राजपथ - जनपथ
कुछ हजार करोड़ का लोकतंत्र!
दक्षिण भारत के राज्य पुदुचेरी में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद अब दक्षिण भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया है। लेकिन वैसे तो तकरीबन पूरे भारत में कांग्रेस हाशिए पर आ गई है और गिने-चुने राज्य ही उसके कब्जे में हैं। आज देश में कांग्रेस का सबसे मजबूत राज्य छत्तीसगढ़ बच गया है जहां पर पार्टी विधायकों का बहुमत इतना बड़ा है कि उसे आसानी से तोडऩा, खरीदना, उससे इस्तीफे दिलवाकर सरकार गिरवाना नामुमकिन माना जा रहा है। फिर भी आज भारत की राजनीति में कई ऐसी चीजें हो रही हैं जो बीते कल तक नामुमकिन लगती थीं।
एक के बाद एक राज्य में कांग्रेसी या दूसरे गैरभाजपाई विधायकों के दलबदल या इस्तीफे से जो माहौल बना है उसके हिसाब से देश में विधायकों की कुल संख्या गिन लेना भी ठीक नहीं होगा। करीब ढाई दर्जन राज्यों की विधानसभाओं को देखें तो कुल 4036 विधायक हैं। इनमें से आधे विधायक अलग-अलग विधानसभाओं में हों तो सरकार बनना वैसे भी तय रहता है। इसलिए 2018 विधायकों को या तो जिताकर लाना है, या खरीदकर। यह आंकड़ा भी अंकगणित का है। सच तो यह है कि किसी भी विधानसभा में आधे विधायकों की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि कुछ न कुछ अलग पार्टियां रहती हैं या निर्दलीय विधायक रहते हैं।
अब चंडूखाने की गप्पों की बात करें तो एक विधायक के अधिक से अधिक दाम 35 करोड़ रूपए सुनाई पड़े हैं। यह भी सुनाई पड़ा है कि राजस्थान में कांग्रेस सरकार ने अपने आपको बचाने के लिए सचिन पायलट के साथ चले गए कांग्रेस विधायकों को खुद ही वापिस खरीदा था। जो भी हो राजनीतिक आत्माएं अब आसानी से बिकने के लिए बाजार में हैं।
2018 विधायकों में से किसी बड़ी पार्टी के पास खुद होकर भी तीन चौथाई तो विधायक खुद के छाप वाले रहते ही हैं। अब एक चौथाई में से कई को मंत्री बनाकर, और कुछ को अगर खरीदकर जुटाना हो, और 35 करोड़ का रेट हो, तो भी मामला कुछ हजार करोड़ रूपए का ही बनता है। इसलिए आंकड़ों के हिसाब से एक बड़ी पार्टी कुछ हजार करोड़ रूपए में देश की लगभग हर विधानसभा में अपनी सरकार बना सकती है।
संसद में लोगों को सवाल पूछने के लिए जिस तरह आत्मा बेचते देखा है, उसे देखते हुए कुछ हजार करोड़ रूपए में संसद में भी तस्वीर बदल सकती है। आगे-आगे देखें होता है क्या।
पेट्रोलियम के दाम की कड़वी घूंट धीरे-धीरे पीयें
डीजल-पेट्रोल का दाम बढऩे का असर अब बाकी चीजों पर भी दिखाई दे रहा है। ट्रांसपोर्ट का धंधा इससे सीधा प्रभावित है। डीजल के दाम में जिस तरह रोजाना थोड़ी-थोड़ी बढ़ोतरी हो रही है, ट्रांसपोर्ट व्यवसायी उस हिसाब से भाड़ा नहीं बदल पाते। इसलिये इनके राष्ट्रीय संगठन ने हर तीन माह में एक बाद दाम की समीक्षा और वृद्धि करने का प्रस्ताव दिया है। पेट्रोलियम कम्पनियों ने यूपीए सरकार के समय से ही ऐसा करना बंद कर दिया है। पहले हर पखवाड़े रेट की समीक्षा की जाने लगी फिर इसे हर दिन तक लाया गया। सरकार को इसका लाभ यह हुआ कि 25-50 पैसे की घटत बढ़त को लोगों ने नजरअंदाज करना शुरू कर दिया । पेट्रोल, डीजल के दाम भी धीरे-धीरे तीन माह से बढ़ रहे हैं लेकिन लोगों के कान तब खड़े हुए जब यह 85-90 रुपये पहुंचने लगे। लोगों ने हिसाब लगाना शुरू किया कि वास्तविक कीमत कितनी है और केन्द्र तथा राज्य सरकार इस पर टैक्स कितना वसूल रही हैं। ट्रांसपोर्ट वेलफेयर एसोसियेशन ने 26 फरवरी को पूरे देश में एक दिन का आंदोलन करने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ के बस ओनर्स भी 40 से 50 फीसदी भाड़े में बढ़ोतरी की मांग कर रहे हैं। सीमेन्ट का भाड़ा 200 रुपये प्रति टन बढ़ाने की मांग उठी है। सरकारी ठेका लेने वाले बिल्डर्स भी कच्चे माल की लगातार कीमत के कारण परेशान हैं। सब्जियों, खासकर बाहर से आने वाले प्याज की कीमत फिर से बढऩे लगी है। मतलब यह है कि पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस खरीदते वक्त ही लोग महंगाई के तेवर को महसूस नहीं कर रहे हैं। वह भी तब जब लोगों की आमदनी इस बीच बढ़ी नहीं है। आने वाले दिनों में इसका असर और ज्यादा दिखाई दे तो आश्चर्य नहीं।
दंतेवाड़ा के कैदी की जांच रायपुर में?
अम्बेडकर अस्पताल में सीनियर डॉक्टर से दुर्व्यवहार व एक अन्य डॉक्टर को तमाचा जडऩे वाले जेल प्रहरी पर पुलिस ने कार्रवाई कर और डॉक्टरों की सुरक्षा बढ़ाकर किसी तरह मामला शांत किया है। पर कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। इस तरह की अप्रिय स्थितियां रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, कोरबा के मेडिकल कॉलेजों में अक्सर पैदा होती हैं। प्राय: सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र व कई बार जिला अस्पतालों से भी मरीज को सीधे मेडिकल कॉलेज अस्पतालों में रेफर कर दिया जाता है। जबकि उनक़े उपचार और जांच की व्यवस्था वहीं हो सकती है। कल जो घटना रायपुर में हुई उसमें कैदी को दंतेवाड़ा से लेकर जेल प्रहरी आया था। ऐसी कौन सी नौबत थी कि जिसके चलते 350 किलोमीटर का सफर करके कैदी को जांच के लिये रायपुर लाना पड़ा। इस बात की कोई सफाई नहीं ली जाती कि निचले स्तर के स्वास्थ्य केन्द्रों में ही इलाज व जांच क्यों नहीं हो जाती। कैदी को लेकर आने की तो जेल प्रबंधन की बाध्यता थी लेकिन सोचने की बात है कि यदि बस्तर के लोगों को एमआरआई के लिये रायपुर आना पड़ा, तो स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हम खड़े हैं।
नोटिस का कोई नतीजा निकलेगा?
सरगुजा आयुक्त ने संभाग के सभी आरईएस कार्यपालन यंत्रियों को एक सिरे से नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। वजह है निर्माण कार्यों के पूरे होने मे देरी। बीते तीन सालों में सरगुजा के आदिवासी विकास प्राधिकरण में 96 करोड़ रुपये से भी अधिक के 17 सौ से अधिक निर्माण कार्य मंजूर किये गये लेकिन इसमें से केवल 4 सौ पूरे हो पाये हैं। यानि 13 सौ बाकी है। इनसे पूछा गया है कि ऐसी नौबत क्यों आई। संभागायुक्त और जिला कलेक्टर लगभग हर सप्ताह समीक्षा बैठकें करते हैं। ऐसी चेतावनी हर बार दी जाती है। अधिकारी इसे रुटीन की फटकार मानकर खौफ नहीं खाते हैं। दबाव भी तब ज्यादा बनता है जब वित्तीय वर्ष समाप्त होने वाला हो। बहरहाल, सरगुजा में कद्दावर मंत्रियों के रहते हुए विकास प्राधिकरण के कार्यों का क्या हाल है इस नोटिस से पता चल रहा है।