विचार/लेख
डॉ अजय खेमरिया
जय जय कमलनाथ के उद्घोष के बीच जब मप्र काँग्रेस के विधायकों ने कमलनाथ के नेतृत्व में आस्था व्यक्त की तो लगा कि मप्र की राजनीति में कमलनाथ एक नई ताकत बन बीजेपी का मुकाबला करेंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोडऩे के घटनाक्रम का एक पक्ष यह भी स्थापित करने का प्रयास किया गया कि सिंधिया से मुक्ति के बाद कैडर बेस कांग्रेस खड़ी हो सकेगी। सरकार गिरने के चार महीने बाद भी क्या मप्र में कांग्रेस की हालत बदल पाई है? यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आने वाले मिनी विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस मैदान में कहीं नजर ही नही आ रही है। 22 विधायकों ने कमलनाथ का साथ छोड़ा था यह सिलसिला बीजेपी सरकार बनने के बाद थम जाना चाहिये था लेकिन इस दौरान तीन अन्य विधायक भी कांग्रेस छोडक़र बीजेपी का दामन पकड़ चुके है। खबर है कि मालवा और निमाड़ के करीब आठ से दस विधायक भी आने वाले समय में कांग्रेस छोड़ सकते है। यानी मप्र में कांग्रेस उपचुनाव की चुनौती को स्वीकार करने से पहले खुद के बचे हुए घर को महफूज करने की चुनौती से ज्यादा हलाकान है।
ध्यान से समझा जाये तो मप्र में कांग्रेस की इस हालत के लिए कमलनाथ खुद ही जिम्मेदार हैं। उनकी अपनी क्षमताओं और बढ़ती उम्र भी एक बड़ा कारक है। तथ्य यह है कि कमलनाथ मप्र के स्वाभाविक नेता है ही नही। वह आज भी दिल्ली दरबार के लिए फिट है जबकि राज्य की राजनीति के लिए अशोक गहलोत जैसे चपल और स्थानीय स्वीकार्यता वाले नेता ही सफल हो पाते है। खासकर मप्र जैसे राज्य जहाँ बीजेपी का संगठन देश भर में सबसे मजबूत और विस्तृत है और शिवराज सिंह जैसे ऊर्जावान नेता से किसी का मुकाबला हो तो 73 साल के कमलनाथ नैसर्गिक तौर पर भी मुकाबले में नही टिक सकते है। असल में मप्र कांग्रेस का अब संकट कमलनाथ ही हैं इसे निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा। वे कभी उस स्वरूप में मप्र के नेता रहे ही नही है जैसा दिग्विजय सिंह, सिंधिया, अर्जुन सिंह अंदाज लगा सकते है कि कमलनाथ करीब 3 साल से मप्र कांग्रेस के अध्यक्ष है लेकिन 2018 का चुनाव जीतने तक वह मप्र के आधे जिलों में भी दोरे पर नहीं गए। सिंधिया के प्रभाव वाले आठ जिलों में तो वे एक बार भी नहीं आए। जब 2018 में वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आ गए तब भी पूर्व मुख्यमंत्री होने तक उन्होंने प्रदेश के किसी इलाके में जाने की जहमत नहीं उठाई। उनके बारे में कहा जाने लगा था कि कमलनाथ का प्लेन भोपाल, छिंदवाड़ा, दिल्ली के बीच ही उड़ता है। दूसरी तरफ शिवराज सिंह कुर्सी गंवाने के बाबजूद मप्र के मैदानी दौरों पर डटे रहे। यहां तक कि दिग्विजयसिंह भी पूरे प्रदेश में सरकार रहने तक घूमते रहे।इससे पहले वे नर्मदा परिक्रमा कर प्रदेश के मालवा, महाकौशल, निमाड़ और नर्मदांचल को पैदल नाप चुके थे। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ शायद शिवराज सिंह की जनता के सीएम की छवि को खत्म करना चाहते थे वे मैदानी सीएम की जगह डीपी मिश्रा की तरह वल्लभ भवन से ही हुकूमत चलाने में भरोसा करने लगे।इसके लिए पार्टी संगठन या जनसंवाद के चैनल की जगह उन्होंने अपने निजी लोगों का सहारा लिया जो अंतत: उनकी सरकार पतन के एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुए। यह भी तथ्य है कि कमलनाथ को मप्र में कांग्रेस के मैदानी कैडर की भी कोई समझ नहीं रहीं है यही कारण है कि सीएम हाउस के नजदीक दिग्विजय सिंह के बंगले पर प्रदेश भर के कांग्रेसीयों का जमघट लगा रहता था और आम कार्यकर्ता मुख्यमंत्री निवास जाने से कतराते थे। दिग्विजय सिंह जब कार्यकर्ताओं को सीएम से मिलने का परामर्श देते तो अधिकतर का जबाब यही होता था कि सीएम उन्हें पहचानते ही नही है। खासकर मालवा, विंध्य, मध्य भारत बैल्ट के लोगों के साथ यह समस्या थी।5 बार के विधायक और अब शिवराज सरकार में खाद्य मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने कमलनाथ पर यही आरोप लगाया था कि वे विधायकों से मिलते नही है। चूंकि मप्र में पार्टी के चीफ भी कमलनाथ खुद ही थे इस कारण जनता और पार्टीगत नाराजगी का इनपुट आने का सिस्टम ही 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने विकसित ही नही किया। मंत्री विधायक एक दूसरे पर पैसा खाने, काम न करने के खुले आरोप लगाने लगे। यह एक मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ की नाकामी ही थी जो अंतत: उनके पतन का अहम कारण बनी। वैसे भी मप्र में कांग्रेस की सरकार कमलनाथ के चेहरे पर नही बनी थी बल्कि सभी क्षत्रपों ने अपने अपने इलाकों में अपने लोगों को टिकट बांटकर जीत के लिए जो दम लगाई उसका नतीजा थी। दूसरा पक्ष सवर्ण नाराजगी और कर्जमाफी थी जिसने बीजेपी के कोर वोटर को नाराज कर दिया था।
अब मप्र में कमलनाथ सरकार जा चुकी है और 27 सीटों पर उपचुनाव होना है पार्टी कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के कबीलों में बंटती दिख रही है। कमलनाथ बगैर जमीनी पकड़ और मेहनत के केवल अपने पुराने बैकग्राउंड के बल पर मप्र को अपने कब्जे में करना चाहते है। उन्हें अब दिग्विजयसिंह से भी खतरा लगने लगा है इसीलिए उनके विरुद्ध भी राकेश चौधरी जैसे नेताओं को सार्वजनिक रूप आगे किया जा रहा है। नेता विपक्ष का पद भी कमलनाथ खुद संभाल रहे है जबकि स्वाभाविक दावा डॉ गोविंद सिंह और केपी सिंह जैसे 6 बार के विधायकों का है। ये सभी दावेदार दिग्विजय सिंह के समर्थक है। जाहिर है कमलनाथ मप्र में सिंधिया की तरह दिग्विजय सिंह और उनकी लॉबी को मजबूत नही होने देना चाहते है। अनौपचारिक रूप से वह सरकार के पतन के लिए दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार भी बता चुके है लेकिन वह भूल गए कि अपने विधायकों पर नजर रखना और उन्हें सन्तुष्ट करना मुख्यमंत्री का काम होता है।अशोक गेहलोत इसका उदाहरण है। जाहिर कमलनाथ इस मोर्चे पर भी बुरी तरह नाकाम रहे हैं ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि करीब 60 फीसदी विधायकों से कमलनाथ का कोई पूर्व परिचय ही नही था, न टिकट वितरण, न उन्हें जिताने, न उनके लिए स्थानीय प्रबंधन में कमलनाथ की कोई भूमिका रही। मप्र के आधे जिले आज भी ऐसे है जहाँ कमलनाथ जीवन में कभी नहीं गए है। इन परिस्थितियों में अगर कमलनाथ डीपी मिश्रा की तर्ज पर मप्र की सरकार चलाने की कोशिशें कर रहे थे तब उसका पतन अवश्यंभावी ही था। आगामी उपचुनावों में कमलनाथ पार्टी के मुखिया के नाते बीजेपी और सिंधिया की तगड़ी चुनौती को कैसे पार पायेंगे? इस सवाल का जबाब बहुत कठिन नही है उनके मौजूदा वर्क कल्चर से समझा जा सकता है कि काँग्रेस भोपाल से ही मैदानी लड़ाई लडऩे वाली है। बीजेपी जहाँ दो महीने से ग्रासरूट पर फील्डिंग जमाने में जुटी है वहीं पूर्व मुख्यमंत्री और पीसीसी चीफ कांग्रेस के लड़ाकों को भोपाल बंगले पर तलब करते है। वहीं फोटो सेशन होता है और बयान जारी कर दिया जाता है कि बीजेपी केवल एक सीट जीतेगी। सवाल यह है कि भोपाल में बैठकर कमलनाथ कैसे उस सीएम और पार्टी से लड़ेंगे जो हमेशा ही इलेक्शन मोड़ में रहते है।
इसलिए मप्र का संकट तो फिलहाल कांग्रेस के लिए कमलनाथ का कल्चर ही बन गया है।
-प्रीति उपाध्याय
यह बहुत कॉमन है जब लोग हंसी-मज़ाक करने के लिए चुटकुले बनाते हैं पर जब चुटकुले साधारण हंसी मज़ाक जैसे विषयों से निकलकर कुछ गंभीर और दुखद विषयों पर खिसक जाते हैं तो ये न सिर्फ भयावह हो जाते हैं बल्कि दुखदायी भी सकते हैं। आपने अक्सर सुना होगा लोग सिक्खों (सरदारों) पर चुटकुले बनाते हैं| सबसे कॉमन तो पति-पत्नी पर केन्द्रित फ़ूहड़ चुटकुले हैं, जिसमें पत्नी को सारी मुश्किलों का जड़ बताकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। पर आपने सुना है आजकल बलात्कार पर भी चुटकुले बन रहे हैं? जी हां यह बहुत कॉमन हो चला है लोग बलात्कार पर भी जोक्स बना रहे हैं।
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है| इसी तर्ज पर इसकी सामाजिक रचना गढ़ी गयी है और इसे तमाम विचारों, कहावतों, सांस्कृतिक गतिविधियों और चुटकुलों के माध्यम से गाहे-बगाहे जिंदा रखा जाता है| अक्सर कहा जाता है कि अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए| वैसे तो हम अक्सर ये मानते हैं कि मज़ाक में इंसान ज्यादा सोचता-समझता नहीं है और मनोरंजन के नामपर कुछ भी कह-कर जाता है| लेकिन वास्तविकता इससे ठीक उलट है, इंसान जो वाकई में सोचता है, जिसे कहने-करने की हसरत हमेशा उसके दिल-दिमाग में दबी रहती है, मज़ाक में वो अपने उसी विचार को सामने लाता है|
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है|
इसलिए इस मज़ाक को हल्के में लेना कहीं से भी ठीक नहीं है| अब सवाल ये आता है कि अगर कोई महिला या पुरुष ऐसे मज़ाक करे या चुटकुले सुनाएँ तो हमें क्या करना चाहिए| ध्यान देने वाली बात ये है कि यहाँ हमारी प्रतिक्रिया क्या है या क्या होगी ये उस विचार के भविष्य के लिए बहुत मायने रखता है| विचार का भविष्य माने – उस चुटकुले को आगे भी किसी सामने सुनाया जाएगा या फिर उसका कड़ा विरोध करके उसे वहीं रोका जाएगा|
चूँकि मज़ाक में या चुटकुलों के ज़रिये कही गयी बातें हमारे मन में धीरे-धीरे अपनी पैठ जमाने और विचार बनाने का काम करते है, ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि जब महिला हिंसा, बलात्कार, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक द्वेष या किसी भी हिंसा से संबंधित विचार को हम किसी चुटकुले में सुनते हैं तो उसपर अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से अपना विरोध दर्ज करें, वो कैसे? आइये बताती हूँ –
अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए|
चेहरे पर ऐसी कोई प्रतिक्रिया न लाएं जो दर्शाए कि यह फ़ूहड़ चुटकुले आपने पसंद किया हो| आपके फेस एक्सप्रेशन से ही सामने वाले को लग जाना चाहिए कि यह टेस्ट आपका या किसी अन्य सभ्य इंसान का नहीं हो सकता।
सामने वाले को समझाएं कि बलात्कार न सिर्फ महिला के शरीर के साथ होता है बल्कि एक बलात्कर उस महिला की आत्मा और अंतर्मन को भी जीवित नहीं छोड़ता। इसलिए आइंदा ऐसे जोक न सुनाएं और जो सुनाए उसे रोकें भी।
ऐसे जोक सुनाने वाले पुरुष को बताएं कि बलात्कार से पीड़ित सिर्फ महिलाएं ही नहीं होती उस महिला से जुड़ा हुआ हर इंसान होता है।
हो सकता है आपको देखने में ये बहुत छोटी पहल लगे, पर यकीन मानिए इन छोटी पहलों का प्रभाव बेहद ज्यादा होता है| क्योंकि हम जब बार-बार किसी बात को कहते हैं तो उसकी पैठ हमारे और सुनने वाले के दिमाग में बैठती जाती है, जिससे दुबारा कभी-भी वो अगर ऐसी बातें करता है या सुनता है तो आपका विरोध उसे हमेशा याद रहेगा और वो ऐसा कहने-सुनने से पहले दो बार सोचेगा| सौ बात की एक बात, जब बात किसी भी तरह की हिंसा से जुड़ी हो तो बिना देर लिए उसपर अपना विरोध दर्ज करवाना बेहद ज़रूरी है, फिर वो कोई विचार हो या | याद रखिये – अभी नहीं तो कभी नहीं| (hindi.feminisminindia)
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
-अजय
एक कहानी है, नहीं हकीकत है। बस, उसके तथ्य ऐसे हैं कि यह किसी परीकथा जैसी लगे, पर है सोलह आने सच।
बेशक थोड़ी लंबी है लेकिन हर प्रकृति प्रेमी के लिए ऐसी है कि वह इसे जीवनभर सहेज के रखना चाहेगा, सुनना और सुनाना चाहेगा। एक वन प्रेमी पदम्श्री जादव मोलाई पायेंग की कहानी है जिन पर बनी डॉक्यूमेंट्री कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई है।
‘ब्रह्मपुत्र’ नदी को ‘पूर्वोत्तर का अभिशाप’ भी कहा जाता है। इसका कारण है कि जब यह असम तक पहुँचती है तो अपने साथ लंबी दूरी से बहाकर लाई हुई मिटटी, रेत और पहाड़ी, पथरीले अवशेष विशाल मलबे के रूप में लाती है, जिससे नदी की गहराई अपेक्षाकृत कम हो चौड़ाई में फैल किनारे के गाँवों को प्रभावित करती है। मानसून में इसके चौड़े पाट हर वर्ष पेड़-पौधों, हरियाली और गाँवों को अपने संग बहा ले जाते हैं। हर बरसात की यही कहानी है।
वर्ष 1979 में जादव 10वीं परीक्षा देने के बाद अपने गाँव में ब्रह्मपुत्र नदी के बाढ़ का पानी उतरने पर इसके बरसाती भीगे रेतीले तट पर घूम रहे थे। तभी उनकी दृष्टि लगभग 100 मृत साँपों के झुंड पर पड़ी। जैसे उन सांपों ने जीवन बचाने का संघर्ष अंत तक किया हो। आगे बढ़ते गए तो पूरा नदी का किनारा मरे हुए जीव-जन्तुओं से अटा पड़ा एक मरघट-सा था। मृत जानवरों के कारण पैर रखने की जगह नहीं थी। इस दर्दनाक दृश्य ने जाधव के किशोर मन को झकझोर दिया। रातों की नींद उड़ गई।
गाँव के ही एक आदमी ने जादव से कहा- जब पेड़-पौधे ही नहीं उग रहे हैं तो नदी के रेतीले तटों पर जानवरों को बाढ़ से बचने आश्रय कहाँ मिले? जंगलों के बिना इन्हें भोजन कैसे मिले?
बात मन में पत्थर की लकीर बन गई कि जानवरों को बचाने के लिये पेड़-पौधे लगाने होंगे। 50 बीज और 25 बाँस के पेड़ लिए 16 वर्ष के जादव पहुँच गए नदी के रेतीले किनारे पर रोपने। ये आज से 35 वर्ष पुरानी बात है। उस दिन का दिन था और आज का दिन। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इन 35 वर्षों में जाधव ने 1360 एकड़ का जंगल बिना किसी सरकारी सहायता के लगा डाला?
क्या आप भरोसा करेंगे के एक अकेले आदमी के लगाये जंगल में 5 बंगाल टाइगर, 100 से ज्यादा हिरन, जंगली सुअर, 150 जंगली हाथियों का झुण्ड, गेंडे और अनेक जंगली पशु घूम रहे हैं? अरे हाँ! वे साँप भी जिन्होंने इस अद्भुत नायक को जन्म दिया।
जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाने सुबह 9 बजे से 5 किलोमीटर साईकल से जाने के बाद, नदी पार करते और दूसरी तरफ वृक्षारोपण कर फिर साँझ ढले नदी पारकर साइकिल 5 किलोमीटर तय कर घर पहुँचते।
इनके लगाए पेड़ों में कटहल, गुलमोहर, अन्नानास, बाँस, साल, सागौन, सीताफल, आम, बरगद, शहतूत, जामुन, आडू और कई औषधीय पौधे हैं। परन्तु सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि इस साधक से 2012 तक देश अनजान था। यह लौहपुरुष अपने धुन में अकेला असम के जंगलों में साईकल में पौधों से भरा एक थैला लिए अपने बनाए जंगल में गुमनाम सफर कर रहा था।
सबसे पहले वर्ष 2010 में देश की दृष्टि में आये जब Wild photographer जीतू कलिता ने इन पर documentary film बनाई The Molai Forest. यह film देश के नामी विश्वविद्यालयों में दिखाई गई। दूसरी फिल्म आरती श्रीवास्तव की 'Foresting Life' जिसमें जाधव के जीवन के अनछुए पहलुओं और परेशानियों को दिखाया। तीसरी फिल्म ‘Forest Man’ जो कान फिल्म महोत्सव में भी काफी सराही गई।
एक अकेला व्यक्ति वन विभाग की सहायता के बिना, किसी सरकारी आर्थिक सहायता के बिना इतने पिछड़े इलाके से कि जिसके पास पहचान पत्र के रूप में राशन कार्ड तक नहीं है, ने हज़ारों एकड़ में फैला पूरा जंगल खड़ा कर दिया। असम के इन जंगलों को ‘मिशिंग जंगल’ कहते हैं (जाधव असम की मिशिंग जनजाति से हैं)।
जीवनयापन करने के लिए इन्होंने गाय पाल रखी हैं। शेरों द्वारा आजीविका के साधन उनके पालतू पशुओं को खा जाने के बाद भी जंगली जानवरों के प्रति इनकी करुणा कम न हुई। शेरों ने मेरा नुकसान किया क्योंकि वो अपनी भूख मिटाने के लिए खेती करना नहीं जानते।
आप जंगल नष्ट करोगे वो आपको नष्ट करेंगे। 2015 में महामहिम राष्ट्रपति ने ‘पद्मश्री’ से अलंकृत होनेवाले जाधव आज भी असम में बाँस के बने एक कमरे के छोटे-से कच्चे झोपड़े में अपनी पुरानी में दिनचर्या लीन हैं। तमाम सरकारी प्रयासों, वृक्षारोपण के नाम पर लाखो रुपये के पौधों की खरीदी करके भी ये पर्यावरण, वन-विभाग वो स्थान प्राप्त न कर पाये जो एक अकेले की इच्छाशक्ति ने कर दिखाया। सायकल पर जंगली पगडण्डियों में पौधों से भरे झोले और कुदाल के साथ हरी-भरी प्रकृति की अनवरत साधना में ये निस्वार्थ पुजारी।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, कहावत को जादव मोलाई पायेंग जी ने गलत सिद्ध कर दिया। पर्यावरण के लिए असीम स्नेह रखने वाले इस भारत माँ के लाल के से अपने बच्चों, अपने मित्रों को भी परिचित कराने की ज़रूरत है।
है न!
जानकारियां और pics इंटरनेट से निकाले गए हैं जिन्हें क्रॉस चेक किया जा सकता है।
-रेहान फ़ज़ल
21 साल पहले कारगिल की पहाड़ियों पर भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई हुई थी. इस लड़ाई की शुरुआत तब हुई थी जब पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर घुसपैठ करके अपने ठिकाने बना लिए थे.
8 मई, 1999. पाकिस्तान की 6 नॉरदर्न लाइट इंफ़ैंट्री के कैप्टेन इफ़्तेख़ार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आज़म चौकी पर बैठे हुए थे. उन्होंने देखा कि कुछ भारतीय चरवाहे कुछ दूरी पर अपने मवेशियों को चरा रहे थे.
पाकिस्तानी सैनिकों ने आपस में सलाह की कि क्या इन चरवाहों को बंदी बना लिया जाए? किसी ने कहा कि अगर उन्हें बंदी बनाया जाता है, तो वो उनका राशन खा जाएंगे जो कि ख़ुद उनके लिए भी काफ़ी नहीं है. उन्हें वापस जाने दिया गया. क़रीब डेढ़ घंटे बाद ये चरवाहे भारतीय सेना के 6-7 जवानों के साथ वहाँ वापस लौटे.
भारतीय सैनिकों ने अपनी दूरबीनों से इलाक़े का मुआयना किया और वापस चले गए. क़रीब 2 बजे वहाँ एक लामा हेलिकॉप्टर उड़ता हुआ आया.
इतना नीचे कि कैप्टेन इफ़्तेख़ार को पायलट का बैज तक साफ़ दिखाई दे रहा था. ये पहला मौक़ा था जब भारतीय सैनिकों को भनक पड़ी कि बहुत सारे पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की पहाड़ियों की ऊँचाइयों पर क़ब्ज़ा जमा लिया है.
कारगिल पर मशहूर किताब 'विटनेस टू ब्लंडर- कारगिल स्टोरी अनफ़ोल्ड्स' लिखने वाले पाकिस्तानी सेना के रिटायर्ड कर्नल अशफ़ाक़ हुसैन ने बीबीसी को बताया, "मेरी ख़ुद कैप्टेन इफ़्तेख़ार से बात हुई है. उन्होंने मुझे बताया कि अगले दिन फिर भारतीय सेना के लामा हेलिकॉप्टर वहाँ पहुंचे और उन्होंने आज़म, तारिक़ और तशफ़ीन चौकियों पर जम कर गोलियाँ चलाईं. कैप्टेन इफ़्तेख़ार ने बटालियन मुख्यालय से भारतीय हेलिकॉप्टरों पर गोली चलाने की अनुमति माँगी लेकिन उन्हें ये इजाज़त नहीं दी गई, क्योंकि इससे भारतीयों के लिए 'सरप्राइज़ एलिमेंट' ख़त्म हो जाएगा."
भारत के राजनीतिक नेतृत्व को भनक नहीं
उधर भारतीय सैनिक अधिकारयों को ये तो आभास हो गया कि पाकिस्तान की तरफ़ से भारतीय क्षेत्र में बड़ी घुसपैठ हुई है लेकिन उन्होंने समझा कि इसे वो अपने स्तर पर सुलझा लेंगे. इसलिए उन्होंने इसे राजनीतिक नेतृत्व को बताने की ज़रूरत नहीं समझी.
कभी इंडियन एक्सप्रेस के रक्षा मामलों के संवाददाता रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह याद करते हैं, "मेरे एक मित्र उस समय सेना मुख्यालय में काम किया करते थे. फ़ोन करके कहा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. मैं उनके घर गया. उन्होंने मुझे बताया कि सीमा पर कुछ गड़बड़ है क्योंकि पूरी पलटन को हेलिकॉप्टर के माध्यम से किसी मुश्किल जगह पर भेजा गया है किसी घुसपैठ से निपटने के लिए. सुबह मैंने पापा को उनको सारी बात बताई उन्होंने तब के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस को फ़ोन किया. वे अगले दिन रूस जाने वाले थे. उन्होंने अपनी यात्रा रद्द की और इस सरकार को घुसपैठ के बारे में पहली बार पता चला."
मक़सद था सियाचिन से भारत को अलग-थलग करना
दिलचस्प बात ये थी कि उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक भी पोलैंड और चेक गणराज्य की यात्रा पर गए हुए थे. वहाँ उनको इसकी पहली ख़बर सैनिक अधिकारियों से नहीं, बल्कि वहाँ के भारतीय राजदूत के ज़रिए मिली.
सवाल उठता है कि लाहौर शिखर सम्मेलन के बाद पाकिस्तानी सैनिकों के इस तरह गुपचुप तरीक़े से कारगिल की पहाड़ियों पर जा बैठने का मक़सद क्या था?
इंडियन एक्सप्रेस के एसोसिएट एडिटर सुशांत सिंह कहते हैं, "मक़सद यही था कि भारत की सुदूर उत्तर की जो टिप है जहाँ पर सियाचिन ग्लेशियर की लाइफ़ लाइन एनएच 1 डी को किसी तरह काट कर उस पर नियंत्रण किया जाए. वो उन पहाड़ियों पर आना चाहते थे जहाँ से वो लद्दाख़ की ओर जाने वाली रसद के जाने वाले क़ाफ़िलों की आवाजाही को रोक दें और भारत को मजबूर हो कर सियाचिन छोड़ना पड़े."
सुशांत सिंह का मानना है कि मुशर्रफ़ को ये बात बहुत बुरी लगी थी कि भारत ने 1984 में सियाचिन पर क़ब्ज़ा कर लिया था. उस समय वो पाकिस्तान की कमांडो फ़ोर्स में मेजर हुआ करते थे. उन्होंने कई बार उस जगह को ख़ाली करवाने की कोशिश की थी लेकिन वो सफल नहीं हो पाए थे.
जब दिलीप कुमार ने नवाज़ शरीफ़ को लताड़ा
जब भारतीय नेतृत्व को मामले की गंभीरता का पता चला तो उनके पैरों तले ज़मीन निकल गई. भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन मिलाया.
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा 'नीदर अ हॉक नॉर अ डव' में लिखते हैं, "वाजपेयी ने शरीफ़ से शिकायत की कि आपने मेरे साथ बहुत बुरा सलूक किया है. एक तरफ़ आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे थे, दूसरी तरफ़ आप के लोग कारगिल की पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे. नवाज़ शरीफ़ ने कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. मैं परवेज़ मुशर्रफ़ से बात कर आपको वापस फ़ोन मिलाता हूँ. तभी वाजपेयी ने कहा आप एक साहब से बात करें जो मेरे बग़ल में बैठे हुए हैं."
नवाज़ शरीफ़ उस समय सकते में आ गए जब उन्होंने फ़ोन पर मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार की आवाज़ सुनी. दिलीप कुमार ने उनसे कहा, "मियाँ साहब, हमें आपसे इसकी उम्मीद नहीं थी क्योंकि आपने हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की बात की है. मैं आपको बता दूँ कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, भारतीय मुसलमान बुरी तरह से असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उनके लिए अपने घर से बाहर निकलना भी मुहाल हो जाता है."
रॉ को दूर-दूर तक हवा नहीं
सबसे ताज्जुब की बात थी कि भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को इतने बड़े ऑपरेशन की हवा तक नहीं लगी.
भारत के पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त और बाद में बनाई गई कारगिल जाँच समिति के सदस्य सतीश चंद्रा बताते हैं, "रॉ इसको बिल्कुल भी भांप नहीं पाया. पर सवाल खड़ा होता है कि क्या वो इसे भाँप सकते थे? पाकिस्तानियों ने कोई अतिरिक्त बल नहीं मंगवाया. रॉ को इसका पता तब चलता जब पाकिस्तानी अपने 'फ़ॉरमेशंस' को आगे तैनाती के लिए बढ़ाते."
सामरिक रूप से पाकिस्तान का ज़बरदस्त प्लान
इस स्थिति का जिस तरह से भारतीय सेना ने सामना किया उसकी कई हल्क़ों में आलोचना हुई. पूर्व लेफ़्टिनेंट जनरल हरचरणजीत सिंह पनाग जो बाद में कारगिल में तैनात भी रहे, वे कहते हैं, "मैं कहूँगा कि ये पाकिस्तानियों का बहुत ज़बरदस्त प्लान था कि उन्होंने आगे बढ़कर ख़ाली पड़े बहुत बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया. वो लेह कारगिल सड़क पर पूरी तरह से हावी हो गए. ये उनकी बहुत बड़ी कामयाबी थी."
लेफ़्टिनेंट पनाग कहते हैं, "3 मई से लेकर जून के पहले हफ़्ते तक हमारी सेना का प्रदर्शन 'बिलो पार' यानी सामान्य से नीचे था. मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि पहले एक महीने हमारा प्रदर्शन शर्मनाक था. उसके बाद जब 8वीं डिवीजन ने चार्ज लिया और हमें इस बात का एहसास होने लगा कि उस इलाक़े में कैसे काम करना है, तब जाकर हालात सुधरना शुरू हुए. निश्चित रूप से ये बहुत मुश्किल ऑपरेशन था क्योंकि एक तो पहाड़ियों में आप नीचे थे और वो ऊँचाइयों पर थे."
पनाग हालत को कुछ इस तरह समझाते हैं, "ये उसी तरह हुआ कि आदमी सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ है और आप नीचे से चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश कर रहे हो. दूसरी दिक़्क़त थी उस ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी. तीसरी बात ये थी कि आक्रामक पर्वतीय लड़ाई में हमारी ट्रेनिंग भी कमज़ोर थी."
क्या कहते हैं जनरल मुशर्रफ़
जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी बार-बार दोहराया कि उनकी नज़र में ये बहुत अच्छा प्लान था, जिसने भारतीय सेना को ख़ासी मुश्किल में डाल दिया था.
मुशर्रफ़ ने अपनी आत्मकथा 'इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर' में लिखा, "भारत ने इन चौकियों पर पूरी ब्रिगेड से हमले किए, जहाँ हमारे सिर्फ़ आठ या नौ सिपाही तैनात थे. जून के मध्य तक उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. भारतीयों ने ख़ुद माना कि उनके 600 से अधिक सैनिक मारे गए और 1500 से अधिक ज़ख़्मी हुए. हमारी जानकारी ये है कि असली संख्या लगभग इसकी दोगुनी थी. असल में भारत में हताहतों की बहुत बड़ी तादाद के कारण ताबूतों की कमी पड़ गई थी और बाद में ताबूतों का एक घोटाला भी सामने आया था."
तोलोलिंग पर क़ब्ज़े ने पलटी बाज़ी
जून का दूसरा हफ़्ता ख़त्म होते होते चीज़ें भारतीय सेना के नियंत्रण में आने लगी थीं. मैंने उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक से पूछा कि इस लड़ाई का निर्णायक मोड़ क्या था? मलिक का जवाब था 'तोलोलिंग पर जीत. वो पहला हमला था जिसे हमने को-ऑरडिनेट किया था. ये बहुत बड़ी सफलता थी हमारी. चार-पाँच दिन तक ये लड़ाई चली. ये लड़ाई इतनी नज़दीक से लड़ी गई कि दोनों तरफ़ के सैनिक एक दूसरे को गालियाँ दे रहे थे और वो दोनों पक्षों के सैनिकों को सुनाई भी दे रही थी."
जनरल मलिक कहते हैं, "हमें इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. हमारी बहुत कैजुएल्टीज़ हुईं. छह दिनों तक हमें भी घबराहट-सी थी कि क्या होने जा रहा है लेकिन जब वहाँ जीत मिली तो हमें अपने सैनिकों और अफ़सरों पर भरोसा हो गया कि हम इन्हें क़ाबू में कर लेंगे."
कारगिल पर एक पाकिस्तानी जवान को हटाने के लिए चाहिए थे 27 जवान
ये लड़ाई क़रीब 100 किलोमीटर के दायरे में लड़ी गई जहाँ क़रीब 1700 पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा के क़रीब 8 या 9 किलोमीटर अंदर घुस आए. इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 527 सैनिक मारे गए और 1363 जवान आहत हुए.
वरिष्ठ पत्रकार सुशांत सिंह बताते हैं, "फ़ौज में एक कहावत होती है कि 'माउंटेन ईट्स ट्रूप्स,' यानी पहाड़ सेना को खा जाते हैं. अगर ज़मीन पर लड़ाई हो रही हो तो आक्रामक फ़ौज को रक्षक फ़ौज का कम से कम तीन गुना होना चाहिए. पर पहाड़ों में ये संख्या कम से कम नौ गुनी और कारगिल में तो सत्ताइस गुनी होनी चाहिए. मतलब अगर वहाँ दुश्मन का एक जवान बैठा हुआ है तो उसको हटाने के लिए आपको 27 जवान भेजने होंगे. भारत ने पहले उन्हें हटाने के लिए पूरी डिवीजन लगाई और फिर अतिरिक्त बटालियंस को बहुत कम नोटिस पर इस अभियान में झोंका गया."
पाकिस्तानियों ने गिराए भारत के दो जेट और एक हेलिकॉप्टर
मुशर्रफ़ आख़िर तक कहते रहे कि अगर पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ने उनका साथ दिया होता तो कहानी कुछ और होती.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, "भारत ने अपनी वायु सेना को शामिल कर एक तरह से 'ओवर-रिएक्ट' किया. उसकी कार्रवाई मुजाहिदीनों के ठिकानों तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने सीमा पार कर पाकिस्तानी सेना के ठिकानों पर भी बम गिराने शुरू कर दिए. नतीजा ये हुआ कि हमने पाकिस्तानी ज़मीन पर उनका एक हेलिकॉप्टर और दो जेट विमान मार गिराए."
भारतीय वायु सेना और बोफ़ोर्स तोपों ने बदला लड़ाई का रुख़
ये सही है कि शुरू में भारत को अपने दो मिग विमान और हेलिकॉप्टर खोने पड़े लेकिन भारतीय वायु सेना और बोफ़ोर्स तोपों ने बार-बार और बुरी तरह से पाकिस्तानी ठिकानों को 'हिट' किया.
नसीम ज़ेहरा अपनी किताब 'फ़्रॉम कारगिल टू द कू' में लिखती हैं कि 'ये हमले इतने भयानक और सटीक थे कि उन्होंने पाकिस्तानी चौकियों का 'चूरा' बना दिया. पाकिस्तानी सैनिक बिना किसी रसद के लड़ रहे थे और बंदूक़ों का ढंग से रख-रखाव न होने की वजह से वो बस एक छड़ी बन कर रह गई थीं."
भारतीयों ने ख़ुद स्वीकार किया किया कि एक छोटे-से इलाक़े पर सैकड़ों तोपों की गोलेबारी उसी तरह थी जैसे किसी अख़रोट को किसी बड़े हथौड़े से तोड़ा जा रहा हो.' कारगिल लड़ाई में कमांडर रहे लेफ़्टिनेंट जनरल मोहिंदर पुरी का मानना है कि कारगिल में वायु सेना की सबसे बड़ी भूमिका मनोवैज्ञानिक थी. जैसे ही ऊपर से भारतीय जेटों की आवाज़ सुनाई पड़ती, पाकिस्तानी सैनिक दहल जाते और इधर-उधर भागने लगते.
क्लिन्टन की नवाज़ शरीफ़ से दो टूक
जून के दूसरे सप्ताह से भारतीय सैनिकों को जो 'मोमेनटम' मिला, वो जुलाई के अंत तक जारी रहा. आख़िरकार नवाज़ शरीफ़ को युद्ध विराम के लिए अमरीका की शरण में जाना पड़ा. अमरीका के स्वतंत्रता दिवस यानी 4 जुलाई, 1999 के शरीफ़ के अनुरोध पर क्लिन्टन और उनकी बहुत अप्रिय परिस्थितियों में मुलाक़ात हुई.
उस मुलाक़ात में मौजूद क्लिन्टन के दक्षिण एशियाई मामलों के सहयोगी ब्रूस राइडिल ने अपने एक पेपर 'अमरिकाज़ डिप्लोमेसी एंड 1999 कारगिल समिट' में लिखा, 'एक मौक़ा ऐसा आया जब नवाज़ ने क्लिन्टन से कहा कि वो उनसे अकेले में मिलना चाहते हैं. क्लिन्टन ने रुखेपन से कहा ये संभव नहीं है. ब्रूस यहाँ नोट्स ले रहे हैं. मैं चाहता हूँ कि इस बैठक में हमारे बीच जो बातचीत हो रही है, उसका दस्तावेज़ के तौर पर रिकॉर्ड रखा जाए."
राइडिल ने अपने पेपर में लिखा है, "क्लिन्टन ने कहा मैंने आपसे पहले ही कहा था कि अगर आप बिना शर्त अपने सैनिक नहीं हटाना चाहते, तो यहाँ न आएं. अगर आप ऐसा नहीं करते तो मेरे पास एक बयान का मसौदा पहले से ही तैयार है जिसमें कारगिल संकट के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान को ही दोषी ठहराया जाएगा. ये सुनते ही नवाज़ शरीफ़ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं."
उस पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य तारिक फ़ातिमी ने 'फ़्रॉम कारगिल टू कू' पुस्तक की लेखिका नसीम ज़ेहरा को बताया कि 'जब शरीफ़ क्लिन्टन से मिल कर बाहर निकले तो उनका चेहरा निचुड़ चुका था. उनकी बातों से हमें लगा कि उनमें विरोध करने की कोई ताक़त नहीं बची थी.' उधर शरीफ़ क्लिन्टन से बात कर रहे थे, टीवी पर टाइगर हिल पर भारत के क़ब्ज़े की ख़बर 'फ़्लैश' हो रही थी.
ब्रेक के दौरान नवाज़ शरीफ़ ने मुशर्रफ़ को फ़ोन कर पूछा कि क्या ये ख़बर सही है? मुशर्रफ़ ने इसका खंडन नहीं किया.(bbc)
-अनुराग भारद्वाज
कारगिल की जंग देश की सेना के अफ़सरों और जवानों के अदम्य साहस की दास्तां है. एक तरफ यह स्क्वैड्रन लीडर अजय आहूजा, लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया, कैप्टेन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट हनीफउद्दीन, हवलदार अब्दुल करीम, और राइफलमैन संजय कुमार जैसे जाबाज़ सैनिकों के बलिदान की गाथा है तो दूसरी ओर यह राजनैतिक भूल, विश्वासघात और खुफिया व्यवस्था के विफल होने की कीमत भी है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह भी कहा जा सकता है कि कारगिल की लड़ाई पूरे सिस्टम की चूक का नतीजा थी. आइए, अलग-अलग स्रोतों के हवाले से इस जंग से जुड़े पूरे घटनाक्रम पर नजर डालते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि स्थितियां यहां तक कैसे पहुंचीं.
शुरुआत
तीन मई, 1999 की बात है. कश्मीर के बटालिक में ताशी नमगयाल और त्सेरिंग मोरूप नाम के दो गड़रियों ने काली सलवार कमीज़ पहने कई लोगों को बर्फीले इलाकों में इस्तेमाल की जाने वाली सफ़ेद जैकेट पहने पहाड़ों पर चढ़ते देखा. लंबी दाढ़ी वाले इन लोगों के हाव-भाव कुछ अलग थे. सेना के मुखबिर दोनों गड़रियों ने जाकर हिंदुस्तानी फौजी अफसरों को खबर पहुंचा दी. अफसरों ने सुना और बात आगे बढ़ा दी.
बात छुपाई गई
इसके दो दिन बाद लेफ्टिनेंट जनरल निर्मल चंद्र विज, जो डायरेक्टर जनरल (मिलिट्री ऑपरेशंस) के महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे थे, कारगिल गए. वे वहां तैनात जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल वीएस बधवार और कारगिल ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह से मिले. काले-सलवार कमीज़ पहने लोगों की बात उन्हें नहीं बताई गयी.
सेना प्रमुख वीपी मलिक का विदेशी दौरा
10 मई को तत्कालीन सेनाध्यक्ष वीपी मलिक पोलैंड और चेक गणराज्य के दौरे पर निकल गए. कारण था वहां की कंपनियों के साथ सेना को गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए करार. इधर, बटालिक, मुश्कोह और द्रास में हलचल बढ़ गई थी. लेकिन बताते हैं कि जब हर शाम वे खोज-खबर लेने के लिए फ़ोन करते तो उन्हें सब-कुछ ठीक-ठाक होने या छुटपुट वारदात की बात ही बताई जाती.
जब लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और जवान वापस नहीं लौटे
लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी यूनिट के छह जवान काकसार पहाड़ों पर गश्त करने निकले थे. वे वापस नहीं आये तो खोज-खबर हुई. काफ़ी दिनों तक तो देश को यही बताया गया कि पाकिस्तान की तरफ से छुटपुट गोलाबारी हो रही है और उसका माकूल जवाब दिया जा रहा है. बाद में सौरभ कालिया और जवानों के क्षत-विक्षत शव लौटाए गए.
रक्षा मंत्री का दौरा
तब तक रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस को कुछ-कुछ आभास होने लगा था. वे कारगिल दौरे पर चले गए. इसके बाद उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया, ‘हां, कुछ 100-150 आतंकवादी घुस आये हैं. उन्हें 48 घंटों में बाहर निकाल दिया जाएगा.’
इस पूरी जंग को देखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के गौरव सावंत ने इस पर ‘डेटलाइन कारगिल’ नाम से किताब भी लिखी है. सावंत के मुताबिक उन्होंने कमांड के अफ़सरों से पूछा कि 48 घंटों में आतंकवादियों को निकाल बाहर करने की घोषणा फर्नांडिस साहब ने की थी, उसका क्या हुआ? उन्हें जवाब मिला, ‘हमने फर्नांडिस से ये कहा था कि कारगिल में सही हालात का जायज़ा 48 घंटे बाद ही मिल पायेगा.’
तो सही स्थिति का पता कब चला?
नीचे से बैठकर और ख़राब मौसम की वजह से ऊपर की चोटियों का सही आकलन नहीं हो पा रहा था. 17 मई को चोटियों का पहला हवाई सर्वेक्षण किया गया. 21 मई को जब दूसरा हवाई जहाज द्रास, कारगिल और बटालिक की चोटियों की सही स्थिति जानने के लिए गया तो वहां उस पर स्टिंगर मिसाइल से हमला हुआ. पायलट ए पेरूमल दुर्घटनाग्रस्त जहाज को सकुशल वापस ले आये और आकर उन्होंने वहां के हालात बताए. तब जाकर मालूम हुआ कि वो ‘काली सलवार वाले’ पूरे लाव-लश्कर से साथ एक-एक चोटी पर मजबूती से बैठे हैं और उनकी संख्या 100-150 की नहीं बल्कि पूरी-पूरी आर्मी यूनिट जैसी है!
ऑपरेशन विजय की शुरुआत और जीत के साथ खात्मा
जनरल मलिक 21 मई को भारत वापस आये. वे लाहौर समझौते को अपनी जीत मानने वाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले. सेना के मुखिया ने प्रधानमंत्री को बताया कि उनकी पीठ पर छुरा घोंप दिया गया है. 26 मई, 1999 को सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ और एयर फ़ोर्स ने ‘ऑपरेशन सफ़ेद सागर’ शुरू किया. ठीक दो महीने बाद यानी 26 जुलाई को यह भारतीय सेना की जीत के साथ खत्म हुआ.
पहाड़ की लड़ाई में फ़ायदा उसे मिलता है जो ऊपर बैठा होता है, पर कई मौकों पर जीत उसकी होती है जो नीचे है क्योंकि नीचे वाली सेना अपने साज़ो-सामान को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जा सकती है. अंततः जीत भारत की हुई थी, लेकिन नुकसान भी हमारा ज़्यादा हुआ था. कारगिल में सेना के कुल 34 अफसर और 493 जवान शहीद हुए और 1363 घायल. आर्थिक तौर देश को लगभग दो हज़ार करोड़ की चपत लगी थी.
खुफिया तंत्र की विफलता
कारगिल की जंग खुफिया तंत्र की विफलता भी थी. मिलिट्री इंटेलिजेंस यूनिट और रॉ जैसी पेशेवर संस्थाएं पाकिस्तानी हलचल को भांप नहीं पाई थीं.अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने कारगिल पर भारतीय सेना के रिटायर्ड अफ़सर सुरेंद्र राणा और अमेरिका के नौसेना पोस्टग्रेजुएट स्कूल के जेम्स जे विर्त्ज़ द्वारा तैयार एक रिपोर्ट पेश की थी. यह इस बात का इशारा करती है कि कारगिल भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता का नतीजा था. रिपोर्ट में लिखा है कि रॉ जैसी संस्था का भारतीय सेना के प्रति उदासीन रवैया है. यह भी कि जो रिपोर्ट रॉ के अफसर भेजते हैं वह अक्सर स्तरीय नहीं होती और उसके अफसर सेना के अफसरों के साथ तालमेल नहीं रखते. रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि देश का ख़ुफ़िया तंत्र अपारदर्शिता और आपसी तालमेल की कमी जैसी कई समस्याओं से जूझ रहा है.
रॉ ने कारगिल की जिम्मेदरी से साफ पल्ला झाड़ लिया था. उसके अफ़सरों ने दलील दी थी कि संस्था का काम रणनीतिक जानकारियां देना था और सामरिक जानकारी तो मिलिट्री इंटेलिजेंस को जुटानी थी. जो भी हो, दोनों संस्थाओं की मिली-जुली चूक देश पर भारी पड़ी.
राजनैतिक पहलू
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अप्रैल 1999 की गई लाहौर यात्रा और इस दौरान हुए समझौते की झोंक में राजनेता समझ ही नहीं पाए कि पाकिस्तान उलटी चाल भी चल सकता है. वे इस घुसपैठ को कश्मीरी जेहादियों की समस्या मानकर ही देख रहे थे.
सेना के अफ़सरों की चूक
गड़रियों की खबर को संजीदगी से नहीं लिया गया था. ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह, मेजर जनरल वीएस बधवार और लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल, तीनों के बीच में आपसी तालमेल और विश्वास की कमी भी रही. जिस ब्रिगेडियर की एसीआर में बधवार साहब ने तारीफों के पुल बांधे थे उसी ब्रिगेडियर पर उन्होंने इस हादसे का ठीकरा यह कहकर फोड़ दिया कि उन्होंने सीमा पर गश्त में ढिलाई बरती. उनका यह भी कहना था कि ब्रिगेडियर ने उन्हें गड़रियों वाली कोई जानकारी नहीं दी.
उधर, ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह का कहना था कि उन्होंने कारगिल में पाकिस्तान की बढती गतिविधि की जानकारी मेजर जनरल बधवार को बार-बार दी. और यह भी कि उन्होंने ज़्यादा फ़ोर्स और सीमा पर बेहतर निगरानी के साज़ो-सामान मांगे थे जो कमांड ने नहीं दिए.
पाकिस्तान ने यह दुस्साहस क्यों किया
भारत-पाकिस्तान में एक अलिखित समझौता था कि सर्दियों में पहाड़ों से अपने-अपने सैनिक वापस बुला लिए जाएंगे और जब गर्मियां शुरु होंगी तो फिर अपनी-अपनी चौकी स्थापित कर ली जायेगी. पाकिस्तान ने इसमें वादा खिलाफी की. सर्दियों में जब भारतीय सेना वहां पर नहीं थी, उसने अपने सैनिक भेजकर हर एक चोटी पर कब्ज़ा कर लिया था. चूंकि उन चोटियों से लेह और लद्दाख जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीधा हमला बोला जा सकता था, पाकिस्तानी सेना ने प्लान बनाया कि इससे वह देश का लद्दाख से संपर्क तोड़ देगी और फिर इसके ज़रिए कश्मीर मुद्दे पर फ़ायदा उठा लिया जायेगा.
शुरुआत में तो पाकिस्तान कहता रहा कि वे उसके सैनिक नहीं बल्कि कश्मीर की आज़ादी की जंग लड़ने वाले सिपाही हैं. भारतीय सेना के सबूत दिए जाने के बाद भी पाकिस्तान अपने सैनिक होने की बात नकारता रहा.
इस युद्ध के दौरान नवाज़ शरीफ जब अमेरिका गए तो उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दुस्साहस पर झाड़ लगायी. अपनी किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ जनरल मलिक लिखते हैं कि लगभग गिड़गिड़ाते हुए शरीफ ने क्लिंटन से यह कहते हुए सहयोग मांगा कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो पाकिस्तान में उनकी जान को खतरा हो जाएगा. लेकिन बिल क्लिंटन ने मना कर दिया और उनके दबाव के बाद शरीफ अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर मजबूर हुए.
एक पुराना घाव
कारगिल जंग के बीज 1984 में ही पनपने लग गए थे जब सियाचिन को लेकर हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच तनातनी शुरु हो गयी थी. सियाचन ग्लेशियर काराकोरम पर्वतमाला का हिस्सा है. यह दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध का मैदान है. 1949 में हुए कराची समझौते के तहत सियाचिन हिंदुस्तान का हिस्सा है. यह बात पाकिस्तान को नागवार थी.
1984 में खुफिया विभाग की कुछ रिपोर्टों में इस बात का खुलासा हुआ कि पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर पर अपने सैनिक भेज कर इसे हथियाना चाहता है. भारतीय सुरक्षा तंत्र तुरंत हरकत में आ गया. अप्रैल 1984 में सेना ने ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया और सियाचिन पर अपने सैनिक भेजकर एक तरह से इसकी घेराबंदी कर ली. इस तरह तकरीबन पूरा ग्लेशियर भारत के पास आ गया.
1987 में पाकिस्तानी सेना ने एक ब्रिगेडियर की अगुवाई में धावा बोलते हुए इसके कुछ हिस्से हथिया लिए. भारतीय सेना ने पलटवार किया और नायब सूबेदार बानासिंह के नेतृत्व में पाकिस्तान की सबसे ऊंची पोस्ट ‘क़ायदे आज़म’ पर फ़तेह पा ली. तब इस हार से बौखलाई बेनजीर भुट्टो ने अपनी ही सेना पर तंज़ कसते हुए कहा था, ‘पाकिस्तानी सेना अपने ही लोगों के खिलाफ़ लड़ सकती है.’ शायद सबसे ज़्यादा बौखलाहट उस पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को हुई थी जो उस जंग को हार गया था. तभी शायद जब वह पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष बना तो उसने कारगिल को अंजाम दिया. उस ब्रिगेडियर का नाम था परवेज़ मुशर्रफ.
जनरल मलिक लिखते हैं, ‘पाकिस्तान को सियाचिन की हार आज भी चुभती है. इसका उसकी सेना पर भारी मानसिक दवाब है.’ वे आगे लिखते हैं, ‘ऐसा अक्सर कहा जाता रहा था कि पाकिस्तान के पूर्व जनरल मिर्ज़ा असलम बेग ने अपनी सरकार को 1987 में सियाचिन की हार का बदला लेने के लिए कारगिल में सैन्य ऑपरेशन का सुझाव दिया था.
चलते-चलते
जंग दो जनरलों के रणनीतिक कौशल और अहम का भी टकराव होती है. जब प्रधानमंत्री वाजपेयी लाहौर गए थे तो जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें सैल्यूट करने से इनकार कर दिया था. जब मुशर्रफ़ बतौर पाकिस्तानी राष्ट्रपति भारत आये तो तत्कालीन एयर चीफ मार्शल यशवंत टिपणिस ने उन्हें सैलूट नहीं किया.
जनरल वेद प्रकाश मलिक का जन्म पाकिस्तान के डेरा इस्माइल खां में हुआ था. परवेज़ मुशर्रफ़ का जन्म दिल्ली में!
कारगिल युद्ध 26 जुलाई 1999 को खतम हुआ. ठीक उसी दिन पाकिस्तान की जेल में रॉ के एजेंट रवींद्र कौशिक की मृत्यु हुई. ‘एक था टाइगर’ रवींद्र कौशिक की ही कहानी बताई जाती है.(satyagrah)
देवेन्द्र वर्मा
पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा
संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ
संसदीय प्रजातंत्र अर्थात जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का शासन। क्या यह मूलाधार राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान और राजनीति के क्षेत्र में लगभग 50 वर्ष का अनुभव प्राप्त व्यक्ति के संज्ञान में नहीं है,यह प्रश्न बार-बार विचार में आता है और ऐसा विश्वास भी नहीं होता। तब क्या यह बात विश्वास योग्य है, जो राजस्थान के परिपेक्ष में इन दिनों देश में न केवल चर्चा में, अपितु समाचार पत्रों एवं मीडिया में भी सुनाई आ रही है कि राजस्थान के राज्यपाल पर ऊपर से दबाव है?
राज्यपाल के पद पर विराजमान व्यक्ति भारत के संविधान जिसका मूलाधार गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 है, के तहत केंद्र का प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिए नियुक्त किया जाता है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि यदि राज्यों में संविधान के प्रावधानों का पूर्ण तरह पालन नही हो रहा हो, तथा यदि कोई असंवैधानिक कार्य होता दिखे तो वह समुचित कार्यवाही करें।
किंतु कितना आश्चर्यजनक है कि जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, उन पर संविधान के प्रावधानों का मखोल उड़ाने के आरोप लग रहे हैं। संसदीय प्रणाली एवं व्यवस्था में संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत सामान्यत: प्रत्येक 5 वर्ष में जनता के द्वारा उनके प्रतिनिधि को निर्वाचित किया जाता है। जो राज्यों के लिए विधानसभा और देश के लिए लोकसभा में अपने-अपने प्रदेश तथा देश की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। अर्थात विधायिका का गठन करते है। ये चुने हुए जनता के प्रतिनिधि ही अपने में से कुछ सदस्यों को चयनित करके मंत्री परिषद अर्थात राजनीतिक कार्यपालिका का गठन करते हैं। और यह राजनीतिक कार्यपालिका संविधान की व्यवस्थाओं के अनुरूप जनता के लिए, शासन व्यवस्था के संचालन के लिए जिम्मेदार होती है।
विधायिका जो अपरोक्ष रूप से प्रदेश अथवा देश की संपूर्ण जनता का प्रतिनिधित्व करती है, को अधिकार प्राप्त है कि वह राजनीतिक कार्यपालिका से समय-समय पर उनके द्वारा संपादित किए जा रहे कार्यों का विवरण ले,अर्थात राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदाई रहती है।इस राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख कि यह महती जिम्मेदारी है कि वह समय-समय पर कार्यपालिका द्वारा संपादित किए जा रहे कार्यों की जानकारी न केवल विधायिका के माध्यम से जनता की जानकारी में लाए अपितु जन प्रतिनिधि के माध्यम से जनता यह भी सुनिश्चित करती है कि वह राजनीतिक कार्यपालिका से उनके द्वारा संपादित कार्यों की जानकारी ले। अर्थात विधायिका जनता के प्रति उत्तरदाई जवाब दे है।
संविधान सभा में संसदीय प्रणाली के उपरोक्त मूलभूत सिद्धांत की पूर्ति के लिए संपूर्ण व्यवस्थाएं किस प्रकार से रचित की जाएं इस संबंध में संविधान सभा में विस्तृत विचार विमर्श हुआ और सिद्धांत:, क्योंकि राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तर उत्तरदाई होती है, जवाबदेह होती है। अत: विधानसभा के सत्र बुलाने का अधिकार राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री मैं निहित किया गया ताकि वह जब भी आवश्यक समझे अपनी जवाबदेही या उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए विधानसभा के सत्र आहूत कर सकें, और जनता के प्रति उत्तरदायित्व,जवाबदेही को सुनिश्चित कर सके।
क्योंकि हमने ब्रिटिश शासन व्यवस्था को आधार रूप में अपनाया है जहां समस्त कार्य यद्यपि किंग के नाम से संपादित होता है किंतु कार्यों में किंग का किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं रहता,उसी व्यवस्था के अनुरूप हमने देश में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के पदों को निर्मित किया और कार्यपालिका के समस्त कार्य उनके नाम से तथा आदेशानुसार ही किए जाते हैं। संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह पर ही कार्य करता है केवल कुछ मामलों में उसे अपने विवेक से कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई है जैसे कि सभा द्वारा पारित विधेयक।
संविधान के अनुच्छेद 174 में राज्य के विधान मंडल के सत्र सत्रावसान और विघटन के प्रावधान किए गए हैं और इसमें यह उल्लेखित है कि राज्यपाल समय-समय पर राज्य के विधान मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर जो वह ठीक समझे अधिवेशन के लिए आहूत करेगा किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच 6 माह का अंतर नहीं होगा।
संविधान सभा में जब सत्र को आहूत करने के संबंध में इस अनुच्छेद पर चर्चा हो रही थी तब संविधान सभा के विद्वान सदस्य श्री के.टी शाह और कुछ अन्य सदस्यों ने संशोधन के प्रस्ताव भी रखें (संशोधन क्रमांक 1473 और 1478 संविधान सभा की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1940 9 पार्ट 2) और यह आशंका भी जाहिर की कि, यदि राष्ट्रपति/ राज्यपाल साधारण समय में अथवा असामान्य समय में इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री की सलाह को न मानते हुए यदि सत्र आहूत नहीं करते हैं, ऐसी स्थिति में संविधान में यह भी प्रावधानित करना चाहिए कि, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री विधान मंडल के अध्यक्ष/परिषद के सभा पति से सलाह कर सत्र आहूत कर सकेंगे।
ऐसे संशोधन का आधार यह था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत काउंसिल का गठन किया गया और इंग्लैंड के प्रतिनिधि के रूप में गवर्नर जनरल के पास में यह अधिकार था कि वह काउंसिल की बैठकों के लिए समन जारी करें तब एकाधिक अवसरों पर एक 1 वर्ष तक काउंसिल की बैठक आहूत नहीं की जा सकी थी। इन संशोधनों पर बाबा साहब अंबेडकर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए निम्नानुसार अपनी बातें रखी-
The Honourable Dr. B.R. Ambedkar : You better let that lie. I can tell my honourable Friend privately which province it was. It was felt that if such a thing happened as did happen before 1935, it would be a travesty of popular government. To summon the legislature merely for the purpose of getting the revenue and then to dismiss it summarily and thus deprive it of all the legitimate opportunities which the law had given it to improve the administration either by question or by legislation was, as I said, a travesty of democracy.
Similarly there will be many private members who might also wish to pilot private legislation in order to give effect to either their fads or their petty fancies. Again, there may be a further reason which may compel the executive to summon the legislature more often. I think the question of getting through in time the taxation measures, demands for grants and supplementary grants is another very powerful factor which is going to play a great part in deciding this issue as to how many times the legislature is to be summoned.
Then I take the two other amendments of Prof. Shah (Nos. 1473 and 1478). The amendments as they are worded are rather complicated. The gist of the amendments is this. Prof. Shah seems to think that the President may fail to summon the Parliament either in ordinary times in accordance with the article or that he may not even summon the legislature when there is an emergency. Therefore he says that the power to summon the legislature where the President has failed to perform his duty must be vested either in the Speaker of the lower House or in the Chairman or the Deputy Chairman of the Upper House. That is, if I have understood it correctly, the proposition of Prof. K.T. Shah. It seems to me that here again Prof. Shah has entirely misunderstood the whole position. “First of all, I do not understand why the President should fail to perform an obligation which has been imposed upon him by law. If the Prime Minister proposes to the President that the Legislature be summoned and the President, for no reason, purely out of wantonness or cussedness, refuses to summon it, I think we have already got very good remedy in our own Constitution to displace such a President.”
“We have the right to impeach him, because such a refusal on the part of the President to perform obligations which have been imposed upon him would be undoubtedly violation of the Constitution. There is therefore ample remedy contained in that particular clause.”
बाबा साहब अंबेडकर के उपरोक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि विधानसभा का सत्र बुलाना कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र की बात है और यदि मुख्यमंत्री/ मंत्री परिषद यह निर्णय लेती है, कि विधानसभा का सत्र आहूत किया जाना है, तब यह राज्यपाल के विचार क्षेत्र की बात नहीं है कि वह मुख्यमंत्री के प्रस्ताव को तनिक भी रोके।
राज्यपाल को केवल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों के मामलों में ही, विचार करने कारण बताते हुए पुन: विधानसभा को भेजने की अधिकारिता संविधान के अंतर्गत है विधानसभा के सत्र आहूत करने के प्रस्ताव पर विचार करने अथवा वापस करने या अस्वीकृत करने जैसा कोई भी प्रावधान संविधान में नहीं है, अपितु इस अनुच्छेद पर चर्चा के समय तो बाबा साहब अंबेडकर ने यहां तक कहा कि यदि ऐसा होता है राष्ट्रपति/ राज्यपाल उनके कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं स्वच्छंदता पूर्ण व्यवहार करते हैं, यह तो संविधान का उल्लंघन होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जयपुर में कमाल की नौटंकी चल रही है। क्या आज तक किन्हीं नाराज़ विधायकों ने कभी राजभवन के अंदर धरना दिया है ? मेरी स्मृति में ऐसा पहली बार हुआ है। राष्ट्रपति भवन और राजभवनों में विधायकों और सांसदों ने परेडें जरुर की हैं लेकिन इस समय जैसा दृश्य जयपुर के राजभवन में दिखाई पड़ रहा है।
भारत के किसी भी प्रांत में पहले नहीं दिखाई पड़ा। राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र के विरोध में यह धरना चल रहा है, क्योंकि उन्होंने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को साफ़-साफ़ कह दिया है कि कोरोना के इस संकटकाल में विधानसभा का सत्र बुलाना संभव नहीं है। मोटे तौर पर राज्यपाल का दृष्टिकोण व्यावहारिक मालूम पड़ता है लेकिन कलराजजी से कोई पूछे कि आप 200 विधायकों के मिलने पर कोरोना का खतरा महसूस कर रहे हैं लेकिन क्या बात है कि नरेंद्र मोदी बिल्कुल नहीं डर रहे हैं। वे 5 अगस्त को राम मंदिर कार्यक्रम में अयोध्या जाएंगे और वहां 200 से भी अधिक महामहिम इक_े होंगे। उनके साथ सैकड़ों सुरक्षाकर्मी भी होंगे। अभी जो कांग्रेसी विधायक राजभवन के अंदर धरना दे रहे हैं, उन्होंने मुखपट्टियां लगा रखी हैं और शारीरिक दूरी भी वे बनाए हुए हैं।
किस दल के पास बहुमत है, यह तय करने का सबसे अधिक प्रामाणिक तरीका तो सदन में होनेवाला मतदान ही है। अदालतों की राय कुछ भी हो, ऐसे मुद्दों पर अंतिम फैसला सदन का ही होता है। राजस्थान के मामले को अदालतों में घसीटने का काम दोनों पक्षों ने किया है। ऐसा करके दोनों पक्षों ने विधानपालिका को न्यायपालिका की चरण-वंदन के लिए बाध्य कर दिया है। ऐसा करके उन्होंने अपनी और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा तो गिराई ही है, राजस्थान की राजनीति को भी अधर में लटका दिया है। पिछले एक हफ्ते से क्या राजस्थान की सरकार कोई काम कर पा रही है ? कारोना के विरुद्ध संग्राम में उसने जो नाम कमाया था, वह भी पृष्ठभूमि में खिसक गया है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों की कथनी और करनी, उनकी प्रतिष्ठा को रसातल में पहुंचा रही है।
यदि राजस्थान विधानसभा का सत्र विधान भवन में नहीं बुलाया जा सकता हो तो जयपुर की महलनुमा होटलों में या किसी लंबे-चौड़े मैदान में भी बुलाया जा सकता है या दोनों पक्षों को बुलाकर राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष अपने सामने परेड करवाकर भी फैसला करवा सकते हैं। इस मामले को तय करने में जितनी देर लगेगी, भ्रष्टाचार उतना ही बढ़ेगा, नेताओं की इज्जत उतनी ही गिरेगी और लोकतंत्र उतना ही कमजोर होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार राम वन गमन पथ योजना के तहत 51 स्थानों पर राम मंदिरों का निर्माण करा रही है। इसके विरोध में जंगो-लिंगो आदिवासी महिला समिति की ओर से राज्यपाल अनुसूईया उईके को ज्ञापन दिया गया है। तामेश्वर सिन्हा की खबर
छत्तीसगढ़ में आदिवासी अपने ऊपर हिन्दू धर्म थोपे जाने के विरोध में अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि वे हिंदू नहीं हैं और उनका अपना आदिवासी धर्म और अपनी परंपराएं हैं जो प्रकृति पर केंद्रित है। वे सूबे में के विभिन्न इलाकों में राम मंदिर बनाए जाने की सरकारी योजना पर सवाल उठा रहे हैं। अब इस लड़ाई में छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं भी शामिल हो गई हैं। बीते 21 जुलाई, 2020 को छत्तीसगढ़ के भिलाई में जंगो-लिंगो आदिवासी महिला समिति ने दुर्ग एसडीएम कार्यालय पहुंच कर राम गमन पथ एवं राम मंदिर निर्माण के विरोध में राज्यपाल अनुसईया उईके के नाम ज्ञापन सौंपा।
दरअसल, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार राम वन गमन पथ योजना के तहत 51 स्थानों पर 10 करोड़ की लागत से राम मंदिरों का निर्माण करा रही है। बताते चलें कि इस योजना के तहत मंदिर निर्माण की योजना अधिकतर आदिवासी, पिछड़ा बहुल क्षेत्रों में है। सरकार का कहना है कि इन 51 स्थानों का राम से संबंध है जहां कथित तौर पर वे वनवास के दौरान गए थे।
सनद रहे कि भूपेश बघेल सरकार की उपरोक्त योजना का उनके पिता नंद कुमार बघेल ने भी पुरजोर विरोध किया है।
इस बीच जंगो-लिंगो महिला आदिवासी समिति ने अपने ज्ञापन में कहा है कि राम गमन पथ एवं राम मंदिर निर्माण जिसे भूपेश बघेल सरकार की महत्वाकांक्षी योजना बताई जा रही है, सर्वथा अनुचित व असंवैधानिक कार्य है। वजह यह कि पूरा बस्तर संभाग पांचवीं अनुसूची क्षेत्र घोषित है। इस क्षेत्र की अपनी एक व्यवस्था है। पेसा एक्ट, 1996 के तहत अनुसूचित क्षेत्र की सर्वोच्च संस्था ग्रामसभा है और बगैर ग्रामसभा अनुमोदन के कोई भी निर्माण व विकास कार्य असंवैधानिक है। लेकिन स्थानीय सरकार की शह पर स्थानीय विधायक शिशुपाल सोरी कांकेर में राम मंदिर निमार्ण को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे इलाके में अशांति व धार्मिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की जा रही है। जंगो-लिंगो आदिवासी महिला समिति के सदस्यों ने राज्यपाल से मांग की है कि वे धर्म के नाम पर कराए जा रहे इन निर्माण कार्यों पर अविलम्ब रोक लगाएं।
महिलाओं ने अपने ज्ञापन में यह भी कहा है कि सरकार जनता से वसूले गए टैक्स की राशि का दुरूपयोग कर रही है। जो धन राशि राज्य में गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और स्वास्थ्य समस्या आदि दूर करने के लिए उपयोग में लायी जा सकती है, उसका दुरूपयोग कर वह आदिवासियों पर हिन्दू धर्म व इसकी मान्यताएं थोपने का प्रयास कर रही है।
जंगो-लिंगो महिला समिति भिलाई की अध्यक्ष तामेश्वरी ठाकुर ने बताया कि भूपेश बघेल सरकार मनुवादी साजिश कर रही है। पर्यटन विकास का नाम देकर राम मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। जबकि हम आदिवासी कभी भी मूर्तिपूजक नही रहे हैं। हम तो पेड़, जंगल, पहाड़ और नदियों को अपना पुरखा मानते हैं। हमारे लिए न राम का मन्दिर महत्वपूर्ण है और ना ही कोई चर्च-मस्जिद। हमारा अपना जंगल है और हमारी अपनी मान्यताएं हैं। हम इसी में खुश हैं।
वहीं ज्ञापन देने वालों में शामिल सर्वआदिवासी समिति की महिला अध्यक्ष चंद्रकला तारम ने बताया कि छत्तीसगढ़ में हम राम वन गमन पथ नही चाहते हैं। बस्तर हमारा अनुसूचित क्षेत्र है, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, रोजगार के क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है न कि मंदिर निर्माण की। हम कई वर्षों से स्कूलों में गोंडी भाषा मे पढ़ाने की मांग कर रहे हैं। बस्तर में स्वास्थ्य सुविधा बदहाल है। सरकार इन मुद्दों से अलग लोगों का ध्यान भटकाने के लिए मंदिर निर्माण में लगी है।
हिंदुत्व के आसरे भूपेश : एक मंदिर में पूजा करते मुख्यमंत्री भूपेश बघेल
चन्द्रकला तारम आगे कहती हैं कि हमारी परंपरा राम वाली संस्कृति से अलग है। हम फसल बोने से लेकर काटने तक हम प्रकृति की पूजा करते हैं। हम एक पेड़ की टहनी भी तोड़ते हैं तो उससे पूछ कर तोड़ते हैं। हमारा आंगा देव् होता है, जिसकी जात्राओं में कभी राम का जिक्र नहीं हुआ। हमारी गीतों में कभी राम का जिक्र नहीं हुआ। हमारी भाषा-बोली सब अलग है तो भूपेश बघेल सरकार जबरदस्ती राम वन गमन पथ योजना के तहत मंदिर निर्माण क्यों कर रही है। तारम कहती हैं कि छत्तीसगढ़ में जब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने तब जनता ने कहा कि एक बहुजन मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन वे तो मनुवादी एजेंडे के आधार पर काम कर रहे हैं। राम को हम आदिवासियों और बहुजनों पर थोप रहे हैं।
ज्ञापन देने वालों में शामिल वकील शकुंतला राजसिंह कहती हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अन्तराष्ट्रीय इंडिजीनस घोषणापत्र के अनुच्छेद 11 में कहा गया है कि आदिवासियों को अपनी सांस्कृतिक परंपराएं और रीतिरिवाज अपनाने और उन्हें अधिक सशक्त बनाने का अधिकार है। भारतीय संविधान में वर्णित पांचवीं अनुसूची के अनुसार भी अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा कानून के तहत आप कोई भी धार्मिक आस्था आदिवासियों पर नहीं थोप सकते। इसके लिए ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य है। इतना ही नहीं, एक राज्य सरकार धार्मिक संरचनाएं जैसे कि मंदिर आदि का निर्माण करा ही नहीं सकती है क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
बहरहाल, 13 जुलाई को छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के कांकेर जिले में राम वन गमन पथ योजना के तहत स्थानीय कांग्रेसी विधायक शिशुपाल सोरी और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के संसदीय सलाहकार राजेश तिवारी की उपस्थिति में राम मंदिर निर्माण का भूमिपूजन किया गया। विधायक शिशुपाल सोरी अखिल भारतीय गोंडवाना गोंड महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। उनके द्वारा राम मन्दिर का भूमिपूजन को लेकर आदिवासी समाज मे गहरा आक्रोश है। (forwardpress)
(संपादन : नवल/गोल्डी)
-अमिताभ श्रीवास्तव
इन दिनों विकास दुबे की कहानियां पढ़-सुनकर आप थक गए होंगे। हो सकता है, आप इससे भी इन दिनों इत्तफाक नहीं रख रहे हों कि इस घटनाक्रम से नाराज ब्राह्मणों को मनाने के लिए योगी सरकार से जुड़े कद्दावर नेता-अफसर यूपी के 55 ब्राह्मण विधायकों की कुछ ज्यादा ही खोज-खबर रख रहे हैं। इसलिए आपके लिए हाजिर है यूपी की ही एक और कथा। यह शेर सिंह राणा की है। अगर आप सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं तो आपने यू-ट्यूब पर उसके वीडियो भी देखे होंगे। पर इसमें इतने ट्विस्ट हैं कि आपकी आंखें अब भी चौड़ी हो जाएंगी।
शेर सिंह राणा ने डाकू से सांसद बनी फूलन देवी की 26 जुलाई, 2001 को दिल्ली में संसद मार्ग-स्थित उनके सरकारी आवास में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी थी। दिल्ली और उत्तराखंड की पुलिस दो दिनों तक एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद राणा को नहीं पकड़ पाई। अचानक मीडिया में सूचना आई कि वह देहरादून में प्रेस क्लब में आत्मसमर्पण करेगा। एक दिन पहले ही उसने एक हिंदी दैनिक के रिपोर्टर को साफ कहा था कि वह प्रेस क्लब में आत्मसमर्पण इसलिए करना चाहता है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि पुलिस उसे मुठभेड़ में मार डाले।
मैं उस वक्त एक अंग्रेजी दैनिक के लिए देहरादून में काम कर रहा था। हम लोग प्रेस क्लब पहुंचते, उससे पहले ही पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन इस बारे में पुलिस ब्रीफिंग के लिए हम लोगों को दो घंटे तक लटकाए रखा गया। बाद में पता चला कि राणा को दिल्ली की स्पेशल सेल की टीम ले गई। उसे तिहाड़ जेल में रखा गया। लेकिन यह भी कम रोचक प्रसंग नहीं है कि इस मुद्दे पर कम तू-तू मैं-मैं नहीं हुई कि राणा को किसने पकड़ा- दिल्ली पुलिस ने या उत्तराखंड पुलिस ने। वैसे, सच्चाई तो यही है कि राणा ने खुद ही मीडिया को यह कहते हुए बुलाया था कि वह आत्मसमर्पण करना चाहता है।
विकास और उसके साथियों के मामले में तो ब्राह्मण कार्ड उन लोगों को मार गिराए जाने के बाद खेला जा रहा, राणा अपना राजपूत कार्ड शुरू से खेलता रहा है। उसने पुलिस और मीडिया से यही कहा कि चूंकि फूलन देवी ने डकैत रहते हुए ऊंची जातियों के लोगों की हत्या की, इसलिए उसने इनका बदला लेने के लिए फूलन की हत्या की। वह 2004 में तिहाड़ जेल से फरार हो गया। बाद में लिखी किताब ‘जेल डायरीः तिहाड़ से काबुल-कंधार तक’ में उसने दावा किया है कि खतरों से जूझते हुए वह फर्जी पासपोर्ट पर बांग्लादेश और पाकिस्तान होते हुए अफगानिस्तान में उस जगह पर पहुंचा जहां पृथ्वीराज चौहान का शव दफनाया गया है। उसने इस किताब में दावा किया है कि मुसलमान उस जगह पर अब भी जूते से ठोकर मारते हैं और उसके बाद बगल की मस्जिद में जाते हैं। राणा ने यू-ट्यूब पर एक वीडियो डालकर यह दावा भी किया हुआ है कि उसने कैसे अपनी जान जोखिम में डालकर चोरी-छुपे वहां से मिट्टी जमा की और उसे भारत लेकर आया। इस नाम पर उसने अपने समर्थकों के साथ मिलकर रुड़की में एक स्मारक भी बनवाया है।
राणा की किताब ने प्रोड्यूसर-डायरेक्टर-एक्टर अजय देवगन को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने पृथ्वीराज चौहान पर एक फिल्म बनाने की घोषणा कर दी और इसमें राणा का रोल खुद करने की इच्छा जताई। एक अखबार ने लिखाः ‘राणा के रोचक जीवन ने अजय का ध्यान खींचा। राणा तिहाड़ से फरार हुआ और उसने 2006 में कोलकाता में गिरफ्तारी से पहले 12वीं शताब्दी के शासक पृथ्वीराज चौहान के अवशेष अफगानिस्तान से लाने का दावा किया है।’
वैसे तो राणा ने अपनी किताब में बताया है कि वह कोई पेशेवर अपराधी नहीं है और उसने फूलन देवी से पहले या बाद में किसी की हत्या नहीं की है लेकिन सच्चाई यह है कि वह शातिर मिजाज तो रहा ही है। उसकी गिरफ्तारी के बाद एक डीजीपी ने मुझे देहरादून में बताया कि राणा की गिरफ्तारी से पहले ही एक व्यक्ति उसके नाम से गिरफ्तार होकर जेल में बंद था। उस अधिकारी ने कहाः ‘हम तो इस बारे में नहीं जान पाते। वह तो एक सतर्क इन्सपेक्टर ने इसका खुलासा कर दिया। उसने टीवी पर शेर सिंह राणा की तस्वीर देखी, तो उसने कहा कि अगर राणा यह है, तो फिर इसी नाम से हरिद्वार जेल में कैद व्यक्ति कौन है।’ खैर।
करीब दस साल की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अगस्त, 2014 में राणा को आजीवन कारावास की सजा और एक लाख रुपये दंड का आदेश दिया। उसने इसके खिलाफ अपील की है और इसी वजह से वह जमानत पर जेल से बाहर है। उसने राष्ट्रवादी जनलोक पार्टी (आरजेपी) बना ली है। इस पार्टी ने अभी हाल में हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार भी उतारे। राणा का दावा है कि उसकी पार्टी को इतने वोट मिले कि उसने वहां किसी को बहुमत नहीं लाने दिया। वह यहां-वहां घूमता रहता है और उसकी पार्टी ने किसी-न-किसी के साथ गठबंधन कर मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली में भी चुनाव लड़ा।
मध्यप्रदेश के एक पूर्व विधायक की बेटी से उसने 2018 में शादी कर ली और उसे डेढ़ साल की बेटी है। शादी के बाद उसने मीडिया से कहाः ‘अब मैंने सबकुछ भगवान पर छोड़ दिया है। मुझे नहीं पता कि मेरे मामले के निबटारे में कितना वक्त लगेगा।’(navjivan)
-सुहैल ए शाह
पूरे देश में कोरोना वाइरस के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं और जम्मू-कश्मीर (जो कि अब एक केंद्रशासित राज्य है) में भी इन मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. यहां अब तक 15 हजार से ज्यादा कोरोना वाइरस पॉज़िटिव मामले दर्ज हो चुके हैं, जिनमें से करीब 12 हजार मामले कश्मीर घाटी के 10 जिलों में ही हैं. करीब पौने दो सौ लोगों ने इस बीमारी से अभी तक जम्मू-कश्मीर में अपनी जान गंवाई है.
केंद्र सरकार ने जब अनुच्छेद-370 को अप्रभावी करने और जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने का निर्णय लिया था तब उसकी ओर से कहा गया था कि इससे बेहतर शासन को सुनिश्चित करके राज्य का सही मायनों में विकास किया जा सकेगा. जानकारों के मुताबिक कोरोना संकट के समय मोदी सरकार के पास यह दिखाने का अवसर था कि अगस्त 2019 में उसने जो कहा था वह सही था. कहा गया कि अगर कोविड-19 के समय केंद्र सरकार थोड़ी सूझ-बूझ के साथ काम करेगी तो कश्मीर में मौजूद अविश्वास के माहौल को थोड़ा ठीक किया जा सकता है. लेकिन अगर राज्य के जमीनी हालात को आज देखें तो कश्मीर घाटी के लोग पिछले चार महीनों में नई दिल्ली के पास नहीं बल्कि उससे और दूर होते दिखाई देते हैं.
अगर कश्मीर घाटी में रहने वाले लोगों से बात करके उनके आक्रोश को समझने की कोशिश की जाये तो इस मुश्किल वक्त में भी दिल्ली से उनका इतना नाराज होना उतना चौंका देने वाली बात भी नहीं लगती है.
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर राज्य में अभूतपूर्व लॉकडाउन के बीच देश के गृह मंत्री, अमित शाह ने संविधान के अनुच्छेद-370 को अप्रभावी बनाने का ऐलान किया. यह अनुच्छेद पहले जम्मू-कश्मीर को भारत में एक विशेष स्थिति दिया करता था. लेकिन इसके बाद से देश का संविधान पूरी तरह से जम्मू-कश्मीर पर लागू हो गया.
इसके साथ-साथ भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य के दो टुकड़े करके लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र प्रशासित राज्यों में तब्दील कर दिया. इसके बाद कश्मीर घाटी में छह महीने से ज़्यादा तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही, दो महीने से ज़्यादा समय तक यहां पर फोन पूरी तरह से बंद रहे, छह महीनों से ज़्यादा समय तक कश्मीर के ज्यादातर राजनेता हिरासत में रहे (इनमें से कई अभी भी बंद ही हैं) और राज्य में 4जी मोबाइल इंटरनेट सेवा अभी तक बंद ही है.
“इस सब के बीच जब कोरोना वाइरस का आगमन हुआ तो लोगों ने यह सोचा कि शायद इस वजह से भारत सरकार की विशेष स्थिति को खतम करने की कोशिशों और उसके स्वभाव में थोड़ी सी नरमी देखने को मिलेगी. लेकिन हुआ बिलकुल उल्टा. उसकी गतिविधियां कोरोना वाइरस वाले लॉकडाउन के बीच और तेज़ हो गयीं” दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविध्यालय में कश्मीर पर अनुसंधान कर रहे, बशारत अली, सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. अली के मुताबिक भारत सरकार राज्य में कोरोना वाइरस की वजह से हुए लॉकडाउन को कई तरीकों से अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रही है.
डोमिसाइल सर्टिफिकेट (मूल निवासी प्रमाण पत्र):
मई के महीने में कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर के नेतृत्व वाले प्रशासन ने लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट जारी किए जाने की घोषणा की. नए नियमों के अनुसार कोई भी ऐसा व्यक्ति जो जम्मू-कश्मीर में 15 साल से अधिक समय के लिए रहा हो, या राज्य में सात साल के लिए पढ़ा हो या फिर उसने दसवीं, बारहवीं की परीक्षा यहां से पास की हो, वह इस प्रमाण पत्र का हकदार हो जाता है.
पहले ऐसा नहीं था. पहले अनुच्छेद 35 ए के मुताबिक जम्मू-कश्मीर की विधानसभा यह तय करती थी कि कौन इस राज्य का मूल निवासी है और कौन नहीं. लेकिन अब लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट ऑनलाइन मिलने लगा है.
“यहां के लोगों को यह तो पता था कि अनुच्छेद-370 हटने के बाद यह सब ज़रूर होगा, लेकिन जिस वक़्त पूरा देश कोरोना वाइरस से लड़ रहा है उस वक़्त ऐसा करना लोगों के मन में भारत सरकार के इरादों को लेकर कई सवाल खड़े कर देता है” श्रीनगर में काम कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. वे कहते हैं कि ऐसे समय पर जब कश्मीर में इंटरनेट अभी भी पूरी तरह से बहाल नहीं हुआ है और कोरोना वाइरस के चलते लोगों को अपने घरों से निकलने की अनुमति नहीं है यह निर्णय लेना साफ-साफ दर्शाता है कि भारत सरकार का इरादा सिर्फ जम्मू-कश्मीर की ‘डेमोग्राफी’ को बदलना है.
“जब पूरा प्रशासन एक बीमारी के खिलाफ लड़ने में व्यस्त हो, ऐसे समय पर तहसीलदारों पर यह दबाव डालना कि डोमिसाइल सर्टिफिकेट देने में देर लगने की सूरत में उन पर 50,000 रुपए का जुर्माना लगेगा और क्या दिखाता है” वे पत्रकार नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर सत्याग्रह को बताते हैं.
आम लोगों से बात करें तो उनका भी यही मानना है.
“हमारे पास इंटरनेट नहीं है, ऑनलाइन अप्लाई करने के लिए, हम बाहर नहीं जा सकते लॉकडाउन के चलते. और बाहर के लोग, जिनमें बाहर के ही नौकरशाह लोग शामिल हैं, आराम से इस सर्टिफिकेट के लिए ऑनलाइन अप्लाई कर रहे हैं” दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले से आने वाले 70 साल के एक दुकानदार ग़ुलाम मुहम्मद भट, ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
इस बात पर मई, जून के महीनों में कश्मीर के लोगों में खूब चर्चा हुई. अब बात पुरानी हो गयी है, लेकिन यह भाव कि भारत सरकार कश्मीर के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक समझती है पुराना नहीं हुआ है. वह अब थोड़ा और मजबूत हो गया है और उसके सिर्फ यही एक कारण नही है.
cartoon credit : Greater Kashmir
पर्यटन, अमरनाथ यात्रा और बाहर के मजदूर
हाल ही में कोरोना वाइरस के बढ़ते हुए मामलों के चलते कश्मीर में प्रशासन ने फिर से लॉकडाउन घोषित कर दिया. कई जिलों में दफा-144 लागू कर दी गई और लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने पर रोक लगा दी गयी. श्रीनगर, अनंतनाग, पुलवामा और कई अन्य जिलों में सड़कें बंद कर दी गयीं और उन पर सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ा दी गयी, ताकि लोग ज़्यादा लोग एक जगह से दूसरी जगह न जा सके.
प्रशासन के इन फैसलों का सब, हिचकिचाते हुए ही सही, पर स्वीकार कर रहे थे. लेकिन तभी प्रशासन के कुछ और निर्णय सामने आए जिन्होंने कश्मीर के लोगों में पहले से ही पनप रहे संदेह को और गहरा कर दिया. इसके बाद कश्मीर में लोग पूछ रहे थे कि अगर वे बाहर नहीं जा सकते, दुकानें नहीं खोल सकते, अपने काम काज पर नहीं जा सकते तो अमरनाथ यात्रियों को राज्य में आने देना कितना बुद्धिमानी का काम है.
“मेरी दुकान पिछले लगभग एक साल से बंद ही पड़ी है. मैं अब इसे खोलने की कोशिश भी नहीं कर रहा हीं क्यूंकि महामारी फैली हुई है. लेकिन क्या महामारी के बीच अमरनाथ यात्रा की इजाज़त देना सही है?” अनंतनाग जिले के पहलगाम में किराने की दुकान चलाने वाले, अली मुहम्मद शाह पूछते हैं.
हालांकि राज्य में कोरोना वायरस की स्थिति को देखते हुए श्री अमरनाथ बोर्ड ने 21 जुलाई को एक बैठक कर इस साल की यात्रा स्थगित करने का फैसला ले लिया है, लेकिन इससे पहले स्थानीय लोगों के मन में जो भाव आ गया था वह शायद अभी रहने वाला है.
जम्मू-कश्मीर के प्रशासन ने कश्मीर में हवाई जहाज़ से आने वाले पर्यटकों के लिए भी अपने द्वार खोल दिये हैं और यह बात भी लोगों को काफी खल रही है, क्यूंकि अगस्त 2019 से लगभग कोई भी पर्यटक कश्मीर नहीं आया है.
“अब कोरोना वाइरस के बीच पर्यटकों को आने देना कौन सी समझदारी है? क्या यह सिर्फ यहां के लोगों को यह बताने के लिए किया जा रहा है कि कश्मीर कश्मीरियों का न रहकर भारत के अन्य राज्यों में बसे लोगों का हो गया है?” बशारत अली पूछते हैं.
इसी बीच कश्मीर में कुछ क़ानूनों में भी बदलाव हुआ है जिसमें से एक यह है कि सुरक्षा बल अब अपनी छावनियों के बाहर भी, कुछ सामरिक स्थानों पर, निर्माण कार्य कर सकते हैं. यह अनुमति ‘कंट्रोल ऑफ बिल्डिंग ऑपरेशन एक्ट-1988’ और ‘जेएंडके डेव्लपमेंट एक्ट-1970’ में संशोधनों के द्वारा दी गयी है. इसके साथ-साथ हजारों मजदूर भी भारत के अन्य राज्यों से कश्मीर की तरफ लाये जा रहे हैं. अगर सोशल मीडिया पर वाइरल हुए एक स्थानीय न्यूज चैनल - गुलिस्तान न्यूज - के वीडियो की मानें तो इन मजदूरों का कोरोना वाइरस टेस्ट भी नहीं किया जा रहा है.
“कश्मीर में लॉकडाउन के चलते सारा काम ठप पड़ा हुआ है, ऐसे में मजदूरों का आना एक ही चीज़ की तरफ इशारा करता है कि इनको सुरक्षा बालों के द्वारा किए जाने वाले निर्माण में लगाया जाएगा” इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइन्स एंड टेक्नोलोजी में अन्तरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाने वाले, डॉ उमर गुल, सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
गुल कहते हैं कि कश्मीर के लोग इस समय बंद हैं और किसी भी तरफ से कोई विरोध होने की कोई संभावना नहीं है “लेकिन कम से कम मानवीय आधार पर ही सही, इन मजदूरों का टेस्ट वगैरह हो जाना चाहिए. यह न सिर्फ यहां के लोगों की सुरक्षा के लिए है बल्कि सुरक्षा बलों की सुरक्षा के लिए भी ज़रूरी है.”
लेकिन स्थानीय लोगों को लगता है कि लेकिन सुरक्षा के नाम पर कश्मीर में पिछले पांच महीनों में सिर्फ मिलिटेंटस और सुरक्षा बलों में मुठभेड़ हुई हैं और जगह-जगह नए बंकर बना दिये गए हैं.
इस साल जनवरी से लेकर अभी तक कम से कम 130 मिलीटेंट्स अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे गए हैं. जहां कश्मीर में मिलीटेंट्स का मारा जाना कोई नई बात नहीं है, वहीं उनके शव उनके परिजनों को न देना बिलकुल नया है.
पिछले चार महीनों में लगभग हर मुठभेड़ के बाद पुलिस ने यह कहा है कि मारे गए मिलीटेंट्स के शव कोरोना वाइरस के चलते उनके परिजनों को नहीं दिये जाएंगे. उनके शव उत्तर कश्मीर में, घर के एक या दो सदस्यों के सामने, दफन किए जा रहे हैं.
इस बात से कश्मीर के लोगों में, खास तोर पर मारे गए मिलीटेंट्स के घरवालों में, काफी आक्रोश है.
“अगर 4000 सुरक्षाकर्मी पूरे गांव को घेर कर दो मिलीटेंट्स को मार गिरा सकते हैं तो क्या दो दर्जन लोग अपने किसी मारे गए बच्चे का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते? यह किस तरह की नीति है जहां मां-बाप अपने बच्चे को अपने कब्रिस्तान में नहीं दफन कर सकते?” अनंतनाग जिले के अरविनी गांव में एक मारे गए मिलीटेंट के घरवालों ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
लेकिन कई जानकार इस बात को भावनाओं से परे रख कर देखते हैं.
“जब किसी मिलीटेंट के जनाजे में हजारों लोग जमा होते थे तो प्रशासन के लिए मुश्किल हो जाती थी उनको संभालना. और वहीं इन जनाज़ों में और युवक हिंसा के रास्ते पर चल पड़ते थे. भारत सरकार इन जनाज़ों का तोड़ काफी समय से ढूंढ रही थी और उन्हें कोरोना वाइरस के रूप में यह बहाना मिल गया” कश्मीर को बहुत बारीकी से जानने वाले एक सुरक्षा अधिकारी ने सत्याग्रह को, उनका नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया.
पिछले पांच महीनों में कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों के बंकरों में भी काफी इजाफा हुआ है, जिससे लोगों को काफी दिक्कतें भी आ रही हैं.
“सड़क पर देखें तो हर 50 मीटर पर न सिर्फ एक बंकर है बल्कि पूरी सड़क कांटेदार तार या अन्य चीजों से घिरी पड़ी है. हर जगह चेकिंग, कहीं जाना है तो बार-बार रोका जाता है, ट्रैफिक न होने के बावजूद घंटों गाड़ी में खड़े रहना पड़ता है. ये सब चीज़ें लोगों को दिल्ली से दूर नहीं करेंगी तो और क्या होगा” डॉ उमर गुल ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
वे कहते हैं कि लोगों के मन में यह बैठ गया है कि ये सब चीज़ें जान-बूझ कर की जा रही हैं, कश्मीर के लोगों को “भारत में उनकी जगह दिखाने के लिए.”
ये तो वे चीज़ें हैं जो भारत सरकार ने कोरोना वाइरस महमारी के दौरान कश्मीर में की हैं और जिनसे कश्मीर के लोगों में निराशा और संदेह ने और भी गहरी जड़ पकड़ ली है. वहीं कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान नहीं की हैं लेकिन वे लोगों के मन में केंद्र सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ाने का काम कर रही हैं.
महमारी में 4जी इंटरनेट बहाल न करना ऐसी ही एक चीज़ है:
जैसा कि शुरू में हमने बताया कि कश्मीर में चार अगस्त 2014 को इंटरनेट सेवायें बंद कर दी गई थीं और अभी तक भी 4जी इंटरनेट बहाल नहीं हुआ है. सरकार 4जी इंटरनेट को सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से एक खतरे के तौर पेश करती आ रही है.
लोग जैसे-तैसे बिना इस सुविधा के गुज़ारा कर रहे थे, लेकिन कोरोना वाइरस के आने से ज़िंदगी इंटरनेट के बिना काफी मुश्किल हो गयी है. सबसे ज़्यादा 4जी इंटरनेट न होने से जो लोग प्रभावित हुए हैं वै हैं डॉक्टर, क्यूंकि पूरी दुनिया में कोरोना वाइरस से लड़ने के लिए जो चीज़ सब से ज़रूरी मानी जा रही है वह है जानकारी.
“और आजकल की दुनिया में सारी जानकारी इंटरनेट से आती है, जो हमारे पास है तो लेकिन 2जी जो आजकल की दुनिया में किसी काम का नहीं है,” श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह (एसएमएचएस) अस्पताल में काम करने वाले एक डॉक्टर ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा. यहां डॉक्टरों को पत्रकारों से बात करने की अनुमति नहीं है, इसीलिए डॉक्टर से बात करना उतना आसान नहीं है.
वे कहते हैं कि इंटरनेट के बिना उनका काम बहुत मुश्किल है, “क्यूंकि हर घंटे दुनिया के किसी न किसी कोने से कोरोना वाइरस के बारे में कोई नयी जानकारी आती है और हम उस जानकारी से महरूम रहते हैं.”
दूसरा तबका जो 4जी इंटरनेट न होने के चलते तमाम परेशानियां झेल रहा है वह है यहां के छात्र. कश्मीर घाटी में पिछली पांच अगस्त से अभी तक सिर्फ मार्च में कुछ दिन स्कूल खुले थे. “और अब जबकि पूरी दुनिया में छात्र ऑनलाइन पढ़ रहे हैं हमारे पास वह विकल्प भी नहीं है. 2जी इंटरनेट पर क्या ऑनलाइन क्लास होगी और क्या तो समझ में आएगा” कश्मीर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे गुलजार अहमद सत्याग्रह को बताते हैं.
अहमद की तरह ही हजारों छात्र 4जी इंटरनेट के न होने से पढ़ाई में देश के दूसरे हिस्सों के छात्रों से पीछे छूट रहे हैं.
“जहां पूरे देश में बच्चे ऑनलाइन पढ़ रहे हैं, हमारे साथ ही यह अन्याय क्यूं हो रहा है. क्या हमें हक़ नहीं है पढ़ने का? और फिर दिल्ली में बैठे लोग कहते हैं कि कश्मीर भारत का अटूट अंग है. कश्मीर का मतलब क्या सिर्फ ज़मीन है? लोग नहीं?” दसवीं क्लास में पढ़ रही, साइमा अमीन, ने श्रीनगर में सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
इन सब चीजों को परे भी रखें तो छोटे-छोटे मामले, जैसे अस्पतालों में सही से इलाज न होना, वक़्त पर कोरोना वाइरस का टेस्ट न होना, अस्पतालों में कोरोना वाइरस के अलावा और किसी चीज़ का इलाज न होना, क्वारंटीन सेंटरों में सुविधाओं का न होने जैसी चीज़ें भी लोगों को खल रही हैं. हालांकि इस तरह की अव्यवस्थायें दूसरे राज्यों और देशों में भी देखने को मिल रही हैं लेकिन कश्मीर में कई लोग बाकी चीजों के साथ रखकर इन्हें एक अलग ही निगाह से देखते हैं.
कुल मिलाकर यह कि जहां भारत सरकार को कोरोना वाइरस जैसी महमारी में कश्मीर के लोगों को जीतने का जो एक मौका मिला था, वह शायद उसने गंवा दिया है. लोगों में संदेह और आक्रोश अब पिछले साल की अगस्त से भी ज़्यादा है और यह कश्मीर को किस दिशा में लेकर जाएगा, कह पाना मुश्किल है.(satyagrah)
पुष्य मित्र
लगातार हुई फजीहत के बाद बिहार सरकार सक्रिय हुई है। आनन-फानन में दो तीन फैसले लिए गए हैं।
पहला यह कि अब रिपोर्ट 24 घंटे में मिल जाएगी। अब तक अमूमन 4 से 8 दिन लग जाते थे। कई मित्रों ने तो बिना रिपोर्ट के ही खुद को सुरक्षित मान लिया है।
दूसरा यह कि एनएमसीएच में अब मृत मरीज के शव को 3 घंटे में बेड से हटा लिया जाएगा। वहां अब तक दो फो दिन मरीज पड़े रहते थे। हैरत की बात है कि क्या एनएमसीएच के पास मोरचुरी नहीं है?
कुछ बेड बढ़ाने की बात चल रही है।
पता नहीं इन फैसलों को लागू होने में कितना वक्त लग जाये। पर यह भी सच है कि इन फैसलों के लागू हो जाने से भी मसला इतनी आसानी से नियंत्रित नहीं होने वाला।
वजह यह है कि बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की बुनियाद ही कमजोर हो गई है। डॉक्टरों और नर्सों के साठ से सत्तर फीसदी पद खाली हैं। सदर अस्पतालों और प्रखंड, अनुमंडल स्तरीय अस्पतालों को मरीजों के इलाज करने का अभ्यास छूट गया है। कई दशकों से पूरा सिस्टम कोलैप्स है। सब कुछ प्राइवेट के भरोसे छोड़ दिया गया था। अब अचानक इन पर भार पड़ गया है।
पटना से लेकर पंचायतों तक काम करने वाले डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की सरकारी सेवा में काम करने की आदत छूट गई है। डॉक्टर पहले सिर्फ हाजिरी लगाने पीएचसी पहुंचते थे फिर अपने क्लीनिक भागते थे। हेल्थ वर्कर बैठकर टाइम पास करते थे।
फरवरी से पहले तक स्वास्थ्य विभाग का काम सिर्फ टीकाकरण करना और आंकड़ेबाजी करना रह गया था, अचानक उसे आपदा से जूझना पड़ रहा है। इस सुस्त और जंग लगी मशीनरी को चालू करना आसान नहीं है।
नीतीश सरकार का भी फोकस कभी शिक्षा और स्वास्थ्य की तरफ नहीं रहा। अस्पतालों को दुरुस्त करने के बदले स्मारकों के निर्माण पर पैसे खर्च किये गए। इससे पैसे बचे तो हर शहर में फ्लाई ओवर बनाए गए। जब इन मुद्दों पर काम करने कहा गया तो सरकार पैसों का रोना रोती रही। अब भुगतना पड़ रहा है।
यह सब एक झटके में नहीं होगा। मंगल पांडे जैसे मंत्री और उमेश कुमावत जैसे प्रशासक के बस की बात नहीं। इसके लिये डायनेमिक प्रशासक चाहिए। जो फ्रंट से लीड करे। अथाह काम है। समझ नहीं आता यह व्यवस्था कैसे सुधरेगी।
स्मिता अखिलेश
लॉक डाउन के मद्दे नजऱ चूँकि बड़ी संख्या में प्रवासी अपने गाँवों की ओर लौट गए है और बुरी तरह से प्रभावित अर्थव्यवस्था में एक आशा की किरन कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर जा टिकी है। इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए कृषि मंडियों के बाहर अपनी फसल बेचने और कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को लेकर किसानों के लिए अध्यादेश जारी किए।
अध्यादेश के मुताबिक किसानों को अपनी पसंद के बाजार में उत्पाद बेचने की छूट मिलेगी. आधिकारिक बयान के मुताबिक, ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020 को अधिसूचित किया गया है. इसके तहत किसान अपनी पसंद के बाजार में उपज बेच पाएंगे. सरकार को उम्मीद है कि किसानों को फसलों का बेहतर दाम मिलेगा।
चूँकि कृषि उत्पादों को सीधे व्यापारियों को बेचे जाने के कानून से मंडी बोर्ड का नियंत्रण खत्म हो जायेगा . मंडी बोर्ड को केंद्र सरकार से मिलने वाले 2 प्रतिशत का टैक्स में कटौती हो जाएगी। गौरतलब है कि इस टैक्स मद का बड़ा हिस्सा राज्य शासन को रिसर्व फण्ड और सडक़ निर्माण में दिया जाता है। जिससे राज्य शासन को आर्थिक नुकसान होना तय है।
रही बात किसानों के हित की तो छत्तीसगढ राज्य में 85 प्रतिशत किसान छोटे रकबे वाले है अमूमन यहाँ सरना धान की पैदावार अधिक होती है, जिसे राज्य शासन द्वारा अधिक दामों में खरीदी पहले से ही किया जा रहा है।
मंडी बोर्ड का नियंत्रण खत्म होने से व्यापारियों में फिर से जमाखोरी की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा और कृत्रिम महंगाई की सम्भावना से भी इंकार नही किया जा सकता। वहीँ इस राज्य में लगभग 1700 मंडी कर्मी का रोजगार भी संशय में है।
यह अध्यादेश बड़े किसानों या जो वैकल्पिक खेती करते हैं उनके लिए अधिक लाभप्रद है। इससे राज्य और केंद्र के बीच तारतम्यता स्थापित हो सकेगी इसमें संदेह है बेहतर होता कि इसे राज्य सरकारों की इच्छा के आधार पर लागु किया जाना था ताकि सभी राज्य अपने भौगोलिक और जलवायु के आधार पर होने वाले कृषि उत्पादों को देखते हुए अधिक उपयुक्त निर्णय लेते।
हालाँकि पिछले दिनों कृषि मंत्री ने कृषि सुधारों को लेकर सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर इन सुधारों को सफल तरीके से लागू करने में सहयोग का आग्रह किया था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया अभी तक यही सुनती आई थी कि चीन के मुसलमानों को सताया जा रहा है। चीन के भारत से लगे प्रांत सिंक्यांग (शिनच्यांग) में लगभग 10 लाख उइगर मुसलमानों को प्रशिक्षण शिविरों में बंद किया हुआ है। अब से लगभग 7-8 साल पहले मैं इस प्रांत में 3-4 दिन रह चुका हूं। वहां के उइगर मुसलमानों के नाम चीनी भाषा में होते हैं। वे कुरान की आयतें नहीं बोल पाते और उन्हें मस्जिदों में भीड़ लगाकर नमाज़ नहीं पढऩे दी जाती। रमजान के दिनों में उन्हें इफ्तार की पार्टियां नहीं करने दी जातीं। मेरा दुभाषिया भी एक उइगर नौजवान था। इसीलिए आम लोगों से मैं खुलकर बात कर लेता था। जो उइगर पेइचिंग और शांघाई में मेवे और खिलौने वगैरह की दुकानें करते हैं, उनसे भी मेरा अच्छा परिचय हो गया था। चीन की सुरक्षा एजंसियां इन लोगों पर कड़ी निगरानी रखती थीं। इन लोगों पर यह शक बना रहता था कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के आतंकवादियों के साथ इनके घने संबंध हैं लेकिन अब पता चला है कि चीन के ईसाइयों की दुर्दशा वहां के मुसलमानों से भी ज्यादा है। चीन में मुसलमान तो मुश्किल से डेढ़-दो करोड़ हैं लेकिन ईसाई वहां लगभग 7 करोड़ हैं। मुसलमान तो ज्यादातर उत्तरी प्रांत शिनच्यांग में सीमित हैं लेकिन चीनी ईसाई दर्जन भर प्रांतों में फैले हुए हैं। उनके कई संप्रदाय हैं। उनके सैकड़ों गिरजाघर शहरों और गांवों में बने हुए हैं। चीन में ईसाइयत फैलाने का श्रेय वहां भारत से गए विदेशी पादरियों को सबसे ज्यादा है।
पिछले हजार साल में चीन के कई राजाओं और सरकारों ने इन चीनी ईसाइयों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए लेकिन विदेशी पैसे और प्रभाव के कारण उनकी संख्या बढ़ती गई। चीन के मंचू और कोरियाई निवासियों में ईसाइयत जरा ज्यादा ही फैली। ईसाइयों की तुलना में बौद्धों पर कम अत्याचार हुए। मैंने चीन में बौद्धों के जैसे भव्य तीर्थ-स्थान देखे हैं, वैसे भारत में भी नहीं हैं। आजकल चीन के ईसाइयों से कहा जा रहा है कि वे अपने गिरजों में से ईसा और क्रॉस की मूर्तियां हटाएं और उनकी जगह माओ त्से तुंग और शी चिन फिंग की मूर्तियां लगाएं। पुलिस ने कई मूर्तियों और चर्चों को भी ढहा दिया है। जैसे सिक्यांग में कुरान देखने को भी नहीं मिलती, अब बाइबिल भी दुर्लभ हो गई है। चीनी भाषा में उसके अनुवाद भी नहीं छापे जा सकते हैं।
अपने आपको कम्युनिस्ट कहनेवाला चीन खुद तो पूंजीवादी और भोगवादी बन गया है लेकिन चीनी लोगों को उनकी धार्मिक आजादी से वंचित कर रहा है। इन सारे मजहबों को जो लोग पाखंड समझते हैं, वे भी इन पाखंडों की आजादी का समर्थन करते हैं, क्योंकि आजादी के बिना इंसान जानवर की श्रेणी में चला जाता है। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजेंद्र चौधरी
कोरोना संकट के एन बीच-बीच सरकार ने जून 2020 में किसानों से जुड़े तीन अध्यादेश जारी किए हैं। इनमें मंडी, ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य,’ ‘संविदा खेती’ जैसे किसानी मुद्दों का जिक्र करते हुए मौजूदा कृषि-व्यवस्था को कॉर्पोरेट खेती के हित में तब्दील करने की जुगत बिठाई गई है। कृषि-अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा का कहना है कि सरकार यदि किसानों का भला चाहती ही है तो उसे इन तीनों के अलावा एक और अध्यादेश ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ को बुनियादी अधिकार घोषित करने का भी लाना चाहिए। प्रस्तुत है, इन्हीं तीनों अध्यादेशों की समीक्षा करता राजेंद्र चौधरी का यह लेख। -संपादक
मई में मोदी सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान का जिक्र किया और तीन हफ्ते बाद ही देश के किसानों को अकेला छोड़ दिया। पांच जून 2020 को जारी कृषि सम्बन्धी अध्यादेशों द्वारा भारत सरकार ने खेती में तीन बड़े कानूनी बदलाव कर दिए हैं, अलबता देर-सवेर संसद को इन पर अंतिम फैसला लेना ही होगा। इन तीनों कानूनी बदलावों का प्रभाव यही होगा कि किसान अब बाज़ार में अकेला खड़ा होगा, उसे सरकार का सहारा नहीं होगा। एक ओर छोटा किसान और दूसरी ओर उसके सामने बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय व्यापारी। किसान को अकेला छोडऩा क्यों ठीक नहीं है? कई बार किसान भी यह सोचते हैं कि सरकार फसलों के मूल्य क्योंक तय करती है, क्यों नहीं किसान अपने उत्पादों का मूल्य खुद तय करें? ऊपरी तौर पर ठीक लगती यह बात ठीक नहीं है।
पूरी दुनिया में किसान को पूरी तरह अकेला नहीं छोड़ा जाता और इसके ठोस कारण हैं। ये कारण कृषि की प्रकृति में हैं। एक तो बुनियादी जरूरत होने के कारण भोजन की मांग में, कीमत या आय बढऩे पर ज्यादा बदलाव नहीं होता और दूसरा, मौसम पर निर्भरता के कारण कृषि-उत्पाद में बहुत ज्यादा बदलाव होते हैं। आपूर्ति में बहुत ज्यादा बदलाव और मांग के बे-लचीला होने का परिणाम यह होता है कि अगर बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाए तो कृषि की कीमतों में बहुत ज्यादा बदलाव होंगे। ऐसा न तो किसान के हित में होता है और न ही ग्राहक या उपभोक्ताम के हित में। जब फसल नष्ट होने के कारण कीमतें बढ़ती हैं तो किसान को कोई फायदा नहीं होता और जब अच्छी पैदावार के कारण कीमतें घट जाती हैं तो भी किसान को कोई फायदा नहीं होता। वैसे भी सरकार आम तौर पर कृषि-उत्पादों के मूल्य निर्धारित नहीं करती, वह तो केवल न्यूनतम बिक्री मूल्य (न्यूकनतम समर्थन मूल्यल, ‘एमएसपी’) निर्धारित करती है।
इन तीन कानूनी बदलावों द्वारा सरकार ने कृषि क्षेत्र से नियमन, विशेष तौर पर ‘मंडी कानून’ को बहुत हद तक ख़त्म कर दिया है। अब व्यापारी को मंडी नहीं जाना पड़ेगा। वो कहीं भी, बिना किसी सरकारी नियंत्रण के किसान का माल खरीद सकता है। जब सरकार द्वारा नियंत्रित मंडी में भी हमेशा और हर किसान को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलता, तो मंडी के बाहर क्या रेट मिलेगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। आढ़तियों से परेशान किसान यह सोच कर खुश हो सकते हैं कि चलो, इनसे तो पिंड छूटा, पर ध्यान रहे आढ़तिया भी व्यापारी है, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं और नई व्यवस्था में भी खरीदेगा तो व्यापारी ही। फर्क ये होगा कि अब सरकार/समाज की निगाह से दूर ये सौदा होगा। ‘आवश्यक वस्तु कानून’ की ओट लगभग ख़त्म होने से अब व्यापारी कितना भी माल खरीद और स्टाक कर सकता है। इसका अर्थ है, अब बाज़ार में बड़े-बड़े, विशालकाय खरीददार होंगे जिनके सामने छोटे-से किसान की कितनी और क्या औकात होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के चलते कम्पनियों के आत्मनिर्भर होने की राह भी खोल दी गई है। अब संविदा करार की मार्फत कम्पनियां खुद खेती कर सकेंगी। आम तौर पर अनुबंध खेती का मतलब है कि बुआई के समय ही बिक्री का सौदा हो जाता है ताकि किसान को भाव की चिंता न रहे। सरकार द्वारा पारित वर्तमान कानून में अनुबंध की परिभाषा को बिक्री तक सीमित न करके, उसमें सभी किस्म के कृषि कार्यों को शामिल किया गया है। इस तरह परोक्ष रूप से कम्पनियों द्वारा किसान से जमीन ले कर खुद खेती करने की राह भी खोल दी गई है। अध्यारदेश के अनुसार कम्पनी किसान को, किसान द्वारा की गई सेवाओं के लिए भुगतान करेगी यानी किसान अपनी उपज की बिक्री न करके अपनी ज़मीन (या अपने श्रम) का भुगतान पायेगा। हालाँकि अध्याकदेश की ‘धारा-8-ए’ में कहा गया है कि इस कानून के तहत ज़मीन को पट्टे पर नहीं लिया जा सकेगा, लेकिन दूसरी ओर ‘धारा-8-बी’ में भूमि पर कम्पनी द्वारा किये गए स्थाई चिनाई, भवन-निर्माण या ज़मीन में बदलाव इत्यादि का जि़क्र है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अनुबंध की अवधि के दौरान ज़मीन अनुबंध करने वाले के नियंत्रण में है, यानि खेती किसान नहीं, अनुबंध करने वाला कर रहा है।
भारत जैसे विशाल आबादी और बड़ी बेरोजगारी वाले देश में कम्पनियों द्वारा खेती हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। कोरोना-काल ने इसे फिर से रेखांकित कर दिया है। जब कम्पनियों ने मजदूरों को निकाल बाहर किया था तो खेती और छोटे-मोटे ग्रामीण रोजग़ार ही थे, जिनके भरोसे लोग सैंकड़ों मील पैदल चलने का खतरा मोल लेकर भी निकल पड़े थे। ‘अनुबंध पर खेती कानून’ ग्रामीण इलाकों के इस अंतिम सहारे को भी छीनने का क़ानून है। यह कानून बिना नए रोजग़ार की व्यवस्था के, पुराने रोजग़ार को छीनने का कानून है।
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आज़ादी की लड़ाई के समय से ही यह मांग रही है कि खेती पर किसान का नियंत्रण रहे, न कि व्यापारियों का। इसलिए आज़ादी के बाद कृषि भूमि की अधिकतम सीमा तय कर दी गई थी। आज़ादी से पहले भी पंजाब में यह कानून बनाया गया था कि गैर-कृषक या साहूकार खेत और खेती के औजारों पर कब्ज़ा नहीं कर सकता। इन कानूनों का उद्देश्य यही था कि खेती चंद लोगों के अधिकार की बजाए आम लोगों की आजीविका का साधन रहे। सरकार इन मौजूदा कानूनों को दरकिनार कर, अनुबंध पर खेती के कानून के माध्यम से कम्पनियों के लिए खेती की राह खोल रही है। अगर सरकार समझती है कि ऐसा करना देश और किसानों के हित में है तो उसे चाहिए कि वो इस कानून को ‘कम्पनी द्वारा खेती का कानून’ के नाम से संसद में पेश करे न कि ‘किसान सशक्तिकरण कानून’ के नाम से।
इसमें दो राय नहीं हैं कि कृषि मंडी की वर्तमान व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत है, पर इसका इलाज़ कृषि मंडी नियमन को ख़त्म करने में नहीं है। इसका उपाय है, मंडी कमेटी को किसानों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए; उसमें सभी हितधारकों के चुने हुए प्रतिनिधि हों। आज भी कानूनी प्रावधानों के बावजूद बरसों मंडियों के चुनाव नहीं कराये जाते और नतीजे में चुने हुए प्रतिनिधियों को कोई अधिकार नहीं दिए जाते। अगर नियमन के बावज़ूद सरकार छोटे-मोटे व्यापारियों और आढ़तियों से किसानों को नहीं बचा सकती, सरकारी खरीद का पैसा भी योजना बनाने के बावजूद सीधे किसानों के खातों में नहीं पहुंचा सकती, तो अब जब बड़ी-बड़ी दैत्याकार विशाल देशी-विदेशी कम्पनियां बिना किसी सरकारी नियंत्रण या नियमन के किसान का माल खरीदने लगेंगी तो फिर किसान को कौन बचाएगा?
कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा किये गए बदलावों के बाद अनाज मंडी का भी वही हाल होगा जो सरकारी स्कूलों का हुआ है। बड़ी कम्पनियां, बड़े किसानों की पैदावार ले लेंगी और बड़े किसान इन कम्पनियों से अनुबंध भी कुछ हद तक निभा लेंगे। जब संपन्न किसान अनाज मंडी से बाहर चला जाएगा, तो सरकारी स्कूलों की तरह अनाज मंडियां भी बंद होने लगेंगी और फिर छोटे, आम किसानों के लिए कोई राह नहीं बचेगी। (सप्रेस)
(राजेंद्र चौधरी महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, (हरियाणा) में प्रोफेसर हैं।)
अमेरिका और चीन का संबंध दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा है। दोनों देशों में गत कुछ महीनों से जोरदार वाकयुद्ध शुरू है और बुधवार को उसमें एक और चिंगारी पड़ गई। अमेरिका ने ह्यूस्टन स्थित चीनी दूतावास को 72 घंटे के भीतर बंद करने का आदेश दे दिया। अमेरिका और चीन के बीच अनबन पहले से ही बढ़ती जा रही थी और इस नए निणर्य के कारण दोनों देशों के बीच संघर्ष बढ़ने की संभावना दिख रही है। इस फौरी आदेश के कारण चीनी अधिकारी सकपका गए क्योंकि ह्यूस्टन स्थित दूतावास कोई साधारण पासपोर्ट मंजूरी का कार्यालय अथवा कचहरी नहीं है, बल्कि ख्याति प्राप्त महावाणिज्य दूतावास है। इसके अलावा उसकी ये भी पहचान है कि अमेरिका में चीन का ये पहला दूतावास है। लेकिन अमेरिका ने एक झटके में दूतावास पर ताला लगाने का निर्णय ले लिया। चीन और अमेरिका के बीच जो अरबों डॉलर्स का व्यापार होता है, वाणिज्य और व्यापार विषयों के दस्तावेजों को मिलाना और उसकी जांच आदि के महत्वपूर्ण निर्णय इस दूतावास में होते थे, जिसे बंद करने का निर्णय अमेरिका द्वारा लिया गया। इसलिए आश्चर्य स्वाभाविक है। हालांकि प्रे. ट्रंप की आज तक की कार्यशैली को देखते हुए इसमें आश्चर्यजनक जैसा कुछ नहीं है। ट्रंप की कार्यशैली हमेशा धक्कादायक और चकित करने वाली ही रही है। उसी के तहत अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष द्वारा ह्यूस्टन दूतावास को खाली करने का आदेश दिया गया है। चीन को एक वाक्य में यह सूचना दे गई, ‘अमेरिकी नागरिकों की बौद्धिक संपदा और निजी जानकारियों की सुरक्षा के लिए इस दूतावास को बंद कर दिया जाए।’ चीन की वानर हरकतों को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन ने जासूसी आदि संदिग्ध गतिविधियों के लिए दूतावास का प्रयोग किया ही होगा। ‘गिरे तब भी टांग ऊपर’ की तरह चीन के विदेश मंत्रालय ने भी धमकी दी है, ‘हम भी इस कार्रवाई का प्रत्युत्तर देंगे।’ चीन की इस हल्की धमकी पर अमेरिका ने कोई तवज्जो नहीं दी। उल्टे अमेरिका में चीन के अतिरिक्त दूतावास को भी बंद करने से इनकार नहीं किया जा सकता, ऐसा कहते हुए प्रेसिडेंट ट्रंप ने चीन पर दूसरा बम फेंक दिया है। चीन और अमेरिका के बीच राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर संघर्ष कोई नई बात नहीं है। हालांकि 2018 के ‘ट्रेड वॉर’ से लेकर कोरोना के ताजा संकट तक दोनों देशों में तनाव शीर्ष पर पहुंचता दिख रहा है। अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष ने घोषित तौर पर चीन पर आरोप लगाया है कि चीन ने ही कोरोना का वैश्विक संकट विश्व पर लाद दिया है और यह वायरस वुहान की प्रयोगशाला से पैâलाने का चीनी षड्यंत्र है। चीन ने इस आरोप से इनकार भले ही कर दिया हो लेकिन अमेरिका ही क्या, दुनिया का एक भी देश चीन के नेताओं पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। साम्यवादी अर्थात ‘साम्राज्यवादविरोधी’ वाला चीन का दिखाने वाला चेहरा अलग है और असली चेहरा ‘साम्राज्यविस्तार’ वाला है। चीन की विदेश नीति यही रही है। हिंदुस्थान सहित कुल 23 देशों से चीन का सीमा विवाद चल रहा है। हम दुनिया भर में जाकर व्यापार करेंगे, विदेशी मुद्रा लाएंगे, दुनिया भर की अर्थव्यवस्था में घुसपैठ करेंगे लेकिन हमारे देश में किसी व्यापारी को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। दुनिया चीन की इस नीति को समझ गई है। ह्यूस्टन का दूतावास बंद करके अमेरिका ने चीन को पहला झटका दिया है। इस आदेश के बाद दूतावास में कागजातों का जलना और इमारत के बाहर निकलता धुआं बहुत कुछ कह जाता है। अमेरिका का शक सही रहा होगा, उसके बिना यह आग नहीं लगी होगी। दूतावास खाली करने के लिए चीन के पास अब केवल 24 घंटे बचे हैं। उसके बाद चीन पलटवार वैâसे करता है और यह संघर्ष कहां तक पहुंचता है, इस ओर पूरी दुनिया की नजर लगी हुई है।
जुलाई 23, 2020, मुंबई
-बाबा मायाराम
“हमारे यहां जंगल में झाड़ पेड़ कम हो रहे हैं। न अच्छी छांव मिलती, न पहले जैसे पंछी आते हैं। जंगल से कंद, फल, फूल और पत्ते भी पहले जैसे नहीं मिलते। बारिश भी पहले जैसे नहीं होती। इसलिए हम जंगल में पेड़ लगाने और फिर से हरियाली बढ़ाने का काम कर रहे हैं।” यह जैतगिरी गांव की मीनवती बाकड़े थीं।
छत्तीसगढ़ में बस्तर जिले के बकावण्ड प्रखंड में है जैतगिरी गांव। इस गांव में मां दन्तेश्वरी बिटाल महिला स्वसहायता समूह है, जिसकी अध्यक्ष हैं मीनवती बाकड़े। इस महिला समूह ने देसी प्रजाति के पेड़-पौधों की नर्सरी तैयार की है, जिन्हें वे उनके गांव में, गांव की खाली पड़ी जमीन पर, खेतों में, जंगल में लगाते हैं। आसपास के गांवों में बांटते हैं और पड़ोसी राज्यों को भी देते हैं।
बस्तर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां का हरा-भरा जंगल, पहाड़, झरने, नदियां मोहती हैं। साल, सागौन और बांस का जंगल प्रसिद्ध है। यहां पानी की प्रचुरता है, वर्षा भी अच्छी होती है। यहां के साप्ताहिक हाट, उनकी जीवनशैली, रहन सहन और बस्तरिया आदिवासियों के नृत्य गीत लुभाते हैं। रंग बिरंगी संस्कृति खींचती है। लेकिन अब बस्तर के जंगल भी कम होते जा रहे हैं, आदिवासियों ने इसका एहसास कर जंगलों की विरासत को सहेजना शुरू कर दिया है।
हाल ही में, मैं हरियाली की इस पहल को देखने के लिए गया था। मीनवती के साथ गांव की मेंगवती चंद्राकर, पदमा कौशिक, राधामनी कश्यप, सेवती बाकड़े, सावित्री ठाकुर, हीरामनी वैष्णव, कमला, निलमनी भी आ गईं। वे मुझे नर्सरी दिखाने ले गईं। वहां सिवना, बहेड़ा. सियारी (माहुल), जामुन, भिलवां, पेंगु, कोसम जैसे करीब 50 देसी प्रजाति की पौध रोपणी थी। इन पौधों में पानी डालने से लेकर उनकी निंदाई गुड़ाई तक सभी काम महिलाएं करती हैं। वे उत्साहित होकर उनकी पहचान, उपयोग और औषधि गुणों के बारे में बता रही थीं।
वे बताती हैं कि जंगल ही हमारा जीवन है। अगर जंगल नहीं रहेगा तो आदिवासी कैसे रहेगा, इसलिए जंगल को बचाना और उसकी हरियाली को बढ़ाना जरूरी है। इन फलदार पेड़ों से गांव की भूख खत्म होगी और जंगल भी हरा-भरा होगा। बाऱिश होगी तो खेतों में फसलें भी अच्छी पकेंगी। यह काम पिछले 5 वर्षों से किया जा रहा है। जैतगिरी अकेला गांव नहीं है नर्सरी करने वाला, बल्कि ऐसी नर्सरी संधकरमरी ( बकावण्ड प्रखंड), कंकालगुर ( दरभा प्रखंड) और कंगोली गांव (जगदलपुर प्रखंड) में भी है। जैतगिरी की नर्सरी (पौध रोपणी) महिला समूह द्वारा तैयार की जा रही है, अन्य नर्सरी में महिला पुरूष दोनों मिलकर काम करते हैं। जैतगिरी ग्राम की महिलाओं से प्रेरित होकर अन्य गांव की महिलाएं भी नर्सरी के काम में आगे आई हैं। इसके साथ पेड़ों की पहचान, गुणधर्मों की पहचान और उनसे जुडे पारंपरिक ज्ञान का भी आदान प्रदान किया जा रहा है।
फोटो 1 संधकरमरी में बीजों का संकलन
वे आगे बताती हैं कि जंगल से उनका जीवन जुड़ा हुआ है। सुबह जागने से लेकर रात्रि सोने तक जंगल की कई चीजों को उपयोग में लाते हैं। जैसे प्रातः दातौन, खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी, कंद-मूल, वनोपज, छाती (मशरूम), सब्जी में कई प्रकार की हरी भाजियां मिलती हैं। थाली के रूप में सियारी या साल के पत्तों से बनी पतली ( प्लेट) का उपयोग करते हैं। इसके अलावा, कई प्रकार के कंद मिलते हैं। जैसे- पीता कंद, सोरन्दा कंद, तरगरिया कंद, पीट कंद, टुन्डरी कंद, कुलिया कंद, दुपन कंद, बुरकी कंद, डोगर कंद, सींध कंद इत्यादि। हरी पत्तीदार भाजियों में पेंगु भाजी, भेलवां भाजी, कोंयजारी भाजी, कोलियारी भाजी, कोकटी भाजी, बोदई भाजी। मशरूम को यहां छाती कहते हैं जिसमें डेंगुर छाती, केन्दु छाती, दाबरी छाती, बात छाती, कुटियारी छाती, पतर छाती, जाम छाती, मजुर डुण्डा, हल्दुलिया छाती आदि। झाडू के रूप में फूल बाड़न, काटा बाड़न, जिटका बाड़न, दाब बाड़न, सींध बाड़न आदि। वनोपज में चिरौंजी, आंवला, हर्रा, बहेड़ा, तेंदूपत्ता, साल, आम, जामुन, तेंदू आदि। इन सबको घरेलू उपयोग के साथ साथ बाजार में भी बेचा जाता है, जिससे थोड़ी आमदनी भी हो जाती है।
हरियाली बढ़ाने की यह पहल लीफ (लीगल एंड एनवायरमेंटल एक्शन फाउंडेशन) संस्था ने की है। अर्जुन सिंह नाग, इसके संस्थापक हैं, जो स्वयं आदिवासी हैं। लीफ संस्था ने ही महिला समूहों के माध्यम से इस काम को किया है। अर्जुन सिंह नाग कहते हैं कि पेड़-पौधे हर दृष्टि से उपयोगी हैं। आदिवासियों के जीवन में जंगल का बड़ा महत्व है। उनके खान-पान, उनके देवी देवता, उनकी आदिवासी संस्कृति सभी जंगल से जुड़ी है। इसलिए हमने जंगल को बचाने और हरियाली बढ़ाने का यह काम शुरू किया है। इससे हरियाली बढ़ेगी, ताजी हवा मिलेगी, पानी का संचय होगा, भूजल बढ़ेगा, सदाबहार नदियां व झरने होंगे, जैव विविधता और पर्यावरण बचेगा। मिट्टी का कटाव रूकेगा, पेड़ों पर पक्षी आएंगे, वे कीट नियंत्रण करेंगे। आदिवासियो के भोजन में पोषक तत्व होंगे, गांव के लोगों को खाने को कई चीजें मिलेंगी, भुखमरी मिटेगी, उनका स्वास्थ्य ठीक होगा। इन फलों व वनोपज की बिक्री से आमदनी बढ़ेगी। और आदिवासी संस्कृति व आदिवासियत बचेगी।
लीफ संस्था के सहयोग से गांवों में वनविहीन, बिगड़े वन एवं देवस्थल क्षेत्रों में अनेक प्रजातियों के पौधों का रोपण किया है, जिनकी ग्राम पंचायतों के सहयोग से सुरक्षा की जा रही है। विशेषकर, ग्राम संधकरमरी के मावली कोट, ग्राम आंवराभाटा के सौतपुर के खोड़िया भैरम, ग्राम जैतगिरी के धवड़ावीर, और ग्राम बदलावण्ड में माई दंतेश्वरी देवस्थल परिसर के वनक्षेत्रों में पौधारोपण किया गया है। इन पौधों में देसी प्रजाति एवं जड़ी बूटी औषधिपूर्ण पौधों का रोपण किया गया, जो अब जंगल के रूप में हरा-भरा हो गया है।
फोटो-2 इमली बीज निकालती महिलाएं
पेशे से वकील अर्जुन सिंह नाग बताते हैं कि पेड़ लगाने की तैयारी गर्मी के मौसम से शुरू हो जाती है। बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ-सफाई करना, उनका रख-ऱखाव करना और नर्सरी में पौधे तैयार करना और फिर उन्हें लगाना। बीजों का रोपण का समय, उनकी भंडारण की पद्धति, अंकुरण की तकनीक, बीजों को मिट्टी के साथ मिलाकर बोना, जड़ों की छंटाई और निंदाई गुड़ाई इत्यादि सभी काम महिलाओं को पता हैं।
बीज संकलन के काम में गांव के लड़के, लड़कियां व चरवाहों को जोड़ा जाता है, उनके अलग-अलग समूह बनाए जाते हैं, गांव के बुजुर्ग गांव में पेड़ों की प्रजातियों के बारे में बैठक करते हैं। वे जंगल से बीज एकत्र कर लाते हैं। इनमें फलदार पेड़, घास, लता और कांटेदार पौधे, जड़ी-बूटी, वन खाद्य जैसे कंद-मूल, हरी पत्तीदार भाजियां शामिल हैं। इन रोपणियों में से पौधे बड़ी सावधानी से निकालते हैं और प्लास्टिक बैग समेत एक जगह से दूसरे जगह ले जाते हैं, यह काम सूखे दिनों में अप्रैल के मध्य में होता है। मानसून के पहले उन स्थानों पर पौधे पहुंचाए जाते हैं, जहां इनका रोपण करना है।
वे आगे बताते हैं कि वनसंरक्षण का काम 15 गांवों में किया जा रहा है। गांवों में हरियाली बढ़ाने के काम की शुरूआत वर्ष 2004 से हुई थी, वर्ष 2013 से राजिम ( छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में) स्थित प्रेरक संस्था के सहयोग से इस काम में तेजी आई है। जंगल की संस्कृति बचाने का प्रयास किया जा रहा है। अगर हमें आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा व खाद्य संस्कृति को बचाना है तो खेती व जंगल का गैर खेती खाद्य ( जंगली खाद्य) बचाना और उसका संवर्धन करना जरूरी है।
फोटो-3 कंगोली नर्सरी में पौधों की देखभाल
नाग जी ने बताया कि हमारी नर्सरी से करीब एक लाख पौधे पड़ोसी राज्य तेलंगाना और आंध्रप्रदेश को भेजे गए थे। यह वर्ष 2017 की बात है। वहां के वनविभाग ने इसकी मांग की थी। वहां के वन विभाग के अधिकारी यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि इन पौधों की अंकुरण क्षमता बहुत उम्दा किस्म की थी। बाद में तेलंगाना वनविभाग ने लीफ संस्था से जुड़े आदिवासी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने के लिए आमंत्रित किया जिससे आदिवासियों में आत्मविश्वास आया और इस काम में तेजी आई।
आदिवासियों की परंपरा में हमेशा से ही जंगल बचाना रहा है। इसे यहां की परंपराओं से समझा जा सकता है। बस्तर के वनों में देसी प्रजाति के मौसमी फल व वन खाद्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं जिन्हें ग्रामवासी संग्रहण करते हैं। चाहे कृषि उपज हो या वनोपज, जब तक पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो जाते तब तक इन्हें ग्रहण नहीं किया जाता। इन फसलों को परिपक्व होने की स्थिति में प्रत्येक गांव में ग्राम देवी देवता को सबसे पहले अर्पण करते हैं फिर खुद ग्रहण करते हैं।
इसी तरह वनोपज में विशेषकर बस्तर के जंगल में कई प्रजातियों के देशी आम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। लेकिन इन आमों को बस्तर के आदिवासी तब तक नहीं खाते जब तक कि ये परिपक्व नहीं हो जाते। आम को खाने के पूर्व ग्राम देवी देवता को पारंपरिक रूप से अर्पण किया जाता है, उसके बाद ही लोग खाते हैं। यह त्यौहार प्रतिवर्ष मध्य अप्रैल से मई माह के पहले हफ्ते के बीच मनाया जाता है। इस परंपरा को सख्ती से पालन किया जाता है।
अगर कोई गांव आम त्यौहार का उल्लंघन करता है और उस तिथि से पहले आम त्यौहार मनाता है तो उस गांवों के लोगों से पानी तक ग्रहण नहीं किया जाता। इस परंपरा में आम पूरी तरह परिपक्व हो जाता है, तब उसकी गुठली से नया पौधा उगाते हैं ताकि वह पेड़ बनकर आने वाली पीढ़ी को फल व अन्य लाभ दे सके। इस तरह, वन संरक्षण एवं संवर्धन के आदिवासियों के अपने पारंपरिक तरीके हैं।
इसके बाद हम संधकरमरी गांव की नर्सरी पहुंचे। यह गांव जंगल बचाने में अग्रणी रहा है। यहां करीब 600 एकड़ जंगल को बचाया है। यह कमाल किया है यहां के दामोदर कश्यप ने, वह गांव के 35 साल तक निर्विरोध सरपंच भी रह चुके हैं। दामोदर कश्यप ने ही संधकरमरी गांव में 10 एकड़ जमीन नर्सरी के लिए दी है और लीफ संस्था का कार्यालय बनाने के लिए जमीन दान में दी है। संधकरमरी गांव के लोगों ने जंगल को बचाने के लिए ठेंगापाली पद्धति को अपनाया है।
क्या है ठेंगापाली पद्धति इसके जवाब में दामोदर कश्यप बताते हैं कि इसमें ठेंगा यानी एक खास तरह का बांस से निर्मित डंडा होता है। पाली यानी बारी। इसलिए इसे ठेंगापाली पद्धति कहा गया। इस डंडे पर गांववाले झंडे की तरह कपड़ा लपेट देते हैं। ग्रामदेवी के मंदिर में रख इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। उस दिन से इस ठेंगा को लेकर लोग जंगल की रखवाली करते हैं।
जंगल की रखवाली करने के लिए सुबह निकलते हैं और शाम को लौटते हैं। शाम को यह ठेंगा ( डंडा) पड़ोसी के घर रख दिया जाता है। पड़ोसी और उसके बाजू वाले दो घर के लोग इसे लेकर दूसरे दिन रखवाली करने जाते हैं। इस तरह यह सिलसिला जारी रहता है। बरसों से यह क्रम चल रहा है। पहले एक दिन में गांव के 10-12 लोग जंगल की रखवाली करते थे। बाद में एक दिन में 3-3 लोग रखवाली करने के लिए तय किया गया। इस तरह दामोदर कश्यप ने उनके गांव के आसपास 6 सौ एकड़ जंगल बचाया है।
इसके अलावा, लीफ संस्था ने सब्जी बाड़ी ( किचिन गार्डन) का भी अच्छा काम किया है। ग्राम स्तरीय विकास में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने एवं उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर करने के उद्देश्य से 10 गांवों में महिला समूहों का गठन किया गया है। उनकी आर्थिक और स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर करने के लिए सब्जी बाड़ी का काम किया जा रहा है। और इसका प्रशिक्षण भी दिया गया है। इसके तहत् अलग से पानी की जरूरत नहीं है बल्कि घरेलू बर्तन वगैरह धोने के बेकार पानी से सब्जी बाड़ी की सिंचाई की जा सकती है। यह सब्जी बाड़ी पूरी तरह जैविक तरीके से की जा रही है, यानी बिना रासायनिक खाद के। ग्राम ककालगुर के केवराफूल महिला स्वसहायता समूह, सूरजफूल महिला स्वसहायता समहू समेत 10 महिला समूहों ने इसमें अच्छी सफलता हासिल की है। आज उनकी सब्जी बाड़ी से घर के लिए ताजी सब्जियां मिल रही हैं और अतिरिक्त होने पर बाजार में भी बेची जा रही हैं, जिससे कुछ आमदनी भी हो रही है।
पर्यावरणविद् व लीफ संस्था से जुड़े मधु रामनाथ कहते हैं कि नर्सरी का काम बहुत उपयोगी है। जलवायु बदलाव के दौर में इसकी प्रासंगिकता बढ़ गई है। ऐसे समय जब बारिश की अनिश्चितता बढ़ गई है, जंगलों की विरासत को बचाना जरूरी है। जहां जंगल हैं वहीं आदिवासी हैं और जहां आदिवासी हैं वहीं जंगल है। जलवायु बदलाव के दौर में पारम्परिक ज्ञान से जंगल और आदिवासी दोनों बच सकते हैं, पर्यावरण व जैव विविधता भी बच सकती है। यह सब हम बीजों के आदान प्रदान से, और एक दूसरे से सीख सकते हैं।
मधु रामनाथ कहते हैं कि नर्सरी का अनूठा काम बस्तर में किया जा रहा है। बीज संकलन सही समय व सुरक्षित तरीके से करना जरुरी है। यह समझना जरूरी है कि कुछ बीजों की अंकुऱण क्षमता कम समय की होती है, और कुछ बीज ज्यादा समय तक रहते हैं। सबको एकत्र करने की जरूरत नहीं है। इससे अच्छा तो यह है कि उन बीजों को पेड़ों के नीचे ही छोड़ देना चाहिए जिससे वे अंकुरित हो सकें। इस तरह वृक्षों के बारे में जानकारी एकत्र कर ही बीज संकलन किया जाए, यह काम लीफ संस्था अच्छे से कर रही है, उन्हें जंगल के पेड़ों के बारे में अच्छी जानकारी है। यह एक तरह से जंगलों को आदिवासियों की आजीविका से जोड़ना है।
फोटो 4 जंगली मशरूम बाजार में बिकता है
कोविड-19 की तालाबंदी के दौरान जब हाट-बाजार और दुकानें बंद थी, तब जंगल के वन खाद्य, कंद और हरी भाजियां भोजन का हिस्सा बनीं। लीफ संस्था से जुड़े मंगरूराम कश्यप बताते हैं कि तालाबंदी के दौरान कई तरह की हरी पत्तीदार भाजियां जैसे कोंयजारी भाजी, बेलुआं भाजी, कोलियारी भाजी, बोदई भाजी, पेंगु भाजी, कोकटी भाजी आदि जंगल से मिलीं। इसके साथ ही सोरंदाकंद, पीताकंद, टुंडरीकंद, पीटकंद, नागरकंद, तरगरियाकंद, कुलियाकंद, बुरकीकंद, सीकापेंदी कंद, डोंगरकंद, दपनकंद, सिंधकंद, कावराकंद आदि भी खूब खाया। इसके अलावा, बोड़ा या फुटू ( मशरूम) की सब्जी भी जंगल से मिली। दो प्रकार का होता है, जात बोड़ा ( मशरूम) पहली बारिश में निकलता है, जबकि लाकड़ी बोड़ा ज्यादा बारिश होने पर निकलता है। तालाबंदी के समय जात बोड़ा ( मशरूम) खूब मिला और इसे बेचा भी। इसकी कीमत प्रति किलो 1000 रूपए थी। मशरूम केन्दु छाती ( मशरूम), डेंगुर छाती, पत्तर छाती, मजुरडुंडा भी बहुत मिला। इसके साथ बस्तर में चापडा ( लाल रंग की चींटी) की सब्जी भी खाई गई। इसकी चटनी बनाकर खाई जाती है। सुखाकर भी खाते हैं। यानी तालाबंदी के दौरान जंगल ने आदिवासियों को बड़ा सहारा दिया। भोजन दिया।
फोटो 5 जंगल का खान पान है मशरूम
वनोपज के रूप में महुआ, चार, इमली, सालबीज का संग्रहण किया। तेंदूपत्ता संग्रहण का संग्रहण किया गया, जिससे आमदनी हुई।
कुल मिलाकर, यह पहल बहुत उपयोगी व सार्थक है। तालाबंदी के दौरान वन खाद्य भोजन का हिस्सा बने, वनोपज से कमाई हुई। जंगल व पेड़ लगाने का फौरी लाभ हुआ। साथ ही, इससे आसपास का जंगल हरा भरा हुआ है, भूजल स्तर बढ़ा है। जंगल है तो आदिवासी हैं, जंगल से कई तरह के पोषक वन खाद्य मिल रहे हैं। हरी पत्तीदार सब्जियां मिल रही हैं। साल बीज, तेंदूपत्ता, महुआ, आम, शहद, चिरौंजी जैसी वनोपज मिल रही हैं। उनकी आजीविका सुनिश्चित हुई है। महिला सशक्तीकरण का यह अच्छा उदाहरण है। यह जंगल की सुरक्षा की समुदाय की परंपरा है, उसे पुनर्जीवित किया है, आदिवासी संस्कृति में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाया है। जंगल को लगाया है और कटने से बचाया है। बांस की बेजा कटाई पर रोक लगाई है। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी हुआ है। आदिवासी युवाओं को इससे जोड़ा है, जंगलों की समृद्ध विरासत को सहेजा है।
फोटो 6 ककालगुर में वन प्रबंधन की बैठक
-अतुल अनेजा
चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने महासचिव शी जिनपिंग के कद को पार्टी राज्य के संस्थापक कहे जाने वाले माओ त्से तुंग के अनुरूप करने के लिए एक और कदम उठाया है। हालांकि, ऐसा कहा जाता है कि माओ के शासनकाल में उनकी नीतियों ने लाखों लोगों की जान ले ली थी और 1976 में उनकी मृत्यु के समय चीन पतन की कगार पर पहुंच गया था।
बीजिंग में मंगलवार को कूटनीति पर शी जिनपिंग के विचार किताब जारी की गई। प्रकाशन ने शी जिनपिंग विचार के लिए 'नए युग' के रूप में एक महत्वपूर्ण आयाम को बढ़ाया है जिसका अनावरण सीपीसी की 19वीं पार्टी कांग्रेस के दौरान अक्टूबर 2017 में किया गया था।
दो दशक के संयोजन के दौरान शी की हैसियत को माओ के अनुसार ऊंचा किया गया क्योंकि वह पीआरसी के संस्थापक के बाद एकमात्र चीनी नेता हैं जिनके विचार पार्टी के संविधान में निहित किए गए हैं। यहां तक कि शी की तुलना में चीन के सुधारों के वास्तुकार डेंग शियाओपिंग की स्थिति भी छोटी हो गई। पार्टी के संविधान में डेंग के सिद्धांत के योगदान को माओ और शी के विचार के एक पायदान नीचे मान्यता दी गई है।
शी को 2016 में 'कोर' नेता के रूप में भी नामित किया गया था। यह एक ऐसी उपाधि है जो माओ और देंग सहित शक्तिशाली चुनिंदा चीनी नेताओं के लिए आरक्षित रही है।
बीजिंग में मंगलवार को चीनी उच्च अधिकारियों ने फैसला किया कि कोरोना महामारी के बाद चीन की सत्ता में शी के सर्वोच्च अधिकार को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) में माओ जैसे अधिकार के रूप में फिर से पुष्ट किया जाना अब अति आवश्यक हो गया है।
चीन इन आरोपों की सुनामी का सामना कर रहा है कि उसने जानबूझकर या अनजाने में कोविड-19 महामारी फैलाई है जिसने सीपीसी को एक मौलिक विकल्प चुनने के लिए मजबूर किया है। पार्टी या तो घुटनों में चेहरा छिपाकर इन वैश्विक हमलों की अनदेखी कर सकती है या फिर इसके विपरीत वह आक्रामक रुख अपनाकर शी के नेतृत्व में पूर्ण राजनीतिक सामंजस्य के साथ अपनी सैन्य शक्ति को एक निवारक के रूप में प्रदर्शित कर सकती है।
इस दुविधा के बीच बीजिंग ने आक्रामक दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया। इसने एक साथ दो भौगोलिक थिएटरों में अपनी ताकत दिखाना शुरू कर दिया। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), जिसके कमांडर-इन-चीफ शी हैं, ने मजबूती से उभरते भारत के साथ सीधे तनाव में लद्दाख में घुसपैठ की। पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में पीएलए नेवी (पीएलएएन) ने संसाधन संपन्न दक्षिण चीन सागर में अपने समुद्री दावों को लागू करने के लिए शक्ति दिखाना शुरू किया। एक तरफ भारतीय सशस्त्र बल लद्दाख में पीएलए के सामने डट गए, दूसरी तरफ अमेरिकियों ने सभी चीनी दावों को अस्वीकार करते हुए दक्षिण चीन सागर में दो विमान वाहक पोत भेजे। इस इलाके में वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया, थाईलैंड और ब्रुनेई जैसे आसियान देशों के संप्रभुता के अपने-अपने दावे हैं।
इस परिदृश्य में चीन ने शी जिनपिंग के कूटनीति पर विचार को 'शी जिनपिंग डिप्लोमैटिक थॉट रिसर्च सेंटर' के गठन के साथ संस्थागत बनाने का फैसला किया। यह दुनिया को यह बताने के लिए है कि शी की अगुवाई में सीपीसी नेतृत्व पूरी मजबूती से काम कर रहा है और शायद कोविड-19 के बाद और भी मजबूत हुआ है।
केंद्र के उद्घाटन के दौरान चीनी विदेश मंत्री व स्टेट काउंसलर वांग यी ने भी आश्चर्यजनक रूप से खुलकर खुलासा किया कि शी का चीन एक मध्यकालीन साम्राज्य 2.0 की महत्वाकांक्षाएं रखता है। इस सिद्धांत के तहत चीन, पहले के शाही चीन की तरह, प्रमुख 'सार्वभौमिक' शासक बनने के लिए इच्छुक है, जो कई सहायक राज्यों द्वारा प्रतिस्थापित (रेपलेनिश्ड) किया जाएगा और जिन्हें बदले में बीजिंग में रहने वाले 'अधिपति' (सुजैरेन) द्वारा सुरक्षा मिलेगी।
वांग ने मध्य साम्राज्य की आकांक्षाओं की गूंज के साथ कहा, "चीनी राष्ट्र के महान कायाकल्प के सपने के साकार होने का आज जैसा समय पहले कभी नहीं आया।"
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि शी जिनपिंग के चीनी विशेषताओं के साथ 'डिप्लोमैटिक थॉट्स ऑन सोशलिज्म' के नए युग में चीन एक ऐसे मंच पर आ गया जहां वह वैश्विक एजेंडा को आकार देने में नेतृत्व करेगा।
वांग ने कहा, "हम वैश्विक शासन प्रणाली में सुधार का नेतृत्व करने के लिए पहल करते हैं, वैश्वीकरण के विकास को अधिक समावेशी और समावेशी दिशा में बढ़ावा देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के विकास को और अधिक उचित दिशा में बढ़ावा देते हैं।"
चीन के मध्य साम्राज्य के सपनों को पूरा करने वाले 'दो शताब्दी के लक्ष्यों' में शी ने 19वीं पार्टी कांग्रेस के दौरान घोषणा की थी कि चीन 2020 में 'मध्यम समृद्ध समाज' और 2050 तक एक 'बेजोड़ पूर्ण विकसित देश' बन जाएगा, जो पीआरसी के गठन की शताब्दी को चिह्न्ति करेगा।
फाइनेंशियल टाइम्स के गिडियोन रैचमैन ने एलएसई आईडीईएएस स्पेशल रिपोर्ट के एक लेख में कहा, "अब यह साफ प्रतीत हो रहा कि चीनी राष्ट्रपति चीन को उसके उस पारंपरिक स्थान पर लौटाने की कोशिश कर रहे हैं जो उसके लंबे इतिहास में एशिया में उसके एक शक्तिशाली क्षेत्रीय शक्ति का रहा था।"
'झेनगू' या मध्य साम्राज्य की कल्पना के तहत, जिसे झोउ राजवंश से जोड़ा जा सकता है, माना जाता है कि चीनी शाही राजवंशों ने क्रूर सैन्य बल के साथ व्यापार और वाणिज्य किया था, जिसने उन्हें मध्य एशिया, कोरियाई प्रायद्वीप के कुछ हिस्सों और पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में एक सहायक प्रणाली बनाने के लिए सक्षम किया था।
पूरी तरह से क्षेत्रीय या यू कहें कि वैश्विक प्रभुत्व हासिल करने की चीन की कोशिश में, भारत अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ एक कठोर बाधा पेश कर रहा है।
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के मीडिया का हिस्सा चीनी वेबसाइट शिलू डॉट कॉम ने माना है कि 21 वीं सदी के उत्तरार्ध तक चीन का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी निश्चित रूप से भारत होगा।(indianarrative)
मनीष सिंह
मैं आपको बताता हूँ कि मैं असंतोष पैदा करने वाला क्यों बन गया हूं।
मैं अदालत को भी यह भी बताऊंगा कि मैंने भारत में सरकार के प्रति असंतोष को बढ़ावा देने के आरोप में खुद को दोषी क्यों माना है- जिन जज के सामने हर कोई खुद को निर्दोष बताता था, वह भौचक्का हो पहले ऐसे शख्स का चेहरा निहार रहा था, जो बगैर बहस, खुशी से खुद को दोषी करार दे रहा है, ऊपर से उसके तर्क भी बता रहा है।
1922 में यंग इंडिया में लेख के आधार ओर गांधी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। पुलिस ने पकड़ा, जज के सामने पेश किया। गांधी ने आरोप छाती ठोककर स्वीकारा, खुद को राजद्रोही बताया।
यह देश मे गांधी की स्वीकार्यता को अचानक ही इतनी उछाल दे गया, जिसकी अंग्रेज सरकार ने कल्पना नही की थी। असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद गांधी की विश्वनीयता और लीडरशिप दांव पर थी। आपदा को अवसर में बदलते हुए गांधी ने वो दांव खेला, कि सरकार उलझ गयी। न चाहते हुए सजा देनी पड़ी। फिर कम्यूट भी करनी पड़ी।
पूरे प्रकरण में हुआ बस ये कि, जनता में गांधी की शुध्दता और हिम्मत जनमन में स्थापित हुई। इसके बाद राजद्रोह का आरोप लगाकर फसने का काम ब्रिटिश सरकार ने दोबारा नही किया।
अन्ना आंदोलन का बड़ा खास मोड़ था जब सरकार ने अन्ना को साथियों सहित तिहाड़ में जेलबन्द किया। मुद्दा तूल पकडऩे पर सरकार ने उन्हें छोडऩा चाहा, तो उनकी टीम ने जमानत लेने से इनकार कर दिया। बगैर जमानत के छोड़े जाने के आदेश होने पर भी जेल छोडऩे से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि अनुमति के बगैर आंदोलन और भूख हड़ताल की वजह से उन्हें गिरफ्तार किया गया है, वह निकलते ही फिर वही करेंगे, आप फिर गिरफ्तार करेंगे। तो बेहतर है हम निकलें ही नही।
सरकार ने हाथ जोडक़र जेल से बाहर निकाला। मजबूरन आंदोलन की अनुमति दी। आंदोलन रातोरात बड़ा हो गया।
भाजपाई नेता की महंगी बाइक को कॅरोना लॉकडाउन के दौरान बगैर मास्क, सवारी करते चीफ जस्टिस की तसवीरें आयी। प्रशांत भूषण ने यही लिखकर ट्वीट कर दिया। कोर्ट ने स्वत:स्फूर्त संज्ञान लेकर कंटेम्प्ट का मामला दायर किया है।
प्रशांत भूषण महात्मा गांधी की तरह खुद वकील हैं, अन्ना आंदोलन के शिल्पकार रहे हैं। मैं उम्मीद में हूँ कि इस आपदा को अवसर में बदलकर दिखाएंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल भारत और अमेरिका के बीच जैसा प्रेमालाप चल रहा है, मेरी याददाश्त में कभी किसी देश के साथ भारत का नहीं चला। शीतयुद्ध के घनेरे बादलों के दौरान जवाहरलाल नेहरु और सोवियत नेता ख्रुश्चोफ और बुल्गानिन के बीच भी नहीं। इसका कारण शायद यही समझा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की मोहिनी ने डोनाल्ड ट्रंप को सम्मोहित कर लिया है। यह समझ नहीं, भ्रम है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यक्तिगत संबंधों की भूमिका बहुत सीमित होती है। उसका संचालन राष्ट्रहितों के आधार पर होता है। इस समय ट्रंप प्रशासन चीन के घुटने टिकवाने के लिए कमर कसे हुआ है। इसीलिए वह भारत के प्रति जरुरत से ज्यादा नरम दिखाई पड़ रहा है।
उसने कोविड-19 के लिए चीन को सारी दुनिया में सबसे ज्यादा बदनाम किया। उसने चीन के विरुद्ध यूरोपीय संघ और आग्नेय एशिया के राष्ट्रों को लामबंद किया। अमेरिकी कांग्रेस (संसद) में चीन को धमकाने के लिए एक प्रस्ताव भी लाया गया। उसमें अमेरिकी सांसदों ने चीन से कहा है कि वह भारत के साथ तमीज से पेश आए। डंडे के जोर से वह भारत की जमीन हड़पने की कोशिश न करे। अमेरिका ने ताइवान को लेकर पहले चीन से अपनी भिट्टियां भिड़ा रखी थीं, अब हांगकांग के सवाल पर उसने पूरा कूटनीतिक मोर्चा ही खोल दिया है। दक्षिण चाइना-सी के मामले में वह चीन के पड़ौसी और तटवर्ती राष्ट्रों का खुलकर समर्थन कर रहा है।
गलवान घाटी में हुई भारत-चीन मुठभेड़ तो ऐसी है, जैसे ट्रंप के हाथों बटेर लग गई। पहले उन्होंने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की पहल की और फिर चीन के विरुद्ध छर्रे छोडऩे शुरु कर दिए। दोनों देशों, भारत और चीन के विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, मुख्य सेनापति और व्यापार मंत्रियों के बीच सघन वार्ताएं जारी हैं। मानो वे किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हों। हमारे अंडमान-निकोबार द्वीप के आस-पास अमेरिकी नौ सैनिक जहाज ‘निमिट्ज’ के साथ भारतीय जहाज सैन्य-अभ्यास भी कर रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि यदि उसे चीन के खिलाफ एक विश्व-मोर्चा खोलना पड़े तो एशिया में भारत उसका सिपहसालार बने। भारत को अमेरिका का यह अप्रत्याशित टेका भी खूब सुहा रहा है, क्योंकि भारत के लगभग सभी पड़ौसियों पर चीन ने डोरे डाल रखे हैं लेकिन भारतीय विदेश-नीति निर्माता यह भयंकर भूल कतई न करें कि वे अमेरिका के मोहरे बन जाएं। इस अमेरिकी मजबूरी का फायदा जरुर उठाएं लेकिन यह जानते हुए कि ज्यों ही अमेरिकी स्वार्थ पूरे हुए कि वह भारत को भूल जाएगा और फिर ट्रंप का कुछ पता नहीं कि वे दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं ? (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पीटर यूंग
कोलंबिया के एंडीज पहाड़ों पर बसे औपनिवेशिक शहर बारिचरा में साल का सबसे अहम दिन क्रिसमस, नया साल या ईस्टर का नहीं होता.
यहां साल के सबसे अहम दिन को स्थानीय लोग 'ला सैलिडा' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है बाहर निकलना.
इस दिन बारिचरा की गलियों में कुछ होने की आशा बढ़ जाती है. गलियां बुहारने वाले और घरों में साफ-सफाई करने वाले लोग अपना काम बंद कर देते हैं. बच्चे स्कूल से बाहर निकल आते हैं और दुकानदार दुकान छोड़कर गायब हो जाते हैं.
सभी लोग बेशकीमती "होर्मिगस कुलोनस" या "बड़ी चींटी" की तलाश में रहते हैं जिनको उत्तर-मध्य कोलंबिया के सांटेंडर इलाके में कैवियार (मछली के बेशकीमती अंडे) समझा जाता है.
हर साल वसंत में आसपास के देहाती इलाकों से ऐसी लाखों चींटियां पकड़ी जाती हैं. मनोवैज्ञानिक से शेफ बनी मार्गेरिटा हिगुएरा 2000 से बारिचरा में रह रही हैं.
वह कहती हैं, "इसमें पहले आओ पहले पाओ चलता है. अगर आपने किसी चींटी के घोंसले के ऊपर अपनी बाल्टी रख दी तो वह आपका हुआ, भले ही ज़मीन आपकी हो या न हो."
चींटी पकड़ने का उत्सव
हर साल मार्च या अप्रैल में यह उत्सव तब होता है जब भारी बारिश के बाद तेज़ धूप निकली हो और रात में चांदनी बिखरी हो.
ला सैलिडा से चींटियों का सालाना प्रजनन मौसम शुरू होता है जो दो महीने तक जारी रह सकता है. इसी दौरान स्थानीय लोग ज़्यादा से ज़्यादा रानी चींटियों को पकड़ने के लिए छीना-छपटी करते हैं.
अंडों से भरी हुई और प्रजनन के लिए तैयार भूरी, कॉकरोच के आकार की रानी चींटियां किसी ट्रॉफी की तरह होती हैं.
उनका पिछला हिस्सा फूलकर मटर के दाने जैसा होता है. इसे नमक मिलाकर भूनने से यह मूंगफली, पॉपकॉर्न या खस्ते बेकन जैसा लजीज हो जाता है.
चींटियों के पंखों को अलग करते हुए हिगुएरा कहती हैं, "मेरे लिए यह जायका अनोखा होता है."
"यह मेरे अतीत की याद दिलाता है. मुझे याद है कि एक बार मेरे दादाजी चींटियों से भरा एक पूरा बैरल खरीदकर लाए थे. हम अंदर उनके सरसराने की आवाज़ सुन सकते थे. उनको तैयार करने के लिए पूरा परिवार एक साथ बैठा था."
रानी चींटियों को लजीज पकवान की तरह खाया जाता है. सड़क किनारे की कुछ दुकानों में उनको तैयार किया जाता है.
कामकाजी परिवारों की रसोइयों में उनको भूना जाता है और वे पूरे कोलंबिया के महंगे रेस्तरां के मेन्यू में भी शामिल हैं.
एक किलो रानी चींटियों के बदले तीन लाख पेसो (65 पाउंड) मिल सकते हैं. इस तरह ये कोलंबिया के मशहूर कॉफी से भी महंगे हैं. स्थानीय लोगों के लिए ये कमाई के अच्छे स्रोत हैं.
बारिचरा में सड़कों की सफाई करने वाले फ़ेडेरिको पेड्राज़ा कहते हैं, "होर्मिगस जमा करके मैं एक ही दिन में हफ्ते भर के बराबर कमा सकता हूं. लेकिन यह मुश्किल काम है. चींटियां रानी चींटी को आसानी से ले जाने नहीं देतीं."
ख़तरा बहुत है
यह काम टखने की ऊंचाई तक के रबर बूट और लंबी आस्तीन पहनकर किया जाता है. काम तेज़ी से निपटाना पड़ता है वरना रानी की सुरक्षा के लिए तैनात कॉलोनी की सैनिक चीटिंयां हमला कर देती हैं. उनके काटने से तीखा दर्द होता है और ख़ून बाहर आ सकता है.
गांव वाले खेतों में फैल जाते हैं और उनके पास जो भी हो- थैला, मग, बरतन या बोरा- उसमें रानी चींटियों को जमा करते जाते हैं. यह काम दिन में होता है जबकि उनका लजीज पकवान रात के भोजन में खाया जाता है.
एटा लाविगाटा प्रजाति की चींटियां दक्षिण अमरीका की लीफ़कटर चींटिंयों के नाम से भी जानी जाती हैं.
उनमें भरपूर प्रोटीन होता है, साथ ही ये अनसैचुरेटेड फ़ैटी एसिड से भरी होती हैं जो कोलेस्ट्रोल को बढ़ने नहीं देता.
"फ्रंटियर्स इन न्यूट्रिशन" जर्नल में प्रकाशित शोध से पता चलता है कि चींटियों में एंटी-ऑक्सीडेंट होता है और उनको नियमित रूप से खाने से कैंसर रोकने में मदद मिल सकती है.
"यही वजह है कि बारिचरा के लोग लंबी और सेहतमंद ज़िंदगी जीते हैं"- यह दावा है सेसिलिया गोज़ालेज़-क्विंटेरो का जो पिछले 20 साल से कांच के जार में चींटियां बेच रही हैं. "चींटियां हमें विशेष ताक़त देती हैं- ख़ासकर बड़ी नितंब वाली रसदार चींटियां."
पारंपरिक खाना
सांटेंडर के आसपास पिछले 1400 साल से होर्मिगस कुलोनस को खाया जाता है. ऐतिहासिक रिकॉर्ड के मुताबिक मध्य कोलंबिया के देसी गुआन लोगों ने सबसे पहले 7वीं सदी में चींटियों की खेती और उसे खाना शुरू किया था. बाद में स्पेन से आए लोगों ने भी यह आदत अपना ली.
जिन परिस्थितियों में इन चींटियों को पकड़ा जाता है उस वजह से इनको कामोत्तेजक भी माना जाता है. शादियों में अक्सर चीनी मिट्टी के बर्तनों में भरकर इनको उपहार के तौर पर दिया जाता है.
एंडीज के देसी समुदायों में यह प्रथा आम है. नारंगी-पीली ज़मीन पर चलने और इसी रंग की मिट्टी से पारंपरिक घर बनाने के कारण इन समुदायों को पीले पैर वाले समुदाय के रूप में जाना जाता है.
पास के बुकरमंगा शहर में इन चींटियों की बड़ी-बड़ी धातु की मूर्तियां बनाई गई हैं. दीवारों पर भी उनके रंग-बिरंगे चित्र देखे जा सकते हैं.
टैक्सी ड्राइवर भुने हुए कुरकुरे होर्मिगस खाने के लिए रुकते हैं और बच्चे चींटियों के खिलौनों से खेलते हैं.
कोलंबिया का लजीज पकवान
हाल के वर्षों में, चींटियों के खाने की लोकप्रियता बढ़ी है. इनकी पहचान अब स्थानीय व्यंजन की जगह पौष्टिक खाने की हो गई है.
ग्राहकों की मांग पूरी करने के लिए हर साल ट्रकों में भरकर रानी चींटिंयां पूरे कोलंबिया में भेजी जाती हैं.
राजधानी बगोटा के महंगे रेस्तरां के सीज़नल मेन्यू में भी उनको शामिल किया गया है. जैसे- मिनी-माल, जिसमें चींटियों को अमेज़ॉन की पिरारुकु मछली के साथ परोसा जाता है या भुने हुए बीफ़ के साथ काली मिर्च और चींटियों की चटनी दी जाती है.
शेफ एडुआर्डो मार्टिनेज़ कहते हैं, "चींटियां कोलंबिया के खानपान का अहम हिस्सा हैं."
मार्टिनेज़ ने चींटियों को पहली बार तब चखा था जब वह नौ साल के थे और परिवार के साथ सांटेंडर आए थे. "मैं उनके प्रयोग को बढ़ावा देना चाहता हूं ताकि यह परंपरा कायम रहे."
क्या चींटियां ख़त्म हो जाएंगी?
हाल में पेड़ कटने और शहरीकरण के कारण चींटियों और सांटेंडर के लोगों के बीच समस्याएं पैदा हुई हैं.
आबादी बढ़ने से चींटियां इमारतों की नींव में घुस जाती हैं. वे फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं जिससे किसानों के झगड़े होते हैं.
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन ने भी चींटियों के प्रजनन चक्र को प्रभावित किया है. अनियमित मौसम ने उनकी कॉलोनियों में आर्द्रता, धूप और बारिश के संतुलन को बिगाड़ दिया है.
उनका मेटिंग सीजन बहुत विशिष्ट मौसम परिस्थितियों पर निर्भर करता है. यदि मिट्टी मुलायम न हो तो रानी चींटियां अपनी भूमिगत सुरंगों से आसानी से बाहर नहीं आ सकतीं.
इसी तरह पेड़ कटने और शहरीकरण बढ़ने से चींटियों के प्राकृतिक आवास पर असर पड़ा है, उनके घोंसले फैलने की जगह सीमित हो गए हैं.
बड़े पैमाने पर खपत के लिए चींटियों की ब्रीडिंग के तरीकों का अध्ययन कर रही बुकरमंगा की रिसर्चर औरा जुडिट कुआड्रोस कहती हैं, "पारिस्थितिकी बदल रही है."
"यदि सही स्थितियां नहीं हैं तो चींटियां पैदा नहीं हो सकतीं या वे ज़मीन पर बाहर नहीं निकल सकतीं."
फिर भी बारिचरा के ढलानों से लेकर सैन गिल, क्यूरिटि, विलेनुएवा और गुआन शहरों के चारों ओर फैली घाटियों में उनके मिलने का मतलब है कि इन चींटियों के अस्तित्व पर अभी कोई ख़तरा नहीं है.
लड़ाकू चींटियां
स्थानीय गाइड और चींटी विशेषज्ञ एलेक्स जिमेनेज़ ने पेड़ की टहनी से चींटियों के घोंसले के दरवाजे पर कुछ हरकत की. कुछ ही देर में सैंकड़ों सैनिक चींटियां हालात को समझने के लिए बाहर निकल आईं.
जिमेनेज़ के मुताबिक एक घोंसले में कई हज़ार से लेकर 50 लाख तक चींटियां हो सकती हैं. अगर सुरंगें सही बनाई गई हों तो उनकी लंबाई कई मील तक हो सकती है.
घोंसले की रानी चींटी 15 साल तक ज़िंदा रहती है लेकिन उसके मरने के बाद कॉलोनी को वहां से जाना पड़ता है और नया निर्माण करना पड़ता है.
जिमेनेज़ कहते हैं, "चींटियों की अपनी समझदारी होती है. वे मिलकर काम करते हैं ताकि सबका अस्तित्व बना रहे. हजारों सालों से उनको खाया जा रहा है लेकिन वे ख़त्म नहीं होंगीं."
अपनी बात साबित करने के लिए जिमेनेज़ पिछले साल का अनुभव बताते हैं. चींटियों के प्रजनन मौसम में जिमेनेज़ अपने दोस्तों के साथ 6 किलोमीटर की साइकिल यात्रा पर निकले थे.
देहाती इलाकों की उनकी यात्रा में 30 मिनट लगने चाहिए थे लेकिन उसमें चार घंटे लगे क्योंकि चींटियों को देखकर उनका दल रुक जाता था और अधिक से अधिक चींटियों को इकट्ठा करता था. पहाड़ियों पर पूरा गांव उनके साथ चींटियां जमा करने में जुट गया.
"उस रात पूरा शहर होर्मिगस की ख़ुशबू से भर गया था. होर्मिगस! होर्मिगस! होर्मिगस!"(bbc)
-अमिताभ बेहार
‘सिविल सोसाइटी’ के बढ़ते ‘संस्थानीकरण’ के दौर में काम को ‘सुव्यवस्थित’ रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि ‘सिविल सोसाइटी’ अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है, पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है? इसका नतीजा यह है कि समुदायों से ‘सिविल सोसाइटी’ का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था, वह टूट-सा गया है। रिश्ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दो गंभीर नुक्सान हुए हैं पहला कि सरकार और बाजार, दोनों के सामने ‘सिविल सोसाइटी’ की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायों से नज़दीकी ही ‘सिविल सोसाइटी’ की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़ गयी है। (अमिताभ बेहार द्वारा लिखा गया यह लेख पहले अंग्रेजी में ‘इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू’ की वेबसाइट पर छपा था और इस पर उसकी बेबाकी और पैने सवालों के कारण काफी चर्चा हुयी थी। इसका संपादित हिन्दी अनुवाद ईशान अग्रवाल ने किया है। )
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च2020को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था जिस पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। अदालत ने‘इंसाफ’(इंडियन सोशल एक्शन फोरम) नामक स्वयंसेवी संस्था के पक्ष में फैसला सुनाते हुए‘विदेशी अंशदान विनियमन क़ानून– 2011’(एफसीआरए) के मौजूदा प्रावधानों के ठीक विपरीत‘सिविल सोसाइटी’के‘राजनीतिक उद्देश्य से हस्तक्षेप करने के अधिकार’को वैधठहराया है। इस फैसले कोभारत में जनतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। ख़ासतौर से मौजूदा दौर में इसकी बडी अहमियत है।
इस फैसले के केंद्र में “राजनीतिक उद्देश्य या कहिये सत्ता पाने के उद्देश्य से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप और सामाजिक या मानवाधिकारों की दृष्टि से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप के बीच का फर्क है जो कि‘सिविल सोसाइटी’को हक़ देता है कि वह इस देश के करोड़ों मज़लूमों के लिए आवाज़ उठाये। जनतंत्र और अधिकारों की रक्षा के लिए किये गए राजनीतिक कार्यों को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वैध ठहराया है।
हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि इन कार्यों के लिए देश में ही जुटाई गयी राशि बेहतर रहेगी,पर फैसले ने विदेशी धनराशि के उपयोग को भी वैध ठहराया है। कोर्ट ने कहा है कि विरोध प्रकट करने के वैध तरीकों को प्रयोग करने के कारणकिसी‘सिविल सोसाइटी’या संस्था को राजनीतिक संस्था नहीं माना जा सकता और इसके लिए उस संस्था को दण्डित करना अनुचित है।
इस फैसले के दूरगामी प्रभावों के बावज़ूद, ‘सिविल सोसाइटी’ने इस पर कोई ख़ास उत्साह नहीं दिखलाया है। जाहिर है,इस शिथिल प्रतिक्रिया से कुछ सवाल उठते हैं। जैसे कि क्या “इंसाफ” की लड़ाई बेकार गयी?क्याइसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया?या‘सिविल सोसाइटी’अपनी राजनीतिक भूमिका को लेकर उदासीन है। इस फैसले के दौरान देशभर में सामाजिक समरसता को होने वाले खतरों के विरुद्ध एक आंदोलन चल रहा था और दिल्ली उसके केंद्र में थी। फिर भी अधिकांश संस्थाओं ने न तो इस आंदोलन के प्रति अपनी दिलचस्पी दिखाई न ही उसका मैदानी समर्थन किया। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ?अधिकांश सामाजिक संस्थाएं अपने‘मिशन’और‘विज़न’में जिन मूल्यों का ज़िक्र करती हैं,उनमें न्याय,समता,सामाजिक-समरसता,पंथ-निरपेक्षता आदि प्रमुख हैं। दूसरे शब्दों में,संस्थाओं के उद्देश्यों में ऐसे विशुद्ध राजनीतिक मूल्यों के व्यक्त होने के बावजूद यदि संस्थाएं इस निर्णय को तवज्जो नहीं देतीं तो आश्चर्य होना लाज़िमी है।
आज की परिस्थितियों मेंजब सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक ताक़तें संवैधानिक मूल्यों और जनतंत्र का गला घोंटने में लगी हैं, ‘सिविल सोसाइटी’को खुद के अ-राजनीतिकरण के प्रश्न से जूझना ही चाहिए।
दान और एक्टिविज़्म : क्या ये एक जीरो सम गेम है
भारत जैसी विषम सामाजिक परिस्थितियों वाले देश में हमेशा वंचितों,दबों-कुचलों को सहारा देने वाली संस्थाओं की ज़रुरत होगी। ऐसी संस्थाएं और ट्रस्ट जो भूखों को खाना खिलाएं,बेसहारों को शरण दें,उन्हें जरूरी पूँजी पहुंचाएं जिससे वे अपना जीवन-यापन कर सकें। साथ में ऐसी सामाजिक संस्थाओं की भी ज़रुरत होगी जो इस पूरे मुद्दे को,लोगों पर करुणा की दृष्टि से नहीं,उनके अधिकारों की दृष्टि से देखें। वे जो दलितों,आदिवासियों,अल्पसंख्यकों को आवाज़ दे सकें। वे जो पेड़ोंजंगलों,नदियों,जीव-जंतुओं की भी आवाज़ बन सकें और राज्य या पूंजीपति यदि गरीबों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर रहे हों,तो न्याय के लिए लोगों को खड़ा कर सकें। वे जो किसी-न-किसी तरह इस देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने में अपना योगदान दें। शक्ति का लोकतांत्रीकरण‘सिविल सोसाइटी’के वजूद की एक माक़ूल वजह है। इसे चाहे किसी भी तरह,किसी भी खाके से पाने की कोशिश की जा रही हो, ‘सिविल सोसाइटी’का एक बड़ा तबका असल में इसी कोशिश के लिए पैदा हुआ था,लेकिन इसके बावजूद आज‘सिविल सोसाइटी’ऐसी स्थिति में हैं जहाँ वह बात तो गंभीर राजनीतिक चिंतन की करती हैपर उसे क्रियान्वित करने में अराजनीतिक होती हैं या होना चाहती हैं।
आज सिविल सोसाइटी गैर-राजनीतिक क्यों है
पिछले कुछ दशकों में;‘सिविल सोसाइटी,’जो जन-संगठनों और आंदोलनों के रूप में जानी जाती थी,अब वित्त-पोषित संस्थाओं के रूप में जानी जाती है। इनमें से कुछ संस्थाओं के पास काफी संपत्ति इकट्ठी हो गयी है,जैसे कि इमारतें,प्रशिक्षण केंद्र,बड़ी संख्या में तनख्वाह-याफ्ता कर्मचारी आदि। समय के साथ यही संथाएं छोटी संस्थाओं के लिए रोल मॉडल बन गयी हैं।
इन बड़ी संस्थाओं को चलाते रहना ही अपने आप में एक बड़ा काम बन गया है और समाज के ताक़तवर वर्ग के सामने इनकी सवाल उठाने की क्षमता कम होती जा रही है। इन संस्थाओं को चलाने के चक्कर में संगठन की ताक़त संसाधनों को जुटाने में ही खर्च होने लगी है। इसी के साथसरकारी दमनकारी नीतियों ने संगठनों की सवाल उठाने की क्षमता पर दोहरा आघात किया है। इस रास्ते पर चलते हुए‘सिविलसोसाइटी’को कई बार अराजनीतिक भूमिका लेनी पड़ी है,ताकि उनकी संस्था पर कोई आंच न आये। यह बात उन संस्थाओं पर ज्यादा लागू होती हैजो विदेशी अनुदान पर आश्रित हैं और जिन्हें राजनीतिक हलकों में हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है।
जाहिर है,संस्थाओं की आदत पड़ गयी है कि वे कभी-कभारसवाल पूछें,पर उन पर टिकी न रहें,ताकि उन्हें सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक ताक़तों का कोपभाजन न बनना पड़े। इस बात पर ध्यान देना‘सिविल सोसाइटी’ने कम कर दिया कि वंचितों के हित में बदलाव लाने की कीमत चुकानी पड़ती है।
‘सिविल सोसाइटी’का पेशेवरीकरण
शुरुआत में‘सिविल सोसाइटी’को अक्षम या नकारा कहकर बहुत आलोचना की गयी। नतीजे में संस्थाओं को पेशेवर बनाने पर बड़ा ज़ोर दिया जाने लगा। इस‘व्यवसायिकता’या;‘पेशेवरीकरण’की लहर में संस्थाओं के कामकाज में नौकरशाही के गुण और प्रक्रियाएं भी घर कर गयीं। इस पूरी प्रक्रिया में‘सिविल सोसाइटी’का‘जुनून’और‘स्वैच्छिक’स्वभाव ख़त्म हो गया। इससे अपने काम को राजनीतिक समझने की नज़र भी कमज़ोर पड़ी,बल्कि गैर-बराबरी और अन्याय जैसे घोर राजनीतिक मुद्दे भी एक मैनेजर की दृष्टि से सुलझाने की कोशिश होने लगी।
‘सिस्टम एप्रोच’का सतही प्रयोग
व्यवसायिक प्रबंधन(बिज़नेस मैनेजमेंट) के तौर-तरीकों से‘सिविल सोसाइटी’में कुशलता (एफीसिएन्सी) और प्रभाव (इम्पैक्ट) जैसे कई शब्दों ने जड़ें जमा लीं। इसके साथ‘फैलाव’(स्केल) का दबाव भी बहुत बढ़ गया,जिससे कुल मिलाकर‘सिविल&सोसाइटी’का अराजनीतिकरण और बढ़ गया। हम अब संगठनों के‘मिशन’और‘विज़न’से आगे आ गए हैं और पूरा काम‘दान-दाता’(डोनर) संस्था द्वारा दिए गए‘प्रोजेक्ट’के अनुसार होने लगा है।
कुछ संस्थाएं अपने आपको इसके बाहर देखने लगी हैं। उन्होंने‘सिस्टम एप्रोच’को अपनाने के प्रयास किये हैं जिसमें एक साफ़ समझ है कि सामाजिक बदलाव कोई एक तरह के ख़ास प्रयासों (या कहिये प्रोजेक्टों) से नहीं आएंगे।‘सिस्टम एप्रोच’समस्या को कई स्तरोंकई तरह की पेचीदगियों के साथ देखती है।मसलन-जंगलों के कटने का कारण सिर्फ आबादी बढ़ना या कम पेड़ लगाना भर नहीं है,बल्कि ऐसे बहुत से सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं जिनका उत्तर सिर्फ पेड़ लगाना नहीं हो सकता।‘सिस्टम एप्रोच’ने संस्थाओं की प्रोजेक्ट से बाहर झाँकने में मदद तो की है,वह उसकी भाषा भी बन गई है,पर दुर्भाग्य से वह उनकी कार्यप्रणाली,&बजट और‘नियमन’(मॉनिटरिंग) का हिस्सा नहीं बनी है। अधिकतर‘दानदाता’संस्थाएं भी बात तो‘सिस्टम चेंज’की करती हैंपर‘फंडिंग’उसी कम अवधि,समय आधारित मानदंडों के अनुसार करती हैं। उनके मानदंड प्रोजेक्ट के‘लौगफ्रेम’विश्लेषण के आधार पर ही होते हैं न कि‘सिस्टम अप्रोच’के आधार पर। इसका मतलब यह है कि संस्थाएं अपने ही बनाये लक्ष्य से भटक रही हैं,उनके कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता या कहिये लक्ष्य पर यकीन कम हो गया है।
‘सिविल सोसाइटी’का एक विशेष ढांचे में काम करना
‘सिविल सोसाइटी’के बढ़ते‘संस्थानीकरण’के दौर में काम को‘सुव्यवस्थित’रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि‘सिविल सोसाइटी’अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है,पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है?इसका नतीजा यह है कि समुदायों से‘सिविल सोसाइटी’का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था,वह टूट-सा गया है। रिश्ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दोगंभीर नुक्सान हुए हैं पहला कि सरकार और बाजार,दोनों के सामने‘सिविल सोसाइटी’की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायोंसे नज़दीकी ही‘सिविल सोसाइटी’की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़गयी है। बहुत सी संस्थाएं अब भी इस बात पर यकीन नहीं करतीं और समुदायकेंद्रित नज़रिये की बजाए तकनीकी विशेषज्ञों वाली नज़र से अपने काम को देखती हैं। दूसरा नुकसान है,जगह खाली होने के कारण उसमें रूढ़िवादी,कट्टरपंथी तत्वों का समुदायों से करीबी रिश्ते बनाने में कामयाब होना। देश में दक्षिणपंथी ताक़तों के उभार के पीछे यह एक प्रमुख कारण है।
सिविल सोसाइटी का हाशिये पर जाना
सिविल सोसाइटी’की सोच और तौर-तरीकों में बदलाव के कारण आज वह रिसर्च,पैरवीपॉलिसी के विषयों और अभियानों पर तो काम करती है पर लोगों को संगठित और लामबंद करने में उसकी भूमिका कम होती जा रही है।
‘सिविल सोसाइटी’अहिंसा के खाके के अंदर रह कर ही काम कर सकती है,पर इसका यह अर्थ नहीं कि हमारे पास गैर-बराबरी और अन्याय से लड़ने के लिए हथियारों की कमी है। चूँकि हमने अपनी ताक़त के स्रोत को ही नकार दिया है,इसलिए हम राजनीतिक या आर्थिक या सामाजिक विमर्श के दायरे से बाहर किये जा रहे हैं।
इसका एक नमूना हम देश में ही हुए ‘सीएए’ विरोधी आंदोलन के अलावा पिछले वर्षों में दुनियाभर में हुए बडे और प्रभावी आंदोलनों में देख सकते हैं। इनका नेतृत्व ‘सिविल सोसाइटी’ की बजाए नागरिकों के पास रहा है। ‘सिविल सोसाइटी’ अपनी अराजनीतिक भूमिका में इस नए विमर्श में कहीं नहीं दिखी। ‘सिविल सोसाइटी’ को इस संकट का उत्तर अपने में ढूंढना ही होगा, नहीं तो कुछ ही समय में हम बिलकुल गैर-ज़रूरी हो जायेंगे(सप्रेस)
-प्रसून लतांत
पांच जून को गांधी विचार को मानने वाले देशभर के अनेक लोगों ने दो अक्टूबर, गांधी जयन्ती और ‘विश्व अहिंसा दिवस’ तक चलने वाले एक-एक दिन के उपवास की शुरुआत की थी। यह उपवास श्रमिकों, किसानों, ग्रामीण-अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार, समाज और स्वयं को झकझोरने, बदलने के मकसद से किया जा रहा है।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’की उपवास-श्रृंखला में गांधी के विचारों में विश्वास रखने वाले और उसके अनुरूप काम करने वाले लोग पूरी तरह से सक्रिय हो गए हैं। उनकी सक्रियता से अब गांधी,गांव और गरीब को लेकर कुछ खास कर गुजरने की सूरत भी निकलती दिखाई पड़ रही है। इस उपवास-श्रृंखला में पहले तो गांधीवादी संस्थाओं और संगठनों से मुक्त हुए लोग शामिल हुए थेलेकिन जब से इसका नियमित और अविराम सिलसिला चल पड़ा है तो गांधी संस्थाओं और संगठनों से जुड़े लोग भी इसमें शामिल होने लगे हैं। पहली बार देखा जा रहा है उपवास के लिए अच्छी-खासी संख्या में युवा वर्ग भी शामिल हो रहा है।
गांधी जी के डेढ़-सौ वीं जयंती वर्ष के शुरू होने के पहले महात्मा गांधी की याद में बड़े-बड़े आयोजन करने के लिए सरकारी घोषणाएं हो रही थीं और केंद्र और राज्य स्तर पर समितियों का गठन किया जा रहा था। सरकारों से अलग-थलग होकर गांधी से जुड़ी संस्थाएं और संगठन भी अपनी सामर्थ्य-भर कुछ करने के लिए एकांगी पहल कर रहे थे। शताब्दी आयोजनों की शुरुआत भी हो गई थी,लेकिन लोकसभा चुनाव आने और उसके बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़कने के बाद देश भर में एक प्रकार की दुखद चुप्पी सी छा गई थी। गांधी जैसी बात करने वालों को भी देशद्रोही करार दिया जा रहा था। ऐसा लगने लगा था कि गांधी के देश में ही गांधी की बात करना गुनाह है।
गांवों और गरीबों की जरूरी बातें स्मार्ट शहरों के शोर में गुम हो गई थीं। वे संसद की चर्चा से भी गायब थीं,वे मीडिया सहित फिल्मों और धारावाहिकों में भी नहीं थीं। यह तो कोरोना वायरस के प्रकोप पर रोक लगाने के लिए लागू लॉकडाउन के दौरान देश के आम लोग जब सड़कों पर अपने गांवों की ओर निकल पड़े,तो शहरों के बढ़ते वैभव का खोखलापन उभर कर सामने आ गया और गांवों की चर्चा तेज हो गई। करोड़ों की संख्या में निकले आम लोगों ने पैरों से हजारों किलोमीटर चलकर गांव पहुंचने की हिम्मत दिखाकर देश की दिशा बदल दी है। गांव और गरीब इन दिनों चर्चा के केंद्र में हैं।
ऐसे में पिछले एक महीने से‘गांधीयन कलेक्टिवइंडिया’समूह से जुड़कर लोगों का व्यक्तिगत सत्याग्रह का सिलसिला शुरु होकर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। नई सदी का व्यक्तिगत सत्याग्रह। पिछली सदी में जब ब्रिटिश हुकूमत भारत को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंकने की कोशिश कर रही थी,तब उसके विरोध के लिए महात्मा गांधी ने आचार्य विनोबा से व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए कहा था। विनोबा के बाद दूसरे व्यक्तिगत सत्याग्रह करने वाले नेहरू थे। व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह गांधीगांव और गरीबों के कल्याण के मुद्दों पर लोकशाही की आवाज को बुलंद करने का मंच बन गया है। रोज नए-नए लोग इससे जुड़ रहे हैं। पिछले एक महीने से हरेक दिन एक-एक सत्याग्रही अलग-अलग राज्यों में बैठ रहे हैं।
व्यक्तिगत सत्याग्रह की शुरुआत पांच जून,‘विश्व पर्यावरण दिवस’को बिहार के चंपारण से हुई थी। सत्याग्रही द्वारा‘राष्ट्रीय उपवास श्रृंखला,’दो अक्टूबर‘विश्व अहिंसा दिवस’और महात्मा गांधी जयंती तक चलेगी। पहले सत्याग्रही मोतीहारी (बिहार) के दिग्विजय कुमार,‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह की राष्ट्रीय समिति के संयोजक हैं। उन्होंने उपवास कर सत्याग्रह की शुरुआत कर दी है।
उपवास का मकसद श्रमिकों, किसानों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार, समाज और स्वयं को झकझोरना है, बदलना है। ताकि कोरोना वायरस से बच सकें और मजबूत हिंदुस्तान बन सके। अब तक इस उपवास श्रृंखला में मणिपुर, गोआ, दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़, असम आदि राज्यों में एकल और सामूहिक रूप से तीस से अधिक सत्याग्रही बैठ चुके हैं।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’का कहना है कि इस पहल का मकसद देश की मौजूदा राजनीति में अंतिम जन को केंद्र में लाना और गांधीजी के डेढ़ सौवीं जयंती वर्ष पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए देश और दुनिया में फैले गांधी-प्रेमियों को एक मंच प्रदान करना है। उल्लेखनीय है कि इस राष्ट्रव्यापी उपवास श्रृंखला में शिक्षक,समाजकर्मी,;कलाकार,लेखक,पत्रकार,वैज्ञानिक,पर्यावरणवादी और छात्र व युवा पूरे उत्साह से भाग ले रहे हैं। इनमें महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल हैं।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह की ओर से गांधी जयंती तक चलने वाले इस सत्याग्रह में कुल 119 सत्याग्रही शामिल होंगे। गांधी जयंती के दिन कुछ खास कार्यक्रम करने की योजना पर विचार किया जा रहा है। इस बीच वेबीनार के जरिए कोरोना वायरस सहित गांधी,गांव और गरीब के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण संरक्षण के बारे में संवाद प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी चल रही है। उपवास के दौरान हाथ से लिखे बैनर का इस्तेमाल किया जा रहा है और पेड़-पौधे भी लगाए जा रहे हैं।(सप्रेस)
-राज कुमार सिन्हा
आजादी के बाद से हमारे देश में जिस तौर-तरीके का विकास हुआ है उसने आदिवासी इलाकों में उसे विनाश का दर्जा दे दिया है। खनन, वनीकरण, ढांचागत निर्माण और भांति-भांति की विकास परियोजनाओं ने आदिवासी इलाकों की मट्टी-पलीत कर दी है। विकास का यह मॉडल ग्रामीण, खासकर आदिवासी क्षेत्रों को कैसे बर्बाद कर रहा है?
अब केवल विकास करते रहना ही जरूरी नहीं है,बल्कि विकास और विकास नीतियों की समीक्षा भी जरूरी है। वर्ष 1986 में‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ने विकास के अधिकार की उद्घोषणा तैयार की थी जिस पर भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए थे। इस संधि के अनुसार विकास सभी नागरिकों का अधिकार है। विकास परियोजना के लिए तीन मापदंड निर्धारित किये गए हैं। एकप्रभावित व्यक्तियों की सहमति। दो,परियोजना से निर्मित संसाधनों के लाभ में हिस्सेदारी तथा तीन,विकास परियोजनाओं से प्रभावितों का आजीविका के संसाधनों पर अधिकार। वर्ष 2007 में‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ने आदिवासी समुदायों के अधिकारों का घोषणा-पत्र जारी किया था। इसमें आजीविका के संसाधनों पर जनजातीय समाज के अधिकार सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण प्रावधान है। दुर्भाग्य से भारत में ऐसी किसी भी अन्तराष्ट्रीय संधियों का अनुसरण नहीं किया जाता।
भारत में अधिकांश परियोजनाएं संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित की जाती रही हैं। संसाधनों के मामले में आदिवासी क्षेत्र समृद्ध रहा है। इस इलाके में देश का 71% जंगल,92% कोयला,92% बाक्साइट,78% लोहा,100% यूरेनियम,85% तांबा,65% डोलोमाइट इत्यादि की भरमार है। भारत के जलस्रोतों का 70% आदिवासी इलाके में है तथा करीब 80% उद्योगों के लिए कच्चा माल इन्हीं क्षेत्रों से मिलता है। यह प्रकृति की ओर से मिला वरदान है,लेकिन यही वरदान इनके लिए चुनौती भी है,क्योंकि इन्हीं संसाधनों की लूट और कब्जे को लेकर देश और दुनिया के कार्पोरेटों की उस पर गिद्ध-दृष्टि लगी है। इन संसाधनों पर काबिज होने की प्रक्रिया काफी तेज हो गई है।‘योजना आयोग’के अनुसार आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं से लगभग 6 करोङ लोग विस्थापित हो चुके हैं जिसमें 40 प्रतिशत आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन-निवासी हैं।
वन,पर्यावरण एवं जलवायु-परिवर्तन मंत्रालय’के आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2013 के बीच उद्योगों और विकास परियोजनाओं हेतु 2.43 लाख हैक्टर वन क्षेत्र दिया गया था। इन्हीं वर्षो में 1.64 लाख हैक्टेयर वनभूमि तेल और खनन की हेतु दी गई थी। पिछले पांच वर्षों में देश की लगभग 55 हजार हैक्टर वनभूमि विकास परियोजनाओं हेतु परिवर्तित की गई है। इसमें सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में (12 हजार 785 हैक्टर) वनभूमि परिवर्तित की गई है। मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा‘भारतीय वन अधिनियम-1927’की‘धारा (4)के अन्तर्गत अधिसूचित वनखंडों के 22 वन मंडलों में आदिवासियों की लगभग 27 हजार 39 हैक्टर ऐसी निजी भूमि को अपनी‘वार्षिक कार्य-योजना’में शामिल कर लिया गया है जिसका कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। प्रदेश में कई हजार हैक्टर जमीन आज भी वन और राजस्व विभाग के विवाद में उलझी हुई है जहाँ 28 हजार पट्टे निरस्त किये गए हैं।
प्रदेश के विभिन्न जिलों के 6520 वनखंडों में प्रस्तावित,लगभग 30 लाख हैक्टेयर भूमि में नये संरक्षित वन घोषित किया जाना लंबित है। इससे‘राष्ट्रीय उद्यान,’‘अभयारण्य’बनाने की प्रकिया तेज होगी तथा वन में निवास करने वाले समुदायों का निस्तार हक खत्म किया जाएगा। अब तक‘राष्ट्रीय उद्यानोंएवं‘अभयारण्यों’से 94 गांवों के 5 हजार 460 परिवारों को बेदखल किया जा चुका है तथा 109 गांवों के 10 हजार 438 परिवारों को चरणबद्ध तरीके से बेदखली की कार्यवाही जारी है। वर्तमान मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 12 नये अभयारण्य बनाने के प्रस्तावों पर कार्य जारी है।
केवल नर्मदा घाटी में बन चुके और प्रस्तावित बांधों से अभी तक लगभग 10 लाख लोग विस्थापित एवं प्रभावित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश सरकार जिस प्रकार किसानों को विस्थापित करती जा रही है,उसका सबसे ज्यादा असर आदिवासी एवं दलित परिवारों पर हो रहा है। वर्ष 1993-94 में प्रदेश में 3.85 लाख परिवार भूमिहीन थे,जबकि 2004-2005 में भूमिहीन परिवारों की संख्या बढ़कर 4.64 लाख हो गई है। विस्थापन के दुष्प्रभावों के अध्ययन से पता चला है कि बच्चों पर इसका सबसे अधिक असर होता है। विस्थापन के बाद 20.40 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोङने पर मजबूर होते हैं,26.68 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं तथा 24.81 प्रतिशत बच्चे बीमारी के शिकंजे में फंस जाते हैं। जाहिर है,आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर विस्थापन,बेरोजगारी,पलायन आदि लाकर आदिवासी समुदायों को उनके समाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से बाहर हो जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
सन् 2010-11 में देश की 15 करोङ 95 लाख 90 हजार हैक्टर भूमि पर खेती होती थी जो 2015-16 में घटकर 15 करोङ 71 लाख 40 हजार हैक्टर भूमि हो गई,अर्थात् 24 लाख 50 हजार हैक्टर भूमि गैर-कृषि कार्य में परिवर्तित हो गई। नतीजे में वर्ष 1951 में भारत के‘सकल घरेलू उत्पाद’;(जीडीपी) में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों की जो हिस्सेदारी 51.88 प्रतिशत थी,वह 2011 में घटकर 15.78 प्रतिशत के निचले स्तर पर आ गई। स्वतंत्रता के बाद 1950-51 में भारत की सरकार पर कुल तीन हजार 59 करोङ रूपये का कर्जा था जो वर्ष 2016-17 में 74 लाख 38 हजार करोड़ रुपए हो गया था और अब 2019-20 में यह बढ़कर 88 लाख करोड़ रुपये हो गया है।
उपरोक्त तथ्यों से साफ़ है कि प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है,वह न सिर्फ समाज और मानवता के लिये दीर्घकालीन संकट पैदा कर रहा है,बल्कि उसका लाभ समाज और देश को भी नहीं हो रहा है। इस दोहन से देश के बङे पूंजीपति घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं जिससे वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें। इसमें वे सफल भी हो रहे हैं। दूसरी ओर,आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज्यादा कर्जे लिए जा रहे हैं। आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक उलझाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढाती है,फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौता करवाती है। ऐसी शर्ते रखी जाती हैं जिससे समाज के संसाधनों पर पूंजी का एकाधिकार हो सके। इसके बाद भी मंदी आती है तो उससे निपटने के लिए कार्पोरेट रियातें मांगती है। दिसम्बर 2016 में सरकारी और गैर-सरकारी बैंकों में कुल 6.97 लाख करोड़ रुपये‘अनुत्पादक परिसंपत्तियां’(एनपीए) था। वर्तमान केंद्र सरकार ने कार्पोरेट टेक्स 35 प्रतिशत से घटाकर 25.2 प्रतिशत कर दिया है,जिससे सरकार को एक लाख 45 हजार करोड़ रूपये का घाटा होगा। ऐसे में विकास के विरोधाभास को जल्द-से-जल्द समझना होगा तथा विकास की ऐसी नई परिभाषा बनानी होगी जिसे समझने-समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्यकता न पडे।(सप्रेस)
-अभय शर्मा
भारत में लॉकडाउन हटाए हुए डेढ़ महीने से ज्यादा समय हो चुका है. सरकार ने अर्थव्यवस्था की खराब होती हालत को देखते हुए अनलॉक फेज एक और दो में आर्थिक गतिविधियों को लगभग पूरी तरह खोल दिया है. भारत की अर्थव्यवस्था अब वापस पटरी पर लौटती दिख रही है, सरकार और आरबीई के ताजा संकेतों को देखें तो इसका साफ पता चलता है. इसके अलावा हाल ही में गूगल की कोविड-19 मोबिलिटी रिपोर्ट आयी है. ये इशारा कर रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था वापस लॉकडाउन से पहले की स्थिति की तरफ तेजी के साथ बढ़ रही है. गूगल की ये रिपोर्ट 131 देशों के लिए निकाली गई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का सबसे कड़ा और लंबा लॉकडाउन लगाने के बाद भी भारत उन टॉप 50 देशों में शुमार है जिनकी अर्थव्यवस्था ज्यादा तेजी के साथ सामान्य स्थित की तरफ बढ़ती दिख रही है.
वे आंकड़े जिनके आधार पर अर्थव्यवस्था में सुधार होने की बात कही जा रही है
गूगल की ओर से जुटाई गई जानकारी के अुनसार खुदरा, किराना, फार्मा, ट्रांसपोर्ट और बैंकिंग जैसे सेक्टर कोरोना काल से एकदम पहले की स्थिति की ओर तेजी से बढ रहे हैं. साथ ही ईंधन, बिजली की खपत और खुदरा वित्तीय लेन-देन में बढ़ोत्तरी को भी अर्थव्यवस्था के सामान्य होने के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. लॉकडाउन के दौरान देश में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत 2007 के बाद से सबसे कम हो गई थी, लेकिन अब आंकड़े बताते हैं कि इसमें तेजी से सुधार हो रहा है. बीते जून में जून 2019 के मुकाबले तेल की खपत 88 फीसदी तक पहुंच गई है.
बीते अप्रैल में लॉकडाउन के दौरान वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों में गिरावट आने से बिजली की मांग साल भर पहले की तुलना में करीब 25 प्रतिशत कम रही थी. लेकिन अब आंकड़े काफी उत्साहित करने वाले हैं. केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में बिजली की उच्चतम मांग बीती दो जुलाई को 170.54 गीगावाट दर्ज की गई, जो जुलाई 2019 के 175.12 गीगावाट से महज 2.61 प्रतिशत ही कम है.
लॉकडाउन हटने के बाद बीते जून में वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी के संग्रह में भी तेजी आई है. वित्त मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार जून में कोरोना वायरस महामारी के बीच केंद्र सरकार का जीएसटी संग्रह 90,917 करोड़ रुपये रहा है. यह जून 2019 की तुलना में 91 फीसदी है. बीते मई में सरकार को जीएसटी से 62,009 करोड़ रुपये और अप्रैल में महज 32,294 करोड़ रुपये का राजस्व ही मिल सका था.
औद्योगिक उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्र से भी राहत की खबर आ रही है. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़ों के मुताबिक बीते अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन में गिरावट 60 फीसदी तक पहुंच गयी थी, जो मई और मध्य जून तक 35 फीसदी से नीचे आ गयी है. इसी तरह विनिर्माण क्षेत्र में बीते अप्रैल में गिरावट करीब 68 फीसदी तक पहुंच गयी थी. लेकिन आईआईपी के आंकड़ों के मुताबिक मई और मध्य जून तक यह गिरावट घटकर 40 फीसदी से नीचे दर्ज की गयी है.
द हिंदू बिजनस लाइन के सीनियर डिप्टी एडिटर शिशिर सिन्हा एक और आंकड़ा भी बताते हैं जिससे आर्थिक गति का अनुमान लगाया जा सकता है. वे बताते हैं, ‘हम बिलटी यानी ईबे रसीद के जरिये भी स्थिति के सुधरने का अनुमान लगा सकते हैं. ईबे रसीद तब जारी की जाती है जब कोई सामान एक राज्य से दूसरे राज्य में या एक ही राज्य में एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता है. इससे पता चलता है कि सामान पर टैक्स दिया गया है या नहीं. इस समय ईबे रसीद जारी होने की संख्या तकरीबन (कोविड-19 महामारी से) पहले वाली स्थिति में पहुंच गयी है. पहले 20 से 25 लाख ईबे प्रतिदिन जारी होते थे.’
शिशिर सिन्हा यह भी कहते हैं कि महंगाई दर की स्थिति से भी जाना जा सकता है कि अर्थव्यव्स्था का चक्का किस तरह से घूम रहा है. उनके मुताबिक महंगाई दर सीधे-सीधे सप्लाई और मांग पर निर्भर करती है. इससे जुड़े आंकड़े भी बताते हैं कि अर्थव्यवस्था थोड़ी सी पहले वाली स्थिति की तरफ बढ़ रही है.
कठोर लॉकडाउन के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था के समान्य की तरफ तेजी से बढ़ने की वजह
भारत की जीडीपी को देखें तो इसमें सेवा क्षेत्र की करीब 57 फीसदी और औद्योगिक क्षेत्र की करीब 30 फीसदी हिस्सेदारी है. इसके बाद कृषि क्षेत्र आता है जिसकी जीडीपी में हिस्सेदारी तकरीबन 13 फीसदी है. बीते अप्रैल में जब देश में कोरोना वायरस के मामले बढ़ने शुरू हुए तो आर्थिक मामलों के कई जानकारों का कहना था कि अर्थव्यवस्था को बचाने में ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभाने वाला है. ऐसा कहने के पीछे की वजह यह थी कि जिस तरह से शहरी इलाकों में कोविड के मामले तेजी से सामने आ रहे थे उसे देखते हुए साफ़ था कि सेवा क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्रों की रफ़्तार बहुत धीमी रहने वाली है. ऐसे में सिर्फ कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र था, जो अर्थव्यवस्था को सहारा दे सकता था. कृषि क्षेत्र से उम्मीद इसलिए थी क्योंकि ग्रामीण भारत में कोरोना का प्रभाव बेहद कम होने की वजह से वहां रबी की फसल की कटाई सामान्य रूप से चल रही थी. इसके अलावा रबी की फसल को लेकर जो आंकड़े सामने आ रहे थे, वे भी उत्साहित करने वाले थे. कृषि वर्ष 2019-20 में अनाज का रिकॉर्ड 30 करोड़ टन उत्पादन हुआ है. जानकार कहते हैं कि इसके बाद जब केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों को लॉकडाउन की मार से बचाने के लिए राहत योजनायें चलाई तो इससे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को और फायदा हुआ जिससे वहां से अर्थव्यवस्था को बल मिलने की उम्मीद और ज्यादा हो गई.
सत्याग्रह से बातचीत में भी उत्तर प्रदेश के कई जिलों के किसानों ने यह बात कही कि सरकार की नीतियों और फसल कटाई के समय से होने की वजह से उन्हें कोरोना वायरस संकट के दौरान कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई. किसानों का कहना था कि केंद्र द्वारा ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ के तहत मिलने वाले दो हजार रुपए की दो किश्तों को तत्काल उनके अकाउंट में डालना, उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन पाए लोगों को तीन सिलेंडर मुफ्त देना, समर्थन मूल्य बढ़ाना और राशन में हर महीने चना और अनाज मुफ्त देने के चलते उन्हें आर्थिक तौर पर जरा भी परेशानी नहीं उठानी पड़ी.
जानकार कहते हैं कि इन्हीं सब वजहों के चलते ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति पहले से बुरी न होकर कुछ बेहतर ही हुई है. इस वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के हटते ही वहां आर्थिक गतिविधियां तेज रफ़्तार में चलने लगीं. अगर पिछले डेढ़ महीने के आकड़ों पर नजर डालें तो इसका स्पष्ट पता चलता है. जून महीने में ग्रामीण क्षेत्र में ऑटो इंडस्ट्री के आंकड़े काफी चौंकाने वाले रहे हैं. इस दौरान यहां ट्रैक्टर की बिक्री में रिकॉर्ड उछाल देखने को मिला है. सोनालिका समूह के कार्यकारी निदेशक रमन मित्तल मीडिया से बातचीत में बिक्री के आंकड़ों की जानकारी देते हुए कहते हैं, ‘यह हमारे लिए बहुत गर्व की बात है कि सोनालिका ट्रैक्टर्स इस कठिन समय में अधिकतम वृद्धि दर्ज करने वाली एकमात्र कंपनी है. हमने 15,200 ट्रैक्टरों के साथ बीते जून में दमदार प्रदर्शन किया है, इस साल जून में हुई बिक्री ने अब तक का हमारा उच्चतम स्तर छुआ है.’
ऐसा ही कुछ हाल महिंद्रा एंड महिंद्रा का भी रहा है. जून में महिंद्रा ट्रैक्टर्स की बिक्री में 12 फीसदी का उछाल दर्ज किया गया है. कंपनी ने इस दौरान रिकॉर्ड 35,844 ट्रैक्टर बेंचे हैं. महिंद्रा एंड महिंद्रा लिमिटेड में फार्म इक्विपमेंट सेक्टर के प्रमुख हेमंत सिक्का एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘बीते जून में महिंद्रा ट्रैक्टर की बिक्री के आंकड़े अब तक के हमारे दूसरे सबसे बड़े आंकड़े हैं. दक्षिण-पश्चिम मानसून के समय पर आने, रबी की रिकॉर्ड फसल, कृषि को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा चलायी गयीं योजनाओं के कारण किसान इस समय खासे उत्साहित हैं.’
केवल ट्रैक्टर ही नहीं, ऑटो क्षेत्र की अन्य कंपनियों को भी ग्रामीण भारत ने बड़ी राहत दी है. बाजार में चल रहे उतार-चढ़ाव पर नजर रखने वाली कंपनियां नोमुरा, एमके ग्लोबल और मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के मुताबिक ट्रैक्टर के अलावा दोपहिया, तिपहिया और चार पहिया वाहनों की बिक्री में भी शहरी क्षेत्र की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी देखी गयी है.
गांवों में शहरों के मुकाबले चीज-सामान की कहीं ज्यादा मांग
गूगल की कोविड-19 मोबिलिटी रिपोर्ट यह दावा भी करती है कि लॉकडाउन हटने के बाद भारत में यूरोप के 17 देशों से कहीं ज्यादा चीज-सामान की खपत हो रही है. अर्थ जगत के जानकार इसके पीछे भी ग्रामीण क्षेत्र का बड़ा योगदान मानते हैं.
‘तेज़ी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुयें’ बनाने वाली एफएमसीजी कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग कई गुना बढ़ी है. मार्केट रिसर्च से जुड़ी कंपनी नील्सन की हाल में आयी रिपोर्ट की मानें तो बीते मई में ही ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री कोविड से पहले वाली औसत बिक्री के 85 फीसदी तक पहुंच गयी थी. जबकि शहरी बाजार में यह आंकड़ा 70 फीसदी पर था.
खाने-पीने के उत्पाद बनाने वाली कई कंपनियों जैसे पारले, ब्रिटेनिया ने भी लॉकडॉन के दौरान और उसके बाद अपने उत्पादों की बिक्री कई गुना बढ़ने की बात कही थी. देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान पारले-जी ने पिछले 82 सालों की बिक्री का रिकॉर्ड तोड़ दिया था. पारले प्रोडक्ट्स के वरिष्ठ प्रमुख मयंक शाह मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘हमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में मजबूत डिमांड मिल रही है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड पहले से दोगुनी है.’ मयंक मानते हैं कि कोविड के दौर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहर की तुलना में बेहतर स्थिति में है.(satyagrah )