दयाशंकर मिश्र

मन के शीशमहल !
12-Sep-2020 12:28 PM
मन के शीशमहल !

कभी मत सोचिए कि दूसरे के दुख / संकट को अपना समझने में आपका अहित है, क्योंकि आज उसका दुख / संकट छोटा हो सकता है, लेकिन कल आपका संकट इतना बड़ा हो सकता है कि उसे सहने के लिए बहुत सारे साहस, साथ की जरूरत हो।

एक छोटी-सी कहानी। मन के स्वभाव, व्यवहार के बारे में मुझे खूब कहानियां सुनने को मिलीं। मां की सुनाई अधिकतर कहानियां मन में सुरक्षित हैं। हरिश्चंद्र, नल-दमयंती से लेकर राजा ढोलना तक। जीवन की आस्था और संघर्ष ही इनके किरदार हैं। जीवन संवाद में आपसे जो कहानियां कहता हूं, उनकी जड़ें गर्मियों की चांदनी, शीतल रातों में हैं। लौटते हैं आज की कहानी में!

एक राजा को अपनी छवि से बहुत प्यार था। वैसे तो सुंदरता को लेकर पागलपन साधारण मनोरोग है, लेकिन राजाओं में कुछ ज्यादा होता है। स्वयं पर मुग्धता, राजा होने का पहला प्रमाण है। लक्षण है। इस राजा को भी वैसा ही था। उसे खुद को देखना, अपनी तारीफ सुनना बहुत प्रिय था, इसलिए उसने एक महल बनवाया। इसके भीतर केवल चारों ओर कांच लगे थे। बड़े-बड़े आईने। अलग-अलग कोण पर लगाए गए थे। राजा को यहां आकर बहुत अच्छा लगता। इसके भीतर प्रवेश करने की अनुमति राजा के अतिरिक्त किसी को न थी। दूसरा कोई इन छवियों को देखकर करता भी क्या! हां, राजा के पास इस तरह का अवकाश होता था। उसे सुख मिलता था। अपने मन के शीशमहल में, स्वयं को देखने का। खुद पर इठलाने का!

राजा को अपने कुत्ते से भी बहुत प्रेम था। एक ही कुत्ता था उसके पास। जिसकी देखभाल में थोड़ी सी भी लापरवाही राजा को बर्दाश्त न थी। जानवर का एक बड़ा लाभ यह होता है कि आप तो उससे सब कुछ कह सकते हैं, लेकिन वह जो कहना चाहता है, आपसे पूरी तरह नहीं कह सकता। इसलिए उसकी नाराजगी में भी हमें प्रेम मालूम होता है।
एक दिन राजा अपने शीशमहल में गया तो गलती से अपने कुत्ते को भी ले गया। वह शीशमहल पहुंचा ही था कि उसे किसी बहुत जरूरी काम से लौटना पड़ा। तब तक कुत्ता शीशमहल के भीतर चला गया था। जल्दबाजी में राजा उसे अपने साथ ले जाना भूल गया! उधर शीशमहल में कुत्ते को चारों ओर अपनी ही आकृति दिखी। उसे लगा अवश्य ही राजा ने उससे नाराज होकर दूसरे कुछ कुत्ते भी अपने मनोरंजन के लिए रख लिए हैं। उसने तुरंत ही उन पर भौंकना, चिल्लाना, गुस्सा करना शुरू कर दिया। बात यहीं नहीं रुकी, कुछ ही घंटों में उसने आईनों में दिख रहे कुत्तों पर हमला शुरू कर दिया। रातभर यह सब चलता रहा। सुबह-सुबह जब राजा को उसकी याद आई तो वह शीशमहल की ओर दौड़ा।

भीतर जाकर देखा तो उसका प्रिय कुत्ता अपनी प्रतिध्वनि, आईनों से लड़ता हुआ संसार से विदा हो गया था। गुस्से में राजा ने सारे आईने तुड़वा दिए। लेकिन आईने तुड़वाने से क्या होता है। असली आईने तो मन में बने हैं। असली दुविधा तो मन की है।

यह कथा केवल राजा के कुत्ते के संकट की नहीं है। असल में हम सबकी यही कहानी है। यह कहानी हमारी जीवनशैली, सोच-विचार के खंडहर हो जाने की कहानी है। हम भूल रहे हैं कि जीवन केवल पेड़ नहीं है। जीवन गहरी छाया भी है। पेड़, जितना अपने लिए है, उतना ही दूसरे के लिए! हमारे सुख-दुख आपस में मिले हुए हैं। इनको अलग करते ही संकट बढ़ता है! जबकि इसे समझते ही सारे संकट आसानी से छोटे होते जाते हैं। सुलझते जाते हैं।

कभी मत सोचिए कि दूसरे के दुख / संकट को अपना समझने में आपका अहित है, क्योंकि आज उसका दुख / संकट छोटा हो सकता है, लेकिन कल आपका संकट इतना बड़ा हो सकता है कि उसे सहने के लिए बहुत सारे साहस, साथ की जरूरत हो। इसलिए अपने-अपने शीशमहल से बाहर निकलकर हम सबको एक-दूसरे का साथ अधिक आत्मीयता और प्रेम से निभाने की जरूरत है। कोरोना का संकट उतना छोटा भी नहीं है, जितना हम उसको मान बैठे हैं!

-दयाशंकर मिश्र

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