अंतरराष्ट्रीय
काबुल पर तालिबान के नियंत्रण के बाद अफ़ग़ानिस्तान से भागे पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी संयुक्त अरब अमीरात जा पहुंचे हैं.
संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी करके बताया है कि उन्होंने ''मानवीय आधार पर राष्ट्रपति ग़नी और उनके परिवार का अपने देश में स्वागत किया है.''
अशरफ़ ग़नी बीते रविवार को काबुल पर तालिबान लड़ाकों के नियंत्रण के दौरान अफ़ग़ानिस्तान से चले गए थे.
अमेरिका ने इस कदम के लिए उनकी कड़ी आलोचना की थी और कहा है कि अफ़ग़ान सरकार ने सही कदम उठाए होते तो काबुल पर तालिबान का इस तरह से क़ब्ज़ा ना होता.
कितनी रकम लेकर गए अशरफ़ ग़नी ?
ताजिकिस्तान में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत मोहम्मद ज़हीर अग़बर ने दावा किया है कि अशरफ़ ग़नी ने रविवार को जब काबुल छोड़ा था, तब वे अपने साथ लगभग 16.9 करोड़ डॉलर लेकर गए थे.
उन्होंने राष्ट्रपति के तौर पर अशरफ़ ग़नी की लड़ाई को ''अपनी ज़मीन और अपने लोगों से विश्वासघात'' बताया है.
ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में अफ़ग़ान दूतावास में संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने ये भी कहा कि दूतावास, ग़नी के पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह को अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर मान्यता देने पर विचार कर रहा है.
बीते रविवार को काबुल से जाते-जाते अशरफ़ ग़नी ने लिखा था, "बहुत से लोग अनिश्चित भविष्य के बारे में डरे हुए और चिंतित हैं. तालिबान के लिए ये ज़रूरी है कि वो तमाम जनता को, पूरे राष्ट्र को, समाज के सभी वर्गों और अफ़ग़ानिस्तान की औरतों को यक़ीन दिलाएं और उनके दिलों को जीतें."
शुरुआती रिपोर्ट्स में कहा गया था कि अशरफ़ ग़नी ताजिकिस्तान भागे हैं. हालांकि तब अल-जज़ीरा ने बताया था कि ग़नी, उनकी पत्नी, सेना प्रमुख और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद गए हैं.
एक फ़ेसबुक पोस्ट में अफ़ग़ान नागरिकों को संबोधित करते हुए ग़नी ने कहा था कि राजधानी को छोड़ना एक कठिन फ़ैसला था जो उन्होंने रक्तपात को रोकने के लिए लिया.
वो लिखते हैं कि उनके रहते हुए तालिबान के काबुल में आने के बाद झड़प होती जिससे लाखों लोगों की ज़िंदगियां ख़तरे में पड़ जातीं.
उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा, "आज मुझे एक मुश्किल फ़ैसला करना था कि या तो मैं सशस्त्र तालिबान जो महल (राष्ट्रपति भवन) में दाख़िल होना चाहते थे उनके सामने खड़ा हो जाऊं या फिर अपने प्यारे मुल्क जिसकी बीते 20 सालों में सुरक्षा के लिए मैंने अपनी ज़िंदगी खपा दी उसे छोड़ दूं."
"अगर इस दौरान अनगिनत लोग मारे जाते और हमें काबुल शहर की तबाही देखनी पड़ती तो उस 60 लाख आबादी के शहर में बड़ी मानवीय त्रासदी हो जाती."
उन्होंने आगे लिखा कि तालिबान ने तलवारों और बंदूक़ों के ज़ोर पर जीत हासिल कर ली है, और अब मुल्क की अवाम के जानो माल और इज़्ज़त की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी तालिबान पर है.
उन्होंने कहा, "मगर वो दिलों को जीत नहीं सकते हैं. इतिहास में कभी भी किसी को सिर्फ़ ताक़त से ये हक़ नहीं मिला है और न ही मिलेगा. अब उन्हें एक ऐतिहासिक परीक्षा का सामना करना है, या तो वो अफ़ग़ानिस्तान का नाम और इज़्ज़त बचाएंगे या दूसरे इलाक़े और नेटवर्क्स."
अफ़ग़ानिस्तान के हाई काउंसिल फ़ॉर नेशनल रिकंसिलिएशन के चैयरमेन अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने पुष्टि की है कि राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने देश छोड़ दिया है.
यह हाई काउंसिल तालिबान से बातचीत करने के लिए गठित किया गया था.
फ़ेसबुक पर एक वीडियो में अब्दुल्ला ने ग़नी को 'पूर्व राष्ट्रपति' बताते हुए कहा है कि 'उन्होंने राष्ट्र को ऐसी स्थिति में छोड़ा है. ख़ुदा उनको ज़िम्मेदार ठहराएगा और राष्ट्र भी न्याय करेगा.'
कौन हैं अशरफ़ ग़नी
ग़नी दो बार अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति चुने गए थे. पहली बार 2014 और दूसरी बार 2019 में.
वो एक पूर्व तकनीक शास्त्री हैं जो देश के चर्चित शिक्षाविद रहे हैं. उन्होंने अपना अधिकतर करियर अफ़ग़ानिस्तान के बाहर ही पूरा किया लेकिन वो कई सालों के युद्ध के बाद देश के पुनर्निर्माण के लिए वापस आए.
जब उन्होंने राष्ट्रपति कार्यालय को संभाला तो उन्हें एक बेहद ईमानदार शख़्स के तौर पर देखा गया. हालांकि, उन्हें जल्द ही ग़ुस्सा होने वाले शख़्स के तौर पर भी जाना गया.
देश के बहुसंख्यक पश्तून समुदाय से आने वाले ग़नी ने तब कार्यालय संभाला था जब 2014 में अधिकतर विदेशी सैनिक देश छोड़ रहे थे.
उन्होंने देश से विदेशी सेनाओं के जाने और तालिबान के साथ लगातार झगड़ालू शांति वार्ता पर नज़र रखी. लेकिन तालिबान उनकी सरकार को हमेशा अमेरिका की कठपुतली ही कहता रहा. (bbc.com)
क्यूबा सरकार के खिलाफ हजारों लोगों के सड़क पर उतर कर विरोध प्रदर्शन करने के हफ्तों बाद सरकार ने सोशल मीडिया और इंटरनेट के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने वाला आदेश जारी किया है.
क्यूबा की सरकार ने मंगलवार, 17 अगस्त को अपने पहले साइबर सुरक्षा आदेश जारी किए. अधिकार कार्यकर्ता और नागरिक समाज के लोग इस आदेश की आलोचना कर रहे हैं. उनका कहना है कि राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता को सीमित करने के प्रयास के रूप में यह आदेश लाया गया है.
कैरिबियाई देश क्यूबा में यह आदेश आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किया गया. आदेश का मकसद देश का अपमान करने या विरोध को भड़काने के लिए सोशल मीडिया या इंटरनेट के इस्तेमाल पर नकेल कसना है. हाल के सप्ताहों में क्यूबा में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं. हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे और सरकार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हुए.
इन प्रदर्शनों के लिए सोशल मीडिया पर संदेश साझा किए गए.
सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए नए फरमान
इस आदेश पर संचार मंत्री मायरा अरेविच का हस्ताक्षर है. आदेश में कहा गया यह "साइबर स्पेस में होने वाली संभावित आपराधिक और हानिकारक गतिविधियों को रोकने, उसका पता लगाने और उचित प्रतिक्रिया देने के लिए" जारी किया गया है.
नया फरमान क्यूबा के "संवैधानिक, सामाजिक और आर्थिक" नियमों को बदनाम करने वाली सामग्री को प्रतिबंधित करता है. आदेश में सजा के बारे में नहीं कहा गया है. आदेश "साइबर आतंकवाद" पर प्रतिबंध लगाता है जो देश को अस्थिर कर देगा और इसे "बहुत उच्च" खतरे वाले अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
सरकार ने लोगों को नियम तोड़ने वालों की रिपोर्ट करने के लिए एक फॉर्म भी जारी किया है.
क्यूबा में विरोध का कारण
जुलाई के महीने में भोजन, दवाओं की कमी और बिजली कटौती के विरोध में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए थे. सरकार ने इन विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए कठोर कार्रवाई की थी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और दर्जनों घायल हुए थे. पुलिस ने विरोध प्रदर्शनों में शामिल सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया था.
हवाना का कहना है कि विदेशी शक्ति उथल-पुथल के लिए जिम्मेदार है. उसका कहना है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर विदेशी ताकतों ने उसके नागरिकों को भड़काया.
आर्थिक संकट
वामपंथी शासन वाला क्यूबा पिछले दो साल से भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा है. सरकार इस सकंट का इल्जाम अमेरिका और महामारी पर पर लगाती है, जबकि आलोचक इसके लिए सरकार की अक्षमता और सोवियत अंदाज की एक पार्टी व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं.
स्थानीय स्तर पर लगाई गईं पाबंदियों, चीजों के अभाव और महामारी ने पर्यटन को ठप्प कर दिया है. विदेशी आय लाने वाली दूसरी कई गतिविधियों भी धीमी पड़ गई हैं. और इन गतिविधियों पर निर्भर देश को खाना, ईंधन, कृषि व निर्माण के लिए साजोसामान की दिक्कत हो रही है. (dw.com)
एए/सीके (एएफपी, एप)
मशहूर उद्योगपति जैक मा पर चीन सरकार के हमलों से साफ हो चला है कि शी जिनपिंग की सरकार बड़ी कंपनियों और उनके मालिकों पर पकड़ बनाए रखना चाहती है. उसे गवारा नहीं कि ये कंपनियां सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी के लिए खतरा बनें.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट
बड़ी चीनी टेक कंपनियों पर आपदा की ताजा लहर तब गिरी जब नवम्बर 2020 में आंट ग्रुप के आईपीओ के आने से ही चीन की सरकार ने शंघाई स्टॉक एक्सचेंज के जरिये रोक दिया. जैक मा इसी कंपनी के कर्ताधर्ता रहे हैं लेकिन उनकी और उनकी कंपनी की खता यही थी कि आईपीओ आने से कुछ दिन पहले ही जैक मा ने चीन की बैंकिंग व्यवस्था की यह कह कर आलोचना की थी कि वह राज्य-संचालित और समर्थित है और यह कि सरकार का दबदबा चीनी बैंकिंग की तंदुरुस्ती के लिए सही नहीं है.
हालांकि शंघाई स्टॉक एक्सचेंज ने आईपीओ को स्थगित करने की कोई वजह नहीं बताई लेकिन जिस तरह अचानक बिना किसी पूर्वसूचना के ये फैसला लिया गया उससे यह साफ था कि चीन सरकार को जैक मा की बातें पसंद नहीं आईं. अपने तथाकथित भड़काऊ बयानों के बाद जैक की पूछताछ तो तब तक शुरू हो ही चुकी थी लेकिन इस घटना के बाद तो मानो जैक मा पर आफतों के बादल ही टूट पड़े. अलीबाबा, जिसका आंट में एक तिहाई हिस्सा है, उसकी भी साख पर इस घटना का बुरा असर पड़ा.
जैक मा की लोकप्रियता
बाजार के विशेषज्ञों का मानना है कि समस्या कंपनी या उसके नियमों के पालन-अनुपालन से नहीं थी, समस्या थी जैक मा की बढ़ती लोकप्रियता, उनकी कंपनी के आईपीओ को लेकर निवेशकों में जरूरत से ज्यादा उत्साह, और सबसे महत्वपूर्ण बात, जैक के सरकार की नीतियों के बारे में टिप्पणी करने से. अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आंट कंपनी की बढ़ती ताकत और चीनी मार्केट में दबदबे से भी सरकारी बाबू असहज महसूस कर रहे थे.
लेकिन हैरानी की बात है कि चीनी युवाओं के पसंदीदा जैक पर जब सरकार का वार हुआ तो अचानक हवा बदल गई, और अचानक जैक और उनकी कंपनी को परपोषी और शोषणकारी शार्क कम्पनी की संज्ञा तक दे दी गई. 2018 में बनी मार्केट वाचडॉग स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ मार्केट रेगुलेशन ने जब एंटी-ट्रस्ट पालिसी के तहत जब आईटी कंपनियों को घेरे में लिया तो 10 अप्रैल को इसका सबसे पहला शिकार अलीबाबा कंपनी बन गयी.
कई कंपनियां लपेटे में
लेकिन अलीबाबा अकेली कंपनी नहीं थी. इस लपेटे में 34 और कम्पनियां भी आ गईं. इनमें टिकटॉक के स्वामित्व वाली बाइटडांस, टेनसेंट, दीदी, मीतुआन, सर्च इंजिन बाइडू और जेडी प्रमुख थे. जैसे-जैसे खोजबीन का सिलसिला आगे बढ़ा, ये बातें भी सामने आईं कि इन कंपनियों ने अपनी कंपनी नीतियों के मामले में पूरी पारदर्शिता नहीं दिखाई थी. सरकारी वक्तव्यों में यह भी कहा गया कि जांच के दौरान लगभग 35 कंपनियां मर्जर संबंधी गड़बड़ियों, भ्रामक मार्केटिंग हथकंडों और अन्य अनियमितताओं में लिप्त पाई गईं.
अपने बचाव में इनमें से कुछ कंपनियों ने यही कहा कि उनकी अधिकांश डील 2018 से पहले ही हो गई थीं. भारत जैसे देशों में ऐसा करना गैरकानूनी है क्योंकि कोई भी कानून अपने अस्तित्व में आने से पहले किए किसी भी करार पर बाध्यकारी नहीं होता. इन तमाम आईटी कंपनियों पर नकेल कसने के पीछे शायद शी जिनपिंग की यह सोच भी है कि जब तक ये कंपनियां अनुशासित होकर सिर्फ चीन के हितों को सर्वोपरि रख कर नहीं देखेंगी, चीन पश्चिमी देशों के साथ हो रहे टेक-वॉर में नहीं जीत पायेगा और न ही 2025 तक टेक वर्चस्व हासिल करने का शी जिनपिंग का सपना पूरा हो पाएगा.
खतरे की घंटी
अमेरिका के साथ बढ़ते विवाद के बीच चीन सरकार को यह भी डर है कि कहीं ये कंपनियां अपना डाटा दूसरे देशों को न दे दें. चीनी सरकार खुद इन मामलों में लिप्त रही है, लिहाजा उसका चिंता करना भी लाजमी है. बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अपने देशों की सरकारों के साथ अक्सर अनबन हो जाती है. अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और तमाम विकसित देशों में यह आम बात है. लेकिन कम्युनिस्ट चीन जहां उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का ताम-झाम तो है लेकिन ढांचा एक पार्टी के शासन में कस कर बंधी शासन व्यवस्था ही है जिससे पार पाना या जिसे आलोचना या वाद-विवाद के जरिये बदल पाना नामुमकिन है. जैक मा यहीं मात खा गए.
चीन में पिछले चार दशकों से चले आ रहे व्यापक आर्थिक सुधारों की वजह से निवेशकों, व्यापारियों और उद्योगपतियों में यह आम धारणा पैठ कर रही थी कि राजनीतिक मोर्चे पर न सही पर आर्थिक मोर्चे पर चीन धीरे धीरे ज्यादा स्वतंत्र और लोकतांत्रिक होने की दिशा में बढ़ रहा है. जैक मा और उनकी कंपनी के साथ हुआ सलूक न सिर्फ चीनी उद्योगपतियों के लिए खतरे की घंटी है बल्कि यह चीन में निवेश करने वालों के लिए भी निराशाजनक है.
इसकी एक बड़ी वजह यह है कि चीनी हो या विदेशी, कोई भी निवेशक यह नहीं चाहेगा कि उसकी कंपनी या निवेश पर अनिश्चितता के बादल मंडराए. आखिरकार 'ईज आफ डूइंग बिजनेस' भी कोई चीज है भला. बहरहाल, जैक मा और उनकी कंपनी पर दबाव बनाने की कोशिश यह कहकर की गई है कि वह जरूरत से ज्यादा उपभोक्तावादी और पूंजीवादी हो गए थे.
(dw.com)
अफगानिस्तान की सत्ता पर नियंत्रण के बाद तालिबान ने पत्रकारों से बातचीत में कहा है कि मीडिया और महिलाओं को आजादी दी जाएगी. लेकिन संयुक्त राष्ट्र को इन वादों पर संदेह है.
मंगलवार को अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में तालिबान के प्रवक्ता ने कहा कि वे 1990 के दशक जैसे अमानवीय नियम-कानून लागू नहीं करेंगे और महिलाओं व मीडिया को आजादी दी जाएगी. लेकिन संयुक्त राष्ट्र समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय इन वादों पर भरोसा नहीं कर पा रहा है.
प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि तालिबान के शब्दों पर भरोसा करने से पहले उनके कर्मों को देखना होगा. यूएन प्रवक्ता स्टीफन डुजारिक ने पत्रकारों से बातचीत में कहा, "हमें यह देखना होगा कि असल में होता क्या है. हमें देखना होगा कि वादों को निभाने के लिए जमीन पर क्या किया जाता है.”
जर्मनी ने भी तालिबान के वादों पर संदेह जताया है और शब्दों से ज्यादा कर्मों के आधार पर उनके बारे में राय बनाने की बात कही है. उधर अमेरिका ने उम्मीद जताई है कि तालिबान अपने वादों पर खरा उतरेगा.
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा, "अगर तालिबान कहते हैं कि वे अपने नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करेंगे तो हम उन पर निगाह रखेंगे कि वे अपने वादे निभाएं.”
क्या कहा तालिबान ने?
20 साल बाद अफगानिस्तान की सत्ता पर दोबारा काबिज होने के बाद इस अतिवादी इस्लामिक संगठन ने मंगलवार को अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस की और पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए. तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा कि सभी को माफ किया जाएगा और किसी से बदला नहीं लिया जाएगा.
मुजाहिद ने कहा, "हम कोई अंदरूनी या बाहरी दुश्मन नहीं चाहते. जो भी दूसरी तरफ से हैं, ए से जेड तक सबको माफ किया जाएगा.” तालिबान प्रवक्ता ने कहा कि जल्दी ही नई सरकार की स्थापना की जाएगी. हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया कि नई सरकार का स्वरूप कैसा होगा लेकिन यह जरूर कहा कि सभी पक्षों से संपर्क किया जाएगा.
जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा कि महिलाओं को काम करने और पढ़ेने की आजादी होगी और ‘इस्लाम के दायरे में रहकर' वे समाज में बहुत सक्रिय भूमिका निभाएंगी.
तालिबान ने 1996 से 2001 से अफगानिस्ता पर राज किया था. उस दौरान देश में शरिया यानी इस्लामिक कानून लागू कर दिया गया था और महिलाओं के काम करने, लड़कियों के पढ़ने और बिना किसी पुरुष के अकेले घर से बाहर जाने जैसी पाबंदियां लगा दी गई थीं. तालिबान के दोबारा सत्ता में आने पर बहुत से लोगों को वैसे ही कानून दोबारा लागू होने का भय है.
महिलाओं में आशंका
तालिबान द्वारा किए गए वादों को लेकर अफगानिस्तान की महिलाओं को आशंका है. महिलाओं की शिक्षाओं के लिए काम करने वालीं 23 साल की पश्ताना दुर्रानी कहती हैं, "वे जो कह रहे हैं, उन्हें करके दिखाना होगा. फिलहाल तो वे ऐसा नहीं कर रहे हैं.”
जब तालिबान एक-एक कर इलाके जीतते हुए काबुल की ओर बढ़ रहे थे तब बहुत सी महिलाओं काम छोड़ देने को कहा गया. ऐसी भी खबरें आई हैं कि तालिबान लड़ाके लोगों के घरों में घुसकर मार-काट मचा रहे हैं. हालाकि तालिबान प्रवक्ता ने कहा कि ऐसा नहीं होगा.
मुजाहिद ने कहा, "आपको कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगा. कोई आपके दरवाजे नहीं खटखटाएगा. अगर कोई ऐसा करता है तो उसे सजा दी जाएगी.” मुजाहिद ने अफगानिस्तान छोड़कर जाने की कोशिश कर रहे परिवारों से भी लौटने की अपील करते हुए कहा कि आपको कुछ नहीं होगा.
आप्रवासियों का संकट
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के मुताबिक तालिबान ने उन लोगों को सुरक्षित रास्ता देने पर सहमति दे दी है जो अमेरिका के निर्देशन में अफगानिस्तान से जाना चाहते हैं. हालांकि जेक सलिवन ने माना कि काबुल एयरपोर्ट पहुंचने की कोशिश कर रहे कुछ लोगों को लौटाया गया है या उनसे मार-पीट भी की गई है. लेकिन उन्होंने बताया कि बड़ी संख्या में लोग एयरपोर्ट पहुंच रहे हैं.
नाटो महासचिव येंस स्टोल्टेनबर्ग ने कहा है कि तालिबान को उन लोगों को जाने देना चाहिए जो देश छोड़ना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि नाटो का लक्ष्य एक ऐसा देश बनाने में मदद करना था जो विकास करने की हालत में हो और अगर ऐसा नहीं होता है तो हमला भी किया जा सकता है.
ब्रिटेन ने कहा है कि वह अफगानिस्तान से इस साल पांच हजार शरणार्थी लेने पर विचार कर रहा है, जो लंबी अवधि में 20 हजार तक हो सकता है. ब्रिटिश गृह मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा, "भविष्य में भी पुनर्वास योजना को जारी रखा जाएगा और लंबी अवधि में संख्या 20 हजार तक बढ़ाई जा कती है.”
वीके/एए (रॉयटर्स, एएफपी)
काबुल, 17 अगस्त| तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने मंगलवार को कहा कि विद्रोही समूह किसी भी संघर्ष, किसी युद्ध को दोहराना नहीं चाहता। तालिबान द्वारा रविवार को अफगानिस्तान सरकार को उखाड़ फेंके जाने के बाद मुजाहिद ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, "हम संघर्ष के कारकों को दूर करना चाहते हैं। इसलिए, इस्लामिक अमीरात की किसी के प्रति किसी भी तरह की दुश्मनी नहीं है।"
उन्होंने कहा कि सभी दुश्मनी खत्म हो गई है।
जियो न्यूज ने बताया, "हम शांति से रहना चाहते हैं। हम कोई आंतरिक या बाहरी दुश्मन नहीं चाहते।"
तालिबान पूर्व सैनिकों और पश्चिमी समर्थित सरकार के सदस्यों के खिलाफ प्रतिशोध की मांग नहीं करेगा। प्रवक्ता ने कहा, यह आंदोलन अफगान सरकार के पूर्व सैनिकों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय बलों के लिए काम करने वाले ठेकेदारों और अनुवादकों को माफी दे रहा है।
महिलाओं के अधिकारों पर उन्होंने कहा कि यह एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है।
"इस्लामिक अमीरात शरीयत के ढांचे के भीतर महिलाओं के अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध है। हमारी बहनों, हमारी महिलाओं को समान अधिकार होंगे और वे उनसे लाभ उठा सकेंगी।"
मुजाहिद ने कहा, "वे हमारे नियमों और विनियमों के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों और क्षेत्रों में गतिविधियां कर सकते हैं - शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य क्षेत्रों में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे।"
मुजाहिद ने यह भी कहा कि महिलाओं के बारे में जो भी चिंता अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हो सकती है, तालिबान उन्हें आश्वस्त करना चाहता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।
उन्होंने दुनिया को याद दिलाया, "हालांकि, हमारी महिलाएं मुस्लिम हैं जो शरीयत (कानून) के ढांचे के भीतर रहकर खुश होंगी।"
मुजाहिद ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान में निजी मीडिया स्वतंत्र और स्वतंत्र बना रह सकता है, यह कहते हुए कि तालिबान अपने सांस्कृतिक ढांचे के भीतर मीडिया के लिए प्रतिबद्ध है।
उन्होंने कहा, "इस्लाम हमारे देश में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मूल्य है। जब मीडिया की गतिविधियों की बात आती है तो इस्लामी मूल्यों के खिलाफ कुछ भी नहीं होना चाहिए।"
तालिबान के प्रवक्ता ने कहा, "वे हमारे काम की आलोचना कर सकते हैं, ताकि हम सुधार कर सकें।" (आईएएनएस)
सोमवार की शाम को दिए अपने भाषण में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नीति और सेना वापस लेने के अपने फ़ैसले के पीछे के कारणों के बारे में कई दावे किए.
बीबीसी न्यूज़ ने उनके कुछ दावों का फ़ैक्ट-चेक किया है. उन्होंने जो कुछ कहा, उसकी तुलना अफ़ग़ानिस्तान के बारे में उनके पहले के बयानों और ज़मीनी हालात से की है.
'अफ़ग़ानिस्तान में हमारा मिशन कभी भी 'राष्ट्र निर्माण' के लिए नहीं था.'
राष्ट्रपति बाइडन ने जोर देकर कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के पीछे का असल उद्देश्य "अमेरिका पर आतंकवादी हमले को रोकना" था. इसका मकसद कभी भी एक मज़बूत केंद्रीकृत लोकतंत्र का निर्माण नहीं था."
जो बाइडन को यह बयान साफ तौर पर अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका के पहले के बयानों के ठीक विपरीत है.
उस समय, उन्होंने अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप के उद्देश्य को कुछ इस तरह से बयान किया था, "हमें उम्मीद है कि हम अफ़ग़ानिस्तान में पहले से स्थिर सरकार देखेंगे. ऐसी सरकार जो भविष्य में इस देश के पुनर्निर्माण की नींव डाल सके."
इसके बाद साल 2003 में भी बाइडन ने कहा था, "राष्ट्र निर्माण का विकल्प अराजकता है. ऐसी अराजकता जो खून के प्यासे सरदारों, नशीली दवाओं के तस्करों और चरमपंथियों को फलने-फूलने देती है."
"मुझे पता है कि इस बात को लेकर चिंताएं हैं कि हमने अफ़ग़ान नागरिकों को जल्द से जल्द निकालना क्यों नहीं शुरू किया. इसका एक जवाब यह है कि कुछ अफ़गान पहले देश छोड़ने को तैयार नहीं थे. उन्हें उम्मीद थी कि सब-कुछ ठीक हो जाएगा."
जिस तेजी से तालिबान ने सत्ता में वापसी की है, उससे कई अफ़ग़ान आश्चर्य में हैं. यही कारण है कि उन्हें देश छोड़ने की योजना बनाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाया.
अफ़ग़ानिस्तान में ख़तरे का सामना
हालांकि ये भी सच है कि अफ़ग़ानिस्तान में ख़तरे का सामना कर रहे लोगों के बीच अमेरिकी वीज़ा की काफ़ी मांग थी. लेकिन वीज़ा मिलने में वक्त लग रहा था.
एक अनुमान के मुताबिक़, अभी अमेरिकी वीज़ा की क़रीब 18,000 अर्ज़ियां लंबित हैं. इसका असर ऐसे लोगों और उनके हजारों रिश्तेदारों पर पड़ा है.
इनमें आधे लोगों ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मिशन के प्रमुख के पास वीज़ा अप्लाई करने की प्रक्रिया पूरी कर ली है. वहीं आधे लोगों के डॉक्यूमेंट अभी अधूरे ही हैं. उन्हें अभी सही दस्तावेज जमा करवाने हैं.
इंटरनेशनल रेस्क्यू कमेटी का कहना है, "सिस्टम में बैकलॉग का मतलब ये है कि आवेदन जमा कर चुके किसी अफ़ग़ान को अमेरिका में सुरक्षित पहुंचने में, अभी दो से तीन साल या उससे अधिक समय और लगेगा."
अपने भाषण में, राष्ट्रपति बाइडन ने कहा कि 2,000 अफ़ग़ानों और उनके परिवारों को स्पेशल वीज़ा के ज़रिए अमेरिका ले जाया गया है. अभी और लोगों को अमेरिका लाने की योजना है.
'अफ़ग़ानिस्तान के नेताओं ने हार मान ली'
अफ़ग़ानिस्तान संकट को देखते हुए, अमेरिकी कांग्रेस ने वीज़ा की संख्या को बढ़ाकर 8,000 तक करने वाले एक विधेयक को मंजूरी दे दी है. इसके साथ ही शरणार्थियों को अमेरिका में बसाने की एक योजना का विस्तार किया गया है.
तालिबान के काबुल पर पूरा नियंत्रण करने से पहले ही देश के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने अपने सहयोगियों के साथ देश छोड़ दिया. हालांकि वे कई बार कह चुके थे कि वे अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर कभी नहीं जाएंगे.
दूसरी ओर, अन्य कई नेता अब भी काबुल में है और देश में बने रहने के बारे में बयान दे रहे हैं.
साल 2001 से 2014 के बीच, देश के राष्ट्रपति रहे हामिद करज़ई ने अपनी बेटियों के साथ एक वीडियो शेयर किया. इस वीडियो में उन्होंने कहा कि वे काबुल में हैं और वे सरकारी सेना और तालिबान से नागरिकों की रक्षा का आग्रह करते हैं.
करज़ई ने आश्वस्त किया कि देश के सभी राजनेता शांति से मुद्दों को सुलझाने के लिए काम करेंगे. उन्होंने लोगों से धैर्य रखने की भी अपील की.
सोवियत-विरोधी सरदार और नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद जैसे अन्य नेताओं के साथ अफ़ग़ानिस्तान के पहले उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह भी वर्तमान में देश में ही हैं.
बीबीसी न्यूज़ के यल्दा हाकिम ने बताया कि अभी अफ़ग़ानिस्तान में मौज़ूद कई नेता तालिबान विरोधी गठबंधन बना रहे हैं.
उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा, "तालिबान विरोधी गठबंधन बनाने के लिए अमरुल्ला सालेह और अहमद मसूद काबुल से तीन घंटे दूर पंजशेर में बैठक कर रहे हैं."
'अफ़ग़ान सेना कई जगहों पर बिना लड़े ही हार गई.'
यह सच है कि संघर्ष के अंतिम कुछ हफ़्तों में अफ़ग़ान सेना की हार नाटकीय थी. हालांकि इसे अफ़ग़ानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय सेना के तेजी से, बिना कोई योजना और समन्वय बनाए, निकल जाने के संदर्भ में देखना चाहिए.
अप्रैल में राष्ट्रपति बाइडन ने अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा की थी. उसके बाद, सहयोगी देशों के आठ हजार सैनिकों के साथ अफ़ग़ान सेना को लॉजिस्टिकल मदद देने वाले 18,000 कॉन्ट्रेक्टर्स भी देश छोड़कर चले गए. पिछले 20 सालों में, इन्हीं कॉन्ट्रेक्टर्स और प्रशिक्षकों ने अफ़ग़ान सेना को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया था.
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि अफ़ग़ान सेना काग़ज़ों पर अच्छी भले दिखती हो, लेकिन वास्तविकता अलग थी. सेना पर अक्सर भ्रष्टाचार में लिप्त होने और मनोबल कम होने के आरोप लगाये जाते थे.
पिछले 20 सालों में तालिबान से लड़ते हुए अफ़ग़ान पुलिस और सेना के लगभग 70,000 लोग मारे गए. (bbc.com)
लाहौर, 17 अगस्त| लाहौर पुलिस ने मंगलवार को पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर शहर के ग्रेटर इकबाल पार्क में एक महिला टिकटॉकर और उसके साथियों से मारपीट करने और चोरी करने के आरोप में सैकड़ों अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। डॉन अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, दर्ज की गई प्राथमिकी के अनुसार, शिकायतकर्ता ने कहा है कि वह अपने छह साथियों के साथ स्वतंत्रता दिवस पर मीनार-ए-पाकिस्तान के पास एक वीडियो बना रही थी, जब लगभग 300 से 400 लोगों ने उन पर हमला कर दिया।
उन्होंने शिकायत में कहा कि उसने और उसके साथियों ने भीड़ से बचने के लिए बहुत प्रयास किया। स्थिति को देखते हुए, पार्क के सुरक्षा गार्ड ने मीनार-ए-पाकिस्तान के आसपास के बाड़े का गेट खोला
प्राथमिकी में पीड़िता के हवाले से कहा गया है, "हालांकि, भीड़ बहुत अधिक थी और लोग बाड़े को लांघ रहे थे और हमारी ओर आ रहे थे। लोग मुझे धक्का दे रहे थे और इस हद तक खींच रहे थे कि उन्होंने मेरे कपड़े फाड़ दिए। कई लोगों ने मेरी मदद करने की कोशिश की, लेकिन भीड़ बहुत अधिक थी और वे मुझे हवा में फेंकते रहे।"
शिकायत में आगे कहा गया है कि उसके साथियों के साथ भी मारपीट की गई। संघर्ष के दौरान, उसकी अंगूठी और झुमके जबरन छीन लिए गए साथ ही उसकी एक साथी का मोबाइल फोन, उसका पहचानपत्र और उसके पास मौजूद 15,000 रुपये भी छीन लिए गए।
शिकायतकर्ता ने कहा, "अज्ञात लोगों ने हम पर हिंसक हमला किया।"
प्राथमिकी में महिला के खिलाफ हमला या आपराधिक बल के उपयोग के साथ ही उसके कपड़े उतारना, चोरी और दंगा फैलाने जैसी धाराएं जोड़ी गई हैं।
घटना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित होना शुरू हो गया, जिसके बाद देश के आम नागरिकों ने वीडियो में पुरुषों की हरकतों पर गुस्सा व्यक्त किया है। (आईएएनएस)
अफ़ग़ानिस्तान पर दोबारा नियंत्रण हासिल करने के बाद तालिबान का पहला संवाददाता सम्मेलन मंगलवार को काबुल में आयोजित हुआ.
कैमरों के सामने पहली बार आए तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुज़ाहिद ने कहा, "20 साल के संघर्ष के बाद हमने देश को आज़ाद कर लिया है और विदेशियों को देश से बाहर निकाल दिया है."
उन्होंने इसे पूरे देश के लिए गौरव का पल बताया है.
शरिया के अनुसार होंगे महिलाओं के हक़
जबीहुल्लाह मुज़ाहिद कहते हैं, "हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आश्वस्त करना चाहते हैं कि किसी को नुक़सान नहीं होने देंगे."
अफ़ग़ानिस्तान की बिसात पर कहां खड़े हैं अमेरिका, चीन, रूस, ईरान और पाकिस्तान
अफ़ग़ानिस्तान, तालिबान
तालिबान के प्रवक्ता ने कहा, "हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ कोई उलझन नहीं चाहते हैं. हमें हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार काम करने का अधिकार है. दूसरे देशों के अलग-अलग दृष्टिकोण, नियम और कानून हैं. हमारे मूल्यों के अनुसार, अफ़ग़ानों को अपने नियम और कानून तय करने का अधिकार है."
मुज़ाहिद ने कहा, "हम शरिया व्यवस्था के तहत महिलाओं के हक़ तय करने को प्रतिबद्ध हैं. महिलाएं हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने जा रही हैं. हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा."
'हमें कोई दुश्मन नहीं चाहिए'
तालिबान के प्रवक्ता ने इस मौके पर कहा, "हम यह तय करेंगे कि अफ़ग़ानिस्तान अब संघर्ष का मैदान नहीं रह गया है. हमने उन सभी को माफ़ कर दिया है, जिन्होंने हमारे ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ी. अब हमारी दुश्मनी ख़त्म हो गई है."
जबीहुल्लाह मुज़ाहिद ने कहा, "हम अब बाहर या देश के भीतर कोई दुश्मन नहीं चाहते हैं. अब हम काबुल में अराजकता देखना नहीं चाहते."
उन्होंने कहा, "हमारी योजना काबुल के द्वार पर रुकने की थी, ताकि संक्रमण की प्रक्रिया सुचारू रूप से संपन्न हो जाए. लेकिन दुर्भाग्य से, पिछली सरकार बहुत अक्षम थी. उनके सुरक्षा बल सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए कुछ ख़ास न कर सके. ऐसे में हमें ही कुछ करना था."
मुजाहिद ने कहा, "काबुल के लोगों की सुरक्षा तय करने के लिए हमें काबुल में दाखिल होना पड़ा."
'मीडिया को हमारे ख़िलाफ़ काम नहीं करना चाहिए'
तालिबान के प्रेस कॉन्फ़्रेंस में इसके प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद ने कहा, "अपने सांस्कृतिक ढांचे के भीतर हम मीडिया के प्रति प्रतिबद्ध हैं.''
उन्होंने कहा, "मीडिया को हमारी कमियों पर ध्यान देना चाहिए, ताकि हम राष्ट्र की अच्छे से सेवा कर सकें. लेकिन मीडिया को भी ये ध्यान में रखना चाहिए कि इस्लामी मूल्यों के ख़िलाफ़ कोई काम नहीं होना चाहिए."
'महिलाएं हमारे ढांचे के भीतर काम कर सकती हैं'
तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद ने महिला अधिकारों के बारे में एक सवाल के जवाब में कहा, "हम महिलाओं को अपनी व्यवस्था के भीतर काम करने और पढ़ने की अनुमति देने जा रहे हैं. महिलाएं हमारे समाज और हमारे ढांचे के भीतर अब बहुत सक्रिय होने जा रही हैं."
'प्राइवेट मीडिया आज़ाद रह सकता है'
तालिबान के प्रवक्ता ने साफ़ किया कि उनके शासन के दौरान प्राइवेट मीडिया पहले की तरह काम करता रहेगा.
मुज़ाहिद कहते हैं, "मैं मीडिया को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हम अपने सांस्कृतिक ढांचे के भीतर मीडिया के प्रति प्रतिबद्ध हैं."
किसी से नहीं होगी पूछताछ
विदेशी सुरक्षा बलों के साथ काम करने वाले ठेकेदारों और अनुवादकों के बारे में सवाल पूछे जाने पर जबीहुल्लाह मुज़ाहिद ने कहा, "हम किसी के साथ बदला लेने नहीं जा रहे हैं."
वे कहते हैं, "जो युवा अफ़ग़ानिस्तान में पले-बढ़े हैं, हम नहीं चाहते कि वे यहां से चले जाएं. वे हमारी संपत्ति हैं. कोई भी उनके दरवाजे पर दस्तक देने और उनसे यह पूछने वाला नहीं है कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं."
उन्होंने आगे कहा, "ऐसे लोग हमारे शासन में सुरक्षित रहने जा रहे हैं. किसी से पूछताछ या उनका पीछा नहीं किया जाएगा."
हमने सभी को माफ कर दिया है
तालिबान के प्रवक्ता ने बताया, "हमने अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता या शांति पाने के लिए सभी को माफ़ कर दिया है."
उन्होंने कहा, "हमारे लड़ाके और लोग, हम सब मिलकर यह तय करेंगे कि हम अपने साथ दूसरे सभी पक्षों और गुटों को ला सकें."
मुज़ाहिद ने कहा, "जिन अफ़ग़ानों की जान दुश्मन सेना के लिए लड़ने के चलते चली गई, ये उनकी अपनी गलती थी. हमने तो कुछ ही दिनों में पूरे देश को जीत लिया."
हम सरकार बनाने का प्रयास कर रहे हैं
तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने बताया है, "सरकार बनने के बाद हम तय करेंगे कि कौन से क़ानून पेश किए जाएंगे."
उन्होंने कहा, "एक बात मैं कहना चाहता हूं कि हम सरकार बनाने पर गंभीरता से काम कर रहे हैं. इसकी घोषणा सब कुछ तय होने के बाद की जाएगी."
मुज़ाहिद के अनुसार, "देश की सभी सीमाएं हमारे नियंत्रण में हैं."
उन्होंने एक बार फिर कहा, "मीडिया को हमारे ख़िलाफ़ काम नहीं करना चाहिए. उन्हें देश की एकता के लिए काम करना चाहिए." (bbc.com)
तिरुवनंतपुरम, 17 अगस्त | वर्तमान में अफगानिस्तान में महिलाओं और बच्चों सहित 41 केरलवासियों ने अनिवासी केरल मामलों (नोरका) विभाग से संपर्क किया है और उन्हें तत्काल निकालने के लिए मदद मांगी है। राज्य सरकार के एक अधिकारी ने मंगलवार को यह जानकारी दी। नोरका विभाग के प्रमुख और प्रिंसिपल सेक्रेटरी के. एलंगोवन ने कहा कि उन्होंने विदेश मंत्रालय के सचिव (कांसुलर, पासपोर्ट, वीजा सेवाएं और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के कार्यालय) संजय भट्टाचार्य को पत्र लिखकर केरलवासियों को तत्काल निकालने की मांग की है।
उन्होंने भट्टाचार्य से कहा, "हमें अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में पैनिक कॉल आ रहे हैं, जिसमें अफगानिस्तान से तत्काल निकासी की मांग की जा रही है। यहां प्राप्त कुछ संदेशों में कहा गया है कि तालिबान फंसे हुए भारतीयों की पहचान की पुष्टि कर रहे हैं और उनके पासपोर्ट और अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेज ले जा रहे हैं।" (आईएएनएस)
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने काबुल से भारतीयों को निकालने में अमेरिकी सहायता लेने के लिए सोमवार को अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से बात की.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से बातचीत के बाद ट्वीट किया, "ब्लिंकेन के साथ अफगानिस्तान की हालिया घटनाओं पर चर्चा की. काबुल में हवाई अड्डे के संचालन को बहाल करने की तात्कालिकता को रेखांकित किया. मैं इस संबंध में चल रहे अमेरिकी प्रयासों की गहराई से सराहना करता हूं."
जयशंकर ने कहा कि वह लगातार अफगानिस्तान की स्थिति पर नजर बनाए हुए हैं. उन्होंने कहा, "काबुल में स्थिति पर लगातार नजर रखी जा रही है. भारत लौटने के इच्छुक लोगों की चिंता को समझना होगा. एयरपोर्ट संचालन सबसे बड़ी चुनौती है. इस संबंध में भागीदारों के साथ चर्चा की जा रही है."
भारत काबुल से अपने नागरिकों के दूसरे जत्थे को निकालने के लिए पूरी तरह से तैयार है, अमेरिकी विदेश मंत्री ने जयशंकर को नागरिक उड़ानों के माध्यम से भविष्य में निकासी में पूरी सहायता का आश्वासन दिया है.
यूएनएसी की बैठक में जयशंकर
दरअसल विदेश मंत्री जयशंकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कई कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए सोमवार से चार दिवसीय अमेरिकी दौरे पर हैं. यूएनएससी के कार्यक्रम में आतंकवाद पर चर्चा भी शामिल है, जो सुरक्षा परिषद की भारत की अध्यक्षता में आयोजित की जाएगी.
विदेश मंत्रालय के बयान के मुताबिक विदेश मंत्री जयशंकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की भारत की अध्यक्षता के दौरान 18 और 19 अगस्त को दो उच्चस्तरीय कार्यक्रमों की अध्यक्षता करेंगे.
18 अगस्त को पहला कार्यक्रम "रक्षकों की रक्षा : प्रौद्योगिकी और शांति रक्षा" पर एक खुली चर्चा का है जबकि 19 अगस्त को दूसरा कार्यक्रम "आतंकवादी कृत्यों के कारण अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को खतरा" पर एक उच्च स्तरीय चर्चा होगी.
सुरक्षा परिषद में जयशंकर की मुलाकात संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश से भी होने वाली है.
यूएनएसी में भारत ने जताई चिंता
इस बीच सोमवार को भारत की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की बैठक में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को लेकर चर्चा हुई. भारत ने अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति पर चिंता जताई और कहा कि वहां महिलाएं, पुरुष और बच्चे डरे हुए हैं. संयुक्त राष्ट्र में भारतीय राजदूत टीएस तिरुमूर्ति ने आपात बैठक में दुनिया से अफगानिस्तान में हिंसा रोकने की अपील की.
उन्होंने कहा कि पड़ोसी देश इससे चिंतित हैं कि अब अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए नहीं होने दिया जाए.
तिरुमूर्ति ने कहा कि अफगानिस्तान के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों में दहशत का माहौल है और वे अपने भविष्य को लेकर अनिश्चिंत हैं. उन्होंने कहा कि हर कोई अफगानिस्तान में नागरिकों के अधिकारों के हनन को लेकर चिंतित है. (dw.com)
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सेना वापस बुलाने के अपने फैसले को सही ठहराते हुए तालिबान की जीत के लिए अफगानिस्तान की सेना और नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है.
अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा पूरा हो जाने के बाद काबुल से आ रहे परेशान करने वाले दृश्यों के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सोमवार को कहा कि सेना को वापस बुलाने का उनका फैसला ‘अमेरिका के लिए सही था.'
रविवार को तालिबान द्वारा जीत का ऐलान करने के बाद राष्ट्र के नाम संबोधन के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति को अपनी छुट्टियां कम करनी पड़ीं. अधिकारियों के मुताबिक बाइडेन को छुट्टियों के लिए कैंप डेविड जाना था.
क्या बोले बाइडेन?
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा, "मैं अपने फैसले पर पूरी तरह कायम हूं. 20 साल बाद, यह एक कड़वा सबक था कि सेना को वापस बुलाने का कोई वक्त सही वक्त नहीं होगा.”
बाइडेन ने माना कि अफगानिस्ता में तालिबान की जीत अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से हुई. लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि अमेरिका हर स्थिति के लिए पहले से तैयार था. अफगानिस्तान के हालात के लिए उन्होंने वहां की सेना को जिम्मेदार ठहराया.
बाइडेन ने कहा, "सच्चाई ये है कि हमने जितना सोचा था यह उससे कहीं ज्यादा तेजी से हुआ. तो हुआ क्या? अफगानिस्तान के नेताओं ने हार मान ली और भाग गए. अफगान सेना ने हार मान ली. कई बार तो लड़ने की कोशिश किए बिना ही.”
बाइडेन ने कहा कि अमेरिका सैनिक "ना तो ऐसे युद्ध में लड़ सकते हैं, और ना लड़ना चाहिए, और अपनी जान देनी चाहिए, जिसे अफगान सेनाएं खुद लड़ने को तैयार नहीं हैं.”
अपने विरोधियों द्वारा हो रही आलोचनाओं का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि वह फैसला एक और राष्ट्रपति के लिए छोड़ने के बजाय आलोचनाएं सहना ज्यादा पसंद करेंगे. उन्होंने याद दिलाया कि उन्हें एक ऐसा समझौता मिला था जो उनके पूर्ववर्ती डॉनल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ किया था.
अफगानिस्तान से फौज वापस बुलाने के फैसले को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति पर देश के अंदर से ही नहीं बल्कि अपने विदेशी सहयोगियों से भी दबाव है.
मैर्केल बोलीः भयावह
तालिबान की जीत के बाद मीडिया से बातचीत में जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने चेतावनी दी कि अफगानिस्तान से भाग रहे लोगों की मदद नहीं की गई तो एक और बड़ा संकट तैयार हो जाएगा.
मैर्केल ने कहा, "यह एक बेहद पीड़ादायी परिघटना है. पीड़ादायी, नाटकीय और भयावह. उन लाखों अफगानों के लिए यह बेहद दुखद है जो ज्यादा उदार समाज चाहते हैं.” उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में अभियान उतना सफल नहीं रहा जितनी उम्मीद की गई थी.
अपने भाषण में मैर्केल ने अफगानिस्तान में मारे गए 59 सैनिकों और घायल हुए सैकड़ों जवानों को भी याद किया. उन्होंने कहा, "मैं उन सैनिकों के परिवारों को हो रहे दर्द के बारे में सोच रही हूं, जिन्होंने अफगानिस्तान में लड़ते हुए जान दी. अब सब कुछ एकदम नाउम्मीद लगता है.”
जर्मन चांसलर ने शरण और मदद उपलब्ध कराने का वादा किया, खासकर उन अफगान लोगों को जिन्होंने जर्मन सेना के साथ काम किया है. उन्होंने पाकिस्तान जैसे अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों को भी मदद उपलब्ध कराने की बात कही, जहां बड़ी संख्या में शरणार्थी जा सकते हैं.
चीन ने अमेरिका को कोसा
अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति के लिए चीन ने अमेरिका के जल्दबाजी में लिए गए फैसले को जिम्मेदार ठहराया. चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने सोमवार को संयुक्त राष्ट्र महासचिव से बातचीत में कहा कि अमेरिका के सेनाएं वापस बुलाने के फैसले का गंभीर नकारात्मक असर पड़ा. उन्होंने अफगानिस्तान में स्थिरता के लिए अमेरिका के साथ मिलकर काम करने का भी वादा किया.
चीनी मीडिया के मुताबिक वांग ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से भी बात की. उन्होंने ब्लिंकेन को बताया कि जमीनी स्थिति से यह साबित हो जाता है कि एक भिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हालात वाले देश में विदेशी मॉडल सफल नहीं हो सकता.
चीनी के सरकारी चैनल सीसीटीवी के मुताबिक वांग ने कहा, "समस्याएं सुलझाने के लिए हथियारों का इस्तेमाल करेंगे तो समस्याएं बढ़ेंगी. इससे मिले सबक पर गंभीर विचार किया जाना चाहिए.” उन्होंने कहा कि चीन अमेरिका के साथ मिलकर काम करने को तैयार है ताकि देश में गृह युद्ध या अन्य मानवीय संकट न उपजें.
वीके एए (रॉयटर्स, एएफपी)
-सरोज सिंह
अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर जिस तेज़ी से तालिबान का क़ब्ज़ा हुआ है, इसका अंदाज़ा शायद कई देशों और ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को नहीं था.
नहीं तो एक दिन पहले अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी देशवासियों को वीडियो संदेश से संबोधित कर के अगले ही दिन देश छोड़कर नहीं जाते. न ही अमेरिका अपात स्थिति में अपने दूतावास को बंद कर लोगों को आनन-फानन में यूँ निकलाता.
ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान की ग़नी सरकार और अमेरिका का साथी भारत भी आज ख़ुद को अजीब स्थिति में पा रहा है.
जहाँ एक ओर चीन और पाकिस्तान, तालिबान से अपनी दोस्ती के चलते काबुल के नए घटनाक्रम को लेकर थोड़े आश्वस्त दिख रहे हैं, वहीं भारत फ़िलहाल अपने लोगों को आनन-फानन में काबुल से निकालने में लगा हुआ है.
तालिबान को आधिकारिक तौर पर भारत ने कभी मान्यता नहीं दी, लेकिन इस साल जून में दोनों के बीच 'बैकचैनल बातचीत' की ख़बरें भारतीय मीडिया में छाई रहीं. भारत सरकार ने "अलग-अलग स्टेकहोल्डरों" से बात करने वाला एक बयान ज़रूर दिया, ताकि मामले को तूल देने से रोका जा सके.
लेकिन किसे पता था कि दो महीने में सब कुछ इतनी तेज़़ी से बदल जाएगा. काबुल के ताज़ा हालात के बीच क्या भारत अब भी वही रणनीति अपनाएगा? यही है आज की तारीख़ में सबसे बड़ा सवाल.
तालिबान और भारत के संबंध
भारत के अब तक तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू न करने की बड़ी वजह ये रही है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान को मददगार और ज़िम्मेदार मानता था.
भारत में 1999 में IC-814 विमान के अपहरण की बात और उसके बदले जैश-ए -मोहम्मद के प्रमुख मौलाना मसूद अजहर, अहमद ज़रगर और शेख अहमद उमर सईद को छोड़ने की याद अब भी ताज़ा है.
भारत का तालिबान के साथ बात न करने का एक और बड़ा कारण ये भी रहा है कि ऐसा करने से अफ़ग़ान सरकार के साथ उसके रिश्तों में दिक्क़त आ सकती थी जो ऐतिहासिक रूप से काफ़ी मधुर रहे हैं. लेकिन अब स्थिति बदल गई है.
लेकिन ताज़ा घटनाक्रम के बाद, भारत क्या करेगा? इस पर अभी सरकार की ओर से कोई बयान नहीं आया है.
सच्चाई ये है कि पिछले कुछ सालों में भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में पुनर्निर्माण से जुड़ी परियोजनाओं में लगभग तीन अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है. संसद से लेकर सड़क और बाँध बनाने तक कई परियोजनाओं में सैकड़ों भारतीय पेशेवर काम कर रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में लगभग 1700 भारतीय रहते हैं. पिछले कुछ दिनों में काफ़ी लोगों के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने की खबरें आई है. इसके अलावा तकरीबन 130 यात्रियों के साथ एयर इंडिया का एक विमान रविवार को भारत लौटा है. ख़बरों के मुताबिक़ अब काबुल एयरपोर्ट से सभी कमर्शियल फ़्लाइट रद्द कर दी गई हैं.
भारत आगे क्या करे?
शांति मैरियट डिसूज़ा, कौटिल्य स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी में प्रोफ़ेसर हैं. अफ़ग़ानिस्तान में उन्होंने काम किया है और उस पर उन्होंने पीएचडी भी की है. बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, "भारत इस सच्चाई को समझ ले कि अब तालिबान का काबुल पर क़ब्ज़ा हो गया है और जल्द ही अफ़ग़ानिस्तान में वो सत्ता संभालने वाला है. ऐसे में भारत के पास दो रास्ते हैं - या तो भारत अफ़ग़ानिस्तान में बना रहे या फ़िर सब कुछ बंद करके 90 के दशक वाले रोल में आ जाए. भारत दूसरा रास्ता अपनाता है तो पिछले दो दशक में जो कुछ वहाँ भारत ने किया है वो सब ख़त्म हो जाएगा."
डॉ. डिसूज़ा कहती हैं- मेरी समझ से पहले क़दम के तौर पर भारत को बीच का रास्ता अपनाते हुए तालिबान के साथ बातचीत स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि अफ़ग़ानिस्तान के विकास के लिए अब तो जो भारत कर रहा था, उस रोल को (सांकेतिक या कम से कम स्तर पर ) वो आगे भी जारी रख सके.
वो कहती हैं कि सभी भारतीयों को वहाँ से निकालने से आगे चल कर भारत को बहुत ज़्यादा फ़ायदा नहीं होने वाला है. आनन फानन में लिए गए किसी भी फ़ैसले से बहुत भला नहीं होने वाला है.
अपनी बातों के पीछे वो तर्क भी देती हैं.
उनके मुताबिक़, "ऐसा इसलिए क्योंकि 15 अगस्त से पहले तक माना जा रहा था कि कोई अंतरिम सरकार अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर काबिज़ हो सकती है, लेकिन रविवार के बाद वहाँ की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है. तालिबान के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं दिखाई पड़ रहा है. 1990 में जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज था और भारत ने अपने दूतावास बंद कर दिए थे उसके बाद भारत ने कंधार विमान अपहरण कांड देखा था, भारत विरोधी गुटों का विस्तार भी भारत ने देखा. 2011 में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट साइन किया था, जिसमें हर सूरत में अफ़ग़ानिस्तान को सपोर्ट करने का भारत ने वादा किया था."
तालिबान के रवैए में बदलाव
वैसे हाल के दिनों में तालिबान की तरफ़ से भारत विरोधी कोई बयान सामने नहीं आया है. तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के विकास में भारत के रोल को कभी ग़लत नहीं कहा है.
तालिबान में एक गुट ऐसा भी है जो भारत के प्रति सहयोग वाला रवैया भी रखता है. जब अनुच्छेद 370 का मुद्दा उठा तो पाकिस्तान ने इसे कश्मीर से जोड़ा लेकिन तालिबान ने कहा कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि भारत कश्मीर में क्या करता है.
काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद अब तक किसी भी बहुत बड़े ख़ून ख़राबे की ख़बरें सामने नहीं आई है.
हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर चिंता जताई गई है कि तालिबानी शासन आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं की ज़िंदगी बद से बदतर हो जाएगी.
लेकिन बीबीसी से बातचीत में तालिबान के प्रवक्ता ने साफ़ कहा है कि महिलाओं को पढ़ाई और काम करने की इजाज़त होगी.
ऐसे में बहुत मुमकिन है कि तालिबान 2.0 तालिबान 1.0 से थोड़ा अलग होगा. लेकिन तालिबान ने चेहरा बदला है या आईना - इस पर जानकारों की राय बँटी है.
उनके मुताबिक़, "भारत की प्राथमिकता अभी अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालने की होगी. उसके बाद भारत देखेगा कि तालिबान का रवैया आने वाले दिनों में कैसा है? दुनिया के दूसरे देश तालिबान को कब और कैसे मान्यता देते हैं और तालिबान वैश्विक स्तर पर कैसे अपने लिए जगह बनाता है? भारत तालिबान से तभी बातचीत शुरू कर सकता है, जब तालिबान भी बातचीत के लिए राज़ी हो. मीडिया में तालिबान के बयान और ज़मीन पर उनकी कार्रवाई में फ़र्क ना हो. तालिबान भले ही कह रहा है कि वो किसी से बदला नहीं लेंगे, किसी को मारेंगे नहीं, लेकिन जिन प्रांतों को रविवार के पहले उन्होंने अपने क़ब्ज़े में लिया है वहाँ से जो ख़बरें आ रही हैं, उससे लगता है कि उनके कथनी और करनी में अंतर है. अभी ज़मीन पर उनका पुराना अवतार ही क़ायम है."
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, "मीडिया की बातें इसलिए भी कही जा रही हैं क्योंकि तालिबान को अभी वैश्विक स्वीकार्यता चाहिए. पिछले दिनों तालिबान के प्रतिनिधि चीन गए थे. वहाँ उन्हें ज़रूर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे दिखना है, इससे जुड़ी सलाह मिली होगी. लेकिन ब्रिटेन, अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों से शुरुआती संकेत तालिबान के लिए उत्साहजनक नहीं मिले हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति को जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति के ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, उससे साफ़ है कि पश्चिमी देश तालिबान को इतनी जल्दी मान्यता नहीं देने वाले."
"रही बात भारत की तो, पड़ोसी देश में जब भी सरकार बदलती है तो भारत उनसे बातचीत करता ही है. अफ़ग़ानिस्तान में भी भारत वैसा करेगा, लेकिन सही समय आने पर.वो सही समय तब आएगा, जब भारत जैसी सोच रखने वाले दूसरे देश भी तालिबान को मान्यता देने की तरफ़ क़दम बढ़ाएं. अगर तालिबान 2.0 तालिबान 1.0 जैसे ही हो, तो भारत को तालिबान से बातचीत में कोई फ़ायदा नहीं होगा."
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, "तालिबान से बातचीत करने के लिए भारत रूस की मदद ले सकता है ताकि भारत के हितों की सुरक्षा अफ़ग़ानिस्तान में हो सके. इसके अलावा सऊदी अरब और यूएई पर भी भारत की नज़रें टिकीं हैं कि वो आगे क्या करते हैं. 1990 में पाकिस्तान,यूएई और सऊदी अरब ने तालिबान को सबसे पहले मान्यता दी थी."
भारत के लिए चुनौतियाँ
तालिबान का उदय 90 के दशक में हुआ जब अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी. माना जाता है कि पहले धार्मिक मदरसों में तालिबान आंदोलन उभरा.
इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था. बाद में ये पश्तून इलाक़े में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया क़ानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे.
इस वजह से प्रोफ़ेसर पंत का मानना है कि तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान में शासन चलाने का कोई मॉडल तो है नहीं. उनकी अपनी एक कट्टरपंथी विचारधारा है जिसे वो लागू करना चाहते हैं. अब तक उनका एजेंडा था, अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से हटाना, जिसमें वो सफ़ल हो गए हैं. लेकिन इसके बाद भी उनके तमाम गुटों में एकता बनी रहेगी, ये अभी कहना मुश्किल है.
जब तक अफ़ग़ानिस्तान में नई राजनीतिक व्यवस्था की प्रक्रिया शुरू नहीं हो जाती, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है. भारत चाहेगा कि उसमें नार्दन एलायंस की भूमिका रहे. लेकिन तालिबान की प्राथमिकता होगी शरिया क़ानून को वहाँ लागू करवाए ना कि अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बनाए. ऐसे में भारत और तालिबान के बीच विचारधारा का टकराव हो सकता है.
वहीं, डॉ. डिसूज़ा कहती हैं कि तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़ा कर लेने से भारत के सामने तीन स्तर पर चुनौतियाँ होंगी. पहली सुरक्षा से जुड़ी हुई.
तालिबान के साथ संबंधित आतंकवादी गुट जैसे जैश, लश्कर और हक्कानी नेटवर्क की छवि अब तक 'भारत- विरोधी' रही है. दूसरी मध्य एशिया में व्यापार, कनेक्टिविटी और आर्थिक विकास के मसले पर दिक़्क़तें आ सकती हैं. अफ़ग़ानिस्तान की लोकेशन ही कुछ ऐसी है.
तीसरी दिक़्क़त, चीन और पाकिस्तान को लेकर आएगी, जो पहले से तालिबान के साथ अच्छे संबंध बनाए हुए हैं. (bbc.com)
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की हालत के लिए उसके नेता ज़िम्मेदार हैं जो देश छोड़कर भाग गए.
उन्होंने कहा कि तालिबान तेज़ी से अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर सका क्योंकि वहां के नेता देश छोड़ कर भाग गए और अमेरिकी सैनिकों द्वारा प्रशिक्षित अफ़ग़ान सैनिक उनसे लड़ना नहीं चाहते.
उन्होंने कहा, "सच ये है कि वहां तेज़ी से स्थिति बदली क्योंकि अफ़ग़ान नेताओं ने हथियार डाल दिए और कई जगहों पर अफ़ग़ान सेना ने बिना संघर्ष के हार स्वीकार कर ली."
जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के नए मिशन की भी घोषणा की. उन्होंने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी नागरिकों और आम अफ़ग़ान नागरिकों को वहां से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए 6,000 अतिरिक्त सैनिक भेजे गए हैं.
उन्होंने कहा अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान के सहयोगियों और ज़रूरतमंद अफ़ग़ान नागरिकों को देश से बाहर निकालेगा.
साथ ही उन्होंने कहा कि सैन्य सहायता के माध्यम से अमेरिका 'ऑपरेशन अलाइज़ रिफ्यूजी' चलाएगा जिसके तहत जिन अफ़ग़ान नागरिकों को तालिबान से ख़तरा है उन्हें देश से बाहर निकालने की व्यवस्था की जाएगी.
'अपने फ़ैसले पर अडिग हूं'
टेलीविज़न पर लाइव प्रसारित अपने भाषण में बाइडन ने कहा कि वो पूरी तरह अपने फ़ैसले के पक्ष में हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के तेज़ी से उभार पर उन्होंने माना, ''जैसी उम्मीद की जा रही थी उससे कहीं अधिक तेज़ी से अफ़ग़ानिस्तान में स्थितियां बदली हैं."
उन्होंने कहा, "जब अफ़ग़ान ख़ुद अपने लिए लड़ना नहीं चाहते तो अमेरिकियों को ऐसी लड़ाई में नहीं पड़ना चाहिए और इसमें अपनी जान नहीं गंवानी चाहिए."
अपने फ़ैसले के बारे में बाइडन ने कहा कि तालिबान ने साथ बातचीत उनके पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में शुरू की गई थी जिसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी कम की गई. एक वक्त जहां अफ़ग़ानिस्तान में 15,500 अमेरिकी सैनिक तैनात थे वहीं समझौते के बाद सैनिकों की संख्या घटा कर 2,500 कर दी गई.
उन्होंने कहा, "तालिबान ने कहा था कि एक मई तक अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलें. 2001 के बाद से तालिबान अगर कभी बेहद शक्तिशाली रहा है तो वो आज का दौर है."
"राष्ट्रपति के तौर पर मेरे सामने दो विकल्प थे- या तो पहले से हुए समझौते का पालन किया जाता या फिर तालिबान के साथ लड़ाई शुरू की जाती. दूसरा विकल्प चुनने पर एक बार फिर युद्ध का आगाज़ हो जाता."
'अफ़ग़ानिस्तान से निकलने का कोई उचित वक्त नहीं था'
बाइडन ने कहा कि एक मई के बाद अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान से अमेरिकी सैनिकों को बचाने का कोई समझौता नहीं था.
उन्होंने कहा, "अफ़ग़ानिस्तान से अपनी फ़ौजें वापस बुलाने का कोई सही वक्त नहीं था. जैसा उम्मीद की गई थी उससे अधिक तेज़ी से अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में अपने सैनिकों की मौजूदगी ख़त्म कर दी है."
'अशरफ़ ग़नी से कहा था बातचीत करें'
बाइडन ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति देखना उन लोगों के लिए परेशान करने वाला है जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के 20 साल वहां हो रही लड़ाई में गंवा दिए.
उन्होंने कहा, "मैंने इस मुद्दे पर लंबे वक्त तक काम किया है और मेरे लिए ये एक तरह से निजी क्षति है."
बाइडन ने कहा कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को सलाह दी थी कि वो संकट का राजनीतिक हल तलाशने के लिए तालिबान से साथ बातचीत करें, लेकिन उनकी सलाह नहीं मानी गई.
उन्होंने कहा, "अशरफ़ ग़नी ने कहा कि ज़रूरत पड़ने पर अफ़ग़ान सैनिक तालिबान से लड़ेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि ये उनका ग़लत फ़ैसला था."
बाइडन ने कहा तालिबान के आने पर जिन अफ़ग़ान नागरिकों की जान को ख़तरा हो सकता है उन्हें वक्त से पहले अफ़ग़ानिस्तान से न निकालने के फ़ैसले के पीछे दो कारण हैं.
पहला ये कि "अफ़ग़ान ख़ुद वहीं से निकलना नहीं चाहते थे और दूसरा, बड़ी संख्या में लोगों को निकालने से 'लोगों का भरोसा डगमगाने का ख़तरा था' और अफ़ग़ान अधिकारी ऐसा नहीं चाहते थे."
उन्होंने कहा, "अमेरिका अफ़ग़ान नागरिकों की मदद करना बंद नहीं करेगा. हम कूटनीतिक रास्तों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय प्रभाव का इस्तेमाल करेंगे और मानवीय मदद पहुंचाना चालू रखेंगे. हिंसा और अस्थिरता न हो इसके लिए प्रांतीय स्तर पर हम कूटनीतिक प्रयास करते रहेंगे."
बाइडन ने कहा "इस बात को लेकर मैं स्पष्ट हूं कि हमारे देश की विदेश नीति के केंद्र में मानवाधिकारों का सम्मान है. लेकिन ऐसा करने के लिए हम अनंत काल तक अपने सैनिकों को किसी दूसरी धरती पर नहीं भेज सकते."
उन्होंने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल लंबे अमेरिकी मिशन का उद्देश्य "राष्ट्र निर्माण" या "एक केंद्रीय लोकतंत्र बनाना" नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य अमेरिकी ज़मीन पर आतंकी हमलों को रोकना था.
अमेरिकी एयर फ़ोर्स के सी-17 ग्लोबमास्टर हवाई जहाज़ के भीतर का दृष्य. इस उड़ान से 640 अफ़ग़ान नागरिकों को काबुल से क़तर तक ले जाया जा रहा है
'अमेरिकियों पर हमला हुआ तो नतीजे भयंकर होंगे'
बाइडन ने चेतावनी दी कि "तालिबान को हमने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि अगर अमेरिकी सैनिकों पर हमला किया गया या फिर अमेरिकी अभियान पर असर पड़ा तो अमेरिका तुरंत इसका जवाब देगा और "ज़रूरत पड़ने पर अपनी पूरी विध्वंसक शक्ति के साथ अमेरिका अपने लोगों की रक्षा करेगा."
उन्होंने कहा, "मैं चौथा राष्ट्रपति हूं तो अफ़ग़ानिस्तान संकट की आग झेल रहा है. मैं इस युद्ध की आग को अपने बाद के राष्ट्रपतियों तक नहीं पहुंचने दूंगा."
उन्होंने कहा, "मौजूदा हालात को देख कर दुख हो रहा है, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध में अमेरिकी सैनिकों की भूमिका ख़त्म करने के फ़ैसले पर मुझे कोई पछतावा नहीं. ये युद्ध यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए."
साल 2001 के सितंबर में अमेरिका पर बड़ा आतंकी हमला हुआ था जिसके लिए उसने अल-क़ायदा को ज़िम्मेदार ठहराया. इसके बार अल-क़ायदा का समर्थन करने के आरोप में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल कर वहां नई सरकार बनाने के रास्ते तैयार किए. तब से लेकर अब तक अमेरिकी अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सैन्य मौजूदगी बनाए हुए हैं.
लेकिन तालिबान और अमेरिका के बीच शुरू हुई शांति वार्ता के बाद अमेरिका ने अपनी सेना को अफ़ग़ानिस्तान से वापिस बुलाने का फ़ैसला किया.
इस बीच तालिबान ने तेज़ी से देश में शहरों और कस्बों को अपने नियंत्रण में लेना शुरू किया और अमेरिकी सेना की मौजूदगी न के बराबर होने पर अफ़ग़ान सेना तालिबान के लड़ाकों से सामने कुछ दिन भी टिक नहीं पाई. (bbc.com)
नई दिल्ली, 17 अगस्त| अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के शहर-ए-नव पार्क में अफगान सैनिकों और तालिबान आतंकवादियों के बीच युद्ध से बचने के लिए अपने गांव छोड़कर भाग गई सैकड़ों महिलाएं लापता हो गई हैं। इसका नावेद (बदला हुआ) ने दावा किया है, जो एक अफगान नागरिक हैं और दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने आईएएनएस को बताया, "मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कह रहा हूं कि शहर-ए-नव पार्क में शरण लेने वाली सैकड़ों महिलाएं लापता हैं। परिजन पिछले कई दिनों से उनकी तलाश कर रहे हैं, लेकिन वे नहीं मिली है। अभी अफगानिस्तान की यही स्थिति है।"
नावेद ने कहा कि उन्होंने लगभग आठ साल पहले अपना देश छोड़ दिया था, लेकिन उसके पास अभी भी अफगानिस्तान में सूचना के अच्छे स्रोत हैं क्योंकि वह एक निजी अमेरिकी सुरक्षा फर्म से जुड़े हैं जो स्थानीय नागरिकों को 'सूचना देने' का काम करता है।
उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान के लोगों के लिए बमबारी, गोलाबारी और हवाई हमले कोई नई बात नहीं है क्योंकि उन्हें बचपन से ही इसकी आदत हो गई थी, लेकिन उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि उन्हें देश छोड़ना होगा।
उन्होंने कहा, "अफगानिस्तान में युवाओं की जान हमेशा जोखिम में रहती है, खासकर युवा महिलाओं की। तालिबान आतंकवादी घरों में घुस जाते हैं और वे युवतियों को जबरदस्ती ले जाते हैं। यह पिछले कई सालों से हो रहा है लेकिन सरकार चुप रही।"
उन्होंने सवाल किया, "अगर शहर-ए-नव पार्क से सैकड़ों युवतियां अचानक गायब हो गईं तो किसे जिम्मेदार ठहराया जाए?"
उन्होंने कहा कि "अगर आज तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है और लोगों को देश छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है, तो राष्ट्रपति अशरफ गनी को इसके लिए 'सबसे ज्यादा जिम्मेदार' ठहराया जाना चाहिए। यह रातोंरात नहीं आया है। उन्होंने एक के बाद एक प्रांतों पर कब्जा कर लिया और अफगान सरकार ने कुछ नहीं किया।"
उन्होंने कहा कि अकेले कुंदुज में 50,000 से अधिक लोग, जिनमें से आधे से ज्यादा बच्चे अपने घरों से भाग गए हैं।
तालिबान के साथ संयुक्त सरकार बनने पर क्या होगा, इस पर जवाब देते हुए, उन्होंने कहा, "देखिए, सभी अफगानिस्तान के युवा को अच्छी तरह से पता है कि उनका भविष्य बर्बाद हो गया है। अमेरिका और भारत द्वारा विकास के लिए समर्थन शुरू करने के बाद हमें उम्मीद थी, लेकिन अब चीजें बदल गई हैं। अगर हमारे अपने राष्ट्रपति देश को तालिबान को सौंपते हुए भाग गए, तो अब हम और क्या उम्मीद कर सकते हैं। हम अब निराश हैं। हमारा पूरा जीवन शरणार्थी के रूप में गुजरेगा।" (आईएएनएस)
काबुल, 17 अगस्त| काबुल में अराजकता की स्थिति के बीच दुकानों को बंद कर दिया गया और बाजार व स्कूल बंद रहे। तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी को अपने कब्जे में ले लिया, जिससे पूरे शहर में व्यापक अराजकता फैल गई है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट
के अनुसार, शहर के पतन के एक दिन बाद सोमवार को, तालिबान के सदस्य सड़कों पर देखे गए, लेकिन ऐसा लग रहा था कि वे कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं थे, क्योंकि कुछ सैन्य संस्थानों में लूटपाट हुई थी और चोरी के सैन्य वाहन सड़कों पर चल रहे थे।
आतंकवादी समूह ने चेतावनी दी है कि अगर कोई चोरी सहित किसी भी प्रकार का अपराध करता है तो उससे सख्ती से निपटा जाएगा।
कुछ स्कूलों में चल रही परीक्षाओं के चलते सुबह कुछ स्कूल खुले, लेकिन स्थिति बेहतर होने तक बंद करने की सलाह दी गई है।
एक निवासी मोहम्मद आरिफ ने सोमवार को सिन्हुआ को बताया, "मैं अपने भविष्य और अपने बच्चों के भविष्य के बारे में निश्चित नहीं हूं। कोई नहीं जानता कि एक घंटे बाद क्या होगा, या मेरे बच्चे कल स्कूल जा सकते हैं कि नहीं।"
आरिफ ने कहा कि उनकी बेटी एक निजी विश्वविद्यालय में विधि संकाय की छात्रा है लेकिन नए शासकों के प्रतिशोध के डर से वह सोमवार को अपनी कक्षा में शामिल नहीं हुई।
हालांकि शहर के पतन के बाद से अफगानिस्तान में कोई राष्ट्राध्यक्ष या सरकार नहीं है, तालिबान ने स्थानीय मीडिया पर एक संक्षिप्त बयान जारी कर सरकारी कर्मचारियों सहित निवासियों को अपने कार्यालयों में जाने और सामान्य काम जारी रखने के लिए कहा है।
हालांकि, काबुल में कई दुकानों और सुपरमार्केट की तरह, कई सरकारी विभाग के कार्यालय, बैंक और स्कूल सोमवार को बंद रहे क्योंकि तालिबान के सदस्य शहर की सड़कों पर या तो सैन्य वाहनों या पैदल गश्त करते रहे।
एक अन्य निवासी, हामायोन ने सिन्हुआ को देश से भागने की अपनी योजना के बारे में बताया।
उन्होंने कहा, "शायद आज, कल, परसों या कभी भी जब भाग्य मेरा साथ देगा,मैं देश छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं।"
नौ साल तक राष्ट्रीय सेना में सेवा देने वाले 31 वर्षीय व्यक्ति ने स्थिति पर दुख व्यक्त किया।
उन्होंने कहा, "अफगानिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय समर्थन से 350,000 मजबूत रक्षा और सुरक्षा बलों का निर्माण किया था, लेकिन सभी को कुछ ही दिनों में खत्म कर दिया गया है।"
एक अन्य काबुल निवासी सूफी मोहम्मद ने कहा, 'सिर्फ सुरक्षा होना ही काफी नहीं है।'
उन्होंने कहा, "सुरक्षा सुनिश्चित करने के अलावा, प्रतिष्ठान को नौकरी का अवसर प्रदान करना होगा, मानवाधिकारों का सम्मान करना होगा और समाज में नागरिकों को सम्मान करना होगा।"
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने रविवार रात देश छोड़ दिया, जबकि तालिबान बलों ने काबुल की राजधानी में प्रवेश किया और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया।
तालिबान ने आश्वासन दिया है कि काबुल में सभी राजनयिक मिशनों और विदेशी नागरिकों को कोई खतरा नहीं होगा।
समूह के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने कहा कि वे अफगानिस्तान की राजधानी में सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
मुजाहिद ने कहा कि काबुल के सभी जिलों पर अब विद्रोहियों का कब्जा है।
तालिबान के एक अन्य प्रवक्ता ने कहा है कि अफगानिस्तान में युद्ध समाप्त हो गया है, और एक नई पॉवर स्ट्रक्चर जल्द ही स्पष्ट हो जाएगी।
हिंसा को रोकने के लिए काबुल में रात का कर्फ्यू लगा दिया गया है। (आईएएनएस)
पोर्ट-ओ-प्रिंस, 17 अगस्त| हैती में 14 अगस्त को आए शक्तिशाली 7.2 तीव्रता के भूकंप से मरने वालों की संख्या बढ़कर 1,419 हो गई है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने सोमवार को देश की नागरिक सुरक्षा एजेंसी के हवाले से कहा कि भीषण भूकंप में कम से कम 6,900 लोग घायल हो गए और 37,000 से अधिक घर नष्ट हो गए।
एजेंसी ने कहा कि वह भूकंप प्रभावित क्षेत्रों से गंभीर रूप से घायल हैती के नागरिकों को हेलीकॉप्टर से एयरलिफ्ट करना जारी रखेंगे।
एजेंसी के अनुसार, अधिकांश मौतें डिपार्टमेंट ऑफ द साउथ (1,133) में दर्ज की गई हैं, जिसकी राजधानी लेस केयस है।
एक संवाददाता सम्मेलन में, नागरिक सुरक्षा एजेंसी के निदेशक, जेरी चैंडलर ने हैती को मिल रहे अंतर्राष्ट्रीय समर्थन को रेखांकित किया।
चांडलर ने कहा, "हम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अपने दोस्तों के साथ काम करना जारी रखेंगे। उनमें से कई ने हमारे समर्थन में आने की पेशकश की है।"
खोज और बचाव दल अमेरिका और चिली से पहुंच रहे हैं, जबकि मेक्सिको से और भी लोग रास्ते में हैं।
क्यूबा की मेडिकल टीम पहले से ही हैती में है और लोगों की मदद कर रही है।
प्रधानमंत्री एरियल हेनरी ने एक महीने के आपातकाल की घोषणा की है और आबादी से 'एकजुटता दिखाने' का अनुरोध किया है।
2010 में, हैती में एक और बड़े भूकंप ने 20,0000 से अधिक लोगों को मार डाला था और देश के बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था को व्यापक नुकसान पहुंचाया था। (आईएएनएस)
-सुमी खान
ढाका, 17 अगस्त| बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने कहा है कि उनका देश अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बनाई गई सरकार को स्वीकार करेगा अगर वह 'लोगों की सरकार' है। मोमेन ने सोमवार को कहा, "कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सी नई सरकार बनती है, अगर तालिबान सरकार बनती है, जो बन गई है, तो हमारे दरवाजे उनके लिए खुले रहेंगे।"
विदेश मंत्री ने कहा, "हम लोगों की लोकतांत्रिक सरकार में विश्वास करते हैं।" उन्होंने कहा कि बांग्लादेश के सभी सरकारों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हैं और वह उनका समर्थन करने के लिए तैयार हैं।"
मंत्रालय ने आईएएनएस को दिए एक बयान में कहा कि बांग्लादेश अफगानिस्तान में तेजी से विकसित हो रही स्थिति को ध्यान से देख रहा है, 'जिसके बारे में हम मानते हैं इसका क्षेत्र और उसके बाहर प्रभाव पड़ सकता है।'
मोमेन ने अफगानिस्तान का उल्लेख करते हुए कहा, युद्धग्रस्त देश बांग्लादेश के लिए एक 'दोस्ताना राज्य' है। उन्होंने कहा, "हम उनका विकास चाहते हैं। हम सभी के साथ सबका विकास चाहते हैं।"
तालिबान द्वारा कैदियों को मुक्त करने के बाद बांग्लादेशी कैदियों में से एक ने अधिकारियों से संपर्क किया। दो अन्य का कोई पता नहीं है। काबुल में कुल 15 बांग्लादेशी थे। इनमें एक गैर सरकारी संगठन, बीआरएसी इंटरनेशनल के 12 कार्यकर्ता और तीन कैदी शामिल थे।
तालिबान के राजधानी में प्रवेश करने से पहले शुक्रवार को तीन बीआरएसी कार्यकर्ता घर लौट आए और छह अन्य ने संगठन के निदेशक के घर पर शरण ली।
बीआरएसी के तीन अन्य बांग्लादेशी कर्मचारी छुट्टी पर देश से बाहर थे। उन्हें अफगानिस्तान नहीं लौटने को कहा गया है।
विदेश मंत्रालय ने बयान में कहा, "बांग्लादेश और अफगानिस्तान ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध साझा करते हैं। यह सार्क का एक साथी सदस्य है और दक्षिण एशिया का अभिन्न अंग है।"
उन्होंने कहा, "बांग्लादेश का मानना है कि एक लोकतांत्रिक और बहुलतावादी अफगानिस्तान देश में स्थिरता और विकास की एकमात्र गारंटी है" मंत्रालय ने उल्लेख किया कि बांग्लादेश खुद को 'संभावित विकास भागीदार और अफगानिस्तान का मित्र' मानता है। (आईएएनएस)
तेहरान, 16 अगस्त| भगोड़े अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी का सटीक स्थान अज्ञात है, लेकिन कहा जा रहा है कि वह अमेरिका भागने के लिए ओमान गए हैं। मेहर न्यूज की ओर से जानकारी मिली है। तालिबान ने रविवार को अफगानिस्तान के अपने नियंत्रण को प्रभावी ढंग से सील कर दिया और वह बिना किसी प्रतिरोध का सामना किए राजधानी शहर काबुल में घुस गया। यहां तक कि देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी को देश से भागना पड़ा और और सरकार गिर गई।
रिपोर्ट में कहा गया है कि शुरू में यह बताया गया था कि गनी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मुहिब और राष्ट्रपति के प्रशासनिक कार्यालय के प्रमुख फजल महमूद फाजली के साथ अफगानिस्तान से ताजिकिस्तान के लिए रवाना हुए थे, लेकिन दुशांबे ने इससे इनकार किया।
तब कहा गया था कि उन्होंने उज्बेकिस्तान की यात्रा की थी।
गनी पर अफगानों द्वारा देशद्रोह का आरोप लगाया गया है और वर्तमान में, उनके स्थान के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
अफगानिस्तान के रक्षा मंत्री बिस्मिल्लाह मोहम्मदी ने स्पष्ट रूप से गनी और उनके सहयोगियों का जिक्र करते हुए एक ट्वीट में अफसोस जताया कि उन्होंने हमारी पीठ के पीछे हमारे हाथ बांध दिए और मातृभूमि बेच दी।
राष्ट्रीय सुलह के लिए उच्च परिषद के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने एक वीडियो क्लिप में कहा था कि गनी ने अफगानिस्तान छोड़ दिया है।
उन्होंने कहा कि उन्होंने अफगानिस्तान के लोगों को मुसीबत में छोड़ दिया है और भविष्य में उनका न्याय किया जाएगा। (आईएएनएस)
-अनिल अश्विनी शर्मा
चेल्सी ने कहा कि अमीर देशों को हर हाल में गरीब देशों में कोविड टीके की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए
चेल्सी क्लिंटन एक जाना पहचाना नाम है। इन दिनों उनका नाम बढ़चढ़ कर लिया जा रहा है। इसके पीछे एक बड़ा कारण है कोविड-19 टीके के लिए उन्होंने तीसरी दुनिया (विकासशील और गरीब देश) के देशों में टीका की उपलब्ध्ता को लेकिर विश्वभर के अमीर देशों की स्वास्थ्य नीति पर सवाल उठाया है।
अंतराष्ट्रीय पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने अमीर देशों से आग्रह किया है कि वे कोविड-19 वैक्सीन की तकनीक को गरीब देशों के साथ साझा करें। ताकि दुनिया भर के गरीब मुल्कों के पास आसानी से टीके की पहुंच बन सके।
यहां ध्यान देने वाली बात है कि चेल्सी आखिरकार अमेरिका के एक ऐसे परिवार में पलीबढ़ी हैं, जहां उन्होंने दुनियाभर के राष्ट्रध्यक्षों की सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति को अपनी आंखों के सामने बनते-बिगड़ते देखा है। ऊपर से अब वे न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति विषय की प्रोफेसर भी हैं।
हालांकि चेल्सी क्लिंटन का सार्वजनिक जीवन बहुत अधिक लाइमलाइट में नहीं रहा है। लेकिन हाल ही में उन्होंने दुनिया के निम्न और मध्यम आय वाले देशों में कोविड-19 टीकों की कमी को दूर करने के लिए विश्वभर के अमीर देशों के राष्ट्रप्रमुखों से न केवल अपील की, बल्कि वे अपने स्तर विभिन्न प्लेटफार्मों का उपयोग कर रही हैं ताकि गरीब मुल्कों में कोविड टीके की पहुंच को आसान बनाया जा सके।
वह यह जानती हैं कि धनी देश जहां कोविड की तीसरी डोज लेने की तैयारी कर रहे हैं, वहीं विश्व के सैकड़ों देशों में अब तक कोविड टीके की पहली डोज तक नहीं लगी है। वह अपनी मजबूत राजनीतिक पृष्ठभूमि का लाभ लेते हुए विश्वभर के धनी राष्ट्रप्रमुखों को गरीब देशों में टीके की आपूर्ति बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत हैं।
नेचर से बातचीत करते हुए चेल्सी ने इस संबंध में कहा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में मेरी पहली वास्तविक रुचि लगभग तीन दशक पहले शुरू हो गई थी, जब दुनिया के सबसे महान बास्केटबॉल खिलाड़ी मैजिक जॉनसन ने अपने एचआईवी पॉजिटिव होने के बारे में एक साहसी भाषण दिया था। वह कहती हैं कि इसके बाद वह एचआईवी पॉजिटिव थिएटर ग्रुप के साथ काम किया।
इस माध्यम से मुझे गरीब और अमीर देशों के बीच व्याप्त घोर असमानताओं के बारे में जाना और तभी से सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में काम शुरू किया। वह कहती हैं कि मुझे यह कहने में रत्तीभर भी झिझक नहीं है कि जब मेरे पिता अमेरिका के राष्ट्रपित थे तब उनकी सरकार ने एचआईवी और एड्स के क्षेत्र में पर्याप्त काम नहीं किया।
मुझे अब भी याद है कि एक बार मैं जब ईस्टर चर्च में सेवाकार्य में लगी हुई थी, तब एक एड्स कार्यकर्ता समूह मेरे पिता के विरोध में नारे लगा रहा था। और मुझे लगा कि उसका इस प्रकार से मेरे पिता के बारे में चिल्लाना उचित ही है क्योंकि वह जो कह रहा था उसकी बातों से मैं पूरी तरह से सहमत थी।
हालांकि बाद में जब मेरे पिता राष्ट्रपति पद से हटे तो उन्होंने इस क्षेत्र में अपनी सीमा से परे जाकर काम किया। उनके इस काम ने मुझे सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने की प्रेरणा दी।
नेचर ने जब उनसे पूछा कि आप कोविड-19 वैक्सीन इक्वीटी (बराबरी) की वकालत कर रही हैं। क्या आपके देश अमेरिका ने इस दिशा में कोई कदम उठाया है? इस पर चेल्सी ने कहा कि मै अवश्वसनीय रूप से इस बात की अभारी हूं कि बाइडन प्रशासन ने विश्वभर के 60 देशों को 110 मिलियन वैक्सीन की खुराक भेजी है।
इसके बावजूद मैं कहना चाहूंगी कि यह जरूरतों को देखते हुए बहुत ही अपर्याप्त है। और मुझे उम्मीद है कि अमेरिका द्वारा और वैक्सीन की और खुराकें भेजी जाएंगी। चेल्सी ने बताया कि मैं बाइडन प्रशासन पर दबाव बराबर बनाए रखने की कोशिश करुंगी कि ताकि टीका बनाने वाली दवा कंपनियां अपनी प्रौद्योगिकी को दुनिया भर के गरीब देशों के बीच हस्तांरण के लिए राजी किया जा सके।
मुझे उम्मीद है कि बाइडन प्रशासन इसे न केवल अमेरिकी सरकार के लिए नैतिक रूप से सही काम के रूप में देखेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा वास्तव में अप्रत्यक्ष रूप से हम अपना ही जीवन सुरक्षित कर रहे हैं। हम तब तक सस्टनेबल तरीके से आगे नहीं बढ़ेंगे जब तक हम भविष्य के वेरिएंट के जोखिम को कम नहीं कर सकते। यह तभी संभव होगा जब दुनियाभर में सभी का टीकाकरण हो।
चेल्सी से जब नेचर ने पूछा कि मई में अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन द्वारा कोविड-19 वैक्सीन पेटेंट पर छूट जारी करने वाले प्रस्तावों का समर्थन किया था, इसकी वर्तमान में क्या स्थिति है? इस पर चेल्सी ने कहा कि विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख ने पेटेंट छूट पर एक समझौते के लिए दिसंबर की शुरुआत की समय सीमा निर्धारित की थी।
मुझे चिंता इस बात की है कि इस दिशा में हम किंतु-परंतु नहीं कर सकते। यही कारण है कि मैं और मेरे जैसे कई और संगठन गरीब देशों के साथ कोविड-19 वैक्सीन की तकनीकी जानकारी को साझा करने के लिए के लिए दबाव बना रहे हैं। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हर जगह लोगों को टीका लगाया जा सकता है।
चेल्सी कहती हैं कि अभी जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल पेटेंट में छूट का कड़ा विरोध करती दिख रही हैं, लेकिन अगर वह अभी भी चाहती हैं कि जर्मनी दुनिया को टीका लगाने में मदद करे तो वह जर्मन बायोटेक फर्म को अपने पेटेंट और वैक्सीन तकनीक का लाइसेंस देने के लिए मजबूर कर सकती हैं।
हालांकि एक अमेरिकी के रूप में मुझे उम्मीद है कि मेरा देश वही करेगा जो वैश्विक अर्थव्यवस्था, सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण होगा। जब चेल्सी पूछा गया कि क्या वे अमेरिका में टीके की कमी के बारे में चिंतित हैं? वह कहती हैं कि बहुत अधिक। मैं और हमारा क्लिंटन फाउंडेशन स्कूलों, सामुदायिक संगठनों और विश्वभर के कई नेताओं के साथ मिलकर काम कर रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लोगों को टीकों के बारे में सही जानकारी हो और लोग टीका लगवाने में सक्षम हों सकें।(downtoearth.org.in)
मास्को, 16 अगस्त| उज्बेकिस्तान की वायु रक्षा प्रणाली ने उज्बेकिस्तान के हवाई क्षेत्र में घुसने के बाद एक विमान को मार गिराया। रूस टुडे ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि उज्बेक राजधानी ताशकंद में अधिकारियों ने सोमवार को खुलासा किया कि भागते हुए अफगान सैन्य कर्मियों को ले जा रहे एक विमान को उज्बेकिस्तान की वायु-रक्षा प्रणाली ने पड़ोसी देश के हवाई क्षेत्र में पार करने के बाद मार गिराया।
उज्बेक रक्षा मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने आरआईए नोवोस्ती को बताया कि, रविवार रात, उज्बेकिस्तान की वायु सेना के वायु रक्षा बलों ने एक अफगान सैन्य विमान द्वारा उज्बेकिस्तान की हवाई सीमा को अवैध रूप से पार करने के प्रयास को दबा दिया।
सोमवार को पहले यह बताया गया था कि उज्बेकिस्तान में ईंधन खत्म होने के बाद एक अफगान विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, जबकि उज्बेक अधिकारियों ने इसे देश में उतरने से इनकार कर दिया था।
स्थानीय मीडिया की रिपोटरें से संकेत मिलता है कि विमान में सवार दो पायलट पैराशूट से उतरते हुए दुर्घटना में बच गए। इससे पहले, सरकार के प्रवक्ता बख्रोम जुल्फिकारोव ने टास को बताया था कि दुर्घटना रात के समय हुई थी और इसके विवरण की पुष्टि की जा रही है।
अफगानिस्तान के अब अपदस्थ राष्ट्रपति अशरफ गनी, जिन्होंने 2014 से अमेरिका समर्थित अफगान सरकार का नेतृत्व किया था, ने रविवार को देश छोड़ दिया था। कई स्रोतों का कहना है कि वह अपने सलाहकारों के एक करीबी समूह के साथ उज्बेकिस्तान पहुंचे हैं। (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 16 अगस्त | काबुल में रूसी दूतावास ने कहा है कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी चार कारों और नकदी से भरा एक हेलीकॉप्टर लेकर देश से भाग गए हैं और उन्हें कुछ पैसे वहीं पर छोड़ने पड़े, क्योंकि यह फिट नहीं हो रहे थे। आरआईए समाचार एजेंसी ने रूसी दूतावास के हवाले से यह जानकारी दी।
काबुल स्थित रूसी दूतावास में प्रवक्ता निकिता इशचेंको ने आरआईए के हवाले से कहा, चार कारें पैसे से भरी थीं। उन्होंने पैसे के दूसरे हिस्से को हेलीकॉप्टर में भरने की कोशिश की, लेकिन यह सब फिट नहीं हो सका। इसलिए उनमें से कुछ पैसा तो टरमैक पर पड़ा रह गया था।
अल जजीरा ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि निकिता इशचेंको ने अपनी जानकारी के स्रोत के रूप में गवाहों का हवाला देते हुए एक वैश्विक न्यूज वायर पर अपनी टिप्पणियों की पुष्टि की है।
अफगानिस्तान के रक्षा मंत्री बिस्मिल्लाह मोहम्मदी ने एक ट्वीट में, गनी और उनके सहयोगियों के लिए एक स्पष्ट संदर्भ में कहा कि उन्होंने हमारे हाथों को हमारी पीठ के पीछे बांध दिया और मातृभूमि को बेच दिया, अमीर आदमी और उसके गिरोह को., धिक्कार है।
अफगानिस्तान के वरिष्ठ नेता और राष्ट्रीय सुलह के लिए उच्च परिषद के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने एक वीडियो क्लिप में कहा है कि गनी ने अफगानिस्तान छोड़ दिया है।
उन्होंने कहा कि गनी ने अफगानिस्तान के लोगों को संकट और दुख में छोड़ दिया है और उन्हें राष्ट्र द्वारा आंका जाएगा।
वीओए ने बताया कि गनी, अपने उपाध्यक्ष और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के साथ, रविवार को देश से बाहर चले गए और इस प्रकार से उन्होंने तालिबान विद्रोहियों के लिए अफगानिस्तान में सत्ता हासिल करने के लिए मंच तैयार कर दिया है। 20 साल पहले अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य आक्रमण ने उन्हें हटा दिया, जिसके बाद उन्हें एक बार फिर से सत्ता में आने का मौका मिल गया है।
काबुल में गनी या उसके संकटग्रस्त प्रशासन की ओर से कोई टिप्पणी नहीं की गई है। शनिवार को एक रिकॉर्ड किए गए संदेश में, गनी ने राष्ट्र को बताया था कि वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों दिग्गजों के साथ उस स्थिति पर परामर्श कर रहे हैं।
अफगान उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे गनी और अन्य लोगों के साथ ही देश छोड़कर निकल चुके हैं, ने एक ट्वीट में तालिबान के सामने नहीं झुकने की कसम खाई, लेकिन उन्होंने संदेश में उनके देश छोड़ने की खबरों का जवाब नहीं दिया।
(आईएएनएस)
पणजी, 16 अगस्त | विपक्षी गोवा कांग्रेस ने सोमवार को मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत से राज्य के एकमात्र हवाई अड्डे - डाबोलिम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक आरटी-पीसीआर परीक्षण केंद्र स्थापित करने का आग्रह किया। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि इस तरह की सुविधा के अभाव में अंतरराष्ट्रीय एयरलाइंस को हवाईअड्डे से उड़ानें बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा रहा है। गोवा कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश चोडनकर ने सोमवार को मीडिया से कहा, "हम नहीं चाहते कि गोवा के लोग अपनी नौकरी या अपना पैसा खोएं और इसलिए हम गोवा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निदेशक और भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण से आरटी-पीसीआर परीक्षण सुविधा को अधिमानत: उपलब्ध कराने की प्रक्रिया को तुरंत पूरा करने की अपील करते हैं। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि मौजूदा गोवा सरकार के पास कीमतों को नियंत्रित करने और यात्रियों को उनकी सनक और शौक के लिए बंधक बनाने का विशेष एकाधिकार का उपयोग न हो। इस कदम से हजारों गोवावासियों और विदेश यात्रा करने वाले लोगों को राहत मिलेगी।"
चोडनकर ने कहा, "इस स्थिति के कारण यात्रियों को अपने पहले से बुक किए गए टिकटों को रद्द करने और मुंबई के माध्यम से नए सिरे से बुकिग करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जहां हवाई अड्डे पर आरटी-पीसीआर सुविधा उपलब्ध है। इससे वित्तीय नुकसान होता है क्योंकि एयरलाइंस द्वारा रिफंड नहीं किया जा रहा है। क्रेडिट देना और यहां तक कि अगर धनवापसी की जाती है, तो इस प्रक्रिया में एक बड़ी राशि खो जाती है। साथ ही उड़ान टिकट की खरीद - घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों उड़ानों के लिए, अंतिम समय में नागरिकों को भारी लागत आएगी क्योंकि कीमतें आसमान छू रही हैं।"(आईएएनएस)
बीजिंग, 16 अगस्त | 20 साल के अमेरिकी सैन्य कब्जे के बाद तालिबान बलों ने काबुल पर कब्जा कर लिया। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका किसी देश में उद्धारकर्ता के रूप में उतरा और गैर-जिम्मेदाराना रूप से चला गया। ऐसा तब भी हुआ जब 1975 में गृह युद्ध से देश को तबाह करने के बाद अमेरिका ने वियतनाम छोड़ दिया, और ऐसा तब भी हुआ जब 2003 में अमेरिका ने इराक पर आक्रमण किया और इसे एक अशासकीय स्थान में बदल दिया।
खैर, अफगानिस्तान से अमेरिका की जल्दबाजी और गैर-जिम्मेदाराना वापसी यह दर्शाती है कि अमेरिका अफगानिस्तान में शुरू हुए दो दशक लंबे युद्ध को हार चुका है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अफगानिस्तान में अमेरिका कई मायनों में विफल रहा है।
सबसे पहला, यह एक राजनीतिक विफलता है। इसकी शुरूआत गैर-जिम्मेदाराना निर्णय लेने से हुई। तालिबान द्वारा पनाह दिए गए अल-कायदा को बाहर निकालने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया, लेकिन अमेरिका ने देश के पुनर्निर्माण के अपने वादे को कभी पूरा नहीं किया। पहले तो इसकी कोई योजना नहीं थी, इसने रास्ते में ही अपनी योजनाएँ बदल दीं और जो रह गए उनके लिए बिना योजना के झुक गया।
दूसरा, यह मानवीय विफलता है। अफगानिस्तान युद्ध ने लाखों लोगों की जान ली और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने मानवीय जीवन को चकनाचूर कर दिया। युद्ध की लागत अभी भी स्पष्ट नहीं है।
ब्राउन यूनिवर्सिटी में कॉस्ट ऑफ वॉर प्रोजेक्ट के अनुसार, इस साल अप्रैल तक युद्ध ने अफगानिस्तान में लगभग 1,74,000 लोगों को मार डाला था (जिसमें 47,245 आम नागरिक,
66,000 से 69,000 अफगान सेना और पुलिस और 51,000 से अधिक तालिबान लड़ाके शामिल थे), यानी कि हर दिन 23 जिंदगियां इस धरती से मिट जाती थी।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 26 लाख अफगान शरणार्थी हैं, जिनमें से ज्यादातर पाकिस्तान और ईरान में हैं, और अन्य 40 लाख देश के भीतर आंतरिक रूप से विस्थापित हैं। इस युद्ध की हिंसा भी भय पैदा करती है। लाखों लोगों के व्यवसाय बंद हो गए और लोगों ने खरीदारी करना बंद कर दिया है और अब अफगान लोग नकदी निकालने के लिए बैंकों की ओर दौड़ रहे हैं। देश आर्थिक पतन के कगार पर खड़ा है।
तीसरा, यह एक रणनीतिक विफलता है। 1950 के बाद से युद्धों में सभी अमेरिकी विफलताएं रणनीतिक गलतियां हैं। दुखद और चौंकाने वाली बात यह है कि कोरियाई युद्ध, वियतनाम युद्ध से लेकर इराक पर आक्रमण और अफगान कब्जे तक, अमेरिका हर बार सीखने में विफल रहा है।
देखा जाए तो हथियारों का सहारा लेकर अमेरिका जितना हल करता है उससे कहीं ज्यादा समस्याएं पैदा करता है । दुनिया को इस बात की कोई कदर नहीं है कि अमेरिका अपना खून बहाकर उनकी समस्याओं को उलझा रहा है।
चौथा, यह एक नैतिक विफलता है। अमेरिका अपनी मदद करके किसी की मदद नहीं कर रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प की तुलना में जो बाइडेन अधिक अमेरिका प्रथम की विचारधारा बढ़ाने वाले राष्ट्रपति हैं, इस अर्थ में कि वे अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी के बारे में बहुत कुछ कहते हैं लेकिन एक ही समय में बहुत कम सहन करते हैं। जॉर्ज बुश ने युद्ध शुरू किया, बराक ओबामा ने शांति के बारे में सोचा, लेकिन वे अभी भी मानते थे कि अमेरिका अंत तक जिम्मेदार है।
डोनाल्ड ट्रंप पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्होंने अफगानिस्तान को कुचलने के बारे में जोर से बात की। लेकिन कम से कम ट्रम्प अमेरिका प्रथम की विचारधारा को ईमानदारी से बताते थे, लेकिन जो बाइडेन स्वार्थ और ईमानदार दोनों तरह से इसे प्राप्त करना चाहते हैं। उन्होंने अफगान लोगों को दर्द से कराहने के लिए छोड़ दिया है।(आईएएनएस)
बीजिंग, 16 अगस्त | 15 अगस्त को अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी अफगानिस्तान छोड़कर विदेश चले गए। उस दिन अफगान तालिबान ने सोशल मीडिया पर बयान जारी कर कहा कि सशस्त्र बलों ने उन्हें राजधानी काबुल में प्रवेश करने की अनुमति दी। हाल में ताबिलान ने अफगान राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया है।
अफगान की हालिया परिस्थिति के मद्देनजर विभिन्न पक्षों ने चिंता जताई है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने तालिबान और अन्य विभिन्न पक्षों से संयम रखने का आह्ववान किया।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद 16 अगस्त की सुबह हालिया परिस्थिति पर आपात बैठक बुलाएगा। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेस बैठक में हिस्सा लेंगे और रिपोर्ट भी देंगे।
साथ ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रवक्ता ने बयान जारी कर तालिबान और अन्य पक्षों से पूरी तरह संयम रखकर लोगों के जीवन की रक्षा करने और मानवीय पहलु पर ध्यान देने की अपील की। वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अफगान समस्या के शांतिपूर्ण समाधान को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा।
वहीं नाटो के महासचिव ने कहा कि नाटो काबुल हवाई अड्डे को संचालित करने में मदद दे रहा है, ताकि वहां से विदेशी नागरिकों को हटाने के मिशन का समन्वय किया जा सके।
यूरोपीय संघ के नेता ने कहा कि अफगान त्रासदी न केवल अमेरिका की हार है, बल्कि इससे लोगों को अफगान समस्या पर और अधिक सबक लेना चाहिए।
उधर अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने सोशल मीडिया पर वीडियो भाषण देकर कहा कि वे तालिबान के साथ अफगान समस्या के शांतिपूर्ण समाधान करने को तैयार हैं। करजई ने कहा कि चूंकि गनी और अन्य अधिकारियों ने अफगानिस्तान छोड़ दिया है। देश को डांवाडोल स्थिति में जाने से बचाने और आम लोगों की मुसीबतों को दूर करने के लिए वे जातीय सुलह कमेटी के अध्यक्ष अब्दुल्लाह आदि के साथ एक समन्वय कमेटी का गठन करेंगे और सत्ता स्थानांतरण संबंधी कार्य की जिम्मेदारी उठाएंगे।
उधर, अफगानिस्तान के प्रथम उप राष्ट्रपति अमरुल्लाह सलाह ने सोशल मीडिया पर कहा कि किसी भी स्थिति में वे तालिबान के समक्ष समर्पण नहीं करेंगे।
रूसी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने कहा कि रूसी विदेश मंत्रालय काबुल में अपने दूतावास के कर्मचारियों को नहीं हटाएगा। तालिबान रूसी दूतावास की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, साथ ही अन्य देशों के राजनयिक मिशनों की सुरक्षा की गारंटी भी देगा। रूसी राष्ट्रपति की अफगान समस्या के विशेष प्रतिनिधि ने कहा कि रूस अफगान अंतरिम सरकार से सहयोग करने को तैयार है।
अमेरिकी प्रतिनिधि सदन के सांसद ने कहा कि अफगानिस्तान की स्थिति पर अमेरिका सरकार को अनिवार्य कर्तव्य निभाना चाहिए। विश्व इससे प्रभावित होगा। वहीं ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने 15 अगस्त को मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाकर अफगान परिस्थिति पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों को मिलकर प्रयास करने चाहिए, ताकि अफगानिस्तान की नयी सरकार यह जान सके कि कोई नहीं चाहता कि अफगानिस्तान आतंकवादियों का अड्डा बने। वहीं पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा कि अफगान समस्या का राजनीतिक समाधान करने के लिए पाकिस्तान और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का रुख एक जैसा है।
मध्य एशिया के कई देशों, तुर्की, डेनमार्क, नॉर्वे आदि देशों ने भी अफगान सवाल को लेकर अपना रुख प्रकट किया है।(आईएएनएस)
बीजिंग, 16 अगस्त | वर्ष 2001 में अमेरिका ने आतंकवादी संगठन को खत्म करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान में प्रवेश किया। इसके बाद अफगानिस्तान की राजनीतिक स्थिति लंबे समय तक अस्थिर रही। जो बाइडेन के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद इस मुसीबत को छोड़ने के लिये अमेरिकी सेना जल्द से अफगानिस्तान से हट गयी, जिसने अफगान जनता के लिये एक बड़ा सुरक्षा जोखिम पैदा किया। हाल ही में अफगानिस्तान की स्थिति निरंतर रूप से बिगड़ रही है।
हालांकि 18 जुलाई को अफगान सरकार ने तालिबान के साथ कतर की राजधानी दोहा में शांति वार्ता की और दोनों ने उच्च स्तरीय शांति वार्ता करने और वार्ता की प्रक्रिया को तेज करने पर सहमति प्राप्त की, लेकिन वार्ता अफगान स्थिति को शिथिल करने में असफल रही। अफगान सरकारी सेना और तालिबान के बीच पश्चिम व दक्षिण अफगानिस्तान के तीन बड़े शहरों में भीषण लड़ाई हुई। 15 अगस्त तक तालिबान ने पूरे देश के अधिकांश शहरों का कब्जा कर लिया है।
गौरतलब है कि अफगान युद्ध का समय अमेरिका के इतिहास में सबसे लंबा है। इस युद्ध में न सिर्फ अमेरिका ने बहुत ज्यादा खर्च किया, बल्कि अफगानिस्तान की राजनीतिक स्थिति भी निरंतर रूप से अस्थिर बनी। अमेरिका के हस्तक्षेप से अफगानिस्तान की सुरक्षा स्थिति में स्पष्ट रूप से सुधार नहीं हुआ। हिंसक घटनाएं बार-बार सामने आयीं, जिसमें कई बेगुनाह अफगान नागरिक मारे गए।
अफगानिस्तान स्थित संयुक्त राष्ट्र सहायता दल द्वारा जारी वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में कुल 8,820 अफगान बेगुनाह हिंसक संघर्षों में मारे गये। केवल वर्ष 2021 की पहली छमाही में अफगान आम लोगों में मृतकों की संख्या बढ़कर 1,659 तक पहुंच गयी जबकि अन्य 3,254 लोग घायल हुए हैं। हताहतों की संख्या गत वर्ष की इसी अवधि से 47 प्रतिशत अधिक रही।
साथ ही संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ने भी यह कहा था कि अफगानिस्तान में 30 लाख बच्चों समेत 60 लाख लोगों को मानवीय सहायता की जरूरत है।(आईएएनएस)