विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तालाबंदी के दौरान जो करोड़ों मजदूर अपने गांवों में लौट गए थे, उन्हें रोजगार देने के लिए सरकार ने महात्मा गांधी रोजगार योजना (मनरेगा) में जान डाल दी थी। सरकार ने लगभग साढ़े चार करोड़ परिवारों की दाल-रोटी का इंतजाम कर दिया था लेकिन इस योजना की तीन बड़ी सीमाएं हैं। एक तो यह कि इसमें दिन भर की मजदूरी लगभग 200 रु. है।
दूसरा, किसी भी परिवार में सिर्फ एक व्यक्ति को ही मजदूरी मिलेगी। तीसरा, पूरे साल में 100 दिन से ज्यादा काम नहीं मिलेगा। याने 365 दिनों में से 265 दिन उस मजदूर या उस परिवार को कोई अन्य काम ढूंढना पड़ेगा। सरकार ने तालाबंदी के बाद मनरेगा की कुल राशि में मोटी वृद्धि तो की ही, उसके साथ-साथ करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज बांटने की घोषणा भी की। इससे भारत के करोड़ों नागरिकों को राहत तो जरुर मिली है लेकिन अब कई समस्याएं एक साथ खड़ी हो गई हैं।
पहली तो यह कि सवा लाख परिवारों के 100 दिन पूरे हो गए हैं। 7 लाख परिवारों के 80 दिन और 23 लाख परिवारों के 60 दिन भी पूरे हो गए। शेष चार करोड़ परिवारों के भी 100 दिन कुछ हफ्तों में पूरे हो जाएंगे। फिर इन्हें काम नहीं मिलेगा। ये बेरोजगार हो जाएंगे। अभी बरसात और बोवनी के मौसम में गैर-सरकारी काम भी गांवों में काफी है लेकिन कुछ समय बाद शहरों से गए ये मजदूर क्या करेंगे ? इनके पेट भरने का जरिया क्या होगा? कोरोना और उसका डर इतना फैला हुआ है कि मजदूर लोग अभी शहरों में लौटना नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में सरकार को तुरंत कोई रास्ता निकालना चाहिए। वह चाहे तो एक ही परिवार के दो लोगों को रोजगार देने का प्रावधान कर सकती है।
202 रु. रोज देने की बजाय 250 रु. रोज दे सकती है और 100 दिन की सीमा को 200 दिन तक बढ़ा सकती है ताकि अगले दो-तीन माह, जब तक कोरोना का खतरा है, मजदूर लोग और उनके परिवार के बुजुर्ग और बच्चे भूखे नहीं मरेंगे। जब कोरोना का खतरा खत्म हो जाएगा तो ये करोड़ों मजदूर खुशी-खुशी काम पर लौटना चाहेंगे और सरकार का सिरदर्द अपने आप ठीक हो जाएगा। गलवान घाटी का तनाव घट रहा है तो सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अब अपना पूरा ध्यान कोरोना से लडऩे में लगाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)(nayaindia.com)
-विष्णु राजगड़िआ
धनबाद से चिंताजनक खबर सामने आई है। 55 पत्रकारों की टेस्ट रिपोर्ट में 23 कोरोना पॉजिटिव मिले।
कोरोना के 97-98 प्रतिशत मरीज स्वस्थ हो जाते हैं। इसलिए पेनिक न हों, सिर्फ डॉक्टरों की सलाह पर अमल करें, समय का सदुपयोग करते हुए एकांतवास का आनंद लें। अस्पताल की व्यवस्था की चिंता बाद में कर लीजिएगा, अभी सकारात्मक मूड में रहकर इलाज पर ध्यान दें। जल्द ही सब स्वस्थ हो जाएंगे। मेरे कई परिचित लोग आसानी से ठीक हो चुके हैं।
जिन पत्रकारों का टेस्ट हुआ उनमें ज्यादातर असिम्प्टोमिक थे। लिहाजा, इस प्रकरण का मतलब समझना भी जरूरी है।
1. जिनलोगों की टेस्टिंग करेंगे, उनमें कोरोना पॉजिटिव लोग मिलेंगे। अगर टेस्टिंग ही नहीं करेंगे, तो पता ही नहीं चलेगा।
2. मार्च के महीने में दिल्ली में तब्लीगी जमात के कार्यक्रम में एक व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव मिला। तब उस कार्यक्रम में शामिल लोगों की देश भर के खोज कर टेस्टिंग की गई। इससे काफी लोग कोरोना पॉजिटिव निकले। ऐसे लोगों को खोजकर उनका इलाज करना सही निर्णय था। लेकिन इसके नाम पर मुस्लिम समुदाय को बदनाम करना या उन्हें कोरोना बम बताना गलत था।
3. तब्लीगी जमात के लोगों को मरीज के तौर पर सहानुभूति देने के बदले कोरोना फैलाने वाले अपराधी के रूप में पेश किया गया। ऐसे में अब अन्य मरीजों के लिए भी अस्पताल में किसी बेहतर व्यवस्था का दबाव नहीं होगा। उस वक्त की मीडिया खबरों का आत्मावलोकन जरूरी है।
4. अन्य मामलों में भी अगर इसी तरह सबकी खोजकर कांटेक्ट ट्रेसिंग जांच होती, तो हिन्दू लोग भी कोरोना पॉजिटिव पाए जाते। उनका भी इलाज होता, स्वस्थ होते। ऐसे तो बिना टेस्ट बिना इलाज कोई मर जाए तो पता ही नहीं चलेगा कि कोरोना हुआ।
5. दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने देश भर में सर्वाधिक टेस्ट करके सारे मामले खोज निकाले। इसके कारण वहां ज्यादा केस मिले। जबकि यूपी, बिहार जैसे राज्यों में 'नो टेस्ट, नो कोरोना' की पॉलिसी अपनाई गई। समाज अंदर से बीमार होता रहा, बीजेपी चुनाव प्रचार में लगी रही।
6. दिल्ली में सर्वाधिक टेस्टिंग हो रही है। भक्तों को भ्रम है कि ऐसा अमित शाह के कारण हुआ। जबकि अमित शाह ने जिस दिन दिल्ली में बैठक की, उस दिन तक भी दिल्ली की टेस्टिंग राष्ट्रीय औसत से 3.5 गुना ज्यादा थी। यूपी से 8 गुना और बिहार से 16 गुना ज्यादा।
7. अगर अमित शाह ने दिल्ली में टेस्ट बढ़ाए, तो यूपी बिहार हरियाणा में क्यों नहीं बढ़ाते?
8. दिल्ली में असिम्प्टोमिक मरीजों के लिए होम आइसोलेशन का अच्छा प्रयोग हुआ है। केजरीवाल ने जब इसकी शुरुआत की, तो भक्तों ने काफी गाली दी थी। लेकिन अब तक के अनुभव बताते हैं, कि बिना लक्षण वाले मरीजों के लिए होम आइसोलेशन सबसे अच्छा विकल्प है। क्या झारखंड में इस पर विचार होगा?
9. दिल्ली ने प्लाज्मा थेरेपी का भी अच्छा प्रयोग किया, जिसका मजाक उड़ाया गया। अब उसकी सफलता साफ दिख रही है। क्या झारखंड इस पर विचार करेगा?
10. कोरोना पॉजिटिव पाए गए सभी लोगों की कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग हो। सबने पिछले 15 दिन में जिनसे मुलाकात की हो, सबकी कोविड जांच हो। परिवार के सदस्यों की भी।
11. क्या आरोग्य सेतु ऐप्प का कोई उपयोग दिखा है? अगर हां, तो उसके बारे में जानने की दिलचस्पी है।
26 फरवरी 1957, समय- सुबह के लगभग 10 बजे। स्थान-गांव येरामरस। चार महीने पहले अस्तित्व में आए कर्नाटक राज्य के जिला मुख्यालय रायचूर से 7 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव।
स्कूल के हेडमास्टर अपने दफ्तर में व्यस्त थे जब कुछ लोगों की पदचाप सुनकर उन्होंने नजऱ ऊपर की। सामने पंडित जवाहरलाल नेहरू खड़े थे। कुछ क्षण अविश्वास के बीत जाने के बाद जब पुष्टि हो गई कि ये सचमुच देश के प्रधानमंत्री और करोड़ों लोगों के हीरो नेहरू ही हैं तो हेडमास्टर लगभग अचेत हो गए। नेहरूजी को कुर्सी दी गई। बात फैलते समय नहीं लगा और स्कूल के बच्चे और शिक्षक झुंड के रूप में उन्हें घेरकर खड़े हो गए। नेहरूजी ने बच्चों के साथ वार्तालाप प्रारंभ किया।
ठीक उसी समय पूर्वी मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) में रायपुर में नेहरूजी की अगवानी करने के लिए लोग बेसब्र हो रहे थे। इस समय नेहरूजी को रायपुर में होना चाहिए था।
1957 में देश में दूसरा आम चुनाव हुआ था और इसी सिलसिले में नेहरूजी दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के लिए गए थे। उस दिन के तय कार्यक्रम के अनुसार पंडित नेहरू को सुबह मैंगलोर से अपनी यात्रा शुरू कर जबलपुर पंहुचना था। बीच में विमान को रायपुर में उतरना था ईंधन लेने के लिए। साथ में पंडितजी का भी भोजन रायपुर में ही होना था।
रायपुर के माना ऐरोड्रोम में हल्के पीले रंग का एक दुमंजिला भवन था जिसकी छत पर सिग्नल रिसीव करने के लिए उपकरण लगे थे। भवन अब भी है। रायपुर में उन दिनों व्यवसायिक हवाई सेवा शुरू नहीं हुई थी। यह भवन मुख्य रूप से ऐरोड्रोम का कंट्रोल रूम (या टावर) था जिसका उपयोग फ्लाईंग क्लब की गतिविधियों के संचालन के लिए भी किया जाता था। इसी भवन के निचली फ्लोर के कमरों का मौके-बेमौके पंहुचे किसी वीआईपी के लिए भी उपयोग हो जाता था।
नेहरूजी के लिए 26 फरवरी 1957 के दोपहर के भोजन की व्यवस्था इन्ही कमरों में की गई थी।
मध्यप्रदेश में उन दिनों सब कुछ बहुत व्यवस्थित नहीं था। कर्नाटक की ही तरह नया मध्यप्रदेश भी 1 नवम्बर 1956 को अस्तित्व में आया था। चार महीने भी पूरे नहीं हुए थे। पहले दो महीने मुख्यमंत्री रहे पंडित रविशंकर शुक्ल की मृत्यु 31 दिसम्बर के दिन हो गई थी। जनवरी का माह भगवंत राव मंडलोई ने कार्यकारी मुख्यमंत्री के रूप में बिताया। 31 जनवरी को दिल्ली से आकर डॉ. कैलाश नाथ काटजू ने मुख्यमंत्री पद संभाला किन्तु मध्यप्रदेश उनके लिए बहुत परिचित स्थान नहीं था। पुरानी राजधानी नागपुर की अपेक्षा भोपाल के साथ आवागमन कठिन होने के कारण दूरी का अहसास अधिक था।
जब नेहरूजी के कार्यक्रम की जानकारी भोपाल पंहुची तो डॉ. काटजू ने तत्काल रायपुर में प्रधानमंत्री के आवभगत और भोजन की जिम्मेदारी अपने मंत्रिमंडल के सहयोगी राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को सौंप दी। राजा साहब छत्तीसगढ़ के थे और और उनके पिता सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह नेहरूजी के घनिष्ठ मित्र भी रह चुके थे और यह बात डॉ. काटजू को ज्ञात थी।
जिम्मेदारी मिलने के बाद राजा साहब ने वही किया जो उन्हें जानने वालों को उनसे अपेक्षा थी। बिलासपुर सर्किट हाऊस के खानसामा श्री बेनेट को इस अवसर पर भोजन तैयार करने के लिए रायपुर बुला लिया गया। सारंगढ़ के गिरिविलास महल से एक ट्रक में भरकर कॉकरी, कटलरी और अन्य सामग्रियों के साथ स्टाफ को बुलवा लिया गया।
रायपुर में पंडितजी के भोजन की तैयारी तो पूरी हो गई लेकिन पंडित नेहरू के पंहुचने का नियत समय पार हो चुका था और कुछ अता-पता नहीं मिलने से चिंता भी फैलने लगी थी। फोन पर सम्पर्क आसान नहीं था। फिर भी इतना पता चल चुका था कि सुबह साढ़े आठ बजे प्रधानमंत्री का विमान मैंगलोर से उड़ चुका था।
रायपुर में चिंता में डूबे लोगों को यह जानने का कोई साधन नहीं था कि ठीक उसी समय नेहरूजी मौत के मुंह से निकलकर कर्नाटक के रायचूर के पास येरामरस गांव में बच्चों के साथ बातचीत में समय व्यतीत कर रहे थे।
पंडितजी की यात्रा मेघदूत नामक विमान में शुरू हुई थी। यह दरअसल ‘इल्यूशिन आई एल-14’ विमान था जिसे रूसी प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भारतीय प्रधानमंत्री को दिसम्बर 1953 में भेंट के रूप में दिया था। नेहरूजी ने ही इसका नामकरण मेघदूत किया था।
उस दिन हवा में लगभग आधा घंटा ही बीता था कि एक एंजिन से धुंआ निकलना शुरू हुआ जो देखते देखते आग की लपटों में तब्दील हो गया। खतरा यह था कि आग की लपटें यदि फ्यूल टैंक को गर्म कर देतीं तो पलक झपकते विमान स्वाहा हो जाता।
उन दिनों प्रधानमंत्री के साथ यात्रा करने वालों की संख्या बहुत नहीं होती थी। उनके सुरक्षा अधिकारी, कार्यालयीन सहायक और एक निजी अनुचर- शायद हरि नाम था। उस दिन विदेश मंत्रालय में उपसचिव जगत मेहता (जो आगे चलकर विदेश सचिव बने) और समाचार एजेंसी पी.टी.आई. के संवाददाता बी.आर.वत्स भी साथ थे। इनके अलावा एक फ्लाईट इंजीनियर और नेविगेटर थे। पायलट थे एयर फोर्स के एक एंग्लो-इंडियन स्चड्रन लीडर आर.ए. रफस।
पारसी सुरक्षा अधिकारी श्री के.एफ. रुस्तमजी (पद्मविभूषण) मध्यप्रदेश कैडर के पुलिस अधिकारी थे और 1971 में बांग्लादेश के आजादी के आंदोलन में पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली विद्रोहियों को ट्रेनिंग देकर मुक्ति वाहिनी नाम की सशस्त्र प्रतिरोध सेना खड़ी करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे सीमा सुरक्षा दल-बी.एस.एफ.-के प्रथम मुखिया थे। श्री रुस्तमजी ने अपनी डायरी (आय वॉज नेहरूज़ शैडो) में लिखा कि जब विमान में आग लगने और उस कारण एक एंजिन के नष्ट हो जाने की सूचना देने वे पंडित नेहरू के पास पहुंचे तब वे वी.के. कृष्णा मेनन का भाषण पढ़ रहे थे (श्री मेनन संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय दल के नेता थे और ठीक एक महिना पहले कश्मीर के विषय में भारत का पक्ष रखते हुए उन्होंने आठ घंटे का धुआंधार भाषण दिया था। बीच में वे एक बार बेहोश हुए और लौटकर अपना भाषण जारी रखा था। उनका बनाया आठ घंटे का रिकॉर्ड अब तक टूटा नहीं)।
एंजिन फेल होने की सूचना पा कर नेहरू जी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आयी और उन्होंने कहा- ‘डोन्ट वरी, रफस विल मैनेज’। उन्हें अपने पायलट की काबिलियत पर पूरा यकीं था।
विमान में बीत रहा एक एक क्षण घातक था। नेविगेटर ने रजिस्टर देख कर बताया कि बीस किलोमीटर पर रायचूर के पास 1942 की निर्मित एक हवाई पट्टी है किन्तु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से उसके उपयोग की कोई जानकारी नहीं है। पायलट ने कहा हम उतरने का प्रयास कर सकते हैं किन्तु पास से देखने पर यदि हवाई पट्टी लैन्ड करने लायक नहीं मिली तो एक एंजिन के दम पर विमान को दोबारा ऊपर ले जाना संभव नहीं होगा। उस समय सुरक्षा अधिकारी एक संभावना को ले कर बेहद परेशान थे। उनका आंकलन था कि एंजिन में लगी आग यदि जानबूझ कर किसी षड्यंत्र, किसी ‘सैबटाज’ का नतीजा थी तो प्रबल संभावना थी कि दूसरा एंजिन भी शीघ्र फेल होगा।
अंतत: निर्णय लिया गया कि जो भी हो रायचूर की इस पट्टी पर उतरना ही है।
विमान के रुकने पर दरवाजा खुला तो देखा सामने एक व्यक्ति हाथ में डण्डा लिए खड़ा था। विस्मित व्यक्ति गांव का चौकीदार था। नेहरूजी ने नीचे उतरकर एंजिन का मुआयना किया, पायलट का धन्यवाद ज्ञापित किया और पथ-प्रदर्शक चौकीदार के साथ स्कूल पंहुचे थे। चौकीदार की साइकिल चलाते हुए रुस्तमजी पास के रेलवे स्टेशन पंहुचे और वहां से रायचूर के कलेक्टर को सूचना दी। दो घंटे के बाद हैदराबाद से एयरफोर्स के दो डकोटा विमान आए जिनमें नेहरूजी और साथी विलम्ब से रायपुर पंहुचे।
भोजन के बाद नेहरूजी ने श्री बेनेट को बुला कर स्वादिष्ट भोजन के लिए धन्यवाद कहा और धीरे से श्री रुस्तमजी से पूछा ‘टिप दी?’। नेहरू जी के अपने स्टाफ को ये स्थायी आदेश थे कि जहाँ भी वे भोजन करें, शेफ को बुलाकर उनसे भेंट कराई जाए और उनके निजी खाते से टिप दी जाए।
रायपुर में इस दौरान किसी को एक्सीडेंट की जानकारी नहीं हो पाई थी। किन्तु रायपुर से उड़ कर जब तक उनका विमान जबलपुर पंहुचा, पी.टी.आई. वाले वत्सजी की खबर पहुंच चुकी थी। एक अखबार ने अपना एक विशेष संस्करण छाप दिया था। कहना न होगा विमान तल में उस दिन अपेक्षा से कहीं अधिक भीड़ इकट्ठा थी।
इस कथा का उत्तर काण्ड
पायलट कैप्टन रफस ने जिस त्वरित निर्णय क्षमता और धैर्य का परिचय देते हुए बिना जमीनी सहायता के, उबड़-खाबड़ पट्टी पर कुशलता से विमान को लैन्ड कराया उसके कारण बाद में उन्हें अशोक चक्र प्रदान किया गया।
यह विमान रूसी प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भेंट किया था। दुर्घटना के कारण उन्होंने बहुत लज्जित महसूस किया और भारत को एक और विमान भेंट करने की पेशकश की। पंडित नेहरू रूसियों को और अधिक असुविधाजनक स्थिति में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने पेशकश स्वीकार कर ली।
दुर्घटनाग्रस्त विमान रायचूर हवाई पट्टी पर एक सप्ताह खड़ा रहा। नए बने कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के दूर-दराज इलाकों से हजारों लोग इस बीच इस विमान का दर्शन करने पंहुचे।
-डॉ. परिवेश मिश्रा,
गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़
रिलायंस जियो ने हाल ही में जूम के मुकाबले में बिलकुल वैसा ही एक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप - जियो-मीट - लॉन्च किया है
-अभिषेक सिंह राव
जुलाई के पहले हफ्ते में रिलायंस जियो ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के मार्केट में कदम रखते हुए जियो-मीट को लॉन्च किया है. वैसे तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप्लिकेशन्स के क्षेत्र में ज़ूम, गूगल हैंगऑउट, गूगल मीट, गोटू मीटिंग, स्काइप, माइक्रोसॉफ्ट टीम, इत्यादि का बोलबाला पहले से है लेकिन इन तमाम ऍप्लिकेशन्स में करीब नौ साल पुरानी कंपनी ज़ूम सबसे अव्वल है. 2011 में चाइनीज मूल के एरिक युआन ने 40 इंजीनियर्स के साथ मिलकर ‘सासबी’ नामक एक कंपनी की शुरुआत की थी. फिर दूसरे साल ही इसका नाम बदलकर ‘ज़ूम’ रख दिया गया. साल दर साल ज़ूम ने बाज़ार से फंडिंग उठाते हुए अपने प्रोडक्ट पर काम किया और धीरे-धीरे जब वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग का मार्केट परिपक्व होने लगा तो ज़ूम ने अपना लोहा मनवाना शुरू किया.
अप्रैल 2019 में ज़ूम ने अमेरिका में अपना आईपीओ लॉन्च किया. आज जूम 2500 कर्मचारियों से लैस दुनिया की नामचीन सॉफ्टवेयर कंपनियों में से एक है. ग्लासडोर के एक सर्वे के मुताबिक कर्मचारियों के लिए ज़ूम 2019 की दूसरे पायदान की ‘बेस्ट प्लेसेस टू वर्क’ कंपनी थी.
कोरोना-काल और ज़ूम की लोकप्रियता
कोरोना संकट के समय में सोशल डिस्टेन्सिंग के चलते ज़ूम की लोकप्रियता में चार चांद लगने शुरू हो गए. बिज़नेस इनसाइडर की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में 18 मार्च के दिन तमाम बिज़नेस ऐप्स के बीच आईफोन के दैनिक डाउनलोड में ज़ूम पहले स्थान पर रहा. दफ्तरों एवं शैक्षणिक संस्थानों के बंद होने के कारण कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे भारतीयों को भी यह ऐप एक बेहतर उपाय की तरह दिखने लगा. योरस्टोरी की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 29 मार्च के दिन व्हाट्सएप, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे दिग्गज ऍप्लिकेशन्स को पछाड़ते हुए ज़ूम ने नंबर एक का स्थान हासिल किया था.
सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन चूंकि ज़ूम के कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा चीन में स्थित है, इस वजह से ज़ूम के बढ़ते उपयोग ने सर्विलांस और सेंसरशिप की चिंताओं को जन्म देना शुरू किया. अप्रैल की शुरुआत में भारत सरकार ने एक एडवाइजरी जारी कर कहा था कि ‘ज़ूम का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं है.’ इसमें सरकार ने ज़ोर देते हुए कहा कि ‘सरकारी अधिकारी या अफसर आधिकारिक काम के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल न करें.’ भारत के अलावा अन्य देश भी इसे आशंका से देख रहे हैं. विश्व पटल पर इस विवाद की गहराइयों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मई महीने की शुरुआत में ज़ूम के सीईओ एरिक युआन को सफाई देते हुए कहना पड़ा कि ‘ज़ूम चाइनीज़ नहीं, अमेरिकन कंपनी है.’
ज़ूम के मुकाबले जियो-मीट की लॉन्चिंग
विश्वव्यापी और ख़ास कर भारत में मौजूदा चीन विरोधी माहौल के बीच, पिछले दिनों देश में ज़ूम के मुकाबले की एक ‘मेड इन इंडिया’ एप्लीकेशन की मांग ने जन्म लिया. यह कहा जा सकता है कि जियो ने सही समय पर इस मांग को समझते हुए अपना एप लॉन्च किया है. जियो ने महज़ दो-तीन महीने के भीतर ज़ूम के फ़ीचर्स को आधार बनाते हुए खुद की एप्लीकेशन लॉन्च कर दी. एप लॉन्च करने के पहले की परिस्थितियों का अंदाजा लगाएं तो जियो के इंजीनियर्स घर से काम कर रहे होंगे, इसके चलते कम्युनिकेशन-गैप एवं इंटरनेट की भी समस्याएं रही होंगी लेकिन इसके बावजूद जियो, बेहद कम वक्त में यह प्रोडक्ट तैयार करने में सफल हुआ है. राष्ट्रवाद की सवारी एवं ज़ूम से मिलते-जुलते इंटरफ़ेस के कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जियो-मीट चर्चा में रहा. इसके लिए कुछ लोग जहां इसकी आलोचना करते दिखाई दिए वहीं कइयों ने इसे मिसाल की तरह पेश किया है.
ऐसे तो इंटरफ़ेस शब्द के मायने बहुत हैं लेकिन आईटी की भाषा में ‘यूजर इंटरफ़ेस’ अर्थात एक तरह का डिज़ाइन जिसकी मदद से हम किसी भी एप्लीकेशन के फ़ीचर्स का उपयोग करते हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि ज़ूम और जियो-मीट का इंटरफ़ेस एक जैसा है! लेकिन जियो की बिज़नेस स्ट्रेटेजी पर गौर करें तो जिस ‘कॉपी-इंटरफ़ेस’ का विरोध हो रहा है शायद यही उसकी स्ट्रेटेजी का मुख्य हिस्सा हो सकता है.
किसी भी एप्लीकेशन को मार्केट की डिमांड पूरा करने के लिए बनाया जाता है. इसी डिमांड को पकड़ते हुए कम्पनियां अपने अल्टीमेट गोल रेवेन्यू जेनरेशन का रास्ता बनाती हैं. जैसे चीन के सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोबिन ली ने गूगल जैसे चाइनीज़ सर्च इंजन की डिमांड को पूरा करने के लिए ‘बायदु’ सर्च इंजन बनाया. अमरीका में एमेज़ॉन के बोल-बाले के बाद भारत में बंसल जोड़ी ने फ्लिपकार्ट खड़ा किया. वहीं, कई बार कंपनियां कुछ नए आइडियाज के ज़रिये नया मार्केट खड़ा करने में भी कामयाब होती हैं. जैसे गूगल ने सर्च इंजन का मार्केट खड़ा किया, यूट्यूब ने वीडियो का, फ़ेसबुक ने सोशल मीडिया का, ऊबर ने टैक्सी सर्विस का, ज़ोमाटो ने फ़ूड डिलीवरी का, अमेज़न ने ऑनलाइन शॉपिंग का. एप्लीकेशन डेवलपमेंट का विचार इन दोनों पहलुओं के बीच की ही बात है. या तो आप नए इनोवेटिव आईडिया के ज़रिये नया मार्केट खड़ा कीजिये या फिर जो मार्केट बना हुआ है, उसी की डिमांड्स को समझिए.
जियो ने क्या किया?
जियो की केस-स्टडी की जाए तो समझ में आता है कि इस कंपनी ने फोर-जी सर्विस लॉन्च करते वक्त भी सबसे पहले टेलीकम्यूनिकेशन के मार्केट की डिमांड को समझा और उस समय वे जो सबसे बढ़िया दे सकते थे उसी को आधार बनाते हुए, आम आदमी तक अपनी पहुंच बनाई. हालांकि उस समय जियो की फोर-जी सर्विस भारत के लिए ही नई थी, विकसित देशों में यह पुरानी बात हो चुकी थी. ऐसे में जियो भारत में एक नया मार्केट खड़ा करने में कामयाब रहा जिसका आगे चलकर दूसरी भारतीय टेलीकम्यूनिकेशन कंपनियों ने भी अनुसरण किया. नतीजा यह है कि आज बेहतर प्लानिंग, अनूठी सर्विस और मार्केटिंग के चलते महज़ चार साल में यह कंपनी टेलीकम्यूनिकेशन मार्केट के शीर्ष पर है.
जियो-मीट के विवाद के बीच आईटी क्षेत्र की कार्यप्रणाली को समझे बगैर हम इसकी तह तक नहीं पहुंच सकते हैं. वर्तमान की आईटी कार्यप्रणालियों में मार्केट की डिमांड समझते हुए एक साफ-सुथरे स्थायी प्रोडक्ट को बाज़ार में उतारना पहला चरण है. कंपनियों को पता होता है कि उनके पहले वर्ज़न में सुधार की गुंजाइशे हैं लेकिन उन्हें यह भी पता है कि सौ फीसदी परफेक्ट प्रोडक्ट एक असंभव सी बात है और इसको पूरा करने के चक्कर में या तो मार्केट की डिमांड बदल जाएगी या फिर कोई और इस मार्केट को हथिया लेगा. इसलिए वे अपने प्रोडक्ट्स को ‘बीटा वर्ज़न’ के तौर पर लॉन्च करती हैं. इसका मतलब होता है कि यह प्रोडक्ट अभी पूरी तरह से रिलीज़ नहीं हुआ है, कंपनी ने इसको मुख्यतः टेस्टिंग के उद्देश्य के मार्केट में उतारा गया है. चूंकि किसी एक प्रोडक्ट में सुधार हमेशा चलते रहने वाली प्रक्रिया है इसलिए ‘बीटा वर्ज़न’ के ज़रिये कंपनियां सही समय पर मार्केट में अपनी जगह बनाने में कामयाब होती हैं. इस दौरान उपयोगकर्ताओं की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए ऑफिशियल रिलीज़ में महत्वपूर्ण सुधारों को अंजाम दिया जाता है.
जियो-मीट का इंटरफ़ेस कॉपी-केस या यूएसपी?
आईपी कंपनियों में एक और शब्द प्रचलित है ‘यूएसपी’ इसका मतलब है ‘यूनीक सेलिंग पॉइंट’. यानी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स को लेकर जब बाज़ार में उतरती हैं तो उस प्रोडक्ट की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो एक तो उस प्रोडक्ट के बनने का कारण होती हैं, दूसरा बिक्री के दृष्टिकोण से उन विशेषताओं की ख़ास अहमियत होती है. कंपनियां प्रचार के वक्त इन्ही विशेषताओं को आगे रख कर अपनी ऑडियंस को आकर्षित करती है. जियो मीट के मामले में ज़ूम से मिलता-जुलता इंटरफेस इसकी यूएसपी साबित हो सकता है.
अगर जियो के ज़ूम से मिलते-झूलते इंटरफ़ेस के विषय पर ज़ूम के ही ऑफिशियल स्टेटमेंट पर गौर किया जाए तो उन्होंने जियो-मीट के कम्पटीशन का स्वागत किया है. जियो-मीट के लॉन्च के बाद जिस तरह से इसे ट्रोल किया गया मानो ज़ूम को तुरंत ही जियो पर लीगल कार्यवाही करनी चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि आईटी क्षेत्र में एक जैसे इंटरफ़ेस का होना बहुत आम सी बात है. वहीं, रिलायंस जियो के पिछले रिकॉर्ड को देखें तो पता चलता है कि यह कंपनी मार्केट रिसर्च के वक्त जो सबसे बेस्ट है, उसको आधार बनाते हुए बाज़ार की मांग को पूरा करने के विषय में सोचती है.
जियो-मीट का इंटरफ़ेस एकदम ज़ूम की तरह रखने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत के जो उपयोगकर्ता पहले से ज़ूम का उपयोग कर रहे हैं या कर चुके हैं, उन्हें जियो-मीट पर माइग्रेट होते वक्त एक नए इंटरफ़ेस के कारण कोई परेशानी न हो. सीधा गणित है यानी लोग ज़ूम ऐप को उपयोग करना जानते हैं, ऐसे में अगर एक पूरा नया इंटरफेस आता है तो लोगों को उसकी आदत लगने में वक्त लग सकता है ऐसे में इसके कुछ यूजर दूर जा सकते हैं. जियो-मीट की लॉन्चिंग के समय पर ध्यान दें तो कंपनी इस वक्त या ग्राहकों को गंवाने का रिस्क नहीं लेना चाहेगी.
कहा जा सकता है कि जियो ने इंटरफ़ेस के ज़रिये मुख्यतः इस बात का ख्याल रखा है कि लोग आसानी से ज़ूम से जियो-मीट पर माइग्रेट हो जाएं और उन्हें उसका उपयोग करने में कोई तकलीफ़ न हो. फ़िलहाल जियो-मीट ‘बीटा वर्ज़न’ के तौर पर लॉन्च हुआ है, मतलब इस वक्त स्वदेशी की छतरी तले ज़ूम के यूज़र्स को अपने यहां माइग्रेट करवा लेने के बाद, हो सकता है कि आने वाले कुछ समय में इसका यूजर इंटरफ़ेस भी बदल दिया जाए.
मौजूदा आईटी कार्यप्रणालियों में एक स्टेबल प्रोडक्ट के साथ सही समय पर मार्केट में आना ज़रूरी है, भले ही उसमे कुछ सुधारों की गुंजाइशें साफ़ दिख रही हो. जियो को जल्द से जल्द मार्केट में कूदने की जल्दबाज़ी थी और उसके इंजीनियर्स को एक सख़्त डेडलाइन मिली होगी. ऐसे में वे अगर नया इंटरफ़ेस बनाने बैठते तो फिर ज़ीरो से सब शुरू करना होता. उस हालत में यह काम 2-3 महीनों में पूरा हो पाना संभव ही नहीं था.(satyagrah)
-सत्याग्रह ब्यूरो
कोरोना वायरस को लेकर 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों की एक खुली चिट्ठी चर्चा में है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के नाम लिखी गई इस चिट्ठी का शीर्षक है - इट्स टाइम टु अड्रेस एयरबोर्न ट्रांसमिशन ऑफ कोविड-19. यानी वक्त आ गया है कि हम हवा के जरिये कोविड-19 के संक्रमण का कुछ करें. इन वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे कई सबूत हैं जो बताते हैं कि कोरोना वायरस हवा के जरिये भी फैल सकता है. उनका कहना है कि यह वायरस हवा में मौजूद थूक की उन बेहद महीन बूंदों में होता है जो तब निकलती हैं जब कोई संक्रमित व्यक्ति सांस छोड़ता या बात करता है. बहुत सूक्ष्म होने की वजह से ये बूंदें इतनी हल्की होती हैं कि कुछ देर तक हवा में रह सकती हैं. इसी दौरान ये सांस के जरिये वायरस को दूसरे व्यक्ति के भीतर ले जा सकती हैं. इसलिए इन वैज्ञानिकों की मांग है कि डब्ल्यूएचओ सहित तमाम एजेंसियां इस वायरस से बचाव के लिए बनाए गए अपने दिशा-निर्देशों में जरूरी बदलाव करें.
कोरोना वायरस को लेकर देशी-विदेशी एजेंसियों ने जो दिशा-निर्देश जारी किए हैं उनमें जोर मुख्य रूप से तीन बातों पर है - बार-बार हाथ साफ करना, मास्क पहनना और पर्याप्त दूरी रखना यानी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना. असल में ये एजेंसियां अभी यह नहीं मानतीं कि यह वायरस हवा के जरिये भी फैल सकता है. लेकिन इन 239 वैज्ञानिकों का कहना है कि हाथ धोना और सोशल डिस्टेसिंग की सलाह ठीक तो है लेकिन, संक्रमित लोगों द्वारा हवा में छोड़ी गईं महीन बूंदों में मौजूद कोरोना वायरस के खिलाफ सुरक्षा के लिए यह पर्याप्त नहीं है. अपने चिट्ठी में उन्होंने लिखा है, ‘यह समस्या खास कर बंद जगहों पर ज्यादा है, खास कर उन जगहों पर जहां भीड़ हो और हवा के आने-जाने की व्यवस्था यानी वेंटिलेशन पर्याप्त न हो.’
जानकारों के मुताबिक कोविड-19 जैसे श्वसन तंत्र के संक्रमण थूक या बलगम की अलग-अलग आकार की बूंदों से फैलते हैं. अगर इन बूंदों का व्यास पांच से 10 माइक्रॉन तक होता है तो इन्हें ‘रेसपिरेटरी ड्रॉपलेट्स’ कहा जाता है. अगर यह आंकड़ा पांच माइक्रॉन से कम हो तो इन्हें ‘ड्रॉपलेट न्यूक्लिआई’ कहा जाता है. माइक्रॉन यानी एक मीटर का दस लाखवां हिस्सा. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक अभी जो सबूत हैं उनके हिसाब से कोरोना वायरस मुख्य रूप से ‘रेसपिरेटरी ड्रॉपलेट्स’ के जरिये फैलता है. 29 जून को कोरोना वायरस पर अपने सबसे ताजा अपडेट में संस्था का कहना था कि हवा के जरिये वायरस से संक्रमित होने की स्थिति किसी अस्पताल में ऐसी मेडिकल प्रक्रिया के दौरान ही आ सकती है जिससे एयरोसोल्स यानी कुछ देर तक हवा में रहने वाले महीन ठोस या द्रव कण पैदा होते हैं.
लेकिन इन 239 वैज्ञानिकों का कहना है कि यह सामान्य परिस्थितियों में भी संभव है. उनकी चिट्ठी में कहा गया है, ‘अध्ययनों से यह बिल्कुल साफ हो चुका है कि सांस छोड़ने, बात करने और खांसने के दौरान निकलने वाली उन बूंदों में भी वायरस मौजूद होते हैं जो बहुत सूक्ष्म होने के कारण कुछ समय तक हवा में ही रहती हैं. इनके चलते संक्रमित व्यक्ति से एक से दो मीटर की दूरी तक वायरस के फैलने का जोखिम रहता है.’ इन वैज्ञानिकों कहना है कि इस दायरे में मौजूद किसी भी शख्स की सांस के जरिये वायरस उसके शरीर में जा सकता है. बताया जा रहा है कि यह चिट्ठी जल्द ही एक प्रतिष्ठित साइंस जर्नल में भी प्रकाशित होने वाली है.
इन वैज्ञानिकों के मुताबिक अतीत में सार्स या मेर्स जैसे संक्रमणों के बारे में किए गए अध्ययनों में भी यह बात सामने आई थी कि इनके फैलने का मुख्य जरिया हवा हो सकती है. अपनी चिट्ठी में उन्होंने कहा है, ‘ये अध्ययन दिखाते हैं कि इन्हें फैलाने वाले वायरस सांस छोड़ते वक्त पर्याप्त तादाद में बाहर आ सकते हैं... इस पर यकीन करने का हर कारण मौजूद है कि कोविड-19 फैलाने वाला कोरोना वायरस भी इसी तरह बर्ताव करता है, और हवा में मौजूद महीन बूंदें भी संक्रमण का एक अहम जरिया हैं.’
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि सावधानी के सिद्धांत पर चलते हुए हमें कोरोना वायरस संक्रमण के हर अहम जरिये का ध्यान रखना चाहिए ताकि इस महामारी की रफ्तार पर लगाम लगाई जा सके. उनके मुताबिक हवा के जरिये संक्रमण न फैले इसके लिए कई उपाय किए जा सकते हैं. मसलन सभी इमारतों खास कर दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों और बुजुर्गों के लिए बने केंद्रों पर वेंटिलेशन की ऐसी व्यवस्था की जाए जो पर्याप्त और प्रभावी हो. इसमें ध्यान रखा जाए कि हवा का रिसर्क्युलेशन यानी भीतर की हवा को फिर भीतर ही छोड़ देना कम से कम हो और बाहर की साफ हवा अंदर आने दी जाए. दूसरा, वेंटिलेशन सिस्टम में संक्रमण को काबू करने वाले एयर फिल्टर या अल्ट्रावायलेट रोशनी जैसे तरीकों का इस्तेमाल हो. वैज्ञानिकों ने सार्वजनिक परिवहन और दफ्तर जैसी जगहों पर जरूरत से ज्यादा भीड़ न लगाने की भी सलाह दी है. ये वैज्ञानिक जो कह रहे हैं उसका एक मतलब यह भी है कि साधारण सर्जिकल मास्क के जरिये कोरोना वायरस से बचाव संभव नहीं है. बचाव सिर्फ एन 95 मास्क से ही हो सकता है.
कोरोना वायरस का अभी अलग से न कोई इलाज है और न ही इसका कोई टीका है. इन वैज्ञानिकों के मुताबिक इसलिए भी जरूरी है कि अभी इसके संक्रमण के हर जरिये को रोका जाए. उन्होंने चिंता जताई है कि अगर इस सच्चाई को स्वीकार नहीं किया गया कि यह वायरस हवा के जरिये भी फैल सकता है और इसे ध्यान में रखते हुए जरूरी उपाय नहीं किए गए तो इसके व्यापक नतीजे होंगे. इन वैज्ञानिकों के मुताबिक अभी खतरा यह है कि लोग यह मान रहे हैं कि मौजूदा दिशा-निर्देशों का पालन करना ही पर्याप्त है जबकि ऐसा नहीं है. उनका कहना है कि हवा के जरिये संक्रमण को रोकने के तरीकों की अहमियत अब पहले से ज्यादा है क्योंकि अब लॉकडाउन हटने के साथ ही दुनिया के कई देशों में लोगों की आवाजाही बढ़ रही है. इन वैज्ञानिकों ने उम्मीद जताई है कि स्वास्थ्य एजेंसियां और सरकारें उनकी बात पर ध्यान देंगी और कोरोना वायरस से बचाव के लिए जरूरी दिशा-निर्देशों में बदलाव करेंगी.
वैसे यह पहली बार नहीं है जब विशेषज्ञों ने डब्ल्यूएचओ से कोरोना वायरस से बचाव को लेकर अपने दिशा-निर्देशों में बदलाव की अपील की हो. बीते अप्रैल में 36 वायु गुणवत्ता और एयरोसोल्स विशेषज्ञों ने भी कहा था कि हवा के जरिये कोरोना वायरस के संक्रमण से संबंधित साक्ष्य बढ़ते जा रहे हैं. इसके बाद डब्ल्यूएचओ ने इन विशेषज्ञों के साथ एक बैठक भी की थी. लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट की मानें तो इस बैठक में डब्ल्यूएचओ के विशेषज्ञ इस पर अड़े रहे कि एयरोसोल्स से सुरक्षा के बजाय हाथ धोना ही बचाव का बेहतर तरीका है.
अभी भी संस्था का यही रुख कायम है. अखबार के मुताबिक संक्रमण संबंधी मामलों में डब्ल्यूएचओ की टेक्निकल लीड डॉ बेंडेटा एलेग्रांजी का कहना है कि कोरोना वायरस के हवा के जरिये फैलने से जुड़े सबूत विश्वास करने लायक नहीं हैं. उनका कहना था, ‘खासकर पिछले कुछ महीनों में हमने कई बार कहा है कि हम हवा के जरिये संक्रमण की संभावना से इनकार नहीं कर रहे, लेकिन इसके समर्थन में मजबूत या स्पष्ट सबूत नहीं हैं.’(satyagrah)
कोरोना के बाद का भारत विषय पर आयोजित 4 दिवसीय वेवनार सम्पन्न
समाजवादी समागम, वर्कर्स यूनिटी, जनता वीकली, पैगाम, बहुजन संवाद द्वारा कोरोना के बाद का भारत विषय पर आयोजित 4 दिवसीय वेवनार के अंतिम दिन योगेंद्र यादव, हरभजन सिंह सिद्धू और नीरज जैन ने अपने विचार साझा किये।
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं जय किसान आंदोलन के नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया में जब कोई आपदा होती है, तब उस समाज की जितनी भी कमियां होती हैं, वह सब बाहर आ जाती हैं। संकट, समाज की व्यवस्था को नए रूप में पेश करता है। जिनके पास ताकत है वह संकट से उबर सकता है और प्रबल होता हैं। गरीब सुविधा के अभाव में कमजोर होता जाता है। हर संकट एक अवसर होता है यूरोप के तमाम देशों में वेल्थ टैक्स, इन्हेरेटन्स टैक्स पर चर्चा शुरू हो गई है पांच बड़ी बातें जिन्हें 19वीं सदी से मान लिया गया था जिसे 21वीं सदी में भी दोहराया जा रहा है। उन्होंने 7 बातें बनाई बताई जिन पर विचार किया जाना चाहिए।
सेल्फ रूल यानी स्वराज आज लोकतंत्र लोगों पर हावी हो गया है, भावनात्मक लगाव- आज समुदाय जाति धर्म राष्ट्र द्वारा इंसान को इंसान से अलग किया जा रहा है, खुशहाली- पूंजीवाद से आर्थिक विकास तो होता है लेकिन इसकी कई कमियां भी है। समाजवादियों ने पहले ही पूंजीवाद का विरोध कर उसकी कमियां गिनाई थी। कुछ लोगों के लिए खुशहाली तो कुछ लोगों के लिए बदहाली लाती है, विज्ञान -जो जितना ज्ञान देता है वह अहंकार वश दूसरे के ज्ञान को दबाता है। अपने आप से जुड़े- मन की शांति के लिए कोविड-19 के बहाने लोकतंत्र का बचा खुचा खाका को नेस्तनाबूद करने काम किया जा रहा है। लोकतंत्र की हत्या धीरे-धीरे की जा रही है 19वीं सदी का नंगा नाच पूंजीवाद लाओ और धन कमाओ को बढ़ावा दिया जा रहा है।
सरकारों ने कोरोना महामारी के सामने घुटने टेक दिए हैं। उन्होंने जनता को अपने हाल पर छोड़ दिया है । अब हमें ही कोरोना संकट से बचने के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए इसके लिए हमें लोगों में कोरोना की हकीकत पेश करनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि वे राष्ट्र निर्माण हेतु टीम बनाकर अन्याय के खिलाफ लोगों के बीच जाकर कार्य करेंगे। यह अभूतपूर्व संकट है सरकार मुकाबला करने में असफल है स्वयं को लोगों की बात सुनकर सच उनतक पहुंचाना है उन्हें विकल्प बताना है। हमारी सरकार से मांग है कि सभी को फ्री इलाज मिले क्योंकि यह हमारा अधिकार है। सब को 3 माह तक हर माह प्रति व्यक्ति को मुफ्त राशन मिले जिसमे 10 किलो अनाज, आधा किलो तेल, डेढ़ किलो दाल, आधा किलो शक्कर शामिल हो, हर व्यक्ति को लॉकडाउन के दौरान हुए नुकसान से बचने के लिए 10 हजार रुपये एकमुश्त रकम दी जाए, मनरेगा में 200 दिन का रोजगार दिया जाए। जिन वर्कर्स की छटनी कर निकाला जा रहा है उनके नुकसान की भरपाई की जाए। सैलरी पर सब्सिडी दी जाए। लोन पर ब्याज की अदायगी से मुक्ति। इन कामों के लिए सरकार कोई कमी ना होने दें।
92 लाख की सदस्यता वाली जे पी के द्वारा स्थापित हिन्द मज़दूर सभा के राष्ट्रीय महामंत्री हरभजन सिंह सिद्धू ने कहा कि हमारे देश में 54 करोड़ श्रमिक में से 7% श्रमिक संगठित है 93% असंगठित है। सरकार ने कंपनियों को खुली लूट की अनुमति दे दी है। वर्करों को व्हीआरएस और सीआरएस के नाम से बाहर निकाला जा रहा है। पहले श्रमिकों ने लंबा संघर्ष कर पूंजीवादी गठजोड़ को बाहर किया था ।
अब वर्तमान सरकार ने कोरोना काल में 44 श्रम कानून बनाकर 4 कोड लागू किया है। जिसमें आठ घंटे के काम को 12 घंटे कर श्रमिकों का शोषण किया जाएगा तथा श्रमिकों के हित की कोई जिम्मेदारी नियोक्ता यानी रोजगार देने वाले अर्थात कारखाने के मालिक की नहीं होगी।
उन्होंने कहा केंद्र श्रमिक संगठनों ने 10 सूत्रीय मांगपत्र को लेकर 3 जुलाई को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिरोध किया है। कोयला उद्योग को निजीकरण से बचाने के लिए तीन दिन की हड़ताल की, डिफेंस के श्रमिक भी आंदोलनरत हैं। हम रेलवे के निजीकरण को भी गंभीर चुनौती देंगे ।
आल इण्डिया रेलवे मेंस फेडरेशन की हड़ताल ने इंदिरा गांधी की तानाशाही को चुनौती दी थी, अब हम फिर चुनौती देने के लिए कमर कस चुके हैं।
देश के प्रमुख अर्थशास्त्री एवं लोकायत के प्रमुख नीरज कुमार जैन ने कहा कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था वैसे ही खराब है, भारत को बीमारी की राजधानी कहा जाता है। परन्तु सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है वह केवल कारपोरेट के मुनाफे को पुनः पटरी पर लाने के लिए काम कर रही है। गरीब भले ही मरे लेकिन कारखाने चलने चाहिए। सरकार ने अब यह भी कहना बंद कर दिया है कि हमारे देश में कोरोना के मरीज कम है। कोरोना के मामले में हम नंबर तीन पर पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री ने भी कोरोना पर बोलना अब बंद कर दिया है। उन्होंने कहा कि सरकार कोरोना पर नियंत्रण कर सकती थी। यूरोप और अमेरिका की यदि बात की जाए तो वहां भी लोग मर रहे हैं और हमारे यहां भी। लेकिन हमारे यहां मृत्यु दर कुछ कम है क्या इतने से संतोष किया जा सकता है?
जिन देशों ने इस बीमारी में सफलतापूर्वक संघर्ष किया है और नियंत्रित किया है उन देशों की चर्चा ही नहीं की जा रही है । जैसे क्यूबा, वेनेजुएला ने बहुत संघर्ष से शानदार सफलता प्राप्त की है आज दुनिया में 5 लाख से ज्यादा लोग मरे हैं। यदि मृत्यु दर दुनिया में क्यूबा, वेनेजुएला की दर पर होती तो आज मुश्किल से 30 से 40 हजार लोग ही मरे होते। पूंजीवादी व्यवस्था कंपनियों के नफे की चिंता करती है लोगों के स्वास्थ्य पर खर्चा कम से कम करना चाहती हैं। इसके चलते भारत बीमारी की रोकथाम के लिए कदम उठाने की बजाय लॉकडाउन में विलंब किया गया। अचानक 24 मार्च को लॉकडाउन घोषित कर दिया। उन देशों ने जिन्होंने सफलता प्राप्त की उन्होंने जैसे ही मौत की खबरें आना शुरू हुई, डब्ल्यूएचओ ने सचेत किया उन देशों ने बाहरी लोगों के आने पर प्रतिबंध लगा दिया और टेस्टिंग शुरू कर दी। हमारे देश में बिना तैयारी के लॉकडाउन लगा दिया। भारत में डायबिटीज टीबी से लाखों लोग इलाज के अभाव में मर जाते हैं। सीएचसी का सरकारी आंकड़ा बताता है कि जितने होना चाहिए उनमें से 20% ही डॉक्टर है भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कम है। हम स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 2% ही खर्च करते हैं यूरोप के देश 5 से 8% खर्च करते हैं विकासशील देशों में अपना जीडीपी का 32% खर्च करते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति इलाज खर्च 1100 है यूरोप के देश में प्रति व्यक्ति 3 लाख प्रतिवर्ष खर्च करते हैं। भारत सरकार नहीं के बराबर खर्च करती है। वहीं प्राइवेट अस्पतालों को सब्सिडी देकर बढ़ावा दिया जा रहा है । कुल इलाज पर लोग अपनी जेब से लगभग 65% खर्च करते हैं । विदेशों में सरकारी प्राइवेट अस्पतालों पर कम, सरकारी अस्पतालों पर ज्यादा खर्च करती है। डेढ़ प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च को बढ़ाकर दोगुना करना हो तो सरकार को लगभग साढे तीन लाख करोड़ रुपए खर्च करना होगा । भारत सरकार अमीरों को जो टैक्स में छूट देती है वह साढ़े छह लाख करोड़ है और जो लोन माफी दी जाती है वह भी सालाना दो से तीन लाख करोड़ है इसके अलावा अमीरों को कई छूट दी जाती है। यदि सरकार इन अमीरों पर 2% टैक्स लगाए तो भारत सरकार लगभग साढ़े नौ लाख करोड़ आमदनी कर सकती है। यदि अमीरों पर वारसान टैक्स लगाए तो सरकार के पास पांच से छह लाख करोड़ जमा हो सकते हैं इस तरह सरकार 20 से 25 लाख करोड रुपए की आमदनी बढ़ा सकती है इससे स्वास्थ्य सुविधाओं पर डबल या तिगुना खर्च किया जा सकता है।
इस संकट से निपटने के लिए हॉस्पिटल को दुरस्त किया जाना चाहिए यानी सुविधाएं देना चाहिए, बड़े पैमाने पर संपर्कों को ट्रेस किया जाए तथा जांच की जाए क्वारंटाइन कर उसे आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए तथा प्रभावितों को मुफ्त राशन देना चाहिए। लॉकडाउन से प्रभावित को केस ट्रांसफर और मुफ्त राशन दिया जाना चाहिए। उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीकरण की मांग की।
उल्लेखनीय है कि वेबनार का संयोजन डॉ सुनीलम, आकृति भाटिया, संदीप राउजी ने किया। पहले दिन अर्थशास्त्री प्रो अरुण कुमार, जस्टिस कोलसे पाटिल, प्रफुल्ल सामन्त रा, दूसरे दिन रमाशंकर सिंह, गौहर रजा, मेधा पाटकर, तीसरे दिन वी एम सिंह, अमरजीत जीत कौर, गणेश देवी ने वेबनार को संबोधित किया था। सभी वक्ताओं के भाषण वर्कर्स यूनिटी के यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।(sapress)
-कृष्ण कांत
सभी मीडिया हाउस ने आज एक खबर चलाई हैं, जिसका सार-संक्षेप है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने चीन से बात की और चीन पीछे हट गया। अब सवाल है कि अगर डोभालजी इतने जादुई आदमी हैं तो अब तक क्या कर रहे थे? अप्रैल से ही घुसपैठ की खबरें थीं। जून की शुरुआत में वार्ता हुई। फिर 15 जून को सैनिकों में झड़पें हुईं और 20 जवान शहीद हो गए, दस बंधक बनाए गए। आज 6 जुलाई है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सलाहकार के पास राष्ट्रीय सुरक्षा से जरूरी कौन सा काम होता है जो उनके जागने में इतनी देर हो जाती है?
अब एक और दिलचस्प मामला देखिए। खबर आई है कि चीन पीछे हट गया है। सुबह से अलग-अलग रिपोर्ट पढ़ीं। सारी सूत्रों के हवाले से हैं। इन दर्जनों खबरों के मुताबिक, चीन एक किलोमीटर, डेढ़ किलोमीटर और दो किलोमीटर पीछे हटा है. मंत्री और सरकार कुछ बोलते नहीं।
अगर देश की सीमा पर खतरा है तो जनता को क्यों नहीं बताया जाना चाहिए? शहीद होने नेता नहीं जाता, अपनी जमीन बचाने के लिए कुर्बानी तो जनता ही देती है. फिर जनता से झूठ क्यों बोला जाता है?
अगर कोई देश घुसपैठ करके आया और वापस चला गया, यह तो देश की जीत हुई। इस जीत की सही सूचना भी जनता को क्यों नहीं दी जाती? जो जनता अपने बेटों के शहादत का मातम मनाती है, उससे जीत के जश्न का मौका क्यों छीन लिया जाता है?
यह सूत्र कौन है जो अपने हवाले से अडग़म-बडग़म कुछ भी छपवाता रहता है? इस सूत्र को ही देश का रक्षामंत्री क्यों नहीं बना दिया जाना चाहिए?
जब बताने के लिए स्पष्ट सूचना नहीं होती, तब सूत्र एक्टिव किए जाते हैं और फर्जीवाड़ा फैलाते हैं।
प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि न कोई घुसा है, न किसी ने कब्जा किया है। जब कोई नहीं घुसा तो पीछे कौन हटा और हटकर कहां गया? जहां से हटा वहां अब क्या होगा? भारत भी हटा कि आगे बढक़र अपनी असली सीमा से सटा? हमारी जो जमीन कब्जे में थी, वह छूटी कि नहीं छूटी?
असल में किसी को कुछ नहीं पता. सूत्रों के हवाले से सुर्रा छोड़ते रहो।
-शिशिर सोनी
भारत चीन सीमा पर तनाव है, और तनाव की कोई सीमा नहीं है। बीस वीर जवानों की शहादत का बदला एप्स अनइस्टॉल कर लिया जा रहा है। हमारा राष्ट्रवाद भी गजब है- एक हीरो रहा सनी देओल तो इसीलिए चुनाव जीत गया क्यों कि उसने एक फिल्म में पाकिस्तान का हैंडपंप उखाड़ डाला था। मोदी जी कल तक जिस जिनपिंग से गले मिल रहे थे आज वहीं गले पड़ रहा है। मोदी जी को नेहरू जी को कोसने से फुर्सत मिले तो वे जिनपिंग के पिंग-पिंग पर ध्यान दें। प्रधानसेवक इतिहास में उलझे रहे, चीनी राष्ट्रपति ने भूगोल में हेरफेर कर दी। मोदी जी चीनी राष्ट्रपति से कोई अठारह बार मिल चुके हैं। इतना तो इंसान पूरी जिंदगी खुद से नहीं मिल पाता।
चीन पैदाइशी धूर्त देश है। जिसने डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखने वाले नेता को धोखा दे दिया, वह डिस्कवरी चैनल के अभिनेता को क्या समझता? गर्व की बात ये है कि हमारे मुकाबले चीन का पलड़ा बेहद कमजोर है। हमारे पास न्यूज एंकर और वीर रस के कवि भी तो हैं। जहां न पहुंचे तुलसीदास गोस्वामी वहां पहुंचे अर्णब गोस्वामी। अकेले अर्णब गोस्वामी की ही जंजीर खोल दी जाए तो चीन भाग छूटेगा। कितना भी बड़ा सूरमा हो बकवास से तो घबराता है।
मेरे हिसाब से चीन के बौखलाहट का बड़ा कारण ट्रंप यात्रा की दौरान अहमदाबाद में बनाई गई वो दीवार है जिसके पीछे गरीबी को ढाकी गई थी। एक ही मास्टर स्ट्रोक में मोदी जी ने चीन की कमर तोड़ कर रख दी। अब तक लाखों पर्यटक चीन की दीवार देखने जाते थे वो सब अहमदाबाद की दीवार देखने आएंगे।
संग्राम शत्रु से हो या जीवन का, बल से नहीं आत्मबल से जीता जाता है। आत्मबल आता है सच्चाई से। दान गुप्त और खर्च ओपन तो सुना था, लेकिन दान ओपन और खर्च गुप्त, ये पीएम-केयर्स फंड से ही पता लगा है। (फेसबुक)
(संपत सरल का कविता पाठ )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गालवान घाटी से इस वक्त खुश-खबर आ रही है। हमारे टीवी चैनल पहले यह दावा कर रहे हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से चीन पीछे हट रहा है। चीन अब घुटने टेक रहा है। अपनी हठधर्मी छोड़ रहा है लेकिन इस तरह के बहुत-से वाक्य बोलने के बाद वे दबी जुबान से यह भी कह रहे हैं कि दोनों देश यानी भारत भी उस रेखा से पीछे हट रहा है। वे यह भी बता रहे हैं कि हमारे सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच कल दो घंटे वीडियो-बातचीत हुई। इसी बातचीत के बाद दोनों देशों ने अपनी सेनाओं को पीछे हटाने का फैसला किया है लेकिन हमारे टीवी चैनलों के अति उत्साही एंकर साथ-साथ यह भी कह रहे हैं कि धोखेबाज-चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक अर्थ में हमारे ये टीवी एंकर चीन के बड़बोले अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ से टक्कर लेते दिखाई पड़ते हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत सरकार हमारे इन एंकरों की बेलगाम और उकसाऊ बातों में बिल्कुल नहीं फंसी और उसने संयम से काम लिया।
यह अलग बात है कि टीवी चैनलों को देखनेवाले करोड़ों भारतीय नागरिक चिंताग्रस्त हो गए और उत्तेजित होकर उन्होंने चीनी माल का बहिष्कार भी शुरु कर दिया और चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग के पुतले फूंकने भी शुरु कर दिए लेकिन सरकार और भाजपा के किसी नेता ने इस तरह के कोई भी गैर-जिम्मेदाराना निर्देश नहीं दिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथसिंह और विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन का नाम लेकर एक भी शब्द उत्तेजक नहीं बोला। उन्होंने हमारी फौज के जवानों के बलिदान को पूरा सम्मान दिया, लद्दाख की अपनी यात्रा और भाषण से फौज के मनोबल में चार चांद लगा दिए और गलवान की मुठभेड़ को लेकर चीन पर जितना भी निराकार दबाव बनाना जरुरी था, बनाया। जैसे चीनी ‘एप्स’ पर तात्कालिक प्रतिबंध, चीन की अनेक भारतीय-प्रायोजनाओं पर रोक की धमकी और लद्दाख में विशेष फौजी जमाव आदि!
उधर चीन ने भी अपनी प्रतिक्रिया को संयत और सीमित रखा। इन बातों से दोनों सरकारों ने यही संदेश दिया कि गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ तात्कालिक और आकस्मिक थी। वह दोनों सरकारों के सुनियोजित षडय़ंत्र का परिणाम नहीं थी। मैं 16 जून से यही कह रहा था और चाहता था कि दोनों देशों के शीर्ष नेता सीधे बात करें तो सारा मामला हल हो सकता है। अच्छा हुआ कि दोभाल ने पहल की।
परिणाम अच्छे हैं। डोभाल को अभी मंत्री का ओहदा तो मिला ही हुआ है। अब उनकी राजनीतिक हैसियत इस ओहदे से भी ऊपर हो जाएगी। अब उन्हें सीमा-विवाद के स्थायी हल की पहल भी करनी चाहिए। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश शर्मा
आप इसे विरोधाभास बिलकुल मत मानिए कि - भारत सरकार की तमाम रिपोर्टों में यदि गरीबी कम हो रही है तो गरीबों के नाम पर 'कल्याण योजनाओं' का विस्तार क्यों हो रहा है? क्या गरीबी, मात्र अन्न के अभाव का परिणाम है? क्या मौज़ूदा गरीबी, बहुसंख्यकों की संसाधनहीनता का भी प्रतीक नहीं है? और फिर गरीबी और आत्मनिर्भरता के बीच शब्दों और अर्थों के क्या संबंध हैं? यदि आप सचमुच उत्तर तलाशना चाहते हैं तो शिद्दत के साथ आज से लगभग 110 बरस पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिखे 'हिन्द स्वराज' को अवश्य पढ़िए। और फिर पूरी निर्भीकता के साथ समाज और सरकार को सवालों के समानांतर खड़े करने का नैतिक सामर्थ्य जुटाइए।
महात्मा गांधी सहित दुनिया के कई क्रांतिकारी मानते रहे हैं कि गरीबी मूलतः कोई पृथक समस्या नहीं, बल्कि विकास के अनेक सुलझे-उलझे समीकरणों और समस्याओं का समग्र परिणाम है। इसके संबंध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाज की जीवनचर्या और उपभोग की सीमाओं तथा राज्य की नीतियों और सरकार के दिशा-दशा के निर्धारण से हमेशा जुड़े रहे हैं। इसीलिये गरीबी की उत्पत्ति और उन्मूलन दोनों ही समाज और सरकार के समन्वित ढांचों से ही संभव है।
समाज का आचरण भी राज्य की नीतियों और दिशाओं का निर्धारण करता है। विकास के विकल्प और प्रकल्प, वास्तव में बहुसंख्यक समाज (भारत के संदर्भ में मध्यम वर्ग) के लिए सुविधाएं जुटाने के तर्कों पर खड़े किये जाते रहे हैं। उत्खनन, औद्योगीकरण, अनियंत्रित शहरीकरण और आधारभूत संरचनाओं का विस्तार आदि के लिए विकास का अर्थ उस समाज को जाने-अनजाने विपन्न बनाना भी है, जिनकी निर्भरता, प्राकृतिक संसाधनों अर्थात जल जंगल और जमीन पर रही है।
यदि ऐसा नहीं होता तो प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न जिले ही सबसे अधिक विपन्न क्यों होते? आज हमें इसके लिए किसी नए शोध की जरूरत नहीं। भारत के पचास (तथाकथित) गरीबतम जिलों का नया इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र स्वयं सब कुछ बयां कर रहा है। यह और बात है कि समाज और सरकार इसके वास्तविकताओं को स्वीकार करे न करे।
उड़ीसा का केंदुझर हो या झारखण्ड का दुमका अथवा मध्यप्रदेश का बैतूल या छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला हो। जो जिले, अकूत प्राकृतिक सम्पन्नता के लिए जाने जाते रहे, वही आज विपन्नता के लगभग स्थायी केंद्रबिंदु बने हुए हैं। गौरतलब है कि यही जिले अपने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध संगठित अधिग्रहण के एवज में सरकार को सबसे अधिक राजस्व देते हैं।
मजेदार सत्य यह है कि संसाधनों से कमाए हुए राजस्व से ही वहां उन्नति और वृद्धि के नाम पर सरकारी मुलाजिम नियुक्त किए जाते हैं, जो विकास नामक मॉडल के लिए फिर सड़कों और रेलवे की योजनाएं बनाते हैं। इन सब योजनाओं और प्रयासों का तार्किक परिणाम है - प्राकृतिक संसाधनों के संगठित अधिग्रहण के लिए पगडंडियों और राजमार्गों की भूलभुलैया का मायाजाल बिछाना। इन विरोधाभासों पर प्रश्नचिन्ह खड़े करने को क़ानूनन पहले ही विकास विरोधी माना जा चुका है।
अब यदि केंदुझर के जानकी मांझी, दुमका के बाबूलाल महतो, बैतूल के बलराम गोंड और कोरबा की सूरजो बाई को ग़रीबी कल्याण योजना के मुआवज़े में कुछ अनाज मिल भी जाये तो क्या उसके बलबूते उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा? बस्तर के मनीष कुंजाम कहते हैं कि अब तक घोषित और पोषित नीतियाँ तो वास्तव में गरीबी के कृत्रिम उपचार की तरह है।
आप उन्हें संसाधनहीन करके इतना भी निरीह मत बना दीजिए कि वो मुट्ठीभर अनाज के खातिर अपना स्वाभिमान भी भूल जाएं। अब तक तो व्यवस्था केंद्रित हरेक नीतियां और उनकी नियतियाँ भ्रष्टाचार के अमरबेल का ही माध्यम साबित हुई हैं। और फिर यदि गरीबी उन्मूलन की नीतियों और नियतियों के लाभार्थी स्वयं व्यवस्था तंत्र में बैठे हुए लोग ही रहे हैं, तो जाहिर तौर पर तथाकथित विकास की इस व्यवस्था को बनाए रखने की जिद हम आसानी से समझ भी/ही सकते हैं।
उड़ीसा राज्य सरकार के अनुमान (2018) के मुताबिक़ केंदुझर जिला, हर बरस लुटते हुये खनिज संसाधनों के एवज में लगभग 1600 करोड़ रुपए का राजस्व उड़ीसा सरकार को देता है। विगत 20 बरस में यह राशि अनुमानतः 30000 करोड़ रुपए होती है। इस राजस्व को गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रहे परिवारों के मध्य यदि समान रूप से बांटा जाता तो भी क्या मुआवजा अथवा अस्थायी रोजगार, उनके अधिग्रहित हो चुके जमीन और जंगल से ज्यादा सम्मानजनक और टिकाऊ होते?
मुआवजे के इस सुलझे-उलझे समीकरणों का यथार्थ है कि, केंदुझर से अर्जित राजस्व का उपयोग लोगों के विकास के साधन नहीं बल्कि उनके ही अपने जीविकोपार्जन के स्थायी संसाधनों के अधिग्रहण के लिये हुआ। जिसका परिणाम हुआ कि केंदुझर, वर्ष 2001 में देश के ग़रीबतम जिलों में दर्ज़ था और आज दो दशक के बाद भी उसी पायदान पर भौंचक खड़े रहने के लिये अभिशप्त है।
जाहिर है जानकी मांझी और उसके जैसे हजारों विपन्न परिवारों के लिए गरीब कल्याण योजना, इस बरस का मानसून है। संभव है, अगले बरस ऐसी ही किसी योजना का कोई नया नामकरण हो जाए। एक चिरस्थायी गरीबी रेखा की सार्वजनिक सूची, मालूम नहीं उसकी विपन्नता का परिचय पत्र है अथवा समग्र व्यवस्था की नाक़ाबिलियत की जिंदा मिसाल है।
उन लगभग 80 करोड़ परिवारों को जिन्हें गरीब कल्याण योजना का पात्र माना गया अथवा माना जाएगा के लिए मिलने वाली राहत सामग्री निःसंदेह उपयोगी तो है - लेकिन उन समूचे सवालों का जवाब नहीं, जिसकी वजह से उसे गरीब साबित होना पड़ा है।
अच्छा होता अन्नदान के इस राजनैतिक रिवाज की बजाए सरकार और समाज उसे अन्न उत्पादन का बेहतरीन साधन-संसाधन सुनिश्चित करतीं। यह तात्कालिक जरूरत को पूरा करने में भले ही विफल रहती, किन्तु कम से कम उन करोड़ों लोगों को स्वाभिमानपूर्वक अपना भाग्य विधाता बनने का अवसर तो जरूर देती। संभवतः करोड़ों सीमान्त किसानों के लिए उत्पादन व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए, सरकार विकास के पथ पर बिना किसी बैसाखी के चलने वाले स्वाभिमानी समाज के सुरक्षित भविष्य का मार्ग ही गढ़ती। लेकिन जिस व्यवस्था में महात्मा गांधी के दूरगामी स्वावलम्बी समाज के उद्द्येश्य के बजाए, गरीबी के राजनैतिक नारे के साथ विकास योजनाओं के अल्पकालिक लाभार्थी तैयार करना हो, वहां ये तर्क विगत 70 बरसों से अब तक तो बेमानी ही साबित होते रहे हैं।
आज ज़रूरत गरीबी उन्मूलन के एक समग्र दृष्टि और उसके राजनैतिक स्वीकृति की है। गरीब कल्याण योजना उस समग्र दृष्टि और राजनैतिक योजना का एक पक्ष तो हो सकता हैं, लेकिन बहुसंख्यक वंचितों के जल जंगल और जमीन के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित किये बिना कोई भी आधी-पूरी नीतियां और उसकी नियतियां कभी आधारभूत परिवर्तन ला पायेगी इसमें संशय था और रहेगा।
आजादी के स्वर्ण जयंती वर्ष आते-आते यदि समाज और सरकार उन करोड़ों लोगों को उन पर बेताल की तरह लादी गयी वंचना से मुक्ति का मार्ग गढ़ने का कोई अंतिम अवसर देती है तो यह इतिहास बनेगा। वरना महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज और उसमें प्रतिपादित भारत निर्माण के मार्ग को भूल जाने वाले समाज के रूप में कदाचित हम हमेशा के लिये अभिशप्त हो जायेंगे। हम आज ऐसे अनगिनत लंबित निर्णयों के निर्णायक मुक़ाम पर खड़े हैं। (downtoearth)
1939 मे गांधीजी ने मीरा बेन को बालाकोट भेजा था. वहां जाकर उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि ‘ईश्वर करे, कोई नेता इस छोटे से गांव में न पहुंचे!’
-रामचंद्र गुहा
सैन्य इतिहासकारों के लिए बालाकोट वह जगह है जहां मई 1831 में महाराजा रणजीत सिंह और सैयद अहमद बरेलवी की फौजों के बीच एक बड़ा युद्ध हुआ था. उधर, आम आदमी बालाकोट को एक ऐसी जगह के तौर पर जानता है जहां फरवरी 2019 में भारतीय वायु सेना ने जैश-ए-मोहम्मद के एक ट्रेनिंग कैंप पर हमला किया था.
इस लेख का विषय भी बालाकोट ही है, हालांकि उसका संबंध एक तीसरी घटना से है जो बाकी दोनों घटनाओं के दरम्यान घटी थी. मई 1939 में एक महान भारतीय देशभक्त ने बालाकोट और इसके आसपास की जगहों की यात्रा की थी. इस भारतीय ने अपनी डायरी में यहां के भूगोल और लोगों का एक विवरण भी लिखा था. इस अप्रकाशित डायरी की एक प्रति हाल ही में मुझे आर्काइव्स में मिली.
इस भारतीय देशभक्त का नाम कभी मेडलिन स्लेड हुआ करता था. वे एक ब्रिटिश एडमिरल की बेटी थीं जो बाद में महात्मा गांधी की अनुयायी बन गईं और अहमदाबाद और सेवाग्राम स्थित उनके आश्रमों में रहीं. उन्होंने अपना नाम मीरा रख लिया था. भारत से उन्हें इतना प्रेम था कि वे आजादी की लड़ाई में शामिल हुईं और उन्होंने लंबे समय तक जेल भी काटी. मीरा बेन ने शोषितों का पक्ष लेने के लिए देश और नस्ल की दीवार तोड़ दी थी. स्वाधीनता संग्राम से जुड़े साहित्य में उनका उल्लेख आदर के साथ किया जाता है.
मैं मीरा बेन के बारे में काफी कुछ जानता हूं, लेकिन यह मुझे हाल ही में पता चला कि उन्होंने 1939 में बालाकोट की यात्रा की थी. तब भारत और पाकिस्तान दो अलग मुल्क नहीं थे. बालाकोट ब्रिटिश भारत के नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविसेंज (एनडब्लूयएफपी) में पड़ता था. यह सूबा खुदाई खिदमतगार नाम के एक समूह का भी इलाका था. इसकी कमान एक ऐसे शख्स के हाथ में थी जो गांधी के मीरा बेन से भी बड़े अनुयायी थे. उनका नाम था खान अब्दुल गफ्फार खान. उन्होंने अपने नैतिक बल से आक्रामक पठानों में अहिंसा और सहिष्णुता भर दी थी.
1939 के बसंत की बात है. गांधी जी ने मीरा बेन को फ्रंटियर प्रोविंस भेजा. मकसद था इस इलाके में चरखा कताई और बुनाई का प्रचार. इसी यात्रा के दौरान मीरा बेन एबटाबाद (जहां अमेरिकी नेवी सील्स ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था) से सड़क के जरिये बालाकोट गई थीं. मीरा बेन ने अपनी डायरी में इस यात्रा का वर्णन कुछ ऐसे किया है: ‘गांवों-खेतों के चारों ओर और नालों के किनारे हरे-भरे पेड़ दिखते हैं. पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत समुंदर की लहरों की तरह नजर आते हैं जिनमें भूरे और हरे रंग की विविधिता के दर्शन होते हैं. इस छोटी सी दुनिया को नीली पहाड़ियां घेरे हैं जिनके पार विशाल हिमशिखर हैं.’
बालाकोट का रास्ता आधा तय कर चुकने के बाद मीरा बेन और उनके खुदाई खितमतगार साथी एक जगह पर रात बिताने के लिए रुके. अगले दिन सुबह जल्दी उठकर मीराबेन ने थोड़ी सैर की. उन्होंने लिखा है, ‘खेतों में काम शुरू हो चुका था. मक्का की फसल खलिहान में थी और साथ ही साथ बुआई का काम भी चल रहा था. जब मैं अपने ठिकाने पर लौट रही थी तो मुझे कोयल की मीठी कूक सुनाई दी.’
नाश्ते के बाद मीराबेन और उनके साथी बालाकोट की तरफ रवाना हो गए. रास्ते में उन्होंने वन विभाग का एक बंगला दिखा जिसे देखकर मीरा बेन को ख्याल आया कि ‘इस जगह बापूजी थोड़ा विश्राम कर सकते हैं.’ यह बंगला 3900 फीट की आरामदायक ऊंचाई पर था: ‘जंगल में अकेली इमारत जिसके पीछे हिम शिखर थे और नीचे पर्वत और घाटियां. यह निश्चित तौर पर एक आकर्षक ठिकाना है, पर यहां पर पानी की कमी है.’ (गांधी इससे पिछले साल ही फ्रंटियर प्रोविंस आए थे और फिर से यहां की यात्रा के बारे में सोच रहे थे. हालांकि ऐसा हो न सका, लेकिन आज यह सोचना ही अजीब लगता है कि वे बालाकोट के इतने नजदीक स्थित किसी बंगले में स्वास्थ्य लाभ कर सकते थे.
बालाकोट गांव का रास्ता कुनहर नदी की घाटी से होकर जाता था. सड़क ‘संकरी’ और ‘खराब’ थी. ‘खड़ी चढ़ाई और मोड़’ थे. गड्ढों और मोड़ों वाली इस सड़क पर गाड़ी बहुत दिक्कत के साथ चल रही थी. मीरा बेन ने लिखा है कि वे इस जगह की खूबसूरती में खो गई थीं. उनके शब्द हैं, ‘हालांकि सड़क नदी के दाएं किनारे के साथ-साथ ही चल रही है और बर्फीले पहाड़ों से नीचे आ रही इस नदी का रूप बहुत रौद्र है. पहाड़ी ढलानों से तेजी से नीचे उतरती और कई मोड़ों से टकराती इस नदी में वैसी ही विशाल लहरें उठ रही हैं जैसी साबरमती में बाढ़ के समय उठा करती हैं. इसके किनारों पर जहां-तहां उन विशाल पेड़ों के तने पड़े हैं जो इसके रास्ते में आ गए.’
अपनी मंजिल पर पहुंचने के बाद मीरा बेन ने उस जगह का भी सजीव वर्णन किया है. उन्होंने लिखा है, ‘बालाकोट एक छोटी से पहाड़ी के एक तरफ बसा एक बड़ा और घना गांव है जो किसी मधुमक्खी के छत्ते जैसा लगता है. यह कंगन घाटी के ठीक मुहाने पर बसा है. यहां कोई सड़क नहीं है. सिर्फ पत्थरों से बने पैदल रास्ते हैं जो सीढ़ियों जैसे ज्यादा लगते हैं. अक्सर इन रास्तों से पानी की कोई धारा भी गुजर रही होती है. बाजार भी घना बसा है और नीचे के घर की छत ऊपर वाले घर के लिए छज्जे का काम करती है. दुकानदारों में से कई हिंदू और सिख हैं.’
मीरा बेन को बताया गया कि बालाकोट में रहने वाले गुज्जर कताई और बुनाई करते हैं और बहुत अच्छे कंबल बनाते हैं. लेकिन यह जानकर उन्हें निराशा हुई कि ये गुज्जर अभी वहां नहीं थे. वे हर बार की तरह साल के इस वक्त ऊंचे पहाड़ों में स्थित चरागाहों की तरफ जा चुके थे. यह जानकर मीरा बेन निराश हो गईं. इस पर उनके साथ आए खुदाई खिदमतगार के एक नेता अब्बास खान ने कहा कि वे किसी को गुज्जरों के पास भेजेंगे ताकि उनमें से कुछ अगले दिन तक नीचे यानी गांव में आ जाएं. ऐसा ही हुआ. गुज्जरों के गांव में आने के बाद मीरा बेन ने उनसे ऊन के उनके काम के बारे में कई सवाल किए.
बालाकोट से मीरा बेन और उनके साथी और भी ऊंचे पहाड़ों की तरफ गए. वे भोगरमंग नाम के एक गांव में रुके. यहां करीने से बनाए गए धान के खेत थे और गांव वाले बुनाई और मधुमक्खी पालन का काम भी कर रहे थे. मीरा बेन इससे बहुत प्रभावित हुईं. लेकिन इससे भी ज्यादा खुशी उन्हें एक दूसरी चीज से हुई. जैसा कि उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है, ‘जिस चीज ने इस गांव में मुझे सबसे ज्यादा खुशी दी वह थी हिंदू-मुस्लिम एकता... एक हिंदू परिवार, जिसका मुखिया, सफेद बालों वाला एक छोटे कद का शख्स था, गांव के नौजवान खान समुदाय के लोगों के साथ बहुत प्रेम से रह रहा था. इन लोगों का कहना था कि यह शख्स उनके पिता और दादा का दोस्त रहा है और दोनों समुदायों के बीच हमेशा आपसी सहयोग और एक-दूसरे की फिक्र का संबंध रहा है.’ यह सुनकर मीरा बेन ने आगे लिखा, ‘स्वाभाविक ही है कि मेरे हृदय में प्रार्थना उठी कि कोई नेता इस छोटे से गांव में न पहुंचे और इसके मधुर और सहज जीवन पर ग्रहण न लगे.’
हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल यह गांव मीरा बेन की यात्रा का आखिरी पड़ाव था. अगली सुबह वे एबटाबाद लौट आईं. कुछ ही हफ्ते बाद वे सेवाग्राम आश्रम में थीं. सितंबर 1939 में यूरोप में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया जिसने इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया. भारत और इसके लोगों के लिए इस लड़ाई के जो नतीजे रहे उनमें से एक हिंदू और मुसलमानों के बीच मौजूद दरार का चौड़ा होना भी था. मीरा बेन को आशंका थी कि इस आग को नेता और भड़का रहे थे जो दोनों समुदायों में अच्छी-खासी तादाद में थे. युद्ध जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, फ्रंटियर प्रोविंस में गफ्फार खान की पार्टी का आधार तेजी से सिमटता गया और मुस्लिम लीग का प्रभाव बढ़ता गया. इसके साथ ही यहां सांप्रदायिक सहिष्णुता पूरी तरह ध्वस्त हो गई. हालांकि यहां अगस्त 1947 के बाद वैसे खूनी दंगे नहीं हुए जैसे पंजाब में हुए थे, लेकिन यहां रह रहे हिंदुओं और सिखों को भी पाकिस्तान छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी.
जिस बालाकोट में मीरा बेन 1939 में गई थीं वह आज पूरी तरह बदल चुका है. अब यहां का ताना-बाना बहुधार्मिक नहीं है. इसके बजाय यहां इस्लामी कट्टरवाद को बढ़ावा देने वाले जिहादियों का ट्रेनिंग कैंप है. बालाकोट के नजारे भी अब काफी बदल चुके होंगे जैसा कि दक्षिण एशिया के दूसरे पर्वतीय इलाकों में हुआ है, जहां जंगल तेजी से घटे हैं और पत्थर और लकड़ी के सुंदर मकानों की जगह कंक्रीट के बदसूरत ढांचों ने ले ली है. बालाकोट की स्थानीय शिल्प कलाएं भी विलुप्ति के कगार पर होंगी.
इस लेख में हमने ऐतिहासिक स्मृति के एक टुकड़े की बात की, लेकिन आखिर में मैं इस बारे में विचार करना चाहूंगा कि उस अतीत से हमारा वर्तमान क्या सीख ले सकता है? नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंसेज को आज खैबर पख्तूनख्वा कहा जाता है और यहां मुट्ठी भर ही हिंदू और सिख बचे हैं. दूसरी तरफ, भारत के ज्यादातर राज्यों में मुस्लिम अल्पसंख्यक काफी संख्या में हैं. क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस देश के गांवों में हिंदुओं और मुसलमानों में वही आपसी सहयोग और एक-दूसरे की फिक्र का माहौल बनाया जा सकेगा? या हमारे ‘नेता’ ऐसा नहीं होने देंगे?(satyagrah)
-श्रवण गर्ग
दुनिया के देशों में नागरिक अपने राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और अन्य नायकों को विभिन्न रूपों में देखकर कैसी प्रतिक्रियाएँ अंदर से महसूस करते हैं उसका कोई प्रामाणिक सर्वेक्षण और विश्लेषण प्रकट होना अभी बाकी है। नागरिक इस बारे में या तो सोच ही नहीं पाते या फिर व्यक्त किए जाने के सम्भावित खतरों से खौफ खाते हैं। इतना तो तय है कि उनके दिलों में अपने नायकों की एक विशेष छवि लगातार स्थापित होती जाती है। धार्मिक-राजनीतिक ताबीज और बाजूबंद नागरिकों पर ऊपर से आरोपित किए जा सकते हैं पर अंदर की छवियाँ नहीं। न ही उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन या संशोधन किया जा सकता है।
अपवादों को छोड़ दें तो वर्तमान में अधिकांश नायक अपने आंतरिक व्यक्तित्व से ज़्यादा जनता के बीच बाह्य छवि को लेकर ही परेशान रहते हैं। वे अपनी भीतरी कमजोरियों को ऊपरी आवरण या स्वआरोपित आत्मविश्वास से ढंकने की कोशिशों में ही पूरे समय लगे रहते हैं।वे उसी छवि के फिर बंदी भी हो जाते हैं। राजनेताओं के अलावा सेना के सेवानिवृत बड़े अफसर भी उदाहरण के तौर पर गिनाए जा सकते हैं।
दुनिया भर के राजनेता, जहाँ केवल मुखौटों वाला प्रजातंत्र ही बचा है वहाँ भी, अपने विरोधियों की राजनीतिक ताकत या तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद हारने या जीतने की संभावनाओं पर घोषित-अघोषित या प्रायोजित सर्वेक्षण करवाते रहते हैं। इन्हें अंजाम देने वाली एजेंसियाँ भी अच्छे से जानती हैं कि उन्हें नतीजे किस तरह के पेश या प्रचारित करना हैं। राजनेता ऐसे किसी सर्वेक्षण की जोखिम नहीं लेते कि कितने लोग उन्हें दिल से और कितने मज़बूरी में पसंद करते हैं!
तानाशाही या एक ही पार्टी वाली व्यवस्थाओं (उत्तर कोरिया, चीन, रूस आदि) में तो इस तरह के सर्वेक्षण का सोच भर ही मौत का इंतज़ाम कर सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पोलैंड के गैस चैम्बरों में हजारों यहूदियों को मारने के लिए डाले जाने से पूर्व क्या उनसे पूछा जा सकता था कि वे किसे पसंद और किसे नापसंद करते हैं और क्या उनके सकारात्मक जवाब को स्वीकार कर उन्हें माफ कर दिया जाता? प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में भी नागरिकों के मनों को अंदर से खंगालने का कोई फूल-प्रूफ तरीका राजनीतिक वैज्ञानिक अभी ईजाद नहीं कर पाए हैं। शायद इसीलिए बहुत सारे चुनावी सर्वेक्षण या ओपिनियन पोल्स ग़लत साबित हो जाते हैं जैसा कि 1980 और 2004 में हम देख चुके हैं।
कतिपय नायक ऐसे होते हैं जिन्हें अंदर से ही ईश्वरीय अनुभूति प्राप्त रहती है कि उनके बिना कोई भी इतिहास लिखा ही नहीं जा सकेगा।इसीलिए ऐसे लोगों ने इतिहास लिखने का प्रयास भी कभी नहीं किया। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जान एफ कैनेडी, नेलसन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग आदि कई उदाहरण हैं। ये लोग केवल अपनी जनता की ओर ही आँखें भरकर देखते रहे; उसकी उपस्थिति मात्र से ही अभिभूत और अनुप्राणित होते रहे। उनका इतिहास गढऩे का काम जनता करती रही। अपने चले जाने के लंबे अरसे के बाद भी ये नायक करोड़ों लोगों के दिलों में जो जगहें बनाए हुए हैं उसके लिए उन्होंने कभी उस तरह के कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रयास नहीं किए होंगे जैसे कि इस समय किए जा रहे हैं। इसका कारण तब शायद यही रहा होगा कि न तो उन्हें अपनी छवि के प्रति कोई मोह या अहंकार था और न ही उसके छिन जाने को लेकर भय।अपनी जनता के असीम प्रेम में उनका अनन्य भरोसा था।
ऊपर की पंक्तियों में व्यक्त विचार केवल दो घटनाओं के कारण उपजे हैं और दोनों का संबंध दुनिया के दो सबसे बड़े प्रजातंत्रों-अमेरिका और भारत से है। अमेरिका में चल रहे अश्वेतों के आंदोलन को धार्मिक रूप से परास्त करने के लिए राष्ट्रपति ट्रम्प व्हाइट हाउस के नजदीक स्थित उस पुराने चर्च तक पैदल गए जो आंदोलन में क्षतिग्रस्त हो गया था। पर वहाँ पहुँचकर ट्रम्प ने सबसे पहले बाहर एक खुले स्थान पर ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल को हाथों में उठाकर फोटो खिंचवाया। अमेरिकी जनता, जिसमें श्वेत अश्वेत सभी शामिल थे, ने ट्रम्प के इस कार्य को इसलिए पसंद नहीं किया कि वह अपने राष्ट्रपति की हरेक गतिविधि को पूर्व राष्ट्राध्यक्षों के आईने में ही देखती है और अपनी प्रतिक्रिया भी बिना किसी भय के खुले तौर पर व्यक्त करती है।
दूसरा कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले दिनों लेह से कोई पैंतीस किलो मीटर दूर नीमू नामक जगह की बहु-प्रचारित यात्रा है। प्रधानमंत्री की पोशाक, सैनिकों (राष्ट्र भी) के समक्ष उनके समूचे उद्बोधन की मुद्राएँ, गलवान घाटी में हुई झड़प में घायल सैनिकों से उनकी कुशल-क्षेम का पता करने कथित तौर पर एक कॉफ्रेंस हाल को परिवर्तित करके बनाए गए (कन्वर्टीबल) अस्पताल की उनकी मुलाकात आदि को लेकर जो चित्र और टिप्पणियाँ प्रचारित हो रही हैं वे उनकी उस ‘विनम्र किंतु दृढ़’ छवि को खंडित करती हैं जो कोराना संकट के दौरान राष्ट्रीय संबोधनों में अब तक प्रकट होती रही है। समान परिस्थितियों को लेकर नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की जो प्रतिमाएँ जनता के हृदयों में स्थापित हैं, वे मोदी की लेह यात्रा से काफी भिन्न हैं।
विश्वभर की जनता के साथ ही हम भी जिस तरह से अपने यहाँ अमरीकी राष्ट्रपति अथवा अन्य नेताओं को उनके बदलते हुए अवतारों में देख रहे हैं, वैसे ही हमारे प्रधानमंत्री को भी दुनिया भर में देखा और परखा जा रहा होगा। अमेरिका में तो खैर चार महीने बाद ही चुनाव हैं पर हमारे यहाँ अभी उसकी दूर-दूर तक आहट भी नहीं है। ट्रम्प के बारे में तो सबको ऐसा ही पता है कि वे किसी की सलाह की परवाह नहीं करते पर हमारे प्रधानमंत्री को तो कोई बताता ही होगा कि उनके कट्टर समर्थकों के अलावा भी जो देश में जनता है वह उनकी छवि को लेकर इस समय क्या सोच रही है !
चण्डी प्रसाद भट्ट
खगोलीकरण और जलवायु परिवर्तन का दौर हिमालयी समाजों तथा प्रकृति दोनों के लिए चुनौती और चेतावनी भरा है,ये खतरे हमारे जीवन संसाधनों उत्पादन और जीवन पद्वति के लिए घंटी बजा चुके हैं। ऐसे में इन सबके प्रभाव को सरकारों और समाजों द्वारा नियंत्रित किया जाना अत्यधिक कठिन है। हिमालय के संसाधनों पर हो रहे आक्रमण से प्रकृति ने भी अपना गुस्सा प्रकट करना शुरू किया है। इन्हीं गंभीर मुद्दों और धरती की सुंदरता को बरकरार रखने के संदर्भ में हिमालय संरक्षण के पहलुओं पर केंद्रित आलेख।
श्रृष्टि के असंख्य ग्रहों-उपग्रहों में हमारी पृथ्वी सबसे विशिष्ट है। हमारी यह पृथ्वी, जिसे अपरिमित संसाधनों से सम्पन्न मानी जाती है, और जो सम्पूर्ण प्राणी जगत का शाश्वत जीवन स्थल है,आज इस स्थिति में पहुँच गई है कि यह सवाल उठने लग गये हैं कि इस पर प्राणी मात्र का जीवन यापन असंभव तो नहीं होने जा रहा है? और ऐसे अनेक सवाल जब उठते हैं तो उनके उत्तर तलाशने का क्रम शुरू हो जाता है। जब जीवन यापन असहज और दुरूह हो जाता है तो उसे सहज और सरल बनाने की कोशिश होती है।
हम देख रहे कि आज हमारे देश और दुनिया के अधिकांश भाग पर्यावरणीय बिगाड़ से त्रस्त है। एक ओर हमारी आवश्यकता बढ़ रही है, दूसरी ओर उससे भी अधिक तेजी से संसाधनों का हास हो रहा हैं। पानी के परम्परागत स्रोत सूख रहे हैं। वायुमण्डल दूषित हो रहा है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है। भूक्षरण, भूस्खलन, भूमि-कटाव, नदियों द्वारा धारा परिवर्तन की घटनाएँ बढ़ती जा रही है। बाढ़ से प्रतिवर्ष लाखों लोगों की तबाही हो रही है और विकास योजनाएँ नष्ट हो रही हैं। इससे हमारी आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि के भविष्य पर प्रष्न चिन्ह लग रहा है।
इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव पहाड़ों पर पड़ रहा है। पर्वतों में भी हिमालय पर्वत सर्वाधिक प्रभावित है। आज पर्यावरणीय बिगाड़ का दूसरा नाम हिमालय है। यद्यपि हिमालय के साथ हमारा बहुत पुराना सम्बंध है। इतना पुराना सम्बंध है कि जब गीता लिखी गई होगी उससे भी पुराना। इसी प्रकार महाकवि कालिदास ने सदियों पहले हिमालय का वर्णन करते हुए हिमालय को पृथ्वी का मेरूदण्ड (आधार) कहा है। हिमालय को भारतीय संस्कृति और मनीषा के केन्द्र में रखा गया है। इस प्रकार हिमालय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र भी है, वहीं एशिया की जलवायु का निर्माता है। हिमालय एक बहुक्षेत्रीय, बहुराष्ट्रीय और बहुसांस्कृतिक पर्वत है और इसकी जैव विविधता भी विश्व के लिए वरदान स्वरूप है।
हिमालय हमारी संस्कृति ही नहीं, संसाधनों का भी आधार है। इसकी मिट्टी, जल तथा वनस्पतियाँ, जंगल आदि सिर्फ यहाँ के मानव जीवन तथा पर्यावरण को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि भारतीय उप महाद्वीप के जीवन तथा आर्थिकी इससे अभिन्न है। यह मानव समाज द्वारा निर्मित कार्बन को धारण करने वाले जंगलों को लिए हुए है।
हिमालय से तीन नदी प्रणालियाँ निकलती हैं । ये है-गंगा,ब्रहमपुत्र और सिन्धु। ये तीनों जल प्रणालियाँ देश की 43 प्रतिशत जमीन में फैली है और इन नदियों में देश के सकल जल का 63 प्रतिशत बहता है। ये नदियाँ भारत की भाग्य विधाता है। पेयजल, सिंचाई जल विद्युत तथा औद्योगिक इस्तेमाल के साथ यह पानी बोतलों में बंद करके बेचा जाता है।
इन तीनों नदियों में गंगा का महत्व किसी से छिपा नहीं है,यह आस्था से जितनी जुड़ी है उससे अधिक हमारे अस्तित्व से जुड़ी है। इसका बेसिन भारत के 26 प्रतिषत क्षेत्र में फैला है और देश के कुल जल का 25 प्रतिशत गंगा और उसकी सहायक नदियों में बहता है। भारत के 9 राज्यों में गंगा के बेसिन का फैलाव है और देश की 41 प्रतिषत आबादी इसके बेसिन में निवास करती है। साथ ही नेपाल में जन्म लेने वाली नदियाँ भी गंगा में समाहित होती है।
हिमालय का एक और स्वरूप है। भूगर्भविदों के अनुसार-हिमालय एक अत्यन्त युवा पहाड़ है। बैचेन और अति संवेदनशील है यह नाजुक और गुस्सैल स्वभाव का है। वह अपनी स्थिरता ढूंढ रहा है। उसके विविध भ्रंश और दरारें ऋतु क्रियाएँ उसके स्वभाव को बताती है, भूकम्पों ने समय-समय पर इसे झंझोड़ा है। जिससे हिमस्खलन, भूस्खलन, ग्लेशियर तालों का टूटना, नदियों का अवरूद्ध होना तथा बाढ़ों का प्रकोप जैसा प्राकृतिक दबाव है। इस प्रकार के प्राकृतिक दबाव को देखते हैं तो बीसवीं शताब्दी में 1950 का अरूणाचल के 8.6 रियेक्टर के भूकम्प से नदियों में अस्थाई झीलों के टूटने से भयंकर तबाही हुई, कई इलाकों का भूगोल ही बदल गया, नदियों में धारा परिवर्तन हुआ। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में 1975 के भूकम्प ने भी काफी तबाही मचाई, इधर 1991 का उत्तरकाशी तथा 1999 का चमोली तथा कश्मीर के भूकम्प से जानमाल की भारी हानि हुई। लेकिन उस काल में आपदाओं के अन्तराल में काफी लम्बा समय रहता था।
इधर पिछले चार-पाँच दशकों से इन नाजुक क्षेत्रों में कई प्रकार के दबाव बढ़े। पहले से आज हिमालय में मनुष्य की घुसपैठ ज्यादा है, खगोलीकरण ने इस प्रक्रिया को बढ़ा दिया है, जलवायु परिवर्तन एक और आयाम है। इसके प्रभाव को सरकारों और समाजों द्वारा नियंत्रित किया जाना अत्यधिक कठिन है,ऊपर से वनों का विनाश ,नदियों के आसपास महाविकास, बाजार का दबाव, शिथिल कार्यान्वयन, अतिभ्रमण तथा राजनैतिक इच्छाशिक्त का अभाव जैसे कारकों ने हिमालयी नदियों में आपदाओं को कई गुना बढ़ा दिया और अन्तराल को बहुत ही कम कर दिया है।
आज पूर्व सूचना तंत्र स्थानीय, हिमालयी, एशियाई तथा वैष्विक स्तर पर होना चाहिए। ताकि कम से कम मानव जीवन को तो आपदाओं से बचाया जा सके, साथ ही बारिश की मारक क्षमता को कम करने के कार्य बड़े पैमाने पर होने चाहिए। हिमनदों, हिम तालाबों, बुग्यालों एवं जंगलों की संवेदनशीलता की व्यापक जानकारी होनी चाहिए। आपदाओं का न्यूनीकरण करने का भरसक प्रयास होना चाहिए। हिमालय के संदर्भ में भारत, चीन, नेपाल और भूटान का पारिस्थितिक संयुक्त मोर्चा बनना चाहिए, बाढ़ों से सुरक्षा के लिए तो यह संयुक्त मोर्चा सर्वाधिक जरूरी है। इससे संयुक्त नीति और संयुक्त सुरक्षा की बात विकसित हो सकेगी।
आपदाओं के प्राकृतिक के साथ मानव निर्मित कारणों की गंभीर पड़ताल होनी चाहिए। वैज्ञानिक बताते हैं कि जहाँ 1894 की अलकनंदा बाढ़ पूरी तरह प्राकृतिक थी, 1970 की अलकनंदा बाढ़ को विध्वंसक बनाने में जंगलों के कटान का योगदान रहा, जिसके बाद हमने वनों को बचाने एवं बढ़ाने के लिए चिपको आन्दोलन आरंभ किया। वहीं 2013 में जल विद्युत परियोजनाओं सड़कों का अवैज्ञानिक निर्माण,विस्फोटकों के अनियंत्रित इस्तेमाल तथा नदी क्षेत्र में निर्माण कार्यों का भी योगदान रहा, साथ ही हिमनदों-हिमतालाबों एवं बुग्यालों में छेड़छाड़। आपदा के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव के साथ जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए। ”किया किसने और भुगता किसने“ इसे भी सामने लाना जरूरी है। यदि बाँधों का निर्माण, अपार विस्फोटकों के इस्तेमाल, अवैज्ञानिक तरीके से सड़कों का निर्माण या सड़कों का गैर जरूरी चैड़ीकरण और नदी के प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ तथा अनियंत्रित शहरीकरण जैसे पक्षों की गहरी तथा सतर्क व्याख्या नहीं होगी तो हम कारण भी नहीं जान सकेंगे, निवारण तो दूर की बात है। इसी तरह हिमालय में किसी भी तरह की मानवीय छेड़छाड़ की पहले ही पड़ताल होनी चाहिए। पहले से हुए अध्ययनों एवं नियमों का अनुपालन न करने तथा मानकों की जिम्मेदारी भी सुनिष्चित की जानी चाहिए। समय रहते इन सब बातों को अमल में नहीं लाया गया तो इससे भी भयंकर त्रासदी को नकारा नहीं जा सकता है, फिर जिम्मेदारी को समझने के बजाय पहाड़ और नदियों को कोसेंगे।
खगोलीकरण और जलवायु परिवर्तन का दौर हिमालयी समाजों तथा प्रकृति दोनों के लिए चुनौती और चेतावनी भरा है, ये खतरे हमारे जीवन संसाधनों उत्पादन और जीवन पद्वति के लिए घंटी बजा चुके हैं। जून के प्रथम सप्ताह में देश और दुनिया में पर्यावरण दिवस मनाने की धूम मचेगी। इस दिवस पर हमें स्वयं में यह चेतना विकसित करनी होगी कि हम पृथ्वी के मूल स्वरुप को उसके विभिन्न घटकों तथा उसके पर्यावरण को संरक्षित रखने में सक्रिय रहे। हमें संकल्प लेना होगा कि धरती माता के जल, जंगल, जमीन जैसे घटकों का संरक्षण और संवर्द्धन करेंगे तथा इनका उपभोग अपनी जीवन की रक्षा एवं समृद्धि के लिए ही करेंगे। इस सुन्दर वसुन्धरा को स्वच्छ और सुन्दर बनाये रखने के लिए हमेशा सचेत एवं सक्रिय रहेंगे। (sapress)
- कुमार सिद्धार्थ
प्लास्टिक कचरा एक विकट समस्या बन चुका है। प्लास्टिक और पॉलीथिन के बढ़ते उपयोग को रोकने के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने कानून भी बनाया है। प्लास्टिक के निपटान की कोई समुचित व्यवस्था न होने के कारण संपूर्ण धरती प्लास्टिकमय हो रही है। मुश्किल यह भी है कि बाजार के फैलाव के साथ वस्तुओं की बिक्री में थैलियों और पैकिंग आदि में पॉलिथीन का जितना इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसका व्यावहारिक विकल्प निकाले बगैर इसे पूरी तरह रोक पाना शायद संभव नहीं होगा।
प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की घोषणा जैसी पहल में वैसे तो कोई नई बात नहीं है, लेकिन अब तक जहाँ प्लास्टिक को पर्यावरण के लिहाज से कई स्तरों पर खतरनाक बताकर इस पर रोक लगाने की पैरवी की जा रही थीं, वहीं राज्य सरकार ने प्लास्टिक पर पाबंदी के लिए पर्यावरण के मुद्दों के अलावा गाय एवं अन्य पशुओं के लिए खतरे को मुख्य वजह बताई है। सरकार के मुताबिक नए कानून में केवल प्लास्टिक की थैलियों और पन्नियों पर पाबंदी होगी, इससे बनने वाले अन्य सामानों पर कोई रोक नहीं होगी। आज बाजार में उपलब्ध घरेलू उपयोग की ज्यादातर वस्तुएँ प्लास्टिक से बनी होती हैं और सस्ती होने की वजह से लोग प्लास्टिक से बनी चीजों का इस्तेमाल अधिक करते हैं। इसी वजह से शायद सरकार ने फिलहाल प्रतिबंध को प्लास्टिक की थैलियों तक ही सीमित रखा है। वैसे भी लंबे समय से केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनेक समितियों के माध्यम से प्लास्टिक के अव्यवस्थित कचरे और प्लास्टिक के कचरे का पुनर्चक्रण न कर पाने की समस्याओं पर कई वर्षों तक विचार-विमर्श किया।
देखना है कि प्रदेश में इस नये कानून का किस तरह प्रभावी क्रियान्वयन होगा। गौरतलब है कि अनेक राज्य सरकारों ने भी प्लास्टिक से उत्पन्न पर्यावरण खतरों को महसूस किया है। इसके घातक प्रभावों के बारे में समय-समय पर चिंता जताई है। कई राज्य सरकारों ने प्लास्टिक प्रबंधन को नियंत्रित करने के लिए अपने स्तर पर नियम-कानून कायदे भी लागू किये। लेकिन दशकों से इससे निपटने और इस पर पाबंदी लगाने के दावों के बावजूद आज भी पॉलिथीन का इस्तेमाल रोका नहीं जा सका है। आंकडे दर्शाते हैं कि देश में 15,342 टन प्लास्टिक कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होता है, जिसमें केवल 9,205 टन प्लास्टिक कचरे को पुर्नप्रयोग हो पाता है। यानी देश में प्रतिदिन लगभग 6,000 टन प्लास्टिक बिना पुनर्चक्रण के अभाव में सड़ता रहता है। वर्षभर में यह आंकड़ा 22 लाख टन से भी अधिक पहुँच जाता है। सही मायने में यदि इस समस्या पर चिंतन करें तो यह अपने आप में एक भयानक समस्या है।
शोध अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली से हर साल कोई ढाई लाख टन प्लास्टिक का कूड़ा निकलता है, जो सीवर, टॉयलेट, मेडिकल वेस्ट के तौर पर, डायपर या अन्य रूपों में पानी में बहा दिया जाता है। गाय या अन्य पशुओं के लिए यह कचरा घातक है, वहीं दूसरी ओर छोटी मछलियाँ भी इस प्लास्टिक कूडे को खाना समझ कर खा लेती हैं। इन छोटी-बड़ी मछलियों को इंसान अपना भोजन बना लेते हैं। मछलियों के शरीर में पाया जाने वाला प्लास्टिक कई तरह से मछली खाने वालों के लिए जहरीला साबित हो सकता है। प्लास्टिक में तमाम तरह के रंग और कैमिकल जैसे बिसफेनौल ए, जैविक प्रदूषक और अन्य जहरीले तत्त्व होते हैं, जो मछलियों को भी जहरीला बना सकते हैं। कहने का आशय है कि ये प्लास्टिक का कूड़ा केवल जमीन को ही बर्बाद नहीं कर रहा है, इसे पानी में बहाने पर भी कई खतरे हैं।
देश में स्वच्छता के प्रति जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है। हम सब जानते हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने में प्लास्टिक की थैलियों की क्या भूमिका रही है। आज देश में प्लास्टिक की छोटी-बड़ी, पतली और मोटी हर प्रकार की थैलियां खरीददारी का अंग बन चुकी हैं। विशेष समस्या प्लास्टिक की अत्यन्त पतली और पारदर्शी थैलियों की है, जो रोज के कूड़े-कचरे में इस प्रकार मिल जाती हैं कि सफाई की प्रक्रिया में उनको अलग करना भी मुष्किल हो जाता है। कूड़े में पतला प्लास्टिक कई दिन तक गर्मी के कारण सड़ता रहता है। यह प्लास्टिक की थैलियाँ अपने अंदर के रसायनिक पदार्थों को वायुमंडल में छोड़कर प्रदूषण फैलाती रहती हैं। वैज्ञानिक यह सिद्ध कर चुके हैं कि प्लास्टिक पदार्थों के जलने या गर्मी से सड़ने के कारण होने वाला वायु प्रदूषण सारी धरती के लिए एक खतरा बनता जा रहा है।
सच यह है कि थैलियों के साथ-साथ प्लास्टिक से बने सामानों को तैयार करने में भी कई तरह के खतरनाक रसायनों के घोल का इस्तेमाल होता है, जिसमें रखे गए खाने-पीने के सामान पर इसका सेहत के लिहाज से बुरा असर पड़ता है। इनमें कई ऐसे रसायन होते हैं जिनकी थोड़ी भी मात्रा अगर शरीर में चली जाए तो वह कैंसर की वजह बन सकती है, उससे घातक असर पड़ सकता है।
यह जरूर है कि प्लास्टिक-कूडे़ के निपटान के लिए देश के कई स्थानों पर प्लास्टिक की सड़कें बनाई जा रही हैं। पुनर्चक्रित प्लास्टिक से बनी टाइल्स का प्रयोग करके जगह-जगह पर शौचालयों का निर्माण भी किया जा सकता है, और इससे सजावटी वस्तुएँ बनाने की पहल हो रही है। आन्तरिक सजावट की सह-सामग्री जैसे लैम्प शेड, फ्लोर-कुशन्स, फूल सजावट पात्र के लिए दिल्ली की स्वयंसेवी संस्था ‘कन्जर्व’ दिल्ली में बेकार प्लास्टिक की थैलियों को एकत्रित कर विभिन्न क्रमबध्द प्रक्रियाओं के माध्यम से चादर में बदला जाता है और उनसे बहु-रंगी वस्तुएं बनाई जाती हैं।
मध्यप्रदेश सरकार ने प्लास्टिक की पतली थैलियों के उत्पादन और प्रयोग को लेकर उठाए सख्त कदम से पॉलीथीन के उपयोग पर रोक तो जरूर लग सकेगी। किंतु मुश्किल यह भी होगी कि बाजार के फैलाव के साथ-साथ वस्तुओं की बिक्री में थैलियों और पैकिंग आदि में पॉलिथीन का जितना इस्तेमाल होने लगा है, उसका व्यावहारिक विकल्प निकाले बगैर इसे पूरी तरह रोक पाना शायद संभव नहीं हो सकेगा। लेकिन प्लास्टिक के सही निपटाने की अब तक कोई कारगर पहल करने की जरूरत नहीं समझी गई। (sapress)
-सुरेश भाई
नदियों में लगातार बढ़ती गाद नदियों के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है। पिछले 60 वर्षों में नदियों में निरन्तर घट रही जल राशि के कारण कई नदियां सूख रही है। गंगा नदी की अविरलता में अब तक केवल बांध और बैराजों को सबसे अधिक बाधक माना जाता रहा है। लेकिन गाद का जमना एक ओर आयाम जुड़ गया है। अंधाधुंध वन कटान सड़कों का चैड़ीकरण और बदलते मौसम के कारण लाखों टन मलबा हर रोज नदियों में गिर रहा है।
मई के तीसरे सप्ताह में बिहार सरकार ने इण्डिया इन्टरनेशनल सेंटर, नईदिल्ली में गंगा की अविरलता में बाधक गाद के विषय पर आयोजित सेमिनार में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दे दिया है। अब तक केवल गंगा की अविरलता में बांध और बैराजों को सबसे अधिक बाधक माना जाता रहा है। किसी सरकारी विभाग के स्तर पर बिहार सरकार की यह पहल इसलिये नई है कि उन्होंने अपने हर बैनर में लिखा है कि ’गंगा की अविरलता के बिना निर्मलता नहीं हो सकती है।’ विभिन्न प्रस्तुतिकरण के आधार पर बांधों और बैराजों की उपयोगिता पर प्रश्न खड़ा कर दिया गया है। यह प्रयास उद्गम में भी गंगा की अविरलता पर खतरे के बादल से बचाया जा सकता है। यह स्वीकार किया गया है कि लगातार बढ़ रही गाद के कारण नदियों की गहराई अब आधी से भी कम हो गई है। वैसे पिछले 60 वर्षों में नदियों में निरन्तर घट रही जल राशि के कारण भी कई नदियां सूख रही है या नाले के रूप में परिवर्तित हो गई है।
बक्सर से लेकर फरक्का बैराज तक गंगा में गाद के पहाड़ उगने लग गये हैं, जिस पर मुख्यमंत्री नितीश कुमार का कहना है कि बिहार में तटों पर निवास करने वाले लोग प्रतिवर्ष अपना नया घर तलाशने लग जाते हैं। वैसे नदियों में गाद भरना कोई नई बात नहीं है। बिहार में मिलने वाली गंडक, सोन, घाघरा, कोसी आदि नदियों के उद्गम भी हिमालय से है, जहां सभी नदियों के सिरहाने बाढ़ और भूकम्प के लिहाज से भूगर्भवेत्ताओं ने जोन 4 और 5 में रखे हैं, जो कई वर्षों से आपदाओं का घर बन चुकी है। इसको ध्यान में रखकर के पुराने तकनीकी के आधार पर बनाया गया फरक्का बैराज अब पुनर्विचार का मुद्दा बनता जा रहा है।
40-50 वर्षं पहले हिमालय से बाढ़ के साथ बहने वाली मिट्टी बिहार और उत्तरप्रदेश के किसानों की खेती को उपजाऊ बना देती थी। जिस वर्ष खेतों तक बाढ़ का पानी पहुंचता था उससे अच्छी पैदावार की आस बन जाती थी। अब अकेले बिहार में सन् 2012-16 तक 1053 करोड़ रूपये नदियों के किनारों से गाद हटाने पर ही खर्च हो रहा है। उत्तराखण्ड में भी नदियों पर एकत्रित गाद ने ही सन् 2013 में केदारनाथ आपदा को जन्म दिया है, जिस पर केन्द्र सरकार को 14 हजार करोड़ रूपये खर्च करने पड़ रहे हैं। इस तरह बाढ़ को लेकर बड़ा बजट हर वर्ष खर्च हो रहा है किन्तु गाद को कभी बाढ़ के समाधान से जोड़कर नहीं सोचा जाता है। फरक्का बैराज के डिजाइन में भी गाद के समाधान की अनदेखी हुई है। जिसके फलस्वरूप दिनों-दिन स्थिति इतनी बुरी हो रही है कि गंगा अपने वास्तविक घाटों से 2 किमी दूर चली गई है।
सन् 1975 में कोलकाता बंदरगाह को बचाने के लिये फरक्का बैराज बनाया गया था। अब इसमें फरक्का से पटना के बीच लगभग 400 किमी में इतना गाद भर गया है कि बैराज के फाटक तो बंद हो ही गये, साथ ही इसमें आबादी वाले इलाके तबाह हो रहे हैं। इसका कारण है कि बैराज के निर्माण के दौरान हिमालयी नदियों से आ रहे गाद का मूल्यांकन नहीं हुआ। बैराज के निचले हिस्से में भी पश्चिम बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद के इलाकों में बाढ़ का कहर इतना बढ़ गया है कि प्रतिवर्ष कई लोग अपने घर और खेती-किसानी को गंवा कर सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। फरक्का बैराज बनाने से पहले कोलकाता बंदरगाह पर 6 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद थी, जो अब 21 मिलियन क्यूबिक मीटर हो गई है। सन् 1960 तक 2 मिलियन टन गाद प्रतिवर्ष बंगलादेश जाती थी, अब यह इसके आधे के बराबर भी नहीं पहुंच पा रही है। अत; इस खुली बहस के साथ हिमालय की नदियों में रुक रही गाद के दुष्परिणामों को भी उजागर करना चाहिये। इसके बावजूद भी सच्चाई यह है कि इलाहाबाद से हल्दिया तक प्रस्तावित जल मार्ग के लिये 16 बैराज बनाने की महत्वाकांक्षी योजना है। यदि यह जमीन पर उतरी तो गंगा की अविरलता कहीं भी शेष नहीं बचेगी।
गंगा के उद्गम स्थल उत्तराखण्ड की ओर देखें तो यहां की सभी नदियों में हर वर्ष बाढ़ के कारण अपार जन धन की हानि हो रही है। यहां अंधाधुंध वन कटान सड़कों का चैड़ीकरण और बदलते मौसम के कारण लाखों टन मलबा हर रोज नदियों में गिर रहा है, जो सीधे मैदानी क्षेत्रों में बहकर जा रहा है। भागीरथी पर टिहरी, मनेरी और अलकनंदा पर श्रीनगर, विष्णुप्रयाग जैसे बड़े बांधों के अलावा यमुना पर बने बैराजों और झीलों में असीमित गाद जमा हो रही है। जिससे निपटने के लिये कोई योजना नहीं है। सन् 2008 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ गांगोत्री और उत्तरकाशी के बीच गंगा के अविरल बहाव के नाम पर ही 800 करोड़ खर्च होने के बावजूद भी लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना (600 मेवा) को बंद दिया गया था, और इसके 100 कि.मी. क्षेत्र को इको सेंसेटिव झोन बनाकर यहां के प्रभावित गांव के साथ इको फ्रेंडली विकास का मॉडल प्रस्तुत किया गया है।
विशेषज्ञों की राय है कि उत्तरप्रदेश में कन्नौज व वाराणसी के बीच गंगा में गंदगी के ढेरों से निपटने के लिये घाटों का निर्माण जरूरी है। लेकिन इससे भी कहीं अधिक आवश्यकता है कि गंगा की धारा को अविरल बहाव का मार्ग मिलना चाहिये। अतः ऐसी सभी बाधाओं से मुक्त किया जाए जहां अविरल धारा को रोका गया है। हिमालय से लेकर केरल तक नदियों में बांध और बैराजों की संख्या लगभग 130 है।
नदियों का मूल धर्म मीठे जल के साथ गाद को समुद्र तक पहुंचाना है। इसके कारण समुद्री जल का खारापन नियंत्रित होता है। समुद्र के किनारों पर उपजाऊ डेल्टाओं को बनाती है और भूजल और मिट्टी के निर्माण में योगदान देती है। इसलिये संवेदनशील नये हिमालय की स्थिरता और यहां से आ रही नदियों की अविरलता सुनिश्चित करना राज्यों का काम है। गंगा जल को विशिष्ट गुण देने वाला वैक्टीरियोफॉज भी कमजोर पड़ गया है। बताया जा रहा है टिहरी में जल जमाव के कारण केवल 10 प्रतिशत वैक्टीरियोफॉज ही समुद्र तक पहुंच रहा है। अविरलता में आई इन बाधाओं को दूर करने के लिये राज्यों को बिहार की तरह अपने हकों की आवाज उठानी पड़ेगी। (sapress)
- बाबा मायाराम
आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत खेती किसानी और जंगल का खानपान का अत्यधिक महत्व है। जंगलों का लगातार कटते जाने का सीधा असर लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है। आदिवासियों ने अब जंगल और खेती बचाने के लिए शुरूआत की है। यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परंपरा बची रहे, पोषण संबंधी ज्ञान बचा रहे, परंपरागत चिकित्सा पद्धति बची रहे इन्हीं पहलुओं पर केंद्रित आलेख।
ओडिशा का छोटा कस्बा था-मुनिगुड़ा। स्कूली बच्चों की एक टोली की भीड़ जमा है। यहां एक खाद्य प्रदर्शनी लगी है। कोई बैल की आकृति का भूरा कांदा, गुलाबी और लाल बेर, गहनों की तरह चमकते मक्के के भुट्टे, काली और सुनहरी धान की बालियां,फल्लियां और छोटे दाने का सांवा, कुटकी और मोतियों की तरह की ज्वार।
इस खाद्य प्रदर्शनी में खेतों में होने वाली फसलें, जंगल से सीधे प्राप्त होने वाली गैर खेती सामग्री, फल, फूल, पत्तियां, मशरूम और कई तरह के कंद-मूल शामिल थे। यह एक माध्यम है जिससे नई पीढ़ी में यह परंपरागत ज्ञान हस्तांतरित होता है।
नियमगिरी की यह खूबसूरत पर्वत श्रृंखला बहुत मशहूर है। पिछले कुछ समय पहले खनन के खिलाफ इसी इलाके में आदिवासियों ने जोरदार लड़ाई लड़ी और जीती थी। उस समय यहां के आदिवासियों की काफी चर्चा हुई थी।
यहां का घना जंगल आदमी समेत कई जीव-जंतुओं को पालता पोसता है। ताजी हवा, कंद-मूल, फल, घनी छाया, ईंधन, चारा, और इमारती लकड़ी और जड़ी-बूटियों का खजाना है।
रायगड़ा जिले में लिविंग फार्म एक गैर सरकारी संस्था है जो बरसों से आदिवासियों के खाद्य और पोषण पर लम्बे समय से काम कर रही है। यह संस्था में हर छह माह में उनके भोजन की विविधता का आंकलन करती है।
लिविंग फार्म के विचित्र विश्वाल कहते हैं कि सरकारी योजनाएं बच्चों को पोषण सुरक्षा नहीं दे पाती हैं, वह पूरक हो सकती हैं। हमारे यहां कई प्रकार की दालें, मडिया, ज्वार, बाजरा, सांवा, फल, सब्जियां और मषरूम की कई प्रजातियां हैं। हमें इन्हें बचाना चाहिए।
विषमकटक के सहाड़ा गांव का कृष्णा कहता है कि जंगल हमारा माई-बाप है। वह हमें जीवन देता है। उससे हमारे पर्व-परभणी जुड़े हुए हैं। धरती माता को हम पूजते हैं। कंद, मूल, फल, मशरूम, बांस करील और कई प्रकार की हरी भाजी हमें जंगल से मिलती है।
आदिवासियों की जीवनशैली अमौद्रिक (कैशलेस) होती है। वे प्रकृति के ज्यादा करीब है। प्रकृति से उनका रिष्ता मां-बेटे का है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें जरूरत है। वे पेड़ पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। उनकी जिंदगी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। ये फलदार पेड़ व कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं।
लिविंग फार्म के एक अध्ययन के अनुसार भूख के दिनों में आदिवासियों के लिए यह भोजन महत्वपूर्ण हो जाता है। उन्हें 121 प्रकार की चीजें जंगल से मिलती हैं, जिनमें कंद-मूल, मशरूम, हरी भाजियां, फल, फूल और शहद आदि शामिल हैं। इनमें से कुछ खाद्य सामग्री साल भर मिलती है और कुछ मौसमी होती है।
लिविंग फार्म के संस्थापक देवजीत सारंगी बताते हैं कि हम परंपरागत खानपान को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। यहां 60 प्रकार के फल (आम, कटहल, तेंदू, जंगली काजू, खजूर, जामुन), 40 प्रकार की सब्जियां (जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी), 10 प्रकार के तेल बीज, 30 प्रकार के जंगली मशरूम और 20 प्रकार की मछलियां मिलती हैं। कई तरह के मशरूम मिलते हैं। पीता, काठा. भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली. साठ, सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं।
यह भोजन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है। खासतौस से जब लोगों के पास रोजगार नहीं होता। हाथ में पैसा नहीं होता। खाद्य पदार्थों तक उनकी पहुंच नहीं होती। यह प्रकृति प्रदत्त भोजन सबको मुफ्त में और सहज ही उपलब्ध हो जाता है। लेकिन पिछले कुछ समय से इस इलाके में कृत्रिम वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है।
आदि कहता है कि मुझे किसी के सामने हाथ न पसारना पड़े, यह मेरे मां-बाप सिखा गए हैं। इसलिए मैंने 70 प्रकार की फसलें अपने खेत में लगाई हैं। मेरी 10 महीने की जरूरतें खेत से पूरी हो जाती हैं, दो माह का गुजारा जंगल से हो जाता है। यानी एक कटोरा खेत से, एक कटोरा जंगल से हमारा काम चल जाता है। सुबह हमारी भोजन की थाली खेत से आती है, शाम को जंगल से आती है।
लेकिन यहां आदिवासियों ने जंगल और खेती बचाने के लिए एक अनौपचारिक शुरूआत कर दी है। सुखोमती षिकोका कहती हैं कि हमने इस साल मुनिगुड़ा विकासखंड के 35 गांवों में जंगल बचाने और उसे फिर से जिंदा करने का काम किया है। इसमें विषमकटक और मुनिगुड़ा विकासखंड के कई गांवों के लोग जुड़ रहे हैं।
लिविंग फार्म संस्था के कार्यकर्ता प्रदीप पात्रा कहते हैं कि जंगल कम होने का सीधा असर लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष असर फल, फूल और पत्तों के अभाव में रूप में दिखाई देता है।
अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु बदलाव से फसलों पर और मवेशियों के लिए चारे-पानी के अभाव के रूप में दिखाई देता है। पर्यावरणीय असर दिखाई देते हैं। मिट्टी का कटाव होता है। खाद्य संप्रभुता तभी हो सकती है जब लोगों का अपने भोजन पर नियंत्रण हो।
आदिवासियों की भोजन सुरक्षा में जंगल और खेत-खलिहान से प्राप्त खाद्य पदार्थों को ही गैर खेती भोजन कहा जा सकता है। इनमें भी कई तरह के पौष्टिक तत्व हैं। यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह के खानपान के बारे में स्कूली पाठ्यक्रम में भी जगह होनी चाहिए। यह मांग उठाई जा रही है।
समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परंपरा बची रहे, पोषण संबंधी ज्ञान बचा रहे, परंपरागत चिकित्सा पद्धति बची रहे। पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण हो, यह आज की जरूरत है। इस दृष्टि से जंगल, आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत खेती किसानी और जंगल का खानपान बहुत महत्व है। (sapress)
घर से मांगकर 100 रुपये लाया है, 70 का पेट्रोल डलवाया। कुल 30 रुपये जेब में पड़े हैं। सुबह निकलते वक्त मां से मांगे थे। बाप ने सुनकर ताना भी दिया, इस उमर में भी तू इस लायक नहीं हुआ कि गाड़ी में पेट्रोल भरा सके। फिर हमेशा की तरह मां ने पिता से नजर बचाकर, बेटे को 100 रुपए दिए।
(मां साथ में पूछती भी जा रही है, देख तू झूठ तो नहीं बोल रहा न कि तेरी 3 महीने से सैलरी नहीं हुई है। इतना बड़ा पेपर है, सैलरी तो देते ही होंगे। आखिर में भरोसा करते हुए कहती है। देख जब सैलरी हो तो याद से दे देना। मेरे पास रखा हुआ अब सिर्फ 400 रुपए बचा है।)
शर्मिंदगी के हालत में बाहर वाले रूम में बैठे पिता से नजरें चुराते हुये, पत्रकार साहब ने बाईक उठाई। 10 मिनट किक मारने के बाद गाड़ी चालू हुई। शायद कई महीने से सर्विसिंग नहीं हुई थी।
आज उसे संपादक जी ने असाइनमेंट दिया है।
जबलपुर में कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित कन्टेनमेंट जोन में जाना है। वहां के गरीबों और मजदूरों की दयनीय स्थिति पर ग्राउंड रिपोर्ट बनानी है।
वो गया। कोरोना का खतरा मोला लेते हुए गया। बहुत मार्मिक रिपोर्ट बनाई। उसका असर भी व्यापक हुआ।
अगले दिन कलेक्टर साहब खुद पहुंचे। रेडक्रेॉस सोसायटी के माध्यम से वहां के गरीब परिवारों को राशन पहुंचाया। नगर निगम आयुक्त ने क्षेत्र के अति गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था दुरुस्त करने के आदेश दिए।
और हां,
विधायक जी भी पहुंचे और सबको एक हफ्ते की सब्जी वगैरह मुहैया कराई। साथ ही उन्होंने अपने सहयोगी का नम्बर वहां दिवार पर लिखवाया, की किसी को कोई भी परेशानी हो तो, उन्हें कॉल करें।
गर्व महसूस करते हुए, वो पत्रकार घर लौटा। खुश था। गर्व होना भी चाहिये, सब कुछ उसकी रिपोर्ट के बाद हुआ। यह अलग बात थी कि उसका नाम कहीं नहीं था।
लेकिन वो खुश था। इस खुशी की उसे आदत हो गई थी।
बस इस खुशी के बीच एक चिंता उसे सता रही थी। कल की स्टोरी कैसे होगी।
जेब में 15 रुपये बचे हैं। गाड़ी में पेट्रोल लगभग खत्म है। मां से किस मुंह से पैसा मांगे। संपादक ने सैलरी के लिए साफ मना कर दिया है। किसी से मांग नहीं सकता, सब क्या सोचेंगे।
इतना बड़ा पत्रकार है, कलेक्टर एसपी विधायक से बात करता है। और पास में 100 रुपये नहीं, बड़ा पत्रकार बना फिरता..छी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गलवान घाटी को लेकर चल रहे भारत-चीन तनाव पर दो संवाद अभी-अभी ऐसे हुए हैं, जिन पर विदेश नीति विशेषज्ञों का ध्यान जाना जरुरी है। एक तो अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियों और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के बीच और दूसरा चीनी विदेश मंत्री वांग यी और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बीच! कुरैशी मेरे पुराने परिचित हैं। कई सेमिनारों में हमारे भाषण साथ-साथ हुए हैं।
सबसे पहले उनके स्वास्थ्य-सुधार के लिए उन्हें शुभकामना देता हूं, क्योंकि जिस दिन उन्होंने चीनी नेता से बात की, उन्हें कोरोना हो गया। यह कितना मजेदार तथ्य है कि अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों का रवैया एक-जैसा है। दोनों के विदेश मंत्रियों के बयान एक-जैसे हैं। भारत-चीन संबंधों पर दुनिया के लगभग 200 देश अपने मुंह पर पट्टी बांधे हुए हैं या शांति की फुसफुसाहट कर रहे हैं, सिर्फ अमेरिका और पाकिस्तान ही ऐसे दो देश हैं, जो दुश्मनी के डमरु बजा रहे हैं। अमेरिका भारत से कह रहा है कि चीन विस्तारवादी है। झगड़ेबाज है। कब्जाबाज है। हिंसक है। उसके सामने डटे रहो। हम अपनी फौजें यूरोप से हटा रहे हैं। (जरुरत पड़ी तो उन्हें आपकी सेवा में भी पठा देंगे।) उधर पाकिस्तान तालियां बजा रहा है और थालियां पीट रहा है। वह चीन को बधाई दे रहा है कि उसने फौजी विस्तारवाद को पीछे धकेल दिया। चीन हर हाल में पाकिस्तान का दोस्त रहा है और पाकिस्तान अब भी हर मुद्दे पर चीन के साथ है। वह ‘एक चीन नीति’ को मानता है। वह हांगकांग, ताइवान, तिब्बत और सिंक्यांग के सवाल पर भी चीन के साथ है।
क्या कश्मीर पर चीन पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है ? पाकिस्तान को चीन के आगे इतना ज्यादा पसरने की जरुरत क्या है ? पाकिस्तान के समर्थन से चीन को क्या फायदा है ? क्या चीन की खातिर पाकिस्तान, भारत के खिलाफ युद्ध का दूसरा मोर्चा खोलना चाहेगा ? वह क्यों घर बैठे मुसीबत मोल लेना चाहेगा ? कुरैशी को क्या पता नहीं कि सिंक्यांग में मुसलमानों की कितनी दुर्दशा है ? 10 लाख उइगर चीनी-शिविरों में कैद हैं। पाकिस्तान यह अच्छी तरह समझ ले कि उसे अपनी लड़ाई खुद लडऩी पड़ेगी।
चीन सिर्फ जाबानी जमा-खर्च करता रहेगा। इसी तरह भारत को भी समझ लेना चाहिए कि अमेरिका इसलिए भारत की पीठ ठोक रहा है कि आजकल चीन से उसकी ठनी हुई है। भारत और पाकिस्तान-जैसे देशों के नीति-निर्माताओं को यह बताने की जरुरत नहीं है कि ये महाशक्तियां अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए ही आपकी पीठ ठोकती हैं। इनके दम पर हद से ज्यादा उचकना ठीक नहीं है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से हर 4 या 5 साल में तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के सहारे है। यह संस्था हर 4-5 बरस में राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर बड़ी रिपोर्ट जारी करती आई है।
जनवरी, 2019 में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर सरकार की अपनी सांख्यिकीय संस्था ने राज्यवार रोजगार पर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए जो भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी की चिंताजनक तस्वीर दिखा रहे थे। सरकार ने इस रिपोर्ट को नकार दिया। शीर्ष नीति-निर्माता संस्था नीति आयोग ने घोषणा की कि सर्वेक्षण से मिले आंकड़े शायद सही तरह जमा नहीं किए गए इसलिए सरकार को वे विश्वसनीय नहीं लगते। उनको खारिज किया जाता है। आज की तारीख में जब कोविड दावानल की तरह बढ़ रहा है, हमारी सरकार के पास कारगर नीति बनाने के वास्ते रोजगार, जन स्वास्थ्य, शहरी पलायन या गांव-शहर में अलग-अलग रहने वाले परिवारों की आर्थिक स्थिति की बाबत ताजा, व्यवस्थित, राज्यवार डेटा उपलब्ध नहीं है। 2019 में संभवत: सर पर खड़े चुनावों के मद्देनजर भारत में पहली बार हुए डेटा के राजनीतिकरण ने जो गलतियां कीं, उनकी शक्ल अब धीरे-धीरे उभर रही है।
पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से हर 4 या 5 साल में तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) के आंकड़ों के सहारे है। यह संस्था हर 4-5 बरस में राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर बड़ी रिपोर्ट जारी करती आई है। अब तक ऐसे चार बड़े राज्यवार सर्वेक्षण आ चुके हैं। इनसे उजागर जन स्वास्थ्य, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रजनन और मृत्यु से जुड़ा वैज्ञानिक रूप से जमा डेटा तमाम शोधकर्ता देश और संयुक्त राष्ट्र संघ में बेहतरी की नीति गढऩे के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। चौथे सर्वेक्षण के बाद इसको भी रोक दिया गया। तेजी से बदलते हालात में अंतिम उपलब्ध डेटा (2015-2016) बासी पड़ चुका है। जून की शुरुआत में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया था कि भारत में प्रति दस लाख कोविड मरीजों में मरने वालों की औसत दर समुन्नत देशों- यूरोप, रूस या अमेरिका के बरक्स काफी कम (11 फीसदी) है। अब विश्व संगठन के ताजा डेटा से पता चला है कि जून के अंतिम हफ्ते में दक्षिण एशियाई देशों- नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका में भारत में कोविड से मरने वालों की दर सबसे अधिक हो चुकी है। भारत में इस रोग की बढ़त एक ही पखवाड़े में नेपाल को छोडक़र अन्य सभी देशों से आगे निकल गई है। जब राजधानी दिल्ली और मुंबई भी इस रफ्तार पर अंकुश नहीं लगा पा रहे, तब स्वास्थ्य मंत्रालय ने टेस्टिंग बढ़ाए जाने के बाद मिले आंकड़ों को आधार बना कर मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने (शीर्ष संस्था आईसीएमआर के हवाले से) 23 जून की मीटिंग में जो तस्वीर पेश की, वह बहुत चिंताजनक है।
जब सरकार ने अपने शीर्ष डेटा संकलनकर्ताओं पर सवालिया निशान लगा कर डेटा को सार्वजनिक करने से रोका था, तभी विशेषज्ञों ने आगाह किया था। उनकी राय में सारे का सारा डेटा रद्द करने का मतलब होगा कि आगे से सरकार के नीति-निर्माता महज अपने अनुमान के आधार पर अंधेरे में जुमले फेंकेंगे। जून के आखिरी पखवाड़े में राजधानी के बड़े कोविड अस्पतालों में तिल रखने की जगह नहीं। कोविड के रोगी और परिवार से हर कोई बिदकता है। इसलिए जब घर पर या एम्बुलेंस में अस्पताल से अस्पताल जाते हुए कई संक्रमित मरीज दम तोड़ देते हैं तो परिजनों द्वारा उनकी मौत की वजह कोविड नहीं दर्ज कराई जाए, यह भी नितांत संभव है। उत्तर प्रदेश को केंद्र से अपने यहां मृत्युदर कम रखने तथा ‘आगरा मॉडल’ बनाने का श्रेय दिया जा रहा है। पर ‘द हिंदू’ की शोध टीम के अनुसार, उसने अन्य राज्यों की तुलना में आपराधिक या सांप्रदायिक मामले हों या कोविड संबंधी सूचनाएं, सभी में उत्तर प्रदेश सरकार की जारी की गई रिपोर्टों में कम पारदर्शिता पाई है। मीडिया की किसी भी नकारात्मक रिपोर्ट पर गौर करने के बजाय हर जगह सरकारी प्रतिक्रिया होती है कि वे राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित हैं।
राष्ट्रीय आपदा और भ्रम की इन घडिय़ों में राष्ट्रीय स्वायत्त प्रसारक संस्था प्रसार भारती के बोर्ड ने भी देश की सबसे प्रमुख संवाददाता एजेंसियों में से एक- प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई), से जाने क्यों अचानक रार मोल ले ली है। पीटीआई एक न्यास द्वारा संचालित, सम्मानित और प्रोफेशनल तौर से काम करती रही संस्था है। और ऐसी हर स्वायत्त संस्थाका मूल काम होता है, जनहित में हर क्षेत्र से हर तरह की जानकारी और विजुअल जमा करना और उनको अपने नियमित गाहकों को लगातार 24&7 देना। प्रसार भारती बोर्ड को आपत्ति है कि इस एजेंसी ने जिससे वह नियमित रूप से खबरें खरीदती रही है, भारत में चीनी राजदूत और चीन में भारत के राजदूत के दो विवादास्पद साक्षात्कार एक साथ काहे जारी किए? खासकर जब भारत तथा चीन दोनों देशों के बड़े नेताओं के बयानात के बाद सीमा पर तनाव दिनों-दिन गहरा रहा है? उसका यह भी आक्षेप है कि पीटीआई के बोर्ड में अधिकतर मीडिया के लोग भरे पड़े हैं। सच यह है कि आज की तारीख में पीटीआई के बोर्ड में न्यायमूर्ति लाहोटी, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और विदेश सचिव रह चुके कई वरिष्ठ जानकार लोग भी हैं।
मीडिया अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग कैसे न करे जबकि चीन का रुख लगातार अडिय़ल दिखता है, द्विपक्षीय बातचीत का कोई ठोस नतीजा जनता के आगे नहीं लाया जा रहा और नेतृत्व की तरफ से बिना चीन का नाम लिए हम-हमलावर- की-आंख में-आंख-डाल-कर-वाजिब-जवाब-देना-जानते हैं, किस्म, की घोषणाएं भी कोविड के कारण घर में सिमटी जनता का मनोबल बहुत नहीं बढ़ापा रहीं। संसद का मानसून सत्र भी नहीं हो पा रहा, जिससे सरकार की तरफ से द्विपक्षीय जानकारी सदन के पटल पर आती। ऐसी हालत में यह दु:खद है कि एक स्वायत्त संस्था का बोर्ड खत लिखकर अन्य स्वायत्त संस्था से कहे कि उसे चीन मसले पर उसकी रिपोर्टिंग राष्ट्रीय हित के खिलाफ (डेट्रिमेंटल टु द नेशनल इंटरेस्ट) लगी है? और यह भी कि बोर्ड पीटीआई से खबरें लेना बंद करने जैसा कदम भी उठा सकता है, जिसकी औपचारिक घोषणा जारी होगी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रसार भारती इस रुख पर दोबारा विचार करेगा। मीडिया के साथ किसी पार्टी के रिश्ते भी हमेशा बहुत सुखद नहीं होते, और राज्य से केंद्र तक समाचार पत्रों, चैनलों से सरकारों की ठंडी या गर्म लड़ाइयां भी चलती रहती हैं। लेकिन क्या आपको याद आता है कि कोई बड़ी स्वायत्त मीडिया संस्थाया प्रेस काउंसिल पत्रकारों और पत्रकारीय संगठनों की अभिव्यक्ति की आजादी पर देश द्रोह के हवाले से ऐसे सवाल उठाए? फ्री मीडिया में चाहे जितनी भी खामियां हों लेकिन आज देशवासियों ही नहीं, सरकार को भी विश्वस्त प्रोफेशनल लोगों द्वारा तटस्थ नजरिये से लगातार जमा की जा रही सूचनाओं की उतनी ही जरूरत है जितनी भरोसेमंद डेटा की। विश्वस्त जानकारियों के बल पर ही विपक्ष और देश की उस अंतरात्मा को कोंच कर जगाया जा सकता है जिसे गांधी और फिर जेपी के बाद, कोई जागृत, एकजुट नहीं कर पाया।
पीटीआई और प्रसार भारती दरअसल लोकतंत्र के पेड़ पर बैठे एक शरीर और दो सिर वाले पक्षी की तरह हैं। उनके बीच गलतफहमी हद से बढ़ जाए और एक सर दूसरे सर को ही काटने की सोचने लगे तो उसे यह भी समझ लेना चाहिए कि कहीं यह हत्या आत्महत्या तो नहीं बनजाएगी? बाकी हालात क्या हैं बताने की जरूरत नहीं। (navjivanindia.com)
-मृणाल पाण्डे
आधुनिक भारत में ज्ञान के क्षेत्र में एक बद्धमूल पूर्वाग्रह रहा है कि साहित्य और कलाएं ज्ञान का अंग नहीं हैं
-अशोक वाजपेयी
मुंबई से किसी शोधकर्ता व्यक्ति ने फ़ोन कर बताया कि वे और उनकी एक अन्य साथी मिलकर एक पुस्तक लिखने की तैयारी कर रहे हैं कि भारत में स्वतंत्रता के बाद लेखकों-कलाकारों को किस तरह की रेसीडेन्सी की सुविधाएं उपलब्ध रही हैं. इस सिलसिले में उन्हें हमारे किसी हितैषी ने बताया है कि इस मामले में मध्य प्रदेश और भारत भवन अग्रणी रहे हैं और वे उस बारे में विस्तृत जानकारी चाहती हैं. वह तो मैंने उन्हें दे दी. याद आया कि सबसे पहले 1980 में मध्यप्रदेश शासन में जब स्वतंत्र संस्कृति विभाग बना तो उसने जो नया कार्यक्रम बनाया उसमें अतिथि लेखकों के लिए तीन सृजनपीठ बनाये: प्रेमचन्द सृजनपीठ (विक्रम विश्वविद्यालय), निराला सृजनपीठ (भारत भवन भोपाल) और मुक्तिबोध सृजनपीठ (सागर विश्वविद्यालय). इन पीठों पर एक दशक में शमशेर बहादुर सिंह, निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई, त्रिलोचन, नरेश मेहता, रामकुमार, कृष्ण बलदेव वेद, दिलीप चित्रे, कृष्णा सोबती, केदारनाथ सिंह, कमलेश आदि विभिन्न अवधियों के लिए, सुविधानुसार आये.
1982 में भारत भवन की स्थापना और सक्रियता के दौरान वहां फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के एक शर्त-मुक्त अनुदान के अन्तर्गत मल्लिकार्जुन मंसूर, भवेश सान्याल, उस्ताद ज़िया मोइउद्दीन डागर, शम्भु मित्र, नामवर सिंह, अम्बा दास, शानी, निर्मल वर्मा आदि आये. यह मूर्धन्य-श्रृंखला 1990 तक तो चली उसके बाद क्या हुआ इसका पता नहीं. इरादा इन मूर्धन्यों के भारत भवन में अतिथि के रूप में रहने के दौरान इनका विस्तृत अभिलेखन करने का था और वह काफ़ी हद तक सफल प्रयोग रहा. पण्डित मंसूर की अनौपचारिक बातचीत, शम्भु मित्र का बव कारन्त द्वारा लिया गया लम्बा इण्टरव्यू, उनका अपने नाटक का पाठ और बांग्ला कवियों की रचनाओं की नाटकीय आवृत्ति आदि की याद है. यह सामग्री, उम्मीद है, कि भारत भवन के अभिलेखागार में अब भी सुरक्षित होगी.
विश्वविद्यालयों ने सृजनपीठ पर आये अतिथि लेखकों का कोई सार्थक उपयोग नहीं किया. युवा छात्रों या कैम्पस में उभर रहे छात्र-लेखकों से उनके लगातार संवाद का कोई सुघर नियोजन नहीं हुआ. शमशेर जी का तो बेहतर इस्तेमाल कालिदास अकादेमी ने किया था. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों में अतिथि लेखकों-कलाकारों-विद्वानों के लिए एक योजना बरसों से चला रखी थी, पर अधिकांश विश्वविद्यालयों ने उसका कोई उपयोग नहीं किया. कुछ ने किया और मैं जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापक रहा हूं. एक बद्धमूल पूर्वाग्रह ज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक भारत में रहा है कि साहित्य और कलाएं ज्ञान का अंग नहीं हैं. उनमें जो ज्ञान प्रगट या विन्यस्त होता है उसे ज्ञान मानने में हमारे आधुनिक ज्ञानियों को बड़ी हिचक है. जबकि दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भी इन्हें बाकायदा ज्ञान का हिस्सा माना जाता है. यह विडम्बना है कि कैसे भी पी-एचडी प्राप्त अध्यापक साहित्य और कलाएं पढ़ा सकते हैं, पर उपन्यासकार, कवि, कलाकार आदि ऐसा नहीं कर सकते?
समकालीन चीनी कविता
इस समय भारत का चीन से संबंध इस कदर बिगड़ा हुआ है कि चीनी पद्धति में बनाये भारतीय भोजन तक का बहिष्कार करने का आह्वान एक केन्द्रीय मंत्री कर चुके हैं. ऐसे समय समकालीन चीनी कविता का ज़िक्र भी आपकी देशभक्ति को संदिग्ध ठहरा सकता है. लेकिन इसकी परवाह किये बिना, हमें हर तरह से समकालीन चीनी मानस को समझने की ज़रूरत है. और निश्चय ही कविता चीनी सर्जनात्मकता का एक विश्वसनीय साक्ष्य है. मेरे सामने है टुपेला प्रेस द्वारा प्रकाशित और मिंग दी द्वारा संपादित समकालीन चीनी कविता के अंग्रेजी अनुवाद का एक संचयन - ‘न्यू कैथे. इसमें 1951 में जन्मे युवा दुवा से लेकर 1986 में जन्मे ली सुमिन तक की कविताएं दी गयी हैं. कविताओं की कुछ बानगियां हिन्दी में आगे कभी, अभी तो संपादक द्वारा कुछ कवियों से की गयी बातचीत से जो जानकारी मिलती है उसका एक विवरण:
पूछे जाने पर कि किन पश्चिमी कवियों का समकालीन चीनी कविता पर प्रभाव पड़ा है, जिन पश्चिमी कवियों का चीनी कवियों ने नामोल्लेख किया है उसमें यूरोप, अमरीका और लातीनी अमेरिका के लगभग सभी उल्लेखनीय महत्वपूर्ण कवि शामिल हैं. ईलियट, यीट्स, रिल्के, पाउण्ड, वैलेस स्टीवेंस, गिसबर्ग, जान एशवरी, शीमस हीनी, ऑडेन, बोदेलेयर, मलार्मे, रिम्बो, ट्राक्ल, सेलान, पास्तरनाक, मण्डलश्टाम, आख़्मातोवा, ब्रॉडस्की, मीवोष, हेवेर्ते, विटमेन, पाल वैलरी, बोर्खेस, क्वाफ़ी, मोन्ताले, रित्सोज़, सैं जान पर्स, ट्राम्सट्रोमर, नेरूदा, लोर्का, अदम जागेयावस्की, राबर्ट लोवेल, यहूदा अमीखाई, राबर्ट फ्रास्ट आदि आदि. ज़ाहिर है कि जो चीन इस समय सक्रिय है उस पर पश्चिमी साहित्य का जितना प्रभाव है उतना शायद इससे पहले कभी नहीं रहा है. यह भी मानना चाहिये कि इस प्रभावों से प्रतिकृत होते हुए चीनी कविता विश्व कविता में अपनी जगह बना रही है.
इन कवियों से संपादक ने जब यह प्रश्न पूछा कि आज की चीनी कविता पर एशियाई किन कवियों का प्रभाव है तो उसमें से अधिकांश ने यह स्वीकार किया कि ऐसा प्रभाव बहुत कम और क्षीण है. भारत से सिर्फ़ रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम दो-तीन कवियों ने लिया और एक ने प्राचीन भारतीय कविता का. बाक़ी जिन कवियों का ज़िक्र हुआ वे हैं ख़लील ज़िब्रान, उमर ख़य्याम, आदोनिस और तानीकावा मुन्तारो
भारतीय कविता बहुत हद तक चीनी कविता की तरह ही रही है. जिन कवियों का ज़िक्र चीनी कवियों ने किया है वे सब भारतीय कवियों के भी सुपरिचित हैं. दूसरी ओर, भारतीय कविता भी चीनी कविता की ही तरह अपनी एशियाई जड़ों से अपरिचित सी है और उसे किसी बड़े कवि की तो दूर महत्वपूर्ण एशियाई कवियों तक की ख़बर कम ही है. क्या इससे यह नतीजा निकालना एक अधीर सरलीकरण होगा कि दोनों ही देशों की कविता पश्चिम से आक्रान्त है और एशिया से बेख़बर?
‘लोरी की तरह सच’
जान बर्जर कला-जगत् में एक विश्व-प्रसिद्ध कलालोचक रहे हैं जिन्होंने कला को देखने की विधियों और पिकासो की कला को समझने के लिए रेडिकल दृष्टि दी. उन्होंने उपन्यास भी लिखे जिनमें से एक को बुकर पुरस्कार मिला. बर्जर कवि भी थे और भारत के एक प्रकाशन-गृह कॉपर क्वाइन ने उनकी सारी कविताएं ‘कलेक्ट्रेड पोएम्स’ के नाम से प्रकाशित की हैं. बहुत सुगठित कविताएं हैं जिनमें अंग्रेज़ी भाषा के अन्तःसंगीत का बड़ा सुघर और कल्पनाशील उपयोग है, उनमें से दो कविताएं अनुवाद में देखें:
प्रवासी शब्द
धरती के एक विवर में
मैं रख दूंगा सारे उच्चारण
अपनी मातृभाषा के
वहां वे पड़े रहेंगे
चींटियों द्वारा जमा की गयी
पाइन की सुइयों की तरह
एक दिन लड़खड़ाती चीख़
एक और यायावर की
उन्हें प्रज्वलित कर सकती है
तब गर्माहट-भरा और आश्वस्त
वह सुनेगा रात भर
लोरी की तरह सच
नेप्लाम
माँ, मुझे रोने दो
लैटरप्रेस नहीं
न टैलेक्स
न बेदाग़ भाषण
बुलेटिन
तबाही की, ढिठाई से
घोषणा करते हुए
लेकिन घाव के पृष्ठ
मां, मुझे बोलने दो
विशेषण नहीं
उनकी बदहाली के नक़्शे रंगने के लिए
न ही संज्ञाएं
कोटियां बनाती
यातना के परिवारों की
लेकिन क्रिया तकलीफ़ की
मेरी मातृभाषा खटखटाती है
वाक्य
जेल की दीवार पर
मां, मुझे लिखने दो
आवाज़ें
चीखतीं पराजय में
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिस उद्देश्य के लिए अचानक लद्दाख-दौरा हुआ, वह अपने आप में पूरा हो गया है, फौज की दृष्टि से और भारतीय जनता के हिसाब से भी। दोनों को बड़ी प्रेरणा मिली है लेकिन चीन की तरफ से जो जवाब आया है और विदेशी सरकारों की जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उन पर हमारे नीति-निर्माता गंभीरतापूर्वक ध्यान दें, यह जरुरी है। चीनी दूतावास और चीनी सरकार ने बहुत ही सधे हुए शब्दों का इस्तेमाल किया है। उनमें बौखलाहट और उत्तेजना बिल्कुल भी नहीं दिखाई पड़ती है। उन्होंने कहा है कि यह वक्त तनाव पैदा करने का नहीं है। दोनों देश सीमा के बारे में बात कर रहे हैं। चीन पर विस्तारवादी होने का आरोप लगभग निराधार है। उसने 14 में से 12 पड़ौसी देशों के साथ अपने सीमा-विवाद बातचीत के द्वारा हल किए हैं। मैं सोचता हूं कि भारत सरकार भी चीन के साथ युद्ध छेडऩे के पक्ष में नहीं है। वह भी बातचीत के रास्ते को ही बेहतर समझती है। इसीलिए किसी भी भारतीय नेता ने चीन पर सीधे वाग्बाण नहीं छोड़े हैं।
मोदी-जैसे दो-टूक बातें करनेवाले नेता को भी घुमा-फिराकर नाम लिये बिना अपनी बात कहनी पड़ रही है। उसका लक्ष्य चीन को न उत्तेजित करना है, न अपमानित करना है और न ही युद्ध के लिए खम ठोकना है। उसका लक्ष्य बहुत सीमित है। एक तो अपने जवानों के घावों पर मरहम लगाना है और दूसरा, अपनी जनता के मनोबल को गिरने नहीं देना है। मोदी के लिए चीन की चुनौती से भी बड़ी तो अंदरुनी चुनौती है। जो विरोधी दल मोदी पर फब्तियां कस रहे हैं, यदि मोदी उनके कहे पर आचरण करने लगे तो भारत-चीन युद्ध अवश्यंभावी हो सकता है। मोदी को यह पता है और हमारे कांग्रेसी मित्रों को यह बात और भी अच्छी तरह पता होनी चाहिए कि युद्ध की स्थिति में भारत का साथ देने के लिए एक देश भी आगे आनेवाला नहीं है। अमेरिका इसलिए खुलकर भारत के पक्ष में बोल रहा है क्योंकि चीन की अमेरिका के साथ ठनी हुई है। लेकिन युद्ध की स्थिति में अमेरिका भी आंय-बांय-शांय करने लगेगा। जहां तक अन्य देशों का सवाल है, हमारे सारे पड़ौसी देश मुखपट्टी (मास्क) लगाए बैठे हैं। सिर्फ पाकिस्तान चीन के खातिर अपना फर्ज निभा रहा है। दुनिया के बाकी देशों- जापान, रुस, फ्रांस, एसियान और प्रशांत-क्षेत्र के देशों के बयान देखें तो उन्हें पढक़र आपको हंसी आएगी। न वे इधर के हैं, न उधर के हैं। क्या इन देशों के दम पर चीन से हमें पंगा लेना चाहिए ? रुस और फ्रांस- जैसे देश इसीलिए चिकनी-चुपड़ी बातें कर रहे हैं कि हम उनसे अरबों रु. के हथियार खरीद रहे हैं। भारत को जो कुछ भी करना है, अपने दम पर करना है। वह गलतफहमी में न रहे। (नया इंडिया की अनुमति से)
महात्मा गांधी ने स्वामी विवेकानंद के हवाले से ही दलित शब्द का प्रयोग करना शुरू किया था
आमतौर पर माना जाता है कि गांधीजी ने सामाजिक रूप से वंचितों और उपेक्षित तबकों के लिए ‘हरिजन’ शब्द को ही लोकप्रिय बनाया था। कई बार इस कारण आज के दलित युवा गांधीजी की आलोचना भी करते पाए जाते हैं। लेकिन हाल के एक अध्ययन से पता चलता है कि गांधीजी को ‘दलित’ शब्द से परहेज नहीं था। बल्कि एक समय तो वे ‘दलित’ शब्द के ही पक्षधर थे। और यह शब्द या भाव उन्हें स्वामी विवेकानंद को पढ़ते हुए मिला था। विवेकानंद चूंकि ज्यादातर अंग्रेजी में संवाद करते थे, इसलिए उन्होंने पहली बार इन समुदायों के लिए ‘सप्रेस्ड’ शब्द का इस्तेमाल किया था। ‘सप्रेस्ड’ शब्द ‘दलित’ शब्द के लिए निकटतम अंग्रेजी शब्द है।
1927 में गांधी पूरे देश में दलितों के कल्याण के लिए चंदा इक_ा कर एक कोष बना रहे थे। इस काम के लिए सरदार पटेल ने गुजरात राज्य से एक लाख रुपये जुटाने की घोषणा की थी। इस बारे में गुजराती ‘नवजीवन’ में 27 मार्च, 1927 को महात्मा गांधी लिखते हैं-
‘हमें यह पैसा केवल दलित वर्गों की सेवा के लिए चाहिए। दलित वर्गों में ‘अन्त्यज’ और रानीपरज जातियां आती हैं। अब तो जहां तक संभव होगा वहां तक हम ‘अन्त्यजों’ के लिए ‘दलित’ शब्द का ही इस्तेमाल करेंगे। ‘दलित’ शब्द स्वामी श्रद्धानंद ने चलाया था। उसी भाव को व्यक्त करनेवाला एक अंग्रेजी शब्द स्वामी विवेकानंद ने चलाया था। स्वामी विवेकानंद ने कथित अस्पृश्यों को ‘डिप्रेस्ड’ या दबे हुए नहीं, बल्कि ‘सप्रेस्ड’ या दबाए गए कहा। और यह ठीक भी है। तथाकथित उच्च वर्णों ने उन्हें दबाया, इसलिए वे दब गए और दबे हुए रहते हैं। इसके लिए हिंदी शब्द ‘दलित’ है। सारे दलित वर्गों में अस्पृश्य सबसे अधिक दलित कहे जा सकते हैं। ‘रानीपरज’ (काली) और चौधरा आदि ऐसी अन्य जातियां भी दलित ही हैं।’
महात्मा गांधी ने विवेकानंद के हवाले से ऐसा कोई पहली बार नहीं कहा था। इससे पहले 27 अक्टूबर, 1920 को भी ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा था, ‘स्वामी विवेकानंद ‘पंचमों’ को ‘दलित जातियां’ कहा करते थे। स्वामी विवेकानंद द्वारा दिया गया यह विशेषण अन्य विशेषणों की अपेक्षा निस्संदेह अधिक सटीक है। हमने उनका दलन किया है और परिणामत: स्वयं ही पतन के गर्त में जा गिरे। गोखले ने जब यह कहा था कि ‘आज ब्रिटिश साम्राज्य में हमारी स्थिति अछूतों-जैसी हो गई है’ तो गोखले के इन शब्दों का अर्थ यही था कि यह ‘दलितों’ का हमारे द्वारा किए गए ‘दलन’ के बदले में हमारे प्रति न्यायी ईश्वर द्वारा किया गया न्याय ही है।’
इसके बाद 12 मार्च, 1925 को त्रावणकोर की नगरपालिका को संबोधित करते हुए भी गांधी ने विवेकानंद के हवाले से ही फिर से ऐसा कहा था, ‘मैं जानता हूं कि इस राज्य ने उनलोगों के लिए बहुत कुछ किया है जिन्हें भ्रमवश नीची जाति का कहा जाता है। मैं उन्हें नीची जाति का कहना गलत मानता हूं। उनके लिए सही शब्द होगा ‘दलित जाति’। स्वामी विवेकानंद ने हमें याद दिलाया था कि कथित ऊंची जातिवालों ने ही अपने में से कुछ लोगों को दलित किया था और ऐसा करके वे ऊंची जाति स्वयं अपने आप में नीच हो गए थे। आप अपने ही वर्ग के मनुष्यों को नीचा करके खुद ऊंचे नहीं बने रह सकते।’
दिलचस्प है कि आज भले ही ‘हरिजन’ शब्द को अपमानजनक मानकर कुछे दलित राजनेता महात्मा गांधी की आलोचना करते हों, लेकिन महात्मा गांधी ने हरिजन शब्द को चुनते हुए भी ‘सप्रेस्ड’ या ‘दलित’ शब्द को छोड़ा नहीं था। गांधी को ‘दलित’ शब्द से परहेज नहीं था। लेकिन ‘हरिजन’ शब्द को वे थोड़ा अधिक सकारात्मक और सुंदर मानते थे। 27 मार्च, 1936 को कुछ आर्य-समाजी हरिजन-सेवकों ने गांधी से पूछा- ‘पर लोग हमें हरिजन क्यों कहें, हिंदू क्यों नहीं?’
इसके जवाब में गांधी ने कहा, ‘मैं जानता हूं कि आपमें से कुछ थोड़े से लोगों को हरिजन नाम बुरा लगता है। पर इस नाम की उत्पत्ति आपको जान लेनी चाहिए। आपलोगों को पहले ‘दलितवर्ग’ या ‘अस्पृश्य’ या ‘अछूत’ कहा जाता था। ये सब नाम स्वभावत: आपमें से अधिकांश लोगों को बुरे लगते थे, अपमानजनक से मालूम होते थे। आपमें से कुछ लोगों ने इस पर अपना विरोध भी प्रकट किया और मुझे एक अच्छा सा नाम ढूंढऩे के लिए लिखा।
अंग्रेजी में ‘डिप्रेस्ड’ से बेहतर शब्द ‘सप्रेस्ड’ मैंने ले लिया था, पर जबकि मैं अच्छा हिंदुस्तानी नाम सोच रहा था, एक मित्र ने मुझे ‘हरिजन’ शब्द बतलाया।।।यह शब्द उन्होंने एक महान संत (नरसिंह मेहता) के भजन से लिया था। यह शब्द मुझे जंच गया। क्योंकि यह आपकी दीन-दशा को बड़ी अच्छी तरह व्यक्त करता था, और साथ ही, इसमें कोई अपमान जैसी बात भी नहीं थी।’
इस रिपोर्ट में आठ देशों- कोलंबिया, भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और श्रीलंका में मानवाधिकार की आवाज उठाने और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ बोलने वालों की प्रताडऩा और उसमें सरकार के सहयोग और समर्थन का जिक्र किया गया है।
-महेन्द्र पांडे
ह्युमनिस्ट्स इंटरनेशनल की तरफ से हाल में ही एक रिपोर्ट ‘ह्युमनिस्ट्स ऐट रिस्क- एक्शन रिपोर्ट 2020’ प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार दुनियाभर में नास्तिकों और मानवतावादी लोगों पर उनकी स्वतंत्र सोच और विचारों के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है। यह खतरा बहुसंख्यकों की हिमायती सरकारों से भी है और सरकारों द्वारा प्रायोजित भीड़ तंत्र द्वारा हिंसा से भी है।
इस रिपोर्ट में आठ देशों- कोलंबिया, भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और श्रीलंका की स्थिति का विस्तार से वर्णन है। इसमें बताया गया है कि नास्तिकों और मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण इन लोगों का बहिष्कार किया जाता है और तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी इसे बढ़ावा देती हैं। केवल बहुसंख्यकों के धर्म की उपेक्षा, मानवाधिकार की आवाज बुलंद करने, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ बोलने के कारण नास्तिकों और मानवतावादियों को निशाना बनाया जाता है, उन पर हमले कराये जाते हैं और फिर तरह-तरह के कानूनों की दुहाई देकर इन्हें सजा दी जाती है।
भारत के बारे में इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘भारत सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र है, यहां धर्म की विविधता है और हाल के वर्षों तक संविधान द्वारा प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता पर सबको गर्व था। भारत में संविधान, कानून और राजनैतिक माहौल, विचारों की स्वतंत्रता, धर्म और विवेक का अधिकार देते हैं, और अभिव्यक्ति और समूह निर्माण की स्वतंत्रता भी। पर, कुछ कानून और वर्तमान का राजनैतिक माहौल इस आजादी पर अंकुश लगा रहे हैं। यहां धार्मिक समूहों के बीच आपसी झड़प और धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा सामान्य हो चला है। नागरिकता (संशोधन) कानून लागू होने के बाद से ऐसी हिंसक झड़पें सामान्य हो चलीं हैं और इसमें प्रताडि़त होने वाले या फिर सजा पाने वाले केवल अल्पसंख्यक ही होते हैं। इस कानून के तहत मुस्लिमों, नास्तिकों और मानवतावादी प्रवासियों को छोडक़र अन्य सभी शरणार्थी जो पाकिस्तान, अफग़़ानिस्तान और बांग्लादेश से आए हैं उनको नागरिकता देने का प्रावधान है।’
‘इस कानून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की तरफ एक बड़े कदम के तौर पर देखा जा रहा है। भारत में तर्कवाद का इतिहास बहुत पुराना है। पर, आज के दौर में तर्कवाद मिट गया है और इसकी जगह आंख बंद कर सरकारी समर्थन हावी हो चला है। वर्ष 2012 के ग्लोबल इंडेक्स ऑफ रिलिजन एंड एथिस्म के अनुसार भारत में 81 प्रतिशत आबादी कट्टर धार्मिक है, 13 प्रतिशत नाममात्र के धार्मिक हैं, 3 प्रतिशत घोषित नास्तिक हैं और शेष 3 प्रतिशत आबादी धर्म के प्रति उदासीन है।अब तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की धर्म-निरपेक्षता का सम्मान पूरी दुनिया करती थी, पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से सरकार, कार्यपालिका और कुछ हद तक न्यायपालिका तक हिन्दू राष्ट्र की राजनीति करने लगे हैं। सरकारों द्वारा कथित हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों को बढ़ावा देने के कारण अल्प्संख्यक खतरे में हैं और इसके साथ ही बगैर धर्म की विचारधारा और मानवतावादी दृष्टिकोण खतरे में है।’
‘इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295 की धारा जो ईशनिंदा से सम्बंधित है, का उपयोग व्यापक तरीके से किया जाने लगा है। वैसे तो यह कानून किसी भी धर्म के तिरस्कार से सम्बंधित है, पर अब इसे केवल एक धर्म से ही जोड़ा जाने लगा है। गाय सुरक्षा कानून भी एक तरह से ईशनिंदा से सम्बंधित है क्योंकि गाय को पवित्र बताया जाता है। अब इस सुरक्षा कानून का मनमाना दुरुपयोग किया जाने लगा है।’
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि ‘वर्ष 2013 से 2015 के बीच तीन प्रमुख बुद्धिजीवियों की हत्या सरेआम इसलिए कर दी गई क्योंकि वे अंधविश्वास और हिन्दू राष्ट्र की अवधारण के खिलाफ थे। हरेक मामले में सम्बंधित सरकारों ने तुरंत न्याय दिलाने की बात की, पर हत्या में हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों की भागीदारी सामने आने पर, हरेक मामले में भरपूर लीपापोती की गई।’
‘वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा था, विद्यार्थियों को यह पढ़ाया जाए कि हरेक धर्म की मूलभूत बातें एक ही हैं और जो अंतर दिखता है वह केवल तरीकों में है। यदि कुछ क्षेत्रों में मतभेद हैं भी तब भी भाईचारा बनाए रखने की जरूरत है और किसी भी धर्म के प्रति दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। पर, सरकारें इसका ठीक उल्टा कर रही हैं। अल्पसंख्यकों का दर्जा प्राप्त क्रिश्चियन और मुस्लिम स्कूलों के समक्ष हिन्दू स्कूल खड़ा कर रही हैं। पाठ्यपुस्तकों में धर्मनिरपेक्षता की पारंपरिक अवधारणा को बदलकर अब हिन्दू धर्म का प्रचार किया जाने लगा है। यही नहीं, अब तो अनेक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाया जाने लगा है।’
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान देता है और पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है। पर, अब निष्पक्ष पत्रकारों को नए खतरे झेलने पड़ रहे हैं। निष्पक्ष पत्रकारों के विरुद्ध सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, अपराध और हेट स्पीच से सम्बंधित कानूनों का सहारा ले रहीं हैं, और यहां तक कि न्यायालयों की अवहेलना का भी अभियोग लगा रहीं हैं। सितम्बर 2017 में बेंगलुरु में हिन्दू आतंकवाद और राष्ट्रवाद पर मुखर पत्रकार गौरी लंकेश की ह्त्या कर दी गई। स्पेशल इन्वेस्टिगेटिंग टीम ने 9235 पृष्ठों की रिपोर्ट तैयार तो की, जिसमें हिन्दू अतिवादी और सरकार के करीबी संगठनों से जुड़े अनेक बयान दर्ज हैं, जिन्होंने आगे के लिए अनेक बुद्धिजीवियों की ह्त्या तय की थी, पर सभी आज तक कानून के दायरे से बाहर हैं।’
आगे कहा गया है कि ‘सरकारों ने इन्टरनेट की सुविधा बंद कर आन्दोलनों को दबाने का एक नया तरीका इजाद कर लिया है। संविधान के विरुद्ध जाकर और धर्म-निरपेक्ष मूल्यों को ताक पर रखकर सरकार ने नागरिकता (सन्शोधन) कानून को लागू कर दिया। इसके बाद बड़े पैमाने पर विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों और अल्पसंख्यकों ने आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने बार-बार इन्टरनेट बंदी का सहारा लिया, जबकि इन्टरनेट सुविधा को सर्वोच्च न्यायालय ने जनता का मौलिक अधिकार घोषित किया है।’
‘वर्ष 2014 से सत्ता पर काबिज बीजेपी स्वतंत्र भारत के पूरे इतिहास में सर्वाधिक बुद्धिजीवी विरोधी सरकार है। यह हरेक उस व्यक्ति या संस्था को निशाना बना रही है, जो एक्टिविस्ट है, सिविल सोसाइटी से जुड़ा है, मानवाधिकार की बात करता है, स्वतंत्र और निष्पक्ष विचारधारा का है, या फिर हिन्दुवों के विरुद्ध बात करता है। अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ता, आदिवासी और धर्म के आडम्बर के विरुद्ध व्यक्तियों पर केवल सरकार प्रहार ही नहीं करती, बल्कि उनकी ह्त्या करने वालों का समर्थन भी करती है, और उन्हें कानून के शिकंजे से बचाती भी है। इस सन्दर्भ में आज के भारत की स्थिति पाकिस्तान जैसी ही है। यदि आप स्वतंत्र विचारधारा के हैं, धर्मों के बंधन से नहीं बंधते तब सरकारी कानूनों, पुलिसिया जुर्म के साथ-साथ हिन्दू गुंडों से भी आपको जूझना पड़ेगा।’
इस रिपोर्ट में भारत के कुछ बुद्धिजीवियों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पनसरे, एम एम कलबुर्गी और एच फारुख के नाम शामिल हैं। इस रिपोर्ट में भारत के लिए कुछ सुझाव भी दिए गए हैं।
इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295 समेत वे सभी कानून जो ईशनिंदा को अपराध करार देते हैं, को हटा देना चाहिए।
नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 में बदलाव कर गैर-धार्मिक, मानवतावादी और नास्तिकों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
भारत सरकार को अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास और समूहों के गठन पर आजादी का सम्मान करना चाहिए।
विद्यालयों में धर्म-निरपेक्षता पर विस्तृत पाठ शामिल किया जाना चाहिए।
सरकार द्वारा सिविल सोसाइटीज और मानवाधिकार संगठनों के विरुद्ध फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट 2010 का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल बंद करना चाहिए।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की हत्या या उनसे मारपीट से सम्बंधित मामलों का शीघ्र निपटारा किया जाना चाहिए, और यह सुनिश्चित किया जाना चाहए कि सभी दोषियों को सजा मिले, उन्हें भी जो हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े हैं।
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकार या इसे जुड़े संगठनों या व्यक्तियों द्वारा लगातार दिए जाने वाले हेट स्पीच की कड़े शब्दों में भर्त्सना की जाए और ऐसा करने वालों पर उचित कार्यवाही हो।
जाहिर है, धर्म-निरपेक्षता को हमारी सरकारें पूरी तरह भूल चुकी हैं। अब हम जिस न्यू इंडिया में रहते हैं वह पूरी तरह से बदल चुका है। यहांं मानवाधिकार की बात करने पर आप देशद्रोही बन जाते हैं, अर्बन नक्सल करार दिए जाते हैं या फिर टूकड़े-टूकड़े गैंग के सदस्य बना दिए जाते हैं और ह्त्या करने वाले या फिर इसकी धमकी देने वाले विधायक और सांसद बन जाते हैं। (navjivanindia.com)
-विष्णु नागर
एक देश है। उसने हमारी 40 से 60 वर्गकिलोमीटर जमीन हथिया ली है और हमारे बीस सैनिकों की जान ले ली है, फिर भी टस से मस होने को तैयार नहीं है। इसके बावजूद हमारे प्रधानमंत्री ने उसका नाम लेना उचित नहीं समझा है तो मैं ही क्यों उसका नाम लेने का गुनहगार बनूँ? अगर मोदीजी देशभक्त हैं तो क्या मैं उनसे कम देशभक्त हूँ? इसके बावजूद कि मुझमें एक जबर्दस्त कमी है कि मैं उनका भक्त बनने की योग्यता से वंचित हूँ, तो भी संकट की इस घड़ी में उनके साथ खड़ा होना पड़ेगा न, इसलिए मैं भी उस देश का नाम नहीं लूँगा। यही असली देशभक्ति है। जो मोदीभक्त होकर भी देशभक्ति के इस धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं, मैं उनकी घनघोर भत्र्सना करता हूँ। मैं तो इस समय मोदीजी के साथ इस हद तक खड़ा हूँ कि यह भी नहीं बताऊँगा कि वह हमारा पड़ोसी देश है या नहीं है। बस इतना बता सकता हूँ कि उसका नाम पाकिस्तान नहीं है। हाँ पाकिस्तान होता तो बात कुछ और होती,माहौल कुछ और होता! तब तो हमारे प्राइममिनिस्टर साहब ही उसका नाम सौ बार दाँत पीस -पीस कर, गला फाडक़र-फाडक़र, उछल-उछल कर लेते।जहाँ तक मेेरा सवाल है, देशभक्त होने के बावजू मैं दाँत पीसना, गला फाडऩा और उछलना तो नहीं जानता मगर नाम जरूर लेता मगर इस मामले में तो नाम कतई नहीं लूँगा।
जरूर इसके पीछे प्रधानमंत्री की देशभक्तिपूर्ण कूटनीति होगी। शायद यह सोचकर नाम नहीं लिया होगा कि ऐसा करने से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और बढ़ जाएगा। संभव है नाम लेने भर से देश की एकता और अखंडता खंडित हो जाती, जिसे बनाए रखने का जितना शौक मोदी जी को है, आज तक किसी प्रधानमंत्री को नहीं रहा। संभव है इससे हिंदू राष्ट्रवाद खतरे में पड़ जाता, जिसके वह सतर्क चौकीदार हैं। इससे उस देश को मदद पहुँचती, जो पहले ही इस बात पर लट्टू हुआ पड़ा है कि हमारे प्रधानमंत्री ने स्वयं कह दिया है कि न कोई हमारी सीमा में घुसा है, न कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट उसके कब्जे में है। इसका उस देश की भाषा में जम कर अनुवाद हुआ और आज भी वहाँ की सरकार अपनी जनता को सुनाने की दुष्ट हरकत कर रही है। इस स्थिति मैं ची तो छोड़ो च भी नहीं बोलूँगा और तो और मैं सी तक नहीं बोलूँगा वरना क्या पता, देश के दुुुश्मन इसका फायदा उठा लें और कहें कि निश्चित रूप से सीएच आई एन ए की तरफ मेरा इशारा है। मैं राष्ट्रहित को आगे रखूँगा और ऐसी कोई गलती नहीं करूँगा, जो प्रधानमंत्री खुद नहीं करते हैंं। हाँँ जब प्राइमिनिस्टर साहब क्लीयरेंस देे देंगे, कहेंगे कि हाँ अब मैैं उस देश का नाम ले रहा हूँ, तो तुम भी ले लो, तो उसके भी 24 घंटे बाद नाम लूँगा क्योंकि क्या पता इस बीच पी एम ओ स्पष्टीकरण जारी करके कहे कि प्रधानमंत्री की बात को षडय़ंत्रपूर्वक तोड़मरोडक़र प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रधानमंत्री का आशय न च से था, न ची से बल्कि छ, छा, छि, छी तक से नहीं था। उनका इशारा उस देश की ओर था ही नहीं, जिसका नाम अंग्रेजी के सी शब्द से शुरू होता है। मैं पीएम ओ के क्लीअरंस का 24 घंटे क्या 48 घंटे तक इंतजार करूँगा, यही देशहित में होगा।
जब देश संकट में हो तो प्रधानमंत्री की सीख है कि भले वह देश हमारी सीमा में अंदर घुस आए, उसका नाम नहीं लेना चाहिए, तो मैं भी नहींं लूँगा, अपनी राष्ट्रभक्ति को कलंकित नहीं होने दूँगा। मैं भारत माता की कसम खाकर, वंदेमातरम बोलते हुए च, ची, सी कुछ भी नहीं कहूँगा। यहाँ तक कि न का प्रयोग भी नहीं करूँगा क्योंकि चतुर लोग इसके आगे ची लगा देंगे और दुष्टतापूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करेंगे। मैं सी क्या एच आई एन ए का इस्तेमाल करना भी तब तक के लिए स्थगित रखूँगा, जब तक हमारी सीमाएँ सुरक्षित नहीं हो जातीं।
आप अगर फिर भी यह जानना चाहते हों कि नाम लिए बगैर संकेत किस देश की ओर है तो यह वही देश है, जिसका प्रधानमंत्री आज तक कुल नौ बार दौरा कर चुके हैं। चार बार मुख्यमंत्री के रूप में और पाँच बार प्रधानमंत्री के रूप में।उन्होंने उस देश का दौरा करने के सभी मुख्यमंत्रियों और सभी प्रधानमंत्रियों के रिकॉर्ड तोड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिए हैं। जिसके राष्ट्रपति को हमारे प्रधानमंत्री ने अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे झूला झुलाया था और महाबलिपुरम में अंगवस्त्रम धारण कर जिनके गाइड का काम किया था। इसी देश के बारे में यह कहने के बाद कि किसी न हमारी सीमा में कब्जा नहीं किया है, बाद में पापुलर डिमांड पर यह भी कह दिया कि लद्दाख की भूमि पर आँखें उठाकर देखनेवालों को करारा जवाब मिला है।भारत मित्रता निभाना जानता है तो आँख में डाल कर देखना और उचित जवाब देना भी जानता है।आप फिर भी न समझ हों, तो सोनिया गांधी, राहुल गांधी के पिछले वक्तव्य पढ़ लें। तब भी नहीं समझे हों तो विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर देख लें और इतना भी कष्ट न उठा सकें तो यह समझ लें कि जिसके 59 एप्स हमने रोक दिए हैं, जिसमें टिकटाक जैसा एप भी है क्योंकि हमें अब पता चल गया है कि अरे, ये एप्स तो हमारी सुरक्षा के लिए खतरा बने हुए थे! फिर भी समझ नहीं सके हों तो इंतजार करें शायद किसी दिन हमारे प्रधानमंत्री स्वयं हमें इस योग्य समझने की गलती कर बैठें और हमारे सामने इसका नाम ले लें और हम खुशी से पागल हो जाएँ और कहें कि देखा उनका सीना 56 इंच का है, जबकि सच यह होगा कि उस दिन से वह 58 इंच का हो चुका होगा!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक लद्दाख का दौरा कर डाला। अचानक इसलिए कि यह दौरा रक्षामंत्री राजनाथसिंह को करना था। इस दौरे को रद्द करके मोदी स्वयं लद्दाख पहुंच गए। विपक्षी दल इस दौरे पर विचित्र सवाल खड़े कर रहे हैं। कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि 1971 में इंदिरा गांधी ने भी लद्दाख का दौरा किया था लेकिन उसके बाद उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए। अब मोदी क्या करेंगे ? कांग्रेसी नेता आखिर चाहते क्या हैं ? क्या भारत चीन पर हमला कर दे ? तिब्बत को आजाद कर दे ? अक्साई चिन को चीन से छीन ले ? सिंक्यांग के मुसलमानों को चीन के चंगुल से बाहर निकाल ले ? सबसे दुखद बात यह है कि भारत और चीन के बीच तो समझौता-वार्ता चल रही है लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बीच वाग्युद्ध चल रहा है।
कांग्रेस के नेता यह क्यों नहीं मानते कि मोदी के इस लद्दाख-दौरे से हमारे सैनिकों का मनोबल बढ़ेगा ? मुझे नहीं लगता कि मोदी लद्दाख इसलिए गए है कि वे चीन को युद्ध का संदेश देना चाहते हैं। उनका उद्देश्य हमारी सेना और देश को यह बताना है कि हमारे सैनिकों की जो कुर्बानियां हुई हैं, उस पर उन्हें गहरा दुख है। उन्होंने अपने भाषण में चाहे चीन का नाम नहीं लिया लेकिन अपने फौजियों को इतना प्रेरणादायक और मार्मिक भाषण दिया कि वैसा भाषण आज तक शायद किसी भी अन्य प्रधानमंत्री ने नहीं दिया।
मोदी पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे अत्यंत प्रचारप्रिय प्रधानमंत्री हैं। इस लद्दाख दौरे को वे अपनी छवि बनाने के लिए भुना रहे हैं लेकिन भारत में कौन प्रधानमंत्री ऐसा रहा है (एक-दो अपवादों को छोडक़र), जो अपने मंत्रियों और पार्टी-नेताओं को अपने से ज्यादा चमकने देता है ? यह दौरा रक्षामंत्री राजनाथसिंह और गृहमंत्री अमित शाह भी कर सकते थे लेकिन मोदी के करने से चीन को भी एक नरम-सा संदेश जा सकता है। वह यह कि रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को बधाई देने और अरबों रु. के रुसी हथियारों के सौदे के बाद मोदी का लद्दाख पहुंचना चीनी नेतृत्व को यह संदेश देता है कि सीमा-विवाद को तूल देना ठीक नहीं होगा। मोदी के इस लद्दाख-दौरे को भारत-चीन युद्ध का पूर्वाभ्यास कहना अनुचित होगा। अगर आज युद्ध की जऱा-भी संभावना होती तो क्या चीन चुप बैठता ? चीन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने मुंह पर मास्क क्यों लगा रखा है ? वे भारत के विरुद्ध एक शब्द भी क्यों नहीं बोल रहे हैं ? क्योंकि भारत और चीन, दोनों परमाणुशक्ति राष्ट्र आज इस स्थिति में नहीं हैं कि कामचलाऊ सीमा-रेखा के आर-पार की थोड़ी-सी जमीन के लिए लड़ मरें। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)