श्रवण गर्ग
देश इस समय एक नए किस्म की व्यवस्था की स्थापना के प्रयोग से गुजर रहा है! व्यवस्था यह है कि नागरिकों को शासन के निर्णयों, उसके कामों और उसके द्वारा दी जाने वाली सजाओं पर किसी भी तरह के सवाल नहीं उठाना है, कोई भी हस्तक्षेप नहीं करना है। फिर एक राष्ट्र के रूप में शासन किसी भी अन्य देश की हुकूमत के द्वारा उसके अपने नागरिकों के अधिकारों पर किए वाले प्रहारों, और उन्हें दी जाने वाली सज़ाओं को लेकर भी कोई विरोध या हस्तक्षेप नहीं व्यक्त करेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अब यही नई परिभाषा बनने वाली है !
हमारे पड़ोसी देश म्यांमार (बर्मा) में इन दिनों उथल-पुथल मची हुई है। वहाँ लोकतंत्र की बहाली को लेकर सैन्य हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ आंदोलनकारियों ने सडक़ों को पाट रखा है। उन पर गोलियाँ चलाईं जा रही है। हजारों लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है और डेढ़ सौ मारे जा चुके हैं। नोबेल शांति पुरस्कार विजेता तथा भारत की अभिन्न मित्र आंग सान सू की भी किसी अज्ञात स्थान पर कैद हैं। एक फरवरी को वहाँ हुई तख्ता पलट की कार्रवाई के बाद सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लोकतंत्र को समाप्त कर दिया था। कहने की जरूरत नहीं कि बर्मा भारत के अति-संवेदनशील उत्तर-पूर्व इलाके में हमारी सीमा से लगा हुआ देश है। दोनों देशों के बीच उत्तर में चीन से लगाकर दक्षिण में बांग्लादेश तक कोई पंद्रह सौ किलोमीटर लंबी सीमा है। पर खबर इतनी भर ही नहीं है।
म्यांमार की घटना पर भारत की ओर से एक संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इतना भर कहा गया कि-‘कानून के राज और प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखा जाना चाहिए।’ यह भी कहा गया कि ‘भारत म्यांमार की स्थिति पर नज़दीकी से नजर रखे हुए है।’ बर्मा में लोकतंत्र की समाप्ति और सैन्य तानाशाही पर कुछ भी विपरीत टिप्पणी करना शायद राजनयिक/कूटनीतिक कारणों से उचित नहीं समझा गया। दोनों देशों के बीच सैंकड़ों साल पुराने संबंध हैं। कोई साढ़े पाँच करोड़ की आबादी वाले पड़ोसी देश में भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या करीब दस लाख बताई जाती है। ज्यादा भी हो सकती है। कहा जाता है कि सत्ता पलट के बाद इनमें से कोई तीन लाख ने म्यांमार छोड़ दिया।
म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली को लेकर चले पिछले आंदोलन को हमारी सरकार का समर्थन और उसमें भारतीय नागरिकों की भागीदारी रही है।म्यांमार के अलावा पड़ोस में दो और जगह-हांगकांग और थाईलैंड-में भी लोकतंत्र की माँग को लेकर लंबे अरसे से आंदोलन चल रहे हैं। हांगकांग में चीनी सैनिक निहत्थे आंदोलनकारियों पर तरह-तरह के अत्याचार कर रहे हैं। दोनों ही जगहों पर बड़ी संख्या में भारतीय मूल के नागरिक रहते हैं। पर खबर यह भी नहीं है।
खबर यह है कि क्या दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र की सरकार और उसके नागरिक अपने ही पड़ौसी मुल्कों में लोकतंत्र पर होने वाले हमलों और वहाँ के नागरिकों की अहिंसक लड़ाई और उनके उत्पीडऩ के प्रति पूरी तरह से खामोशी साध सकते हैं? ऐसा पहले तो नहीं था! सोचा जा सकता है कि अगर बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा जवाहर लाल नेहरू की हुकूमत के दौरान वर्ष 1959 में तिब्बत से भागकर भारत में सम्मानपूर्वक शरण लेने के बजाय हाल के दिनों में प्रवेश करना चाहते होते तो चीन के साथ हमारे तनावपूर्ण संबंधों और सरकार द्वारा उसकी नाराजगी की परवाह के चलते क्या उनके लिए ऐसा करना सम्भव हो पाता? पिछले साल पाँच मई को लद्दाख में हुए चीनी हस्तक्षेप और फिर 15 जून को गलवान घाटी की झड़प के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि दलाई लामा के जन्मदिन छह जुलाई पर प्रधानमंत्री की ओर से उन्हें कोई बधाई संदेश भी नहीं भेजा गया।
जाहिर है कि हम अन्य मुल्कों में लोकतंत्र पर होने वाले प्रहारों, बढ़ते अधिनायकवाद और विपक्ष की आवाज़ को दबाने वाली घटनाओं पर इरादतन चुप रहना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि जब इसी तरह की घटनाएँ हमारे यहाँ हों तो हमें भी किसी बाहरी सत्ता या नागरिक का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होगा। किसी के द्वारा ऐसा किया गया तो उसे हमारे आंतरिक मामलों में अनधिकृत हस्तक्षेप माना जाएगा। इतना ही नहीं, इस बाहरी हस्तक्षेप में किसी भी भारतीय नागरिक की अहिंसक भागीदारी को भी देशद्रोह और राष्ट्र के खिलाफ युद्ध करार दिया जाएगा। ऐसा हो भी रहा है।
एक पॉप सिंगर और एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जलवायु कार्यकर्ता के किसान आंदोलन को शाब्दिक समर्थन भर से इतने बड़े और मजबूत राष्ट्र की प्रजातांत्रिक बुनियादें हिल गईं ! यह प्रक्रिया अभी जारी है और जारी रहेगी भी। ऐसा इसलिए कि अदालतें भी इस पर कब तक लगाम लगा पाएँगीं? अत: मानकर यही चलना चाहिए कि जो कुछ भी घटित हो रहा है उसे नागरिकों का भी पूरा समर्थन प्राप्त है और सत्ता प्रतिष्ठान की हरेक कार्रवाई में उनकी भी बराबरी की भागीदारी है। यानी देश में ही बहुत सारे नागरिक अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हैं या कर दिए गए हैं।
यह एक नई तरह का वैश्वीकरण (globalization) है कि हमें विदेशी पूँजी निवेश तो इफऱात में चाहिए, आयातित तकनीकी चाहिए, अत्याधुनिक हथियार, जीवन-रक्षक दवाएँ, डीजल-पेट्रोल आदि सब कुछ चाहिए पर किसी भी आशय का बाहरी वैचारिक निवेश अमान्य है। ऐसी किसी भी परिस्थिति में पलक झपकते ही हमारी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सम्पूर्ण धरती ही परिवार है) की घोषणाएँ एक संकीर्ण राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाएँगीं। एक राष्ट्र तब विश्व से भी विराट बन जाएगा !
इसके बाद सब कुछ एक शृंखला की तरह काम करने लगता है। एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्र में होने वाले नागरिक उत्पीडऩ के प्रति मौन रहता है तो फिर उसकी प्रतिध्वनि देश में आंतरिक स्तरों पर भी सुनाई पडऩे लगती है। एक राज्य सरकार दूसरे राज्य की पीड़ाओं में अपनी भागीदारी सीमित कर देती है। ऐसा ही तब नागरिक भी करने लगते हैं। एक प्रदेश में होने वाले नागरिक अत्याचारों के प्रति दूसरे राज्य के नागरिकों के मानवीय सरोकार गुम होने लगते हैं। ऐसा फिर एक राज्य में ही उसके अलग-अलग शहरों के बीच भी होने लगता है। और अंत में इसका प्रकटीकरण एक ही शहर या गाँव के नागरिकों के बीच आपसी संबंधों में देखने को मिलता है। एक नागरिक दूसरे के दु:ख में अपनी भागीदारी को सीमित या स्थगित कर देता है। राष्ट्रों की तरह व्यक्ति भी पर पीड़ा के प्रति एक तमाशबीन बन जाता है। और यही क्षण ऐसे शासकों के लिए गर्व करने का होता है जो अपने ही नागरिकों, शहरों और राज्यों को आपस में बाँटकर अपनी हुकूमतों को स्थायी और मजबूत करना चाहते हैं।
हम चाहें तो उस दुखद क्षण के आगमन की डरते-डरते इसलिए प्रतीक्षा कर सकते हैं कि हमें न सिर्फ म्यांमार, हांगकांग, थाईलैंड अथवा दुनिया के ऐसे ही किसी अन्य स्थान पर चल रही लोकतंत्र की लड़ाई के बारे में जानने में कोई रुचि नहीं है, हममें अपने ही देश में लगभग चार महीनों से चल रहे किसानों के संघर्ष को लेकर भी कोई बेचैनी नहीं है। हम खुश हो सकते हैं कि हमारे शासक हमारी कमजोरियों को बहुत अच्छे से जान गए हैं।