साव का बढ़ा भाव
सीएम विष्णुदेव साय, और डिप्टी सीएम अरुण साव के बीच बेहतर तालमेल देखने को मिल रहा है। बालोद के एक कार्यक्रम में सीएम ने अरुण साव की तारीफों के पुल बांधे। उस वक्त मंच पर साव भी थे। कैबिनेट ब्रीफिंग हो, या फिर किसी और विषय पर सरकार के पक्ष रखने के लिए साव को ही अधिकृत किया गया है।
प्रदेश में नगरीय निकाय, और पंचायत के चुनाव होने हैं। नगरीय निकायों में अरुण साव की पहल पर सभी निकायों में प्रशासक बिठाकर राशि का आबंटन किया गया है, ताकि तेजी से काम हो सके। पार्टी को चुनाव में इसका फायदा मिल सके। प्रदेश के सभी निगमों में कांग्रेस का कब्जा रहा है, और कार्यकाल खत्म होने के बाद भाजपा नेताओं की सिफारिश पर तेजी से काम हो रहे हैं। अब चुनाव में इसका कितना फायदा होता है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा।
वित्त विभाग और निगम-मंडल
भाजपा प्रदेश प्रभारी के दौरे पर आते ही गलियारों में कैबिनेट फेरबदल और निगम मंडल आयोग में नियुक्तियों को लेकर हलचल है । कुछ नाम भी सामने लिए जाने लगे हैं। इस बार भी उनका दौरा निकाय चुनाव में जीत और संविधान हमारा स्वाभिमान अभियान पर प्रबोधन के साथ पूरा हुआ। वैसे यह भी सच्चाई है कि अब पार्टी नेताओं में ही निगम मंडल को लेकर उत्साह नहीं रह गया है। और ये लोग हाथ पर हाथ धरे बैठ गए हैं । यह भी कहते हैं कि उन्हीं चंद लोगों को ही नियुक्त किया जाएगा जो पहले भी रहे हैं।
इन सबके बीच एक खबर यह भी है कि वित्त विभाग के अफसर ही नहीं चाहते हैं कि निगम मंडलों में नियुक्तियां हो। उनका कहना है कि इन नियुक्तियों से स्थापना व्यय में एकाएक उछाल आता है। नए अध्यक्ष उपाध्यक्ष सदस्यों के वेतन भत्ते, मकान वाहन सुविधा का व्यय भार आता है। नान, खनिज निगम, हाउसिंग बोर्ड, लघु वनोपज भवन निर्माण कर्मकार मंडल जैसे कारोबारी निगम मंडलों के लिए यह सहनीय है, लेकिन विभागीय बजट पर निर्भर निगम मंडल दोहरी मार होते हैं । और यदि पिछली सरकार की तरह तीस से अधिक निगम मंडलों में नियुक्तियां की जाती हैं,तो खर्च बढ़ेगा।
वित्त अफसर बताते हैं कि तीन वर्ष में इन पर 250 करोड़ खर्च हुए थे। पिछले नेताओं के जलवे देख- सुनकर ही नियुक्तियों को लेकर संगठन सरकार पर दबाव भी उसी तरह का है। वहीं विभागीय मंत्री भी अपनी कमान ढीली नहीं करना चाहते। इन्हीं निगम मंडलों की ही वजह से अभी उनके लाव लश्कर चल रहे हैं। वे भी नियुक्तियों को मुल्तवी कराने में सफल रहे हैं। अब देखना है कि इस रस्साकशी में कब तक सफल बने रहते हैं। यह तो दिख रहा है कि निकाय चुनाव तक तो नियुक्तियां नहीं हो रहीं।
भाजपा वोटर का नोटा प्रेम
दिल्ली देश की राजधानी होने की वजह से वहां हो रहे विधानसभा चुनावों की खबरें मीडिया पर खूब तैर रही है। सोशल मीडिया पर भी आ रही है। ऐसा ही एक पोस्टर वहां के एक भाजपा विधायक ओ पी शर्मा से संबंधित फैला हुआ है। दिखाई यह देता है कि पोस्टर लगाने वाला खुद को तो भाजपा का कट्टर वोटर बता रहा है लेकिन विधायक से नाराज है। उसने शर्मा को वोट देने की जगह नोटा का विकल्प चुनने की बात कही है। इसे देखकर आप यह नहीं कह सकते कि भाजपा कार्यकर्ताओं, मतदाताओं में उनके खिलाफ सचमुच भारी नाराजगी होगी। हो सकता है कि पोस्टर चिपकाने वाला उसके विरोधी दल कांग्रेस या आम आदमी पार्टी का समर्थक हो। चुनाव प्रचार के दौरान इस तरह के कई पैंतरे आजमाए जाते हैं।
नौकरी नहीं नेटवर्क मार्केट मांगिये
आजकल हजारों युवा ग्रेजुएट, पीजी, बीएड और डीएड जैसे डिग्री कोर्स पूरे कर सरकारी शिक्षक बनने का सपना देख रहे हैं। लेकिन यह समस्या केवल शिक्षकों तक सीमित नहीं है; दूसरे विभागों में भी नौकरी के लिए युवाओं की लंबी कतारें हैं। हालात ऐसे हैं कि पीएचडी धारक भी क्लर्क या भृत्य की पोस्ट के लिए आवेदन करने को मजबूर हैं। दूसरी ओर सरकार की ओर से सलाह दी जा रही है कि युवा नौकरी मांगने की बजाय रोजगार देने वाले बनें।
नेताओं की बातों पर यकीन न भी हो, तो उन लोगों पर गौर करें जो सरकारी नौकरी छोड़ अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर करने के लिए व्यापार का रुख कर रहे हैं। रायगढ़ जिले के एक हिंदी व्याख्याता रघुराम पैकरा का मामला काफी चर्चा में है। वे लगातार स्कूल से गैरहाजिर रहते थे। कभी छुट्टी लेकर तो कभी बिना बताए। जब शिक्षा विभाग ने बर्खास्तगी का नोटिस जारी किया तो उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर बताया कि सरकारी नौकरी उनकी आर्थिक समस्याओं को हल नहीं कर रही। इसके चलते उन्होंने इस्तीफा देकर नेटवर्क मार्केटिंग के क्षेत्र में कदम रखा, जहां प्रोटीन पाउडर जैसे उत्पाद बेचकर मोटी कमाई कर रहे हैं।
बिलासपुर, जांजगीर और सरगुजा जिलों से भी ऐसे कई मामले सामने आए हैं। रायगढ़ के ही शशि बैरागी ने भी हाल ही में इस्तीफा दिया है।
बिलासपुर के संयुक्त संचालक ने सभी अधीनस्थ अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि स्कूल से गायब शिक्षकों पर निगरानी रखें। जांच में पाया गया है कि ये शिक्षक नेटवर्क मार्केटिंग और अन्य निवेश से जुड़े व्यवसायों के कारण स्कूलों से दूर रहते हैं। नवंबर महीने में ऐसे दो दर्जन से अधिक शिक्षकों को नोटिस जारी की गई थी।
यह मान लेना गलत होगा कि सरकारी नौकरी छोडऩे वाले हर व्यक्ति को व्यापार में सफलता मिल रही है। अधिकांश मामलों में ये शिक्षक अपने स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के माता-पिता को पहले अपने ग्राहक बनाते हैं। धीरे-धीरे, उनका धंधा इतना बढ़ जाता है कि वे अपने स्कूल का रास्ता भूल जाते हैं।