विचार/लेख
-आलोक प्रकाश पुतुल
यह 2003 का किस्सा है। छत्तीसगढ़ में तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी से मैंने पूछा था कि ताज़ा चुनाव में कांग्रेस को 90 में से कितनी सीटें मिलेंगी?
48 विधायकों के साथ सत्ता की कमान संभालने वाले अजीत जोगी ने भाजपा विधायकों को तोड़ कर, कांग्रेस विधायकों की संख्या को 62 तक पहुंचा दिया था।
अजीत जोगी ने जवाब दिया, ‘अभी से ज़्यादा!’
लेकिन विधानसभा चुनाव में 62 सीटों वाली कांग्रेस, 37 सीटों पर सिमट कर रह गई और भाजपा ने 50 सीटें हासिल कर के राज्य में अपनी सरकार बना ली थी।
बीस साल बाद, इतिहास ने फिर से अपने को दुहरा दिया है।
2018 के चुनाव में 68 सीटें हासिल कर के सरकार बनाने वाली कांग्रेस पार्टी ने, ताज़ा चुनाव में 75 पार का नारा दिया था। लेकिन हालत 2003 जैसी हो गई।
‘बघेल के अहंकार को जवाब’
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं, ‘जनता ने भूपेश बघेल के अहंकार को जवाब दिया है। पांच सालों तक कांग्रेस के भ्रष्टाचार को जनता ने जवाब दिया है। यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में लड़ा गया था, उनकी गारंटी पर जनता ने भरोसा जताया और भूपेश बघेल की सरकार और उनके अधिकांश मंत्रियों को नकार दिया।’
ताज़ा चुनाव में कांग्रेस के अधिकांश दिग्गज़ नेता हार गए हैं।
ताज़ा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के अलावा बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने अपनी उपस्थिति ज़रूर दजऱ् कराई लेकिन दूसरी पार्टियों का बड़ा असर होने की संभावना धरी रह गई। इसके उलट अधिकांश सीटों पर भाजपा ने बड़े अंतर से चुनाव जीतने में सफलता पाई है और भारी अंतर से हार के कई रिकॉर्ड भी बने हैं।
हालत ये है कि पिछले चुनाव में पूरे राज्य में सर्वाधिक 59284 वोटों के अंतर से कवर्धा से जीत हासिल करने वाले मंत्री और सरकार के प्रवक्ता मोहम्मद अक़बर भी 39,592 वोटें के अंतर से चुनाव हार गए हैं। कवर्धा में पिछले दो सालों से सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बना हुआ था।
उप-मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव अंबिकापुर से चुनाव हार गए हैं।
इसी तरह कवर्धा के पड़ोस की साजा सीट से, राज्य के दूसरे कद्दावर मंत्री और सरकार के दूसरे प्रवक्ता रवींद्र चौबे भी चुनाव हार गए हैं। इसी साल अप्रेल में, साजा के बीरनपुर गांव में हुए सांप्रदायिक दंगे में एक युवक भुवनेश्वर साहू की हत्या कर दी गई थी। दो दिन बाद इसी गांव में दो मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी। राज्य सरकार ने हिंदू युवक के परिजनों को 10 लाख रुपये और नौकरी देने की घोषणा की थी लेकिन मुसलमानों के लिए सरकार ने कोई मुआवज़ा घोषित नहीं किया और परिजनों को हाइकोर्ट जाना पड़ा।
भारतीय जनता पार्टी ने इस साजा सीट पर भुवनेश्वर साहू के मज़दूर पिता ईश्वर साहू को अपना उम्मीदवार बनाया था।
हिंदुओं के साथ खड़ी दिखने की कोशिश करने वाली कांग्रेस सरकार, अपनी इस पारंपरिक सीट साजा को भी नहीं बचा पाई और रवींद्र चौबे हार गए।
हिंदुत्व काम न आया
2018 में सत्ता में आने से पहले ही ‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी, नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ का नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आते ही, नदी नालों, गौवंश, जैविक खाद और सब्जी उगाने वाली बाड़ी को प्रोत्साहित करने की योजना पर काम शुरू किया लेकिन सरकार ने मूल रूप से गोबर खऱीदने की अपनी योजना को ही सर्वाधिक प्रचारित किया। धीरे से सरकार ने गोमूत्र की भी खऱीदी शुरू कर दी।
इस बीच सरकार, राज्य भर में राम रथ यात्रा में भी जुटी रही।
कांग्रेस सरकार उस राम वन गमन पथ का निर्माण करने में जुटी रही, जो मूलत: आरएसएस और भाजपा का एजेंडा था। भगवान राम की माता कौशल्या के नाम पर बनाए गए मंदिर के सौंदर्यीकरण और उसे प्रचारित करने का कोई अवसर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने हाथ से जाने नहीं दिया। जगह-जगह भगवान राम की विशालकाय मूर्तियों की स्थापना तो जैसे सरकार की प्राथमिकता में शामिल रही।
एक तरफ़ आदिवासी आस्था के प्रतीकों को हिंदू देवी-देवताओं से जोडऩे का काम कांग्रेस पार्टी की सरकार करती रही, वहीं दूसरी ओर आदिवासियों के विरोध के बाद भी, अंतरराष्ट्रीय रामायण महोत्सव और गांवों में मानस प्रतियोगिता जैसे आयोजनों का सिलसिला राज्य भर में जारी रहा।
कांग्रेस नेताओं के संरक्षण में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए आयोजित गोष्ठियों की चर्चा तो देश भर में हुई।
इसी तरह, ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों पर हमले, उनके शवों को उखाड़ कर फेंकने और प्रार्थना स्थलों पर तोडफ़ोड़ के जितने मामले रमन सिंह की सरकार के 15 साल के कार्यकाल में हुए थे, उससे कई गुना अधिक मामले कांग्रेस की पांच साल के कार्यकाल में सामने आए।
सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने वाले हिंदुओं को मुआवजा और नौकरी और इसके ठीक उलट ऐसी ही हिंसा में मारे जाने वाले मुसलमानों की उपेक्षा के बाद, राज्य में मान लिया गया था कि छत्तीसगढ़ की लगभग चार फ़ीसद की अल्पसंख्यक आबादी की परवाह कम से कम कांग्रेस पार्टी को तो नहीं ही है।
लेकिन हिंदुत्व का जो मैदान कांग्रेस पार्टी ने तैयार किया, विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उसी मैदान पर कब्ज़ा कर के अपनी जीत दजऱ् की।
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संवाद प्रमुख कनीराम नंदेश्वर ने बीबीसी से कहा, ‘कांग्रेस सरकार ने हिंदुत्व के मुद्दों को स्पर्श करने की कोशिश तो की लेकिन उसमें ईमानदारी नहीं थी। इसकी आड़ में तुष्टिकरण किया गया। इसी तरह राज्य भर में धर्मांतरण की घटनाएं बढ़ीं और रही-सही कसर बेमेतरा में हुए उस दंगे ने पूरी कर दी, जिसमें एक हिंदू युवा को दिन-दहाड़े मार डाला गया।’
हालांकि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला इससे सहमत नहीं हैं।
सुशील आनंद शुक्ला ने बीबीसी से कहा, ‘हमारे लिए हिंदुत्व वोट का कभी मुद्दा था ही नहीं। वह छत्तीसगढ़ की संस्कृति को सहेजने की प्रक्रिया थी। हालांकि हमने जनविकास के लिए लगातार पांच साल काम किया। जनता के लिए ताज़ा चुनाव में भी कांग्रेस ने कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की थी, लेकिन जनता को भाजपा ने झूठ बोल कर भरमाया और जीत हासिल की।’
कहां पिछड़ गई कांग्रेस?
सुशील आनंद शुक्ला जिन महत्वपूर्ण घोषणाओं की याद दिलाते हैं, उनमें देश में सर्वाधिक 3200 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की खऱीदी, किसानों की कजऱ् माफ़ी, स्व-सहायता समूह की कज़ऱ् माफ़ी, केजी से पीजी तक मुफ़्त पढ़ाई, 200 यूनिट तक मुफ़्त बिजली बिल, महिलाओं को हर साल 15 हज़ार रुपये जैसे वादे शामिल थे।
इसके मुक़ाबले भाजपा ने विवाहित महिलाओं को हर साल 12 हज़ार देने और 31 सौ रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की खऱीदी का वादा किया था। भाजपा ने महिलाओं को 12 हज़ार की रक़म देने को लेकर महिलाओं से बड़ी संख्या में फॉर्म भी भरवाए। इसका भी बड़ा असर माना जा रहा है।
लेकिन पिछले चुनाव में कांग्रेस ने शराबबंदी, नक्सल मुद्दों पर शांति वार्ता, हसदेव में खदानों को बंद करने, बेरोजग़ारों और महिलाओं को नक़द रक़म देने जैसे वादे भले पूरा न किया हो लेकिन कज़ऱ् माफ़ी और धान खऱीदी ने किसानों के बीच सरकार की लोकप्रियता बढ़ा दी थी। इसके अलावा 200 यूनिट तक बिजली बिल आधा करने का वादा भी कांग्रेस ने पूरा किया था।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखऱि ताज़ा चुनाव में, इतनी लाभकारी योजनाओं की घोषणा के बाद भी जनता ने कांग्रेस पार्टी को क्यों नकार दिया?
राजधानी रायपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘सरकार का अहंकार और अतिआत्मविश्वास उसे ले डूबा। कांग्रेस ने 75 पार की घोषणा की और कार्यकर्ता कमज़ोर पड़ गए कि अब इतनी सीटें तो जीत ही रहे हैं। इसके अलावा भूपेश बघेल ने पांच साल मुख्यमंत्री रहने के चक्कर में पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया था। मंत्रियों के पर कतर दिए गए थे। विधायकों के काम नहीं हो पा रहे थे। विधायकों के ख़िलाफ़ अलोकप्रियता थी। यही कारण है कि पार्टी ने 71 में से 20 विधायकों की टिकट ताज़ा चुनाव में काट दी थी। लेकिन यह भी काम नहीं आया। आईएएस, आईपीएस अफ़सरों का हर चार-पांच महीने में तबादला इस तरह हो रहा था, जैसे तबादला यहां उद्योग हो।’
‘जनता से कटे नेता’
राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि पांच साल में एक के बाद एक कोयला घोटाला, शराब घोटाला, डीएमएफ़ घोटाला जैसे आरोप, ईडी और आईटी की छापामारी, मुख्यमंत्री के कऱीबी अफ़सरों के इन आरोपों में जेल भेजे जाने जैसे मुद्दों ने भी असर डाला। सरकार के अधिकांश विभागों में भ्रष्टाचार के मामले आम रहे।
यहां तक कि पीएससी में भी पीएससी अध्यक्ष के परिजनों, मुख्यमंत्री के कऱीबी अफ़सरों-नेताओं के बच्चों के शीर्ष पदों पर चयन को लेकर भी युवाओं में आक्रोश था। लेकिन सरकार इसकी जांच से भी बचने की कोशिश करती रही। उलटे इस मामले में अभियुक्तों का बचाव किया गया।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं, ‘बस्तर की सभी 12 और सरगुजा की सभी 14 सीटें कांग्रेस के पास थी। लेकिन इन पांच सालों में हसदेव से लेकर सिलगेर तक दो दर्जन से अधिक जगहों पर आदिवासियों के आंदोलन चलते रहे और साल-साल भर तक चलने वाले इन आंदोलनों की सरकार ने न केवल अनदेखी की, कुछ इलाकों में तो इन आंदोलनों का दमन भी किया गया। बस्तर में हुए फजऱ्ी मुठभेड़ों की न्यायिक जांच पर भी कार्रवाई करने के बजाय सरकार ने उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया।’
आलोक शुक्ला का कहना है कि सत्ता में आने के बाद से ही ‘मुख्यमंत्री ज़मीन से दूर होते चले गए। जन आंदोलनों से सरकार और कांग्रेस पार्टी ने न केवल दूरी बना ली थी, बल्कि मुख्यमंत्री ने जन आंदोलन के नेताओं के खिलाफ, सार्वजनिक तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करने का कोई अवसर नहीं जाने दिया। इसी तरह कांग्रेस के ज़मीनी कार्यकर्ताओं को भी हाशिए पर डाल दिया गया।’
कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला हालांकि इससे इनकार करते हैं। उनका कहना है कि एक बार कांग्रेसजन बैठेंगे, चिंतन-मनन करेंगे।
वे राजनीति का एक स्थाई वाक्य ज़रूर दुहरा रहे हैं, ‘जनता का निर्णय शिरोधार्य है।’ (bbc.com/hindi)
संजीव खुदशाह
कल पहली बार स्टेडियम में अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय क्रिकेट देखने का मौका मिला।
यकीन मानिए तो क्रिकेट से मेरा विश्वास उठ चुका है। तब जब मैच फिक्सिंग के मामले में क्रिकेट की थू थू हुई थी। एक समय क्रिकेट को लेकर दीवानगी मेरे अंदर थी।
लेकिन अब वह बात नहीं है टीवी पर भी क्रिकेट मैं बहुत कम देखता हूं। कोई बहुत खास मैच होता है तभी टीवी के सामने बैठता हूं।
कल मुझे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच जो की रायपुर के शहीद वीर नारायण अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम में खेला गया देखने का मौका मिला जो की मित्रों द्वारा प्रायोजित था।
स्टेडियम की ओर जाती हुई भीड़ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि क्रिकेट को लेकर कितनी दीवानगी है। बच्चे, बूढ़े, औरत, नौजवान, लड़कियां सब स्टेडियम की ओर जा रहे थे।
गेट पर ही पानी के बोतल, सिक्के, खाने की वस्तुएं रखवा ली गई। भीतर जाने के बाद पता चला कि?20 की पानी की बोतल ?100 में और खाने के जो समान है। उनका रेट कितना ज्यादा की मत पूछिए।
जैसे ही मैं स्टेडियम के भीतर पहुंचा आवक रह गया। स्टेडियम में खचाखच भरी भीड़ और दूधिया रोशनी से नहाती खिलाडिय़ों के मैदान। बेहद आकर्षक लग रहे थे। हम लोग जब अपनी सीट पर बैठकर क्रिकेट का आनंद लेने की कोशिश करने लगे तो महसूस हुआ की इससे ज्यादा अच्छा तो टीवी में लगता है। ऐसा लगता है कि हम खिलाडिय़ों के साथ ही घूम रहे हैं या मैदान के बीच में है।
लेकिन क्रिकेट के मैदान में बात दूसरी हो जाती है। कौन बैटिंग कर रहा है? कौन बॉलिंग कर रहा है? आप समझ नहीं पाते. यह जानने के लिए डिस्प्ले बोर्ड जो मैदान में 1 या 2 होते हैं उनका सहारा लेना पड़ता है। बच्चे बूढ़े सब अपने गालों में तिरंगा झंडा बनाए हुए। भारतीय टीम की नीली शर्ट जो मैच के दौरान, एक-दो घंटे के लिए ही पहननी थी लोगों ने 150, 300 में खरीदा था। ऐसा नहीं लग रहा था की यह कार्यक्रम किसी विकासशील देश में हो रहा है। लोगों की खरीदने की ताकत पहले से कहीं अधिक है। टिकट की मूल या 3500 से 25000 तक थे।
क्रिकेट का मैच दरअसल एक इवेंट हो गया है। ओवर खत्म होने के बाद आकर्षक म्यूजिक बजाया जाता है। चौका- छक्का या विकेट गिरने पर भी चीयर गर्ल्स नाचती हैं या फिर लोकल कलाकार डांस करते हैं। और दर्शकों को टीम से कोई लेना-देना नहीं। देशभक्ति तो अपनी जगह है। लेकिन दर्शक सिर्फ और सिर्फ इंजॉय करने के लिए वहां पर जाते हैं। उन्हें हर बॉल पर हर रन पर चिल्लाना है, खुशियां मनाना है। यह बड़ा अच्छा संकेत है कम से कम अति राष्ट्रवाद और किसी देश को लेकर के वह वैमनस्यता वाली बात यहां पर नहीं दिखती है।
आम भारतीयों के जीवन में ऐसी कुछ कमी रह गई है जो उनकी खुशियों में बाधा है इस बाधा को दूर करती है क्रिकेट। जो मैदान में जाकर देखी जाती है। इसे आप मैदान में जाकर देखें बिना महसूस नहीं कर सकते।
क्रिकेट मैच के ऑर्गेनाइजर आम जनता की इस जरूरत को समझ चुके हैं। इसीलिए इवेंट को इस तरह से रचा जाता है की क्रिकेट सिर्फ और सिर्फ एक मनोरंजन का खेल लगता है। जिसमें कोई देश जीते, कोई देश हरे। जो जनता अपनी पैसे को खर्च कर वहां पर आई है उसका सिर्फ और सिर्फ एक मकसद होता है एंजॉय करना। खुशियां मनाना। यह बात सही है कि अपने देश को हराते हुए देखना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है। फिर भी खेल भावना लोगों में अपनी जगह बना रही है।
बॉलीवुड की फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही है जिसका टिकट 150 से ?400 का लेकिन लोग उसे नहीं देखने जाते हैं?। जबकि क्रिकेट का टिकट 3000 से लेकर 25000 तक है। फिर भी लोग वहां जा रहे हैं क्योंकि वह एंजॉयमेंट, वह दीवानगी जो क्रिकेट में है वह फिल्में नहीं दे पा रही हैं। या कहीं और ऐसा मनोरंजन उनको नहीं मिल पा रहा है।मुझे लगता है कि एक न एक बार इस तरह स्टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच जरूर देखना चाहिए।
चंदन कुमार जजवाड़े
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा सुरंग से निकलने वाले बिहार के मजदूरों ने बीबीसी हिंदी से उन 17 दिनों के अपने अनुभव साझा किया जब वो अंदर उम्मीद के सहारे समय काट रहे थे।
सुरंग में फंसे 41 मजदूरों में बिहार के भी 5 मजदूर थे, जो शुक्रवार को पटना पहुंचे और फिर अपने-अपने घरों की तरफ रवाना हुए। घर पहुंचने पर इनका जोरदार स्वागत किया गया। इस स्वागत के पीछे इन मज़दूरों का सत्रह दिनों का साहस है, जिसने उन्हें मुश्किल समय में हिम्मत दी।
किसी भी लंबी सुरंग के अंदर सूनेपन में भी एक आवाज होती है, फिर अंधेरा, मिट्टी और कीचड़। यहां न सोने की जगह होती है और न ही शौच की।
मजदूरों ने सत्रह दिनों का यह समय कैसे गुजारा था, अपने इस खौफनाक अनुभव को उन्होंने साझा किया। बिहार के भोजपुर जि़ले के पेउर गांव के सबा अहमद करीब 14 साल से उसी कंपनी में काम कर रहे हैं, जो उत्तरकाशी का सुरंग बना रही है।
सबा अहमद ने बताया कि अंदर फंसे लोगों में वो सबसे अनुभवी थे और सीनियर फोरमैन के तौर पर काम कर रहे थे। यह प्रोजेक्ट साल 2018 के अंत में शुरू हुआ था। उत्तराखंड में सुरंग हादसे में बचाए गए बिहार के मजदूर सोनू के परिवार का क्या हाल है?
जब इलेक्ट्रीशियन ने शोर मचाना शुरू किया
जिस दिन यानी 12 नवंबर को यह हादसा हुआ उस दिन भारत में दिवाली का त्योहार था। सुरंग के अंदर सभी मजदूर 11 नवंबर की रात से ड्यूटी पर तैनात थे और उन्हें अपना काम पूरा करना था।
सबा ने बताया कि सभी मजदूरों को उस फेस का काम पूरा कर काम बंद करना था, ताकि दिवाली की तैयारी कर सकें।
दरअसल सुरंग बनाते समय इस बात का ख़्याल रखा जाता है कि किसी काम को बीच में न छोड़ा जाए, जिससे कोई हादसा या परेशानी होने की आशंका हो।
इसी दौरान सुबह कऱीब 5 बजे एक इलेक्ट्रीशियन ने शोर मचाना शुरू किया कि सुरंग धंस रही है। यह सुनकर सबा अहमद सुरंग के अंदर इस्तेमाल में आने वाली एक गाड़ी (मशीन) को लेकर उस तरफ भागे, जहां सुरंग के धंसने की बात की गई थी।
सबा अहमद याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं गाड़ी चलाते हुए बढ़ता गया। मुझे कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। फिर जब सुरंग से बाहर निकलने वाले छोर के कऱीब 250 मीटर अंदर था तो देखा कि वहां सुरंग धंस गई है।’
सबा अहमद ने बताया, ‘हमने फौरन अपना फ़ोन लगाने की कोशिश की लेकिन सुरंग के अंदर फोन काम नहीं करता है। उस वक्त सभी मज़दूरों को घबराहट होने लगी कि अब वो कैसे बाहर निकलेंगे।’
शुरू में यह सुरंग करीब 10 मीटर तक धंसी थी, लेकिन इसके मलबे से होकर कहीं-कहीं से बाहर की थोड़ी रोशनी अंदर तक आ रही थी। थोड़ी देर में इन मज़दूरों को खय़ाल आया कि सुरंग में मौजूद पानी के पाइप से कोई सिग्नल भेजने की कोशिश की जा सकती है।
सबा ने बताया कि सुरंग की खुदाई करते समय एक पाइप के जरिए बाहर से ताज़ा पानी अंदर की तरफ लाया जाता है ताकि चट्टानों को काटने के दौरान मशीन को ठंडा रखा जा सके। जबकि एक अन्य पाइप से सुरंग के अंदर के गंदे पानी और कीचड़ को बाहर निकाला जाता है।
पानी के पाइप के सहारे दिए संकेत
सबा के मुताबिक, उन लोगों ने तीन चार बार पंप चलाकर अंदर के पानी को कभी बाहर भेजा तो कभी बंद किया। इससे बाहर मौजूद लोगों को यह सिग्नल मिल गया कि अंदर मजदूर सुरक्षित हैं और कुछ कहना चाहते हैं।
सबा ने बीबीसी को बताया कि उन्हें इसकी ट्रेनिंग दी जाती है कि कोई भी सुरंग बनाते समय यही पाइप लाइन सभी मज़दूरों के लिए जीने का सहारा होती है। इसलिए पानी के पाइप को सुरंग के एक तरफ और बिजली के तारों को दूसरी तरफ रखा जाता है।
यह सब करने में मजदूरों को कऱीब 11 से 12 घंटे लग गए। उसके बाद वो फिर से निराशा में घिर गए, क्योंकि बाहर लोगों को क्या संकेत मिला है और बाहर के लोगों ने क्या समझा है, यह मजदूरों को पता नहीं था।
सबा याद करते हैं, ‘हम सभी थक हारकर इंतजार कर रहे थे, तभी अचानक सुरंग के अंदर सांय- सांय की आवाज़ आने लगी और सभी मज़दूर घबरा गए। थोड़ी देर में हमें पता चला कि पानी के पाइप से अंदर ऑक्सीजन भेजा जा रहा है और यह उसी की आवाज़ है।’
इस तरह से सभी मज़दूरों को थोड़ी राहत ज़रूर मिली। लेकिन अभी उनके सामने और भी परेशानी थी। 41 प्यासे लोगों के लिए सुरंग के अंदर कऱीब 50 लीटर पानी बचा था, जबकि खाने को कुछ नहीं था।
बिहार के सारण जि़ले के खजुवान गांव के सोनू साह के मुताबिक़, उन्हें शुरुआत के चौबीस घंटे तक काफ़ी घबराहट रही थी। उसके बाद जब कुछ नहीं हुआ तो सभी को लगने लगा कि वो बच जाएंगे।
इसी दौरान छह इंच के एक पाइप को सुरंग के अंदर पहुंचाकर मज़दूरों के लिए खाने को कुछ भेजने की तैयारी हो रही थी, लेकिन यह पाइप मलबे से टकराकर ऊपर की तरफ चला गया। हालांकि बाद में पाइप सही जगह पर पहुंच गया और अंदर फंसे लोगों के लिए काजू, किशमिश, चने और खाने की कई चीजें भेजी जाने लगीं।
अंदर दो किलोमीटर तक खुदाई हुई थी
बिहार के ही मुजफ्फरपुर के सरैया के रहने वाले दीपक भी उन्हीं मजदूरों में शामिल थे, जो सुरंग के अंगर फंसे थे।
दीपक याद करते हैं, ‘दो दिनों तक हमें काफ़ी डर लग रहा था कि क्या होगा, बचेंगे या नहीं। लेकिन खाने पीने की चीजें आने लगी थीं और फिर हमारे सीनियर फोरमैन ने समझाया कि कुछ नहीं होगा, घबराना नहीं है। उन्हें ऐसी स्थिति का पहले से थोड़ा-बहुत अनुभव था।’
सबा अहमद ने बताया कि 12 नवंबर को सुरंग जिस जगह पर धंसी थी, उसी जगह पर फिर से कुछ मलबा गिरा।
अगली रात को भी इस जगह पर कुछ मलबा गिरा और सुरंग पूरी तरह बंद हो गई। इस तरह से अब बाहर से रोशनी तो क्या हवा तक आने के लिए जगह नहीं बची।
सब अहमद कहते हैं, ‘मेरे अनुभव में इससे सुरंग के और धंसने का रास्ता बंद हो गया, क्योंकि मलबा ऊपर तक चला गया और इससे सुरंग के धंसने की जगह नहीं बची।’सिलक्यारा सुरंग जिस जगह पर धंसी थी, उससे बाहर निकलने का छोर कऱीब 250 मीटर दूर था।
जबकि अंदर दो किलोमीटर से ज़्यादा खुदाई हो चुकी थी। इसी खुली जगह ने सभी लोगों की जान बचाने में बड़ी मदद की।
सुरंग में शौच के लिए कऱीब डेढ़ किलोमीटर अंदर मशीन से कुछ गड्ढे तैयार किए गए, जिन्हें शौच के लिए इस्तेमाल किया गया। साफ-सफाई को लेकर भी लोगों को हिदायत दी गई ताकि कोई संक्रमण न फैले।
वॉटरफ्रूफिंग शीट को बनाया बिस्तर
इन मुश्किल परिस्थितियों में इस सुरंग की एक और खासियत ने अंदर फंसे लोगों की मदद की।
दरअसल सुरंग में अंदर काफी ढलान है, जिससे मशीन के लिए इस्तेमाल होने वाला पानी, या पहाड़ों से रिसने वाला पानी दूसरे छोर पर इक_ा हो रहा था और सुरंग में बाक़ी जगह पर कीचड़ जैसी स्थिति नहीं थी। इसलिए सभी लोगों के बैठने और आराम करने के लिए सूखी जगह मौजूद थी, लेकिन सुरंग के अंदर ठंड भी काफ़ी ज़्यादा होती है।
सोनू साह बताते हैं, ‘सुरंग में वॉटरप्रूफिंग के लिए जो शीट लगाई जाती है। सुरंग में बड़ी मात्रा में वह शीट मौजूद थी। हमने उसी को चाकू से काटकर ज़मीन पर बिछा दिया और उसी पर सोते थे, उसी को ओढ़ते थे।’
सबा अहमद याद करते हैं, ‘कुछ लोग सो जाते थे, लेकिन मैं पिछले 18 दिनों से नाइट ड्यूटी पर था तो ठीक से सो नहीं पा रहा था। सुरंग में सबसे सीनियर मैं ही था और हर परिस्थिति पर नजऱ रखनी होती। इसलिए कऱीब 5 बजे सुबह सोता था और फिर 7 बजे से बाहर से संपर्क शुरू हो जाता था, इसलिए जगना होता था।’
इस तरह से सारे मज़दूर बाहर से पाइप के ज़रिए आने वाले भोजन के सहारे थे। आपस में बातचीत और एक दूसरे को भरोसा दिलाते हुए उनका समय गुजऱ रहा था।
एक बार भोजन और पानी पहुंचने के बाद मज़दूरों को लगा कि अब वो सुरक्षित निकल जाएंगे।
दरअसल बाहर से सुरंग के अंदर के हालात और माहौल को समझ पाना मुश्किल था, लेकिन अंदर दो किलोमीटर से ज़्यादा लंबी सुरक्षित जगह और सुरंग में लगातार काम करने से जाना-पहचाना माहौल इन मज़दूरों को हौसला दे रहा था।
ताश की गड्डियों की मांग
सबा अहमद बताते हैं, ‘मैंने इस तरह से प्रोजेक्ट पर कई साल काम किया है, इसलिए भरोसा था कि बाहर निकल जाएंगे, क्योंकि सुरंग से निकलने के चार-पांच तरीके होते हैं। हमें जिस तरीके से निकाला गया वह सबसे बेहतर तरीका है।’
सोनू के मुताबिक़, एक बार जब यह लगने लगा कि वो सुरक्षित बच जाएंगे तो समय काटने का जुगाड़ सबसे ज़रूरी था। इसके लिए उन्होंने 6-7 गड्?डी ताश अंदर भेजने की मांग की।
सोनू ने बीबीसी को बताया, ‘मैंने ही जीएम साहब से इसके लिए आग्रह किया तो उन्होंने कहा ठीक है। फिर ताश आ गया, लेकिन ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं था कि ताश खेलते कैसे हैं।
उसके बाद कई लोगों को ताश खेलना सिखाया गया और अलग-अलग ग्रुप बनाकर सुरंग के अंदर ताश खेलकर समय गुज़ारने लगे।’
फिर कऱीब एक हफ़्ते के बाद जब पहली बार जब इन मजदूरों का वीडियो सामने आया तब उनके घरवालों को भी थोड़ी राहत मिली।
मज़दूरों के घर वाले उन्हें सीधा देख पा रहे थे और बात भी कर पा रहे थे। इससे मज़दूरों का भी हौसला बढ़ा। इस दौरान नेता, मंत्री, बचाव दल और कई लोगों ने उनसे बात की।
मज़दूरों ने धामी से कहा- ‘जल्दबाज़ी न करना’
सबा अहमद के मुताबिक़, ‘हमें किसी भी समय नहीं लगा कि अब जि़ंदा नहीं बचेंगे। इसलिए उत्तराखंड से मुख्यमंत्री धामी जी को हमने कहा कि सर जल्दबाज़ी या घबराहट में कुछ नहीं करना है हम सब सुरक्षित हैं, आराम से काम करें, लेकिन हमें सुरक्षित बाहर निकाल दें।’
इस तरह से देश विदेश के विशेषज्ञ, कई तरह की मशीनें और तकनीक के सहारे आखऱिकार 17 दिनों बाद 28 नवंबर मंगलवार की शाम इन सभी मज़दूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया।
सुरंग से बाहर निकलते ही सभी मज़दूरों के चेहरे खिल गए और उन्होंने अपने-अपने घरवालों से बात की।
लेकिन सुरंग के अंदर 400 घंटे से ज़्यादा समय तक सुरक्षित बचे रहने में सबा अहमद, सबसे बड़ा योगदान पानी निकालने वाले पाइप का मानते हैं। (bbc.com/hind)
1. Intelligence leads to arguments.“Wisdom leads to settlements. 2. Intelligence is power of will.“Wisdom is power OVER will.“3. Intelligence is heat, it burns.“Wisdom is warmth, it comforts.“4. Intelligence is pursuit of knowledge, it tires the seeker.“Wisdom is pursuit of truth, it inspires the seeker.“5. Intelligence is holding on.“Wisdom is letting go.“6. Intelligence leads you.“Wisdom guides you.“7. An intelligent man thinks he knows everything.“A wise man knows that there is still something to learn.“8. An intelligent man always tries to prove his point.“A wise man knows there really is no point.“9. An intelligent man freely gives unsolicited advice.“A wise man keeps his counsel until all options are considered.“10. An intelligent man understands what is being said.“A wise man understands what is left unsaid.“11. An intelligent man speaks when he has to say something.“A wise man speaks when he has something to say.“12. An intelligent man sees everything as relative.“A wise man sees everything as related.“13. An intelligent man tries to control the mass flow.“A wise man navigates the mass flow.“14. An intelligent man preaches.“A wise man reaches.
““Intelligence is good“but wisdom achieves better results.
-Social Media
डॉ. आर.के. पालीवाल
उत्तराखंड के सिलक्यारा में सुरंग निर्माण कार्य में लगे इकतालीस मजदूरों के सकुशल बाहर निकलने से देश के उन तमाम संवेदनशील नागरिकों ने राहत की सांस ली है जो सत्रह दिन से सुरंग धंसने से उसमें फंसे हुए लोगों के लिए चिंतित थे। प्रकृति और पर्यावरणविदो का एक बड़ा वर्ग पूरे हिमालय पर्वत श्रृंखला में हो रहे निर्माण कार्य पर चिंता जाहिर करता रहा है। यह अकारण नहीं है कि पिछ्ले कुछ दशकों से हिमालय के लिए चिंतित लोग सरकार और प्राइवेट कंपनियों द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों में किए जा रहे अंधाधुंध निर्माण कार्यों का जबरदस्त विरोध करते रहे हैं । विगत दो दशक में हिमालय में प्राकृतिक और मानव पोषित आपदाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। केदारनाथ की बाढ़ से लेकर जोशी मठ के मकानों और सडक़ों की दरारों तक कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हिमालय पर्वत श्रृंखला अंधाधुंध विकास को सहन करने में सक्षम नहीं है। ऐसा लगता है कि केन्द्र और राज्य सरकार की हिमालय पर्वत श्रृंखला में विकास कार्य की कोई स्पष्ट नीति नहीं है, इसीलिए इस क्षेत्र में भयावह प्राकृतिक आपदाओं और सिलक्यारा जैसी दुर्घटनाओं की पुनरावृति की संभावना बनी रहेगी।
सिलक्यारा सुरंग निर्माण का कार्य केंद्रीय परिवहन विभाग की राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना के अंतर्गत चारधाम यात्रा मार्ग को सुगम बनाने के लिए शुरु किया है। लगभग साढ़े चार किलोमीटर लंबी सुरंग के निमार्ण से वर्तमान गंगोत्री यमुनोत्री मार्ग की 25 किलोमीटर दूरी घटकर 5 किलोमीटर रह जाएगी और इस सुरंग के बाद 60 मिनट का सफर घटकर 5 मिनट रह जाएगा। निश्चित रुप से चारधाम यात्रा के तीर्थयात्रियों को सुरंग बनने से यात्रा में सहूलियत होगी लेकिन हिमालय क्षेत्र के संवेदनशील इलाकों में लंबी सुरंग बनाने से कमजोर पहाड़ी क्षेत्रों में भू स्खलन आदि की समस्याओं में भी इजाफा होता है। इसीलिए पर्यावरणविद इन इलाकों की विकास योजनाओं को प्रकृति केंद्रित रखने पर जोर देते हैं ताकि तीर्थाटन और पर्यटन के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण से खिलवाड़ न हो। चारधाम की यात्रा उस दौर में भी की जाती थी जब आवागमन के लिए आज जैसी सुविधाओं का नितांत अभाव था। उन दिनों केवल धार्मिक प्रवृत्ति के लोग ही तीर्थाटन करते थे लेकिन इधर धार्मिक और मौज मस्ती के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पहाड़ों पर चौड़ी सडक़ें, बडी बडी सुरंग और विशाल होटल और रिजॉर्ट आदि के निमार्ण से प्रकृति और पर्यावरण का महाविनाश किया जा रहा है। पिछली आपदाओं और दुर्घटनाओं से भविष्य के लिए कोई खास सबक नहीं लिया गया। संभावना यही है कि कुछ समय बाद सिलक्यारा की दुर्घटना को भी वैसे ही भुला दिया जाएगा जैसे केदारनाथ और जोशीमठ की आपदा को भुला दिया गया।
सिलक्यारा की दुर्घटना में एन डी आर एफ की टीमों ने सत्रह दिन तक अथक प्रयास कर यह साबित कर दिया कि दुर्घटनाओं के दुष्प्रभाव से लोगों को बचाने के लिए हमारी तकनीकी क्षमता में अच्छा खासा विकास हुआ है। दूसरे,इस दुर्घटना ने एक बार फिर हमें चेताया है कि हिमालय क्षेत्र में भारी निर्माण करने के दौरान जमीन धंसने से बडी दुर्घटना घट सकती है। ऐसे निर्माण इस संवेदनशील क्षेत्र में प्रकृति और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं इसलिए हिमालय के संतुलित विकास के लिए एक दूरगामी योजना बनाई जानी चाहिए। इस क्षेत्र में बड़े निर्माण कार्य की जगह प्रकृति केंद्रित विकास ही स्थाई हल है। यदि सरकारें प्रकृति और पर्यावरण को दरकिनार कर इसी तरह बडी बडी परियोजनाओं को क्रियान्वित करती रहेंगी तो प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं की पुनरावृति को रोकना संभव नहीं होगा।
दिपाली अग्रवाल
जैसे ही कैब ली तो ड्राइवर ने बताया कि आप जैसे सारे कस्टमर हों तो कितना अच्छा हो। मैं अचानक हुई इस प्रशंसा पर चौंकी तो उसने कहा कि आप आगे गाड़ी तक ख़ुद ही चलकर आ गईं, अधिकतर लोग इंतज़ार ही करते रहते हैं। मैंने सोचा कि इंतजार से अच्छा है कि ख़ुद चलकर जाया जाए लेकिन बहुत बात करने का मूड नहीं था। मैं किसी काम को लेकर कुछ मनन कर रही थी कि वो अपनी कहानी सुनाने लगे कि कैसे यहां एक सत्तर साल के बुजु्र्ग रहते हैं जो महीने की 45.000 रुपया कैब में देते हैं और उनका एक बेटा है जिसके पास मर्सिडीज़ है। थोड़ी जिज्ञासा जगी कि उस व्यक्ति के बारे में और पूछूं लेकिन ख़ुद को रोक लिया। मै सुबह ही बाहर से लौटी हूंं, 5 बजे की जागी और किसी काम के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मुझे कुछ मंथन करना था लेकिन कैब वाले अंकल रुके नहीं, वे लगातार कहानी सुनाते रहे। मेरी हम्म से वे जान नहीं पाए कि मैं बहुत सुनने की इच्छा में नहीं हूं। वे अपने बारे में बताने लगे कि दिल्ली-एनसीआर में कई जगह फ़्लैट खऱीद रखे हैं, बेटे के लिए। अब देखना है कि बेटा कितने पैसे कमाता है।
इन सब पर बहुत अनिच्छा से मैंने पूछा कि वे कहां से हैं, वे बोले मथुरा तो मुझे उत्साह हुआ। मैंने बताया कि मथुरा से हूं मैं भी, किसी दूसरे शहर में किसी अपने शहर के व्यक्ति का मिलना शहर में पहुंचने जैसा ही लगता है। वे बोले कि राया से हूं और उनके समधी बरसाने मंदिर में किसी पद पर हैं। इसमें गर्व जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि - आप लोगों को राधारानी के पैर नहीं छूने देंगे लेकिन हम लोग छू लेते हैं। फिर उन्होंने बताया कि बेटे की शादी तय हो गई है, दो महीने बाद है। बेटा नोएडा में ही नौकरी करता है और 6 फुट 2 इंच का है पर लडक़ी 5 फुट 2 इंच की है। वे व्यथा ज़ाहिर करते हुए बोले कि आजकल लड़कियों की हाइट कम ही रह जाती है, मैंने अपनी ओर देखकर सहमति जताई। वे बोले कि जिनकी हाइट ज़्यादा है भी वो नोन-वेज खाती हैं और उन्हें वेजेटेरियन ही बहू चाहिए। इसकी बात में कितनी वैज्ञानिक सच्चाई है, ये तो ईश्वर ही जाने। ख़ैर, बात तो अब लंबी चल पड़ी।
वे अपने फ़ोन में बेटे, होने वाली बहू और समधी की तस्वीरें दिखाने लगे. कुछ संतों की तस्वीरें भी थीं। बात बरसाने से होकर कृपालु महाराज और गोकुल तक भी पहुंच गई। वे सबकी तस्वीरें दिखाते जाते। मैंने ध्यान से देखा उनकी उम्र कुछ 46 के कऱीब होगी। फिर वे बोले कि शिक्षा का बहुत महत्व है लेकिन अपनी ही बात को फिर काटकर बोले कि जितना मैंने कमा लिया क्या कोई नौकरी वाला कभी कमा पाएगा, किस तरह उन्होंने संघर्ष किया है, गाडिय़ां चलाईं, पैसे बचाए और ज़मीनें खऱीदीं। उस पल तो सुनने में सब बहुत आसान ही लग रहा था लेकिन अब वे आराम करना चाहते हैं। बरसाने में ही घर बना रहे हैं और राधा रानी की सेवा में जीवन बिताना है।
मुझे ऑफि़स पहुंचने की जल्दी थी और काम करना था। मैं शांत बैठ गई और वे बोलते रहे फिर दफ़्तर उतारने तक भी तस्वीरें दिखाते रहे। मैंने उन्हें बताया था कि मैं भी मथुरा से हूं लेकिन इससे उन्हें कोई ख़ास जिज्ञासा नहीं हुई थी। पर मुझे गाड़ी से उतरना था और उनको टोकना अनादर लग रहा था। अंत में वे बोले कि मैंने आपका समय खऱाब किया उसके लिए स़ॉरी। मैंने हंसते हुए कहा कि - नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं, उन्होंने राधे-राधे कहा और मैंने कहा - जय श्रीकृष्ण।
कई बार सोचना टाल देना चाहिए, जीवन कितने रूपों में सामने आता है, कितने अनुभवों के साथ। यही सोचकर अब उस विषय पर मंथन करूंगी जिस पर काम करना है।
प्रमोद भार्गव
2024 लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल माने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के एक्जिट पोल, मसलन वास्तविक अनुमान कहीं बदलाव तो कहीं बराबर की टक्कर जता रहे हैं। वास्तविक नतीजे तो 3 दिसंबर को आएंगे, उससे पहले सामने आए इन अनुमानों ने मतदाता की नब्ज टटोलने की कोशिश की है। लेकिन इस बार एक्जिट पोलों में जो भिन्नता व दुविधा दिखाई दे रही है, उससे लगता है कि मतदाता की मंशा टटोलने वाली सर्वे एजेंसियों की सर्वेक्षण प्रणालियां वैज्ञानिक नहीं हैं। क्योंकि मध्यप्रदेश से जुड़े जो 8 सर्वे खबरिया चैनलों में प्रसारित हुए हैं, उनमें से 7 भाजपा को और एक एबीपी-सी वोटर कांग्रेस को बहुमत दे रहे हैं। भाजपा सत्ता में आती है तो इसका जीत का श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और चुनाव के ठीक पहले लाई गई ‘लाडली बहना योजना’ को दिया जाएगा। जिन 7 सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाया गया था, वे खुद अपनी जीत की उधेड़बुन में लगे रहे। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल अंचल में कोई करिश्मा दिखा पाएंगे, ऐसा मतदाता के रुख से फिलहाल नहीं लग रहा है।
राजस्थान के 8 सर्वे में से 5 भाजपा और 3 कांग्रेस के पक्ष में हैं।
छत्तीसगढ़ में 8 में से 8 सर्वे कांग्रेस को फिर से सत्ता में आते दिखा रहे हैं।
तेलंगाना में 6 सर्वे में से 5 सर्वे कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दे रहे हैं। दूसरे नंबर पर यहां मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति है। भाजपा को 5 से लेकर 13 सीटों पर ही संतोष करना पड़ेगा। साफ है, कर्नाटक के बाद कांग्रेस तेलंगाना में भी सत्तारूढ़ होती दिख रही है। यहां के चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस अधिकांश एक्जिट पोल में कांग्रेस से चुनाव हारती हुई नजर आ रही है। ध्यान रहे, तेलंगाना में कुछ ही महीने पहले कांग्रेस चुनावी संग्राम में उतरी थी। बावजूद वह बढ़त में है तो इसका प्रमुख कारण सत्तारूढ़ दल के प्रति सत्ता विरोधी रुझान है। यहां कांग्रेस को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी लाभ पहुंचाती दिख रही है। भाजपा का तेलंगाना में बुरी तरह से पिछडऩा इस बात का संकेत है कि दक्षिण भारत में न तो राम मंदिर और धारा-370 जैसे मुद्दे काम आए और न ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह का जादू चला।
मिजोरम में राष्ट्रीय पार्टियां आती नहीं दिख रही हैं। यहां त्रिशंकु सरकार बनती दिखाई दे रही है। मिजोरम में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में 14 से 18 सीटों की जीत के साथ एमएनएफ उभरती दिख रही है। उसका सीधा मुकाबला जेडपीएम से है। इस क्षेत्रीय दल को 12 से 16 सीटें मिल सकती हैं। कांग्रेस को 8 से 10 और भाजपा को दो सीटें मिलने के अनुमान लगाए गए हैं। साफ है, एक्जिट पोल करने वाली सर्वे एजेंसियों में इतना झोल और विरोधाभास है कि ये सर्वे भरोसे के नहीं लग रहे हैं। इसीलिए इन सर्वेक्षणों को ‘जितने मुंह, उतनी बातें’ कहा जा रहा है। वैसे भी ये अनुमान संयोग से ही सटीक बैठते हैं।
ओपीनियन पोल, मसलन जनमत सर्वेक्षण जहां मतदान पूर्व मतदाता की मंशा टटोलने की कोशिश है, वहीं एक्जिट पोल, अर्थात सटीक सर्वेक्षण, मतदान पश्चात, मतदाता का निर्णय जानने की कोशिश है। ओपीनियन पोल बाईदवे शुल्क चुकाकर प्रायोजित ढंग से कराए जा सकते हैं, इसलिए क्योंकि इनके प्रकाशित व प्रसारित होने के बाद मतदाता के रूख को प्रभावित किया जा सकता है। किंतु एक्जिट पोल मतदान पूरा हो चुकने के बाद, महज वास्तविक परिणाम के पूर्व अनुमान हैं।
इसलिए कोई राजनीतिक दल इन्हें अपनी इच्छानुसार कराने में रुचि नहीं लेता। मतदान के बड़े प्रतिशत को अब तक सत्तारूढ़ दल के खिलाफ व्यक्तिगत असंतुष्टि और व्यापक असंतोष के रूप में देखा जाता था, लेकिन मतदाता में आई बड़ी जागरूकता ने परिदृश्य को बदला है, इसलिए इसे केवल नकारात्मकता की तराजू पर तौलना बड़ी भूल होगी। इसे सकारात्मक दृष्टि से देखने की भी जरूरत है। मध्यप्रदेश में महिलाओं का बढ़ा प्रतिशत भाजपा के पक्ष में दिखाई दे रहा है।
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा इस बार चुनाव के दो माह पहले तक मुश्किल में दिखाई दे रही थी। लेकिन अब लाडली बहना उसे वैतरणी पार कराती दिखाई दे रही है। जबकि 2013 में शिवराज अपने बूते 200 विधानसभा सीटों में से 165 सीटें जीतने में सफल हो गए थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ चुनाव की कमान होने के बावजूद कांग्रेस महज 58 सीटों पर सिमटकर रह गई थी।
मतदान के बड़े प्रतिशत के बावजूद मददाता को मौन माना जा रहा है। लेकिन मतदाता मौन कतई नहीं है। मौन होता तो चैनल एक्जिट पोल के लिए कैसे सर्वे कर पाते? हां, उसने खुलकर राज्य सरकार को न तो अच्छा कहा और न ही उसके कामकाज के प्रति मुखरता से नाराजगी जताई। मतदाता की यह मानसिकता, उसके परिपक्व होने का पर्याय है। वह समझदार हो गया है। अपनी खुशी अथवा कटुता प्रकट करके वह किसी दल विशेष से बुराई मोल लेना नहीं चाहता। इस लिहाज से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व जीवंत माध्यम बनी सोशल साइट्स पर खातेदारों ने दलीय रुचि नहीं दिखाई। हां क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दे उछालकर आभासी मित्रों की राय जानने की कोशिश में जरूर लगे रहे। मानसिक रूप से परिपक्व हुए मतदाता की यही पहचान है।
पारंपरिक नजरिए से मतदान में बड़ी रूचि को सामान्यत: एंटी इनकमबेंसी का संकेत, मसलन मौजूदा सरकार के विपरीत चली लहर माना जाता है। इसे प्रमाणित करने के लिए 1971, 1977 और 1980 के आम चुनाव में हुए ज्यादा मतदान के उदाहरण दिए जाते है। लेकिन यह धारणा पिछले कुछ चुनावों में बदली है। 2018 में छोड़ 2013, 2008 और 2003 में बड़े मतदान का लाभ सत्तारूढ़ होते हुए भी मध्यप्रदेश में भाजपा को मिलता रहा है। 2010 के चुनाव में बिहार में मतदान प्रतिशत बढकऱ 52 हो गया था, लेकिन नीतीश कुमार की ही वापिसी हुई। जबकि पश्चिमी बंगाल में ऐतिहासिक मतदान 84 फीसदी हुआ और मतदाताओं ने 34 साल पुरानी माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार को परास्त कर, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीत दिलाई थी। गोया, चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक दलों को अब किसी मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है, मतदाता पारंपरिक जड़ता और प्रचलित समीकरण तोडऩे पर आमदा हैं।
बड़े मत प्रतिशत का सबसे अहम, सुखद व सकारात्मक पहलू है कि यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल हमारे देश में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। निकट भविष्य में इस उम्मीद की पूरी होने की संभावना भी नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिल रहा है। इससे कालांतर में राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की मजबूरी से मुक्ति मिलेगी। क्योंकि जब मतदान प्रतिशत 75 से 85 प्रतिशत होने लग जाएगा तो किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहमियत खत्म हो जाएगी। नतीजतन उनका संख्या बल जीत या हार की गारंटी नहीं रह जाएगा। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर धु्रवीकरण की राजनीति नगण्य हो जाएगी।
यह स्थिति मतदाता को धन व शराब के लालच से मुक्त कर देगी। क्योंकि कोई प्रत्याशी छोटे मतदाता समूहों को तो लालच का चुग्गा डालकर बरगला सकता है, लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से बड़े समूहों को लुभाना मुश्किल होगा। जाहिर है, ऐसे हालात भविष्य में निर्मित होते हंै तो भारतीय राजनीति संविधान के उस सिद्धांत का पालन करने को मजबूर होगी, जो समाजिक न्याय और समान अवसर की वकालत करता है। बड़ा मतदान प्रतिशत ही ऐसा प्रमुख कारण हैं, जिसके चलते एक्जिट पोल एकतरफा नहीं रह गए हैं। क्योंकि इसके सर्वे के नमूने का प्रतिशत बहुत कम होता है। गोया, इस आधार पर बड़े मतदाता समूह की मंशा की पड़ताल करना और व्यवहारिक नतीजे पर पहुंचना बहुत कठिन काम है।
वैसे भी अब कई सर्वे एजेंसियां क्षेत्रीय पत्रकारों से फोन पर बात करके नतीजों का अनुमान लगाने का तरीका अपना रहे हैं। जो सर्वे की वैज्ञानिक प्रणाली को नकारता है। दरअसल क्षेत्रीय पत्रकार किसी न किसी दल या प्रत्याशी से प्रभावित रहते हैं और उसी प्रभाव के चलते वे अपनी राय व्यक्त कर देते हैं, जो तटस्थ नहीं होती। इसीलिए इस बार एक्जिट पोल के अनुमानों को जितने मुंह, उतनी बातें कहा जा रहा है।
अक्टूबर माह में एनसीईआरटी ने अंग्रेज़ी और हिंदी में चंद्रयान-3 पर 10 शैक्षिक मॉड्यूल्स जारी किए। इनका उद्देश्य लाखों स्कूली बच्चों को हालिया चंद्रयान मिशन की जानकारी प्रदान करना है। प्रेस और मीडिया में गंभीर आलोचना के बाद इन मॉड्यूल्स को एनसीईआरटी के वेबपेज से हटा लिया गया था, लेकिन सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के बाद इसे पुन: अपलोड कर दिया गया। सरकारी विज्ञप्ति में मॉड्यूल्स का बचाव करते हुए कहा गया है कि ‘पौराणिक कथाएं और दर्शन विचारों को जन्म देते हैं और ये विचार नवाचार एवं अनुसंधान की ओर ले जाते हैं।’
गौरतलब है कि इन मॉड्यूल्स को नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020) में वर्णित सीखने के विभिन्न चरणों (फाउंडेशनल, प्रायमरी, मिडिल स्कूल, सेकंडरी और हायर सेकंडरी) के अनुसार तैयार किया गया है। यह काफी हैरानी की बात है कि इन मॉड्यूल्स की सामग्री में कई वैज्ञानिक और तकनीकी त्रुटियां हैं जिनमें से कुछ का आगे जि़क्र किया जा रहा है। इसके अलावा, इनमें छद्म वैज्ञानिक दावे किए गए हैं, भ्रामक वैज्ञानिक सामग्री है और यहां तक कि एक नाज़ी वैज्ञानिक का हवाला भी दिया गया है जो एनसीईआरटी सामग्री के सामान्य मानकों से मेल नहीं खाता है। अंग्रेज़ी संस्करण में व्याकरण सम्बंधी त्रुटिया तो हैं ही।
इस प्रकार की गलत जानकारी विद्यार्थियों तक पहुंचे तो काफी नुकसान कर सकती है। और तो और, सामग्री का घटिया प्रस्तुतीकरण विद्यार्थियों को इस रोमांचक क्षेत्र से विमुख कर देगा।
वैज्ञानिक समुदाय के सदस्यों और सभी तर्कसंगत सोच वाले नागरिकों को इस घटिया ढंग से तैयार की गई सामग्री को खारिज कर देना चाहिए। व्यापक आलोचना के बाद एनसीईआरटी द्वारा इस सामग्री को वेबसाइट से हटाना और सरकार द्वारा पौराणिक कथाओं का हवाला देते हुए उन्हें वापस प्रसारित करना न तो उचित है और न ही ऐसा दोबारा होना चाहिए। एआईपीएसएन मांग करता है कि एनसीईआरटी इन मॉड्यूल्स को स्थायी रूप से हटा दे। चंद्रयान पर एनसीईआरटी मॉड्यूल्स में वैज्ञानिक त्रुटियों, छद्म वैज्ञानिक दावों और मिथकों की बानगी -
1. बुनियादी स्तर (कोड 1.1एफ, केजी और कक्षा 1-2)-
क.मॉड्यूल उवाच- (चंद्रयान-2 के संदर्भ में) ज्इस बार रॉकेट के पुजऱ्े में कुछ तकनीकी खामी के कारण उसका धरती से संपर्क टूट गया।
टिप्पणी- लॉन्चर रॉकेट ने ठीक तरह से काम किया। जबकि लैंडर सतह पर उतरने में विफल रहा, लेकिन चंद्रयान का ऑर्बाइटर मॉड्यूल काम करता रहा और इससे इसरो को डैटा भी प्राप्त होता रहा।
2. प्राथमिक स्तर (कोड 1.2पी, कक्षा 3-5):
क.मॉड्यूल उवाच: इस रॉकेट के तीन प्रमुख हिस्से हैं – प्रोपल्शन मॉड्यूल, रोवर मॉड्यूल और लैंडर मॉड्यूल जो हमें चंद्रमा के बारे में जानकारी भेजता है।
टिप्पणी- चंद्रयान-3 अंतरिक्ष यान को रॉकेट (एलएमवी3) अंतरिक्ष में लेकर गया था। अंतरिक्ष यान में एक ऑर्बाइटर और एक लैंडर था। रोवर को लैंडर के अंदर रखा गया था ताकि चंद्रमा की सतह पर उतरने के बाद उसे बाहर निकाला जा सके।
3. माध्यमिक स्कूल स्तर (कोड- 1.3एम, कक्षा 6-8)-
क.मॉड्यूल उवाच- प्राचीन साहित्य में वैमानिक शास्?त्र ‘विमान विज्ञान’ से पता चलता है कि उन दिनों हमारे देश में उडऩे वाले वाहनों का ज्ञान था (इस पुस्तक में इंजनों के निर्माण, कार्यप्रणालियों और जायरोस्कोपिक सिस्टम के दिमाग चकरा देने वाले विवरण हैं)।
टिप्पणी: कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि बहुप्रचारित वैमानिक शास्त्र की रचना 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई है और इसमें वर्णित डिज़ाइन, इंजन और उपकरण पूरी तरह से काल्पनिक, अवैज्ञानिक और नाकारा हैं।
ख.मॉड्यूल उवाच- वेद भारतीय ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनमें विभिन्न देवताओं को पशुओं, आम तौर पर घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले पहिएदार रथों पर ले जाने का उल्लेख मिलता है। ये रथ उड़ भी सकते थे। उडऩे वाले रथों या उडऩे वाले वाहनों (विमान) का उपयोग किए जाने का उल्लेख भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार सभी देवताओं के पास अपना वाहन था जिसका उपयोग वे एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए करते थे। माना जाता है कि वाहनों का उपयोग अंतरिक्ष में सहजता और बिना किसी शोर के यात्रा करने के लिए किया जाता था। ऐसे ही एक विमान – पुष्पक विमान (जिसका शाब्दिक अर्थ ‘पुष्प रथ’ है) का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है।
टिप्पणी: विभिन्न वैदिक ग्रंथों और महाकाव्यों में उडऩे वाले वाहनों के ये सभी उल्लेख कवियों की कल्पनाएं हैं। दुनिया भर की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में उनके देवताओं के आकाश में उडऩे का उल्लेख मिलता है। इन्हें प्राचीन काल में उडऩे वाले वाहनों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। 1961 में यूरी गागरिन द्वारा अंतरिक्ष की यात्रा करने से पहले किसी भी मानव द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए पृथ्वी छोडऩे का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
ग.मॉड्यूल उवाच- आधुनिक भारत ने वैमानिकी विज्ञान की विरासत को आगे बढ़ाते हुए अंतरिक्ष अनुसंधान में उल्लेखनीय प्रगति की है।
टिप्पणी-जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ऐसे साहित्यिक संदर्भ कई प्राचीन सभ्यताओं में पाए जा सकते हैं और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए साराभाई और अन्य वैज्ञानिकों के प्रयास इन काव्यात्मक कथाओं का उत्पाद नहीं हैं। ऐसा दावा करना साराभाई की विरासत और कई समकालीन वैज्ञानिकों के अग्रणी कार्यों का अपमान होगा।
घ.मॉड्यूल उवाच- चंद्रमा पर ऐसी चोटियां भी हैं जहां हर समय सूर्य का प्रकाश मौजूद होता है तथा ये चंद्र गतिविधियों की सहायता हेतु विद्युत उत्पन्न करने के उत्कृष्ट अवसर पैदा कर सकती हैं।
टिप्पणी- भले ही चंद्रमा के घूर्णन की धुरी क्रांतिवृत्त (एक्लिप्टिक) तल के लगभग लंबवत है, लेकिन किसी भी पर्वत शिखर पर ‘निरंतर सूर्य का प्रकाश' तभी हो सकता है जब वह लगभग दक्षिणी ध्रुव पर हो। चंद्रयान-3 का अवतरण स्थल चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से 500 कि.मी. से अधिक दूर है। ऐसे में अवतरण स्थल के पास ऐसी पर्वत चोटियों का पता लगाना संभव नहीं है।
ङ.मॉड्यूल उवाच- (गतिविधि-1) चंद्रयान-3 बनाने में उपयोग की जाने वाली स्वदेशी सामग्रियों की सूची बनाएं जिसने चंद्रयान-3 को एक बजट अनुकूल मिशन बनाया।
(स्रोत फीचर्स)
निखिल गुप्ता के बारे में अमेरिकी अभियोग में क्या-क्या कहा गया है?
अमेरिकी अदालत में दाख़िल अभियोग में भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता पर एक लाख डॉलर कैश के बदले एक अमेरिकी नागरिक की हत्या की सुपारी देने के आरोप लगाए गए हैं।
अदालत में पेश दस्तावेज के मुताबिक निखिल गुप्ता ने भारत सरकार के लिए काम करने वाले एक अधिकारी के कहने पर अमेरिका में एक हिटमैन से संपर्क किया और उसे एक सिख अलगाववादी नेता की हत्या का कॉन्ट्रैक्ट दिया।
अभियोग में दावा किया गया है कि भारतीय अधिकारी से बातचीत के दौरान निखिल गुप्ता ने बताया था कि वो नार्कोटिक्स और हथियारों की अंतरराष्ट्रीय तस्करी से जुड़े हुए हैं।
अभियोग में ये भी दावा किया गया है कि निखिल गुप्ता पर गुजरात में एक आपराधिक मामला चल रहा है जिसमें मदद के बदले वो भारतीय अधिकारी के लिए न्यूयॉर्क में हत्या करवाने के लिए तैयार हो गए थे।
दस्तावेज़ के मुताबिक़ निखिल गुप्ता ने जिस हिटमैन से संपर्क किया था वह अमेरिकी ख़ुफिय़ा विभाग के अंडरकवर एजेंट थे।
इस एजेंट ने निखिल गुप्ता की सभी गतिविधियों और बातचीत को रिकॉर्ड किया। इसी के आधार पर ये मुक़दमा दायर किया गया है।
भारतीय मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक़ अमेरिका के न्यूयॉर्क में रहने वाले सिख अलगाववादी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया था। पन्नू ने भी एक पत्र जारी कर इसे अपने खिलाफ साजिश बताया है। पन्नू भारत में घोषित आतंकवादी हैं।
पन्नू ने सार्वजनिक रूप से अलग खालिस्तान देश बनाने की अपील की है। हाल ही में उन्होंने एयर इंडिया की फ्लाइट को बम से उड़ाने की धमकी भी दी थी।
अभियोग में बताया गया है कि जिस अधिकारी ने निखिल गुप्ता को सुपारी दी थी वो भारत की सीआरपीएफ में कार्यरत रहे हैं।
गंभीर आरोप
अभियोग के मुताबिक मई 2023 में अधिकारी ने निखिल गुप्ता को अमेरिका में हत्या करवाने का काम दिया।
दस्तावेज के मुताबिक निखिल गुप्ता भारतीय नागरिक हैं और भारत में ही रहते हैं।
गुप्ता ने हिटमैन से संपर्क करने के लिए एक व्यक्ति से संपर्क किया, जिसे वो एक आपराधिक सहयोगी मान रहे थे। वास्तव में ये व्यक्ति अमेरिकी ख़ुफिय़ा एजेंसी का विश्वसनीय सूत्र था।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र ने गुप्ता का संपर्क अमेरिकी एजेंसी के एक अंडरकवर एजेंट से करा दिया।
गुप्ता और अंडरकवर एजेंट के बीच एक लाख अमेरिकी डॉलर के बदले हत्या का सौदा हुआ।
निखिल गुप्ता ने अपने एक संपर्क के ज़रिए पंद्रह हज़ार अमेरिकी डॉलर न्यूयॉर्क के मैनहेटन में अमेरिकी एजेंट तक पहुंचाए।
ये हत्या के काम के लिए दी गई पेशगी थी। इसका वीडियो भी एजेंट ने रिकॉर्ड किया है और अभियोग के साथ लगाया गया है।
अभियोग के मुताबिक इस काम को निर्देशित कर रहे भारतीय अधिकारी ने जून 2023 में टार्गेट के बारे में व्यक्तिगत जानकारियां गुप्ता को दीं जो गुप्ता ने आगे अमेरिकी एजेंट को दे दीं। इनमें टार्गेट व्यक्ति की तस्वीरें और घर का पता भी था।
अभियोग के मुताबिक़ अमेरिका की गुज़ारिश पर और इस मामले के संबंध में निखिल गुप्ता को 30 जून 2023 को चेक गणराज्य में गिरफ़्तार कर लिया गया था। उन्हें अमेरिका प्रत्यर्पित किया जाएगा।
मामला कहाँ फँसा?
अभियोग में दावा किया गया है कि मई के शुरुआती सप्ताह में भारतीय अधिकारी ने निखिल गुप्ता से एनक्रिप्टेड एप्लीकेशन के ज़रिए संपर्क किया था।
दावा है कि भारतीय अधिकारी ने गुप्ता की एक आपराधिक मामले में मदद करने के बदले हत्या की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया था।
निखिल गुप्ता और भारतीय अधिकारी के बीच इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन के ज़रिए लगातार वार्ता हो रही थी। इसके अलावा दिल्ली में दोनों ने मुलाक़ात भी की थी।
अभियोग में अमेरिकी एजेंसी की जांच के हवाले से कहा गया है कि गुप्ता और भारतीय अधिकारी के बीच लगातार एनक्रिप्टेट ऐप के ज़रिए बात हो रही थी और इस वार्ता के दौरान गुप्ता दिल्ली या आसपास के इलाक़े में ही थे।
अभियोग में दावा किया गया है कि 12 मई को गुप्ता को बता दिया गया था कि ‘उनके खिलाफचल रहे आपराधिक मामले को देख लिया गया है।’
उन्हें ये भी बताया गया था कि ‘गुजरात पुलिस की तरफ से अब कोई कॉल नहीं करेगा।’
23 मई को भारतीय अधिकारी ने फिर से गुप्ता को आश्वस्त किया कि ‘उन्होंने अपने बॉस से बात कर ली है और गुजरात में जो मामला है, वो अब साफ है और अब तुम्हें दोबारा कोई कॉल नहीं करेगा।’
अभियोग में दावा किया गया है कि भारतीय अधिकारी ने गुप्ता की एक डीसीपी से मुलाक़ात की व्यवस्था भी की।
अधिकारी से भरोसा मिलने के बाद गुप्ता ने न्यू यॉर्क में हत्या करवाने की योजना को आगे बढ़ाया।
गुप्ता ने इस काम के लिए अमेरिका में अमेरिकी खुफिया एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र से संपर्क किया और कहा कि ‘जिस व्यक्ति की हत्या की जानी है वह न्यूयॉर्क और एक अन्य अमेरिकी शहर के बीच आता जाता है।’
भारत की प्रतिक्रिया
अभियोग में दावा गिया गया है कि गुप्ता ने न्यू यॉर्क में ये हत्या हो जाने के बाद अमेरिका और कनाडा में और अधिक काम देने का वादा भी एजेंट से किया था।
गुप्ता ने अमेरिकी ख़ुफिय़ा एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र से 18 जून को कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद 19 जून को किए ऑडियो कॉल में कहा था, ‘हमें हरी झंडी मिल गई है, आप किसी भी वक़्त काम करवा सकते हैं, आज या कल। जितनी जल्दी हो ये काम करो, इस काम को पूरा करो।’
अभियोग के मुताबिक़ निखिल गुप्ता ने 30 जून को भारत से चेक गणराज्य की यात्रा की और इसी दिन चेक पुलिस ने अमेरिका के आग्रह पर उसे गिरफ़्तार कर लिया।
अमेरिका ने इस घटनाक्रम की जानकारी भारत को दी थी। भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत इन आरोपों को गंभीरता से ले रहा है।
अरिंदम बागची ने गुरुवार को एक प्रेसवार्ता में कहा है कि इस अभियोग में किसी भारतीय अधिकारी का नाम नहीं है।
बागची ने कहा है, ‘हम पहले ही बता चुके हैं कि अमेरिका के साथ द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग पर वार्ता के दौरान, अमेरिकी पक्ष ने कुछ इनपुट साझा किए थे जो संगठित अपराधियों, आतंकवादियों, हथियारों के कारोबारियों और अन्य के नेक्सस के बारे में थे। भारत ने इसकी जांच के लिए विशेष जांच समिति गठित की है।’
उन्होंने कहा, ‘भारत सरकार ने इस मुद्दे की पूरी तरह से जांच करने के लिए एक विशेष जांच समिति का गठन करके जवाब दिया है, जो भारत केअंतरराष्ट्रीय संबंधों और आंतरिक सुरक्षा के लिए किसी भी प्रभाव को संबोधित करने के उसके संकल्प का प्रदर्शन करता है।’ (bbc.com/hindi)
मनोरमा सिंह
24 नवम्बर को देश में बहुत से खास-आम लोगों ने तुलसी विवाह किया, शायद उन्हें इसकी कथा मालूम हो अगर नहीं तो यहाँ शेयर कर रही हूँ, ये विवाह किसी भी स्त्री के अपने साथ यौन दुव्र्यहार करने वाले से विवाह को सौभाग्य के रूप में स्थापित और ग्लोरीफाय करता है और ईश्वर जैसा कोई व्यक्ति हो तो उस विवाह को स्त्री पर कृपा की तरह से ग्रहण किये जाने का संदेश देता है, उसे ईश्वर कृपा के रूप में जस्टिफाय करता है, बाकी आप इस कहानी को आज की किसी भी स्त्री से जोडक़र देखें और विचार करें। शुक्र है अपने देश का संविधान धर्म और आस्था की इन कहानियों से संचालित नहीं है इसलिए किसी भी पुरुष के ऐसे आचरण को अपराध की श्रेणी में रखा है चाहे वो किसी भी पद, रुतबे , ताकत या हैसियत का हो।
बहरहाल, कहानी इस प्रकार से है-
नारद पुराण के अनुसार, एक समय दैत्यराज जलंधर के अत्याचारों से ऋषि-मुनि, देवता और मनुष्य सभी बहुत परेशान थे। वह बड़ा ही पराक्रमी और वीर था। इसके पीछे उसकी पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली पत्नी वृंदा के पुण्यों का फल था, जिससे वह पराजित नहीं होता था। उससे परेशान देवता भगवान विष्णु के पास गए और उसे हराने का उपाय पूछा। तब भगवान श्रीहरि ने वृंदा का पतिव्रता धर्म तोडऩे का उपाय सोचा। भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण कर वृंदा को स्पर्श कर दिया। जिसके कारण वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग हो गया और जलंधर युद्ध में मारा गया।
भगवान विष्णु से छले जाने तथा पति के वियोग से दुखी वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया कि आपकी पत्नी का भी छल से हरण होगा तथा आपको पत्नी वियोग सहना होगा। यह श्राप देने के बाद वृंदा अपने पति जलन्धर के साथ सती हो गईं जिसकी राख से तुलसी का पौधा निकला। वृंदा का पतिव्रता धर्म तोडऩे से भगवान विष्णु को बहुत ग्लानि हुई। तब उन्होंने वृंदा को आशीष दिया कि वह तुलसी स्वरुप में सदैव उनके साथ रहेगी। उन्होंने कहा कि कार्तिक शुक्ल एकादशी को जो भी शालिग्राम स्वरुप में उनका विवाह तुलसी से कराएगा, उसकी मनोकामना पूर्ण होगी। तब से तुलसी विवाह होने लगा।
आकार पटेल
50 वर्षों से, भारत ने लोकसभा की संरचना या सीटों की संख्या में (जिसे परिसीमन कहा जाता है) कोई बदलाव नहीं किया है। किसी क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के लिए सीटों की हिस्सेदारी बढ़ाने या घटाने के लिए जिस व्यक्ति को चुना जाता है उसके हाथ में बहुत ताकत होती है। आदेशों में 'क़ानून की शक्ति है और किसी भी अदालत में उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता' और उसे संशोधित नहीं किया जा सकता है।
हाल की घटनाओं ने परिसीमन के मुद्दे को फिर से प्रमुखता से सामने ला दिया है, और संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की भी शर्त है कि यह काम 'परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद प्रभावी होगा।'
लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह व्यक्ति कौन है। परिसीमन निर्धारित करने वाली समिति की आखिरी अध्यक्ष रिटायर्ड जज रंजना देसाई थी, जिन्होंने 2022 में यह काम छोड़ दिया था, और उन्हें दूसरा पद (प्रेस परिषद) दे दिया गया, लेकिन चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अभी भी उनका ही नाम अंकित है।
आइए, परिसीमन से जुड़े कुछ मुख्य मुद्दों की पड़ताल करते हैं, जो कि हमारे राज्यों में आबादी की विभिन्न संख्या पर आधारित हैं। आंध्र प्रदेश में कुल प्रजनन दर, किसी महिला से जन्म लेने वाले बच्चों की औसत संख्या 1.7 है, जबकि बिहार में यह दर 3 है। फिलहाल भारत में यह दर 2 के आसपास है और करीब एक दशक में हमारी आबादी घटने लगेगी। हालांकि हमारे 29 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पहले ही प्रतिस्थापन दर 2 से नीचे है। लेकिन बाकी 7 राज्यों की दर ऐसी है जिससे कि देश का औसत बढ़ जाता है।
पचास साल पहले उत्तर प्रदेश से (तब उत्तराखंड भी यूपी का हिस्सा था) 85 सांसद चुने जाते हैं, और हर सीट पर लगभग 10 लाख आबादी थी, इसी तरह केरल से 20 सांसद, तमिलनाडु से 40 सांसद, कर्नाटक से 28 सांसद और राजस्थान से 25 सांसद चुने जाते थे।
बीते 50 साल में यानी जब आखिरी बार लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाई गई थी, तब से केरल की आबादी में 56 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इसी अवधि में राजस्थान में आबादी 166 फीसदी बढ़ गई है। तमिलनाडु की आबादी में 75 फीसदी तो हरियाणा में 157 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऐसे में यह तर्क कि परिवार नियोजन को प्रभावी तरीके से लागू करने वाले दक्षिणी राज्यों की अनदेखी कर उत्तरी राज्यों को अधिक प्रतिनिधित्व देना अर्थपूर्ण और सही है। लेकिन यह तर्क भी सही है कि उत्तरी राज्यों के सांसद कहीं अधिक भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो यह तर्क सही नहीं होगा। बिहार के 40 और उत्तर प्रदेश के 80 सांसद औसतन प्रति सांसद 30 लाख भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उधर केरल का हर सांसद 17 लाख और तमिलनाडु का हर सांसद औसतन 19 लाख भारतीयों के प्रतिनिधि होते हैं।
विभिन्न राज्यों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उस राज्य की आबादी के हिसाब से तय हुआ था, और उस समय सभी सांसद लगभग एक जैसी संख्यी में भारतीयों के प्रतिनिधि है। लेकिन आज स्थितियां अलग हैं।
इस बाबत दोनों तरफ से अर्थपूर्ण और जायज तर्क दिए जा रहे हैं और जब परिसीमन आयोग की बैठक होगी तो उस पर एक किस्म का दवाब होगा क्योंकि वह कोई भी तरीका अपनाए, सबको तो संतुष्ट नहीं किया जा सकता।
संभवत: परिसमीन का काम अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया जाए, खासतौर से इसलिए क्योंकि इससे पहले तो जनगणना होनी है जोकि बिना किसी कारण के स्थगित कर दी गई है। और, इसलिए भी क्योंकि महिलाओं को लोकसभा में एक तिहाई हिस्सेदारी देने वाला महिला आरक्षण विधेयक अब कानून बन चुका है, यानी परिसीमन का आधार अब सिर्फ भौगोलिक स्थितियों पर ही निर्भर नहीं होगा। लेकिन इससे हमें भ्रम में नहीं आना चाहिए और समस्या जस की तस बनी रहेगी।
तो फिर क्या किया जाए?
इस पर अमल न करने का अर्थ है संविधान का उल्लंघन। संविधान का अनुच्छेद 82 (प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारण) कहता है, ‘प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, राज्यों को लोक सभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य का क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसे तरीके से पुन: समायोजित किया जाएगा जैसा संसद कानून द्वारा निर्धारित कर सकती है।’
यहां ध्यान देने योग्य शब्द हैं ‘प्रत्येक जनगणना’ और इस पर बीते 50 साल में अमल न होगा ही समस्या की जड़ है। 1972 तक इस प्रक्रिया का पालन किया गया। 1950 के दशक की 494 लोकसभा सीटें 1960 के दशक में 522 और फिर 1970 के दशक में 543 हो गईं। इस समय, जैसा कि ऊपर दिए गए आंकड़ों से पता चलता है, जबकि सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व समान था, यह मान्यता थी कि दक्षिण बहुत बेहतर कर रहा था और राज्य को विशेष रूप से उत्तर के लिए परिवार नियोजन को बढ़ावा देने की आवश्यकता थी।
पाठकों को इंदिरा गांधा द्वारा इमरजेंसी के दौरान उठाए गए कठोर कदमों की याद होगी और बहुत से लोगों को परिवार नियोजन को प्रोत्साहन देने वाले विज्ञापन भी याद होंगे जो 1980 के दशक में दूरदर्शन और अखबारों में दिखते थे।
इस अभियान का एक दीर्घगामी लक्ष्य था परिसीमन के लिहाज़ से राज्यों को एक स्तर पर लाना। लेकिन जनगणना और परिसीमन के बीच का सूत्र टूट गया या और साफ कहें तो इसे स्थगित कर दिया गया।
1980 और 1990 के दशक में जब हमने जनगणना की तो राज्यों की आबादी के आकार में काफी विभिन्नता सामने आई थी, लेकिन तब भी परिसीमन नही किया गया।
वाजपेयी सरकार ने 2002 में इसे और अगले 25 साल के लिए टाल दिया, कि परिसीमन 2031 में होगा (यानी 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना)
यह कब होगा? हमें नहीं पता। 1880 के बाद पहली बार कोई जनगणना नहीं की गई है, जोकि 2021 में हो जानी थी। इसे न करने का कारण कोविड महामारी बताया गया, लेकिन महामारी खत्म होने के बाद भी अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिख रहा है कि जनगणना कराई जाएगी (या फिर सीएए को कैसे लागू किया जाएगा जोकि महामारी के बाद लागू किया जाना था)।
यह मानते हुए कि जनगणना जल्द ही शुरु होगी, सरकार को कुछ धारणाओं को बदलने की कोशिश करनी होगी। लेकिन पिछले 50 वर्षों में असमानता और भारी बदलाव को देखते हुए ऐसा होना आसान नहीं लगता। हो सकता है इसे लोगों के साथ खुले औ स्पष्ट संवाद के बिना ही कर लिया जाए, और नेता जी की शैली को जानते हुए, इसके शुरु होने की उम्मीद भी कम ही है।
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा सुरंग में फँसे 41 मज़दूरों के सुरक्षित बाहर आने के बाद उनके परिवारों ने राहत की सांस ली है।
ये मज़दूर दिवाली के दिन हुए हादसे के बाद से फँसे हुए थे। अब, जबकि ये 17 दिनों के बाद बाहर आए हैं, इनमें से कइयों के घर पर दिवाली जैसा माहौल है।
अंदर फँसे 41 मज़दूरों में 15 झारखंड, आठ उत्तर प्रदेश, पांच-पांच बिहार और ओडिशा से, तीन पश्चिम बंगाल से, दो-दो असम और उत्तराखंड से थे और एक श्रमिक हिमाचल प्रदेश से था।
सुरंग से निकाले जाने के बाद इन्हें अस्पताल ले जाया गया है और वहाँ से उन्हें ज़रूरी स्वास्थ्य जांच के बाद घर भेजा जा सकता है।
बाहर आए मज़दूर बता रहे हैं कि अंदर किस तरह के हालात थे, वे कैसा महसूस कर रहे थे और उन्हें क्या कठिनाइयां आईं।
झारखंड के सुबोध कुमार वर्मा ने बताया कि सुरंग का हिस्सा धंसने के बाद शुरुआत के 24 घंटे काफ़ी मुश्किल थे।
समाचार एजेंसी एएनआई के वीडियो में उन्होंने कहा, ‘हमें सिर्फ 24 घंटे दिक्क़त हुई। खाने और हवा (सांस लेने) को लेकर। फिर कंपनी ने खाने को लेकर काजू-किशमिश वगैरह भेजे और दस दिन के बाद हमेें दाल-रोटी और चावल खाने को मिला।’
उन्होंने कहा, ‘अब मैं स्वस्थ हूं, किसी तरह की कोई दिक्क़त नहीं है। मैं बिल्कुल सही हूँ। सब आप लोगों की दुआ और मेहनत है। केंद्र और राज्य सरकार की मेहनत से निकल आया हूँ, वरना अंदर क्या होता, मैं ही जानता हूँ।’
सुरक्षित निकले लोगों में झारखंड के विश्वजीत कुमार भी हैं। वह कंप्रेशर मशीन चलाते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें पूरा यक़ीन था कि उन्हें बचा लिया जाएगा और वह बाहर की दुनिया एक बार फिर देख सकेंगे।
उन्होंने एएनआई को बताया, ‘मैं बहुत ख़ुश और सुरक्षित हूँ। सभी श्रमिक ख़ुश हैं। अभी हम अस्पताल में हैं। मलबा सुरंग के मुहाने के पास गिरा। मैं उसके दूसरी ओर था। अंदर कऱीब ढाई किलोमीटर का हिस्सा ख़ाली था। हम वक़्त बिताने के लिए अंदर घूमा करते थे।’
थोड़ा डर भी था शुरू में, लेकिन फिर जब खाना और पानी आया, उसके बाद परिजनों से बात हुई तो हमारा मनोबल लगातार बढ़ता गया। हमें जल्द ही यक़ीन हो गया कि हम बाहर की दुनिया देख पाएंगे।
विश्वजीत का भी यही कहना है कि फँसने के बाद के शुरुआती घंटे काफ़ी परेशानी हुई। उन्होंने बताया, ‘थोड़ा डर भी था शुरू में, लेकिन फिर जब खाना और पानी आया, उसके बाद परिजनों से बात हुई तो हमारा मनोबल लगातार बढ़ता गया। हमें जल्द ही यक़ीन हो गया कि हम बाहर की दुनिया देख पाएंगे।’
विश्वजीत कुमार वर्मा ने कहा, ‘जैसे ही ऊपर से मलबा गिरा, तब हमें लगा कि निकलने का रास्ता बंद हो गया। लेकिन सब लोग हमें निकालने के प्रयास में लगे रहे। फिर ऑक्सीजन और पानी के पाइप से खाने-पीने की व्यवस्था की गई। बाहर से मशीनें मंगाई गईं।’
उन्होंने बताया कि परिवार से बात होने से भी बड़ा सहारा मिला। उन्होंने कहा, ‘परिवार से बात हो रही थी। इसके लिए माइक लगाया गया था। उससे हम बात करते रहते।’
इस पूरे मामले में अब जो एक नाम चर्चा में आ रहा है, वह है गब्बर सिंह नेगी। वह इस प्रॉजेक्ट में टनल फ़ॉरमैन के तौर पर काम कर रहे थे।
जिस समय सुरंग का हिस्सा धंसा, उस समय वह भी 40 श्रमिकों के साथ अंदर फंस गए थे। बाहर निकले मज़दूरों ने बताया कि गब्बर सिंह नेगी लगातार उनका मनोबल बढ़ा रहे थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेस्क्यू किए गए श्रमिकों से बात करते समय जब गब्बर सिंह नेगी से मुख़ातिब हुए, तो उन्होंने उनकी जमकर तारीफ़ की।
पीएम ने कहा, ‘आपको विशेष रूप से बधाई, आपने जिस तरह से लीडरशिप दिखाई है, उस पर आने वाले समय में किसी विश्वविद्यालय को शोध करना चाहिए कि कैसे गाँव के व्यक्ति ने मुश्किल हालात में नेतृत्व दिखाया और संकट के समय अपनी पूरी टीम को संभाला।’
वहीं गब्बर सिंह नेगी ने पीएम का शुक्रिया अदा किया और कहा कि उन्हें ख़ुशी है कि सबने उनका साथ दिया। नेगी ने कहा, केंद्र सरकार, राज्य सरकार, एनडीआरएफ़, एसडीआरएफ़ और हमारी कंपनी ने हमारा हौसला बनाया, हमारा हालचाल लेते रहे। हम सब एक परिवार की तरह रहे। दोस्तों (अंदर फंसे) का भी शुक्रिया, जो मुश्किल घड़ी में शांत बने रहे, हमारी बात सुनी और हौसला नहीं छोड़ा।’
गांवों में जश्न, छोटे गए पटाखे
इस रेस्क्यू ऑपरेशन के सफल होने के बाद देश के कई हिस्सों से आम लोगों द्वारा ख़ुशी मनाने की तस्वीरें और वीडियो सामने आए।
प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से संबंध रखने वाले मज़दूरों के परिजनों की भी राहत और ख़ुशी भरी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
41 में से सबसे ज़्यादा 15 मज़दूर झारखंड से थे। रांची के ओरामांझी के खीराबेड़ा गांव में 17 दिनों बाद ख़ुशियां लौटी हैं।
इस गांव के तीन लडक़ों- राजेन्द्र बेदिया, अनिल बेदिया और सुखराम बेदिया के उत्तरकाशी टनल से सुरक्षित निकलने की ख़बर से गांव वालों ने राहत की सांस ली है। अब लोगों को उनके गांव लौटने का इंतज़ार है।
बीबीसी सहयोगी रवि प्रकाश ने बताया कि गांववालों को मंगलवार रात आठ बजे मज़दूरों के सुरंग से सुरक्षित निकलने की ख़बर मिली। इसके बाद गांववालों ने पटाखे छोड़े। सुबह भी पटाखे छोड़े गए और एक-दूसरे का मुंह मीठा करवाकर ख़ुशियां मनाई गईं।
तीनों लडक़ों के परिजनों ने उनके सुरक्षित घर वापसी के लिए मन्नतें मांगी हुई थीं। अनिल बेदिया की मौसी घटना के बाद से ही उनके घर पर आई हुई हैं। ख़ुशख़बरी मिलते ही उन्होंने घर के बाहर पूरे द्वार की लीपाई की। घर में पूजा-पाठ की भी तैयारी चल रही है।
इन तीनों ने जिस स्कूल में पढक़र मैट्रिक पास की है, वहां भी जश्न का माहौल है। स्कूल में पढऩे वाले बच्चों और शिक्षकों ने ढोल मांदर की थाप पर नाचकर जश्न मनाया।
‘ख़ुशी बयां नहीं कर सकते’
श्रावस्ती के राम मिलन भी सुरंग में फंसे हुए थे। उनके बेटे संदीप कुमार ने एएनआई से कहा, ‘हम बहुत ख़ुश हैं। मेरे रिश्तेदार पापा को लाने उत्तराखंड गए हैं। मैं रेस्क्यू ऑपरेशन से जुड़े सभी लोगों को शुक्रिया कहना चाहता हूं।’
एक अन्य श्रमिक संतोष कुमार भी श्रावस्ती से हैं। उनकी ताई शमिता देवी ने बताया कि श्रावस्ती के आठ लोग सुरंग के अंदर फंसे हुए थे। संतोष की मां ने कहा कि बेटे से बात हुई है और वह जल्दी घर आ रहा है।
उन्होंने कहा, ‘हम बहुत ख़ुश हैं। हम भी दिवाली मना रहे हैं और हमारे साथ पूरा गांव दिवाली मना रहा है।’
ओडिशा के मयूरभंज के रहने वाले श्रमिक धीरेन नायक की मां ने बचावकर्मियों को शुक्रिया कहा है। इशी तरह, सुरंग से बचाए गए असम के रहने वाले राम प्रसाद नरजरी के परिजनों ने भी ख़ुशी जताई है।
उनके बुज़ुर्ग पिता ने कहा, ‘बेटे से बात करके इतनी ख़ुशी मिली, जिसे मैं बयां नहीं कर सकता। मैं सभी सरकारों और बचाव अभियान में जुटे लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं।’
ये एक चमत्कार है-डिक्स
जैसे ही मलबे से होते हुए बचाव का रास्ता निकाला गया, सुरंग के अंदर फंसे मज़दूरों तक पहुंचने वाले शुरुआती लोगों में एनडीआरएफ़ कर्मी मनमोहन सिंह रावत भी शामिल थे।
उन्होंने कहा, ‘जैसे ही मैं अंदर पहुंचा, मज़दूरों के चेहरे पर बहुत ख़ुशी नजऱ आ रही थी। हम पहले से ही उन्हें भरोसा दिलाते आ रहे ते कि जल्द ही उन्हें बचा लिया जाएगा। इससे उनकी मानसिक स्थिति को स्थिर रखने में मदद मिली।’
इस रेस्क्यू ऑपरेशन में मदद के लिए बतौर कंल्टेंट तैनात रहे अंतरराष्ट्रीय टनलिंग एक्सपर्ट आरनल्ड डिक्स ने कहा, इस अभियान में मदद कर पाना उनके लिए सम्मान का विषय है।
उन्होंने कहा, ‘मैं ख़ुद भी एक पिता हूं। ऐसे में माता-पिता के बच्चों (जो सुरंग में फंसे हुए थे) को घर भेज पाया, यह मेरे लिए सम्मान की बात है। आपको याद होगा कि शुरू में मैंने कहा था कि क्रिसमस से पहले 41 लोग अपने घरों में होंगे। इस बार क्रिसमस जल्दी आ गया है।’
जिस समय रेस्क्यू ऑपरेश चल रहा था, उस दौरान आरनल्ड डिक्स हर रोज़ सुरंग के बाहर बने मंदिर में पूजा करते नजऱ आते थे।
इसे लेकर समाचार एजेंसी एनएनआई से उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा, मैंने सिफऱ् अंदर फंसे 41 लोगों और उनकी मदद कर रहे लोगों के लिए प्रार्थना की। हम नहीं चाहते थे कि किसी को कोई नुक़सान हो।’
उन्होंने कहा, ’हम शांत थे और जानते थे कि हमें क्या करना है। हमने कमाल की टीम के तौर पर काम किया। भारत में बेहतरीन इंजीनियर हैं और इस सफल अभियान का हिस्सा बनना ख़ुशी देने वाला है।’
‘अब मुझे मंदिर जाना है, क्योंकि मैंने वादा किया था कि मैं शुक्रिया अदा करूंगा। पता नहीं आपने देखा या नहीं, लेकिन हमने एक चमत्कार देखा है।’ (bbc.com/hind)
अर्जेंटीना के राष्ट्रपति चुनाव में हाबियर मिलेई की जीत से चीन के दबदबे वाले गुट ब्रिक्स के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है।
ब्रिक्स में ब्राज़ील, रूस, इंडिया और साउथ अफ्ऱीका हैं।
इसी साल अगस्त महीने में दक्षिण अफ्ऱीका में इसे ब्रिक्स प्लस करते हुए कई अन्य देशों को भी सदस्य बनने के लिए आमंत्रित किया गया था।
जिन देशों को आमंत्रित किया गया था, उनमें अर्जेंटीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और यूएई थे।
अगले साल जनवरी महीने में ये देश ब्रिक्स के पूर्णकालिक सदस्य बन जाते। लेकिन अर्जेंटीना में हाबियर मिलेई की नई सरकार ने ब्रिक्स में शामिल होने का इरादा बदल दिया है।
अर्जेंटीना के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति हाबियर मिलेई की विदेशी मामलों की सलाहकार दियाना मोनदिनो ने इसी महीने 19 नवंबर को कहा था कि अर्जेंटीना ब्रिक्स में शामिल होने की योजना पर आगे नहीं बढ़ेगा।
दियाना ने कहा क्या था?
दियाना मोनदिनो ने रूसी समाचार एजेंसी स्पूतनिक न्यूज़ से कहा था, ‘अर्जेंटीना अभी इस गुट से क्या हासिल कर लेगा, यह हमारी समझ से बाहर है। अगर भविष्य में हमें लगता है कि इसमें शामिल होना हमारे लिए फ़ायदेमंद है तो ज़रूर विचार करेंगे।’
अगस्त महीने में जिन छह देशों को ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था, उनमें अर्जेंटीना दक्षिणी अमेरिका का एकमात्र देश था। लेकिन हाबियर मिलेई ने अपने चुनावी कैंपेन में ही वादा किया था कि वह चुनाव जीते तो ब्रिक्स की सदस्यता को स्वीकार नहीं करेंगे।
हाबियर मिलेई चुनाव जीत गए हैं और जनवरी 2024 से देश की बागडोर संभालेंगे।
सामरिक मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी अर्जेंटीना के इस रुख़ को चीन के लिए शर्मिंदगी के रूप में देखते हैं।
ब्रह्मा चेलानी ने ट्वीट कर कहा है, ''चीन के लिए यह शर्मनाक है। चीन के अगुआई वाले इस गुट ने जोहानिसबर्ग में पाँच सदस्य से बढक़र 11 सदस्यों वाला गुट करने का फ़ैसला किया था। अर्जेंटीना में आने वाली नई सरकार ने कहा है कि वह ब्रिक्स में शामिल होने वाले निमंत्रण को स्वीकार नहीं करेगी क्योंकि इससे कोई ठोस फ़ायदा नहीं होने जा रहा है।’
चेलानी कहते हैं, ‘अर्जेंटीना के इस क़दम को देखते हुए चीन ने ब्रिक्स को एक अहम मंच बताते हुए कहा कि वो ब्रिक्स परिवार में शामिल होने की इच्छा रखने वाले किसी भी देश का स्वागत करेगा। चीन बोल ऐसे रहा है जैसे वो ड्राइवर सीट पर हो और सब कुछ वही चला रहा है। हाल ही में चीन ने पाकिस्तान को ब्रिक्स में शामिल होने के लिए कहा था।’
चीन से संबंधों पर क्या रुख़
हाबियर मिलेई देश के चुनावों में वित्त मंत्री सर्जियो मासा के ख़िलाफ़ मैदान में थे। हालांकि चुनाव अधिकारियों ने चुनावी नतीजों का औपचारिक तौर पर एलान नहीं किया है।
शुरुआती आंकड़ों से पता चला है कि मिलेई को 56 फ़ीसदी वोट और मासा को 44 फ़ीसदी वोट मिले हैं। लगभग 99 फ़ीसदी वोटों को गिनती अब तक हो चुकी है।
इससे पहले दक्षिण पंथी मिलेई ने कहा था कि वो कम्युनिस्ट देशों के साथ व्यापार नहीं करेंगे। साथ ही मिलेई ने चीन से संबंध तोडऩे और 'दुनिया के सभ्य पक्षों' से संबंध स्थापित करने की वकालत की थी।
मिलेई ने चीन पर मासा के समर्थन में चलाए जा रहे यू-ट्यूब अभियानों को फंड करने का आरोप भी लगाया था।
हालांकि बीते कुछ हफ़्तों में मिलेई के सहयोगियों ने ये कोशिश की कि वो संंयम बरतते हुए बयानबाज़ी करें ताकि मतदाताओं को लुभाया जा सके।
इसी महीने आयोजित एक कार्यक्रम में दियाना मोनदिनो ने कहा कि अर्जेंटीना और बीजिंग के संबंधों में कोई रुकावटें नहीं आएंगी।
ठीक इसी दौरान मोनदिनो ने ये भी कहा कि मिलेई के साथ जो गठबंधन है, वो सरकार और चीन के बीच हुए किसी ''गोपनीय समझौते'' की जांच करने को उत्सुक रहेगा।
जानकारों का क्या कहना है?
जानकारों का कहना है कि चीन और अर्जेंटीना के संबंधों में बदलाव की संभावनाएं काफ़ी कम हैं।अर्जेंटीना के नेशनल साइंटिफिक एंड टेक्निकल रिसर्च काउंसिल के बेरनाबे मालकाल्ज़ा ने साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट से कहा, ‘अर्जेंटीना के पूर्व राष्ट्रपति और दक्षिणपंथी नेता माउरिसियो मैक्री का साथ पाने के लिए मिलेई के सहयोगियों को कुछ रियायतें देनी पड़ी थीं।’
ब्राज़ील के बाद चीन अर्जेंटीना का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। ऐसे में मैक्री की ओर से ये शर्त थी कि चीन से मज़बूत आर्थिक संबंध बनाए रखे जाएं।
मालकाल्ज़ा कहते हैं, ‘मौजूदा संकट के बीच अर्जेंटीना को डॉलर्स की सख़्त ज़रूरत है। साथ ही केंद्रीय बैंकों और प्रोजेक्टस को जारी रखने के लिए उसे फंड की ज़रूरत है। ऐसे में चीन एक अहम भूमिका निभा सकता है।’
2008 के बाद से अर्जेंटीना चीन से बड़े स्तर पर वित्तीय तौर पर जुड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच नौ लोन एग्रीमेंट के ज़रिए 8।1 बिलियन डॉलर के समझौते हुए। इनमें से 7.7 बिलियन डॉलर सीधे चीन डिवेलपमेंट बैंक और चीन के एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक के ज़रिए छह प्रोजेक्टस के लिए दिए गए।
चिली यूनिवर्सिटी के फ्रांसिस्को यूर्डिनेज़ कहते हैं- मिलेई ने चुनाव अभियान में वही घोर दक्षिणपंथी रणनीति अपनाई, वो पहले ब्राज़ील में बोलसोनारो और अमेरिका में ट्रंप भी अपना चुके हैं। इसके तहत चीन, एंटी कम्युनिस्ट बातें करके मतदाताओं का ध्यान खींचा जाता रहा है।
वो बोले- बातें भले ही चीन विरोधी कर ली जाएं, मगर चीन देश की अर्थव्यवस्था में काफ़ी शामिल है। ऐसे में चीन पर निर्भरता कम किया जाना काफ़ी मुश्किल है।
यूर्डिनेज़ ने कहा, ''जीत व्यवहारिकता की ही होगी और अंत में चीन से रिश्ते वैसे ही रहेंगे, जैसे पिछली सरकारों में रहे थे।
यूर्डिनेज़ का मानना है कि मिलेई और उनकी टीम के लिए ये चुनौतीपूर्ण रहेगा कि चीन से जो समझौते हुए, उनकी फिर से जांचा परखा जाए। ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर ये समझौते किसी तरह से तोड़े गए तो तगड़ा जुर्माना होगा।
वो कहते हैं- चीन से संबंध खऱाब करने की दिशा में अगर अर्जेंटीना आगे बढ़ा तो इसके गंभीर नतीजे होंगे। वैचारिक भाषणों को एक तरफ़ रखकर समझौतों का पालन करें।
ब्रिक्स से दूरी की बात पर चीन का ज़ोर
अर्जेंटीना की नई हुकूमत की ओर से ब्रिक्स से दूरी की जब बातें हो रही हैं, तब चीन की सरकार हर तरह से अर्जेंटीना को लुभाने में लगा हुआ है।
चाइना डेली में एक संपादकीय छपा है जिसमें कहा गया है कि ब्रिक्स में शामिल होने से अर्जेंटीना को फ़ायदा होगा।
इस संपादकीय में कहा गया है कि ब्रिक्स में शामिल होने को लेकर जो भी फ़ैसला किया जाएगा, ये देश के आर्थिक भविष्य पर असर डालने वाला होगा। चुनावों से पहले चीन पर बरसने और ब्रिक्स में शामिल ना होने की बात करने वाले मिलेई व्यवहारिकता को अपनाते हुए अगर रुख़ बदलते हैं तो ये कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी।
चाइना डेली लिखता है कि एक ऐसा देश जहां गऱीबी दर 40 फ़ीसदी से ज़्यादा है, जहां काफी महंगाई है और आर्थिक चुनौतियां हैं, वहां विपक्ष से सत्ता में आए मिलेई के सामने मुश्किल रास्ता है।
संपादकीय के मुताबिक़, ब्रिक्स के उभरते हुए बड़े बाज़ारों के साथ अर्जेंटीना के अच्छे रिश्ते काफ़ी ज़रूरी हैं।
सत्ता से अब बाहर हुए राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नांडिज़ ने कहा था- ब्रिक्स में शामिल होकर अर्जेंटीना को मदद मिलेगी और इससे नए बाज़ार की संभावनाएं खुलेंगी। नौकरियां मिलेंगी, नया निवेश आएगा और निर्यात बढ़ेगा।
ब्रिक्स देशों में दुनिया की 42 फ़ीसदी आबादी है और ये दुनिया की जीडीपी में एक चौथाई हिस्सा रखते हैं।
जिन नए देशों को ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया है, उनके शामिल होने पर ब्रिक्स समूह में दुनिया की 46 फ़ीसदी आबादी आएगी और दुनिया की जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 37 फ़ीसदी होगी।
इस संपादकीय में लिखा है कि ब्रिक्स विकासशील देशों और उभरते बाज़ारों के लिए अहम मंच है। ब्रिक्स देशों के लिए बने न्यू डेवलपमेंट बैंक में अरबों रुपये हैं, इससे अर्जेंटीना को कज़ऱ् से निपटने में मदद मिलेगी।
अर्जेंटीना के पास खोने के लिए कुछ नहीं है लेकिन पाने के लिए सब कुछ है। अगर अर्जेंटीना ने ऐसा नहीं किया तो इससे देश का नुकसान होगा।
ब्रिक्स में शामिल होकर अर्जेंटीना को क्या फ़ायदा?
साउथ अफ्रीका के ब्रिक्स शेरपा प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल ने स्पूतनिक अफ्रीका से कहा, ‘अर्जेंटीना स्वतंत्र है कि वो ब्रिक्स में शामिल होता है या नहीं। जिन छह नए देशों को आमंत्रित किया गया है, अगर उनमें से कोई एक शामिल नहीं हुआ तो ब्रिक्स समूह गऱीब नहीं हो जाएगा।’
प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल ने कहा, ‘लातिन अमेरिका का बड़ा देश अर्जेंटीना अगर ब्रिक्स में शामिल होता है तो हम बिल्कुल स्वागत करेंगे। इसी कारण नेताओं को ये महसूस हुआ कि अर्जेंटीना के शामिल होने से ब्रिक्स समूह मजबूत हो जाएगा। ऐसे में अगर अर्जेंटीना शामिल नहीं हुआ तो बचे हुए पांच देश ब्रिक्स को समृद्ध करेंगे।’
प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल कहते हैं कि ब्रिक्स ग्लोबल साउथ का अहम प्लेटफॉर्म बन गया है। दक्षिण अफ्रीका में हुए सम्मेलन में 60 देश शामिल हुए और ये स्वीकार किया कि ग्लोबल साउथ को साथ आने की ज़रूरत है।
दियाना मोनदिनो ने स्पूतनिक से कहा कि अर्जेंटीना का ब्रिक्स में शामिल ना होने का कोई मतलब नहीं है।
रूस के विदेश मंत्रालय ने अर्जेंटीना पर कहा कि रुख़ में स्पष्टता को लाए जाने की ज़रूरत है और रूस अर्जेंटीना के संकेतों का इंतज़ार करेगा, ख़ासकर नए प्रशासन के सत्ता संभालने के बाद। रूसी उप विदेश मंत्री ने अर्जेंटीना की जगह किसी और देश को शामिल किए जाने के विचार को ख़ारिज किया।
प्रोफेसर अनिल सूकलाल बोले, ‘मुझे लगता है कि जिन देशों से ब्रिक्स में शामिल होने के लिए कहा गया, वो ब्रिक्स सदस्य बनकर फायदे में रहेंगे। इसी कारण आप देखेंगे कि ऐसे देशों की लंबी लिस्ट है जो ब्रिक्स में शामिल होना चाहते हैं। ऐसे में फैसला अर्जेंटीना को लेना है कि वो शामिल होना चाहता है या नहीं।’
प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल ने कहा, ‘जो नई सरकार बनी है, वो जब तक औपचारिक तौर पर हमें इस बारे में कुछ नहीं बताती है तब तक हमें इंतजार करना होगा। (bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
डीपफेक इन दिनों चर्चा में है। टेक्नोलॉजी के गलत इस्तेमाल की इन ताज़ा घटनाओं ने दुनिया भर के लोगों, खासकर लड़कियों और सार्वजनिक जीवन के सेलेब्रिटीज़ की नींद हराम कर रखी है। लड़कियां इस तकनीक की खास शिकार हो रही हैं। इस तकनीक से सोशल मीडिया से किसी की भी तस्वीर चुराकर उसे किसी नग्न और अश्लील वीडियो के ऊपर चेपकर उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जाता है। ऐसे वीडियोज के कारण दुनिया भर के असंख्य लोगों को भारी मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा है। कुछ लोगों द्वारा अवसाद की हालत में आत्महत्या की खबरें भी आई है। यह दूसरों के अपराध की सजा खुद भुगतने जैसा है। अपने देश में भी इस तकनीक का दुरुपयोग करने वाले लफंगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आज के ही अखबार की एक खबर के मुताबिक झारखंड के रांची में डीपफेक से एक शिक्षण संस्था की 16 से 18 वर्षों की 8 लड़कियों के अश्लील वीडियो बनाकर उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया गया। संतोष की बात यह है कि उन सभी लड़कियों ने अवसाद में जाने की जगह इस अपराध का प्रतिकार करने की सोची और पुलिस में इसकी रिपोर्ट दर्ज करा दी। पुलिस ने मुस्तैदी से काम करते हुए इस अपराध के जिम्मेदार मुजफ्फरपुर के एक युवक को गिरफ्तार कर लिया है और सोशल मीडिया से ऐसे वीडियोज हटाने की कारवाई की है। हमारे देश में अश्लीलता संबंधी कानून तो है लेकिन उसकी सज़ा बहुत कम है। सरकार डीपफेक से निबटने के लिए कठोर कानून बनाने की कोशिशें कर रही हैं। इसमें थोड़ा समय लग सकता है। कुछ लोग यह सलाह दे रहे हैं कि डीपफेक से बचने के लिए लड़कियों को अपनी तस्वीरें और वीडियोज सोशल मीडिया पर डालने से बचना चाहिए।यह मांग अमानवीय है। इस तरह से तो हम औरतों से उनकी अभिव्यक्ति की आजादी ही छीन लेंगे। ज़रूरी यह है कि सरकार जल्द से जल्द इस अपराध के लिए कठोर दंड वाला कानून बनाकर उसे लागू करे और उसकी पड़ताल के लिए हर राज्य में तकनीकी विशेषज्ञों की एक कुशल टीम तैनात करे।
इस अपराध से पीडि़त लड़कियों को मेरी सलाह है कि किसी संत्रास में जाने के बजाय वे ऐसे अपराधियों के कारनामों की रिपोर्ट बिना समय गंवाए पुलिस में दर्ज कराएं। ऐसे अपराध की अनदेखी करने से अपराधियों का मनोबल ही बढ़ेगा।
-प्रमोद जोशी
आज़ादी का आंदोलन बीस के दशक से सन 47 तक सबसे जोरदार तरीके से चला था। उस दौरान ही हमने अपनी भावी व्यवस्था के बारे में विचार किया। आधारभूत संवैधानिक उपबंध आजादी के एक दशक पहले से तैयार थे। उसके काफी तत्व अंग्रेजों ने हमें बनाकर दिए थे। पच्चीसेक साल के उस दौर में हमारी कोशिश थी कि सत्ता हाथ में आ जाए, बाकी काम हम कर लेंगे। सत्ता हासिल करने के 76 साल बाद भी सुराज की परिभाषाएं गढ़ी जा रहीं हैं।
भ्रष्टाचार सिर्फ वित्तीय अनियमितता का नाम नहीं है। वह हमारे संस्कारों में बसा है। इसकी वजह शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराएं और वे स्थितियाँ हैं जो हमें स्वार्थी बनाती हैं। असमानता और भेदभाव का अपने किस्म का सबसे बड़ा उदाहरण हमारा देश है। ज़रूरत इस बात की है कि हमारा लोकतंत्र और नीचे तक जाए। जनता को छुए। उससे मशवरा करे। लोकतंत्र अब सिर्फ उन्ही प्रतिनिधि संस्थाओं तक सीमित नहीं है, जिनकी रचना सौ साल या उससे भी पहले हुई थी। अब डायरेक्ट डेमोक्रेसी की बात फिर से होने लगी है। इसे कंसेंसस डेमोक्रेसी, डेलीबरेट डेमोक्रेसी, सोशियोक्रेसी, ओपन सोर्स गवर्नेंस, इनक्ल्यूसिव डेमोक्रेसी, ई-पार्टिसिपेशन जैसे तमाम नए नाम मिल रहे हैं। टेक्नॉलजी ने सोशल नेटवर्किंग के जो टूल दिए हैं, वे आज नहीं तो कल इस भागीदारी को कोई शक्ल देंगे।
इसका अर्थ संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन नहीं। नए ढंग से परिभाषित करना है। संवैधानिक संस्थाएं ही इस नई परिस्थिति की रचना करेंगी। हमने आर्थिक उदारीकरण और पंचायत राज कानून के तीन दशक पूरे कर लिए हैं। दोनों में तादात्म्य की ज़रूरत है। यह व्यवस्था का खोट है कि देश के सौ से ज्यादा जिले नक्सली हिंसा की चपेट में हैं। यह विदेशी साजिश नहीं है। मुख्यधारा-राजनीति की पराजय है। जो काम हम फौज से कराना चाहते हैं, वह राजनीति आसानी से कर सकती थी। इसके लिए हमें उन लोगों को इस विमर्श में शामिल करना था, जो आज बंदूक लेकर खड़े हैं। दुर्भाग्य है कि मुख्यधारा की राजनीति कई राज्यों में नक्सलियों का इस्तेमाल अपने हित में करती है।
जर्मनी में छात्रों के बीच धुर दक्षिणपंथी रुझानों के विरोध के बाद स्कूल छोड़ने को मजबूर दो शिक्षक नागरिक साहस पुरस्कार से सम्मानित किए गए. लेकिन स्कूलों में नस्लवाद की समस्या से निपटने के लिए साहसिक बदलावों की जरूरत है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर बेन नाइट का लिखा-
इनमें से एक शिक्षक हैं माक्स टेस्के। वे ये नहीं बताते कि अभी वो कहां काम करते हैं और ये बहुत स्वाभाविक भी है। इस साल जुलाई में, जर्मनी के पूर्वी प्रांत ब्रांडेनबुर्ग के बुर्ग शहर में उन्हें और उनकी सहकर्मी लॉरा निकेल को धुर-दक्षिणपंथी दबंगों ने स्कूल छोडऩे को मजबूर कर दिया। उनकी गलती बस इतनी थी कि उन्होंने स्कूल में धुर-दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों के बारे में एक खुली चिट्ठी लिखी थी।
पूरे देश में हलचल मचा देने वाली उस चिट्ठी में उन्होंने कहा था कि उन्हें हर रोज ‘दक्षिणपंथी चरमपंथ, सेक्सिज्म और होमोफोबिया+ के मामलों का सामना करना पड़ता है। टेस्के और निकेल ने लिखा, ‘स्कूल के फर्नीचर स्वास्तिक के निशानों से अटे पड़े हैं, क्लास में उग्र दक्षिणपंथी संगीत बजता रहता है और स्कूल के गलियारे लोकतंत्र विरोधी नारों के शोर से पटे रहते हैं।’
‘दक्षिणपंथी छात्रों और उनके मातापिता के समूहों का खुला विरोध करने वाले अध्यापकों और विद्यार्थियों को अपनी सुरक्षा का डर सताता रहता है।’ ये लिखते हुए दोनों शिक्षकों ने ‘खामोशी की दीवार और स्कूल अधिकारियों और राजनीतिज्ञों से मदद के अभाव’ की आलोचना भी की। चिट्ठी सार्वजनिक होते ही दोनों टीचरों का जीना मुहाल हो गया। पूरे शहर में लैंपपोस्टों पर फ्लायर टंगे मिले जिनमें उनके खिलाफ लिखा था कि वे बर्लिन चले जाएं (फ...ऑफ टू बर्लिन)।’
बराबरी के लिए खड़े होने की जुर्रत
वारदात के चार महीने बाद, अब दोनों शिक्षकों को बर्लिन में एक नागरिक साहस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। होलोकॉस्ट स्मारक संगठन और बर्लिन का यहूदी समुदाय संयुक्त रूप से ये पुरस्कार देते हैं। टेस्के और निकेल इस बीच अपनी जिंदगियां फिर से संवार चुके हैं। अज्ञात शहरों में उन्हें न सिर्फ नई नौकरियां मिल गई बल्कि पब्लिक फिगर हो जाने के बाद उनके एक के बाद एक इंटरव्यू होने लगे और पैनल की बहसों में बुलाया जाने लगा।
टेस्के ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘बहुत कुछ बदल गया। एक तरफ उस कॉटबुस शहर में जहां मैं 31 साल रहा, जो मेरा घर था, वहां से जाना पड़ा, नये सहकर्मी और विद्यार्थी मिले, और दूसरी तरफ मीडिया में जगह मिली जिसके जरिए हम इन मुद्दों को सार्वजनिक करने की कोशिश कर रहे हैं।’
उन्हें अपने लिए एक नया काम भी मिल गया, जर्मन ड्रीम के लिए ‘वैल्यू एम्बेसेडर्स’ की भूमिका। इसका मतलब वे स्कूलों में सेमिनार करते हैं, जहां अपने अनुभव सुनाते हैं और टीचरों और छात्रों को बताते हैं कि चरमपंथ के खिलाफ कैसे खड़ा होना है। टेस्के कहते हैं, ‘ये हमारे लिए वाकई महत्वपूर्ण हो गया है। हमने गौर किया कि हम अकेले नहीं थे और हमने जो किया वो सही था।’ उनके मुताबिक, ‘हम लोग खुद को माउथपीस कहेंगे और ये वो रोल है जिसकी मैं बड़ी कद्र करता हूं क्योंकि ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसे हालात में फंसे हैं जो मेरी स्थिति से भी ज्यादा पेचीदा और मुश्किल है।’
टीचरों को उनके हाल पर छोड़ा
जर्मन ड्रीम की प्रमुख ड्युसेन टेकल ने 2019 में इस अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘बुनियादी तौर पर ये इस बारे में है कि धुर-दक्षिणपंथी पॉपुलिज्म और यहूदियों के प्रति नफरत के खिलाफ लड़ाई में हम शिक्षकों को अकेला छोड़ रहे हैं। दुनिया बदल चुकी है। लेकिन पाठ्यक्रम अभी भी पुराने दशकों में फंसे पड़े हैं।’
जर्मन ड्रीम इस खाई को पाटते हुए उनके सेमिनारों का ढांचा बनाने की कोशिश करता है, जिनकी अगुवाई तमाम पेशों से जुड़े लोग करते हैं। टीचर अपनी गुजारिश भेजते हैं, उनके आधार पर मुद्दे चुने जाते हैं चाहे वो पश्चिम एशिया का मुद्दा हो, यूरोप में आप्रवासियों का या इस्लामोफोबिया या फिर समलैंगिकता।
टेकल के मुताबिक, ‘बहुत सारे शिक्षक हमें अपने सुझाव या प्रतिक्रिया लिखकर भेजते हैं। दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उससे वे भी हैरान-परेशान हैं। बच्चे स्कूल में एक खास माइंडसेट के साथ आते हैं, जो उन्हें अपने माता-पिता से मिला होता है या इंटरनेट से, और टीचर अपने स्तर पर इन तमाम चीजों से नहीं निपट सकते, चाहे वे कितने ही समर्थ और योग्य क्यों न हों।’
आंकड़े दिखाते हैं कि टेस्के और निकेल के अनुभव, अलग नहीं। अक्टूबर में जारी ब्रांडेनबुर्ग पुलिस के नये आंकड़ों के अनुसार 2022 में ‘प्रोपेगेंडा क्राइम’ के 159 मामले स्कूलों में आए। ज्यादातर नाजी प्रतीकों या निशानों से जुड़े थे। महामारी से पहले 2018 में 136 मामले सामने आए थे। टेस्के कहते हैं, ‘चिट्ठी लिखने से पहले हम जानते थे कि ये सिर्फ हमारे स्कूल तक सीमित नहीं। दक्षिण ब्रांडेनबुर्ग के एक शहर स्प्रेमबर्ग में एक स्कूल के दौरे पर मैंने खुद इसका अनुभव किया। दक्षिणपंथी छात्रों ने मुझे धमकाया और मुझ पर हमला किया।’
‘चुप्पी की दीवार’ को तोडऩे की जरूरत
टेस्के और निकेल ने जो तूफान पैदा किया, उस पर नेताओं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक-वाल्टर श्टायनमायर ने कहा कि उस चिट्ठी और इस बात ने उन्हें ‘स्तब्ध’ कर दिया कि शिक्षकों को वो लिखनी पड़ी। टेस्के और निकेल ने जिन घटनाओं का जिक्र किया, उनके बारे में ब्रांडेनबुर्ग की सरकार ने जांच कराने का फैसला किया। शिक्षा मंत्री स्टेफेन फ्राइबर्ग ने शिक्षकों के इन आरोपों से इंकार किया कि उन्हें कोई मदद नहीं मिली।
अगस्त में उन्होंने टागेसश्पीगेल अखबार को बताया, ‘अपने इन दो अध्यापकों कि हिफाजत के लिए जो कुछ भी राज्य मशीनरी से संभव हो सका, वो सब हमने किया और करते रहेंगे।’ सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता फ्राइबर्ग ने ये वादा भी किया कि स्कूलों में हिंसा से निपटने की कार्ययोजना में नया साल शुरू होते ही सुधार किया जाएगा।
फिर भी उन्होंने माना कि समग्र तौर पर समाज में धुर-दक्षिण चरमपंथ की समस्या तो है। फ्राइबर्ग ने अखबार से कहा, ‘अलग-अलग परिवारों में अब दक्षिणपंथी चरमपंथ के रुझानों वाली दूसरी पीढ़ी उभर आई है। ये असर तो पड़ा ही है। ये भी सच है कि क्षेत्रीय स्तर पर कुछ नाजी ढांचे बने हुए हैं, इस नाटकीय स्थिति को मैंने कभी कमतर नहीं आंका।’
स्कूलों में बदलाव
लेकिन टेस्के और टेकल मानते हैं कि स्कूलों के भीतर गहरे स्तर पर बदलाव होने चाहिए। टेस्के कहते हैं, ‘राजनीतिक शिक्षा जैसे विषय क्लास में और ज्यादा पढ़ाए जाने चाहिए। सप्ताह में एक बार से ज्यादा। मेरा ये भी मानना है कि लोकतांत्रिक शिक्षा के विषय पर टीचरों के लिए अनिवार्य कोर्स रखे जाने चाहिए।’ जर्मनी में शिक्षा नीति, संघीय सरकार की ओर से नहीं बल्कि राज्यों के स्तर पर लागू की जाती है। हर राज्य ‘राजनीतिक शिक्षा’ का अपना स्तर खुद तय करता है कि लोकतांत्रिक संविधान के सिद्धांतों में से क्या, कब और कैसे पढ़ाना है।
युवाओं और बच्चों से जुड़ी चिंताएं पूर्वी जर्मनी तक सीमित नहीं। बवेरिया सरकार भी स्कूलों में धुर-दक्षिण रुझानों के उभार पर चिंतित है। बवेरिया प्रांत में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के हालिया चुनावी अभ्यास में धुर-दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) पार्टी ने 14।9 प्रतिशत वोटों के साथ दूसरा स्थान हासिल किया। वास्तविक प्रांतीय चुनाव में भी एएफडी को करीब उतने ही 14।7 फीसदी वोट मिले थे। प्रतिक्रियास्वरूप बवेरिया राज्य के मुख्यमंत्री मारकुस सोयडर ने हर हफ्ते ‘संवैधानिक 15 मिनट’ का विचार पेश किया है जिसमें कक्षाओं में जर्मन संविधान के एक पहलू पर चर्चा होगी।
टेकल कहती हैं ऐसे विचार एक अच्छी शुरुआत हो सकते हैं लेकिन उन्हें आगे ले जाना होगा। ‘स्कूलों में हमें नए विषय चाहिए, हमें स्वीकार करना होगा कि ये आप्रवासन वाला समाज है। हमारे सामने पूरी तरह नई समस्याएं, नए मुद्दे और नए अवसर मौजूद हैं।’ (dw.com)
फिलीस्तीन तुम्हारे बच्चे
आसमान में उड़ रहे हैं साये-साये बनकर
इस तनी हुई नीली चादर में
अंगुश्त भर भी जगह नहीं
जो उनकी सिहरन छुपा सके
उनकी डोलती आकृतियाँ
टर्टल बे, न्यूयॉर्क के ऊपर
बिना पंजों पर उदास भीमकाय डैनों वाले
परिंदों की तरह छा जाती हैं
कभी वे जिनेवा की साफ अन्त:करण वाली हवा में
किसी फरेब से घुल जाते हैं
दिखते हैं पेरिस की गलियों में एक-दूसरे के पीछे भागते
नई दिल्ली की धुंध भरी सडक़ों पर
हाथ से छूटे गुब्बारों की मानिंद उड़ जाते हैं
वे बेरूत का मलबा हैं
बगदाद की धूल हैं
काबुल की कूक वे,
समरकन्द की सदाएं हैं
वे टोरा के अक्षर हैं
हजरत मूसा की उचटी हुई नींद हैं
यहूदी प्रार्थनाघरों पर रोई हुई शबनम हैं वे
वे हिजरत की रेत, सलीब का सपना हैं
मस्जिदों की जालियाँ
मंदिरों की जोत हैं
फ़लस्तीन तुम्हारे बच्चे,
काहिरा के बादल
कलकत्ते की उमस, टोक्यो के फूल
बीजिंग की रौशनियाँ
इस्तांबुल की कश्तियाँ
भूमध्यसागर का नमक हैं,
गज़़ा के खोखले मकान
बहिश्त तक खुली हुई छतें
बिना पल्लों की खिड़कियाँ
जले हुए पर्दे-कोरे दस्तरख़्वान
जैतून की डालियाँ-ख़ून में डूबी खुबानियाँ हैं
फिलीस्तीन तुम्हारे बच्चे,
उनके कसकर बाँधे हुए जिस्म
उनपर झुकी उनकी माँएँ
जिनके सामने पिएटा भी
मोम के ख्वाब की तरह पिघल जाए
ठिठुर रहे हैं खुले हुए ताबूतों में
ये दुनिया बहुत बड़ी,
मुलायम और सुखमय है फिलीस्तीन
और तुम्हारे बच्चे हैं कि उन्हें
कंटीली घास के बीच अपने खेलने की जगह की ख़ब्त है
उतनी जगह तो अब ख़ुदा के पास भी नहीं बची
फिलीस्तीन,
ईश्वर भी कहीं तुम्हारा ही जना
कोई बच्चा तो नहीं?
-असद ज़ैदी
डॉ. आर.के. पालीवाल
ग्राम स्वराज और आदर्श ग्राम पंचायत के स्वरूप और कार्यशैली को समझने के लिए महात्मा गांधी का यह कथन याद रखना चाहिए कि ‘भारत में ज्यों-ज्यों ग्राम पंचायतें नष्ट होती गई, त्यों त्यों लोगों के हाथ से स्वराज्य की कुंजी निकलती गई। ग्राम पंचायतों का उद्धार पुस्तकें लिखने से न होगा। यदि गांव के लोग समझ जाएं कि वे अपने अपने गांव की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं, तभी यह कहा जा सकेगा कि स्वराज्य की सच्ची कुंजी मिल गई।’ इस कथन में गांधी सबसे ज्यादा जोर गांव के लोगों के यह समझने पर देते हैं कि वे अपने गांव की व्यवस्था कैसे करें। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी उसे अब युटोपिया माना जाने लगा है ताकि उसे असंभव कहकर आसानी से दरकिनार किया जा सके। महात्मा गांधी राजनीति में संत थे और संत भी शत-प्रतिशत।सत्य और अहिंसा सहित एकादश व्रतधारी आदर्श व्यक्ति। इसलिए उनकी परिकल्पना चाहे ग्राम स्वराज को लेकर हो या आजादी के आंदोलन के स्वरूप अथवा संपत्तियों के ट्रस्टीशिप को लेकर हो वह आदर्श के सर्वोच्च संस्कारों पर ही आधारित होती थी। इन परिकल्पनाओं को तभी साकार किया जा सकता है जब देश के अधिकांश नागारिक भी कमोवेश वैसी ही उच्च कोटि के संस्कारी नागरिक हों जैसे गांधी खुद थे और जैसा वे तमाम नागरिकों को बनाना चाहते थे।
गांधी चाहते थे कि भारत के गांव में इतनी एकता हो कि वे उसी तरह एक यूनिट की तरह व्यवहार करें जैसे एक संयुक्त परिवार होता है और जैसे एक आश्रम होता है। वे ग्राम स्वराज में सरकार और अपने सहयोगियों की भूमिका उत्प्रेरक और सहायक के रुप में देखते थे जो ग्रामवासियों को जागरूक करके उन्हें ग्राम स्वराज स्थापित करने में सहायता करें।जमीनी हकीकत यह है कि आजादी के बाद किसी सरकार और गांधी के बाद विनोबा और उनके चंद सहयोगियों एवं अनुयायियों को अपवाद स्वरूप छोडक़र अधिकांश गांधीवादियों ने इस दिशा में कोई ठोस जमीनी कार्य नहीं किया। उल्टे आजादी के बाद पिछ्ले पचहत्तर सालों में गांव ग्राम स्वराज की परिकल्पना से लगातार दूर होते चले गए और उस सीमा तक दूर हो गए जहां गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को हकीकत में देखना लगभग असंभव हो गया है। आदिवासी गांवों के अलावा लगभग सभी गांवों में नेताओं ने धर्म और जातियों की इतनी खाई बना दी हैं कि गांव वाले एक यूनिट के रुप में एक साथ उठते बैठते तक नहीं।
ग्राम पंचायत और ग्राम स्वराज किताबों, लेखों और भाषणों में ही सिमट कर रह गए।इस मुद्दे पर गांधीवादी संस्थाएं बुरी तरह फेल हुई हैं। इन संस्थाओं और उनके पदाधिकारियों के महानगर और शहरों में केंद्रित होने से उनका गांवों से कोई जुड़ाव ही नहीं बचा। जिस तरह की ग्राम पंचायतों की कल्पना गांधी ने की थी उसकी हल्की सी झलक भी गांवों में दिखाई नहीं देती। इसकी सबसे बड़ी बाधा तो सरकार और विधायिका एवं कार्यपालिका में बैठे उसके प्रतिनिधि और नौकरशाही हैं जो ग्राम पंचायतों को अपने इशारों पर नचाने के लिए तमाम आर्थिक और प्रशासनिक अधिकारों पर अजगर की तरह कुंडली मारकर बैठे गए और अपनी पकड़ को और मजबूत करते जा रहे हैं। दूसरी बाधा ग्राम समाज की सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विपन्नता और विषमता है। गांव के जो परिवार सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध हैं वे भी खुद को नेताओं और अफसरों की तरह छोटे मोटे देवता से कम नहीं समझते और सरकार के नुमाइंदों के साथ सांठ-गांठ कर ऐसा चक्रव्यूह रचते है जिसे भेदना अधिसंख्य ग्रामीण आबादी के लिए असंभव है। जब तक कोई बड़ा जन जागरण अभियान शुरु नहीं होगा तब तक ग्राम स्वराज का सूर्योदय मुश्किल होता जा रहा है।
रश्मि सहगल
उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का धंसना और उसमें 41 मजदूरों का फंस जाना तमाम सवालों को जन्म देता है। हिमालयीन इलाके में ढीली चट्टानों और मिट्टी से बने ये पहाड़ पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील तो हैं ही लेकिन इनके साथ सावधानी से पेश न आने के कैसे खतरे हो सकते हैं, यह बार-बार के हादसों ने बताया है। इन इलाकों में न तो विकास रुकने वाला है और न हादसे, लेकिन इनके बीच संतुलन कैसे बनाया जाए, इस सवाल के साथ सिल्कयारा सुरंग हादसा हमारे सामने है। सोचना नीति निर्धारकों को है।
बडक़ोट-सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकालने में, काफी देर से ही सही, तमाम एजेसियों और देशी-विदेशी विशेषज्ञों को लगना पड़ा, उससे ही समझा जा सकता है कि इस किस्म की दुर्घटना से निबटने की तैयारी पहले से नहीं थी। मतलब, निर्माण एजेंसियों ने बचाव की सूरत का प्लान ही नहीं बनाया था।
सिर्फ जानकारी के लिए कि आखिरकार, किस-किस स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों को इसमें जुटना पड़ा: पीएमओ, वायु सेना, एनएचआईडीसीएल, ओएनजीसी, डीआरडीओ, बीआरओ, रेल विकास निगम, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल, राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल प्राधिकरण, सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड (एसजेवीएनएल), टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (टीएचडीसी), इसरो, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसी तमाम सरकारी एजेसियों से लेकर ट्रेंचलेस इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड और एलएंडटी सेफ्टी यूनिट सहित कई निजी एजेंसियों को भी।
मजदूरों को निकालने के अभियान की देखरेख में तो राष्ट्रीय राजमार्ग एवं बुनियादी ढांचा विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) जुटना ही था क्योंकि यह चार धाम परियोजना को पूरा करने से जुड़ी प्रमुख एजेंसी है। ध्यान रहे कि एनएचआईडीसीएल ने बरकोट-सिल्कयारा सुरंग की इंजीनियरिंग, खरीद और निर्माण के लिए जून, 2018 में हैदराबाद स्थित नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड (एनईसीएल) के साथ 853.79 करोड़ रुपये के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे।
लगता है या तो दुर्घटना की स्थिति से निबटने के लिए जो प्लान बनाया भी गया था, उस पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी। दुर्घटना 12 नवंबर को दीपावली के दिन हुई। अमेरिकी ऑगुर मशीन लगाई गई लेकिन यह 16 नवंबर को खराब हो गई। एनएचआईडीसीएल के निदेशक अंशू मनीष खलको के अनुसार, 16 नवंबर को खराब हो गई अमेरिकी ऑगुर मशीन को मरम्मत करके फिर से काम में लगाया गया। ऑगुर मशीन से 900 मिलीमीटर स्टील पाइप में ड्रिल करके इसमें 800 मिलीमीटर पाइपों को डालकर अतिरिक्त मजबूती प्रदान करते हुए सिल्क्यारा की ओर से क्षैतिज ड्रिलिंग का काम फिर से शुरू किया गया। ढहे हुए हिस्से सिल्क्यारा से सुरंग के मुहाने की दूरी 270 मीटर बताई गई। 17 नवंबर को पहले वाले ऑपरेशन को छोड़ दिया गया था क्योंकि मशीन रास्ते में कठोर पत्थर आ जाने से क्षतिग्रस्त हो गई थी।
बचाव अभियान जिस तरह चलता रहा, उससे ही समझा जा सकता है कि बचाव के लिए एक के बाद दूसरे विकल्प पर बार-बार जाना पड़ा, मतलब यह कि किसी को अंदाजा ही नहीं था कि फंसे मजदूरों तक पहुंचने का सुगम और सुरक्षित तरीका क्या है। टीएचडीसी को बारकोट छोर से ड्रिलिंग कार्य शुरू करने के लिए कहा गया और ड्रिल और ब्लास्ट विधि का उपयोग करके वे 6.5 मीटर लंबी खुदाई करने में सफल रहे। एसजेवीएनएल द्वारा क्रियान्वित तीसरी योजना सुरंग के ऊपर पहाड़ी से सीधी ड्रिलिंग की थी। इस ऑपरेशन के लिए एक ड्रिलिंग मशीन 21 नवंबर की शाम को साइट पर पहुंची। इस प्रक्रिया में मदद के लिए ओएनजीसी के विशेषज्ञों को बुलाया गया। गुजरात और ओडिशा से अतिरिक्त मशीनें भेजी गईं। सुरंग की बाईं ओर से माइक्रो-ड्रिलिंग भी चालू कर दी गई।
इस ऑपरेशन में तमाम एजेंसियां सक्रिय रहीं, इसके बावजूद शुरू से ही किसी के पास बचाव कार्य को लेकर सही आकलन नहीं था। सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने मौके पर ही आकलन करने के बाद कहा था कि इसमें दो से तीन दिन लगेंगे। जनरल वी.के. सिंह (सेवानिवृत्त) ने भी यही समय सीमा दोहराई। जबकि प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार भास्कर खुल्बे ने एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान प्रेस को बताया था कि इसमें लगभग ‘पांच से सात दिन लगेंगे।’ उत्तराखंड के सडक़ परिवहन सचिव ने कहा था कि इसमें 15 दिन या उससे भी अधिक समय लग सकता है। अतिरिक्त सहायता के लिए उत्तरकाशी भेजे गए ऑस्ट्रेलियाई सुरंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स ने तो स्थानीय पत्रकारों से यह कह दिया कि बचाव अभियान क्रिसमस तक जारी रह सकता है।
कुछ भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ डिक्स की विशेषज्ञता को लेकर खुद ही आशंकित थे। दरअसल, उसकी विशेषज्ञता का क्षेत्र सुरंगों में अग्नि सुरक्षा और वायु गुणवत्ता का रहा है। गडकरी, सिंह और डिक्स- सभी ने टिप्पणी की कि ये पहाडिय़ां ‘ढीले पत्थर और कीचड़’ से बनी हैं जो सुरंग और सुरंग बनाने वालों के लिए खतरनाक हैं। यह सब तब कहा गया जब वहां हादसा हो चुका था। लेकिन क्या यह बात तब सामने नहीं आई थी जब योजना ड्राइंग स्तर पर थी? क्या हिमालय की नाजुक संरचना को ध्यान में नहीं रखा गया?
सिल्क्यारा सुरंग के बाहर इक_ा श्रमिकों, उनके परिवार के लोगों समेत आम लोगों के मन में यह सवाल पहले दिन से ही उठता रहा कि नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी (एनईसी) किसी भी आपात स्थिति में निकलने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध कराने में विफल रही है जबकि सुरंग निर्माण के मामले में यह अनिवार्य होता है।
देहरादून स्थित कांग्रेस प्रवक्ता सुजाता पॉल ने कहा, ‘इतनी लंबी सुरंग में न केवल सुरक्षा नलिका और आपात स्थिति में निकलने का रास्ता नहीं था बल्कि एनईसी और एनएचआईडीसीएल ऐसी आपात स्थिति के लिए कोई सुरक्षा योजना तैयार करने में भी विफल रहे। हादसे के वक्त घटनास्थल पर सिर्फ एक जेसीबी थी। ऑगुर की दो मशीनें खराब हो गईं और तीसरी इंदौर से मंगवानी पड़ी।’
आपराधिक लापरवाही के लिए एनईसी के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। जब दुर्घटना स्थल पर मौजूद बड़े लोगों से इसका कारण पूछा गया, तो उन्होंने सवाल को टाल दिया और जोर देकर कहा कि फिलहाल तो उनका ध्यान यह सुनिश्चित करना है कि मजदूर सुरक्षित और स्वस्थ बाहर निकाले जाएं।
देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीना पॉल ने इस बात पर जोर दिया कि ‘उत्तराखंड की सुरंगें मौत का जाल बन गई हैं। कुछ दिन पहले ही सहारनपुर को देहरादून से जोडऩे वाली डाट काली सुरंग को भूस्खलन की वजह से कुछ देर के लिए बंद कर दिया गया था और तीन घंटे तक सुरंग में फंसे रहे यात्रियों ने दम घुटने और सांस फूलने की शिकायत की थी।’
सिल्क्यारा सुरंग में आपात रास्ता क्यों नहीं था? जब सरकार ने फरवरी, 2018 में सुरंग परियोजना को मंजूरी दी, तो उसने साफ कहा था कि इसमें ‘सुरक्षा वैकल्पिक मार्ग’ होगा। देहरादून स्थित एनजीओ समाधान ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सिल्कयारा सुरंग के निर्माण में बड़ी सुरक्षा चूक के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ लापरवाही का आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की है। कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक डॉ पी.सी. नवानी ने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसी बड़ी परियोजनाओं के लिए सुरक्षा रास्ता बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। वे न केवल जीवन बचाने और बचाव कार्य को सुविधाजनक बनाने में मदद करते हैं, बल्कि सुरंग के अंदर साजो सामान और अन्य आपूर्ति पहुंचाने में भी मददगार होते हैं। नवानी ने इस बात पर भी जोर दिया कि सुरंग निर्माण के लिए इंजीनियरिंग भूवैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ टीम के इनपुट की जरूरत होती है लेकिन यह काम उन ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है जिन्हें संबंधित इलाके की बेहतर जानकारी नहीं होती और वे सभी तरह के शॉर्टकट अपनाने को तैयार होते हैं।
दुनिया भर में सडक़, रेल और जलविद्युत परियोजनाओं में सुरंगें जरूरी हिस्सा होती हैं। यही बात भारत के लिए भी लागू होती है लेकिन यह देखते हुए कि हिमालय पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है, किसी भी सुरंग के निर्माण में उचित सावधानी अपेक्षित और जरूरी हो जाती है। यह देखते हुए कि हिमालय के पहाड़ नरम चट्टानों से बने हैं, ये रेल सुरंगें भला किस तरह की सुरक्षा का आश्वासन दे सकती हैं? 16,000 करोड़ रुपये की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना के तहत 17 सुरंगें बननी हैं जिनमें 15.1 किलोमीटर लंबी सुरंग भी शामिल है जो भारत में सबसे लंबी सुरंग होगी। सिल्कयारा दुर्घटना को देखते हुए इस रेल लिंक का सुरक्षा ऑडिट जरूरी हो जाता है।
2020 में एनईसी समेत अन्य निजी कंपनियों को इनमें से कुछ रेल सुरंगों के निर्माण का ठेका दिया गया था। यह भी गौर करने की बात है कि एनईसी का सुरक्षा ट्रैक रिकॉर्ड अपने आप में संदिग्ध है। इस बात का खुलासा हाल ही में तब हुआ जब समृद्धि एक्सप्रेस-वे पर पुल निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली मोबाइल गैन्ट्री क्रेन के गिर जाने से 15 मजदूरों की मौत हो गई जबकि एक इंजीनियर और पांच अन्य कर्मचारी मलबे में फंस गए। यह हादसा 1 अगस्त, 2023 को ठाणे जिले के शाहपुर तहसील में हुआ। समृद्धि एक्सप्रेस-वे के पहले चरण का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिसंबर, 2022 में किया था। यह दुर्घटना तीसरे चरण के दौरान हुई। तब एनईसी द्वारा काम पर रखे गए उप-ठेकेदारों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। (हैदराबाद स्थित कंपनी को चंद्रबाबू नायडू का करीबी माना जाता है। जब 2019 में आंध्र प्रदेश में सत्ता बदली, तो नए मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने राज्य में एनईसी को दिए गए कई अन्य ठेके रद्द कर दिए।)
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली उत्तराखंड सरकार ने बयान जारी कर कहा है कि चार धाम परियोजना के तहत प्रस्तावित सभी सुरंगों का पुनर्मूल्यांकन अगले छह महीनों में किया जाएगा। लेकिन जब तक इसमें विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया जाता, इस तरह के पुनर्मूल्यांकन से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होने जा रहा। सवाल यह है कि क्या वे देहरादून को टिहरी से जोडऩे वाली दुनिया की सबसे लंबी सडक़ सुरंग के निर्माण जैसी योजनाओं की वैधता की भी समीक्षा करेंगे?
इन रेल सुरंगों के पर्यावरणीय प्रभाव की भी नए सिरे से समीक्षा की जरूरत है। प्रसिद्ध भूविज्ञानी और भूकंप विशेषज्ञ डॉ. सी.पी. राजेंद्रन कहते हैं, ‘ऐसा माना जाता है कि सुरंगों के निर्माण से पर्यावरण पर पडऩे वाले असर को कम किया जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि सतह के भीतर इस तरह की संरचनाओं की वजह से पर्यावरण को कहीं भारी नुकसान हो सकता है जिसमें यातायात से होने वाले प्रदूषक तत्वों का ऐसी सुरंग में इक_ा होते जाना शामिल है जहां सूरज की रोशनी भी नहीं होती।’
राजेंद्रन कहते हैं, ‘ट्रेनें अब बेशक बिजली से चलती हों और इससे प्रदूषण नहीं होता हो। लेकिन जब बात सुरंगों की आती है तो ट्रेन की आवाजाही के दौरान लगातार उत्पन्न होने वाला कंपन एक बड़ा खतरा होता है और इससे पहाड़ की ढलान अस्थिर हो जाती है और कोई मामूली सा कारक भी इसे भूस्खलन के प्रति संवेदनशील बना देता है। समस्या और भी बड़ी इसलिए हो जाती है कि सुरंगों को बनाने के दौरान किए गए विस्फोट से चट्टानें पहले से ही कमजोर हो गई होती हैं। नतीजतन बार-बार छोटे-बड़े भूस्खलन होते हैं। इसके साथ ही निर्माण के दौरान भारी मात्रा में चट्टानी अपशिष्ट निकलते हैं जिससे भूमिगत जल पर स्थायी असर पड़ता है और जल स्तर में गिरावट हो जाती है। तमाम सुरंग निर्माण क्षेत्रों का यही अनुभव है।’
अत्यधिक सडक़ और रेल सुरंग निर्माण हिमालय में चल रही बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधि के सबसे खतरनाक पहलुओं में से एक है। वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए ग्राफ से पता चला है कि पिछले पांच सालों में उत्तराखंड में भूस्खलन के मामले 2,900 फीसदी तक बढ़ गए हैं। भूस्खलन कई कारकों पर निर्भर करता है और इनमें चट्टान की प्रकृति, उनकी क्षमता और इस्तेमाल किए गए विस्फोट तरीके शामिल होते हैं। चट्टानों का भूविज्ञान और उनके भीतर विखंडन की प्रकृति पर विचार करना जरूरी होता है।
सिल्क्यारा सुरंग संकट में पहाडिय़ों की अस्थिरता बिल्कुल साफ हो गई है। जैसे ही विशेषज्ञों ने मलबे में खुदाई की, कंपन के कारण भूस्खलन हुआ जिससे बचाव कार्य में देरी हुई। इस अफसोसनाक हादसे में अकेली राहत यह रही कि अधिकारी छह इंच की पाइपलाइन के लिए खुदाई करने में कामयाब रहे जिसके जरिये फंसे हुए मजदूरों को भोजन, फल, अवसाद रोधी दवाएं वगैरह भेजी जा सकीं। एंडोस्कोपिक कैमरा भी लगाया गया ताकि मजदूरों की तस्वीरें झारखंड, बंगाल, ओडिशा, बिहार, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में उनके परिवारों तक पहुंचाई जा सकें।
एक और राहत की बात यह रही कि सुरंग में बिजली बंद नहीं की गई और श्रमिकों के पास घूमने के लिए लगभग 1.5 किलोमीटर की जगह थी। बहरहाल, बचाए जाने का इंतजार कर रहे मजदूरों के लिए ये छोटी-छोटी राहतें इस मुश्किल समय को काटने में बड़ी मददगार साबित रही होंगी। (navjivanindia.com)
स्मिता
‘न कोई इस पार हमारा,
न कोई उस पार.......’
शैलेंद्र
डहरुराम किसी सुदूर छत्तीसगढ़ के गांव में ही थोड़े न मिलते है, वह बिहार या यू पी या राजस्थान के गांव में भी मिल जाएंगे।
डहरुराम के माई ने 6-6 बच्चा जना है । अब जितने हाथ, उतने काम ,उतना पइसा ।
फिर बीमारी हारी में भी तो लइका बच्चा मर जावत है। सो नाम ल बिगाड़ कर रख दे हे, ‘डहरुराम’
मान्यता है, भगवान भी बिगड़े नाम के बाबू को नहीं ले जावत है ।
फिर राम भी तो लगा दिए न बचाने को .... राम नाम तो सबको बचा लेत है लोकलाज के डर से अपनी पत्नी को नहीं बचा पाए तो क्या ?
‘डहरु’, को का पता कि नाम ही जी का जंजाल बन जाई ।
आधार में अलग नाम और जमीन के टुकड़े में अलग नाम । पिछले बरस सूखा में सारा फसल तो जल के नुकसान हो गए । रोज रात में अंतडिय़ों में ऐसी मरोड़ उठे है कि पूछो मत ।
रोज बैंक के सामने ‘डहरु’ उखड़ू हाथ जोड़ के बैठ जावत है ।सब गांव वाले को फसल बीमा का पैसा मिल गया है । बाबू साहब मोर खाता में पइसा कब आही?
अब आधार में तुम्हर नाम ‘डाहरु राम’ काहे लिखा दिये हो?
ऑनलाइन पोर्टल में अलग अलग नाम नहीं एक्सेप्ट करय, टेक्नोलॉजी के जमाना है भाई ..
तो काहे बुला के न सुधरवा लिये साहेब । हम तो फसल बीमा के पइसा न मिलब तो मर जाई जीते जी ।
अबके सरकार तो बोली रहे न , बीमा का पइसा मिली । हम तो बीमा का उ का कहिथे, प्रीमियम भी जमा किये रहे ।
अब इ ‘अ’का मात्रा ‘आ’ का मात्रा हमको कहाँ समझ में आत है साहब ।
पेट को तो अन्न का दाना और खेत को बीज/खातू समझ म आवत हे साहब
अब कहाँ से हम नांगर चलाई , निंदायी बोआई करी । अक्षर पढ़ लेते तो, काहे ये सब करते ?
साहब कैसे भी करके हमर पइसा दिलवा दो ...अब मां की कसम खाते है जो डहरु को कोई डाहरु बोला तो, जबान खींच लेंगे हम उका ..
अब जाओ बे, वकील करो, फोरम जाओ । सरकार को गुहार लगाओ ।
सुने है अब डहरु ओ ठाकुर वकील के ज़मीन में मजूरी कर रहा है ।
(गलती से अगर किसानों के खसरा और आधार कार्ड में नामान्तर हो गया हो तो उन किसानों को फसल बीमा का लाभ नहीं मिलता है । इसमें करेक्शन करवाना, बैंक की जवाबदेही होती है । लेकिन इस छोटी सी तकनीकी खामी से हज़ारों किसान फसल बीमा के लाभ से वंचित हो रहे है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। )
विष्णु नागर
खबर है कि एनसीआरटी की किताबों में रामायण और महाभारत के प्रसंग शामिल होंगे।यह कहना तो बेकार है कि कुरान, बाइबिल के प्रसंग भी शामिल कर लेते।
गुरुग्रंथ साहिब के प्रसंग भी जोड़ लेते।कबीर भी पढ़ा देते। बेकार है ये बातें इनके आगे मगर बेकार बातें भी कर लेना चाहिए।केवल ‘कार’ बातों से कुछ होता नहीं।ये भी बताना बेकार है कि संविधान के अनुसार भारत की और प्रदेशों की सरकारें धर्मनिरपेक्ष देश की सरकारें हैं।मगर संविधान इनके लिए शपथग्रहण की सुविधा मात्र है!
और जो रामायण -महाभारत पढ़वाएंगे, क्या उन्होंने भी इन्हें पढ़ा है?वैसे ये भी बेकार का सवाल? है।इनके संस्कार, इनकी कूढ़मगजी तो कुछ और ही संकेत देती है।वह तो संकेत देती है कि इनका पढऩे से दूर- दूर का संबंध नहीं।संघ के , तथाकथित ‘बौद्धिक ’ से आगे इनकी गति -मति नहीं।जरा इनकी भाषा, इनके कारनामे देखिए! एक भी अक्ल की बात इन्हें सुहाती है?
लेकिन यह सुझाव इनके काम आ सकता है कि इन्हें तो मालूम होगा कि ये हमेशा के लिए भारत पर राज करने आए हैं मगर भारत की जनता को? यह नहीं मालूम। इसलिए छह महीने बाद आम चुनाव होने जा रहे हैं, तब जनता से पूछकर एक बार देख लेना कि वह इनकी कूढ़मगजी और पुलिस राज को कितना और सहने को तैयार है?बाकी तो सब जयश्री राम है! क्यों जी है न!
सच्चिदानंद जोशी
दिवाली आते ही साफ सफाई का भूत सबके सिर पर सवार हो जाता है। हर बार घर का ज्यादा दिखने वाला सामान बाहर निकालने का संकल्प लिया जाता है। एक दो दिन उत्साह से काम भी किया जाता है और बाद में ये संकल्प अगली दिवाली तक के लिए मुल्तवी कर दिया जाता है। दो चार दिन लगातार छुट्टियां आ जाएं और पतिदेव घर पर मिल जाए तो फिर टांड ( जी हां आधुनिक भाषा में उसे द्यशद्घह्ल कहते हैं) या पलंग में बने बक्सों की सफाई का अतिरिक्त काम भी हाथ में लिया जाता है।
इस बार भी दो दिन की छुट्टियां साथ आ जाने से श्रीमती जी को पलंग के नीचे बक्से को खोलने का समय मिल गया। ये बक्से यानी पुरातत्व संरक्षण विभाग के गोदाम की तरह होते हैं। इन्हे खोलें तो ना जाने आपको क्या क्या मिल जाए। इन्हे खोलना यानी हड़प्पा , मोहन जो दारो की खुदाई करने जैसा है।
इनमे से एक बक्से में से दो बड़ी बड़ी गठरियां निकली। पुरानी साड़ी की गठरियाँ थी।
‘अरे ये मेरी साडिय़ां हैं। अब तो ये पहनी ही नहीं जाती। मैं तो ऊब चुकी हूं इन्हे पहन पहन कर। मै तो सब किसी किसी को दे देना चाहती हूं। ’ श्रीमती जी बोली। आगे का खतरा मैं भांप चुका था। यानी अब मेरी जिम्मेदारी सिर्फ बक्सा खोलने तक ही नहीं थी। मुझे गठरियां भी खोलनी थी।
मैने चुपचाप गठरियां खोली और आगे के आदेश का इंतजार करता रहा।
‘देखो हम इनमे से सॉर्ट आऊट कर लेते हैं कौन सी रखनी है और कौन सी देनी है। ‘आगे का फरमान आया। अब ‘ हम’ शब्द का तो कोई मतलब नहीं था। चयन उन्ही को करना था , अपन को तो सिर्फ हां में हां मिलानी थी।
तभी घड़ी ने दस बजाए। घंटो का घनघनाना था कि श्रीमती जी को याद आया ‘अरे भगवान दस बज गए। अभी तो खाना बनना शुरू भी नहीं हुआ है। ‘श्रीमती जी हड़बड़ाकर बोली। ‘ऐसा करो तुम साडिय़ां छांट लो। वैसे भी मैं तुमसे पूछकर ही साड़ी पहनती हूं। मैं तब तक दाल सब्जी छौंक कर आती हूं। ’
यानी अब सारी सफाई का दारोमदार हम पर ही था। दाल सब्जी छौंकने में श्रीमती जी को दो घंटे से कम तो लगने वाले नही थे। पूरे दो घंटे लगा कर साडिय़ां छांटी गई। जो साडिय़ां मेरी नजर में एकदम बेकार या देने लायक थी वे अलग रखी गईं और जो मुझे पसंद थी वे अलग रखी गई। कुछ साडिय़ों से मुझे विशेष प्रेम था वे अलग रखी गई।जो साडिय़ां देने के लिए रखी गई उनका ढेर बड़ा हो गया और दूसरा रखने वाली साडिय़ों का ढेर छोटा।
दो ढाई घंटे बाद श्रीमती जी लौटी तो काम की प्रगति देख खुश हुई। छोटा ढेर देख कर बोली ’ बस इतनी सी ही रिजेक्ट कर पाए। मैं होती तो एक दो को छोड़ कर पूरी रिजेक्ट कर देती।’ फिर उन्हें समझना पड़ा कि जिसे वह रिजेक्टेड माल समझ रहीं है दरअसल वही रखना है ,बाकी रिजेक्टेड वाला ढेर तो बड़ा है।
‘चलो ठीक है एक काम तो हुआ। मैं तो इनकी तरफ देखूंगी भी नही वर्ना मुझे इनमे से कुछ को रखने का मोह हो जाएगा। ‘श्रीमती जी ने कहा और मैने राहत की सांस ली कि चलो एक काम तो उनके हिसाब से संतोषजनक हुआ। इस संतोष के आनंद को महसूस ही कर रहा था कि श्रीमती जी एक साड़ी उठा कर बोली ’ अरे ये क्या किया , ये तो मेरी बहुत प्यारी साड़ी है, मां ने दी थी जब मेरी नौकरी लगी थी। ‘उन्होंने वह साड़ी उस छोटे ढेर में रख दी जो वापिस बक्से में जानी थी। फिर उसके बाद दूसरी , तीसरी , चौथी वे साडिय़ां निकलती जा रही थी और हर साड़ी की कहानी सुनाती जा रही थी।पहली कमाई की साड़ी, मां की दी पहली साड़ी , दीदी की साड़ी, पहली बार मुंबई जाकर खरीदी साड़ी, पहली साड़ी नल्ली सिल्क की, पहली साड़ी कुमारन सिल्क की, मैने दी हुई पहली साड़ी, पहली बार हम मिले वो साड़ी, मसूरी घूमने गए वो साड़ी , बुआ जी ने खुश होकर दी गई साड़ी , मौसी जी ने खीज कर दी हुई साड़ी। न जाने कितनी कहानियां।बड़े ढेर से एक एक साड़ी निकाल कर छोटे ढेर में डाली जा रही थी और छोटा ढेर बड़ा होता जा रहा था।
तभी मेरी नजर एक साड़ी पर पड़ी जो एक पैकेट में पैक बंद पड़ी थी।
‘अरे ये पैक बंद है , इसे तो खोला भी नही कभी। ’ मैने कहा।
‘उसे वैसे ही रहने दो। ’ श्रीमती जी की आंखो में आंसू थे,। वो अपनी रो में बोले जा रही थीं, ’ स्कूल की फेयर वेल पार्टी थी। मां की साडिय़ां पुराने जमाने की थी इसलिए भाभी से उनकी नई साड़ी मांग ली। भाभी ने साफ मना कर दिया। कहने लगी बच्चों को नही दूंगी साड़ी खराब करने के लिए। मन बहुत खराब हो गया।
पड़ोस की पुष्पा भाभी से मेरी बहुत छनती थी
उन्होंने मुझे मायूस देखा तो झट अपनी नई कोरी साड़ी निकाल कर दे दी।स्कूल में पहनी तो सबने बहुत तारीफ की। लेकिन वापिस आते समय एक हादसा हुआ । आपसी धक्का मुक्की में साड़ी टेबल में अटक कर फट गई। घर आई तो बहुत डर रही थी। डरते डरते पुष्पा भाभी को बताया। वो हंस कर बोली ‘अरे इतना परेशान क्यों होती हो , साड़ी तो मुझसे भी फट सकती थी। ‘उन्होंने कहा और वह साड़ी मुझे ही दे दी। । मेरे मन पर बोझ था। मैने अपनी पॉकेट मनी और स्कॉलरशिप के पैसे बचा कर पुष्पा भाभी के लिए साड़ी खरीदी और उन्हें देने के लिए रखी। भाभी डिलिवरी के लिए अपने मायके आगरा गई थी। मैं उनका इंतजार करती रही लेकिन भाभी लौटी ही नहीं । पता चला डिलिवरी के दौरान ही उनकी डेथ हो गई। तब से ये साड़ी ऐसे ही पैक बंद रखी है। ’
वातावरण थोड़ा भारी हो गया था। साडिय़ों के ढेर को व्यवस्थित करने के बहाने जब मैने एक और साड़ी को करीने से रखने की कोशिश की तो श्रीमती जी बोली ‘ये साड़ी याद है ना। इसी में विदा करा कर लाए थे आप। ’ उस साड़ी को मैं भला कैसे भूल सकता था। तभी उस ढेर में से एक सूती चादर नुमा साड़ी भी निकली। जिसे देख कर हम दोनो ही हंस पड़े । ‘याद है न इस साड़ी को ओढ़ कर सोना पड़ा था आपको शादी की रात। श्रीमती जी बोली।
‘कैसे भूल सकता हूं। अजीब रिवाज था तुम लोगो का। आज विदा नही होगी।दूल्हे को भी रुकना पड़ेगा। अरे भाई रोका तो बेचारे को ढंग से ओढऩे बिछाने को तो देते। उस हाल में बाकी सब तो अपना बिछा ओढ़ कर सो गए। दूल्हा बेचारा ठंड के मारे कुडकुड़ा रहा है। आखिर तारा बाई को दया आई और उसने ये साड़ी चौघडी करके मेरे बदन पर डाली। ’ शादी की रात के मेरे जख्म हरे हो गए।
बात बात में रिजेक्ट होने वाला पूरा ढेर अपना पाला बदल चुका था ।
‘अरे ये क्या हुआ । हम तो कोई भी साड़ी रिजेक्ट नही कर पाए। लेकिन क्या करें , हर साड़ी के साथ कोई न कोई यादगार जुड़ी है। फेंकने का मन ही नही होता।।’
मेरी दो ढाई घंटे की मेहनत पर पानी फिर रहा था। तभी एक कोने में पड़ी साडिय़ों को देखकर श्रीमती जी बोली ‘अरे वो कौन से साडिय़ां हैं ये तो मैने देखी नही। किसी ने ऐसे ही दी होंगी। बहुत पुरानी भी हो गई हैं। इन्हे चाहें तो रिजेक्ट कर सकते हैं। ’
‘ये साडिय़ां मैने अलग रखी हैं। जहां इतनी साडिय़ां रखी हैं ये तीन और रख लो। ’ मैने कहा।
‘रख लेंगे , लेकिन ये हैं किसकी।’
‘ये मेरी दादी की साड़ी है। पिताजी इसे हमेशा अपने ट्रंक में सबसे नीचे तहा कर रखते थे। एक बार पूछने पर बताया था उन्होंने कि ये साड़ी रहती है तो दादी पास होने का अहसास बना रहता है।’
‘और ये दूसरी?’ श्रीमती जी ने पूछा ।
‘ये मेरी प्यारी ताई जी की साड़ी है जो उन्होंने मेरे जनेऊ में पहनी थी। मेरा और दादा का जनेऊ साथ हुआ था न, तो मेरे संस्कार ताऊ जी ताई जी ने किए थे। ताई जी मजाक में बोली’ मैं आज से तेरी मां बन गई। ‘वो बहुत प्यार करती थी मुझे। उसके कुछ दिन बाद मैं उनसे मांग कर ये साड़ी ले आया था।’
एक और साड़ी कोने में पड़ी थी उपेक्षित सी।
‘ये भी आपने ही सहेज कर रखी होगी। ये किसकी की है?’श्रीमती जी की पूछताछ जारी थी।
‘जहां ये सारी साडिय़ां रखी हैं , इसे भी पड़ी रहने दो।’ मैने उस साड़ी को भी उसी ढेर में मिला दिया और खोली गठरियों को फिर से बांधने लगा। श्रीमती जी भी उन गठरियों को बांधने में मदद कर रही थीं।
‘आपने बताया नही वो आखरी साड़ी किसकी थी।’ गठरी की गांठ बांधते हुए उन्होंने पूछा। मैने उनकी बात को अनसुना कर दिया। क्या बताता , जिसके लिए खरीदी थी वह तो हजारों मील दूर ह्यूस्टन में अपने परिवार के साथ अपनी दुनिया में रम चुकी थी।
‘ दो बज गया , चलो खाना खाते हैं। ’
मैने कहा और गठरी की गठान कस कर बांध दी।
सफाई के उत्साह में तो हम भूल ही गए थे कि साड़ी यानी सिर्फ साढ़े पांच मीटर का कपड़ा नहीं है । वह तो यादों का , परंपराओं का ,इतिहास का संस्कारों का बहुत बड़ा भंडार है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
देश के संविधान ने हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था दी है हालांकि हमारा इतिहास और संस्कृति आदि काल से मुख्यत : अलोकतांत्रिक रही हैं। जिस तरह से यूरोप और अमेरिका में लोगों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात किया है उस तरह भारत और एशिया के लोगों ने नहीं किया। यही कारण है कि लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने न अपने दलों में आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की है और न ठीक से देश के नागरिकों को लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ लेने दिया है। निश्चित रूप से राजनीतिक दल इसके लिए जितने जिम्मेदार हैं हम भारत के नागारिक भी इस बदहाली के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं।
सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की बात करें तो लोकतंत्र के मंदिर में जवाहर लाल नेहरू के समय हल्की फुल्की घुन शुरु हो गई थी जिसके चलते सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे ऊंचे कद के जमीनी नेताओं की जगह कृष्णा मेनन जैसे हवाई नेताओं को ज्यादा अहमियत दी जाने लगी थी। उसी के चलते राम मनोहर लोहिया जैसे नेता को अलग पथ चुनना पड़ा था।इंदिरा गांधी तक पहुंचते पहुंचते कांग्रेस लोकतंत्र का बुरा हाल कर चुकी थी। कभी गांधी नेहरू के करीबी रहे वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण को आपात काल की अलोकतांत्रिक कुव्यवस्था को बदलने के लिए ही समग्र क्रांति का आव्हान करना पड़ा था।आज स्थिति यह है कि राजीव गांधी परिवार के तीनों जीवित सदस्य ही कांग्रेस के सर्वे सर्वा हैं। यही कारण है कि प्रियंका गांधी जो न कांग्रेस संगठन में किसी महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन है और न किसी वार्ड की पार्षद तक हैं, वे कांग्रेस के हर पोस्टर में मौजूद रहती हैं। वर्तमान कांग्रेस की अलोकतांत्रिक परंपरा का यह अपने आप में अकाट्य प्रमाण है।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है वह अटल बिहारी बाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी के जमाने तक काफी हद तक लोकतांत्रिक थी लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के युग में पहुंचकर इस मामले में वह भी कांग्रेस पथ पर अग्रसर है। भाजपा में आजकल विधानसभा चुनावों में भी स्थानीय नेताओं की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने रखा जाता है जो निहायत अलोकतांत्रिक है। यह जग जाहिर है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष जे पी नड्डा की जगह संगठन की कमान गृहमंत्री अमित शाह ही संभालते हैं। भारतीय जनता पार्टी में अलोकतांत्रिकता का विकास कांग्रेस की तुलना में ज्यादा तेजी से हुआ है।
अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन की छत्रछाया में आम आदमी पार्टी जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए खड़ी हुई थी उसने अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में बाल्यावस्था में ही तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों को धता देकर किनारे कर दिया है। जिन प्रमुख लोगों ने इस बहुत तेजी से उभरे दल की नीव रखी थी उनमें से अधिकांश या तो पूत के पांव पालने में देखकर खुद पार्टी से अलग हो गए या तिरस्कृत कर बाहर निकलने के लिए मजबूर किए गए हैं।
जहां तक प्रमुख क्षेत्रीय दलों का प्रश्न है उनकी शुरुआत ही एक व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए होती है चाहे वह महाराष्ट्र की बाल ठाकरे की शिव सेना हो या मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी हो या ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और करुणानिधि की द्रविड़ मुनेत्र कडगम आदि। ऐसे दलों की नीव में ही तानाशाही का म_ा होता है जो लोकतंत्र की हरी घास को पनपने ही नहीं देता।
वामपंथी दलों में जरूर लोकतांत्रिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया भर की गरीबी और आर्थिक विषमताओं के बावजूद हमारे देश मे वामपंथी दलों का विभाजित होकर ह्रास होते जाना बेहद दुर्भाग्यजनक है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आज़ादी के बाद उभरी वामपंथी पीढ़ी भारतीय जन जीवन के बजाय रूस और चीन की क्रांतियों से ज्यादा प्रभावित रही है। वाम दल भी भारत के संविधान में प्रदत्त लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात नही कर पाए। लगता है हमारे लोकतंत्र के पौधे को वट वृक्ष बनने के लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा।
CEO of IndiGo Airlines, the so-called cheap airline in India, after arriving at a hotel in Mumbai, went to the bar and asked for a pint of Guinness.
The barman nodded and said, "That will be ?50 please, Mr. Bhatia."
Somewhat taken aback, the CEO (Rahul Bhatia) replied, "That's very cheap," and handed over his money.
"Well, we do try to stay ahead of the competition", said the barman. "And we are serving free pints every Wednesday from 6pm until 8pm. We have the cheapest beer in Mumbai."
"That is a remarkable value!" Rahul comments.
"I see you don't seem to have a glass, so you'll probably need one of ours. That will be ?150 please."
Rahul scowled but paid up.
He took his drink and walked towards a seat. "Ah, you want to sit down?" said the barman. "That'll be an extra ?150. You could have pre-booked the seat and it would have only cost you ?100."
"I think you may be too big for the seat sir, can I ask you to sit in this frame please."
Rahul attempts to sit down, but the frame is too small and when he can't squeeze in he complains, "Nobody would fit in that little frame".
"I'm afraid if you can't fit in the frame, you'll have to pay an extra surcharge of ?250 for your seat, Sir."
Rahul swore to himself, but paid up.
"I see that you have brought your laptop with you," added the barman. "And since that wasn't pre-booked either, that will be another ?300."
Rahul was so incensed that he walked back to the bar, slammed his drink on the counter and yelled, "This is ridiculous, I want to speak to the manager!"
"I see you want to use the counter.." says the Barman, "that will be ?200 please."
Rahul's face was red with rage. "Do you know who I am?"
"Of course I do, Mr. Bhatia!"
"I've had enough! What sort of hotel is this? I come in for a quiet drink and you treat me like this? I insist on speaking to a Manager!"
"Here is his E-mail address, or if you wish, you can contact him between 9.00am and 9.01am every morning, Monday to Tuesday at this toll free phone number. Calls are free, until they are answered, then there is a talking charge of only ?10 per second, or part thereof."
"I will never use this bar again!!" hollers Mr. Bhatia.
"OK Sir, but remember, we are the only star hotel in Mumbai selling pints for ?50."
And that my friends, is how IndiGo works in India!! (from Facebook)
सुशीला सिंह
पिछले कुछ दिनों से आप अखबारों, टीवी न्यूज और सोशल मीडिया पर डीपफेक या डीपफेक वीडियो के बारे में बार-बार सुन-देख रहे होंगे। डीपफेक तकनीक के शिकार होने के मामले लगातार सामने आ रहे हैं।
इस तकनीक के गलत इस्तेमाल से जहां आम लोग प्रभावित हो रहे हैं, वहीं हाल के दिनों में सेलिब्रिटीज के भी कई डीपफेक वीडियो वायरल हुए हैं।
इस कड़ी में फि़ल्म अभिनेत्री रश्मिका मंदाना, काजोल, कटरीना का नाम सामने आया वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गरबा करते हुए वायरल हुए वीडियो ने सब को चौंका भी दिया कि क्या ये सच है? लेकिन ये डीपफेक के मामले केवल भारत तक सीमित हो ऐसा नहीं है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर फे़सबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है के प्रमुख मार्क जक़रबर्ग भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। ये सभी वीडियो जो आपने देखें हैं ये सभी डीपफ़ेक हैं।
डीपफेक है क्या?
डीपफेक दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) का इस्तेमाल करता है जिसके जरिए किसी की भी फेक (फर्जी) इमेज या तस्वीर बनाई जाती है।
इसमें किसी भी तस्वीर,ऑडियो या वीडियो को फेक(फर्जी) दिखाने के लिए एआई के एक प्रकार डीप लर्निंग का इस्तेमाल होता है और इसलिए इसे डीपफेक कहा जाता है। इसमे से ज़्यादातर पोर्नाग्राफिक या अश्लील होते हैं।
एम्सटर्डम स्थित साइबर सिक्सयोरिटी कंपनी डीपट्रेस के मुताबिक 2017 के आखिर में इसकी शुरुआत के बाद डीपफेक़ का तकनीकी स्तर और इसके सामाजिक प्रभाव में तेज़ी से विकास हुआ।
डीपट्रेस की साल 2019 में छपी इस रिपोर्ट के मुताबिक कुल 14,678 डीपफेक वीडियो ऑनलाइन थे। इनमें से 96 फीसदी वीडियो पोर्नोग्राफिक सामग्री थी और चार फीसदी ऐसे थे जिनमें ये सामग्री नहीं थी।
डीपट्रेस ने जेंडर, राष्ट्रीयता और पेशे के आधार पर जब डीपफेक वीडियो का आकलन किया तो पाया कि डीपफेक पोर्नोग्राफी का इस्तेमाल महिलाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जाता है। वहीं डीपफेक पोर्नोग्राफी वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है और इन पोर्नोग्राफी वीडियो में मनोरंजन जगत से जुड़ी अभिनेत्रियों और संगीतकारों का इस्तेमाल किया गया था।
वकील पूनीत भसीन कहती हैं कि कुछ साल पहले सुली और बुली बाई के मामले सामने आए थे जिनमें महिलाओं को टारगेट किया गया था। लेकिन डीपफेक में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों की भी टारगेट किया गया है। ये अलग बात है कि ज्यादातर मामलों में पुरुष ऐसे फर्जी सामग्री को दरकिनार कर देते हैं।
मुंबई में रहने वाली पुनीत भसीन साइबर लॉ और डेटा प्रोटेक्शन प्राइवेसी की एक्सपर्ट हैं और वे मानती है कि डीपफेक अब समाज में दीमक की तरह से फैल रहा है।
वे कहती हैं, ‘पहले भी लोगों की तस्वीरों को मॉर्फ किया जाता था लेकिन वो पता चल जाता था लेकिन एआई के जरिए जो डीपफेक किया जा रहा है वो इतना परफेक्ट (सटीक) होता है कि सही या गलत में भेद कर पाना मुश्किल होता है। ये किसी के शील का अपमान करने के लिए काफी होता है।’ जानकार बताते हैं कि ये तकनीक इतनी विकसित है कि वीडियो या ऑडियो रियल या वास्तविक नजर आता है।
लेकिन क्या ये केवल वीडियो तक सीमित हैं?
ये तकनीक केवल वीडियो में ही उपयोग में नहीं लाई जाती बल्कि फोटो को भी फेक दिखलाया जाता है और ये पता लगाना इतना मुश्किल होता है कि असल नहीं बल्कि फर्जी है।
वहीं इस तकनीक के ज़रिए ऑडियो का भी डीपफेक किया जाता है। बड़ी हस्तियों की आवाज बदलने के लिए वॉयस स्किन या वॉयस क्लोन्स का इस्तेमाल किया जाता है।
साइबर सिक्योरिटी और एआई विशेषज्ञ पवन दुग्गल कहते हैं, ‘डीपफेक-कंप्यूटर, इलेक्ट्रानिक फॉरमेट और एआई का मिश्रण है। इसे बनाने के लिए किसी तरह के प्रशिक्षण की जरुरत नहीं होती। इसे मोबाइल फोन के जरिए भी बनाया जा सकता है जो एप और टूल के जरिए बनाया जा सकते हैं।’
कौन कर रहा है डीपफेक का उपयोग?
एक सामान्य कंप्यूटर पर अच्छा डीपफेक बनाना मुश्किल है। डीपफ़ेक एक उच्च-स्तरीय डेस्कटॉप पर बेहतरीन फोटो और ग्राफिक्स कार्ड के ज़रिए बनाया जा सकता है।
पवन दुग्गल बताते हैं कि इसका ज़्यादातर इस्तेमाल साइबर अपराधी कर रहे हैं।
वे बताते हैं, ‘ये लोगों के अश्लील वीडियो बनाते हैं और फिर ब्लैक मेल करके फिरौती के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। किसी व्यक्ति की छवि को खऱाब करने के लिए सोशल मीडिया पर डाल देते हैं और इसका उपयोग ख़ासकर सेलीब्रिटीज, राजनीतिज्ञों और बड़ी हस्तियों को नुकसान करने के लिए किया जा रहा है।’
इसका एक और कारण बताते हुए पुनीत भसीन कहती हैं कि लोग ऐसे वीडियो इसलिए भी बनाते हैं क्योंकि ऐसे वीडियो ज़्यादा लोग देखते हैं और उनके व्यू बढ़ते हैं और इससे उनका फायदा होता है।
वहीं पवन दुग्गल ये अशंका जताते हैं कि डीपफेक का इस्तेमाल चुनावों को भी प्रभावित कर सकता है।
उनके अनुसार, ‘राजनेताओं के डीपफेक वीडियो बनाए जा सकते हैं, इससे न केवल उनकी छवि को धूमिल किया जा सकता है लेकिन पार्टी की जीत की संभवनाओं पर भी असर पड़ सकता है।’
चुनावों में डीपफ़ेक वीडियो के उपयोग की बात की जाए तो दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने एआई का इस्तेमाल करके पार्टी नेता मनोज तिवारी के डीपफेक वीडियो बनाए थे। इसमें दिखाया गया था कि वो मतदाताओ से दो भाषाओं में बात करके वोट डालने की अपील कर रहे थे।
इस डीपफेक वीडियो में वे हरियाणवी और हिंदी में लोगों से वोट डालने की अपील कर रहे थे।
कानून में क्या है प्रावधान?
भारतीय जनता पार्टी के दिवाली समारोह में प्रधानमंत्री ने एआई का इस्तेमाल कर डीपफेक बनाने पर चिंता जाहिर की थी।
उन्होंने कहा था, ‘डीपफेक भारत के सामने मौजूद सबसे बड़े खतरों में से एक है। इससे अराजकता पैदा हो सकती है।’
केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव कह चुके है कि सरकार जल्द ही डीपफेक पर सोशल मीडिया से चर्चा करेगी और अगर इन मंचों ने उपयुक्त कदम नहीं उठाए तो उन्हें आईटी अधिनियम के सेफ हार्बर के तहत इम्यूनिटी या सरंक्षण नहीं मिलेगा।’
उन्होंने ये भी कहा कि डीपफेक के मुद्दे पर कंपनियों को नोटिस भी जारी किया गया था और इस सिलसिले में उनके जवाब भी आए हैं।
डीपफेक के मामले सामने आने के बाद इस बात पर बहस तेज हो गई है कि क्या कड़े कानून बनाने की जरूरत है?
वकील पुनीत भसीन कहती हैं कि भारत में आईटी एक्ट के तहत सज़ा का प्रावधान हैं।
वहीं पिछले साल इस सिलसिले में इंटरमिडियरी गाइडलाइन्स भी आई थी जिसमें कहा गया था कि ऐसी सामग्री जिसमें नग्नता, अश्लीलता हो और अगर किसी की मान, प्रतिष्ठा को नुकसान हो रहा हो तो ऐसी सामग्री को लेकर किसी भी प्लेटफॉर्म को शिकायत जाती है तो उन्हें तुरंत हटाने के दिशानिर्देश हैं।
वे कहती हैं, ‘पहले ये प्लेटफॉर्म कहते थे कि वे अमेरिका या जिस देश में है वहां के स्थानीय कानून द्वारा नियमित है। लेकिन अब ये कंपनियां एफआईआर दर्ज कराने के लिए कहती है और फिर सामग्री को प्लेटफॉर्म से हटाने के लिए कोर्ट के ऑर्डर की मांग करती हैं।’
वे आईटी मंत्री के कंपनियों को इम्यूनिटी देने के मामले पर कहती हैं, ‘आईटी एक्ट के सेक्शन 79 के एक अपवाद के तहत कंपनियों को सरंक्षण मिलता था। अगर किसी प्लेटफॉर्म पर सामग्री किसी तीसरी पार्टी ने अपलोड की है लेकिन प्लेटफॉर्म ने सामग्री को सरकुलेट नहीं किया है तो ऐसे में प्लेटफॉर्म को इम्यूनिटी मिलती थी और माना जाता था कि प्लेटफॉर्म जिम्मेदार नहीं है।’
लेकिन इंटरमिडियरी गाइडलाइंस में ये स्पष्ट किया गया कि प्लेटफॉर्म के शिकायत अधिकारी के पास सामग्री को लेकर ऐसी शिकायत आती है तो और कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो सेक्शन 79 के अपवाद के तहत इम्यूनिटी नहीं मिलेगी और इस प्लेटफॉर्म के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई होगी।
ऐसे में जिसने सामग्री प्लेटफॉर्म पर डाली है उसके खिलाफ तो मामला बनेगा ही वहीं जिस प्लेटफॉर्म पर अपलोड किया गया उसके खिलाफ भी सजा होगी।
भारत के आईटी एक्ट 2000, के सेक्शन 66 ई में डीपफ़ेक से जुड़े आपराधिक मामलों के लिए सजा का प्रावधान किया गया है।
इसमें किसी व्यक्ति की तस्वीर को खींचना, प्रकाशित और प्रसारित करना, निजता के उल्लंघन में आता है और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता हुआ पाया जाता है तो इस एक्ट के तहत तीन साल तक की सज़ा या दो लाख तक के ज़ुर्माना का प्रावधान किया गया है।
वहीं आईटी एक्ट के सेक्शन 66 डी में ये प्रावधान किया गया है कि अगर कोई किसी संचार उपकरण या कंप्यूटर का इस्तेमाल किसी दुर्भावना के इरादे जैसे धोखा देने या किसी का प्रतिरुपण के लिए करता है तो ऐसे में तीन साल तक की सजा या एक लाख रुपए तक के ज़ुर्माने का प्रावधान है।
भारत के आईटी एक्ट 2000 , के सेक्शन 66 ई में डीपफेक से जुड़े आपराधिक मामलों के लिए सज़ा का प्रावधान किया गया है।
कैसे जानें डीपफेक के बारे में?
किसी भी डीपफेक सामग्री को जानने के लिए कुछ बिंदुओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।
आंखों को देखकर-अगर कोई वीडियो डीपफ़ेक है तो उसमें लगा चेहरा पलक नहीं झपक पाएगा।
होठों को ध्यान से देखकर-डीपफेक वीडियो में होठों के मूवमेंट और बातचीत में सामंजस्य नहीं दिखाई देगा।
बाल और दांत के जरिए-डीपफेक में बाल के स्टाइल से जुड़े बदलाव को दिखाना मुश्किल होता है और दांत को देखकर भी पहचाना जा सकता है कि वीडियो डीपफेक है।
जानकारों का मानना है कि डीपफेक एक बड़ी समस्या है और इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून बनाए जाने की जरूरत है नहीं तो भविष्य में इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। (bbc.com)