कबड्डी नहीं खेल रहे..
रायपुर नगर निगम में भाजपा की जीत से ज्यादा निवर्तमान मेयर एजाज ढेबर की हार के चर्चे हैं। ढेबर पिछले चुनाव में प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट से जीतकर आए थे। ये अलग बात है कि वो विवादों से भी घिरे रहे। ढेबर पूर्व सीएम भूपेश बघेल, और प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज के करीबी माने जाते हैं। मगर चुनाव में जो कुछ हुआ, वह राजनीति से जुड़े लोगों को हैरान करने वाला है।
एजाज कांग्रेस के अल्पसंख्यक चेहरा माने जाते हैं। मगर इस चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के बीच उनकी ताकत भी सामने आई है। ढेबर को पहला झटका मतदान के दिन लगा, जब भगवती चरण शुक्ल वार्ड के मुस्लिम बाहुल्य बूथों में 55 फीसदी वोटिंग हुई। ढेबर ने मुस्लिम बूथों से बढ़त तो बनाई, लेकिन भाजपा प्रत्याशी अमर गिदवानी को भी अनपेक्षित अच्छे खासे वोट मिल गए। यही नहीं, ईसाई समाज के मतदाता भी ढेबर के खिलाफ भाजपा के पक्ष में नजर आए। ऐसा नहीं है कि ढेबर का चुनाव प्रबंधन में कोई कमी थी। भाजपा के कई प्रमुख नेताओं से ढेबर के करीबी संबंध हैं। भाजपा ने स्थानीय विधायक सुनील सोनी को मोर्चे पर तैनात किया था। वो रोज घूम फिर कर भगवतीचरण वार्ड में दस्तक दे जाते थे। सोनी के हस्तक्षेप के चलते यह हुआ कि चुनाव प्रचार में अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं किया गया। जहां शराब बंट रहे थे, वहां दूध के पैकेट भिजवाए गए, इसको लेकर मतदाताओं के बीच सकारात्मक संदेश भी गया। सिंधी वोटरों के लिए भाजपा के पाले में पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी के साथ-साथ सिंधी काउंसिल के नेताओं को जिम्मेदारी दी गई थी।
पार्टी के रणनीतिकारों को भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी का अंदेशा था। यही वजह है कि महामंत्री (संगठन) पवन साय ने चुनाव संचालन से जुड़े नेताओं को इशारों-इशारों में साफ तौर पर हिदायत दे रखी थी कि कबड्डी मैच नहीं होना चाहिए। चर्चा तो यह भी है कि भाजपा प्रत्याशी के मुकाबले कांग्रेस से जुड़े लोगों ने इस वार्ड में कई गुना ज्यादा खर्च किए हैं। बावजूद इसके ढेबर को बुरी हार का सामना करना पड़ा।
छोटी जीत के बड़े मायने
सरगुजा संभाग के कई म्युनिसिपलों में भाजपा की जीत की काफी चर्चा हो रही है। मसलन, रामानुजगंज में रमन अग्रवाल तीसरी बार नगर पालिका अध्यक्ष अध्यक्ष बने हैं। भाजपा के स्थानीय प्रमुख नेता रमन को टिकट देने के खिलाफ रहे हैं। लेकिन आखिरी क्षणों में पार्टी ने उनकी बेहतर साख को देखकर दांव लगाया। हाल यह रहा कि कई पदाधिकारी खुले तौर पर कांग्रेस, और निर्दलीय प्रत्याशी का समर्थन करते नजर आए, लेकिन रमन के विजय रथ को नहीं रोक पाए। अंबिकापुर में तो नवनिर्वाचित मेयर मंजूषा भगत के बाद किसी पार्षद के जीतने पर सबसे ज्यादा जश्न मनाया गया, तो वो थे राहुल त्रिपाठी ।
राहुल सरगुजा भाजपा के बड़े नेता दिवंगत रविशंकर त्रिपाठी के बेटे हैं। उनकी मां रजनी त्रिपाठी भी विधायक रही हैं। राहुल पहली बार चुनाव लड़े हैं, और जब चुनाव जीते, तो आसपास के वार्डों के रविशंकर त्रिपाठी के नजदीकी समर्थक जुट गए, और खुशियां मनाई। शहर में राहुल का विजय जुलूस निकला। वार्ड चुनाव के इस छोटी जीत के बड़े मायने हैं। उनका नाम अभी से सभापति के लिए लिया जा रहा है। ये अलग बात है कि कई सीनियर नेता पार्षद चुनकर आए हैं। देखना है आगे क्या होता है।
हर माह दो माह में नए नए ओएसडी
मंत्री और उनके सहायक ओएसडी की जुगलबंदी तभी टूटती है जब दोनों के हित टकराते हैं। या फिर ओएसडी, कभी सच्चाई का सामना करा दे। हाल में ऐसा ही कुछ एक मंत्री और ओएसडी के बीच हुआ। और मंत्री जी ने ओएसडी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। हालांकि मंत्री जी ने, इन तेरह महीनों में एक नहीं पांच-पांच ओएसडी बदले हैं। पांडे, गुप्ता, कन्नौजे मरकाम-1 के बाद मरकाम-2। कुछ काम न मिलने से निकलना बेहतर समझे तो कुछ बताए काम न करने से। पांचवें ने भी ऐसा ही किया था। और उस पर इन्होंने तो मंत्री जी को सच्चाई का सामना करा दिया था। मंत्री जी ने नियुक्ति के समय ही कहा था मेरे बताए काम, अपने बिहाफ में कराएं, मंत्री के नहीं। मगर ओएसडी ने स्वयं पर खतरा मोल लेना उचित नहीं समझा। और सारे काम मंत्री के बिहाफ पर करते, कराते रहे।
इसी दौरान बात नेतृत्व तक पहुंची तो मंत्री, ओएसडी दोनों तलब किए गए, जहां सच्चाई से सामना हुआ। वहां सफाई देने के बाद बाहर से निकलते ही ओएसडी आउट। यह ओएसडी और कोई नहीं उत्तर छत्तीसगढ़ के एक पूर्व सांसद के दामाद हैं। इस तरह से बात फैल रही है। तो अब कोई भी मंत्री जी के यहां ओएसडी नहीं बनना चाहता। वैसे, ऐसे ये अकेले मंत्री नहीं है दो तीन और हैं। उनके बंगले,दफ्तरों में माह दो माह में नए-नए ओएसडी दिखाई देते हैं।