी-मौत का सौदागर चला गया। उस पल ने अल्फ्रेड नोबल को नोबल पुरस्कार आरंभ करने के लिए प्रेरित किया।
ओपनहाइमर भौतिकशास्त्री और नोबल रसायनशास्त्री। नोबल पुरस्कार शांति प्रयासों के लिए भी दिया जाता है। यह महत्वपूर्ण है। विकास के लिए बारूद से चट्टानें तोडक़र भवन, बस्तियों, महामार्गों, कारखानों, हवाई अड्?डों का निर्माण किया जाता है। आतंकवादी और अपराध माफिया बारूदी विस्फोट कर मासूमों की जान लेते हैं। अपना उल्लू सीधा करते हैं। वैज्ञानिक और उनकी नकेल थामने वाली सत्ता विकास की आड़ में होने वाले विध्वंस और विनाश के प्रयोग रोकने को कम अहमियत नहीं देती। एक सौ आठवें विज्ञान कांग्रेस में महिला सशक्तिकरण, किसान और जनजाति समुदाय पर विमर्श की पहल महत्वपूर्ण है। उद्घाटन के बाद ही ब्ल्यू इकानामी पालिसी पर सचिव स्तर के अधिकारी ने समूचे प्रारूप पर बात रखी। सागर, मौसम आदि के बारे में केन्द्र सरकार का पृथ्वी विज्ञान विभाग शोध कराता रहता है। अटल बारी वाजपेयी सरकार के मंत्री सुंदर लाल पटवा ने सागर मंथन कर रत्नों की खोज का आदेश जारी किया था। पृथ्वी विज्ञान विभाग के सचिव डा रविचंद्रन के प्रारूप का खुलासा होने पर पता लगेगा कि मछुआरों की जिंदगी में आमूल परिवर्तन लाने में विज्ञान कितना सहायक है? मोटा अनुमान यह, कि सिर्फ मछली पालन जैसे व्यवसाय से करोड़ों लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है। इस तरह के शोध और अनुसंधान प्रयोगशालाओं के बाहर संबंधित समुदाय तक पहुंचना जरूरी है। कृषि अनुसंधान के बावजूद किसान आत्महत्याएं नहीं रुक रही हैं। सही तालमेल के अभाव में?
विज्ञान को घर-घर पहुंचाने की डा एपीजे अब्दुल कलाम वाली ललक की प्रशंसा होती है। उस राह पर चलने वाले विरले हैं। राष्ट्रपति भवन से बाहर निकलने के बाद डा कलाम देश भर के युवजनों को वैज्ञानिक वातावरण से जोड़ रहे थे। गुवहाटी में विद्यार्थियों को संबोधित करते समय उन्होंने अंतिम सांस ली। पाठशाला से लेकर विश्वविद्यालय तक हमारे वैज्ञानिकों के जाने का लाभ तो होगा, इस काम के लिए विज्ञान सेना तैयार करने की आवश्यकता है। सूर्य ग्रहण से लेकर अनेक कुदरती घटनाओं के बारे में गहराई तक संशय और अंधविश्वास के कारण अनेक समस्याएं उपजती हैं।
विकास की अवधारणा में विकेन्द्रीकरण की अनदेखी से कई बातें छूट जाती हैं। बिजलीघर बनाते समय सही मीटर रीडिंग, ऊर्जा की न्यूनतम खपत जैसे सरकारी उपाय आधे मन से किए गए। सडक़ और भवन निर्माण में फ्लाईएश का उपयोग नहीं होता तो राख के पहाड़ खेतों को लीलते जाते। देश के कम ही राज्य हैं जहां बालू और पत्थर की अवैध खुदाई और तस्करी नहीं होती। मध्य अंचल के मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इस गैरकानूनी कारोबार में राजनीतिक हस्तियों की भागीदारी सर्वविदित है।
15 अक्टूबर 2022 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने ऐलानिया कहा था कि मंत्री, जन प्रतिनिधि तक को जेल भेजने से नहीं हिचकेंगे। संबंधित विभागों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। जिस देश में आत्मनिभ्रर उद्योजक ड्रोन तैयार करने की क्षमता रखता है वहां हवाई निगरानी से करोड़ों की लूट से प्रकृति को विकृत करने और नौकरशाहों को भ्रष्ट करने पर अंकुश लगाने का कीमिया विज्ञान के पास है नहीं, या उसका प्रयोग नहीं होता? भ्रष्टाचार के विरुद्ध निरपेक्ष भाव से कार्रवाई करना तभी संभव है, जब विज्ञान के उपकरण उपलब्ध हों। उनका वाजिब इस्तेमाल हो। पांच-जी के युग में प्रवेश करने के बावजूद संचार सुविधा गड़बड़ाती है।
पता नहीं, विज्ञान कांग्रेस के प्रतिनिधियों का क्या अनुभव रहा? आम नागरिक तो कामरूप से कच्छ तक इसे भुगत रहा है। भरपूर बिजली और बेहतर संचार सुविधा के घोड़े पर सवारी किए बगैर आन लाइन शिक्षा दूरदराज के देहातों तक नहीं पहुंच सकती। ग्रामोपयोगी विज्ञान की दिशा में बहुत कुछ करना शेष है। खेतों को रसायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त करने के सस्ते उपाय नहीं हैँ। कचरे का वर्गीकरण लोगों की समझ में ठीक से नहीं आया। उसके निस्तारण पर चर्चा कर वैज्ञानिक उपयोगी समाधान खोज लें तो अस्पतालों और महंगी दवाओं की मार से देश बचेगा।
युवा वैज्ञानिकों ने कई सस्ते तरीके ईजाद किए हैं। देश की आजादी के बारे में तरह तरह के मापदंड हैं। सबकी अपनी परिभाषाएं। नागरिक को साफ पेयजल और निस्तारण के लिए शौचालय उपलब्ध कराने वाले देश को ही सही अर्थ में आजाद और आत्मनिर्भर कहा जा सकता है। शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगकी को सस्ता, सुबोध और सरल बनाने पर ही यह संभव है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत से अंग्रेजों को विदा हुए तो 75 वर्ष हो गए लेकिन भारत के भद्रलोक पर आज भी अंग्रेजी सवार है। देश का राज-काज, संसद का कानून, अदालतों के फैसलों और ऊँची नौकरियों में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। ज्यों ही इंटरनेट, मोबाइल फोन और वेबसाइट का दौर चला, लोगों को लगा कि अब हिंदी और भारतीय भाषाओं की कब्र खुद कर ही रहेगी। ये सब आधुनिक तकनीकें अमेरिका और यूरोप में से उपजी हैं। वहाँ अंग्रेजी का बोलबाला है। ये तकनीकें भारत में भी तूफान की तरह फैल रही थीं।
जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे लेकिन मोबाइल फोन, इंटरनेट या वेबसाइटों का इस्तेमाल करना चाहते थे, उन्हें मजबूरन अंग्रेजी (कामचलाऊ) सीखनी पड़ती थी लेकिन भारत के भद्रलोक को अब पता चला है कि उल्टे बाँस बरेली पहुंच गए हैं। हिंदी के श्रेष्ठ अखबार ‘भास्कर’ ने जो ताजातरीन सर्वेक्षण छापा है, वह भारतीय भाषा प्रेमियों को गदगदायमान कर रहा है। उसके अनुसार देश के 89 प्रतिशत लोग स्वभाषाओं का प्रयोग करते हैं। अंग्रेजी लिखने, बोलने, समझनेवालों की संख्या देश में सिर्फ 12.85 करोड़ याने मुश्किल से 10 प्रतिशत है।
सिर्फ ढाई लाख लोगों ने अपनी मातृभाषा अंग्रेजी बताई है। कितने शर्म की बात है कि हमारे देश में इन ढाई लाख लोगों की मातृभाषा भारत के 140 करोड़ लोगों की दादीभाषा बनी हुई है? लेकिन खुशी की बात यह है कि 90 के दशक में इंटरनेट की 80 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में होती थी, अब वह 50 प्रतिशत के आस-पास लुढ़क गई है याने लोग स्वभाषाओं का इस्तेमाल बड़ी फुर्ती से बढ़ाने लगे हैं।
इंटरनेट ने अनुवाद को इतना सरल बना दिया है कि आप दुनिया की प्रमुख भाषाओं की सामग्री कुछ क्षणों में ही अपनी भाषा में बदल सकते हैं। अनुवाद का उद्योग आजकल अकेले भारत में 4.27 लाख करोड़ रु. का हो गया है। जाहिर है कि भारत में सिर्फ विदेशी भाषाओं से ही देशी भाषाओं में अनुवाद नहीं होता, स्वदेशी भाषाओं में भी एक-दूसरे का अनुवाद होता है। भारत में दर्जनों भाषाएं हैं, इसीलिए यह दुनिया का सबसे बड़ा अनुवाद उद्योग घराना शीघ्र ही बन जाएगा।
इससे भारत की एकता सबल होगी और पारस्परिक भाषाई विद्वेष भी घटेगा। भारत की फिल्में भारत में ही नहीं, पड़ौसी देशों में भी बड़े उत्साह से देखी जाती हैं। यदि उनका रूपांतरण भी उनकी भाषाओं में सुलभ होगा तो इन सब देशों की एकता और सांस्कृतिक समीपता में वृद्धि होगी।
भारतीय जनता को भी पड़ौसी देशों के अखबारों और फिल्मों का लाभ इस अनुवाद प्रक्रिया के जरिए जमकर मिलता रहेगा। यदि संपूर्ण दक्षिण और मध्य एशिया के देशों में हम भाषाई सेतु खड़ा कर सकें तो कुछ समय में ही हम संपूर्ण आर्यावर्त्त क्षेत्र को यूरोप से अधिक संपन्न और शक्तिशाली बना सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
6 जनवरी को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली में आयोजित होने वाले कार्यक्रम के बारे में कुछ बातें -
3 जनवरी की देर शाम दिल्ली से कनिष्क का व्हाट्सएप कॉल आता है कि 6 जनवरी को पिताजी की स्मृति में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली में एक गरिमामय कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है।
कनिष्क ने यह भी कहा कि वे मुझे इस आयोजन में जरूर आना है। कनिष्क ने दस बारह दिनों पहले मुझे इसकी सूचना भी दे दी थी।
कनिष्क देश के प्रखर बुद्धिजीवी और भारत के युवा प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के प्रमुख सलाहकार, हम सबके बेहद अज़ीज़ श्री देवी प्रसाद त्रिपाठी के कनिष्ठ पुत्र हैं।
देवी प्रसाद त्रिपाठी अपने आप में किसी मिथक से कम नहीं थे। वे एक दुर्लभ किस्म के बुद्धिजीवी थे जो साहित्य, कला, संस्कृति तथा राजनीति में एक साथ निरंतर आवाजाही कर सकते थे। जो अपनी स्मृति और वाकपटुता से सबको चमत्कृत कर सकते थे और अपने ज्ञान से सबको अभिभूत। भारतीय बौद्धिक सांस्कृतिक जगत में वे बेहद चमकीले नाम थे। उनकी सोहबत और दोस्ती का दायरा पूरी दुनिया में फैला हुआ था।
फैज अहमद फ़ैज़, अभिमन्यु अनत, ऋत्विक घटक, अमर्त्य सेन, अमिताभ घोष, मृणाल सेन, अशोक वाजपेयी, प्रकाश कारथ, सीताराम येचुरी, विवान सुंदरम, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अपूर्वानंद, पवन वर्मा, रमेश दीक्षित, राजनाथ सिंह जैसे साहित्य राजनीति और अन्य अनुशासन का ऐसा कौन शख्स है जो डी.पी.त्रिपाठी की दोस्ती के दायरे में न आता हो।
नेपाल में कोई भी प्रधानमंत्री हो वह डी.पी. त्रिपाठी का मुरीद न हो ऐसा मुमकिन ही नहीं है। नेपाल और मॉरिशस उनका दूसरा घर भी था।
हिंदी फिल्म की मशहूर अभिनेत्री मनीषा कोइराला के वे भारत में लोकल गार्जियन थे। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री मौली शर्मा की दिल्ली में पढ़ने वाली सुपुत्री के और मेरे बेटे कबीर के भी वे दिल्ली में लोकल गार्जियन थे।
जेएनयू के वे पहले वामपंथी प्रेसिडेंट चुने गए थे। बाद में सीताराम येचुरी हुए।
ज्योति बसु और बंगाल से उनका गहरा नाता रहा है। बाद में वे भारत के प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के प्रमुख सलाहकार हुए। वे राजीव गांधी के अंतिम दिनों तक उनके साथ रहे।
उनकी बौद्धिकता के अनेक किस्से मशहूर हैं जिसमें हजारों मोबाइल नंबर का याद रहना, अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, उर्दू के पढ़े हुए सैकड़ों किताबों के पृष्ठ दर पृष्ठ रखना, सैंकड़ों मित्र परिवार के बच्चों के नाम भी उन्हें मुखाग्र याद थे।
रायपुर से जुड़ी हुई एक घटना मुझे याद आ रही है। विश्वरंजनजी उन दिनों छत्तीसगढ़ में डीजीपी थे।
डी.पी. त्रिपाठी रायपुर आए हुए थे। वे हमेशा की तरह रात में समय निकालकर मेरे साइंस कॉलेज कैंपस स्थित शासकीय आवास में आए हुए थे। बातचीत के दौरान अचानक फिराक गोरखपुरी का जिक्र छिड़ गया। मैंने उन्हें बताया कि फिराक गोरखपुरी के नवासा विश्वरंजन रायपुर में डीजीपी हैं।
डी.पी. त्रिपाठी ने मुझसे कहा कि विश्वरंजन से बात करवाओ। मैंने उनकी विश्वरंजन से बात करवा दी। दूसरे दिन हम लोग उनसे मिलने पहुंचे। विश्वरंजनजी प्रतीक्षा कर रहे थे। बातचीत शुरू होते ही विश्वरंजन ने कहा कि जब वे पटना यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे तब उन दिनों स्टूडेंट के बीच यह चर्चा होती थी कि भारत में कोई जीनियस है तो वे डी.पी.त्रिपाठी ही हैं।
फैज़ अहमद फैज़ को भारत बुलाने का और दो तीन दिन तक इलाहाबाद को फैज़ के रंग में रंग देने का दुस्साहस केवल डी. पी. त्रिपाठी ही कर सकते थे। मंच पर एक साथ फैज़ अहमद फैज़, महादेवी वर्मा और फिराख गोरखपुरी को एक साथ बैठाने का साहस भी केवल डी.पी. त्रिपाठी के लिए ही संभव था। यह उन दिनों की बात है जब वे इलाहाबाद में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हुआ करते थे।
इस तरह के अनेकों किस्से डी.पी.त्रिपाठी की शख्सियत के साथ जुड़े हुए हैं। उनकी शख्सियत की एक खूबी यह भी थी की वे हर किसी की मदद के लिए तत्पर रहते थे जैसे गोया वे कोई देवदूत या फरिश्ता हों।
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर उनकी सर्वाधिक पसंदीदा जगह थी। दिल्ली जाने पर अक्सर दोपहर की रसरंग महफिल वहीं जमती थी। कई बड़े साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों को उन्होंने वहीं अंजाम दिया था।
मृत्यु से पहले उन्होंने देश भर में फैल रही सांप्रदायिकता को लेकर एक बड़ा आयोजन भी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित किया था। जिसमें देशभर के नामचीन बुद्धिजीवियों को उन्होंने इस कार्यक्रम में आमंत्रित भी किया था। वह एक यादगार कार्यक्रम था जिसे भुला पाना मुश्किल है।
नई दिल्ली के उसी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उन पर केंद्रित आयोजन को लेकर में बेहद भावुक हो रहा हूं।
कल यानी 6 जनवरी को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी अनेक उज्जवल स्मृतियां मुझे घेर लेंगी और मैं जानता हूं कि मन ही मन मैं उन स्मृतियों को सबकी नजर बचाकर नमन करने भी लग जाऊंगा क्योंकि अब वे स्मृतियां ही मेरे पास शेष बची रह गई हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर अपना फैसला सुनाया है कि कोई मंत्री यदि आपत्तिजनक बयान दे दे तो क्या उसके लिए उसकी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? यह मुद्दा इसलिए उठा था कि आजम खान नामक उ.प्र. के मंत्री ने 2016 में एक बलात्कार के मामले में काफी आपत्तिजनक बयान दे दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों में से चार की राय थी कि हर मंत्री अपने बयान के लिए खुद जिम्मेदार है। उसके लिए उसकी सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इस राय से अलग हटकर न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्न का कहना था कि यदि उस मंत्री का बयान किसी सरकारी नीति के मामले में हो तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर डाली जानी चाहिए। शेष चारों जजों का कहना था कि संविधान कहता है कि देश में सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता का जो भी दुरूपयोग करेगा, उसे सजा मिलेगी। ऐसी स्थिति में अलग से कोई कानून थोपना तो अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता का हनन होगा।
संविधान की धारा 19 (2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो भी मर्यादाएं रखी गई हैं, वे पर्याप्त हैं। चारों न्यायाधीशों की राय काफी तर्कसंगत प्रतीत होती है लेकिन जज नागरत्न की चिंता भी ध्यान देने लायक है। आखिर मंत्री का बयान प्रचारित इसलिए होता है कि वह मंत्री है। वह सरकार का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन उसके व्यक्तिगत बयानों के लिए सरकार को जिम्मेदार कैठे ठहराया जा सकता है? इसके अलावा यह तय करना भी आसान नहीं है कि उसका कौनसा बयान व्यक्तिगत है और कौनसा उसकी सरकार से संबंधित है।
मैं सोचता हूं कि इस मामले में जैसा कानून अभी उपलब्ध है, वह पर्याप्त है। कानून की नई सख्तियाँ लागू करने से भी ज्यादा जरूरी है कि हमारे मंत्री और नेता लोग खुद पर ज़रा आत्म-संयम लागू करें। उनका मंत्रिमंडल और उनकी पार्टी उन्हें मर्यादा में रहना सिखाए। दुखद स्थिति यह है कि पार्टी और सरकार के सर्वोच्च नेता भी अनाप-शनाप बयान देने से बाज नहीं आते।
अखबार और टीवी चैनल भी उन जहरीले चटपटे बयानों को उछालने का मजा लेते हैं। यदि हमारी खबरपालिका अपनी लक्ष्मण-रेखाएँ खींच दे तो इस तरह के जहरीले, कटुतापूर्ण और घटिया बयानों पर किसी का ध्यान जाएगा ही नहीं। जो नेतागण इस तरह के बयान देने के आदी हैं, उनकी पार्टी उन पर कड़े प्रतिबंध भी लगा सकती हैं, उन्हें दंडित भी कर सकती हैं। यदि हमारी खबरपालिका और पार्टियां संकल्प कर लें तो वे नेतागण की इस बदजुबानी को काफी हद तक रोक सकती हैं। अदालतों के सहारे उन्हें रुकवाने से यह कहीं बेहतर तरीका है। (नया इंडिया की अनुमति से)
चन्द्र शेखर गंगराड़े,
डॉ. चरणदास महंत, अध्यक्ष, छ.ग. विधानसभा के चार साल पूरे
4 जनवरी 2019 को डॉ. चरणदास महंत ने विधानसभा अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया और आज उन्होंने सफलता पूर्वक 4 वर्ष पूर्ण कर लिया। यह सफर जहां चुनौतीपूर्ण था वहीं उनके लिए नए अवसर भी लेकर आया और उन्होंने सफलतापूर्वक 4 वर्ष का सफर पूर्ण किया।
विधानसभा अध्यक्ष के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के एक वर्ष बाद ही मार्च 2020 में कोरोना ने दस्तक दे दी और कोरोना काल में जहां बहुत अधिक एहतियात बरतना था वैसे में सत्र आहूत करना एक चुनौती था, जहां अन्य विधानसभाओं में सत्र की बैठकों में कटौती हुई या संक्षिप्त हुए वहीं छ.ग. विधानसभा ने इसे एक अवसर मानते हुए कोरोना काल में तमाम निरोधात्मक उपायों का पालन करते हुए सत्र सफलतापूर्वक आयोजित किये और इसका पूरा श्रेय अध्यक्ष महोदय को जाता है।
बजट सत्र 2020 के बाद जब वर्षाकालीन सत्र अगस्त में आयोजित होना था उसके पूर्व अध्यक्ष ने सत्र के संचालन में कोई असुविधा न हो और सामाजिक दूरी का भी पालन हो सके इस दृष्टि से सभा भवन में दो सदस्यों के बीच काँच की दीवार बनाये जाने का निर्देश दिया जिसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई और बाद में लोकसभा सहित अन्य विधानसभाओं ने भी सामाजिक दूरी को बनाये रखने की दृष्टि से कांच का पार्टिशन किया। इसके अतिरिक्त सभा में कुछ स्थानों पर एक ही सीट पर 3-3 या 4-4 सदस्य बैठते थे, तो उसका भी समाधान निकालते हुए 3 एवं 4 सीट के सोफा के स्थान पर 2-2 सीट के सोफे लगाये गये ताकि सदस्यों को आने जाने में असुविधा न हो और सामाजिक दूरी के नियम का भी पालन हो सके।
विधानसभा की कार्रवाई प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से ही जन-जन तक पहुंचती है और चूंकि कोरोना काल में पत्रकार दीर्घा में पर्याप्त स्थान नहीं था इसलिए अध्यक्ष ने विधानसभा स्थित ऑडिटोरियम में एक बड़ी स्क्रीन लगाकर सत्र की कार्रवाई का वहाँ प्रसारण करने के निर्देश दिये ताकि मीडिया के प्रतिनिधि उसका अवलोकन कर अपने दायित्वों को निर्वहन करते हुए विधानसभा की कार्रवाई को जनता तक पहुंचा सके ।
चूंकि कोरोना काल में आम जनता का भी विधान सभा में प्रवेश निषेध था और जनता भी विधानसभा की कार्रवाई का अवलोकन कर सके इस दृष्टि से विधानसभा की कार्रवाई विधानसभा की बेवसाइट पर प्रतिदिन अपलोड की गई।
कोरोना काल में आवागमन के साधन बंद थे ऐसे में प्रश्नों आदि की सूचनां विधानसभा में जमा करने में दिक्कत होती थी। अध्यक्ष ने इसका भी समाधान करने के निर्देश दिये और प्रश्नों की सूचनाएं ऑनलाइन लेने की व्यवस्था अध्यक्ष के निर्देश से प्रारंभ की गई । यही नहीं शासन से भी प्रश्नों के उत्तर आनलाइन ही प्राप्त किए गये और उनकी इसी दूर दृष्टि के कारण आज प्रश्नों की सूचनाएं और उत्तर ऑनलाइन क्वेश्चन ऑंसर मॉनिटरिंग सिस्टम (ह्रठ्ठद्यद्बठ्ठद्ग क्तह्वद्गह्यह्लद्बशठ्ठ ्रठ्ठह्य2द्गह्म् द्वशठ्ठद्बह्लड्डह्म्द्बठ्ठद्द ह्य4ह्यह्लद्गद्व)द्वारा संपादित की जा रही है। जिससे न केवल पेपर की बचत हो रही बल्कि समय और ईंधन की भी बचत हो रही है।
उपरोक्त के अतिरिक्त अध्यक्ष के कुशल नेतृत्व में महात्मागांधी की 150वीं जयंती पर विधानसभा का विशेष सत्र आहूत किया गया जो एतिहासिक था और उसकी सर्वत्र सराहना हुई और संभवत: देश में छ.ग. विधानसभा एक मात्र विधानसभा थी जिसने गांधीजी पर केंद्रित सत्र का सुनियोजित तरीके से आयोजन किया। इस सत्र में सभी सदस्य एक ही वेशभूषा में थे और सत्र के दौरान गांधीजी पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनी एवं नाटिका तथा व्याख्यान माला का भी आयोजन किया गया ।
साथ ही संविधान दिवस की 70वीं वर्षगांठ के अवसर पर 26 नवम्बर, 2019 को सभा में संविधान पर विशेष चर्चा हुई और सभी सदस्यों ने संविधान की महत्ता पर व्यापक चर्चा की।
चूंकि छत्तीसगढ़ की पंचम विधानसभा में नये सदस्यों की संख्या बहुत अधिक है इसलिए अध्यक्ष ने प्रारंभ से ही नये सदस्यों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया और जहॉं उनके लिए प्रबोधन कार्यक्रम आयोजित किये वहीं उन्हें अधिक से अधिक सभा में बोलने का अवसर दिया । और उन्होंने पंचम विधानसभा के प्रथम सत्र में ही 10 जनवरी, 2019 को राज्यपाल के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान केवल नये सदस्यों को ही बोलने का निर्देश दिया। साथ ही महिला एवं बाल विकास विभाग से संबंधित मांगों पर चर्चा के दौरान दिनॉंक 21 फरवरी, 2019 को एवं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस दिनॉंक 8 मार्च 2021 के अवसर पर उन्होंने केवल महिला सदस्यों को ही बोलने का अवसर दिया। यह उनका नारी शक्ति के प्रति सम्मान का द्योतक है।
छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रति भी उनका अटूट लगाव है और इसीलिए उन्होंने छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस 27 नवम्बर 2019 के दिन केवल छत्तीसगढ़ी भाषा में ही बोलने का निर्देश सदस्यों को दिया और सदस्यों ने भी उनके आदेश का पालन किया और छत्तीसगढ़ी भाषा में ही अपनी बात रखी ।
वर्तमान विधानसभा भवन में स्थान की कमी है इस कारण अध्यक्ष द्वारा ली गई रूचि के फलस्वरूप राज्य शासन ने छत्तीसगढ़ विधानसभा के नये भवन का निर्माण करने का निर्णय लया और 29 अगस्त 2020 को उसका भूमिपूजन कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसका निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया है और अगस्त 2024 तक पूर्ण होने का लक्ष्य रखा गया है।
अध्यक्ष डॉ. चरण दास महंत द्वारा अपने कार्यकाल में लिए गए कुछ अन्य प्रमुख निर्णय इस प्रकार हैं-
(1) छत्तीसगढ़ विधानसभा के इतिहास में पहली बार पंचम विधानसभा के सदस्यों के शपथ ग्रहण कार्यक्रम का सीधा प्रसारण किया गया ।
(2) पहली बार वर्ष 2021 में छत्तीसगढ़ विधानसभा के कैलेण्डर एवं वर्ष 2022 में डायरी के प्रकाशन का निर्णय लिया ।
(3)विधानसभा में सदस्यों की सुविधा हेतु पंचकर्म यूनिट का निर्माण किया गया।
(4) विधानसभा भवन में मंत्रीगण के लिए सर्वसुविधायुक्त 12 नये मंत्री कक्ष निर्माण का निर्णय लिया।
मुझे उनके मार्गदर्शन में 3 वर्ष से भी अधिक समय कार्य करने का अवसर मिला। वे बहुत मृदुभाषी, विनम्र एवं दूसरों का दु:ख समझने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। विधानसभा सचिवालय के अधिकारियों/कर्मचारियों के हितों को सर्वोपरि रखते हुए उनकी समस्याओं के समाधान हेतु भी वे हमेशा तत्पर रहे।
इस प्रकार अध्यक्ष डॉ. चरण दास महंत का कार्यकाल जहां चुनौतियों से भरा था वहीं उन्होंने उसको एक अवसर मानते हुए छत्तीसगढ़ विधानसभा की संसदीय यात्रा को नई दिशा देते हुए नये कीर्तिमान स्थापित करते हुए छत्तीसगढ़ विधानसभा की गरिमा में वृद्धि हेतु अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए।
(पूर्वप्रमुख सचिव,
छत्तीसगढ़ विधानसभा)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नोटबंदी 2016 के नवंबर माह में लागू हुई थी। उसके खिलाफ जो याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में लगी थीं, वे सब रद्द हो गई हैं, क्योंकि पाँच जजों में से चार ने फैसला दिया है कि नोटबंदी घोषित करने में मोदी सरकार ने किसी नियम या कानून का उल्लंघन नहीं किया था। महिला जज बी.वी. नागरत्न ने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि सरकार को या तो नोटबंदी की घोषणा संसद से पास करवानी थी या उसके पहले वह अध्यादेश भी जारी करवा सकती थी।
किसी भी जज ने असली मुद्दे पर अपनी कोई राय जाहिर नहीं की है। असली मुद्दा क्या है? वह यह है कि क्या नोटबंदी करना ठीक था? उससे देश को फायदा हुआ या नुकसान? इस मुद्दे पर अदालत की चुप्पी आश्चर्यजनक है। नोटबंदी का मूल विचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का था ही नहीं। यह विचार था पुणें की अर्थक्रांति नामक संस्था के अध्यक्ष अनिल बोकील का! उन्होंने पिछले 20 साल से इस विचार को विकसित करके नोटबंदी की योजना बनाई थी।
जब बाबा रामदेव और मैं सारे देश में काले धन के विरूद्ध अभियान चला रहे थे, तब बोकील हम लोगों से मिले। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को अपनी योजना से अवगत करवाने का आग्रह बोकील ने मुझसे किया। मोदी ने उन्हें दस मिनिट का समय दिया लेकिन डेढ़-दो घंटे तक बात की और प्रधानमंत्री बनने पर एक दिन अचानक नोटबंदी की घोषणा कर दी। इस योजना को उन्होंने अत्यंत गोपनीय रखा। यह जरुरी भी था। लेकिन नोटबंदी बुरी तरह से पिट गई।
सैकड़ों गरीब लोग लाइनों में खड़े-खड़े मर गए। एक हजार के नोट खत्म किए लेकिन दो हजार के शुरु कर दिए, नए नोट छापने में 50 हजार करोड़ रु. खपा दिए, देश की 86 प्रतिशत नगदी पर प्रतिबंध लग गया। नेताओं और सेठों ने बैंकों से जोड़-तोड़ करके अपने काले धन को धड़ल्ले से सफेद कर लिया और गरीब लोग मारे गए। बोकील की योजना के मुताबिक सबसे ऊँचा नोट सिर्फ 100 का होना चाहिए था, हर बैंकिंग लेन-देन पर नाम-मात्र का टैक्स लगाना था, और आयकर को पूरी तरह से खत्म करना था।
इनमें से एक भी शर्त पूरी नहीं की गई। सारी साहसिक और सराहनीय योजना चौपट हो गई। अब काले धन का भंडार बनाना और आसान हो गया लेकिन फिर क्या वजह है कि 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी को जनता ने दंडित नहीं किया? भाजपा की सीटें और वोट बढ़ गए? इसका एक ही कारण है। नोटबंदी के पीछे नरेंद्र मोदी का इरादा शुद्ध लोक-कल्याण का था। कोई काम आपसे बिल्कुल गलत हो जाए लेकिन उसके पीछे अगर आपका इरादा पवित्र हो तो भारतीय जनता इतनी समझदार है कि वह आपको माफ कर देती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शरद कोकास
कुछ लोग शुभकामनाएं भेजते हुए लिख रहे हैं कि ‘अंग्रेजी नया साल मुबारक हो’। भाई यह हिंदी अंग्रेजी तेलुगू तमिल नया साल नहीं होता साल तो सिर्फ दो तरह का होता है एक वह जो सूर्य पर आधारित होता है और एक वह जो चंद्र पर होता है। कैलेंडर भी उसी आधार पर बनते हैं
हम लोग अपने दैनंदिन के कार्यों में सूर्य पर आधारित ग्रेगोरियन कैलेण्डर का उपयोग करते हैं वहीं धार्मिक कार्यों में चन्द्रमा की कलाओं पर आधारित शक और विक्रम और हिजरी संवत के कैलेंडर का उपयोग करते है।
ग्रेगोरियन कैलेण्डर से शक और विक्रम संवत् के वर्ष की गणना कैसे की जाती है और दोनों में कितने वर्षों का अंतर है यह मैं आपको बताना चाहता हूँ । यह गणना हम वर्ष 2022 के अनुसार करते हैं। ईसवीं सन् 2022 में अन्य संवत की स्थिति निम्नानुसार है- शक संवत 1944 तथा विक्रम संवत 2079।
अब देखिये शक संवत 1944 कैसे हुआ? (2022-78=1944)
और देखिये विक्रम संवत् 2079 कैसे हुआ? (2022+57= 2079)
शक संवत् की गणना करने के लिए हमने 2022 में से 78 घटाया और विक्रम संवत की गणना करने के लिए 2022 में 57 जोड़ दिया ।
स्पष्ट है कि शक संवत शक राजाओं द्वारा 78 ईसवी में प्रारंभ किया गया अर्थात जब 78 ईसवी था तब शक संवत 1 था सो वह हमेशा 2022 से 78 वर्ष पीछे चलेगा। उसी तरह ईसवी सन 1 में विक्रम संवत् को 57 वर्ष हो चुके थे इसलिए कि विक्रम संवत् ईसा से 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ किया गया सो वह 2022 से 57 वर्ष आगे चलेगा। इसी तरीके से आप वीर निर्वाण और बंगला संवत की गणना कर सकते हैं।
चंद्रमा के कैलेंडर के अनुसार हर 3 साल में एक महीना बढ़ जाता है क्योंकि चंद्रमा का साल 354 दिन का और सूरज का साल 365 दिन का होता है तो हर 3 साल में एक महीना अधिक मास या खरमास जोडक़र इसे एडजेस्ट कर लेते हैं ।
लेकिन ऐसा हिजरी संवत में नहीं किया जाता इसलिए हर 33 साल में वहां 1 साल बढ़ जाता है जैसे इस समय हिजरी संवत 1444 चल रहा है उसी तरह वर्तमान में हिजरी संवत चल रहा है 1444। यह ग्रेगोरियन कैलेंडर से लगभग 580 साल पीछे है।
अच्छा ध्यान रखिएगा मार्च-अप्रैल में चैत्र मास की प्रतिपदा से शक और विक्रम संवत् अगला साल 2080 आ जाएगा इसलिए कि चंद्रमा का नववर्ष वहीं से शुरू किया जाता है और सूरज का 1 जनवरी से। धर्म कोई भी हो चांद और सूरज तो सबके हैं जो सबके लिए बराबर रोशनी देते हैं।
बेहतर हो कि अंग्रेजी साल, हिंदू साल ,हिंदी साल ,गुजराती तेलुगू तमिल बांग्ला साल, हिजरी साल इन सब के आधार पर लडऩा छोडि़ए । समय सबके लिए बराबर है।
- गोपाल राठी
सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे।
सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती।
लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढऩे का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे शहर में। सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में कट्टरपंथी हिन्दू उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फेंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं। आज सावित्रीबाई फुले का जन्मदिन है -इन्हे बार बार प्रणाम।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
झारखंड के गिरीडीह जिले में सम्मेद शिखर नामक एक जैन तीर्थ स्थल है। एक दृष्टि से यह संसार के संपूर्ण जैन समाज का अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। यह वैसा ही है, जैसा कि हिंदुओं के लिए हरिद्वार है, यहूदियों और ईसाइयों के लिए यरूशलम है, मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना है और सिखों के लिए अमृतसर का स्वर्ण मंदिर है। सम्मेद शिखर में जैनों के 24 में से 20 तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया है। दुनिया में किसी भी जैन संप्रदाय का कोई भी व्यक्ति कहीं भी रहता हो, उसकी इच्छा यह रहती है कि जीवन में कम से कम एक बार वह सम्मेद शिखरजी की यात्रा जरुर कर ले।
मेरे कुछ जैन परिवारजन ने बताया कि अपने बाल्यकाल में वे जब सम्मेद शिखर पर जाते थे तो मुँहपट्टी लगाए रखते थे या मुँह खोलते ही नहीं थे ताकि किसी जीव की हिंसा न हो जाए। ऐसा पवित्र भाव जिस तीर्थ के लिए करोड़ों लोगों के दिल में रहता हो, यदि उसे सरकार एक पर्यटन स्थल बना दे तो क्या होगा? सरकार ने अभी-अभी उस सुरम्य पर्वत को अब पर्यटन स्थल घोषित कर दिया है।
याने अब लोग वहाँ पूजा-अर्चना करने नहीं, मौज-मजा करने के लिए आएंगे। वे वहाँ शराब पिएँगे, मांसाहार करेंगे और बहुत-से अनैतिक काम भी वहाँ होने लगेंगे। उस परम पवित्र स्थान की पवित्रता अब इतिहास का विषय बन जाएगी। सारे भारत का जैन समाज इस आशंका से उद्वेलित है। दिल्ली, मुंबई तथा कई अन्य शहरों और गांवों में जैन-समाज सड़कों पर उतर आया है। वह सम्मेद शिखर को पर्यटन केंद्र बनाने की घोषणा को निरस्त करने की मांग कर रहा है।
उनकी यह मांग बिल्कुल जायज़ है। मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने भी इस मांग का समर्थन किया है। वे क्यों नहीं करेंगे? दुनिया के सभी धर्मों के लोग अपने-अपने धर्म-स्थलों की पवित्रता के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर देते हैं। क्या मक्का-मदीना में काबा जाकर कोई शराब पी सकता है या सूअर का माँस खा सकता है? क्या किसी हिंदू तीर्थ या मंदिर के पास बैठकर कोई गोमांस की बिक्री कर सकता है?
इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि सम्मेद शिखर जैसे सुरम्य पर्वतीय स्थलों पर पर्यटकों को जाने की मनाही हो। वे जरूर जाएं लेकिन उनका आचरण नियंत्रित हो, मर्यादित हो और धर्मप्रेमी लोगों का ध्यान भंग करनेवाला न हो। सरकार चाहे तो उसे दुनिया का चहेता पर्यटन केंद्र बनवा दे लेकिन सर्वहितकारी जैन-सिद्धांतों का वहाँ उल्लंघन न हो, यह भी उतना ही जरूरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
छतीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में अन्यत्र से टाइगर लाने की योजना पर काम शुरू है, पर जब तक यहां 19 छोटे बड़े गांवों की आबादी का दबाव है और यहां के प्रोफेशनल सोच के अफसर शहर में सुखपूर्वक बंगले में रात गुजारते रहेंगे। सवाल यह है कि क्या बाहर से लाए गए टाइगर से संतान बढ़ेगी और इतने टाइगर हो जायेगे कि पर्यटकों को जिप्सी सफारी में दिखने लगेंगे तो यह एक दिवास्वप्न है।
अचानकमार से टाइगर क्यों कम हुए और आज बाहर से टाइगर लाने की नौबत बनी है, उन समस्त कारणों का जब तक निराकरण नहीं होता, लाए जा रहे टाइगर के भी खत्म होने की आशंका बनी रहेगी।
बेहतर है कि पहले चरण में पार्क मैनेजमेंट पर जमीनी काम करें। वह गांव की आबादी व मवेशी चराई पर रोक लगाएं। साथ ही भीतरी गांवों के विस्थापन पर जोर दिया जाए। इससे टाइगर के लिए रहवास का बेहतर माहौल बनेगा। इससे किसी अन्य पार्क से आया प्रवासी टाइगर यहां से वापस नहीं जाएगा।
मध्यप्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व और छतीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में आज भी जंगल का ऐसा गलियारा है, जहां से प्राचीन काल से अब तक टाइगर आते-जाते हैं। यह बात अलग है कि कान्हा का टाइगर आता है जबकि अचानकमार में इतने टाइगर नहीं कि वे यहां से कान्हा जाएं।
मध्यप्रदेश सरकार में जब बिलासपुर के बीआर यादव वन मंत्री थे तब वे इस गलियारे को वन्यजीवों के लिए और महफूज व सघन बनाने की बात करते थे। जिस जंगली राह से टाइगर आते जाते हैं, वन प्रेमियों ने उसे भी पग-पग नापा है। इसकी वन विभाग और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने 2013 और 2017 में पदयात्रा भी की थी। कान्हा और अचानकमार के बीच यह दूरी 110 किमी के करीब है। इसमें उपेंद्र दुबे,अनुभव शर्मा सहित कुछ और वन्यजीव प्रेमी तथा गुरुघासीदास केंद्रीय विवि के फारेस्ट्री विभाग के छात्रों ने शिरकत की थी।
गलियारे से टाइगर आने के कई कारण हैं, जैसे, कान्हा में टाइगर की संख्या सौ से ज्यादा है। प्रभावी नर टाइगर के प्रभुत्व का एक एरिया होता है, जहां दूसरा बड़ा नर नहीं होता। मादा जरूर वहां एक से ज्यादा हो सकती हैं। मादा की लिए नरों में अधिकतर वर्चस्व की लड़ाई होती है, जिसमें खदेड़े गए नर के सामने अपना क्षेत्र छोड़ कर भागने के अलावा जान बचाने का कोई रास्ता नहीं होता। ऐसे नर इस गलियारे से अचानकमार पहुंच सकते हैं। दूसरी तरफ कान्हा के वे युवा टाइगर जो अभी अपना एरिया बनाने योग्य नहीं हैं वे अचानकमार के जंगल में मजबूत होने तक रहने आते हैं। गर्भवती बाघिन अन्य अन्य बाघों के हमले से अपने बच्चों के मारे जाने की आशंका से अचानकमार में पहुंचती हैं। बान्धवगढ़ से आई टाइग्रेस के यहां मिलने से यह बात प्रमाणित हो गया है कि अचानकमार में टाइगर की आवाजाही बनी हुई है।
अचानकमार में चार- पांच टाइगर हैं, जिनमें एक नर टाइगर कान्हा का प्रवासी माना जाता है। यदि अचानकमार के अफसर बेहतर पार्क प्रबंधन कर एटीआर में चीतल,सांभर की वृद्धि में सफल रहा,और बेहतर जल प्रबंधन कर सका, तो निश्चित है, यहां प्रवास पर आए टाइगर यहीं के होकर रह जाएंगे।
-राम पुनियानी
सन् 1970 का दशक भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में प्रतिरोध के आंदोलनों के उभार के लिए जाना जाता है। इस दशक में मजदूरों और कृषकों के संगठित आंदोलन तो जारी रहे ही साथ ही आदिवासियों, महिलाओं और दलितों ने भी आगे बढक़र प्रतिरोध की राह चुनी। बड़े बांधों के कारण अपने घर-गांव छोडऩे को मजबूर कर दिए गए आदिवासियों ने विरोध शुरू किया।
उत्तर-पूर्व में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ आवाज उठी। महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में मथुरा बलात्कार कांड के बाद महिलाओं का प्रतिरोध आंदोलन और खुलकर सामने आया। फिर सन् 1980 में राम रथयात्रा शुरू हुई और इसके नतीजे में अल्पसंख्यकों के विरूद्ध मेरठ, मलियाना, भागलपुर, मुंबई, सूरत और भोपाल में भयावह हिंसा हुई।
इस पृष्ठभूमि में केपी शशि ने इस प्रतिरोध आंदोलन में हिस्सेदारी करने का निर्णय लिया, जो उन दिनों जेएनयू में पढ़ते थे। शुरूआत में उन्होंने व्यंग्य और कार्टून को प्रतिरोध का माध्यम बनाया। वे केरल में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक के. दामोदरन के पुत्र थे। मूलत: शशि एक सहृदय सामाजिक कार्यकर्ता थे जो देश में हो रहे अन्यायों के खिलाफ अपने गुस्से और प्रतिरोध का इजहार करने के लिए माध्यम की तलाश में थे।
उन्होंने कुछ समय तक फ्री प्रेस जर्नल में काम किया और अत्यंत प्रभावी ढंग से हास्य रस को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बाद में उन्होंने डाक्यूमेंट्री फिल्मों को न्यायपूर्ण और मानवीय समाज बनाने के अपने सपने को पूरा करने का मुख्य माध्यम बना लिया। उनकी डाक्यूमेंट्रियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है। मैं उनकी प्रतिभा का कायल था। उनकी उत्कृष्ट फिल्म ‘अमेरिका अमेरिका’ को मैं भूल नहीं सकता जो अफगानिस्तान और ईराक पर हमले की पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी अमेरिका पर अत्यंत तीखा व्यंग्य थी।
उन्हें कई पुरस्कार मिले। वे विबग्योर नामक फिल्म उत्सव के संस्थापक भी थे। परंतु मूलत: वे हमेशा एक सामाजिक कार्यकर्ता बने रहे, जिन्हें मजाक-मजाक में तीखी से तीखी बात कहना आता था और जो समाज के वंचित वर्गों के प्रति संवेदना का भाव रखते थे, उनके अधिकारों की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध थे और व्यवस्था में व्याप्त अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज उठाते थे।
मैं उनके काम के बारे में थोड़ा-बहुत जानता था। यह मेरा सौभाग्य ही था कि मैंने उनसे मेरी पुस्तक ‘कम्युनलिज्म: एन इलस्ट्रेटिड प्राइमर’ के लिए चित्रांकन करने का अनुरोध किया। मुझे उनकी रचनात्मकता और प्रतिबद्धता के बारे में विकास अध्ययन केन्द्र के जरिए पता चला था। विकास अध्ययन केन्द्र ने एक ऐसी पुस्तक तैयार करने में मेरी मदद की थी जो सरल भाषा में आम लोगों को- विद्यार्थियों को, अध्यापकों को, ग्रामीणों को और सब्जी बेचने वालों को यह समझाती थी कि साम्प्रदायिक राजनीति से किस तरह की परेशानियां और समस्याएं उठ खड़ी होंगी। साम्प्रदायिकता के विघटनकारी चरित्र पर अनेक विद्वान अध्येताओं ने प्रकाश डाला था। परंतु उनके विचारों को आम लोगों तक ले जाने की जरूरत थी। हमें एक ऐसी सचित्र पुस्तक तैयार करनी थी जो साम्प्रदायिकता की समस्या की जटिलताओं को नजरअंदाज न करते हुए भी पढऩे और समझने में आसान हो।
यहीं इस परियोजना में के. पी. शशि का प्रवेश हुआ।
उन्होंने पुस्तक की अवधारणा पर मेरे साथ कई घंटों तक चर्चा की और उसके बाद बहुत थोड़े समय में उन्होंने ऐसे शानदार कार्टून तैयार कर दिए जो आपको सोचने पर मजबूर करते हैं- गहराई से सोचने पर। उनके कार्टूनों में जो सबसे अच्छी बात मुझे लगी वह यह थी कि वे बेबाकी से अपनी बात कहते थे और उनका लहजा मजाहिया होता था। मैं उनके योगदान को भुला नहीं सकता। उनके कारण यह किताब अत्यंत प्रभावी और पठनीय बन सकी थी।
इस किताब में प्रकाशित उनके कुछ कार्टूनों में से एक में दो कंकाल आपस में बात कर रहे हैं और एक दूसरे से पूछता है कि ‘तुम्हारा धर्म क्या है?’ एक दूसरे कार्टून में हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्मों के प्रतीक एक-दूसरे के हाथ पकडक़र उत्सव मना रहे हैं। उसके बाद मैं उनके संपर्क में बना रहा और इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके साथ जुड़े रहना एक वरदान था।
उनकी एक फिल्म ‘एक अलग मौसम’ जिसमें नंदिता दास और रेणुका शहाणे ने भूमिका निभाई थी, एचआईवी के मरीजों के अधिकारों के उल्लंघन के बारे में थी। उन्होंने ढेर सारी बहुत अच्छी फिल्में बनाईं जिनके माध्यम से वे लोगों तक पहुंच सके। उन्हें पर्यावरण की चिंता थी। अंधे पूंजीवादी विकास के कारण लोगों का पलायन उनके सरोकारों में था। वे किसी भी निर्दोष को फंसाए जाने के खिलाफ थे।
उन्होंने कई फिल्म उत्सवों में भाग लिया और ढेर सारे पुरस्कार जीते जिनमें शामिल हैं बेस्ट फिल्म अवार्ड, इंटरनेशनल रूरल फिल्म फेस्टिवल, फ्रांस और स्पेशल जूरी प्राईज, इंटरनेशनल एनवायरमेंट फिल्म फेस्टिवल। उनकी डाक्यूमेंट्रियां दर्शकों के दिलोदिमाग पर गहरी छाप छोड़ती थीं। फिल्म निर्माता शशि और कार्यकर्ता शशि के बीच अंतर करना मुश्किल था। ‘इलायुम मुल्लुम’ (पत्तियां और कांटे) केरल में महिलाओं के खिलाफ सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा के बारे में है, ‘एक चिंगारी की खोज में’ भारत में दहेज प्रथा से जुड़े मूल्यों पर केन्द्रित है, ‘गांव छोड़ाब नहीं’ भारत के मूल निवासी आदिवासियों को विकास के नाम पर उनके घरों और उनके जंगलों से विस्थापित किए जाने की दिल को हिला देने वाली कहानी कहती है। ‘ए वेली रिफ्यूजिस टू डाई’ नर्मदा नदी पर बांधों के बारे में शुरूआती डाक्यूमेंट्री फिल्मों में से एक है।
कंधमाल हिंसा के पीडि़तों को न्याय दिलवाने के मुद्दे पर हम दोनों और नजदीक आए। वे ‘नेशनल सॉलिडेरिटी फोरम’ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे जिसने दिल्ली में जस्टिस ए. पी. शाह की अध्यक्षता में जन न्यायाधिकरण का आयोजन किया था। इसके साथ ही उन्होंने कंधमाल की हिंसा पर 95 मिनट की एक फिल्म भी बनाई थी जिसका शीर्षक था ‘वायसिस फ्राम द रियूंस: कंधमाल इन सर्च ऑफ जस्टिस’।
नेशनल सॉलिडेरिटी फोरम की आखिरी बड़ी गतिविधि थी कर्नाटक के धर्मांतरण विरोधी कानून की खिलाफत में तैयार की गई ऑनलाइन याचिका। इस पर 30 हजार लोगों के हस्ताक्षर करवाने में शशि की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
उनका अनूठा गुण यह था कि वे बहुत सहजता से देश भर के मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं से जुड़ जाते थे। उन्हें जमीनी स्तर पर काम करना आता था। वे किसी से भी आत्मीयता से बात कर सकते थे। उनकी रचनात्मक प्रतिभा अद्वितीय थी और व्यंग्य और हास्य की विधा पर उनकी पकड़ का कोई सानी नहीं था।
तीस्ता सीतलवाड ने अपनी एक ट्वीट में जो कहा है वह शशि के दोस्तों और उनके साथ काम करने वालों की भावना को अभिव्यक्त करता है: ‘के.पी. शशि, जो फिल्म निर्माण की दुनिया की एक सहृदय और शक्तिशाली आवाज थी, अब नहीं रहे। यह एक युग का अंत है। ईमानदारी, हिम्मत, दृढ़ता और जनपक्षधर सिनेमा के प्रति प्रतिबद्धता के युग का अंत। प्रिय कामरेड शशि, तुम जहां भी हो वहां शांति से रहो। आरआईपी शशि।’ (नवजीवनइंडिया)
दिल्ली में 20 साल की महिला की कार से घिसटने से दर्दनाक मौत लोगों को सिहरा रही है. घटना पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
दिल्ली की एक महिला नए साल की नई सुबह नहीं देख पाई. वह नई सुबह देखती उसके पहले उसकी खौफनाक हादसे में मौत हो गई. पीड़ित का नाम अंजलि सिंह बताया जा रहा है और वह रविवार तड़के काम से घर लौट रही थी. अंजलि इवेंट ऑर्गेनाइजर का काम करती थीं. रविवार तड़के उसके स्कूटर की कार से कथित टक्कर हो गई है. मीडिया रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि उसके बाद वह कार के नीचे फंस गई और कई किलोमीटर तक घिसटती चली गई.
अलग-अलग मीडिया रिपोर्टों में महिला के घिसटने के बारे में कहा जा रहा है कि वह करीब करीब चार किलोमीटर तक कार के नीचे फंसकर घिसटती रही. उस दौरान उसके सिर और पीठ की हड्डियां निकल गईं और मांस भी निकल गया, कपड़े भी फट गए. कार के नीचे फंसी महिला सुल्तानपुर से कंझावाला तक घिसटती रही. पुलिस ने कार में सवार पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया है. गिरफ्तार लोगों में क्रेडिट कार्ड कलेक्शन एजेंट, ड्राइवर और राशन की दुकान का मालिक शामिल हैं.
"सिर शर्म से झुक गया"
राजधानी दिल्ली में महिला के साथ हुई इस घटना पर समाज में एक नया आक्रोश पैदा हो गया है. खासतौर पर नए साल की शुरूआत के पहले दिन. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना, दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल समेत सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर इस घटना की निंदा और आलोचना की है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने लिखा, "कंझावला में हमारी बहन के साथ जो हुआ, वो बेहद शर्मनाक है. मैं उम्मीद करता हूं कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी."
दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने भी ट्वीट कर लिखा, "आज सुबह कंझावला-सुल्तानपुरी में हुए अमानवीय अपराध से मेरा सिर शर्म से झुक गया है और मैं ऐसा करने वालों की हैवानियत भरी असंवेदनहीनता से हैरान हूं."
उपराज्यपाल ने कहा है कि वह दिल्ली पुलिस प्रमुख के साथ मिलकर मामले की निगरानी कर रहे हैं और सभी पहलुओं पर गहनता से विचार किया जा रहा है.
इस मामले में दिल्ली महिला आयोग ने दिल्ली पुलिस को समन भेजा है. आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने कहा, "यह मामला बेहद भयानक है. इसलिए दिल्ली पुलिस को हाजिरी समन जारी कर रही हूं. पूरा सच सामने आना चाहिए."
मां ने पूछा यह कैसा हादसा
अंजलि की मां ने हादसे पर सवाल उठाया है. उन्होंने समाचार एजेंसी एएनआई से बात करते हुए कहा, "जब मेरा भाई पुलिस स्टेशन पहुंचा तो उसे मेरी बेटी की मौत के बारे में बताया गया. मेरे भाई ने मुझे इसकी सूचना दी. हमारे परिवार में मेरी बेटी ही कमाने वाली थी. उसने इतने सारे कपड़े पहने थे लेकिन उसके शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था, यह कैसा हादसा था."
दिल्ली पुलिस के आउटर जिले के डीसीपी हरेंद्र सिंह ने बताया कि रविवार तड़के करीब 3 बजे कंझावाला इलाके में पुलिस को कॉल मिली थी. कॉल में बताया गया कि एक लड़की निर्वस्त्र हालत में सड़क के किनारे पड़ी है. इस सूचना के बाद पुलिस मौके पर पहुंची थी.
पुलिस ने इसे हादसा बताया और सुल्तानपुरी थाने में लापरवाही से मौत का केस दर्ज किया.
महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित महानगर
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक केंद्र शासित प्रदेशों में 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की उच्चतम दर दिल्ली में दर्ज की गई थी. पिछले तीन सालों में महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा के मामलों की संख्या साल 2019 में 13,395 से बढ़कर 2021 में 14,277 हुई.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले सभी 19 महानगरों की श्रेणी में कुल अपराधों का 32.20 फीसदी हैं. एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि साल 2021 में हर दिन दिल्ली में औसतन दो लड़कियों से बलात्कार हुआ. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माँ हीरा बा के निधन पर कई देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों ने शोक व्यक्त किया लेकिन यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कांग्रेस से सोनिया गांधी और राहुल ने कोई एक शब्द तक नहीं कहा। यह भी हो सकता है कि उन्होंने कहा हो और अखबारों ने उसे छापा न हो। लेकिन ज़रा हम सोचें कि भारतीय राजनीति में आपसी कड़ुवाहट किस स्तर तक नीचे पहुंच गई है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने तो शोक व्यक्त किया है और उन्होंने अपनी श्रद्धांजलि भी दी है लेकिन हमारे कई अत्यंत मुखर विरोधी नेता बिल्कुल मौन रह गए।
क्या हमारे विरोधी दलों के नेता, जहाँ तक मोदी का सवाल है, वे किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से भी ज्यादा खफा हैं? राहुल गांधी का अटलजी की समाधि पर जाना मुझे अच्छा लगा। यह उदारता और राजनीतिक शिष्टाचार का परिचायक है। इंदिराजी के निधन पर अटलजी ने भी जो शब्द कहे थे, उसे मार्मिक श्रद्धांजलि ही कहा जा सकता है। लोकतंत्र की यह खूबी है कि आप चुनावों के दौरान, संसद में, प्रदर्शनों में और बयानों में अपने विरोधियों का डटकर विरोध करते रहें लेकिन शोक के ऐसे अवसरों पर आप इंसानियत का परिचय दें।
इस मामले में प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी ने अद्भुत उदारता का परिचय दिया है। मोदी का जितना कट्टर विरोध ममता ने किया है और उनके तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ को उन्होंने जितना सताया है, किसी अन्य राज्यपाल को नहीं सताया गया है, लेकिन मोदी की माताजी के निधन पर जो वाक्य उन्होंने कहे हैं, वे अत्यंत मार्मिक हैं। ममता ने कहा है कि ‘‘आपकी माताजी के निधन पर आपको कैसे सांत्वना दी जाए। आपकी माँ भी तो हमारी माँ हैं।’’ मोदी ने अपनी माँ की अंत्येष्टि के तुरंत बाद हावड़ा-जलपाईगुड़ी वंदे भारत एक्सप्रेस को हरी झंडी दी।
वे चाहते तो इस कार्यक्रम को स्थगित भी कर सकते थे। लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि उनकी माँ ने उनको कितने पवित्र संस्कार दिए थे। उनका आचरण एक अनासक्त कर्मयोगी की तरह रहा। उन्होंने अन्य नेताओं की तरह अपनी माँ और अपने भाई-बहनों को सत्ता की चाशनी को चखने का भी मौका नहीं दिया जबकि हमारे नेताओं के रिश्तेदार उस चाशनी में अक्सर लथपथ हो जाते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे विरोधी नेता मोदी की खुशामद करें। मोदी का जो भी काम या भाषण उन्हें अप्रिय लगे, उसकी आलोचना वे बेखटके जरूर करें लेकिन शोक के ऐसे मौकों पर सभी नेता एक-दूसरे के प्रति सहज सहानुभूति व्यक्त करें तो उनके बीच सद्भाव तो पैदा होगा ही, भारत का लोकतंत्र भी मजबूत होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज दो खबरें ऐसी हैं, जो भारत ही नहीं, सारे पड़ौसी देशों के लिए भी लाभकारी और प्रेरणादायक हैं। पहली खबर तो यह है कि भारत के चुनाव आयोग ने एक ऐसी मशीन बनाई है, जिसके जरिए लोग कहीं भी हों, वे अपना वोट डाल सकेंगे। अभी तो मतदान की जो व्यवस्था है, उसके अनुसार आप जहाँ रहते हैं, सिर्फ वहीं जाकर वोट डाल सकते हैं। लगभग 30 करोड़ लोग इसी कारण वोट डालने से वंचित रह जाते हैं।
भारत के लोग केरल से कश्मीर तक मुक्त रूप से आते-जाते हैं और एक-दूसरे के प्रांत में रहते भी हैं। जरा सोचिए कि कोई मलयाली आदमी सिर्फ वोट डालने के लिए कश्मीर से केरल क्यों जाएगा? कोई हारे या जीते, वह अपने हजारों रूपए और कई दिन उनके लिए क्यों खपाएगा? यदि देश में यह नई सुविधा कायम हो गई तो कुल मतदाताओं की संख्या 100 करोड़ से भी ज्यादा हो जाएगी। भारतीय लोकतंत्र की यह बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।
कई देशों में तो अब ऐसी व्यवस्था भी आ गई है कि आप को मतदान-केंद्र तक भी जाने की जरूरत नहीं है। आप घर बैठे ही वोट डाल सकते हैं। भारत में भी ऐसी व्यवस्था शुरु होने में देर नहीं होनेवाली है। चुनाव आयोग को इस नई व्यवस्था को लागू करना के पहले सर्वदलीय सहमति और जन-समर्थन भी जुटाना होगा। इसका स्वागत तो सभी पक्ष करेंगे।
दूसरी बात, जो अद्भुत हुई है, वह है हरियाणा की मनोहरलाल खट्टर सरकार की यह घोषणा कि जिन परिवारों की आय 15 हजार रू. माह से कम है, वे निजी अस्पतालों में भी मुफ्त इलाज करवा सकेंगे। आजकल देश के निजी अस्पताल ठगी के बड़े साधन बन गए हैं। देश के गरीब तो क्या, वहाँ अमीरों के भी छक्के छूट जाते हैं। वहाँ लूटपाट इतनी तगड़ी होती है कि मरीज़ के साथ-साथ उसके परिवारजन भी रोगी हो जाते हैं।
हरियाणा सरकार के ताजा आदेश के मुताबिक अब इन निजी अस्पतालों को गरीबों का 5 लाख का इलाज बिल्कुल मुफ्त करना होगा और यदि खर्च 10 लाख रु. आएगा तो उसका सिर्फ 10 प्रतिशत ही वे मरीज से ले सकेंगे। ऐसे मरीजों के लिए उन्हें अस्पतालों के 20 प्रतिशत पलंग आरक्षित करके रखने होंगे। हर गरीब मरीज़ को इन अस्पतालों को भर्ती करना ही होगा। वे उसके इलाज़ से मना नहीं कर सकते।
अगर मना करेंगे तो उन अस्पतालों को मुफ्त में दी गई जमीन वापिस ले ली जाएगी। यह नियम तो अच्छा है, सराहनीय है लेकिन देखना है कि यह कहां तक क्रियान्वित होता है। देश की सभी प्रादेशिक सरकारों के लिए हरियाणा सरकार की यह पहल अनुकरणीय है। वैसे केंद्र सरकार ने भी इस संबंध में कुछ उत्तम पहल की हैं लेकिन देश में शिक्षा और चिकित्सा सर्वसुलभ हो, इसके लिए जरुरी है कि ये दोनों लगभग मुफ्त हों। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में जातीय आरक्षण अफीम की गोली बन चुका है। हर राजनीतिक दल चाहता है कि वह जातीय आधार पर थोक वोट सेंत-मेत में कबाड़ ले। इस समय दो प्रदेशों में जातीय आरक्षण को लेकर काफी दंगल मचा हुआ है। एक है, छत्तीसगढ़ और दूसरा है- उत्तरप्रदेश! पहले में कांग्रेस की सरकार है और दूसरे में भाजपा की सरकार। लेकिन दोनों तुली हुई हैं कि 50 प्रतिशत की संवैधानिक सीमा को तोड़कर आरक्षण को 76 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग तक बढ़ा दिया जाए। बिहार तथा कुछ अन्य प्रांतों में भी इस तरह के विवादों ने तूल पकड़ लिया है।
जहाँ तक छत्तीसगढ़ का सवाल है, उसकी सरकार ने विधानसभा में ऐसे विधेयक को पारित कर दिया है, जो 58 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर 76 प्रतिशत कर देता है। आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों के लिए सिर्फ 4 प्रतिशत आरक्षण रखा गया है। इस नई प्रस्तावित आरक्षण-व्यवस्था के पीछे न तो कोई ठोस आंकड़े हैं और न ही तर्क हैं। सितंबर 2022 में प्रदेश के उच्च न्यायालय ने एक फैसले में साफ़-साफ़ कहा था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देना असंवैधानिक है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक फैसले में कहा था कि सीमा से अधिक आरक्षण देना हो तो उसके लिए उसे तीन पैमानों पर पहले नापा जाना चाहिए। याने उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति, उन्हें आरक्षण की जरूरत है या नहीं और वह उनको दिया जा सकता है या नहीं? यह जांचने के लिए बाकायदा एक सर्वेक्षण आयोग बनाया जाना चाहिए। इन सब शर्तों को दरकिनार करके सभी राज्य आरक्षण को आनन-फानन बढ़ा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में तो राज्यपाल अनसुइया उइके पर राजनीतिक प्रहार किए जा रहे हैं कि वे भाजपा के इशारे पर इस विधेयक पर दस्तखत नहीं कर रही हैं।
यदि यह सही होता तो उ.प्र. के मुख्यमंत्री स्थानीय चुनावों में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने पर क्यों अड़े हुए हैं? योगी के इस फैसले का विरोध अखिलेश और मायावती भी कर रहे हैं, क्योंकि उनके वोट बैंक में इस फैसले से सेंध लग सकती है। योगी ने अपने उच्च न्यायालय के आरक्षण-विरोधी फैसले से असहमति व्यक्त की है और कहा है कि जब तक इस आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा, उ.प्र. में स्थानीय चुनाव नहीं होंगे।
उ.प्र. सरकार ने न्यायालय की अपेक्षा को पूरा करने के लिए एक जातीय सर्वेक्षण आयोग का प्रावधान भी कर दिया है। अर्थात सरकारें कांग्रेस की हों, भाजपा की हों, जदयू की हों या कम्युनिस्टों की हों, किसी की हिम्मत नहीं है कि वह जातीय आरक्षण का विरोध करे याने वे डाॅ. आंबेडकर की इच्छा को पूरी करते अर्थात जात-आधारित आरक्षण को 10 साल से ज्यादा चलने न देते।
छत्तीसगढ़ की राज्यपाल तो स्वयं आदिवासी महिला हैं। वे आदिवासियों के हितार्थ बहुत कुछ पहल कर रही हैं। वे यदि इस अंधाधुंध जातीय आरक्षण पर शांति से विचार करने के लिए कह रही हैं तो उसमें गलत क्या है? हमारी अदालतें भी आरक्षण के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन वे अंधाधुंध रेवड़ियां बांटने का विरोध कर रही हैं तो नेताओं को ज़रा अपने थोक वोटों के लालच पर कुछ लगाम लगाना चाहिए या नहीं? (नया इंडिया की अनुमति से)