दयाशंकर मिश्र

भीतर की सुगंध !
08-Sep-2020 11:51 AM
भीतर की सुगंध !

हमने मन को बहुत अधिक कमजोर नाजुक, जरा-सी धूप में कुम्हलाने वाला बना लिया है। हमें समझने की जरूरत है कि हर चीज के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं।

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहि! कबीर की यह सीख जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी हमारी जिद है, भीतर को अनदेखा करने की। मृग का भटकना तो फिर भी समझ में आता है, क्योंकि हम मनुष्य तो स्वयं ही यह मानते हैं कि हम जीवधारियों में सबसे बेहतर हैं। यह बात और है कि सारे फैसले हम स्वयं ही कर लेते हैं। क्या कभी हमने यह समझने की कोशिश की है कि मृग तो अपनी कस्तूरी के लिए बाहर भटकता, दौड़ता है, लेकिन उसकी यह बात पूरे जगत को बताने वाले हम उसकी स्थिति जानने के बाद भी उसके ही जैसा कर रहे हैं। यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे बच्चे से हम कह रहे हैं कि तुम देखकर चलो और खुद आंखों में पट्टी बांधकर घर से निकलते हैं!

हमारे चारों तरफ अदृश्य अकेलापन है। हम भीड़ में हैं, लेकिन अकेले पड़ते जा रहे हैं। अकेले पड़ते जाने से भीतर बेचैनी बढ़ती जाती है। गुस्सा बढ़ता जाता है। टेलीविजन पर इन दिनों जो आप गुस्सा देख रहे हैं, वह गुस्सा असल में हमारे भीतर की कुंठा का है। किसी भी कीमत पर सबकुछ हासिल कर लेने के लिए तैयार होने के बाद भी कुछ हासिल न होने का है। हम बड़े घरों में शांति, सुकून, आनंद की खोज में जुटते गए। पुराना सबकुछ बेकार था, नए में आनंद है। नया ही सबसे अच्छा है। हमारा नए के प्रति आग्रह इतना तीव्र होता गया कि पुराने की महक पीछे छूटती गई। प्रेम, विनम्रता, दूसरों को साथ लेकर चलने जैसी बातें हमें पुरानी लगने लगीं, क्योंकि हम हर कीमत पर जीतना चाहते थे। जीतने में कोई बुराई नहीं, लेकिन हर कीमत का अर्थ क्या है? बहुत से लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि प्रेम और जंग में सबकुछ जायज है। मुझे लगता है यह बिना जाने-समझे केवल शब्दों को दोहराते जाना है। दोहराव है। प्रेम और जंग में सबकुछ कभी जायज नहीं हो सकता। किसी के लिए भी सबकुछ जायज नहीं हो सकता। इसीलिए तो जंग के भी नियम बनाए जाते हैं। उनका पालन करने वालों का नाम दुनिया लेती है, जो इनको नहीं मानते, उनकी आलोचना होती है।

आपको याद होगा एक जमाने में ऑस्ट्रेलियाई टीम ने एक ऐसी संस्कृति विकसित की थी, जिसमें जीत ही सबकुछ थी। आगे चलकर डेविड वॉर्नर और स्टीव स्मिथ जैसे खिलाडिय़ों पर ऑस्ट्रेलिया को प्रतिबंध केवल इसलिए लगाना पड़ा ताकि समाज में नैतिक मूल्यों की साख बनी रहे। यूएस ओपन में जोकोविच जैसे शांत समझे जाने वाले खिलाड़ी ने भी अनजाने में ही जब लाइन रेफरी को चोट पहुंचा दी, तो उनकी लोकप्रियता के बावजूद उन्हें टूर्नामेंट से बाहर कर दिया गया।

भारत में हम नैतिक नियमों का गुणगान तो बहुत करते हैं, लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचेंगे, तो पाएंगे कि इस मामले में दुनिया हमसे अच्छा प्रदर्शन कर रही है। अमेरिका का नागरिक समाज, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड का प्रदर्शन, जोकोविच का इतने बड़े टूर्नामेंट से बाहर किया जाना, इसके सहज प्रमाण हैं। हम बच्चों को सिखाते हैं कि आंखों में शर्म होनी चाहिए। मन में अपनी गलती का एहसास गहरा होना चाहिए, लेकिन यह दोनों खूबसूरत बातें उम्र बढऩे के साथ भूलने लगते हैं।

बाहर जो इतना तनाव दिख रहा है। घुटन, आत्महत्या दिख रही है। वह भीतर की सुगंध न होने के कारण ही तो है। एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे। संभव है, मेरी बात आप तक अधिक सरलता से पहुंच सके।

एक दिन एक युवा निराश होकर आत्महत्या के विचार से नदी किनारे पहुंचा। वहीं एक साधु धूनी रमाए बैठा था। समय रहते उसकी नजर पड़ गई और उसने नौजवान को रोक लिया। नौजवान उसकी बातों से बिल्कुल प्रभावित नहीं हुआ और कहा कि उसे अपने जीवन का कोई उद्देश्य नजर नहीं आता। साधु ने कहा, ‘दो दिन इंतजार करो। तीसरे दिन अगर मैं न समझा पाया, तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा’। दो दिन बीतते-बीतते साधु ने अपनी योजना तैयार कर ली। तीसरे दिन सुबह-सुबह उसके दो शिष्य एक मरीज को लेकर आए और साधु से कहा कि इसकी एक किडनी खराब है और इसके लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है, जो अपनी किडनी दान दे सके। इसका जीवन बच जाएगा। इसके कोई निकट संबंधी इस बात के लिए तैयार नहीं।

साधु ने उस युवक की ओर इशारा करके कहा, ‘इसकी किडनी ले लीजिए’। उन लोगों ने बताया कि इसके बदले वह पर्याप्त रकम देने को भी राजी हैं। उसके बाद भी वह युवक तैयार न हुआ। उसने कहा, ‘मेरी किडनी की कीमत आप कैसे लगा सकते हैं’। दो दिन पहले जो मरने को राजी था, आज वह अपने अंगों की कीमत पर बहस कर रहा है। साधु ने कहा, ‘जब तुम्हारी किडनी अनमोल है, तो शरीर के बाकी अंगों का भी कुछ हिसाब तय करो। परमात्मा ने तुम्हें कितना अनमोल बनाया है, जरा यह भी तो सोचो’!

नौजवान साधु के कदमों में अपना सिर रखकर रोने लगा। साधु ने उसे उठाते हुए कहा, ‘जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के लिए ईश्वर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। एक जैसी बारिश में भीगने पर सबको अलग-अलग अनुभूति होती है, तो इसमें दोष बरसात का नहीं। हमने मन को बहुत अधिक कमजोर नाजुक, जरा-सी धूप में कुम्हलाने वाला बना लिया है। हमें समझने की जरूरत है कि हर चीज के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं। हमें छोटे-छोटे संकटों में जीवन को दांव पर लगाने से बचना चाहिए। फूलों की तरह निर्दोष होकर खिलने की कोशिश करनी चाहिए। खिलते वह हैं, सुगंध संसार को मिलती है। फूल कांटों से नहीं घबराते, उनका उपयोग करते हैं! जीवन भी कुछ इसी तरह होना चाहिए।
-दयाशंकर मिश्र 

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