दयाशंकर मिश्र

पुरुषों को रोना सीखना होगा !
09-Sep-2020 11:56 AM
पुरुषों को रोना सीखना होगा !

आंसू मन के आसमां पर आनंद के बादल हैं। उनको केवल दुख से मत जोडि़ए। कोमलता, करुणा, सहज स्वभाव से समझिए। जिस मन में कोमलता नहीं, वहां सुख के बीज नहीं उगते। जहां बीज नहीं, वहां आनंद के पौधे नहीं लगेंगे!


कोमलता, जीवन का पर्यायवाची है! कोमलता है, तो जीवन है। फूल का खिलना/बच्चे का संसार में आना/ओस की बूंद का पत्तों पर ठहरना/ आंसुओं का मन के पहाड़ तोडक़र गालों पर छलकना, सब कोमलता के निशान हैं। पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि पुरुष अवश्य ही पहले रोते रहे होंगे। इसीलिए कोमलता मनुष्यता के लंबे सफर के बावजूद कायम है। हां, यह कम होती जा रही है, क्योंकि पुरुष अब रोते नहीं। वह मन के सहज उपचार, सुख से दूर होते जा रहे हैं।

आंसुओं का अर्थ केवल दुख नहीं है। करुणा, प्रेम, आनंद भी है। आंसू इनके भी प्रतिनिधि हैं। जो आंसू को कमजोरी समझ लेते हैं, वह जीवन की कोमलता से दूर होते जाते हैं। हम आए दिन घर-परिवार में सुनते हैं, ‘लड़कियों की तरह रोना बंद करो’, ‘तुम बहादुर लडक़े हो, लडक़े कभी रोते नहीं।’ कितनी अजीब बात है, हम नन्हें बच्चों के मन को करुणा और कोमलता से दूर करते जा रहे हैं।

आंसू मन के आसमां पर आनंद के बादल हैं। उनको केवल दुख से मत जोडि़ए। कोमलता, करुणा, सहज स्वभाव से समझिए। जिस मन में कोमलता नहीं, वहां सुख के बीज नहीं उगते। जहां बीज नहीं, वहां आनंद के पौधे नहीं लगेंगे!

एक छोटी-सी घटना आपसे कहता हूं। बात थोड़ी पुरानी है। भोपाल के सभागार में महात्मा का प्रवचन चल रहा था। बड़ी संख्या में लोग उनको सुन रहे थे। उनकी शिक्षा, कहने का ढंग ऐसा अनूठा था कि लोग रोने लगे। बड़ी संख्या में लोग भावुक हो गए। कार्यक्रम के अंत में मेजबान के साथ कुछ लोग उनसे मिलने पहुंचे, तो एक नौजवान ने कहा, प्रवचन के समय अनेक लोग फूट-फूटकर रो रहे थे। यह आपकी वाणी का असर है या सुनने वालों का कमजोर मन।

महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘रोनेवालों का तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन ऐसा लगता है, आप कठोर मन के हैं। आंसू केवल उनकी आंखों में नहीं होते, जिनका मन मरुस्थल हो जाता है। रेगिस्तान हो जाता है! जो रोते हैं, उनके भीतर दूसरों के मुकाबले कहीं अधिक प्यार, करुणा, आनंद का गहरा भाव होता है।

आज अनेक वर्षों के बाद मुझे उनकी यह बात इसलिए याद आई, क्योंकि किसी पाठक ने अपने आंसुओं को कमजोरी से जोड़ लिया। आंसू मन की कोमलता, करुणा के प्रतीक हैं। पुरुष अगर स्त्रियों की तरह रोने लग जाएं, तो धरती न जाने कितने युद्धों से बच जाएगी। प्रेम से भर जाएगी। संसार के सारे युद्ध पुरुषों के ही रचे हुए हैं। पुरुष समाज (जानबूझकर समाज लिखा) के कठोरता की ओर निरंतर बढ़ते जाने के कारण ही हिंसा इतनी बढ़ी है।

‘जीवन संवाद’ जीवन के प्रति प्रार्थना है। जीवन में बढ़ते तनाव, संकट को केवल प्रेम से ही हल किया जा सकता है। प्रेम अगर फल है, तो कोमलता वह धरती है, जिस पर प्रेम के उगने की संभावना है। आंसू, धरती और बीज के बीच सबसे जरूरी कड़ी है, जिससे गुजरकर प्रेम और कोमलता एक-दूसरे को उपलब्ध हो पाते हैं!

आइए, मिलकर कोशिश करते हैं कि हमारे समीप जो भी पुरुष इतने कठोर हो चले हैं कि आंसू उनकी आंखों में नहीं उतरते। उन्हें रोना सिखाना जरूरी है। उनकी आंखों में करुणा, उदारता का उतरना जरूरी है। आंसू हमारे चित्त की उदारता का आईना हैं। इनको कमजोरी से जोडक़र देखना मनुष्यता के विरुद्ध अपने को खड़ा करना है। (hindi.news18.com)

-दयाशंकर मिश्र

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