विचार/लेख
ध्रुव गुप्त
हिन्दी में व्यवसायिक स्तर पर निकलने और आम लोगों तक पहुंचने वाली एक भी साहित्यिक पत्रिका या अखबार नहीं हैं। राजनीति और खबरों पर केंद्रित जो भी बड़ी पत्र-पत्रिकाएं हैं, उनमें साहित्य का उपयोग फिलर के तौर पर ही होता रहा है। एक-दो को छोडक़र जो हज़ारों लघु साहित्पिक पत्रिकाएं हैं, वे बहुत कम प्रतियों में निकलती हैं और लेखकों तथा स्थापित साहित्यकारों के बीच ही बंट जाती हैं। आम लोगों तक उनकी पहुंच नहीं है। उन्हें लेखक ही निकालते हैं, लेखक ही पढ़ते हैं और लेखक ही उनका मूल्यांकन करते हैं। कोई रचनाकार अगर आम पाठकों तक पहुंचना चाहता है तो फेसबुक आज उसके लिए सबसे बड़ा और कारगर मंच है। समस्या यह है कि ज्यादातर लेखक इस मंच का सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। जो बड़े लेखक हैं वे इससे जुड़े तो हैं, लेकिन रचनात्मक तौर पर सक्रिय नहीं हैं। उन्हें यह मंच शायद अपने यश और क़द के अनुरूप नहीं लगता। यह भी संभव है कि उन्हें आम पाठकों का सामना करने के ख्याल से शायद डर लगता हो। प्रायोजित आलोचना, चर्चाओं और पुरस्कारों के बल पर खुद को तोप समझने वाले तमाम लेखकों की अग्निपरीक्षा भविष्य में यहीं होने वाली है। नए लेखक इस मंच पर सक्रिय तो हैं, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि यहां दुरूह, यांत्रिक और बोझिल साहित्य नहीं चलेगा। यहां चलेगा वही जो लोगों की खुशियों, व्यथाओं, भावनाओं से टकराकर पाठकों से संवेदनात्मक रिश्ता कायम करने में सफल है। छपी हुई किताबों का अस्तित्व तो बना रहेगा, लेकिन यह अब तय लगने लगा है कि फेसबुक साहित्यिक पत्रिकाओं को विस्थापित कर साहित्य का सबसे व्यापक और कारगर मंच बनने वाला है ! आखिर पत्रिकाओं में छपे साहित्य को ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्हें फिर से फेसबुक पर पोस्ट तो करना ही पड़ रहा है न !
हमें सोशल मीडिया को सस्ते या लोकप्रिय साहित्य का वाहक बताकर खारिज़ करने के बज़ाय साहित्य की व्यापक पहुंच के लिए इसका कारगर उपयोग सीखने और करने की जरूरत है।
सलमान रावी
बुधवार को मध्य प्रदेश में मोहन यादव की बतौर मुख्यमंत्री ताजपोशी हो गई और सबसे लंबे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान की विदाई। लगभग 18 सालों के बाद उनके कार्यकाल का ये अंत था।
हालांकि 2018 में वो इस पद से तब हटे थे, जब कांग्रेस की सरकार बनी थी, लेकिन 2020 में उन्होंने फिर से बागडोर संभाल ली थी।
शपथ ग्रहण समारोह के अगले दिन यानी गुरुवार को शिवराज सिंह चौहान ही चर्चा का विषय बने रहे। कारण था, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर उनका बायो।
पहले उसपर लिखा था, ‘मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री’। लेकिन गुरुवार को उन्होंने उसे बदल दिया। अब उनके बायो में लिखा है ‘भाई और मामा’ ‘मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री’।
शपथ ग्रहण समारोह से एक दिन पहले उन्होंने कार्यकर्ताओं से बात करते हुए कबीर के भजन का एक अंश पढ़ कर सुनाया और कहा, ‘जस की तस धर दीन्ही चदरिया’।
जानकार कहते हैं कि वो ये कहना चाह रहे होंगे कि जिस तरह से उन्हें राज काज मिला था, उसी तरह उन्होंने उसे लौटा भी दिया।
मगर सबसे ज़्यादा चर्चा में उनका वो बयान आया जो उन्होंने विदाई से पहले मुख्यमंत्री आवास में आयोजित अपनी आखिरी प्रेस वार्ता के दौरान दिया था।
पत्रकारों द्वारा उनसे पूछा गया था कि ‘जब मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सभी दिग्गज दिल्ली के चक्कर काट रहे थे और वहां पर जमे रहे ऐसे में उनके दिल्ली न जाने को क्या समझा जाए?
इस पर उनका जवाब था, ‘अपने लिए कुछ मांगने जाने से बेहतर मैं मरना पसंद करूंगा। वह मेरा काम नहीं है। इसलिए मैंने कहा था, मैं दिल्ली नहीं जाऊंगा।’
‘राजनीतिक अज्ञातवास’ की दस्तक
उससे भी पहले यानी परिणामों के अगले दिन वो राघोगढ़ में कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की एक सभा को संबोधित कर रहे थे।
तब उन्होंने जो कहा था उससे साफ़ हो गया था कि उन्हें ‘राजनीतिक अज्ञातवास’ की दस्तक सुनाई देने लगी है।
उन्होंने कहा था, ‘मामा और भैया से बड़ा कोई पद नहीं है। मेरे भांजे-भांजियों, मुझे लगता है हर एक को कैसे मैं सीने से लगाऊं। माथा चूमूँ। उनको प्यार करूँ और उनकी जि़ंदगी कैसे बेहतर बना पाऊं।’
‘24 घंटे केवल एक ही सोच दिमाग़ में रहती है। ये अपना परिवार है। मामा और भैया का जो पद है, वो दुनिया में किसी भी पद से बड़ा पद है, इससे बड़ा पद कोई नहीं है।’
राजनीतिक ढलान का वक्त?
बात इस साल 21 अगस्त की है, जब बीजेपी के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री अमित शाह भोपाल के दौरे पर आए हुए थे। इस दौरान उन्होंने शिवराज सरकार का ‘रिपोर्ट कार्ड’ भी जारी किया।
इस आयोजन के दौरान पत्रकारों से हुई बातचीत में जब उनसे पूछा गया कि आगामी विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा?
अमित शाह ने इसके जवाब में जो कहा उसके बाद से ही अटकलें लगाई जाने लगीं कि क्या शिवराज सिंह चौहान की राजनीति अब ढलान पर है?
अमित शाह ने कहा था, ‘शिवराज जी अभी मुख्यमंत्री हैं ही। चुनाव के बाद मुख्यमंत्री कौन होगा, ये पार्टी का काम है और पार्टी ही तय करेगी।’
बस यहीं से संकेत मिलने लगे थे कि भारतीय जनता पार्टी मध्य प्रदेश में अब तक के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले शिवराज सिंह चौहान का विकल्प ढूंढ रही है।
वरिष्ठ पत्रकार रवि दूबे मानते हैं कि उम्मीदवारों की पहले की तीन सूचियों में शिवराज सिंह चौहान का नाम नहीं आया था।
उनका नाम चौथी लिस्ट में आया और उन्हें अपने गृह क्षेत्र बुधनी से उम्मीदवार बनाया गया था।
प्रचार के दौरान वो अपने द्वारा महिलाओं को केंद्रित कर शुरू की गई योजना को लेकर ज़ोर शोर से प्रचार में लग गए थे।
पोस्टरों से गायब चौहान
वरिष्ठ पत्रकार रवि दूबे कहते हैं, ‘उनको भी संकेत मिलने लगे थे कि उन्हें बेशक आखरी क्षणों में उम्मीदवार बनाया गया हो, लेकिन वो मुख्यमंत्री तो किसी क़ीमत पर दोबारा नहीं बनेंगे।’
‘इसलिए अपनी सभाओं में वो लोगों और ख़ास तौर पर उन्हें सुनने आईं, उनके चुनावी क्षेत्र की महिलाओं से सवाल पूछते थे, ‘मैं चुनाव लड़ूं या नहीं लड़ूं? या मैं मुख्यमंत्री फिर से बनूँ या नहीं?’
दूबे कहते हैं, ‘एक बार तो बुधनी विधानसभा क्षेत्र की एक सभा में वो भावुक हो गए और उन्होंने कहा- मैं चला जाऊंगा तो बहुत याद आऊँगा।’
दूबे की तरह कुछ एक राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि शिवराज सिंह चौहान को ऐसा नहीं कहना चाहिए था।
लेकिन जो घटना भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के संज्ञान में आई, वो थी 13 दिसम्बर को आयोजित शपथ ग्रहण समारोह की, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा के अलावा कई भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद थे।
इस समारोह में जब शिवराज सिंह चौहान आए तो उनके समर्थकों ने ‘मामा मामा’ के नारे लगाने शुरू कर दिए।
इसका असर मध्य प्रदेश में अधिकांश जगहों में देखने को मिलने लगा है, जब शिवराज सिंह चौहान का नाम और चेहरा भाजपा के पोस्टरों से ग़ायब हो गया।
कुछ पोस्टरों में प्रदेश के हारे हुए गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा की तस्वीरें हैं। लेकिन चौहान की नहीं।
उतावलापन या इंतज़ार
‘दैनिक सांध्य प्रकाश’ के सम्पादक संजय सक्सेना को लगता है कि शिवराज सिंह चौहान ने अगर उतावलापन प्रकट किया तो ये उनके राजनीतिक भविष्य के लिए एक अड़चन के रूप में भी आ सकता है।
इसलिए वो मानते हैं कि सबसे बेहतर यही होगा कि वो कुछ समय के लिए नियति से समझौता कर लें और संगठन के फैसले का इंतज़ार करें कि उन्हें क्या जि़म्मेदारी सौंपी जा रही है।
उनका कहना है, ‘उनके सलाहकारों को भी चाहिए कि वो कुछ दिन अवकाश ले लें और अनावश्यक सलाह न दें या उनकी तरफ़ से सोशल मीडिया पर अनावश्यक पोस्ट ना डालें। ये दौर उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी समय तय हो जाएगा कि उनका भविष्य क्या होने वाला है।’
मगर कई वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि शिवराज सिंह चौहान को बड़ी जि़म्मेदारी दी जा सकती है।
इनमे से एक हैं रमेश शर्मा जिन्होंने सत्तर के दशक से अविभाजित मध्य प्रदेश में पत्रकारिता की है। शर्मा ने भाजपा के कई बड़े नेताओं का शीर्ष काल भी देखा है और उनका ढलान भी।
शिवराज सिंह के लिए दो संभावनाएं
रमेश शर्मा दो संभावनाओं की चर्चा करते हुए कहते हैं कि या तो शिवराज सिंह चौहान को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल सकती है क्योंकि अभी तीन से चार केंद्रीय मंत्रियों के इस्तीफ़े भी हो चुके हैं।
इनमें मध्य प्रदेश के ही कद्दावर नेता और केंद्रीय कृषि मंत्री रहे नरेंद्र सिंह तोमर हैं जिन्हें अब विधानसभा का अध्यक्ष बनाया गया है। हालांकि केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा को उनके मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है, मगर संभावना है कि ये मंत्रालय शिवराज को देकर उन्हें केंद्र की राजनीति में बुलाया जा सकता है।
शर्मा के अनुसार, ‘कुछ बड़े नेता जैसे कैलाश विजयवर्गीय बेशक इसे नकारते हों लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी ने इन्हीं के जैसी योजनाओं को अपने घोषणा पत्र में शामिल किया है।’
‘जैसे छत्तीसगढ़ में ‘महतारी वंदना योजना’ और राजस्थान में ‘माता वंदना योजना।’ इन योजनाओं का अनुसरण मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई योजनाओं से किया गया है।’
वो कहते हैं कि हो सकता है कि लोकसभा के चुनावों के लिए उनकी ऐसी भूमिका तय की जाए ताकि वो राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में लोकसभा की सीटें जीतने के लिए अपने हिसाब से लोगों के बीच जाएं।
‘उमा भारती से अलग हैं शिवराज’
जहां तक बात शिवराज सिंह की आखऱी पत्रकार वार्ता में उनके बयान को लेकर उठे सवाल की है तो विश्लेषक कहते हैं कि मीडिया में सिफऱ् उसका छोटा हिस्सा ही वायरल हुआ जबकि उन्होंने आगे भी काफ़ी कुछ कहा था। जैसे उन्होंने कहा, ‘मैं आज साफ़ कर रहा हूँ कि एक साधारण कार्यकर्ता को 18 साल मुख्यमंत्री बनाकर रखा भारतीय जनता पार्टी ने। पार्टी ने सब कुछ दिया। अब मुझे भारतीय जनता पार्टी को देने का वक़्त आ गया है।’
रमेश शर्मा कहते हैं कि जो बाद के दिनों में पार्टी ने उम्मीदवारों की सूची जारी की थी उसमें ज़्यादातर उम्मीदवारों के नाम शिवराज सिंह चौहान ने ही तय किये थे।
इसलिए उनका मानना है कि शिवराज अब भी महत्वपूर्ण भूमिका में ही रहेंगे और उनका हश्र वैसा नहीं होगा जैसा उमा भारती का हुआ था।
वरिष्ठ पत्रकार रवि दूबे कहते हैं कि उमा भारती की ग़लती ये थी कि उन्होंने ख़ुद को संगठन से ऊंचा समझा था और बग़ावत के तेवर ही अपने रखे थे।
उन्होंने अलग पार्टी ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ बना ली थी, लेकिन उन्हें वापस भाजपा में लौटना पड़ा।
दूबे के अनुसार, ‘लेकिन शिवराज सिंह चौहान का व्यक्तित्व ठीक उलट हैं। वो अपने आपको सहज और विनम्र व्यक्तित्व वाले नेता के रूप में ही प्रस्तुत करते आए हैं और लोकप्रिय भी हैं।
‘इसलिए उन्हें किनारे बैठाने की कोई ज़रूरत भी पार्टी को नहीं होगी। उन्होंने अपनी उपयोगिता बनायी रखी है।’(bbc.com/hindi)
विष्णु नागर
एक शायर हुआ करते थे-शौक बहराइची।उनका एक शेर बहुत मशहूर है। लोग, शेर को तो बहुत जानते हैं मगर शौक बहराइची को लगभग नहीं। वह 1964 में इंतकाल फरमा गए थे, इसलिए उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग उन्हें नहीं ,उनके एक शेर को जानते हैं और बहुत अधिक जानते हैं।यह शेर एक मुहावरा बन चुका है-
बर्बाद गुलिस्तां करने को
बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख पे उल्लू बैठा है
अंजाम ए गुलिस्तां क्या होगा।
हर शाख पे उल्लू उनके समय तक बैठ चुके थे मगर गुलिस्तां बचा हुआ था।डर था कि ये
बर्बाद हो जाएगा और समय के साथ उनका डर सच साबित हुआ।वे भविष्यदृष्टा साबित हुए।
तब इतने सारे उल्लूओं के बावजूद पाकगुलिस्तां बचा हुआ था क्योंकि तब शौक बहराइची जैसे शायर थे, आलादर्जे के इंटेलेक्चुअल, राइटर-पेंटर, फिल्म बनानेवाले, भविष्य के बारे में फिक्रमंद कलाकार हुआ करते थे। नेता, तब नेता हुआ करते थे, इंवेट मैनेजर नहीं, इसलिए एक शायर की चेतावनी के बाद कड़ा एक्शन लिया गया। गुलिस्तां बच गया, हालांकि उल्लू कभी अपने मकसद को भूले नहीं।वे आते-जाते रहे।मौके की ताक में बैठे रहे।हर शाख पर बैठे, गुलिस्तां को थोड़ा -थोड़ा बर्बाद करते रहे, पूरा उजाडऩे के अवसर का धीरज से इंतजार करते रहे! और उनका सुनहरा वक्त भी आ गया, उनके अच्छे दिन भी आ गए। उल्लुओं ने पूरा गुलिस्तां बर्बाद करके दिखा दिया। इतना ज्यादा बर्बाद किया कि स्यापा करने के लिए भी कुछ नहीं छोड़ा।न लोग ऐसे बचे थे कि कुछ कर सकें,उल्लुओं से इतना तक कह सकें कि महाराज अब तो आप अपना काम कर चुके न!अब तो खुश हैं न,तो अब पधार जाइए, चाहें तो हमसे धन्यवाद भी लेते जाइए। बर्बाद गुलिस्तां की हर शाख पर बैठ कर भी अब तुम्हें मिलेगा क्या?बाबाजी का ठुल्लू?
उल्लू चुप रहे, बैठे रहे!उल्लुओं ने कोई जवाब नहीं दिया।
पता चला कि वे यहां इसलिए बैठे हैं कि अपनी इस उपलब्धि पर गर्व कर सकें।यह कह सकें - गर्व से कहो , हम उल्लू हैं।दुनिया को दिखा सकें कि यह गुलिस्तां हमने उजाड़ा है, यह ऐतिहासिक और महान काम हमने किया है।हम बहादुर हैं, हम जैसा बहादुर पिछले सत्तर सालों में कोई नहीं हुआ!हमें सम्मान दो, इज्जत दो।अपना भविष्य हमें सौंप दो!
शायर तो कह गया था कि एक ही उल्लू पूरे गुलिस्तां को बर्बाद करने के लिए काफी है मगर यहां तो अनगिनत थे।हर शाख पर बैठे थे। सब एक से बढक़र एक थे! अकेला बेचारा बर्बाद कर करके थक जाएगा , यह सोचकर इन सबने मिलकर ठानी थी कि अकेले पर बोझ बहुत न पड़ जाए, इसे हम-सब मिलकर हल्का करना चाहिए। असली मकसद यह था कि बर्बादी का सारा श्रेय एक अकेला उल्लू लूट न ले जाए, वह बोम न मारे कि गुलिस्तां उजाडऩे का यह काम, अकेले उसने किया है!
वे इसलिए भी बैठे रहे कि उन्हें शंका थी कि गुलिस्तां को फिर से गुलिस्तां बनाने को आतुर बहुत से लोग आसपास दिखाई दे रहे हैं।वे गुलिस्तां को फिर से गुलिस्तां बनाने के लिए बैठे हैं, बैठे रहे , इंतजार करते रहे।उल्लुओं की एकता के आगे उनकी एक न चली!
ध्रुव गुप्त
जौन एलिया का शुमार बीसवीं सदी के उत्तरार्ध्द के कुछ महान शायरों में होता है। उन्हें अपने पूर्ववर्ती और समकालीन शायरों से अलग अभिव्यक्ति का एक बिल्कुल अलग अंदाज़ और जुदा तेवर विकसित करने के लिए जाना जाता है। प्रेम के टूटने की व्यथा, अकेलेपन और अजनबीयत के गहरे एहसासात उनकी शायरी में जिस तीखेपन के साथ व्यक्त हुए हैं, उनसे गुजऱना बिल्कुल अलग एहसास है। सीधे-सरल शब्दों में बड़ी से बड़ी और जटिल से जटिल बात कह देने का हुनर उन्हें आता था। अपनी फक्कड तबियत, अलमस्तजीवन जीवन शैली, हालात से समझौता न करने की आदत और समाज के स्थापित मूल्यों के साथ अराजक हो जाने तक उनकी तेज-तल्ख़ झड़प ने उन्हें जि़न्दगी में अकेला तो किया, लेकिन लेखन में धार भी बख्शी। कभी-कभी यह धार कलेजे को चीरती हुई निकल जाती है। उनकी शायरी में जो अवसाद और अकेलापन है, उसकी वज़ह उनकी निज़ी जि़न्दगी में खोजी जा सकती है। पाकिस्तान की एक सुप्रसिद्ध पत्रकार जाहिदा हिना से प्रेम विवाह और अप्रिय स्थितियों में तलाक के बाद एलिया ने न सिर्फ ख़ुद को शराब में डुबोया, बल्कि अपने को बर्बाद करने के नए-नए बहाने और तरीक़े इज़ाद करने लगे।एक लंबी बीमारी के बाद बेहद त्रासद परिस्थितियों में 2002 में उनका निधन हुआ। आज मरहूम जौन एलिया के यौमे पैदाईश पर खेराज-ए-अक़ीदत, उनकी एक गज़़ल के चंद अशआर के साथ !
ख़ामोशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मेरे गुमान में क्या
अब मुझे कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान में क्या
बोलते क्यों नहीं मेरे हक़ में
आबले पड़ गये ज़बान में क्या
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या
यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
ये मुझे चैन क्यूं नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था ज़हान में क्या
प्रियंका झा
बीजेपी ने चौंकाने वाली पुरानी परंपरा को बरकरार रखते हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नए सीएम पदों के चेहरों का एलान कर दिया है।
शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं को चुनने की बजाय पार्टी ने मोहन यादव, भजन लाल शर्मा और विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री के पद दिए हैं।
बीजेपी ने सप्ताह भर से अधिक चले मंथन के बाद इन तीनों नामों पर मुहर लगाई। मध्य प्रदेश और राजस्थान में पार्टी ने दो-दो डिप्टी सीएम भी बनाए हैं।
बीजेपी के इन चुनावों को 2024 के लिए उसकी बड़ी रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।
जानकारों का मानना है कि पार्टी ने इन पदों पर जो लोग चुने हैं उसके ज़रिए जातिगत समीकरणों को भी साधने की कोशिश की है, ताकि विपक्ष जाति को लोकसभा चुनाव में हथियार की तरह इस्तेमाल न कर सके।
इसके साथ ही ये अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के समय में चुने गए मुख्यमंत्रियों का दौर ख़त्म होने का भी संकेत देता है।
हालांकि, चुनावों के पहले ही तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों को बीजेपी ने ये संकेत देने शुरू कर दिए थे कि अब नए चेहरों को जि़म्मेदारी दी जाएगी।
जानकारों का मानना है कि पार्टी ने इन राज्यों के विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्रियों के नाम पर नहीं लड़ा। बल्कि सारा अभियान पीएम मोदी और उनकी गारंटियों पर केंद्रित रहा।
दूसरा ये कि बीजेपी ने कई सांसदों को इन राज्यों का विधानसभा चुनाव लड़वाया, और नतीजों के बाद जीतने वालों से इस्तीफ़ा लिया।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि बड़े नेताओं को साइडलाइन कर उनकी जगह नए चेहरों पर दांव लगाकर भारतीय जनता पार्टी क्या हासिल करना चाहती हैं और इससे क्या संकेत देने की कोशिश की जा रही है?
2024 चुनावों की तैयारी या फिर वजह कुछ और?
मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत में ओबीसी समुदाय के वोटरों की बड़ी भूमिका रही है। यहां कांग्रेस जातीय जनगणना और आरक्षण जैसे मुद्दों के सहारे ओबीसी को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रही थी।
लेकिन 2018 की तुलना में बीजेपी अधिक ओबीसी वोट पाने में सफल रही। मोहन यादव के चुनाव को इसी का परिणाम माना गया।
वहीं, छत्तीसगढ़, राजस्थान और एमपी तीनों राज्यों में बीजेपी को इस बार आदिवासी इलाकों से अच्छी-खासी तादाद में लोगों ने वोट किया। पार्टी ने इन राज्यों की कुल 101 एसटी सीटों में से 56 फीसदी पर जीत हासिल की।
छत्तीसगढ़, जहां 90 में से 29 सीटें एसटी बहुल हैं, वहां पार्टी का असर सबसे अधिक रहा। 2018 में बीजेपी ने सिफऱ् 3 सीटें जीती थीं, जो इस बार 17 तक पहुंच गईं। पिछड़ी जनजातियां यानी एससी की देश में कुल आबादी करीब 9 फ़ीसदी है।
इसी को रेखांकित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामाशेषण सीएम पद के चेहरों के चुनाव पर बीजेपी की रणनीति को समझाते हुए कहती हैं, ‘पार्टी ये संदेश देना चाह रही है कि उन्हें इन तीन राज्यों में जो समर्थन मिला है, वह सिफऱ् मज़बूत न रहे बल्कि 2024 के चुनावों तक इसका विस्तार हो।’
ठीक ऐसे ही मध्य प्रदेश में यादव को लाने के पीछे का कारण बताते हुए वह कहती हैं, ‘इससे राज्य में जो संदेश जाएगा वो तो जाएगा ही लेकिन यूपी और बिहार के यादवों को भी बीजेपी एक संदेश देना चाहती थी।’
‘यूपी तो मध्य प्रदेश से सटा भी हुआ है। ऐसा नहीं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यादवों का वोट नहीं मिलता, लेकिन ये अन्य ओबीसी समुदायों की तुलना में कम होता है। एमपी के ज़रिए बीजेपी ने यूपी और बिहार के यादवों को थोड़ा नरम करने की कोशिश ज़रूर की है।’
वहीं बीजेपी ने एक ब्राह्मण और एक अनुसूचित जाति के डिप्टी सीएम को नियुक्त कर संतुलन भी बैठाने की कोशिश की है। राजस्थान में भी पार्टी ने जाति समीकरण बैठाने की कोशिश की है।
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की हार के बाद कांग्रेस के अंदर बग़ावत के सुर हुए तेज़
मध्य प्रदेश: क्या मालवा क्षेत्र फिर बना भाजपा की ‘हिंदुत्व की राजनीति’ का केंद्र?
चौंकाने वाले नाम चुनना पुरानी रवायत
मुख्यमंत्री पद के लिए चुने गए सभी नाम ऐसे हैं, जिनकी दूर-दूर तक चर्चा नहीं थी। बल्कि मोहन यादव की तो सीएम के तौर पर नाम के एलान से पहले खींची एक तस्वीर भी काफ़ी वायरल हुई, जिसमें वे पीछे की पंक्ति में खड़े दिख रहे थे। वहीं, भजनलाल शर्मा तो विधायक ही पहली बार बने हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर किताब लिखने वाले निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि अचानक से नए नाम को चुनने की ये रवायत नई नहीं है। बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी ऐसा देखने को मिल चुका है।
वह प्रतिष्ठित कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण के एक चालीस साल पुराने कार्टून का जि़क्र करते हुए इसका उदाहरण देते हैं। ये कार्टून आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री के चुनाव से जुड़ा था।
एक कतार में कई नेता तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के अभिवादन के लिए खड़े हैं, जिनमें से एक को चुनकर इंदिरा गांधी कहती हैं कि ‘अब आप नए मुख्यमंत्री हैं, आपका नाम क्या है?’
इस कार्टून के पृष्ठभूमि में साल 1982 में राजीव गांधी और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम टी। अंजइया से जुड़ा वाकया था।
उस समय राजीव गांधी पार्टी के महासचिव होने के नाते हैदराबाद पहुंचे थे। टी। अंजइया ने यहां उनका ज़ोर-शोर से स्वागत किया। ये राजीव गांधी को बुरा लगा।
निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘राजीव गांधी जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने अपनी मां से टी। अंजइया को पद से हटाने के लिए कहा। इसके बाद टी। अंजइया को हटाया गया और लगातार दो बार ऐसे मुख्यमंत्री बने जिन्हें बहुत कम लोग जानते थे।’
टी. अंजइया ज़मीनी नेता थे, उन्हें हटाना कांग्रेस को भारी पड़ा। इसकी वजह से तेलुगु प्राइड आहत हुई और एनटी रामा राव ने इस भावना को बढ़ावा देकर तेलुगु देशम पार्टी बनाई और आखिरकार वह 1983 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। काफी समय तक वहां कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई।
निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘ऐसी ही स्थिति कल भी देखने को मिली। मैं कम से कम सात-आठ ऐसे पत्रकारों को जानता हूं, जिन्होंने भजन लाल शर्मा के नाम का एलान होते ही गूगल पर सर्च करना शुरू कर दिया कि आखिर ये कौन हैं।’
वह कहते हैं, ‘यही मध्य प्रदेश में भी हुआ।’
विष्णुदेव साय पंच से सीएम की कुर्सी तक पहुंचे आदिवासी नेता, अमित शाह ने चुनाव में किया था वादा, ‘बनाऊंगा बड़ा आदमी’
कार्यकर्ताओं को क्या संदेश देने की कोशिश?
निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि दिखाया ये जा रहा है कि एकदम अनजान, बिना किसी बड़े ओहदे वाले, बिना बड़े समर्थन वाले नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया गया।
वह कहते हैं कि 2014 के बाद जब झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में सरकारें बनीं तो मनोहर लाल खट्टर, देवेंद्र फडणवीस, रघुवर दास सीएम बने थे, जिन्हें अपने कार्यक्षेत्र के बाहर बहुत कम लोग जानते थे। इनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई छवि नहीं थी।
हालांकि, इसके पीछे की वजह गिनाते हुए वह कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा से उन चेहरों के साथ सहज रहे हैं, जिनका कोई ख़ास प्रोफ़ाइल नहीं है। क्योंकि वह किसी को भी संभावित प्रतिस्पर्धी के तौर पर उभरने नहीं देना चाहते।’
वह बताते हैं कि मोदी जब सीएम थे और 2011 से लेकर 2013 तक ये बहस हो रही थी कि बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा, तब उनके सामने शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे ऐसे नेता थे जिन्होंने इस पद तक जाने के लिए अपनी संभावनाएं भी दिखाईं।
मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘ये तो सब जानते हैं कि मोदी थोड़े ऐसे नेता हैं, जो न तो भूलते हैं और न माफ करते हैं। उनको ये चीजें याद रहती हैं।’
दूसरे स्तर पर है जातीय समीकरण। तीनों राज्यों में हर जाति के बीच पार्टी ने संतुलन बैठा लिया गया है। सीएम और डिप्टी सीएम में आदिवासी, ब्राह्मण, ओबीसी, राजपूत समुदाय का प्रतिनिधित्व भी है।
डिप्टी सीएम बनाकर भी ये इशारा दिया जा रहा है कि अगर आप लोगों ने सही काम नहीं किया, तो पीछे दो और लोग तैयार हो रहे हैं। ये संकेत दिया जा रहा है कि कोई अपने आप को बड़ा न समझे।
सिफऱ् मोदी और शाह ही होंगे पार्टी का चेहरा?
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने लाडली बहना और लाडली लक्ष्मी जैसी अपनी योजनाओं का भी काफ़ी इस्तेमाल किया। इसका बीजेपी को फ़ायदा भी मिला। चर्चा ये भी हुई कि जीत का श्रेय किसको जाना चाहिए।
जानकारों के मुताबिक पार्टी ने चुनाव से पहले हर राज्य में पीएम मोदी के चेहरे को ही आगे रखा। जीत के बाद सभी प्रमुख नेता इसका श्रेय भी पीएम मोदी को ही देते दिखे।
तो क्या अब हर चुनाव में मोदी और शाह ही बीजेपी का चेहरा होंगे। इस सवाल पर राधिका रामाशेषण कहती हैं, ‘अगर आप आज नक्शे पर देखें तो गोवा, गुजरात, उत्तराखंड, हरियाणा, इन सभी राज्यों में सीएम दिल्ली से चुने गए हैं।’
तीनों मुख्यमंत्रियों में एक समानता ये भी है कि सभी बीजेपी के मार्गदर्शक माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबी रहे हैं। तो क्या अब बड़े पदों पर आरएसएस से जुड़े चेहरे ही दिखेंगे।
इस पर राधिका रामाशेषण कहती हैं कि मोदी-शाह के कार्यकाल में एबीवीपी (अखिल भारतीय छात्रसंघ) बहुत अहम हो गया है। मोदी खुद एबीवीपी से नहीं बल्कि आरएसएस से आए हैं, लेकिन एबीवीपी की स्थापना आरएसएस ने ही की।
पार्टी में केवल मोदी और शाह के फैसले मानने के चलन पर निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘ये तो 2014 से ही हो रहा है। एक-दो मामले हटा दीजिए, जैसे 2017 में वे यूपी में मनोज सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन दूसरी जगह से दबाव की वजह से योगी को सीएम बनाया, मगर बाकी मामलों में धीरे-धीरे यही देखने को मिला है कि अब एक ही सम्राट हैं और उन्हीं की चलेगी।’ (bbc.com)
रति सक्सेना
मुझे राजस्थान की संस्कृति पर शुरू से नाज था। मेरे बचपन में उम्रदार लोग भी बेटियों को सम्मान देते थे। पड़ोस की महिलाएं पूछा करती - बाई सा पधार गई क्या? वे उच्च मध्यम वर्ग की महिलाएं थीं। बेटियों की शादी में आसपड़ोस वाले आते और बारात जिमाने में मदद करते, लेकिन खा कर नहीं जाते। उनका कहना था कि बाई सा का ब्याह है, बेटी के बाप पर बोझा पड़ता है।
उन दिनों कम लोग रहते थे, गांव था, लेकिन गांव में मेहनत करता, दिखावा कुछ खास नहीं था। कुछ दिनों से देख रही हूं जयपुर, बदला बदला लग रहा है। कम एक सडक़ पर एम्बुलेंन्स जा रही थी, लगातार हार्न बज रहा था। लेकिन ठीक उस के सामने एक कार चल रही थी, दोपहर का वक्त था, सडक़ पर जगह थी, वह जरा साइड में हो सकती थी। मेरी केरल वाली आदत है, जहां एम्बुलेंस को जगह देना जरूरी माना जाता है। मैं परेशान हो गई कि गाड़ी साइड क्यों नहीं हो रही है। मुझे गुस्सा भी आया सोचा कि अच्छा हो कि एम्बुलेंस कार को टक्कर दे दे तो शायद वह समझे।
रोजाना अखबार देख रही हूं, भास्कर जिस पर लिखा है कि नो नेगेटिव न्यूज, लेकिन हर पेज पर बलात्कार की एक दो घटनाएं मिल जाती है। क्या लड़कियों महिलाओं का सम्मान बन्द हो गया?
सहायिका गांव से आई है, मुझ से बात करती है,,,, यार अम्मा.... मैं सोचती हूं कि क्या भाषा है। उसका आदमी शराब पीता है। वह पहले बेलदारी करती थी, अब कालोनी के कुछ घरों में काम करती है। एक बेटी साथ आती थी, बारह साल की होगी। मैंने पूछा पढ़ती है, तो गोल गोल जवाब। उसका उत्सुक स्वभाव देख कर मैंने कहा कि जब तक मां बर्तन साफ करे, तुम पढ़ लिया करो। मैंने देखा कि उसका दीमाग अच्छा है, लेकिन पढऩे की इच्छा निल है। वह घर आने में ही कतराने लगी। उसके लडक़े भी आये दिन घर पर रह जाते हैं, कहती है बालक है, नाना आये हैं तो स्कूल कैसे जाए? यानी मां के पास भी बहुत से बहाने हैं।
मैंने पूछा , तुम पढ़ी लिखी नहीं हो, लेकिन गिनती तो आती होगी न? नहीं तो कैसे हिसाब लगाती हो कि किस घर से कितने पैसे मिले। तो कहने लगी, मैं क्या जानूं अम्मा।
मैंने उससे कहा कि जब तुम काम कर के छुट्टी पाओ, बस दस मिनिट बैठ जाओ, थोड़ा हिसाब सीख जाओगी। मैंने पूछना शुरु किया, 2 + 1=3. 3+1+ 4. 4+1+5 ...दस तक नहीं पहुंची कि कहने लगी, अरे अम्मा मुझे चक्कर आ रहे हैं, मेरे दीमग पर जोर पड़े तो चक्कर आने लगे हैं। मैंने पूछा कि तुम कहती हो कि तुम्हारे बैंक में दस हजार है, तुमने कैसे गिना?
(सरकारी पैसा मिलने के कारण बैंक में अकाउंट तो सबका खुल गया है। ) तो बताने लगी। पांच सौ का एक नोट उसमें एक और जोड़ा तो हजार, फिर पांच सौ का एक नोट, उसमें एक जोड़ा तो हजार हजार दो हजार। इस तरह पांच सौ के नोट गिन लूं, अम्मा। यानी कि वह अपनी जरूरत भर का समझ सकती है, लेकिन उससे आगे सीखना नहीं चाहती।
कैसी औरत है, मुझे लगा, रोजाना तीस पचीसा करती रहती है, मेरे आदमी ने यूं कियो, मैय्यो ने यू कियो, चाहे मैं सुनू या न सुनू, उसका पुराण चलता रहता है।
मुझे आश्चर्य नहीं दुख हुआ, क्यो कि मैंने अपनी मां को देखा था, वे अपने घर में काम करने वालों को सिलेट बत्ती पर कुछ न कुछ लिखना पढऩा सिखा ही लेती थीं। दो बच्चों को उन्होंने पढ़ा कर मैट्रिक तक पहुंचाया था, जिन्हें सरकारी नौकरी भी मिल गई, वे जिन्दगी भर घर से जुड़े रहे।
हिमांशु ठक्कर
जल शक्ति मंत्रालय की संसदीय समिति ने मार्च 2023 की 20वीं रिपोर्ट में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग से भारत में बांधों और सम्बंधित परियोजनाओं के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने की व्यवस्था को लेकर सवाल किया था। वास्तव में इस सवाल का बांधों को हटाने के विचार पर सीधा असर पड़ता। लेकिन विभाग ने जवाब दिया था कि ‘बांधों के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने के लिए कोई तंत्र नहीं है। और, बांध मालिकों की ओर से किसी भी बांध को हटाने के लिए कोई जानकारी/सिफारिश प्रस्तुत नहीं की गई है।’
इस समिति ने यह भी बताया था कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा संकलित बड़े बांधों के राष्ट्रीय रजिस्टर के 2019 संस्करण के अनुसार भारत में 100 साल से अधिक पुराने 234 बांध हैं; कुछ तो 300 साल से अधिक पुराने हैं।
भारत में 100 साल से पुराने हटाए जा चुके बांधों की संख्या पर विभाग ने बताया था कि सीडब्ल्यूसी में उपलब्ध जानकारी के अनुसार, भारत में ऐसा कोई बांध हटाया नहीं गया है।
गौरतलब है कि बांधों को बनाए रखने के लिए भारी खर्च की आवश्यकता होती है, लेकिन भारत के संदर्भ में रखरखाव को लेकर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसी स्थिति में बांध और भी अधिक असुरक्षित और हटाए जाने के लिए योग्य बन जाते हैं। लिहाज़ा, हमें बांधों को हटाने के लिए एक नीति और कार्यक्रम की तत्काल आवश्यकता है।
इस मामले में संसदीय समिति की सिफारिश है कि ‘भविष्य को ध्यान में रखते हुए, समिति विभाग को बांधों के जीवन और संचालन का आकलन करने के लिए एक कामकाजी तंत्र विकसित करने के उपयुक्त उपाय करने की सिफारिश करती है और राज्यों से उन बांधों को हटाने का आग्रह करती है जो अपना जीवनकाल पूरा कर चुके हैं और किसी भी विकट स्थिति में जीवन और बुनियादी अधोसंरचना के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकते हैं। समिति इस रिपोर्ट की प्रस्तुति से तीन महीने के भीतर विभाग द्वारा इस सम्बंध में उठाए गए कदमों की जानकारी चाहती है।’ यदि इस मामले में सम्बंधित मंत्रालय या विभाग द्वारा कोई कार्रवाई की गई है तो उसकी जानकारी, कम से कम, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
2021 में बांधों का वैश्विक अध्ययन करने वाले राष्ट्र संघ विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं के अनुसार भारत को अपने पुराने बांधों का लागत-लाभ विश्लेषण करना चाहिए और उनकी परिचालन तथा पारिस्थितिक सुरक्षा के साथ-साथ निचले इलाकों (डाउनस्ट्रीम) में रहने वाले लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समय पर सुरक्षा समीक्षा भी करनी चाहिए। इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि भले ही बांधों को हटाने का काम हाल ही में शुरू हुआ है लेकिन यूएसए और युरोप में यह काफी गति पकड़ रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है- ‘जीर्ण व हटाए जा चुके बड़े बांधों के कुछ अध्ययनों से उस जटिल व लंबी प्रक्रिया का अंदाज़ा मिलता है जो बांधों को सुरक्षित रूप से हटाने के लिए ज़रूरी होती है। यहां तक कि एक छोटे बांध को हटाने के लिए भी कई वर्षों (अक्सर दशकों) तक विशेषज्ञों और सार्वजनिक भागीदारी के साथ लंबी नियामक समीक्षा की आवश्यकता होती है। बांधों की उम्र बढऩे के साथ प्रोटोकॉल का एक ऐसा ढांचा विकसित करना ज़रूरी हो जाता है जो बांध हटाने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन कर सके और उसको गति दे सके।’
भारत में हटाने योग्य बांध
केरल की पेरियार नदी पर निर्मित मुलापेरियार बांध अब 130 साल से अधिक पुराना हो चुका है। केरल सरकार तो इस बांध को हटाने की वकालत कर रही है जबकि तमिलनाडु सरकार इससे असहमत है जबकि वह बांध का संचालन करती है और इससे होने वाले लाभ को तो प्राप्त करती है लेकिन आपदा की स्थिति में हो सकने वाले जोखिम में साझेदार नहीं है। केरल सरकार द्वारा 2006 और 2011 के बीच की गई हाइड्रोलॉजिकल समीक्षा का निष्कर्ष था कि मुलापेरियार बांध अधिकतम संभावित बाढ़ के लिहाज़ से असुरक्षित है। वर्ष 2015 में नए मुलापेरियार बांध के चरण ढ्ढ हेतु पर्यावरणीय मंज़ूरी के लिए केरल सरकार द्वारा पर्यावरण और वन मंत्रालय को भेजे गए प्रस्ताव में नए बांध के निर्माण के बाद पुराने बांध को तोडऩे का एक अनुच्छेद भी शामिल था। लेकिन अंतरराज्यीय पहलुओं को देखते हुए प्रस्ताव को मंज़ूरी नहीं मिली।
इसी तरह, बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से बार-बार पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर बने फरक्का बांध को हटाने की वकालत की है। उनके अनुसार गाद-भराव, जल निकासी में अवरोध, नदियों की वहन क्षमता में कमी और बिहार में बाढ़ की संवेदनशीलता में वृद्धि के कारण इस बांध को हटाना आवश्यक है। त्रिपुरा में किए गए अनेक शोध अध्ययन और पर्यावरण समूह त्रिपुरा स्थित डंबुर (या गुमटी) बांध को भी हटाए जाने के पक्ष में हैं। वास्तव में, त्रिपुरा में डंबुर बांध पर स्थापित क्षमता (15 मेगावाट) की तुलना में बिजली उत्पादन इतना कम है कि उत्तर-पूर्व पर विश्व बैंक के रणनीति पत्र (28 जून, 2006) में भी बांध को हटाने की सिफारिश की गई थी।
मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर महेश्वर बांध भी एक अच्छा उम्मीदवार है जो कोई लाभ नहीं दे रहा है, बल्कि इसके कई प्रतिकूल प्रभाव और जोखिम हैं।
अलबत्ता, भारत में पुराने, असुरक्षित और आर्थिक रूप से घाटे में चल रहे बांधों को हटाने की कोई नीति या कार्यक्रम नहीं है। पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा गठित पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (प्रोफेसर माधव गाडगिल की अध्यक्षता में) की रिपोर्ट में की गई महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक बांधों को हटाने की भी है। इस रिपोर्ट के बाद मंत्रालय द्वारा इस सम्बंध में कोई कदम नहीं उठाया गया है।
वैसे, प्रकृति ने स्वयं कुछ बांधों को हटाने का काम शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, अक्टूबर 2023 की शुरुआत में, सिक्किम में तीस्ता नदी पर हिमनद झील के फटने से 1200 मेगावाट का 60 मीटर ऊंचा तीस्ता-3 बांध बह गया। फरवरी 2021 में एक बाढ़ ने उत्तराखंड के चमोली जिले में तपोवन विष्णुगाड बांध और ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना बांध को नष्ट कर दिया था। इसी तरह जून 2013 की बाढ़ में उत्तराखंड में बड़ी संख्या में बांधों को नुकसान और तबाही का सामना करना पड़ा था। हरियाणा में यमुना नदी पर बने ताजेवाला बैराज, उसके एवज में बनाए गए हथनीकुंड बैराज के चालू होने के बाद बाढ़ में बह गया था। अक्टूबर 2023 में, महाराष्ट्र-तेलंगाना सीमा पर गोदावरी नदी पर निर्मित मेडीगड्डा बैराज के छह खंभे डूब जाने से बांध को काफी नुकसान हुआ था। केंद्र द्वारा भेजी गई बांध सुरक्षा टीम ने बैराज के पूर्ण पुनर्वास की अनुशंसा भी की है। यदि हम असुरक्षित, अवांछित बांधों को हटाते नहीं हैं तो हमें ऐसी घटनाओं में वृद्धि का सामना करना पड़ सकता है जिससे समाज और अर्थव्यवस्था को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
बदलती जलवायु और बांध से बढ़ता जोखिम
जलवायु परिवर्तन के कारण तीव्र वर्षा पैटर्न बांधों को और अधिक जोखिम भरा बना सकते हैं। ऐसे में इन्हें हटाना सबसे उचित विकल्प है। तीव्र वर्षा पैटर्न से अधिकतम वर्षा और बाढ़ की संभावना में वृद्धि हो सकती है। लेकिन बांधों और उनकी स्पिलवे क्षमता को इतनी अधिक बाढ़ के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है। इसके लिए बांधों की स्पिलवे क्षमता को बढ़ाने के लिए उपचारात्मक उपायों की आवश्यकता होती है जो काफी महंगा होता है, जैसा कि ओडिशा में महानदी पर हीराकुड बांध पर किया जा रहा है। वास्तव में हीराकुड बांध स्वतंत्र भारत के बाद बने सबसे पुराने मिट्टी के बांधों में से एक है जिसकी सुरक्षा का तत्काल मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। यही स्थिति दामोदर नदी के बांधों की भी है।
वास्तव में, सभी बड़े बांधों के लिए परिवर्तित डिज़ाइन की आवश्यकता है जिसमें बाढ़ का आकलन, बदले हुए वर्षा पैटर्न, बांधों की कम भंडारण क्षमता, लाइव स्टोरेज क्षमता में गाद संचय और डाउनस्ट्रीम में नदियों की कम वहन क्षमता को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसके साथ ही बांध की सुरक्षा का आकलन करने के लिए इसकी तुलना स्पिलवे क्षमता से की जानी चाहिए। इसके बाद स्पिलवे क्षमता बढ़ाने की व्यवहार्यता और वास्तविकता के बारे में निर्णय लेने की आवश्यकता है। इसके बावजूद जहां यह संभव नहीं है वहां बांधों हटाने के लिए आकलन किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि बांध कोई प्राकृतिक समाधान नहीं हैं। जलवायु वैज्ञानिक हमें प्रकृति आधारित विकास और समाधान खोजने का सुझाव देते हैं। भारत समेत पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, अन्याय, नदी, प्रकृति और जैव विविधता के नुकसान तथा बढ़ती आपदाओं जैसे कई परस्पर सम्बंधित संकटों का सामना कर रहा है। नदियां इन चुनौतियों से होकर बहती हैं, और इनकी बहाली एक शक्तिशाली प्रकृति आधारित समाधान हो सकता है। पारंपरिक आवश्यकताओं, आजीविका और सामान्य जीवन के लिए मुक्त बहने वाली नदियों की भी आवश्यकता है।
लिहाज़ा, भारत में पुराने, असुरक्षित और अवांछित बांधों के बढ़ते जखीरे से हमारे सामने आने वाले बढ़ते जोखिमों को देखते हुए तत्काल बांधों को हटाने के लिए एक नीति, योजना और कार्यक्रम की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन इस ज़रूरत को और भी अर्जेंट बना रहा है। (स्रोत फीचर्स)
चैतन्य नागर
ग़ालिब का एक मशहूर शेर है: क्यों न चीखूँ के याद करते हैं, मेरी आवाज़ गर नहीं आती। ग़ालिब इसलिए चीखने के हिमायती थे क्योंकि उनकी आवाज़ न सुनाई दे तो माशूका याद करने लगती थी। इसलिए मशहूर शायर, उस्तादों के उस्ताद, मिर्जा ग़ालिब सोचते थे कि यही बेहतर है कि वह चीखते रहें। उन्हें बर्दाश्त नहीं था कि उनकी माशूका उन्हें याद करे, उन्हें ढूंढें और परेशान हो कि भला ग़ालिब की आवाज़ क्यों नहीं आ रही।
नॉर्वे के पेंटर एडवर्ड मुंच ने भी चीख ‘बनाई’। कैनवस पर। उनकी स्क्रीम (चीख) नाम की पेंटिंग 2012 में एक करोड़ बीस लाख डॉलर में बिकी। उनकी ‘चीख’ पश्चिमी सभ्यता की चीख है। एक हताश, कुंठित, आक्रोश और क्रोध से भरी मानवता की चीख। पेंटिंग में एक लडक़ी पुल पर खडी है और चीख रही है। समूची मानवता की तरफ से चीख रही है। संगीत में भी कुछ ऐसी विधाएं हैं जिनमें चीखें अधिक और संगीत कम होती हैं। अक्सर युवा पीढी को यह पसंद आता है। हेवी मेटल ऐसा ही संगीत है जिसके लाखों किशोर दीवाने हैं। यदि कोशिश करके सुन सकें और कुछ समझ सकें तो देखिएगा कभी। इस विधा में गायक की आवाज़ और संगीत चीखने में एक दूसरे को मात देने की कोशिश करते हैं। कोई किसी को मात दे या नहीं, हमारे जैसे श्रोता तो बुरी तरह पराजित हो जाते हैं इस तरह के संगीत को समझने में ही।
चीख का अपना मनोविज्ञान है और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में प्रो डेविड पोपेल ने इसका अध्ययन भी किया है। उन्होंने कई तरह की चीखों का संकलन किया है और सामान्य बातचीत की तुलना में मस्तिष्क पर चीख की ध्वनि के असर की जांच की है। मस्तिष्क सामान्य ध्वनि और चीख का प्रसंस्करण या प्रोसेसिंग अलग अलग तरीके से करता है। मस्तिष्क उसे अपने उसी इलाके में प्रोसेस करता है जिसमे वह भय को प्रोसेस करता है। उसके लिए चीख भय का प्रतीक होती है। क्योंकि शुरू से ही इंसान आम तौर पर भय की वजह से चीखता आया है। भय के अलावा और भी भावनाएं हैं जिनके असर में इंसान चीखता है। वह दर्द, आनंद, आश्चर्य, किसी आसन्न खतरे और कभी-कभी अंतरंगता के क्षणों में भी चीखता है! इंसान के जीवित होने का सबसे पहला सबूत होती है चीख। जैसे ही बच्चा पैदा होता है, सबसे पहले वह चीखता है। न चीखे तो डॉक्टर और माता-पिता दोनों परेशान होते हैं। कोशिश करते हैं कि वह जल्दी से जल्दी चीख कर अपने जीवित और स्वस्थ रहने का सबूत दे। गौर से देखें तो पता चलेगा कि एक चीख शरीर के विभिन्न हिस्सों और मस्तिष्क की अलग-अलग इलाकों के बहुत ही अनुशासित मिले-जुले ऑर्केस्ट्रा से जन्म लेती है। बहुत कुछ छिपा होता है इसमें। भले ही इसका प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द नन्हा सा हो। गलती करने वाले अक्सर पकडे जाने के डर से खूब चिल्लाते हैं। बंगला भाषा में एक कहावत भी है: ‘चोरेर मायेर बोड़ो गॉला’, यानी चोर की मां बहुत तेज चीखती है, यह साबित करने के लिए कि उसके बेटे ने चोरी नहीं की है! इंसानों के अलावा पशुओं में भी चीखना सामान्य बात है। बन्दर के एक बच्चे को पकड़ कर देखें। उनका पूरा कुनबा आपको घेर कर चीखने लगेगा। ऐसा ही कौवे भी करते हैं। गलती से आप किसी कौवे को पिंजरे में बंद करने में सफल हो गए, तो उनकी समूची दुनिया आपको घेर कर इतना कांव कांव करेगी कि आपका जीना हराम हो जायेगा।
इंसान चीखते समय अजीबो-गरीब चेहरे भी बनाते हैं। चेहरे की कई मांसपेशियां चीखने के काम में लगती हैं और आपको यह जान कर ताज्जुब होगा कि ये मांसपेशियां दुनिया के हर इंसान के पास नहीं होतीं। चीखते समय कुछ लोगों के गले की नसें तन जाती हैं। उन्हें देख कर लगता है कि उन्हें कितनी तकलीफ हो रही होगी इतनी ज़ोर से चीखने में। पर ऐसा उनके लिए स्वाभाविक होता है। अपनी बातें कहने के लिए और दूर तक पहुँचाने के लिए उन्हें चीखना जरूरी लगता है। वे खुद तकलीफ में हों भी तो दूसरों को तकलीफ में डालने के लिए अपनी तकलीफ को या तो भुला देते हैं या उसे झेल जाते हैं।
अब आप सोच सकते हैं कि चीख के बारे में इतना अधिक क्यों कहा जा रहा है। कल ही लोक सभा से एक विख्यात महिला सांसद का निष्कासन हुआ है। उन्हें चीखते देख आप भी चीखने की कला और विज्ञानं के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक हो सकते हैं। मोहुआ मोइत्रा जिस राजनीतिक पार्टी से संबंधित हैं उसकी प्रमुख नेत्री भी चीखने की कला में माहिर हैं। महुआ ने इस कला को और ऊंचे स्तर तक ले जाने में कामयाबी हासिल की है। जब वह चीखती हैं तो उनके गले की नसें बुरी तरह तन जाती हैं और यदि आप गौर करें तो जैसे उनके होंठ, आँखे और आवाज़ सभी एक साथ परन्तु अलग अलग दिशा में चीखते हैं। ऐसा लगता है कि मोहुआ समूचे ब्रह्माण्ड को संबोधित कर रही हैं और पञ्च तत्व, जड़-चेतन सभी तक अपनी ध्वनि को पहुँचाना चाहती हैं। सभी से भाजपा की शिकायत कर रही हैं और गुहार कर रही हैं कि कोई तो उनकी सुने।
टीएमसी नेत्री चीखते समय बहुत क्रोध में दिखती हैं। स्वयं को दुर्गा और काली भी बताने लगती हैं मानों दानवों की सेना को भयभीत कर देना चाहती हों। आम तौर पर महिलाओं से उनके उम्र पूछना तहजीब के खिलाफ माना जाता है, पर मोहतरमा तो गुस्से में अपनी उम्र खुद ही बता देती हैं। नेताओं में अकेली मोहुआ मोइत्रा ही नहीं चीखतीं, ऐसे कई नेता हैं जो सोचते हैं कि धीमी आवाज़ में बोलना कोई बोलना ही नहीं। पता नहीं वे अपने घरों में अपने बीवी, पति या बच्चों से कैसे बातें करते होंगे। क्योंकि आदत तो बन गई है चिल्लाने की। ऐसे में चीख का कोई स्विच तो होता नहीं कि जब चाहे ऑफ या ऑन कर दें। कुछ नेता तो ऐसे हैं कि वह मुंह सिल कर रखें तो भी उनकी चीख सुनाई देती है। उनकी मौजूदगी ही एक चीख है।
चीखने-चिल्लाने से यह साबित नहीं होता कि आप सच बोल रहे हैं। न ही अंग्रेजी में चीखने से आपका सही होना साबित होता है। ठीक है, यह भी साबित नहीं होता कि आप गलत या झूठ बोल रहे हैं। सवाल सिर्फ यही है कि आप जो कुछ भी कहना चाहते हैं वह संजीदगी के साथ कह सकते हैं। आवाज़ धीमी कर सकते हैं। हो सकता है चीखना आपकी आदत हो। तेज़ आवाज़ के जरिये आप अपनी पॉवर दर्शाना चाहते हों। पर इससे आप मज़ाक का पात्र भी बन जाते हैं। देर-सवेर लोग आपको चीखने वाले इंसान के रूप में पहचानने लगते हैं। कई राजनेताओं को यह सीखना चाहते। नेता एक टीचर भी होता है। लोग उनका अनुकरण भी करते हैं। रोल मॉडल होते हैं कई लोगों के लिए।
उमंग पोद्दार
भारतीय जनता पार्टी की सरकार की ओर से 2019 में अनुच्छेद-370 को हटाने के फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की पीठ ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाने के फ़ैसले को बरकार रखा है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस फ़ैसले का स्वागत किया है।
आइए यहाँ हम आपको अनुच्छेद-370 और इसे हटाने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया के बारे में बताते हैं।
यहाँ आप यह भी जान पाएंगे कि सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर करने वाले लोगों और सरकार की इसको लेकर दलीलें क्या हैं।
अनुच्छेद 370 क्या था?
अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का एक प्रावधान था। यह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। यह भारतीय संविधान की उपयोगिता को राज्य में सीमित कर देता था।
संविधान के अनुच्छेद-1 के अलावा, जो कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ है, कोई अन्य अनुच्छेद जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता था। जम्मू कश्मीर का अपना एक अलग संविधान था।
भारत के राष्ट्रपति के पास ज़रूरत पडऩे पर किसी भी बदलाव के साथ संविधान के किसी भी हिस्से को राज्य में लागू करने की ताक़त थी। हालाँकि इसके लिए राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य थी।
इसमें यह भी कहा गया था कि भारतीय संसद के पास केवल विदेश मामलों, रक्षा और संचार के संबंध में राज्य में क़ानून बनाने की शक्तियां हैं।
इस अनुच्छेद में इस बात की भी सीमा थी कि इसमें संशोधन कैसे किया जा सकता है।
इसमें कहा गया था कि इस प्रावधान में राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही संशोधन कर सकते हैं।
जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा का गठन 1951 में किया गया था। इसमें 75 सदस्य थे।
इसने जम्मू और कश्मीर के संविधान का मसौदा तैयार किया था। ठीक उसी तरह जैसे भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया था।
राज्य के संविधान को अपनाने के बाद नवंबर 1956 में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का अस्तित्व ख़त्म हो गया था।
बीजेपी काफ़ी लंबे समय से इस अनुच्छेद को कश्मीर के भारत के साथ एकीकरण की दिशा में कांटा मान रही थी।उसने अपने घोषणापत्र में भी कहा था कि वह भारतीय संविधान से अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाएगी।
अनुच्छेद 35-ए को 1954 में संविधान में शामिल किया गया था। यह प्रावधान जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासियों को सरकारी रोजग़ार, राज्य में संपत्ति खऱीदने और राज्य में रहने के लिए विशेष अधिकार देता था।
इसे कैसे हटाया गया
इसे हटाने के लिए अपनाई गई क़ानूनी प्रक्रिया काफ़ी जटिल और पेचीदा थी।
2019 में पाँच अगस्त को राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया। इससे संविधान में संशोधन हुआ। इसमें कहा गया कि राज्य की संविधान सभा के संदर्भ का अर्थ राज्य की विधानसभा होगा।
इसमें यह भी कहा गया था कि राज्य की सरकार राज्य के राज्यपाल के समकक्ष होगी।
यहां यह महत्वपूर्ण है क्योंकि जब संशोधन पारित हुआ, तो जम्मू कश्मीर में दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था।
जून 2018 में, भाजपा ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद राज्य 6 महीने तक राज्यपाल शासन और फिर राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा।
सामान्य परिस्थितियों में इस संशोधन के लिए राष्ट्रपति को राज्य विधानमंडल की सहमति की ज़रूरत होती, लेकिन राष्ट्रपति शासन के कारण विधानमंडल की सहमति संभव नहीं थी।
इस आदेश ने राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को अनुच्छेद 370 में जिस भी तरीक़े से सही लगे संशोधन करने की ताक़त दे दी।
इसके अगले दिन राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया। इसमें कहा गया कि भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे। इससे जम्मू कश्मीर को मिला विशेष दर्जा ख़त्म हो गया।
9 अगस्त को, संसद ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों: जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में बाँटने वाला एक क़ानून पारित किया। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, लेकिन लद्दाख में नहीं होगी।
अनुच्छेद 370 हटने का परिणाम क्या हुआ?
जम्मू-कश्मीर में पाँच अगस्त से लॉकडाउन लगा दिया गया था। वहां कर्फ्यू लगा दिया गया था। टेलीफोन नेटवर्क और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं।
राजनीतिक दलों के नेताओं समेत हज़ारों लोगों को या तो हिरासत में ले लिया गया या गिरफ्तार किया गया या नजऱबंद कर दिया गया।
जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बल के कई लाख जवानों को तैनात किया गया।
2जी इंटरनेट को कुछ महीने बाद जनवरी 2020 में बहाल किया गया जबकि 4जी इंटरनेट को फऱवरी 2021 में बहाल किया गया।
अनुच्छेदों को हटाए जाने के तुरंत बाद इसे चुनौती देते हुए कई याचिकाएँ दायर की गईं।
अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को पाँच जजों की बेंच के पास भेज दिया था। अदालत ने इस साल अगस्त में इस मामले की अंतिम दलीलें सुननी शुरू कीं।
किन लोगों ने दायर की हैं याचिकाएं?
इस मामले में कुल 23 याचिकाएं दायर की गई हैं। इस मामले के याचिकाकर्ताओं में नागरिक समाज संगठन, वकील, राजनेता, पत्रकार और कार्यकर्ता शामिल हैं।
इनमें से कुछ में जम्मू-कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस, पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और सांसद मोहम्मद अकबर लोन और जम्मू और कश्मीर के पूर्व वार्ताकार राधा कुमार शामिल हैं।
याचिकाकर्ताओं की क्या दलील है?
अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक के नजरबंद कर दिया गया था। उन्हें इस साल सितंबर में रिहा किया गया है।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने को रद्द करने की मांग की है।
याचिकाकर्ताओं के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 एक स्थायी प्रावधान था। चूँकि इसमें किसी भी बदलाव के लिए राज्य की संविधान सभा के इजाजत की ज़रूरत होती थी, जिसे 1956 में भंग कर दिया गया था।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 370 हटाना उस विलय पत्र के विरुद्ध था, जिसके ज़रिए जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बना।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह लोगों की इच्छा के ख़िलाफ़ जाने के लिए किया गया एक राजनीतिक कृत्य था।
उनकी दलील है कि संविधान सभा को विधानसभा से स्थानापन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अलग-अलग काम करती हैं।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि जब राज्य राष्ट्रपति शासन के अधीन था तो यह संशोधन नहीं हो सकता था।
राज्यपाल, जो केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त व्यक्ति है, उन्होंने संशोधन पारित करते समय और बाद में अनुच्छेद 370 को हटाते समय विधानसभा की जगह ले ली।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि केंद्र के पास किसी राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने की शक्ति नहीं है, क्योंकि इससे राज्य की स्वायत्तता कम हो जाती है और संघवाद पर असर पड़ता है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होगा।
सरकार ने अपने फ़ैसले का बचाव कैसे किया?
सरकार का तर्क है कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था। चूँकि संविधान सभा भंग हो गई थी, इसलिए विधानसभा को वह पद ग्रहण करना पड़ा। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रावधान में कभी संशोधन नहीं हो सकता था।
सरकार की दलील है कि इस बदलाव ने जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह से भारत में एकीकृत कर दिया। सरकार ने दलील दी कि राज्य के निवासियों के ख़िलाफ़ भेदभाव होता था क्योंकि वहाँ भारतीय संविधान पूरी तरह से लागू नहीं होता था।
इसके अलावा, सरकार ने कहा कि राष्ट्रपति शासन में उनके या राज्यपाल की ओर से पारित आदेश राज्य विधानमंडल की ओर से पारित आदेशों के बराबर हैं। इसलिए, राष्ट्रपति शासन में स्थिति बदलने से यह काम अवैध नहीं हो जाएगा।
सरकार का यह भी कहना था कि उसके पास राज्यों का पुनर्गठन करने की व्यापक शक्तियां हैं। वह किसी राज्य के नाम, क्षेत्र, सीमाओं को बदल सकती है और राज्य को केंद्र शासित प्रदेशों में भी बाँट सकती है।
इसके अलावा सरकार ने यह भी कहा कि क़ानून व्यवस्था की स्थिति सामान्य होने पर सरकार जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कर देगी।
यह भी कहा गया कि विशेष दर्जा हटाने से राज्य में विकास, पर्यटन और कानून-व्यवस्था को बढ़ावा मिला। इसलिए, यह एक फ़ायदेमंद क़दम था। (bbc.com)
सीजेआई की कही ये बड़ी बातें
जम्मू कश्मीर के पास भारत में विलय के बाद आंतरिक संप्रभुता का अधिकार नहीं है।
राष्ट्रपति शासन की घोषणा को चुनौती देना वैध नहीं है।
अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था।
संविधान सभा के भंग होने के बाद भी राष्ट्रपति के आदेशों पर कोई प्रतिबंध नहीं।
राष्ट्रपति का शक्ति प्रयोग दुर्भावनापूर्ण नहीं था और इसके लिए राज्य से सहमति लेना ज़रूरी नहीं था।
लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाना वैध।
जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल कर के जल्द से जल्द चुनाव हों।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला देते हुए जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने का फैसला बरकरार रखा है।
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि अगले साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के लिए कदम उठाने चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा जितनी जल्दी बहाल किया जा सकता है, कर देना चाहिए।
फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ‘राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य की ओर से लिए गए केंद्र के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती है। अनुच्छेद 370 युद्ध जैसी स्थिति में एक अंतरिम प्रावधान था। इसके टेक्स्ट को देखें तो भी पता चलता है कि यह अस्थायी प्रावधान था।’
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए आदेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फैसले को वैध मानता है।
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के ख़िलाफ़ याचिकाकर्ताओं ने एक दलील ये भी दी थी कि राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र सरकार राज्य की तरफ से इतना अहम फैसला नहीं ले सकती है।
मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के दौरान ही अनुच्छेद 370 हटाया था।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि भारत में विलय के बाद जम्मू-कश्मीर के पास आंतरिक संप्रभुता का अधिकार नहीं है।
केंद्र की बीजेपी सरकार ने साल 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर के जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँट दिया था।
इस फैसले की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट की जिस संविधान पीठ ने इस मामले में फैसला सुनाया है उसमें मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, बीआर गवई और सूर्यकांत शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या-क्या कहा
मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 370 हटाने का अधिकार है। सीजेआई ने कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिशें राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं हैं और भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू हो सकते हैं।
न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 370(3) के तहत राष्ट्रपति को 370 को निष्प्रभावी करने का अधिकार है।
सर्वोच्च न्यायालय ने ये भी कहा है कि राज्य में युद्ध जैसे हालात की वजह से अनुच्छेद 370 एक अस्थायी व्यवस्था थी और संविधान के अनुच्छेद एक और 370 से ये स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है।
फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वो सितंबर 2024 तक जम्मू कश्मीर में चुनाव कराएं।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘हम निर्देश देते हैं कि भारत का चुनाव आयोग 30 सितंबर 2024 तक जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनाव कराने के लिए कदम उठाए।’
इस संविधान पीठ ने 16 दिनों तक चली जिरह के बाद इसी साल पाँच सितंबर को अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था।
इस मामले में कुल 23 याचिकाएं दायर की गई थीं। याचिकाकर्ताओं में नागरिक समाज संगठन, वकील, राजनेता, पत्रकार और कार्यकर्ता शामिल हैं।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने को रद्द करने की मांग की थी।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह लोगों की इच्छा के खिलाफ जाने के लिए किया गया एक राजनीतिक कृत्य था।
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस संजय किशन कौल ने जम्मू-कश्मीर में अभी तक हुई हिंसा के मामलों को देखने के लिए एक समिति का गठन करने का भी सुझाव दिया।
अनुच्छेद 370 क्या था?
अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का एक प्रावधान था। यह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। यह भारतीय संविधान की उपयोगिता को राज्य में सीमित कर देता था।
संविधान के अनुच्छेद-1 के अलावा, जो कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ है, कोई अन्य अनुच्छेद जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता था। जम्मू कश्मीर का अपना एक अलग संविधान था।
भारत के राष्ट्रपति के पास जरूरत पडऩे पर किसी भी बदलाव के साथ संविधान के किसी भी हिस्से को राज्य में लागू करने की ताक़त थी। हालाँकि इसके लिए राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य थी।
इसमें यह भी कहा गया था कि भारतीय संसद के पास केवल विदेश मामलों, रक्षा और संचार के संबंध में राज्य में कानून बनाने की शक्तियां हैं।
इस अनुच्छेद में इस बात की भी सीमा थी कि इसमें संशोधन कैसे किया जा सकता है।
इसमें कहा गया था कि इस प्रावधान में राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही संशोधन कर सकते हैं।
जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा का गठन 1951 में किया गया था। इसमें 75 सदस्य थे।
इसने जम्मू और कश्मीर के संविधान का मसौदा तैयार किया था। ठीक उसी तरह जैसे भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया था।
राज्य के संविधान को अपनाने के बाद नवंबर 1956 में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का अस्तित्व ख़त्म हो गया था।
बीजेपी काफ़ी लंबे समय से इस अनुच्छेद को कश्मीर के भारत के साथ एकीकरण की दिशा में कांटा मान रही थी।
चार साल पहले हुआ था 370 निरस्त
पाँच अगस्त 2019 को राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया। इससे संविधान में संशोधन हुआ। इसमें कहा गया कि राज्य की संविधान सभा के संदर्भ का अर्थ राज्य की विधानसभा होगा।
इसमें यह भी कहा गया था कि राज्य की सरकार राज्य के राज्यपाल के समकक्ष होगी।
यहां यह महत्वपूर्ण है क्योंकि जब संशोधन पारित हुआ, तो जम्मू कश्मीर में दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था।
जून 2018 में, भाजपा ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद राज्य 6 महीने तक राज्यपाल शासन और फिर राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा।
सामान्य परिस्थितियों में इस संशोधन के लिए राष्ट्रपति को राज्य विधानमंडल की सहमति की जरूरत होती, लेकिन राष्ट्रपति शासन के कारण विधानमंडल की सहमति संभव नहीं थी।
इस आदेश ने राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को अनुच्छेद 370 में जिस भी तरीके से सही लगे संशोधन करने की ताकत दे दी।
इसके अगले दिन राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया। इसमें कहा गया कि भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे। इससे जम्मू कश्मीर को मिला विशेष दर्जा ख़त्म हो गया।
9 अगस्त को, संसद ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में बाँटने वाला एक क़ानून पारित किया। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, लेकिन लद्दाख में नहीं होगी।
जम्मू-कश्मीर में पाँच अगस्त से लॉकडाउन लगा दिया गया था। वहां कर्फ्यू लगा दिया गया था। टेलीफोन नेटवर्क और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं।
राजनीतिक दलों के नेताओं समेत हज़ारों लोगों को या तो हिरासत में ले लिया गया या गिरफ्तार किया गया या नजऱबंद कर दिया गया।
जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बल के कई लाख जवानों को तैनात किया गया।
2जी इंटरनेट को कुछ महीने बाद जनवरी 2020 में बहाल किया गया जबकि 4जी इंटरनेट को फऱवरी 2021 में बहाल किया गया।
अनुच्छेदों को हटाए जाने के तुरंत बाद इसे चुनौती देते हुए कई याचिकाएँ दायर की गईं।
अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को पाँच जजों की बेंच के पास भेज दिया था। अदालत ने इस साल अगस्त में इस मामले की अंतिम दलीलें सुननी शुरू कीं।(bbc.com)
पुरुषों और महिलाओं का जीवन काल अलग-अलग होता है. अमेरिका में इसमें अंतर बढ़ रहा है और यूरोप में कम हो रहा है. आखिर इसकी वजह क्या है?
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर का लिखा-
अगर आप अपने आस-पास रहने वाले बुजुर्गों पर नजर डालें, तो आपको खासा लैंगिक असंतुलन दिखाई देता है। 85 साल से अधिक उम्र के लोगों में पुरुषों की संख्या काफी कम होती है। सामान्य समझदारी कहती है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष जल्दी मर जाते हैं और आंकड़े भी इस बात के गवाह हैं।
उदाहरण के लिए, जर्मनी में 2022 में पुरुषों का औसत जीवन काल 78 वर्ष से थोड़ा अधिक था। जबकि महिलाओं का जीवन काल 82।8 वर्ष था। वहीं, अमेरिका में 2021 में महिलाओं का औसत जीवन काल 79 वर्ष और पुरुषों का 73 वर्ष से थोड़ा अधिक था। 5।8 साल का यह अंतर 1996 के बाद से अब तक का सबसे बड़ा अंतर है।
एक नए अध्ययन में, अमेरिकी शोधकर्ताओं ने बाहरी कारकों को जिम्मेदार ठहराया है, जिनमें से कोविड-19 महामारी प्रमुख है। नवंबर 2023 में जेएएमए जर्नल ऑफ इंटरनल मेडिसिन में प्रकाशित पेपर में लेखकों ने कहा कि महामारी ने अमेरिका में पुरुषों को काफी ज्यादा प्रभावित किया और उनके औसत जीवन काल को कम कर दिया।
शोधकर्ताओं ने बताया कि ‘निराशा से होने वाली मौतें' भी पुरुषों के जीवन काल को कम करने में अहम भूमिका निभाती हैं। जैसे आत्महत्या, नशे की समस्या या हिंसक अपराध। इनकी वजह से पुरुषों का जीवन काल छोटा हो जाता है।
अध्ययन के प्रमुख लेखक ब्रैंडन यान ने कहा, ‘नशीली दवाओं के अत्यधिक सेवन और हत्या से होने वाली मौतों की दर पुरुषों और महिलाओं दोनों में बढ़ी है, लेकिन इनकी वजह से होने वाली मौतों में पुरुषों की संख्या बढ़ती जा रही है।’
हृदय रोग से भी पुरुषों की जल्दी हो रही मौत
पुरुषों और महिलाओं के जीवन काल में अंतर होने के अन्य कारण भी हैं। रुमेटोलॉजिस्ट और हार्वर्ड हेल्थ पब्लिशिंग के सीनियर फैकल्टी एडिटर रॉबर्ट एच। शिमरलिंग ने कई अन्य तथ्यों को सामने रखा है। वह कहते हैं कि पुरुषों में नियमित तौर पर स्वास्थ्य जांच न कराने की अधिक संभावना होती है। साथ ही, अग्निशमन या सैन्य युद्ध जैसी खतरनाक नौकरियों में पुरुषों की संख्या महिलाओं से कहीं अधिक है।
शिमरलिंग इस तथ्य की ओर भी इशारा करते हैं कि महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक बार आत्महत्या करते हैं। इसका एक संभावित कारण वह सामाजिक कलंक हो सकता है, जो अभी भी कई संस्कृतियों में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ा हुआ है, खासकर पुरुषों के लिए। सामान्य शब्दों में कहें, तो मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को अभी भी कई समाज में कलंक के तौर पर देखा जाता है।
शिमरलिंग ने कहा कि एक और बड़ा कारक हृदय रोग है। अमेरिका में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की हृदय रोग से मरने की संभावना 50 फीसदी अधिक है।
यूरोप में अच्छी है पुरुषों की स्थिति
अमेरिका के बाहर, पुरुषों में हृदय रोग की समस्या कम होने की वजह से महिलाओं और पुरुषों के जीवन काल के बीच का अंतर कम हो रहा है। जर्मनी के फेडरल इंस्टिट्यूट फॉर पॉपुलेशन रिसर्च के लेखकों की टीम ने ऑस्ट्रिया, चेक गणराज्य, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, स्लोवाकिया और स्विट्जरलैंड में लिंग के आधार पर लोगों के जीवन काल की जांच की। उन्होंने पाया कि महिलाओं और पुरुषों के बीच मृत्यु दर में अंतर कम हो गया है।
जुलाई 2023 में यूरोपियन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि महिलाओं और पुरुषों के जीवन काल में अंतर कम होने की वजह यह थी कि ‘हृदय रोग और नियोप्लाज्म से पुरुषों की होने वाली मौतें कम हो गई थीं।’ नियोप्लाज्म ट्यूमर और घातक कैंसर है।
अध्ययन में शामिल सभी सात देशों में 1996 से 2019 के बीच मृत्यु दर का अंतर कम हुआ। अधिकांश देशों में यह मुख्य रूप से पुरुषों में हृदय रोग की कमी की वजह से हुआ। फ्रांस में पुरुषों के बीच कैंसर में कमी ने मृत्यु दर में लैंगिक अंतर को कम करने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि, चेक गणराज्य में पुरुषों और महिलाओं की आयु के बीच का अंतर कम हो गया है, क्योंकि फेफड़ों के कैंसर से मरने वाले पुरुषों की संख्या कम हुई है और महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। यह भी अच्छी खबर नहीं है।
सिर्फ मनुष्यों के बीच ही लैंगिक तौर पर जीवन काल में अंतर नहीं है, बल्कि कई अन्य स्तनधारियों के बीच भी यह अंतर है। मार्च 2020 में अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं की टीम के अध्ययन से पता चला कि जंगल में मादा स्तनधारी, नर की तुलना में ज्यादा समय तक जीवित रहती हैं। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ था।
वैज्ञानिकों ने जिन 101 प्रजातियों का अध्ययन किया, उनमें मादा का औसत जीवन काल नर की तुलना में औसतन 18.6 फीसदी अधिक था। वहीं, मनुष्यों में यह अंतर करीब 7.8 फीसदी है।
जंगली भेड़ में यह अंतर स्पष्ट तौर पर देखा गया। हालांकि, ऊनी स्तनधारियों के मामले में शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि जीवन काल में यह अंतर सिर्फ कठिन परिस्थितियों में होता है। जब रहने की परिस्थितियां भेड़ों के अनुकूल होती हैं और सभी के लिए पर्याप्त भोजन होता है, तो मादाओं की तुलना में नर काफी ज्यादा पहले नहीं मरते हैं। वहीं, जब परिस्थितियां अच्छी नहीं होती हैं, तो मादा भेड़ें इन परिस्थितियों का बेहतर मुकाबला कर पाती हैं क्योंकि उनके पास भोजन की तलाश करने के लिए अधिक ऊर्जा होती है।
दूसरी ओर, माना जाता है कि पुरुष यौन क्रिया या मांसपेशियों के निर्माण पर काफी ज्यादा ऊर्जा खर्च करते हैं। वहीं, उनके अंदर आक्रामकता भी होती है, जो जीवन काल कम होने की एक वजह प्रतीत होती है। यह आक्रामक स्वभाव इंसानों सहित अन्य प्राणियों के नर में भी होता है। (dw.com)
- राजीव कुमार शुक्ला
आम तौर पर मुझसे जुड़े रहे लोग मेरे बारे में तरह-तरह की राय रखते हुए (जो स्वाभाविक है, होना ही है और लगभग सब के साथ होता है) एक आम धारणा यह रखते हैं कि मेरी याददाश्त ख़ासी अच्छी है और शायद जो तमाम अटरम-शटरम बातें मुझे याद बनी रहती रही हैं (गो अब कुछ धुंधलापन मंडराता पता चलता है) और जिनको मैं कई बार साथ में मौजूद लोगों के चाहे-अनचाहे बखानता रहता हूँ, वह सब इस धारणा को सत्यापित भी करता है।
पर एक विचित्र और मेरे लिए (और मेरी इस प्रसिद्धि के लिए) ख़ासा लज्जाजनक तथ्य यह है कि अपने पिता की मृत्यु की तारीख़ पर वह स्मृति बहुधा मेरे भीतर से जैसे धुल सी जाती है और फिर कभी अगले दिन, कभी दो-चार दिन बाद और कभी और भी ज़्यादा बाद में एक झटके से लौटती है। कई सालों तक एक विस्मयविमूढ़ पश्चाताप का आंतरिक कोड़ा उसके साथ लौटता था। अब चीजें ढलती जा रही हैं, तो पछतावा उतना तीखा नहीं होता, पर होता अब भी है। पिता का निधन 3 दिसम्बर, 1998 को हुआ था और इसलिए बीते 3 दिसम्बर को उनको गए 25 साल हो गए- चौथाई सदी। वे इक्कीसवीं सदी में साथ नहीं आ सके थे।
इक्कीसवीं सदी में माँ भी साथ नहीं आई थीं। पिताजी के देहावसान के ठीक चार दिन बाद 7 दिसम्बर, 1998 को उनकी भी देह छूट गई थी। मैं उस समय सतना में पिताजी की चिता से उनकी अस्थियाँ एकत्रित कर रहा था (कमाल की बात है कि इस प्रक्रिया को फूल चुनना भी कहा जाता है), जो 4 दिसम्बर को उनके दाह-संस्कार के तीन दिन बाद भी इतना ताप संजोए थी कि मेरी उंगलियाँ उस गर्म राख में थोड़ी-थोड़ी झुलसती जा रही थीं (मैं जीवित जो था)। तभी छोटे भाई सोनू श्मशान में बदहवास हाल में आए और बिलखते हुए जमीन पर लोटते-लोटते कहने लगे कि माँ भी नहीं रहीं। मुझे याद है कि जो पण्डित जी पुरोहिताई कर रहे थे, उन्होंने कहा, वाह, अद्भुत। कैसी सती नारी थीं। अब इसी चिता में उनका अंतिम संस्कार भी होगा। हुआ भी। यद्यपि इस ‘सती नारी’ के आख्यान में मेरी कोई आस्था न तब थी, न अब है, पर अपनी सामान्य आदत के अनुसार तब मैंने कोई लम्बा तर्क-वितर्क किया हो, ऐसा याद नहीं है। एक स्तब्ध सन्नाटा था, जिसने मुझे जकड़ लिया था, लेकिन पिता की मृत्यु के बाद की मेरी सूखी किरकती आंखों से आंसुओं की धार बह चली थी।
जन्म देने वाली मां सत्यवती शुक्ला
मुझे जन्म देने वाली माँ मेरी एक साल दस महीने की उम्र में ही चल बसी थीं। उनकी मेरे मन में छवि का आधार वे फोटो हैं, जिनमें अपने बाद वे दिखाई देती रहीं। जब हरदोई में होश संभाला था, तो मेरा घर स्त्रीविहीन घर था। पिता, मैं और एक पहाड़ी नौकर। तब छह साल का था, जब जून, 1963 में पिताजी के फिर विवाह के उपरांत वे माँ घर में आईं, जिन्होंने मुझे उसके बाद के जीवन में इस कदर और इतना सारा दुलार दिया कि मातृहीनता-बोध के वे शुरुआती वर्ष एक झीनी चादर में तहाकर भीतर के किसी तहख़ाने में रख दिए गए।
फिर भी, उन वर्षों ने एक विशेष काम कर दिया था। मेरी पीढ़ी तक उत्तर प्रदेश के अर्द्धसामंती सोच वाले मध्यवर्गीय समाज में पिता-पुत्र संवाद ही बहुत दुर्लभ हुआ करता था, अंतरंग बातचीत तो बहुधा असम्भव ही होती थी। पर मेरे शैशव और ठीक उसके बाद के वर्षों में पिता को मातापिता की जो दोहरी भूमिका निभानी पड़ी थी, उसने हमारे आपसी संबंधों में ऐसी गाढ़ी रागात्मकता सिरज दी थी कि अब तक की मेरी उम्र के आधे से अधिक काल तक वे मेरे सबसे घनिष्ठ और विश्वसनीय मित्र जैसे भी थे, इस हद तक कि यह कल्पना भी थर्रा देती थी कि कभी वे साथ नहीं रह जाएंगे। उनके बिना मैं कैसे जिऊँगा, समझ में नहीं आता था। पर वे अन्तत: चले ही तो गए और कयामत यह कि शानदार याददाश्त का तमग़ा लगाए फुदकने वाला और दुनिया-जहान की जानकारियों से लबालब रहने वाला मैं अक्सर ही उनके हमेशा के लिए बिछड़ जाने की तारीख़ उस दिन भूल जाता हूँ। कभी सोचता हूँ कि यह उस स्मृतिभ्रंश के सिलसिले का अगला चरण हो सकता है, जिसकी गिरफ्त में अपने पिता को उनके अंतिम वर्षों में जाते मैंने कातर निरुपायता के साथ देखा-जाना था। या शायद मेरे भीतर की गुंजलकों में बसने वाला कोई ‘डिफेंस मैकेनिज्म’ है। कौन जाने!
आज अभी मैं रेलगाड़ी यात्रा में हूँ दिल्ली से जबलपुर जाता हुआ। बर्थ पर आंखें बंद कर लेटा था कि अचानक याद आया कि आज 7 दिसम्बर है। माँ को गए 25 साल यानी चौथाई सदी पूरा होने की तारीख। कल सुबह कटनी से गुजरुंगा, जहाँ से कुछ ही दूर वह सतना है, जहाँ माँ और उसके चार दिन पूर्व पिता को पच्चीस साल पहले अंतिम विदा दी थी। सोचने लगा हूँ, तो माँ का स्नेहिल स्पर्श अपने सिर पर महसूस होने लगा है। और जैसे पापाजी की आवाज भी सुनाई देने लगी है।
और हाँ, माँ और पिता को याद करते हुए कुछ-कुछ उस जमाने में भी लौट रहा हूँ, जब घोर आस्तिकता से ओत-प्रोत वे दोनों मंदिरों और देवालयों के साथ-साथ उसी श्रद्धा भाव से मजारों और दरगाहों में भी जाते थे, अपनी उंगली पकड़ाकर मुझे भी ले जाते थे। उसे खोए यूं तो महज कुछ साल बीते हैं, पर लगता है जैसे न जाने कितनी चौथाई सदियाँ गुजर गईं। पर हमारे भीतर उजाला बिखेरती उस लौ को पनपाने के लिए माँ और पिता की स्मृति को सस्नेह अशेष आभार तथा नमन।
-विवेकानंद माथने
भारत सरकार धीरे-धीरे गरीबों को रेल से बाहर करने या उनके लिये अलग से रेल चलाने की योजना पर काम कर रही है। ट्रेन में यात्रियों की भीड़ कम करने के लिये साधारण और स्लीपर कोच की संख्या कम करके आम यात्रियों को रेल में यात्रा करने से रोकने का प्रयास होता दिख रहा है। अब आम यात्रियों को एसी का महंगा टिकट खरीदकर ही सफर करना पड़ेगा।
भारतीय रेल में नये बदलावों के तहत मेल, एक्सप्रेस, सुपरफ़ास्ट आदि सभी लंबी दूरी की यात्री ट्रेनों में जनरल और स्लीपर क्लास के कोच कम करके एसी कोच की संख्या बढाई जा रही है। जनरल कोच की संख्या दो तक सीमित की जा रही है, स्लीपर के चार से अधिक कोच कम किये जा रहे हैं और उनकी जगह एसी-3 के चार से अधिक कोच और एसी-2 के एक या दो कोच बढाये जा रहे हैं। नई हाई स्पीड ट्रेनों में केवल एसी कोच की ही व्यवस्था बनाई जा रही है।
यात्री ट्रेनों में एसी-1, एसी-2, एसी-3, स्लीपर क्लास और जनरल क्लास मिलाकर 22 या 24 डिब्बे होते हैं। सामान्यत: जनरल के तीन, स्लीपर के सात, एसी-3 के छह, एसी-2 के दो, एसी-1 का एक, इंजन, गार्ड और पेंट्री कार, कुल 22 डिब्बे होते हैं। उसकी जगह अब जनरल के दो, स्लीपर के दो, एसी-3 के 10, एसी-2 के 4, एसी-1 का एक और इंजिन, गार्ड और पेंट्री कार, कुल 22 डिब्बे रहेंगे।
जनरल कोच में 103 और स्लीपर में 72 सीटें होती हैं। इन डिब्बों में हमेशा क्षमता से ज्यादा भीड़ होती है। स्लीपर कोच में कई यात्री नीचे सोकर सफर करते हैं और जनरल कोच में क्षमता से डेढ़-दो गुना अधिक यात्री सफर करते हैं। एक ट्रेन में 1300 के आसपास सीटें होती हैं, लेकिन अधिकतर ट्रेनों में 3-400 ज्यादा यात्री सफर करते हैं।
एक ट्रेन में जनरल का एक और स्लीपर के पांच कोच कम करके एसी के कोच बढाने का मतलब है कि एक ट्रेन में जनरल के 103 और स्लीपर क्लास के 360, ऐसे कम-से-कम 463 यात्रियों को एसी में सफर करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। इससे मजदूर, किसान और विद्यार्थियो को रेलयात्रा मुश्किल हो रही है।
इस बदलाव से यात्रियों की कितनी लूट हो रही है इसका अनुमान लगाने पर बड़ी तस्वीर उभरती है। एसी-3 का किराया स्लीपर क्लास से लगभग ढाई गुना से अधिक होता है और जनरल क्लास से लगभग पांच गुना अधिक होता है। अगर स्लीपर का टिकट 400 रुपये है तो एसी-3 का टिकट 1000 रुपये से अधिक होता है। एक यात्री को 12 घंटे के सफर के लिये 600 रुपये अधिक देने होंगे। एक ट्रेन में 360 स्लीपर कोच यात्रियों को हर दिन कुल दो लाख 16 हजार रुपये ज्यादा देने होंगे और जनरल कोच के यात्रियों को कम-से-कम 82 हजार रुपये ज्यादा देने होंगे।
जाहिर है, एक ट्रेन में जनरल और स्लीपर के कोच की संख्या कम करके कम-से-कम 463 यात्रियों को रेल में यात्रा करने से रोका जा रहा है या महंगा टिकट लेकर सफर करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। ऐसे यात्रियों से कुल मिलाकर तीन लाख रुपयों से ज्यादा किराया वसूला जा रहा है। इसके अलावा ‘तत्काल,’ ‘प्रीमियम तत्काल,’ ‘डायनेमिक’ और ‘फ्लेक्सी’ टिकटों के नाम पर भी यात्रियों पर आर्थिक बोझा डाला जा रहा है।
प्रश्न एक ट्रेन का नहीं है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में रोजाना 13,452 यात्री ट्रेनें चलती हैं और 2.4 करोड़ यात्री सफर करते हैं। अगर इस तरह का बदलाव केवल 10 प्रतिशत ट्रेनों में मानकर हिसाब किया जाए तो यात्रियों को हर रोज लगभग 40.4 करोड़ रुपये और हर साल लगभग 14 हजार 730 करोड़ रुपये ज्यादा देने होंगे। प्रत्यक्ष में यह आंकडा अनुमान से कहीं अधिक हो सकता है।
यह रेल विभाग द्वारा आम यात्रियों की लूट है जिसकी सही जानकारी रेल मंत्रालय ही दे सकता है। उसके अनुसार वित्त-वर्ष 2022-23 में उसने 2.40 लाख करोड़ रुपये का रिकॉर्ड राजस्व कमाया है जो पिछले वर्ष से लगभग 49 हजार करोड रुपये अधिक है। केवल यात्रियों से 63,300 करोड़ रुपए का रिकार्ड राजस्व कमाया है जो पिछले वर्ष से लगभग 24,086 करोड़ रुपये से अधिक है।
भारत सरकार ने कुछ साल पहले रेल सुधार की बड़ी-बड़ी घोषणाऐं की थीं। ट्रेन की भीड़, ट्रेन की देरी, ट्रेन की गंदगी, पीने का अस्वच्छ पानी आदि समस्याओं को दूर करके सबको कंफर्म रिजर्वेशन, वेटिंग यात्रियों के लिये दूसरी स्वतंत्र ट्रेन की व्यवस्था, ट्रेन समय पर चलाना, ट्रेन में सफाई आदि के आश्वासन दिये थे, लेकिन इनमें कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि समस्याऐं और यात्रियों की दिक्कतें अधिक बढ गई।
वरिष्ठ नागरिकों की रियायतें खत्म कर दी गई हैं। लंबी दूरी की ट्रेन में टिकट की मांग बढऩे पर ‘डायनेमिक’ या ‘फ्लेक्सी’ किराया लगाकर टिकटों की कीमत बढ़ाई गई है। स्टेशन की भीड़ नियंत्रित करने के नाम पर त्यौहारों पर प्लेटफॉर्म टिकट बढ़ाये जाते हैं। बोतलबंद पानी की बिक्री बढ़ाने के लिये रेल्वे स्टेशन पर नल कम किये गये हैं। स्टेशनों पर उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय में रुकने के लिये भी किराया वसूला जाता है। सामान्य यात्रियों के लिये स्वच्छ खाना उपलब्ध कराने के लिये कोई कदम नहीं उठाये गये।
भारतीय रेल में सुधार केवल अमीरों के लिये होते दिख रहे हैं। नये रेल ट्रैक बनाये जा रहे हैं। ‘राजधानी,’ ‘शताब्दी,’ ‘दुरंतो,’ ‘वंदेभारत’ जैसी हाईस्पीड ट्रेनों की संख्या बढ़ाई जा रही है जिनमें केवल एसी कोच ही होंगे। उनका किराया भी ज्यादा होगा।
अब मेल, एक्स्प्रेस, सुपरफास्ट ट्रेन में साधारण यात्रियों के लिये कोई स्थान नहीं होगा। उनकी दिक्कतें बढऩे पर रेल विभाग अलग से साधारण ट्रेन चलाने की बात कर रहा है। अगर ऐसा होता है तो यात्रियों की लूट के साथ-साथ यह समाज में आर्थिक और सामाजिक आधार पर भेदभाव करना होगा।
भारतीय रेल्वे सुधार के नाम पर आम लोगों को लूटकर अमीरों को सुविधाऐं पहुंचा रही है। स्पष्ट है, सरकार देश के गरीबों को रेल में सफर करने से रोकना चाहती है या उन्हें रेल से बाहर करना चाहती है। अब वह रेल में भी अमीरों और गरीबों में भेदभाव करना चाहती है। सरकार भले ही इंकार करे, लेकिन वह रेल को निजी हाथों में सौपने की दिशा में आगे बढ़ रही है। (सप्रेस)
- शुरैह नियाजी
मज़दूर के तौर पर काम कर चुके 34 साल के कमलेश्वर डोडियार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में विधायक चुने गए हैं।
वो रतलाम की सैलाना विधानसभा सीट से चुनाव जीत कर आए हैं।
चुनाव में मिली जीत के बाद जब कमलेश्वर को भोपाल आने के लिए कार नहीं मिली तो उन्होंने अपने बहनोई की बाइक से ही भोपाल पहुंचने का सोचा।
कमलेश्वर ने अपने गांव से भोपाल तक 330 किलोमीटर का सफर 9 घंटे में बाइक से पूरा किया।
भोपाल पहुंचने पर जब उनसे पूछा गया कि इतनी दूर बाइक से आने में उन्हें दिक़्क़त तो नहीं हुई? इस सवाल पर उन्होंने कहा कि इस तरह की यात्रा की उन्हें आदत है।
राजधानी भोपाल में अब वो लोगों से मिल रहे हैं। उन्होंने गुरुवार रात मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुलाक़ात की। वो शुक्रवार को भी कई अधिकारियों से मिले।
शिवराज सिंह चौहान ने कमलेश्वर को मिठाई खिलाकर बधाई दी। उन्होंने शिवराज सिंह चौहान से मंत्रिमंडल में शामिल होने की भी इच्छा जताई।
विधानसभा पहुंच कर वो सबसे पहले उसके गेट पर नतमस्तक हुए। इसके बाद उन्होंने विधानसभा में निर्वाचन से जुड़ी प्रकिया को पूरा किया।
संघर्षों से भरी जि़ंदग़ी
कमलेश्वर ने भारतीय आदिवासी पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज की है।
वह भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों के अलावा एक मात्र व्यक्ति है जिन्हें इस विधानसभा चुनाव में जीत मिली है।
वो रतलाम जिले में आदिवासियों के लिए आरक्षित सैलाना विधानसभा सीट से चुनाव जीते हैं।
उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार हर्षविजय गहलोत को 4,618 वोटों से हराया है।
कमलेश्वर की जि़ंदग़ी बहुत ही संघर्ष भरी रही है। उनके माता-पिता मज़द़ूरी करके अपना और अपने परिवार का जीवनयापन करते रहे हैं। कमलेश्वर ने भी मज़दूरी की है।
तीन दिसंबर को जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस दिन भी कमलेश्वर की मां सीता बाई मज़दूरी करने गई थीं।
हाथ टूट जाने की वजह से उनके पिता ने इन दिनों मज़दूरी करना बंद कर दिया है।
लेकिन चुनाव जीतने के बाद कमलेश्वर ने अपनी मां की मज़दूरी बंद करा दी है। उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘मैंने जिस दिन जीत हासिल की, उसी दिन मैंने फैसला कर लिया था कि मेरी मां अब मज़दूरी नहीं करेंगी। इसलिए अब उन्होंने यह काम छोड़ दिया है।’
वेटर का भी किया काम
कमलेश्वर के परिवार में 6 भाई और 3 बहनें हैं। वो उनमें सबसे छोटे हैं। परिवार के सभी सदस्य मज़दूरी करते हैं। इनका परिवार मज़दूरी करने के लिए गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में भी जाता है।
उन्होंने पांचवीं तक की पढ़ाई अपने गांव में ही की। 8वीं तक की पढ़ाई उन्होंने सैलाना में की। 12वीं की पढ़ाई उन्होंने रतलाम से की। वहीं से उन्होंने बीए अंग्रेज़ी में किया और फिर एलएलबी करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी का रुख किया। उन्होंने बताया, ''पढ़ाई में जो भी रुकावट आई वो आर्थिक वजह से ही रही। परिवार के हर सदस्य के पास मात्र सवा बीघा ज़मीन है, जिससे कुछ नहीं हो सकता। इसलिए मज़दूरी करना मजबूरी है।’
नव निर्वाचित विधायक, मध्य प्रदेश
कमलेश्वर की मां को रोज़ाना मज़दूरी करने के 200 रुपये ही मिलते थे लेकिन कई बार उन्हें 300 रुपए तक मिल जाते हैं।
कमलेश्वर ने 2006 में 11वीं की परीक्षा के बाद पहली बार मज़दूरी की थी। उस समय वो राजस्थान के कोटा अपनी मां के साथ मज़दूरी करने गए थे। उन्होंने उस समय करीब 3 महीने तक मज़दूरी की थी। इसके बाद उन्होंने रतलाम के एक होटल में वेटर का भी काम किया। उन्होंने कई अन्य जगहों पर भी मज़दूरी की है।
कमलेश्वर अपने परिवार के साथ टीन की चादर वाले घर में रहते हैं। बारिश के समय पानी उनके घर में आ जाता है।
बराक ओबामा से प्रभावित
कमलेश्वर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से ख़ासे प्रभावित हैं। कमलेश्वर बताते है, ‘मुझे उनका संघर्ष काफ़ी हद तक अपनी तरह का लगता है। उनका परिवार भी कीनिया से आकर अमेरिका में बसा और तमाम कि़स्म के भेदभाव का सामना उन्होंने किया और उसके बाद वो उस मुक़ाम पर पहुंचे।’
जेल भी जा चुके हैं कमलेश्वर
विधानसभा तक का सफऱ तय करने से पहले कमलेश्वर 11 बार जेल जा चुके हैं। उन पर 16 मामले दर्ज हैं।
उनका दावा है कि राजनीतिक कारणों से उन पर ये मामले दर्ज कराए गए हैं।
कमलेश्वर ने 2018 का विधानसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा था। उस चुनाव में उन्हें 18,800 मत मिले थे। इन्होंने 2019 में लोकसभा चुनाव भारतीय आदिवासी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर लड़ा और 15,000 से ज्यादा वोट हासिल किए।
उसी समय कमलेश्वर ने फैसला कर लिया था कि वे न सिफऱ् अगला विधानसभा चुनाव लड़ेंगे बल्कि जीतेंगे भी।
वो कहते हैं कि चुनाव लडऩे के लिए ज़रूरी पैसा उन्होंने चंदा करके जमा किया।
कमलेश्वर कहते हैं कि वो आगे भी आदिवासियों की लड़ाई लड़ते रहेंगे और उनके हित में काम करेंगे।
रतलाम के स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार रीतेश मेहता कहते हैं, ‘कमलेश्वर अपनी धुन के पक्के हैं और अपने समाज का दर्द महसूस करते हैं और उसमें बदलाव लाना चाहते है। इसके लिए वे लड़ाई-झगड़े से भी परहेज़ नहीं करते हैं। यही वजह है कि आदिवासी समुदाय के हक़ की लड़़ाई में उन पर कुछ अपराधिक मामलें भी दर्ज हुए।’
मेहता कहते हैं कि आने वाला वक्त ही बताएगा कि कमलेश्वर विधायक के रूप में अपने समाज का कितना भला कर पाते हैं। (bbc.com/hindi)
- प्रियंका झा
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में नई सरकार के गठन पर जारी सस्पेंस के बीच इन विधानसभा चुनावों में लडऩे वाले बीजेपी के 10 सांसदों ने संसद सदस्यता छोड़ दी है। पार्टी ने हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए अपने 21 सांसदों को मैदान में उतारा था। इनमें से 12 उम्मीदवारों को जीत मिली और नौ के हिस्से में हार रही।
ये सांसद चाहते तो विधायकी छोडक़र, संसद सदस्य बने रह सकते है, क्योंकि विधायकी छोडऩे के बावजूद बीजेपी का तीनों राज्यों में बहुमत बरकऱार रहता।
लेकिन उन्होंने संसद से इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा।
इन इस्तीफ़ों की टाइमिंग इसलिए ज़रूरी हो जाती है क्योंकि रविवार को चुनावी नतीजे आने के बाद अभी तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान मे सीएम पद के लिए नाम पर शीर्ष नेतृत्व का मंथन जारी है।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह का नाम सीएम पद की दौड़ में है। लेकिन कहा ये भी जा रहा है कि बीजेपी नए चेहरों को भी सीएम बना सकती है।
इन अटकलों के बीच सांसदों के इस्तीफ़े ने ये सवाल खड़ा कर दिया है कि आखऱि बीजेपी के इस दांव के पीछे क्या रणनीति हो सकती है।
क्यों लिया गया सांसदों का इस्तीफ़ा?
मध्य प्रदेश में 7 सांसदों ने चुनाव लड़ा, जिनमें फग्गन सिंह कुलस्ते, राकेश सिंह, उदय प्रताप सिंह, रीति पाठक, प्रह्लाद सिंह पटेल, गणेश सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर शामिल थे। इनमें से गणेश और कुलस्ते चुनाव हार गए।
राजस्थान से बीजेपी की तरफ से सात सांसदों ने चुनाव लड़ा। जिनमें बाबा बालकनाथ, किरोड़ीलाल मीणा, दीया कुमारी, राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़, भागीरथ चौधरी, नरेंद्र खीचड़ और देवजी पटेल शामिल थे। इन सात में से सिर्फ चार ही चुनाव जीत सके। चुनाव जीतने वालों में राज्यवर्द्धन, बालकनाथ, दीया कुमारी और किरोड़ीलाल का नाम है। वहीं, छत्तीसगढ़ में बीजेपी के चार सांसदों ने चुनाव लड़ा और जीतने वाले तीनों ने इस्तीफ़ा दे दिया।
इनमें गोमती साय, रेणुका सिंह, अरुण साव शामिल हैं। हारने वालों में दुर्ग से सांसद विजय बघेल हैं, जो कि भूपेश बघेल के भतीजे हैं और उन्हीं से पाटन विधानसभा सीट पर हारे हैं।
मध्य प्रदेश में बीजेपी ने 163, छत्तीसगढ़ में 54 और राजस्थान में 115 सीटों पर जीत दर्ज की है। तीनों राज्यों में पार्टी इतनी मज़बूत स्थिति में है कि अगर सांसदों के सीट छोडऩे के बाद उपचुनाव में हार मिले तो भी बीजेपी सरकार बहुमत नहीं खोती।
बहुमत पर असर न पडऩे के बावजूद पार्टी ने सांसदों से इस्तीफ़ा क्यों लिया?
मध्य प्रदेश की राजनीति को बारीकी से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदीनिया इसके पीछे कई कारण गिनाते हैं।
वो कहते हैं कि सांसदों को चुनाव लड़वाने से पहले पार्टी की नीति ये रही होगी कि ये दिग्गज सत्ता विरोधी लहर को काटने में मदद करेंगे। नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, रीति पाठक वे नाम हैं जो जीतते आए हैं। ऐसे में पार्टी ये मानकर चल रही थी कि अगर चुनावों में 5-10 सीटों से बहुमत से दूर रह जाएं, तो उस फ़ासले को पाटने में ये सांसद मदद करेंगे।
हालांकि, इनका इस्तीफ़ा लेने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इससे बीजेपी के लिए लोकसभा में बहुमत पर कोई असर नहीं होगा। एक कारण ये भी हो सकता है कि शायद बीजेपी शिवराज को सीएम न बनाना चाहती हो, ऐसे में उनके पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक से अधिक नाम होंगे। प्रह्लाद पटेल का नरसिंहपुर जि़ले में काफ़ी कमांड है। उनकी स्थिति ऐसी है कि वो किसी भी पार्टी से लड़ें, जीत सकते हैं।’
‘एक तीर से दो शिकार’
साल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी मज़बूत रही है। साल 2005 में शिवराज सिंह चौहान पहली बार मध्य प्रदेश के सीएम बने और 2020 में उन्होंने चौथी बार इस पद की शपथ ली थी।
वसुंधरा राजे साल 2003 में राजस्थान की पहली महिला सीएम बनी थीं। इसके बाद राज्य में जब-जब बीजेपी सरकार लौटी, सीएम पद पर वसुंधरा ही बैठीं। वहीं रमन सिंह छत्तीसगढ़ के गठन के बाद राज्य पहले निर्वाचित सीएम बने और फिर 15 साल यानी 2018 तक इस पद पर बने रहे।
लेकिन ताज़ा चुनाव के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीएम पद के लिए कई नाम तैर रहे हैं। कई मीडिया रिपोर्टों में भी ये दावे किए जा रहे हैं कि विधायक बनने वाले सांसदों में से भी किसी को सीएम पद पर बैठाया जा सकता है।
बुधवार शाम एक चि_ी वायरल हुई, जिसमें राजस्थान के लिए मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्रियों के नाम थे। हालांकि, पार्टी ने इसे फ़ेक बताया लेकिन ये तीनों नाम उन सांसदों के थे जो अब विधायक बन गए हैं।
हालांकि, मुख्यमंत्री के पद तक कोई एक ही नेता पहुंचेगा। लेकिन जानकारों की नजऱ में सांसदों से विधायक बनने वाले नेताओं को राज्य के मंत्रीपद तक ज़रूर पहुंचाया जाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी सांसदों के इस्तीफ़े को बीजेपी की ‘एक तीर से दो शिकार’ वाली नीति के तौर पर देखती हैं।
उनका कहना है, ‘सांसदों से इस्तीफ़ा लेने के पीछे दो कारण हो सकते हैं। एक तो अब ये विधायक बने रहेंगे और इन सीटों पर उपचुनाव कराने की झंझट नहीं होगी। दूसरा, इससे खाली हुए संसदीय सीटों पर नए चेहरों को उतारने का मौका मिलेगा। हो सकता है कि नरेंद्र मोदी अगले चुनाव में अपनी टीम में नए चेहरे शामिल करना चाहते हों। ये कदम एक तीर से दो शिकार करने जैसा है।’
क्या सांसदों का डिमोशन है ये कदम?
शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह उस समय अपने-अपने राज्यों के सीएम पद की कुर्सी पर थे, जब नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
इन नेताओं की जनता के बीच अच्छी पकड़ मानी जाती है और इसलिए ये भी कहा जाता है कि बीजेपी गुजरात, उत्तराखंड या कर्नाटक की तरह इन राज्यों में सीएम पद के चेहरे नहीं बदल सकी।
लेकिन नतीजों को आए जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, वैसे-वैसे नए चेहरे की चर्चा भी ज़ोर पकड़ती जा रही है।
राजस्थान में दीया कुमारी, बाबा बालकनाथ, छत्तीसगढ़ में रेणुका सिंह और अरुण साव, मध्य प्रदेश में नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल को सीएम पद की दौड़ का हिस्सा बताया जा रहा है।
लेकिन क्या मज़बूत नेताओं को हटाकर नए चेहरे लाना बीजेपी के लिए आसान होगा। इस पर वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदीनिया कहते हैं, ‘बीजेपी किसी भी आदमी को ज़्यादा ताकतवर नहीं होने देती है। योगी आदित्यनाथ का कहीं किसी ने नाम नहीं सुना था। उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। इनका एक स्टाइल है, किसी भी आदमी को ज़्यादा नहीं बढऩे देना।’
नीरजा चौधरी का भी ये मानना है कि आज के वक्त में शायद ही ऐसा कोई है जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के फ़ैसलों को चुनौती दे। वह कहती हैं, ‘मोदी-शाह नए चेहरों को लाकर अपनी नई टीम खड़ी करना चाहेंगे।’
मध्य प्रदेश में बीजेपी के चुनाव अभियान से जुड़े रहे नेता दीपक विजयवर्गीय कहते हैं, ‘ये तो हमने टिकट वितरण से पहले ही तय कर लिया था कि अगली विधानसभा में कौन-कौन नेता रहेंगे। कौन कार्यकर्ता किस भूमिका में रहेगा ये तो पहले ही पार्टी ने तय कर लिया था।’
तो क्या ये सांसदों और मंत्रियों का डिमोशन है, ये पूछे जाने पर वह कहते हैं, ‘सांसदों का डिमोशन या प्रमोशन नहीं होता। सभी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं। किस कार्यकर्ता को क्या भूमिका दी जाए ये पार्टी समय-समय पर तय करती है।’
लोकसभा चुनाव में अब छह महीने भी नहीं बचे। फिर क्या इन इस्तीफ़ों को लोकसभा चुनाव से पहले सांसदों के टिकट काटने की रणनीति से जोड़ा जा सकता है?
लज्जा शंकर हरदीनिया इस पर कहते हैं, ‘हां, ये भी एक कारण हो सकता है, लेकिन ये टिकट देते समय की रणनीति नहीं रही होगी। उस समय मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बहुमत पाना ही लक्ष्य रहा होगा। हालांकि, बीजेपी को इससे एक मौका भी मिल गया है इन संसदीय सीटों पर कोई नया चेहरा लाने का।’ (बीबीसी)
-देवयानी भारद्वाज
कल जब सारा देश चार राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों को लेकर सांसत में फंसा था, मैंने सुबह के रुझान देख लेने के बाद 1954 में बनी संभवत: अपने समय की सबसे शुरुआती फेमिनिस्ट फिल्म Salt of The Earth को देखते हुए दिन बिताना चुना। अपने शुरुआती दौर में अमरीका में प्रतिबंधित इस फिल्म को अब अमरीकी सिनेमा के इतिहास में क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है। फिल्म निर्देशक Herbert J. Biberman और लेखक Michael Wilson भी उस दौर में हॉलीवुड के दस ब्लैक लिस्ट किए गए फि़ल्मकारों में शामिल थे।
फिल्म मैक्सिको की एंपायर जि़ंक माइन में 1950 में शुरू हुई खनिकों की ऐतिहासिक हड़ताल और उसकी सफलता में स्त्रियों की भागीदारी पर केंद्रित है। यह फिल्म उस दौर में एक नारीवादी पहल के रूप में सामने आती है, जब फेमिनिज़्म या नारिवाद जैसे शब्दों का चलन शुरू नहीं हुआ था। खनिक जो कंपनी के ही कब्जे वाली जमीन पर रहते हैं वे कंपनी में मजदूरों के लिए बराबरी की मांग करते हैं लेकिन घरेलू सुविधाओं के लिए औरतों की मांग को अहमियत नहीं देते। वहीं एक समय ऐसा आता है जब महिलाओं को हड़ताल पर बैठे पुरुषों की जगह लेनी पड़ती है और पुरुषों को घर संभालना पड़ता है तो पुरुषों को वे सारी जरूरतें समझ आने लगती हैं जिनकी मांग औरतें कर रही थीं। फिल्म उस दौर की है जब दुनियाभर में कामगार संगठित हो रहे थे और आज फिर प्रासंगिक हो जाती है जब यूनियनों को लगभग खत्म कर दिया गया है।
मैं इसे देख रही थी और मुझे उत्तराखंड की खदान में पंद्रह दिन तक फंसे रहे खान मजदूर याद आ रहे थे। यह फिल्म लगभग 75 साल पहले दुनिया के एक हिस्से में संगठित श्रमिक आंदोलन की बात करती है। आज पचहत्तर साल बाद हम उत्तराखंड में खदान से बाहर आए मजदूर का मालिकों के प्रति आभार का वीडियो देखते हैं तो समझ आता है कि हमने कितनी पीढिय़ों के संघर्ष को ज़ाया किया है।
इतिहास जब रचा जा रहा होता है, क्या उसे रचने वालों को भी ठीक उस समय इस बात का भान होता होगा कि आने वाला समय उसे किस तरह याद करेगा, कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह फिल्म अपने बनने में जाने कितनी तरह से इतिहास रच रही थी। इसके निर्माताओं के पास बहुत संसाधन नहीं थे और वे एक वास्तविक घटना पर आधारित फीचर फिल्म बना रहे थे, इसके लिए तीन पेशेवर कलाकारों के अलावा उन्होंने अन्य सारे कलाकारों के तौर पर पेशावर अभिनेताओं को नहीं बल्कि उन लोगों को लिया जो खुद उस हड़ताल में शामिल खान मजदूर और उनके परिवार थे।
अमरीकी सरकार ने फिल्म को बनाने से रोकने के लिए इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रही अभिनेत्री Rosaura Revueltas को गिरफ्तार कर फिर से मेक्सिको डिपोर्ट कर दिया, लेकिन फिर भी इस फिल्म को बनाने के इरादे को नहीं तोड़ पाई।
यदि न देखी हो तो ज़रूर देखनी चाहिए। कितनी बार इसे देखते हुए खुशी से सिहरन होती है, गला रुंध जाता है। औरतों की उस पीढ़ी पर नाज़ होता है। थोड़ा और जिम्मेदारी का अहसास होता है। यदि एनिमल देखने जा रहे हैं तो पहले यूट्यूब पर धरती के इस नमक को देख कर जाइए।
डॉ. आर.के. पालीवाल
जैसे जैसे आज़ादी के बाद हमारी राजनीति सेवा की पटरी से उतरकर विकृत होकर सत्ता की मेवा के प्रति आसक्त होती गई वैसे वैसे सत्ता के लिए साम दाम दण्ड भेद कुछ भी कर गुजरने वाला एक ऐसा स्वार्थी वर्ग तैयार हो गया जिसे आज का सर्व शक्तिमान ब्राहमण या सवर्ण वर्ग कह सकते हैं। यही आज का राज वर्ग है। सहूलियत के लिए इसे सत्ता वर्ग या शोषक वर्ग कह सकते हैं। संख्या बल में यह वर्ग भले ही अल्प संख्यक दिखता है लेकिन धनबल, बाहुबल और शक्ति बल में यह आम जनता से सहस्त्र गुणा है। यही वर्ग जनता के लिए कानून बनाता है और यही वर्ग कानून के राज और शासन के कामकाज को पूरी तरह नियंत्रित करता है। नौकरशाही और उद्योगपति तक इस वर्ग की कठपुतली की तरह काम करते हैं। प्रिंट मीडिया अपने अधिकांश पन्ने इसी वर्ग के लिए काले करता है और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का अधिकांश प्राइम टाइम इसी वर्ग के इर्दगिर्द गुजरता है। बड़े बड़े फि़ल्म और खेलों के सितारे, महानायक और भगवान इसी वर्ग के सामने नतमस्तक होते हैं।
वैसे तो देश के किसी भी हिस्से में इस वर्ग के प्रभुत्व को देखा जा सकता है। उदाहरण के तोर पर तेलंगाना के वर्तमान परिदृश्य से इसे सहजता से समझा जा सकता है।नए राज्य तेलंगाना के बनने से लेकर हाल तक सत्ता पर अजगर की तरह काबिज रहे के चंद्रशेखर राव इस राज्य की सत्ता के पहले राजा थे। उनकी कार्यशैली पुराने जमाने के अंहकारी राजाओं जैसी थी और उनकी राजनीति में विचारधारा का कोई महत्त्व नहीं है। सिर्फ सत्ता ही उनकी एकमात्र विचारधारा है। यही उनका धर्म है और यही उनकी जाति है। उन्होंने सत्ता वर्ग में प्रवेश तत्कालीन कांग्रेस की ड्रेस पहनकर किया था। उसके बाद सत्ता का पेंडुलम तेलगु देशम पार्टी की तरफ झुकता देखकर उन्होंने उसी का झंडा पकड़ लिया था और बाद में उसे भी धकियाकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन कर नई पार्टी बना ली थी। अपने पूरे जीवन में दल बदलते हुए उनकी नजऱ हमेशा तेलंगाना के शीर्ष पद पर रही।
इधर उनकी नजऱ उनकी पुरानी पार्टी टी डी पी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू की तरह दिल्ली की शीर्ष गद्दी की तरफ बढऩे लगी थी लेकिन उसके पहले ही उनकी जमीन खिसकने से उनके हाथ से चंद्र बाबू नायडू की तरह राज्य की कुर्सी भी चली गई। कमोबेश यही स्थिति तेलंगाना के मुख्यमंत्री की कुर्सी के नए दावेदार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंथ रेड्डी की है। उन्होंने सत्ता का पहला पाठ भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा ए बी वी पी में सीखा था। उसके बाद उनकी इंट्रनशिप भी के चंद्रशेखर राव की टी आर एस और चंदबाबू नायडू की टी डी पी में हुई।
कालांतर में कांग्रेस की तरफ ज्यादा हरी घास देखकर उन्होंने कांग्रेस के पाले में छलांग लगाना बेहतर समझा। जहां तक विचारधारा का प्रश्न है उन्होंने हर राजनीतिक घाट का पानी पीकर यह साबित किया है कि वे सिर्फ और सिर्फ सत्ता वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं चाहे उसमें बने रहने के लिए कितने ही दल बदलने पड़ें।
के चंद्रशेखर राव और रेवंथ रेड्डी जैसे लाखों करोड़ों युवा और वरिष्ठ नेता हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता वर्ग से नाभिनाल संबद्ध हैं। यह संख्या आज़ादी के बाद से लगातार बढ रही है। अभी इसकी कुल संख्या भले ही सवर्ण समाज की तरह आबादी का एक या दो प्रतिशत ही होगी लेकिन इसके बिना सत्ता और शासन का पत्ता नहीं हिल सकता। इस वर्ग के लिए दार्शनिक लुकाच ने काफी पहले कहा है कि सत्तावर्ग की कामयाबी का राज यह है कि वह अपनी सोच को सर्वहारा में प्रतिष्ठित करने में कामयाब हो जाता है।
सत्ता वर्ग हमारे समाज का सबसे चालाक वर्ग बन गया है जिसकी तुलना किसी अन्य वर्ग से असंभव है। इस वर्ग में राजाओं सी शानो शौकत है, पूंजीवादियों सी धन संपत्ति की अथाह लालसा है, सवर्णों जैसा अहंकार है और अफसरों जैसी हेकड़ी है। दुर्भाग्य से इस वर्ग के अधिकांश सदस्यों में नैतिक मूल्यों और विचारधारा के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं है। सत्ता और सिर्फ सत्ता ही इनका एकमात्र ध्येय है चाहे इसके लिए अपने गुरुओं, वरिष्ठों, परिजनों और मित्रों के साथ विश्वासघात करना पड़े या लोकतंत्र और संवैधानिक सिद्धांतों को तार तार करना पड़े। सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए इस वर्ग के लोक किसी भी हद तक जा सकते हैं। संविधान और लोकतंत्र को इस सत्ता वर्ग से ही सबसे बड़ा खतरा है।
ध्रुव गुप्त
इन दिनों फेसबुक पर हैकर्स का आतंक बढ़ गया है। कई मित्रों के ऐसे पोस्ट देखे और फोन पर भी कुछ लोगों से जानकारियां मिलीं कि उन्होंने मैसेंजर पर प्राप्त किसी लिंक या वीडियो को क्लिक किया और उनके फेसबुक एकाउंट हैक हो गए। ऐसे एकाउंट हैक कर या तो पैसों की मांग की जाती है या कई दूसरे तरीकों से एकाउंटधारी को परेशान और ब्लैकमेल किया जाता है। हैकर्स द्वारा डाले गए आपत्तिजनक कंटेंट के कारण कुछ हैक्ड एकाउंट्स को फेसबुक गायब भी कर दे रहा है। इसके कारण कुछ मित्रों के वर्षों के लिखे-पढ़े पर पानी फिर गया है। कुछ ही साल पहले मेरे साथ भी एक साजि़श हुई थी।मैंने एक वीडियो का लिंक दबाया ही था कि मेरे प्रोफाइल पर अश्लील फिल्मों की बारिश होने लगी। जानकर मित्र ऐसे हमलों से निबटने के तरीके जानतेहैं लेकिन ज्यादातर लोग संकट में फंस जाते हैं। कुछ लोगों ने पुलिस के साइबर सेल की मदद भी मांगी हैं लेकिन चूंकि ऐसे हमले ज्यादातर फेक एकाउंट्स और फेक मोबाइल नंबर्स से होते हैं इसीलिए दोषी सामान्यत: पकड़ में नहीं आते। फिलहाल इतना ही किया जा सकता है कि मेसेज बॉक्स में मिले किसी लिंक को तबतक न क्लिक करें जबतक वे किसी बहुत परिचित या भरोसेमंद व्यक्ति द्वारा नहीं भेजे गए हों।
यह धोखाधड़ी और साजि़श टेक्नोलॉजी के साइडइफेक्ट्स हैं। कृपया सावधान रहें और सुरक्षित रहें !
-रवि तिवारी
पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। सारे पूर्वानुमान धाराशाही होकर रह गए हैं। बीजेपी ने हिंदी बेल्ट में जबरदस्त सफलता हासिल कर अपना परचम लहराया है। कांग्रेस को तेलंगाना में अच्छी कामयाबी मिली है। मिजोरम में बीजेपी और कांग्रेस हासिये पर है। सबसे आश्चर्यजनक परिणाम छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के रहे। राजस्थान अपने स्वभावगत तौर पर हर पांच साल में सत्ता बदलता है और वहां पर हुआ भी वही।
छत्तीसगढ़ में आये चुनाव नतीजों ने सबको चौंका कर रख दिया है। अप्रत्याशित नतीजे सामने आए हैं। कांग्रेस की आपसी लड़ाई के कारण सरगुजा की सभी 14 सीटें कांग्रेस ने इस बार गंवा दी तथा बस्तर में उसके खराब प्रदर्शन ने कांग्रेस को इस बार सत्ता से बेदखल कर रख दिया है।
उद्योगपति व व्यापारी वर्ग इस शासन से बहुत दुखी था,अधिकारी वर्ग ईडी की कार्यवाही से परेशान था जो अपने बचाव के लिए इस शासन से छुटकारा की चाहत रखने लगा था, किसानों का तोड़ बीजेपी ने निकाल ही लिया था। साथ ही महिलाओं के लिए ठीक समय पर जबरदस्त योजना लाकर काम भी करना शुरू कर दिया था जिससे इसका सम्पूर्ण असर बीजेपी के पक्ष में चला गया। कांग्रेस सरकार के दो कद्दावर मंत्री हिन्दू-मुस्लिम के शिकार हो गए। इनके कुछ उम्मीदवार बहुत कम वोटों से हारे जिसमें प्रमुख नाम उपमुख्यमंत्री श्री टीएस सिंहदेव का भी है। सरकार के प्रति जनता की नाराजगी ऊपर से दिखाई नहीं पड़ती थी लेकिन नतीजे उसकी तीव्रता को बयान कर जाते हैं। मुख्यमंत्री सहित कांग्रेस के अन्य विधायकों का बीजेपी के विधायकों के मुकाबले अत्यंत कम वोटों से जितना भी जनता की नाराजगी को ही इंगित करता है।
केंद्र की बीजेपी सरकार ने लगातार छत्तीसगढ़ में ईडी की कार्यवाही कर कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार की पक्की मुहर जनता के मन में लगाने में कामयाबी हासिल कर ली। इसका भी जबरदस्त नुकसान पार्टी को चुनाव में हुआ है। निचले स्तर का भ्रष्ट्राचार अपनी चरम पर था जिससे हर आम व्यक्ति प्रभावित रहा इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता।
ढाई-ढाई साल की लड़ाई कांग्रेस को भारी पड़ी, मनमुटाव जगजाहिर हुआ, जनमानस के मन मे कांग्रेस की छबि धूमिल हुई, इन सबके बाबजूद कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल में बहुत अच्छे काम भी किये है खासकर कोरोना वाले समय में स्थितियो को बहुत कुशलतापूर्वक संभाला गया, सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद शासन को रफ्तार प्रदान की, उद्योगों की, व्यापार की रफ्तार को निरंतर बरकरार रखा, छत्तीसगढ़ी संस्कृति की, आदिवासी संस्कृति की नई पहचान पूरे देश में कराई, स्थानीय खेलों को नई ऊंचाई प्रदान की, माता कौशल्या का मंदिर, राम वन गमन पथ पर किए कार्य को कैसे नकारा जा सकता है। विवेकानंद इंग्लिश मीडियम स्कूलों की तेजी से बढ़ती आम लोगों में लोकप्रियता, इसके साथ ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल योद्धा की तरह अकेले लड़ते रहे इससे भी तो इंकार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा लोगों को जो खटकता रहा मुसलमानों का लगातार बढ़ता दायरा हिन्दू वर्ग को नागवार गुजर रहा था जिसकी चर्चा हर घर में होती थी। कुर्मी वर्ग की चौधराहट अन्य समुदाय को खटकने लगी थी, पीएससी के घटनाक्रम ने नवजवानों को सरकार के खिलाफ लाकर खड़ा कर दिया था, ला एंड आर्डर आम जन के लिए चिंता का विषय बनने लगा था। मुखिया प्रदेश में चल रही अन्य गतिविधियों से बेखबर ही रहा आज ऐसा लगता है।
इन सबके बावजूद बीजेपी की पिछले पांच सालो की कोई उपलब्धि नहीं थी, मरी पड़ी, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी हुई बीजेपी को अंतिम समय में एक ही सहारा मिला और वह था श्री नरेन्द्र मोदी जी का चेहरा और उनकी राजनैतिक कार्यशैली इसके साथ श्री अमित शाह की रीति-नीति व श्री ओम माथुर, श्री मंडाविया की कार्यकुशलता व उनकी रणनीति जिसने बीजेपी को आश्चर्यजनक रूप से सफल बनाया इसमे किसी भी स्थानीय नेताओं का कोई योगदान नहीं था।
इस चुनाव के बाद कांग्रेस को आत्ममंथन करने की सक्त: जरूरत है की कांग्रेसी मानसिकता वाला यह छत्तीसगढ़ प्रदेश लगातार बीजेपी की कार्यशैली व विचारधारा को क्यो पसंद करने लग गया है?
-मोहम्मद शाहिद
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों की जब सुगबुगाहट शुरू हुई तब से ही ऐसा माना जा रहा था कि इस बार बीजेपी के लिए ये चुनाव कड़ी चुनौती बनने जा रहा है।
इसकी पुष्टि तब हो गई जब बीजेपी ने शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रॉजेक्ट नहीं किया। ऐसा माना जा रहा था कि उन्हें लेकर एंटी-इनकम्बेंसी फ़ैक्टर होगा, क्योंकि वो 18 साल से मुख्यमंत्री हैं।
वहीं पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद जताई जा रही थी।
लेकिन जैसे जैसे चुनावों की तारीख़ नज़दीक आती गई, बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व और राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उतनी ही तेज़ी से चुनाव प्रचार में जुटे नजऱ आए।
एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य के चुनाव प्रचार का प्रमुख चेहरा थे और वो लगातार राज्य का दौरा कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ग्राउंड लेवल पर लोगों से मिल रहे थे जिसमें उनकी बार-बार महिलाओं से की जा रही अपील ख़ूब नजऱ आती रही।
कभी शिवराज सोशल मीडिया के चर्चित नामों के साथ नजऱ आए तो कभी महिलाओं को अपनी सरकार की ‘लाड़ली बहन योजना’ की याद दिलाते दिखे। कई बार महिलाओं के बीच में ऐसे संकेत देते भी दिखे कि ये उनकी आखऱिी पारी है।
लेकिन 3 दिसंबर के परिणाम के बाद तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। बीजेपी ने 230 में से 163 सीटें जीत ली हैं, जो पूर्ण बहुमत से 47 ज़्यादा हैं।
इस जीत का श्रेय जहां बीजेपी के नेता पीएम मोदी को दे रहे हैं, वहीं विश्लेषक इसका बड़ा श्रेय बीजेपी के चुनावी गणित और कुछ श्रेय शिवराज की मेहनत को दे रहे हैं।
इस बीच सवाल अब भी बरकऱार है कि मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा? बीजेपी के इतिहास में सबसे लंबे समय तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान इस पद पर बरकऱार रहेंगे या कोई नया शख़्स इस पद को संभालेगा?
बीजेपी ने मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत सात सांसदों को टिकट दिया था, जिसकी ख़ासी चर्चा रही। क्या इनमें से कोई इस कुर्सी पर बैठेगा?
शिवराज सिंह चौहान रहेंगे बरकऱार?
18 साल तक मुख्यमंत्री के पद पर रहने की वजह से शिवराज सिंह चौहान को फिर से मुख्यमंत्री पद का मज़बूत दावेदार माना जा रहा है। लेकिन चुनाव से पहले ही शिवराज सिंह चौहान को पार्टी ने हाशिए पर रख दिया था और उम्मीदवारों की लिस्ट में उनका नाम आखिरी सूची में आया था।
हालांकि, बीजेपी ने चुनाव प्रचार के दौरान पाया कि शिवराज सिंह चौहान की महिलाओं के बीच अच्छी पकड़ है और उनकी लाड़ली बहन योजना को लोग हाथों-हाथ ले रहे हैं।
मध्य प्रदेश चुनाव पर बारीकी से नजऱ रखे रहे बीबीसी संवाददाता सलमान रावी कहते हैं कि 'शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव के दौरान ये साबित कर दिया कि बीजेपी के लिए उन्हें नजऱअंदाज़ करना आसान नहीं है। राज्य में मास लीडर की छवि भी सिफऱ् शिवराज सिंह चौहान की ही थी। ये वक़्त ही बताएगा कि कौन मुख्यमंत्री होगा लेकिन गुटबाज़ी ज़ोरों पर है।'
वहीं ये भी कहा जा रहा है कि पार्टी के बड़े तबक़े का मानना है कि अगले लोकसभा चुनाव तक उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है क्योंकि अब चुनावों में छह महीने से भी कम समय बचा है।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की रेस में शिवराज के साथ, प्रह्लाद सिंह पटेल, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कैलाश विजयवर्गीय को बताया जा रहा है।
भूपेश बघेल का कांग्रेस में क्या होगा राजनीतिक भविष्य?
सलमान रावी कहते हैं, ‘बीजेपी शानदार तरीक़े से जीतकर आई है, अगर ऐसे में वो शिवराज को हटाती है तो ये काउंटर प्रॉडक्टिव भी हो सकता है। विजयवर्गीय को ग्वालियर-चंबल संभाग क्षेत्र के लोग नहीं जानते, वहीं सिंधिया की महाकौशल की जनता पर पकड़ नहीं है। लेकिन शिवराज की पूरे एमपी पर अच्छी पकड़ है और वो पूरे प्रदेश के ‘मामा’ हैं, इसलिए लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें नजऱअंदाज़ करना मुश्किल होगा।’
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल मध्य प्रदेश के चुनाव पर कहते हैं कि शिवराज की ‘लाड़ली बहन योजना’ ने महिलाओं का वोट ज़रूर बढ़ाया लेकिन एंटी इनकम्बेंसी की लहर थी, जिसे बीजेपी के आक्रामक चुनाव अभियान ने काबू किया।
वह कहते हैं, ‘शिवराज सिंह को बीजेपी कैसे मुख्यमंत्री बनाएगी क्योंकि पूरे चुनाव अभियान में पार्टी ने उन्हें हाशिए पर रखा हुआ था।’
‘बीजेपी ने संकल्प पत्र मतदान से तीन-चार दिन पहले जारी किया था और ताज्जुब की बात ये थी कि इस संकल्प पत्र में लाड़ली बहन योजना के संदर्भ में पैसे बढ़ाने की बात ग़ायब थी। अगर शिवराज को मुख्यमंत्री बनाते हैं तो ये वादा तो पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि संकल्प पत्र में वो बात ही नहीं है।’
प्रह्लाद पटेल बीजेपी की
कितनी बड़ी पसंद?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की रेस में प्रह्लाद सिंह पटेल का नाम भी आगे है। वो दामोह से सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं।
प्रह्लाद पटेल का नाम संघ को भी पसंद है क्योंकि उन्होंने छात्र राजनीति की शुरुआत एबीवीपी से की और वो संघ के भी कऱीब रहे हैं।
सलमान रावी कहते हैं कि बीजेपी ने महाकौशल-विंध्य पर पूरा ध्यान लगाते हुए वहां से प्रह्लाद पटेल को उतारा था और महाकौशल क्षेत्र हिंदुत्व की नई लैब है।
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार संजय सक्सेना कहते हैं कि मध्य प्रदेश में बीजेपी ओबीसी चेहरे पर ही दांव खेलेगी, क्योंकि उमा भारती, बाबूलाल गौर से लेकर शिवराज सिंह चौहान तक सब ओबीसी समुदाय से आते हैं।
कोट कार्ड
संजय सक्सेना कहते हैं, ‘शिवराज सिंह चौहान अगर मुख्यमंत्री नहीं बनते हैं तो प्रह्लाद सिंह पटेल की ही सबसे प्रबल दावेदारी है क्योंकि वो ओबीसी समुदाय से आते हैं।’
वहीं, राजेश बादल प्रह्लाद पटेल को भी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं मानते। वो कहते हैं कि शिवराज को लेकर एंटी-इनकम्बेंसी का फ़ैक्टर था तो बीजेपी ने भ्रम पैदा किया और उसने चार अलग-अलग क्षेत्रों से बड़े-बड़े नाम खड़े किए।
वो कहते हैं कि महाकौशल-विंध्य से प्रह्लाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे केंद्र के नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा गया ताकि जनता को लगे कि उनके क्षेत्र का नेता मुख्यमंत्री हो सकता हैं, इसी तरह से बीजेपी ने अलग-अलग क्षेत्रों में भ्रम पैदा किया।
सिंधिया पर दांव लगाएगी बीजेपी?
कांग्रेस का दामन छोडक़र जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी का दामन थामा तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी गिर गई क्योंकि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के उनके समर्थक विधायक भी बीजेपी के पाले में आ गए।
इस बार के चुनाव में ग्वालियर-चंबल संभाग में बीजेपी को 34 में से 18 सीटों पर जीत मिली है जबकि 2018 में महज़ सात सीटों पर जीत मिली थी। यानी इस बार बीजेपी को 11 सीटों का फ़ायदा हुआ है।
वहीं सिंधिया के कांग्रेस में रहते हुए 2018 के विधानसभा चुनाव में इन 34 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी।
मध्य प्रदेश में बीजेपी के पास सिंधिया भी एक चेहरा हैं जिसकी प्रदेश में एक मास अपील है।
सलमान रावी कहते हैं कि सिंधिया जब पार्टी में आए तो उनकी बीजेपी से क्या डील हुई इसके बारे में अब तक साफ़ नहीं है लेकिन हाल में उनकी पीएम मोदी और अमित शाह से जिस तरह से नज़दीकी बढ़ी है, उससे उनके नाम की चर्चा काफ़ी है।
वो कहते हैं कि चुनाव के दौरान ग्वालियर के महल से बीजेपी के शीर्ष नेताओं की नज़दीकी रही, अमित शाह महल में खाना खाने गए और पीएम मोदी सिंधिया के स्कूल के कार्यक्रम में भी गए।
संजय सक्सेना ज्योतिरादित्य सिंधिया की जाति के सवाल पर कहते हैं कि वो ख़ुद को ओबीसी नेता बताते हैं हालांकि वो महाराज हैं। अगर ओबीसी कार्ड खेलना होगा तो बीजेपी सिंधिया के नाम पर भी खेल सकती है।
राजेश बादल कहते हैं कि सिंधिया अगर मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं तो वो बीजेपी के लिए लोकसभा चुनाव में उलटे पड़ सकते हैं क्योंकि सिंधिया परिवार बीते 50 सालों से कांग्रेस में था और बीजेपी की तीन पीढिय़ां सिंधिया ख़ानदान से संघर्ष करती गुजऱी है।
‘उनके मुख्यमंत्री बनने से बीजेपी का पारंपरिक स्थानीय नेतृत्व नाख़ुश हो जाएगा और इससे ग्रास रूट लेवल तक ग़लत मैसेज जाएगा। लोकसभा का चुनाव भी वो हार चुके हैं तो उनका पक्ष कमज़ोर है।’
कैलाश विजयवर्गीय की भी चर्चा
बीजेपी के उम्मीदवारों की जब सूची जारी हुई तो उसमें केंद्र में मौजूद नेताओं के नामों को देखकर सबको हैरानी हुई। इस बात की हैरानी ख़ुद कैलाश विजयवर्गीय को भी हुई थी।
कैलाश विजयवर्गीय इंदौर से चुनाव जीत गए हैं और उन्हें भी मुख्यमंत्री की दौड़ में माना जा रहा है।
हालांकि, वो राज्य में जीत का श्रेय सिफऱ् शिवराज को नहीं देना चाहते हैं। उन्होंने इस जीत के बाद भारी जनादेश के पीछे मोदी के नेतृत्व को वजह बताया।
जब उनसे पूछा गया कि क्या लाड़ली बहना स्कीम बड़ी जीत का कारण बनी। इस सवाल के जवाब पर उन्होंने कहा ‘क्या लाड़ली बहना योजना छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी थी?’
सलमान रावी इस बयान पर कहते हैं कि बीजेपी के महासचिव ये बात कह रहे हैं, इसका मतलब है कि बीजेपी ये मान रही है कि सिफऱ् शिवराज की योजना फ़ैक्टर नहीं थी बल्कि मोदी का चेहरा भी एक बड़ी वजह थी।
‘वो (विजयवर्गीय) मास लीडर नहीं हैं, दूसरा वो ओबीसी समुदाय से नहीं आते हैं। कांग्रेस के जातिगत जनगणना के आंकड़े के वादे को काउंडर करने के लिए कैलाश विजयवर्गीय सही चेहरा बीजेपी के लिए नहीं होंगे।’
संजय सक्सेना कहते हैं, ‘संगठन के लिहाज़ से उन पर बीजेपी दांव खेल सकती है। मुझे लगता है कि उन्हें संगठन की जि़म्मेदारी दी जाएगी।’
नरेंद्र सिंह तोमर या फग्गन सिंह कुलस्ते
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के चुनाव लडऩे की जब घोषणा हुई तब ये माना जाने लगा था कि वो मुख्यमंत्री के पद की रेस में सबसे आगे हैं।
चुनाव प्रचार के दौरान उनके बेटे देवेंद्र सिंह का एक कथित वीडियो वायरल हुआ जिसमें वो पैसे के लिए डील कर रहे थे। चर्चा है कि इस वीडियो के सामने आने के बाद बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम नहीं उठाना चाह रही है।
वहीं, आदिवासी समुदाय से आने वाले केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते के नाम की भी चर्चा चल रही थी लेकिन वो चुनाव हार गए। वहीं, विश्लेषक मानते हैं कि उनकी राजनीतिक पारी अब समाप्ति की ओर है और उन्हें महाकौशल से एक चेहरे के तौर पर वोट बटोरने के लिए उतारा गया था।
कोई छिपा नाम आएगा सामने?
बीजेपी मध्य प्रदेश प्रमुख वीडी शर्मा और मंत्री राजेंद्र शुक्ला के नामों की भी चर्चा चल रही थी और दोनों ही ब्राह्मण समुदाय से आते हैं।
सलमान रावी कहते हैं कि ब्राह्मण समुदाय से होने के नाते इनके नामों पर बात आगे बढ़ती नहीं दिख रही क्योंकि बीजेपी ओबीसी की ही राजनीति करना चाहती है।
वहीं संजय सक्सेना कहते हैं कि ‘ओबीसी के अलावा किसी नाम पर विचार होगा तो वो एससी-एसटी समुदाय से होगा। मुझे नहीं लगता कि ब्राह्मण कोई नेता मुख्यमंत्री होगा। पिछली बार नरोत्तम मिश्रा के नाम की चर्चा थी लेकिन उन पर बीजेपी ने दांव नहीं लगाया और इस बार वो चुनाव हार गए।’
‘महिला ओबीसी के नाम की भी चर्चा चल रही है लेकिन इस पर भी सवाल उठता है कि वो लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से कितना कारगर साबित होगा। महिला ओबीसी में भोपाल से सिफऱ् कृष्णा गौर का चेहरा नजऱ आता है जो एक लाख छह हज़ार वोटों से चुनाव जीती हैं।’
सलमान रावी कहते हैं कि इस सबके बावजूद बीजेपी को ये महारत हासिल है कि वो अचानक मनोहर लाल खट्टर और देवेंद्र फडणवीस जैसे नामों को खड़ा कर देती है, मध्य प्रदेश में ऐसा भी नाम हो सकता है जिसकी कोई चर्चा न हो।
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल अतीत के उदाहरणों का हवाला देते हुए कहते हैं कि बीजेपी ने जिन राज्यों में जीत हासिल की वहां कभी भी विधायकों ने मुख्यमंत्री नहीं चुना, पीएम मोदी ने अचानक कोई नया नाम निकालकर चौंका दिया, ऐसा गुजरात, झारखंड, उत्तराखंड, हरियाणा में देखा जा चुका है।
वह कहते हैं, ‘पीएम मोदी की जो शैली है उसमें वो दो तीन चेहरों को चर्चा में बनाए रखते हैं और एक नए नाम को ले आते हैं। जैसे कि सिंधिया लगातार बड़े नेताओं के साथ डिनर कर रहे हैं, प्रह्लाद पटेल अमित शाह से मिल रहे हैं तो ऐसा लगता है कि इनमें से कोई मुख्यमंत्री बने।’
राजेश बादल कहते हैं कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस के जातिगत जनगणना के मुद्दे से निपटने के लिए बीजेपी ओबीसी के नए चेहरे पर ही दांव खेलेगी। (bbc.com/hindi)
सुनीता नारायण
देश अपनी आज़ादी के 76वें साल का जश्न मना रहा है। इस मौके पर यह जायज़ा लेना उचित होगा कि पर्यावरण आंदोलनों ने देश की नीतियों और विकास को आकार देने में क्या भूमिका निभाई है।
पर्यावरण आंदोलन की तीन अलग-अलग राहें हैं जिन पर हम इतिहास में इनके पदचिन्ह देख सकते हैं।
पहली, जिसमें पर्यावरण आंदोलन ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए विकास रणनीति को परिभाषित करने में भूमिका निभाई है। दूसरी, जिसमें पर्यावरणीय अभियानों ने विकास परियोजनाओं का विरोध किया है और इस संघर्ष से कार्रवाई के लिए सर्वसम्मति उभरी है। तीसरी, पर्यावरणीय आंदोलन ने प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य के मामलों में नीतियों में बदलाव करने की ओर ज़ोर लगाया है।
आंदोलन की ‘प्रकृति’ जटिल है। पिछले 75 सालों में ये आंदोलन दो धाराओं में बंटकर काम करते रहे हैं - विकास के रूप में पर्यावरणवाद और संरक्षण के रूप में पर्यावरणवाद।
आंदोलन में यह विभाजन इसके जन्म के समय, 1970 के दशक में, भी नजऱ आ रहा था। 1973 में, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया गया था जो संरक्षण की पश्चिमी अवधारणा के अनुरूप प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण हेतु अभयारण्यों हेतु भूमि चिन्हित करने के लिए था। लगभग उसी समय, हिमालय के ऊंचे इलाकों में महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया था, जिसमें उन्होंने पेड़ काटने (पेड़ों पर आरी-कुल्हाड़ी चलाने) का विरोध किया था। उनका आंदोलन संरक्षण के बारे में नहीं था; उन्हें जीवित रहने के लिए पेड़ों की आवश्यकता थी और इसलिए वे उन्हें काटने और उन्हें उगाने का अधिकार चाहते थे।
यह भेद हमारी नीतियों में भी झलकता है जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उनके संरक्षण के बीच डोलती रहती हैं। और इन सब में, समुदायों के अधिकार उपेक्षित रहे हैं।
प्रोजेक्ट टाइगर वर्ष 2004 में तब पतन के गर्त में पहुंच गया था जब राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के सभी बाघ शिकारियों की बलि चढ़ गए थे। तब, टाइगर टास्क फोर्स ने सुधार के लिए अजेंडा तय किया, जिसमें अभयारण्य की सुरक्षा को मज़बूत करना और टाइगर कोर ज़ोन वाले इलाकों से गांवों को अन्यत्र बसाना शामिल था। तब से जंगल में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि क्या स्थानीय समुदायों को इस संरक्षण प्रयास से कोई लाभ हो रहा है?
इसी प्रकार, चिपको आंदोलन ने देश को वन संरक्षण और वनीकरण के लिए प्रेरित किया। 1980 के दशक में वन संरक्षण कानून लागू किया गया था, जिसमें यह व्यवस्था थी कि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता है।
इस कानून ने कुछ हद तक वन भूमि उपयोग परिवर्तन की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है, लेकिन साथ ही इसने उन समुदायों को वनों से दूर कर दिया है जो इनकी रक्षा करते थे। आज सवाल यह है कि जंगल कैसे उगाएं, कैसे उन्हें काटें और दोबारा फिर उन्हें उगाएं ताकि भारत काष्ठ-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सके और इस तरह बढ़ सके कि स्थानीय लोगों को इससे फायदा हो।
1980 के दशक में, नर्मदा नदी पर बांध बनाने की परियोजना ‘विनाशकारी’ विकास का चरमबिंदु था। यह परियोजना 1983 में साइलेंट वैली पनबिजली परियोजना को रोकने के निर्णय के बाद आई थी। साइलेंट वैली परियोजना केरल के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों की समृद्ध जैव विविधता को बचाने के लिए रोकी गई थी।
नर्मदा परियोजना के मामले में भी मुद्दे वही थे - जंगलों की क्षति और विस्थापित गांवों का पुनर्वास। इस आंदोलन को बहुत सम्मान और निंदा दोनों मिलीं। लेकिन इस आंदोलन ने इस मुद्दे को बहुत अच्छे से उठाया कि नीति में और फिर सबसे महत्वपूर्ण रूप से क्रियांवयन में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
1980 के दशक की इन हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं के कारण 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करने और मंज़ूरी देने के ताम-झाम की स्थापना हुई। लेकिन संतुलन बनाने का उपरोक्त कार्य अभी भी अधबीच में है।
यह 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सूखा पड़ा था जिसने हमारे सहयोगी और पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल को जल प्रबंधन की मान्यताओं को फिर से देखने-समझने के लिए प्रेरित किया।
डाइंग विजड़म नामक पुस्तक में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीकी प्रवीणता का दस्तावेज़ीकरण किया गया है। इसने विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित जल संरक्षण के विचार को उभारा, जिसके बाद आजीविका में सुधार करने और जहां बारिश होती है वहीं उस पानी को भंडारित करने के लिए जल निकायों के पुनर्जनन की दिशा में नीतिगत बदलाव हुए।
दिसंबर 1984 में आई औद्योगिक आपदा भोपाल गैस कांड - जिसमें यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुई थी और मौके पर ही हज़ारों लोग मारे गए थे - के कारण औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए बने कानूनों में सुधार हुआ, और कुछ हद तक कंपनियों की तैयारियों में सुधार हुआ। लेकिन हमने उन लोगों को अब तक न्याय नहीं दिया है जो इसके चलते अब भी स्वास्थ्य समस्याओं से पीडि़त हैं और उनके पास आजीविका का अभाव है।
1990 के दशक में दिल्ली में स्वच्छ हवा के अधिकार के लिए लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई से बेहतर ईंधन के विकल्प मिले और प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है -दिल्ली ने स्वच्छ संपीडि़त प्राकृतिक गैस (सीएनजी) को अपनाया। (बाकी पेज 8 पर)
लेकिन जैसे-जैसे सडक़ों पर वाहन और प्रदूषण बढ़ाने वाले ईंधन का दहन (उपयोग) बढ़ा, वैसे-वैसे वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि हुई। अच्छी खबर यह है कि आज, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के खिलाफ व्यापक अफसोस (या चिंता) है। बुरी खबर यह है कि हम परिवहन प्रणाली को बेहतर करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं - यानी उद्योग, बिजली या खाना पकाने में उपयोग होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के उपयोग को थामने के कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं।
ऐसी और भी अन्य घटनाएं हैं जिन्हें पर्यावरण इतिहास डायरी में अवश्य दजऱ् किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत के पर्यावरण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण लाभ वह आवाज़ है जो इसने देश के नागरिकों को दी है। यही आंदोलन की आत्मा है। दरअसल, पर्यावरणवाद का सरोकार तकनीकी सुधारों से नहीं है बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने से है। (स्रोत फीचर्स)
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे राजनीतिक दल और उनके हाई कमान सत्ता हासिल करने के लिए तरह तरह के शॉर्ट कट अपनाते हैं। जिसका शॉर्ट कट सबसे आकर्षक होता है वह बाजी मार लेता है।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजे बहुत दिनों तक चुनाव विश्लेषकों को स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए परेशान करते रहेंगे क्योंकि यहां लंबी एंटी इनकंबेंसी थी, सडक़ जैसे बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की हालत दयनीय थी, दल बदल कराकर अनैतिक तरीके से सत्ता हथियाई गई थी। यही कारण था कि भाजपा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को आगे नहीं बढ़ाया था। इन सब विषम परिस्थितियों के बावजूद भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल होना आश्चर्यजनक है।भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस भले ही विरोधाभासी दावे कर अपनी पीठ थपथपाते हुए या दूसरे को नीचा दिखाने के लिए अपनी जीत और हार के बारे में कुछ भी कहें लेकिन सच्चाई यह ही है कि अब चुनाव जनता के जरूरी जमीनी मुद्दों यथा सडक़, पानी, बिजली, रोजग़ार, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि सुविधाओं को लेकर नहीं लड़े और जीते जाते अपितु सत्ता हासिल करने के लिए विभिन्न भावनात्मक मुद्दों पर जनता के खास वर्गों को लामबंद किया जाता है। धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय संस्कृति चार ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिनके साथ धन का मिश्रण जनता में हवाई लहर बना देता है। विभिन्न भावनात्मक मुद्दों को अलग अलग या विभिन्न मिश्रण के साथ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों द्वारा समय समय पर अपनाकर सत्ता हासिल करने के पूर्व के भी कई उदाहरण हैं, मसलन क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा को लेकर तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, टी आर एस और तमिलनाडू में डी एम के और ए आई ए डी एम के आदि, अनुसूचित जातियों के दम पर बहुजन समाज पार्टी, एम वाई मिश्रण से समाजवादी पार्टी और राजद इसी तरह अपने अपने राज्यों में सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे हैं। भारतीय जनता पार्टी अब सरेआम हिंदुत्व को आगे बढ़ाने में पहले जैसा संकोच नहीं करतीं और खुलकर राम मंदिर और धार्मिक लोक का ढिंढोरा पीटती है। इसी तरह कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे भी यही प्रारंभिक संकेत दे रहे हैं कि भाजपा के प्रचंड बहुमत के लिए धर्म (हिंदुत्व) और धन का मिश्रण अत्यंत कारगर साबित हुआ है। जहां तक धन का प्रश्न है उसमें कई स्रोतों से जनता को धन पहुंचा है। सबसे ज्यादा लाडली बहनों के खातों में हर महीने सरकारी धन जमा होना अन्य सभी मुद्दों पर भारी पड़ा है। भाजपा का हर महिला के खाते में छत्तीस हजार रूपए प्रतिवर्ष जमा करने का वादा खुद में इतना आकर्षक है कि उसके सामने तमाम रेवडिय़ां बौनी दिखाई देती हैं।भारतीय जनता पार्टी के पास कॉरपोरेट चंदे का धन भी कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में कई गुणा है जिसके सहारे दल के रुप में बड़ा खर्च संभव था।अमीर उम्मीदवारों का निजी काला धन भी लगातार लम्बे समय तक सत्ता में रहने के कारण भाजपा के उम्मीदवारों के पास होना स्वाभाविक है।धन के ये तीन बड़े स्रोत काफी मतदाताओं के ईमान डिगाने में सक्षम हैं। सत्ता हासिल करने के लिए धन बल का प्रयोग हमारे लोकतंत्र के शैशव काल से चल रहा है। ऐसा लगता है कि इन चुनावों में उसने धर्म के साथ मिलकर जबरदस्त काम किया है।
धर्म और धन का भाजपाई गठजोड़ निश्चित रूप से राजस्थान और छत्तीसगढ में भी प्रभावी रहा है, हालाकि वहां कांग्रेस की आपसी कलह के कारण भी भाजपा विजयी हुई है। एक तरफ जहां भाजपा का धर्म और धन का मारक गठजोड़ बेहद सफ़ल रहा है वहीं कांग्रेस ने पिछड़ी जातियों को लुभाने का दांव चला था। आनन फानन में चले इस दांव ने कांग्रेस को लाभ के बजाय हानि पहुंचाई है। पिछड़ी जातियों ने तो कांग्रेस को ज्यादा अहमियत नहीं दी उल्टे सवर्ण समाज कांग्रेस से दूर छिटक गया जो उसका परंपरागत वोट बैंक था। उम्मीद की जा सकती है कि भाजपा लोकसभा चुनाव में धर्म और धन के गठजोड़ को जारी रखेगी और कांग्रेस ने कुछ नया दांव नहीं चला तो भाजपा आसानी से सत्ता की हैट्रिक पूरी करेगी।
देवेन्द्र वर्मा
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने राजनीतिक विश्लेषकों, चुनावी पंडितों, एग्जिट पोल के नाम से पोस्टमार्टम करने वाली एजेंसियों और भाजपा सहित अन्य राजनीतिक दलों के अनुमानों को सिरे से खारिज कर दिया। चुनाव परिणामों के आने के पूर्व भाजपा के नेता परिणामों को लेकर सशंकित थे, एकतरफ़ा परिणामों से उन सबकी बाँछे खिली हुई है, यद्यपि इस जीत का सेहरा तो सब मोदी, शाह, और नड्डा के सिर पर बांध रहें हैं, लेकिन जीत के कारण उनकी योजनाओं विशेषकर मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना को ‘गेम चेंजर’ बताने में या जीत में स्वयं के योगदान का उल्लेख करने में भी राज्य के नेता पीछे नहीं हैं।
प्रश्न यह है कि क्या तीन तीन राज्यो में इतनी बड़ी जीत के लिए किसी एक योजना को गेम चेंजर माना जा सकता है ?
वर्ष 2018/19 के विधान सभाओं और लोकसभा चुनाव में भी के सिलिंडर पर सब्सिडी, किसानों को आर्थिक अनुदान, बिजली बिल्स माफ़ जैसी अनेक योजनाओ के रहते हुए विगत चुनावों में (2018/19) विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के मताधिकार का ट्रेंड अलग अलग रहा, अर्थात राज्य विधानसभा के चुनाव में मतदाताओं ने भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों के स्थानीय राज्य नेतृत्व की तुलना करते हुए मतदान किया तो परिणाम भाजपा के केद्रीय नेतृत्व की आशानुकूल नहीं आये, राज्यों में भाजपा को सरकार बनाने लायक़ बहुमत भी नहीं मिल पाया फलस्वरूप कई राज्यो में कांग्रेस अथवा अन्य दलों की सरकारें बनी ।
राज्यों में तो भाजपा को सरकार बनाने लायक़ बहुमत नहीं मिला, (यद्यपि पश्चात भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से प्रभावित होकर भाजपा में सम्मिलित होकर भाजपा की सरकारे बनी) लेकिन अल्पावधि के अंतर में संसद के निर्वाचन के लिए मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व में भरपूर भरोसा प्रदर्शित किया, नतीजा 2014 में 282 सीट्स से 2019 में भाजपा को 303 सीट्स पर विजय श्री प्राप्त हुई।
हाल ही के 5 राज्यो के चुनाव के लगभग एक वर्ष पहले हिमाचल और कर्नाटक के चुनाव भाजपा ने एक बार फिर राज्य नेतृत्व को महत्व देते हुए चुनाव में जाने का निर्णय किया लेकिन विपक्षी दलों के नेतृत्व की तुलना में भाजपा के राज्यो के नेतृत्व को लगभग ख़ारिज कर दिया।
2023 हाल के पाँच राज्यो के चुनाव 2024 में लोकसभा के चुनाव पूर्व होने वाले ऐसे चुनाव थे, जिनके परिणाम जनता की पहचानने के लिए महत्वपूर्ण हैं, साथ ही हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस को सत्ता की कुर्सी प्राप्त होने के और भाजपा की शिकस्त पश्चात (बाकी पेज 8 पर)
2024 के चुनावों के मद्दे नजऱ भाजपा के लिए उत्तर भारत के प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान के चुनाव जीतना एक चुनौती था, और चुनाव में इस चुनौती को अपने अकल करना भी।
इन चुनावों में केंद्र की योजनाओं, स्वयं की लोकप्रियता के आधार पर जाने का जोखिम लिया, और संगठन के केंद्रीय नेतृत्व नड्डा ने अमित शाह के मार्ग दर्शन में चुनावों का संपूर्ण संच अपने हाथ में ले लिया।
शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे और रमन सिंह पूर्व मुख्य मंत्रियों को विशेष महत्व नहीं देकर यह संदेश देना कि सत्ता में आने मुख्यमंत्री का निर्णय पश्चात होगा, और सबसे महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को सामने रखते हुए मोदी के नाम पर मतदाताओं से वोट देने की अपील करना, चुनाव घोषणा पत्र को मोदी की गारंटी जोडऩा ।
पूर्ण मोदी की शतक से अधिक सभायें और रोड शो, अमित शाह और नड्डा के संगठन को सक्रिय करने की जीतोड़ मेहनत और बूथ लेवल तक कार्यकर्ताओं को जि़म्मेदारी सौंपने से मोदी की चुनाव लडऩे की डिज़ाइन (अभिकल्पना) ने भाजपा की जीत की संभावनाओं को साकार कर दिया।
चुनाव में केंद्र की लोक कल्याणकारी योजनाओं और चुनावों की रणनीति की अभिकल्पना ( डिज़ाइन) का आरंभ पूर्व स्थापित प्रक्रियाओं को तिलांजलि देते हुए हुए, पहली बार चुनावों की घोषणा होने के पूर्व हाई कमांड द्वारा अपने सूत्रों से जानकारी प्राप्त कर, प्राप्त जानकारी के आधार पर प्रत्याशियों के नामों की घोषणा, अनेक केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को चुनाव में उतारना, चुनाव संचालन का संपूर्ण नियंत्रण केंद्रीय नेतृत्व द्वारा अपने पास रखना, एंटी इनकम्बैंसी की धार को बोथरा करने के लिए सामूहिक नेतृत्व में चुनाव में जाना, इन योजनाओं से आये परिवर्तन को बार बार दोहराया गया।
मोदी ने इन चुनावों के लिये जो डिज़ाइन तैयार की है, उसमें पूर्व मुख्यमंत्रियों को सीएम पदके लिये प्रोजेक्ट नहीं किया, मोदी सामान्यत: अपने निर्णयों में परिवर्तन नहीं करते हैं, ऐसी स्थिति में नहीं राज्यों में सीएम के लिये नये नाम सामने आयें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
चैतन्य नागर
आइन्स्टाइन को दिन में करीब दस घंटे तक नींद आती थी। इसके अलावा वह बीच-बीच में कुछ मिनटों की झपकी लेते रहते थे। उनका मानना था कि नींद दिमाग को टटका बना देती है, उनकी सृजनात्मक अंतर्दृष्टियां काम और विश्राम के अंतराल में ही जन्मती हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कोई लगातार नींद में रहे। और यह उम्मीद करे कि उस नींद की स्थिति में ही चमत्कार का जन्म होगा। यह बात जीवन की हर क्षेत्र में लागू होती है। राजनीति के क्षेत्र में तो बहुत अधिक। कांग्रेस पर तो जरूरत से ज्यादा।
कांग्रेस के साथ दो बड़ी समस्याएं हैं। बाकी छोटी तो और भी कई हैं। सबसे विचित्र समस्या यह है कि वह सोचती है कि भाजपा के करीब दस साल के शासन के बाद भी जनता उसकी पुराने, परम्परावादी राजनीतिक दर्शन के झांसे में आ जायेगी। इस दर्शन में मुस्लिम तुष्टिकरण, जातिवाद पर आधारित राजनीति वगैरह शामिल है। दूसरी यह कि कांग्रेस एक विचित्र किस्म के रुग्ण अहंकार से पीडित है और इसका सोचना है कि चूंकि उसने कई दशकों तक देश पर राज किया है, तो यही अनंत काल तक उसे आगे राज करने का भी अधिकार दे देती है। ऐसा सोचते समय वह बदलते हुए देश और समाज, इसके सामाजिक ढाँचे वगैरह को पूरी तरह अनदेखा कर देती है। वह अभी भी सोचती है कि एक परिवार या एक व्यक्ति के आधार पर वह लगातार लोगों को झांसे में रखेगी और जीतती जायेगी, सत्ता पर काबिज रहेगी। जब आत्म निरीक्षण की बात होती है तो वह बार-बार विपक्ष पर अधिक और स्वयं पर कम गौर करती है। इसका अर्थ है कि उनकी हार का दोष उनकी कमियों पर नहीं, बल्कि विपक्ष पर मढा जाना चाहिए। अजीब बात यह है कि कांग्रेसी इस अनर्गल बात पर बार बार भरोसा कर बैठते हैं। परिणाम यह है कि उनका सबसे बड़ा नेता, (पार्टी अध्यक्ष नहीं, बल्कि राहुल गांधी) लगातार, झूठे वाह्य आवरण के पीछे बैठकर ऐसे फैसले लेता रहता है जिसके बारे में उसकी समझ अभी भी परिपक्व नहीं हुई (यह भी नहीं मालूम कि उम्र के किस पड़ाव पर यह परिपक्व होगी), और पार्टी उनकी जय जयकार करती रहती है।
अब तीन राज्यों में हार के बावजूद हो सकता है कांग्रेस पार्टी स्थानीय नेताओं पर दोष मढ़ दे, या भाजपा के चातुर्य या कुटिलता पर। ई वी एम पर भी कुछ लोगों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है। वह और भी कई सृजनात्मक कारण ढूँढ सकती है। पिछले कई वर्षों में हुई लगातार पराजय ने उसे इस काम में माहिर बना दिया है। पर जो बात उसे समझ नहीं आ रही, वह यह है कि यह सब उसके खुद के लिए कितना विध्वंसक है।
कांग्रेस के साथ उलझी हुई विचारधारा की भी एक समस्या है। कांग्रेस पार्टी कभी भी ओबीसी आधारित राजनीति के केंद्र में नहीं रही। हमेशा इसकी परिधि में ही रही है। न ही वह हिन्दूवादी पार्टी रही है। मंडल आयोग का उसने विरोध किया था। उसे मुस्लिम समुदाय का विकास करने वाली पार्टी नहीं बल्कि मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाली पार्टी के रूप में ही इतिहास याद रखेगा। तो फिर अचानक कांग्रेस जातिगत जनगणना वगैरह की बात कैसे करने लगी? कैसे कमलनाथ जैसे नेताओं ने सॉफ्ट हिंदुत्व का नाटक रचना शुरू किया? क्यों राहुल गांधी ने माथे पर भस्म लगाकर मंदिरों में जाना शुरू किया? क्यों उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों को बेवकूफ बनाने की कोशिश की? खासकर तब जब भारत पिछले दस वर्षों में मोदी की कार्य शैली देख चुका है। जनता मोदी पर इसलिए भरोसा करती है क्योंकि उन्होंने जो कहा, वो किया। 3.0 हटाई, तीन तलाक खत्म किया, राम मंदिर बनाया जिसका वादा किया वही किया। वोटर वोट देते समय सोचता है कि ये तो भरोसे के लोग हैं। कम से कम जो कहते हैं, वो करते तो हैं। इधर कांग्रेस अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट और आश्वस्त ही नहीं। जब खुद ही स्पष्ट नहीं, तो जनता के पास कौन सा सन्देश लेकर जायेगी?
अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहुल गांधी के बारे में लिखा है कि उनमें में एक ‘अनगढ़पन और घबराहट है, मानों वह ऐसे छात्र हों जिसने अपना पाठ पूरा कर लिया हो और शिक्षक को प्रभावित करने की चेष्टा में हो, लेकिन विषय का पारंगत होने के लिए जज़्बे और प्रतिभा दोनों की उसमें कमी हो।’ इस पुस्तक का शीर्षक है ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’। आम कांग्रेसी इस परिभाषा और व्याख्यान से बौखलाया था हालांकि पार्टी ने औपचारिक तौर पर इसपर चुप्पी साध ली थी। ओबामा ने अपनी किताब में सिर्फ राहुल गांधी के बारे में ही नहीं लिखा। उस काल के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में भी अपनी बात कही है। उनका कहना है कि डॉ सिंह एक भावशून्य ईमानदारी वाले व्यक्ति हैं। सोनिया गांधी का जिक्र करते हए ओबामा कहते हैं कि दुनिया में पुरुष नेताओं की खूबसूरती के बारे में खूब चर्चा होती है पर महिला नेताओं के सौंदर्य के बारे में लोग बातें करते हुए कतराते हैं। उन्होंने सुंदर स्त्री नेताओं में सोनिया गांधी के नाम का जिक्र किया है।
ओबामा ने थोड़े शब्दों में कांग्रेस के इन नेताओं को बड़े सटीक ढंग से परिभाषित किया है। उनकी टिप्पणियां किसी पूर्वग्रह से ग्रसित बिल्कुल नहीं लगती। दो बार राष्ट्रपति रहे ओबामा ने अपने गहरे अवलोकन की क्षमता को दर्शाया है। जो लोग उनके ऐसा कहने की आजादी पर सवाल कर रहे हैं उन्हें थोड़ा आत्ममंथन करना चाहिए। ये किसी आम नेता का बयान नहीं जो प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस पार्टी का विरोधी हो, अभी देश की सत्ता संभाले हुए लोगों का करीबी हो या कांग्रेस में राहुल गांधी की जगह हथियाने की फिराक में हो। यह एक बहुत ही लोकप्रिय और विश्व के सबसे बड़े नेताओं में से एक, नोबेल शांति का पुरस्कार पाए हुए एक सुलझे हुए नेता का बयान है जो कि अपने व्यक्तित्व, संजीदगी और अपने देश की जनता के साथ अच्छे संबंधों के कारण न सिर्फ अपने देश में बल्कि पूरी दुनिया में विख्यात रहा है। वह सस्ती लोकप्रियता और नाटकीय तौर तरीकों से कोसों दूर रहने वाले नेताओं में रहे हैं और ट्रम्प को उनके विलोम के रूप में देखा जा सकता है।
पिछले लोक सभा चुनावों के बाद एक शब्द बड़ा लोकप्रिय हुआ-आत्मनिरीक्षण। राजनैतिक आत्मनिरीक्षण का मतलब है चुनाव परिणाम के आईने में खुद की बदली हुई स्थिति को देखना। आईना आपको दिखाता है कि कैसे हैं आप, आपके नाक नक्श कैसे हैं, वजन बढ़ा हुआ है, या घटा है, वगैरह-वगैरह। अब आप आईने से कहें कि जरा बदल दे वह आपकी नाक का आकार, तो यह तो भयंकर बेईमानी हुई। आत्मनिरीक्षण में तो एक निर्ममता होनी चाहिए, एक कठोर और स्पष्ट दृष्टि, जिसमें कोई कोशिश भी करे तो न बदल पाये आपकी नाक के आकार को। खुद को जस का तस, यथाभूत देखने का साहस होना चाहिए।
मुझे तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस के लिए भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर नहीं, शुतुरमुर्ग होना चाहिए। कम से कम कांग्रेसियों के लक्षण देख कर तो ऐसा ही लगता है। कांग्रेसी खुद से रचे रेत के ढेरों में सर छिपा रहा है, बचने की कोशिश में है। खासकर एक ऐसी पार्टी जिसने अपना पूरा जीवन एक व्यक्ति, एक नाम पर लटककर बिताया हो, परजीवी की तरह अतीत की मृत देह को नोच कर अपनी राजनीतिक भूख मिटाने की कोशिश में रहा हो, उससे तो और कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती। शुतुरमुर्ग आत्मनिरीक्षण नहीं करता बस रेत के एक ढेर से दूसरे ढेर की तलाश भर कर सकता है। यही उसकी कमेडी है; यही ट्रेजडी। व्यक्ति और संगठन का वर्तमान जब सन्नाटे में चला जाता है, तो उसके पास एक रूमानी अतीत पर जीभ फिराने और उसे फिर से जिलाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। और उस मृत, तथाकथित गौरवशाली अतीत के आधार पर वह एक अजन्मे लुभावने भविष्य की कल्पना करता है, खुद को और दूसरों को बहलाने के लिए। समय की मांग यही है कि कांग्रेस इस देश के राजनीतिक लैंडस्केप पर कोई जगह चाहती है तो एक बार फिर से आत्म निरीक्षण करे। और सचाई के साथ करे। वैसे तो काफी देर हो चुकी है, पर फिर भी 2024 नहीं तो 2029 के लिए तो कुछ काम आ ही जाएगा उनका निरीक्षण।
आत्म-निरीक्षण के साथ कांग्रेस थोडा मोदी-निरीक्षण भी करे। उनमें सिर्फ बुराइयां न ढूँढे। उनकी कार्य शैली से, उनके व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता के कारणों को खंगाले और उनसे भी कुछ सीखे। कांग्रेस में कोई नरेंद्र मोदी नहीं बन सकता, बनने की जरूरत भी नहीं, पर कांग्रेस नरेंद्र मोदी से सीख जरूर सकती है, यदि वह उनकी अंधाधुंध नकारात्मक आलोचना से थोडा परहेज कर सके तो। यदि अभी भी नहीं, तो फिर कब? विधान सभा चुनावों के नतीजे और उनका संदेश दीवारों पर साफ-साफ लिखा है। साफ भी है और चीख भी रहा है। समय रहते उसे पढऩा और सुनना कांग्रेस की मदद करेगा। और नहीं तो जाने अनजाने में कांग्रेस और राहुल गांधी भाजपा के लिए एक कीमती जरिया बने रहेंगे, जीत के रास्ते पर । जब तक राहुल गांधी रहे, भाजपा उनकी और कांग्रेस की शुक्रगुजार रहेगी। वह बने रहें, भाजपा जीतती रहेगी। फिक्र नहीं कांग्रेस को, तो वह हारती रहे।
-ललित मौर्या
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) में प्रकाशित एक नई रिसर्च के मुताबिक घरों, इमारतों से बाहर वातावरण में मौजूद वायु प्रदूषण भारत में हर साल 21.8 लाख जिंदगियों को छीन रहा है। यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो चीन के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है जहां वायु प्रदूषण इतनी बड़ी संख्या में लोगों की जिंदगियों को लील रहा है।
रिसर्च में जो आंकड़े साझा किए हैं उनके मुताबिक चीन में आउटडोर एयर पॉल्यूशन हर साल 24.4 लाख लोगों की मौत की वजह बन रहा है। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो जीवाश्म ईंधन के उपयोग से होने वाले वायु प्रदूषण दुनिया भर में हर साल करीब 51.3 लाख लोगों को मौत के घाट उतार रहा है। इस जीवाश्म ईंधन का उपयोग उद्योग, बिजली उत्पादन और परिवहन जैसे क्षेत्रों में किया जा रहा है।बता दें कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 2019 के साथ-साथ वातावरण में मौजूद प्रदूषण के महीन कणों की मौजूदगी की जानकारी के लिए नासा के उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली है। साथ ही उन्होंने इसके लिए ऐसे मॉडलों का उपयोग किया है जो वातावरण की परिस्थितियों और एरोसोल के साथ-साथ स्वास्थ्य पर पडऩे वाले प्रभावों का विश्लेषण कर सकते हैं।
इनकी मदद से शोधकर्ताओं ने यह समझने का प्रयास किया है कि जीवाश्म ईंधन से होने वाला वायु प्रदूषण कितने लोगों की जान ले रहा है और यदि जीवाश्म ईंधन को स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बदल दिया जाए तो उससे लोगों के स्वास्थ्य को कितना फायदा होगा।
61 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेवार जीवाश्म ईंधन
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक दुनिया भर में 2019 के दौरान सभी स्रोतों से होने वाले वायु प्रदूषण के चलते 83.4 लाख लोगों की असमय मृत्यु हो गई थी। इसके लिए प्रदूषण के महीन कण और ओजोन जैसे प्रदूषक जिम्मेवार थे।
इनमें से आधे से अधिक करीब 52 फीसदी मौतें हृदय सम्बन्धी रोगों और चयापचय से जुड़ी थी। वहीं अकेले 30 फीसदी मौतों के लिए वायु प्रदूषण से जुड़ी हृदय सम्बन्धी बीमारियां जिम्मेवार थी। इसी तरह 16 फीसदी मौतों की वजह स्ट्रोक, 16 फीसदी के लिए फेफड़े की बीमारी और छह फीसदी के लिए मधुमेह जैसी स्थिति जिम्मेवार थी। वहीं 20 फीसदी मौतों की वजह स्पष्ट नहीं हो सकीहै। इसके लिए उच्च रक्तचाप और न्यूरोडीजेनेरेटिव विकार जैसे अल्जाइमर और पार्किंसंस जिम्मेवार हो सकते हैं।रिसर्च में वायु प्रदूषण से होने वाली इन 83.4 लाख मौतों के करीब 61 फीसदी के लिए केवल जीवाश्म ईंधन को जिम्मेवार माना है। ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा जैसे समाधानों की मदद ली जाए तो इन मौतों को टाला जा सकता है। साथ ही यह जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से भी फायदेमंद होगा।
बता दें कि इस अध्ययन में जीवाश्म ईंधन से जुड़ी मौतों के यह जो नए आंकड़े जारी किए गए हैं वो पिछले अधिकांश अनुमानों से कहीं ज्यादा हैं। ऐसे में शोध के मुताबिक जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से बंद करने से इससे होने वाली मृत्यु दर पर कहीं ज्यादा प्रभाव पड़ सकता है। शोधकर्ताओं ने खुलासा किया है कि यदि इंसानों द्वारा किए जा रहे वायु प्रदूषण को पूरी तरह नियंत्रित कर लिया जाए तो इससे होने वाली 82 फीसदी से अधिक मौतों को टाला जा सकता है।
ध्यान देने योग्य है कि यह आंकड़े ऐसे समय में जारी किए गए हैं जब दुबई में जीवाश्म ईंधन, बढ़ते उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर चर्चा के लिए अंतराष्ट्रीय सम्मेलन (कॉप-28) जारी है। शोधकर्ता कहीं न कहीं वैश्विक नेताओं का ध्यान जीवाश्म ईंधन की ओर आकर्षित करना चाहते हैं। लेकिन क्या यह डरावने आंकड़े वैश्विक नेताओं को अपने जीवाश्म ईंधन में कटौती करने के लिए सहमत कर पाएंगे। यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है।
अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने इस बारे में अपने अध्ययन में लिखा है कि, ‘निष्कर्ष दर्शाते हैं कि वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना स्वास्थ्य के नजरिए से बेहद फायदेमंद होगा, जो पिछले अनुमानों से कहीं ज्यादा हैं।’ उनके मुताबिक यह नतीजेसंयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वच्छ औरअक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी को बढ़ावा देने का समर्थन करते हैं।
सीएसई भी लम्बे समय से वायु प्रदूषण को लेकर करता रहा है आगाह
गौरतलब है कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) और डाउन टू अर्थ भारत में बढ़ते प्रदूषण के खतरों को लेकर आगाह करता रहा है। हालांकि इसके बावजूद दिल्ली, फरीदाबाद ही नहीं देश के कई अन्य छोटे बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता जानलेवा बनी हुई है। देश में स्थिति किस कदर गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में पीएम 2.5 हर साल दो लाख से ज्यादा अजन्मों को गर्भ में मार रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा वायु प्रदूषण को लेकर जो गुणवत्ता मानक तय किए हैं उनके आधार पर देखें तो देश की सारी आबादी यानी 130 करोड़ भारतीय आज ऐसी हवा में सांस ले रहे है जो उन्हें हर पल बीमार बना रही है, जिसका सीधा असर उनकी आयु और जीवन गुणवत्ता पर पड़ रहा है। विडंबना देखिए कि जहां हम विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं वहीं देश की 67.4 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां प्रदषूण का स्तर देश के अपने राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक (40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से भी ज्यादा है।
यदि भारत में जीवन प्रत्याशा के लिहाज से देखें तो प्रदूषण के यह महीन कण लोगों के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। ऐसे में यदि हर भारतीय साफ हवा में सांस ले तो उससे जीवन के औसतन 5.3 साल बढ़ सकते हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा दिल्ली-एनसीआर में देखने को मिलेगा जहां रहने वाले हर इंसान की आयु में औसतन 11.9 वर्षों का इजाफा हो सकता है।
शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष में लिखा है कि जीवाश्म ईंधन से छुटकारा, लोगों को स्वस्थ बनाने और उनकी जीवन रक्षा का एक उम्दा तरीका है। यह संयुक्त राष्ट्र की उस योजना का भी हिस्सा है, जिसमें 2050 तक जलवायु पर पड़ते प्रभावों को पूरी तरह रोकने की वकालत की गई है। उनके मुताबिक यदि हम जीवाश्म ईंधन को साफ सुथरी अक्षय ऊर्जा से बदलने में कामयाब रहते हैं तो वायु प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य पर मंडराते सबसे बड़े खतरों में शामिल नहीं होगा। (https://www.downtoearth.org.in/hindistory)