दयाशंकर मिश्र

दूसरे की नजर से खुद को देखना!
07-Sep-2020 11:38 AM
दूसरे की नजर से खुद को देखना!

नेता की पत्नी ने कहा, ‘अब चलो भी! तुम्हारी प्रसन्नता का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। तुम भूल गए हो कि तुम मर गए’। नेता ने कहा, ‘अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आती है, तो मैं बहुत पहले मर जाता। कौन इतने चकल्लस में पड़ता!’

आज संवाद की शुरुआत एक छोटे-से मजेदार किस्से से। एक राजनेता की मृत्यु हो गई। तीन वर्ष पहले उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। जैसे ही मरकर वह दूसरे लोक को पहुंचे, पत्नी ने द्वार पर ही उनका स्वागत किया। उन्हें भीतर चलने को कहा, लेकिन राजनेता राजी न हुए। उन्होंने कहा, ‘पहले जरा देख तो लूं, कितने लोग विदा करने आए हैं’। पत्नी ने कहा, ‘अरे! अब इस बात का क्या मतलब। शरीर तो मिट्टी था पीछे छूट गया। अब हम देह से मुक्त हैं’। नेता ने कहा, ‘यह तो मैं भी जान गया हूं, फिर भी नए लोक में जाने से पहले चलो देख लें एक बार कौन-कौन आए और कितनी भीड़ जुटी है’।

दोनों अदृश्य थे। उनको कोई देख नहीं सकता था। दोनों अर्थी के आगे-आगे चलने लगे। कितनी भीड़ इक_ा हो गई थी। फूल ही फूल। तोपों की सलामी। अमरता का जयघोष। चारों ओर जिंदाबाद के नारे। नेता की पत्नी ने कहा, ‘अब चलो भी! तुम्हारी प्रसन्नता का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। तुम भूल गए हो कि तुम मर गए’। नेता ने कहा, ‘अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आती है, तो मैं बहुत पहले मर जाता। कौन इतने चकल्लस में पड़ता’। नेताजी ने मरने के बाद ही सही, लेकिन सुंदर बात कही, मरने पर भीड़ आए, इसके लिए ही तो हम जीते हैं!

कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर यह मान, प्रतिष्ठा और सम्मान दूसरों की आंखों में आकर उमड़ता है। जिसके लिए मेहनत करनी पड़े, वह कभी स्वाभाविक नहीं होता। असल में वह रचा हुआ पाखंड है, लेकिन हम सब स्वाभाविक से रूप खुद को दूसरों के अनुकूल रचने में व्यस्त हैं! नेताओं का तो फिर भी काम चल जाता है। उनका जीवन दूसरे प्रकार का है, लेकिन हम सामान्यजन पूरे जीवन दूसरों के लिए दौड़ते-भागते रहते हैं। बस, दर्शक बनकर रह जाते हैं। कोई कह देता है कि बुद्धिमान हो, तो मान लेते हैं। लोग आकर कह दें कि तुम सफल हुए तो सफल मान लेते हैं। कुछ लोग द्वार पर आकर कह दें कि तुम्हारे जैसा सुंदर और क्रांतिकारी कोई दूसरा नहीं दिखता, तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं! सबकुछ दूसरे की आंखों से होता है। दुनिया जैसी हमें देखना चाहती है, हम वैसे ही होते जाते हैं। इससे हम दुनिया के अनुकूल होते जाते हैं, लेकिन स्वयं से दूर!

इसीलिए आपने देखा होगा कि जब हम दुनिया की नजर में सफल हो रहे होते हैं, तो ऐसे लोगों से घिर जाते हैं, जो हमारी महानता का ढोल रात-दिन पीटते रहते हैं। हम अपने आसपास एक घेरा बना लेते हैं खुशामद करने वालों का। उनकी नजरों में खुद को देवता बनाकर बैठा देते हैं। जिस दिन सफलता की परत उतरनी शुरू होती है, हम अकेले ही पड़ते जाते हैं।

अगर खुद को जानना हो, तो लोगों की आंखों में छवि का मोह छोडऩा पड़ेगा। दूसरों की ओर देखना बंद करना होगा। दूसरे के चश्मे से स्वयं को कभी नहीं समझा जा सकता। मन अपने प्रकाश से आलोकित होना चाहिए। चंद्रमा की तरह सबका काम दूसरे के उजाले से नहीं चल सकता!

हम अक्सर लोग क्या कहेंगे, लोकमत से ही संचालित होते हैं। दूसरों को प्रसन्न करने, उनकी नजर में छवि बनाए रखने के फेर में हम एक नकली जीवन जीने की ओर बढ़ते जाते हैं। अपने स्वभाव के विपरीत। अपनी सहजता से दूर। हम ऐसी दुनिया, रास्ते बनाते जाते हैं, जिसमें दूसरों की कही बातें ही हम अपने बारे में सत्य मानते जाते हैं। जब तक हम अपने सत्य से परिचित नहीं होते। दुनिया तो बहुत दूर की कौड़ी है, हमें अपने ही मन का आनंद उपलब्ध नहीं होगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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