चुनाव और जाति की राजनीति
रायपुर दक्षिण में सामाजिक समीकरण को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस, और भाजपा के रणनीतिकार प्रयासरत हैं। इन सबके बीच एक दीवाली मिलन कार्यक्रम भी हो गया। यह कार्यक्रम ब्राह्मणों के लिए रखा गया था।
कार्यक्रम में सरकार के एक मंत्री भी पहुंचे थे। कार्यक्रम के लिए दिल खोलकर खर्च भी किया गया। इस आयोजन के बाद दूसरे समाज के लोग भी इस तरह उम्मीद पाले हुए हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो गैर ब्राह्मणों में नाराजगी फैलने का अंदाजा भी लगाया जा रहा है। इसको भांपते हुए दूसरे दल ने सभी मोहल्ले में दिवाली मिलन कार्यक्रम के आयोजन की तैयारी शुरू कर दी है। यह जाति विशेष के लिए न होकर सर्व समाज के लिए होगा। दीवाली मिलन से किसको फायदा होता है, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा।
सरकार और हैरानी!
लोकतंत्र में किसी सरकार के भीतर निर्वाचित और सत्तारूढ़ नेता, और पेशेवर अफसरों के बीच लगातार संपर्क और संवाद से ही काम हो पाते हैं। ऐसे में अगर किसी अफसर को महीनों अपने विभागीय मंत्री से मिलने न मिले, तो उसे क्या कहा जाए? यह सवाल प्रदेश की राजधानी से देश की राजधानी तक लोगों को कुछ हैरान कर रहा है!
पसंदीदा मुजरिम, और बेचैनी...
जब किसी ताकतवर या बड़े पर पुलिस हाथ डाले, तो ऊपर के बड़े-बड़े अफसरों के या तो हाथ-पांव ठंडे पड़ जाते हैं, या फिर उनका खून खौलने लगता है। ये दो अलग-अलग बातें इस तरह लागू होती हैं कि मुजरिमों से ऊपर के अफसरों के संबंध कैसे हैं। ऐसे में धर्म, जाति, गुरूभाई होना, या किसी एक प्रदेश या भाषा का होना बड़ा काम आता है। इनमें से किसी भी एक बात की वजह से बड़े-बड़े अफसर छोटे-छोटे अफसरों से खफा हो जाते हैं कि उनके तबके के, या उनके पसंदीदा मुजरिम को क्यों छुआ गया? अब सवाल यह उठता है कि अगर ऐसे बड़े मुजरिमों को किसी भी जुर्म के लिए पौराणिक कहानियों की जुबान में, अभयदान देना था, तो उसे पहले से बता देना था। कुछ तेज अफसर अपने पसंदीदा मुजरिमों के इलाकों के छोटे मातहत अफसरों को गब्बर की असली पसंद पहले से उजागर कर देते हैं, और फिर पुलिस महकमे के हर दर्जे में इतनी समझदारी तो रहती ही है कि जिन कंधों पर अधिक पीतल लगा हो, उन पर खड़े सिर और मुंह से निकले इशारों को तुरंत समझ लें। फिलहाल कुछ बड़े लोगों के घिरने से पुलिस के कुछ बड़े लोगों में बेचैनी भर गई है।
गांजा गांव में सस्ता !!
नशेड़ी और नशे की वस्तुओं की धरपकड़ को लेकर एसएसपी एक अभियान चलाए हुए है। कार्रवाई हो भी रही है। इसमें गांजा ही बड़ी मात्रा में पकड़ा रहा है। मगर दिक्कत इस बात की है कि हर थाने का रेट अलग अलग है। यानी प्रति किलो गांजे की कीमत शहर के थाने अलग लगा रहे और ग्रामीण के थाने अलग। हमने अक्टूबर में अलग अलग थाना पुलिस की जब्ती (बड़ी खेप) और आंकी गई कीमत की जांच की। यह जानकारी पुलिस ने ही दी है। जैसे 4 अक्टूबर को टिकरापारा पुलिस ने 14.362 किग्रा गांजा जब्त कर कीमत 2.80. लाख आंका। पांच दिन बाद 9 अक्टूबर को गुढिय़ारी पुलिस ने 12.383 किग्रा गांजे की कीमत 2.45 लाख बताई। यानी रेट कऱीब साढ़े उन्नीस हज़ार रूपिये किलो।
लेकिन गोबरा नवापारा पुलिस ने इनसे कहीं अधिक गांजा जब्त किया और औसत रेट कम लगाया। वहाँ 30 अक्टूबर को पुलिस ने 20 किलो गांजा जब्त किया और कीमत मात्र 60 हजार रुपए लगाया। ऐसे कैसे संभव है- क्वांटिटी अधिक और प्राइज कम।
हो भी सकता है शहर से बाहर जाते ही कीमत कम हो जाएगा। यह वैसे ही है जैसे चोरी होने पर पुलिस रिपोर्ट में कम कीमत लिखती है और चोरों से जब्ती या बरामद सामान की कीमत अधिक बताती है। पुलिस का बैलेंस शीट वही जानती है।
आदिवासी संस्कृति की झलक दीवारों पर
स्टील सिटी जमशेदपुर के सुंदरनगर पोस्टऑफिस के अंतर्गत आने वाले तालसा गांव में आदिवासी कला की अनूठी छटा देखने को मिलती है। संथाल क्षेत्र के इस गांव में घरों की दीवारों पर मनमोहक चित्रकला उकेरी गई है।
एक घर में तो रेलवे की बोगी का सुंदर चित्र उकेरा गया है, जबकि अन्य घरों में पेड़, फूल, पक्षी,और जानवरों के चित्र बखूबी सजाए गए हैं। गांव के प्रवेश द्वार पर स्पष्ट अक्षरों में गांव का परिचय और संविधान के अनुच्छेद 13(3) व 244(1) के तहत गांव के विशेषाधिकार का उल्लेख है। इस कलात्मक पहल को सोशल मीडिया पर झारखंड चुनाव कवर कर रहे रिपोर्टर्स ने सराहा है। इन भित्ति चित्रों को ‘सोहराई कला’ के नाम से जाना जाता है, जो आदिवासी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण
हिस्सा है।
शिक्षकों का ‘साइड बिजनेस’
कुछ शिक्षकों का ध्यान शिक्षा से हटकर अन्य कामों में अधिक लगने लगा है। शालाओं से गायब रहना, बच्चों से मजदूरी कराना और नशे में हंगामा करना, बच्चियों से शर्मनाक बर्ताव करना जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। अब इनमें एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है- नेटवर्क मार्केटिंग। कोरबा जिले में कुछ शिक्षक पढ़ाई के समय मोबाइल पर ग्राहकों की तलाश में रहते हैं और अपने प्रभाव का इस्तेमाल बच्चों के अभिभावकों पर सामान खरीदने के लिए दबाव डालते हैं। इस पर जिला शिक्षा अधिकारी ने सख्त कदम उठाते हुए चेतावनी दी है। हालांकि, चालाकी से शिक्षकों ने नेटवर्क मार्केटिंग खातों में अपनी जगह परिवार के सदस्यों का नाम जोड़ रखा है, जिससे सबूत जुटाना कठिन हो रहा है। प्रारंभिक शिक्षा बर्बाद करने में शायद कुछ शिक्षक कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते।