श्रवण गर्ग
हुकूमतों को अगर गिलहरियों की हलचल से भी ख़तरा महसूस होने लगे तो समझ लिया जाना जाना चाहिए कि हालात कुछ ज़्यादा ही गम्भीर हैं और नागरिकों को अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो जाना चाहिए। ‘जलवायु परिवर्तन’ (climate change) के क्षेत्र से जुड़ी इक्कीस साल की युवा कार्यकर्ता दिशा रवि को तेरह फऱवरी से पहले तक कोई नहीं जानता होगा या फिर उनके मूल राज्य कर्नाटक में भी गिने-चुने लोग ही जानते होंगे। ’किसान आंदोलन’ से जुड़ी कोई ‘टूलकिट’ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जलवायु नेत्री ग्रेटा थुंबर्ग के साथ साझा करने और उसे सम्पादित करने के आरोप में दिशा को दिल्ली पुलिस के साइबर प्रकोष्ठ ने बंगलुरू से हिरासत में ले लिया था। दिशा के दो और युवा साथीनिकिता जैकब और इंजीनियर शान्तनु मुलुक भी प्रकरण में आरोपित हैं।
इस विश्लेषण को दिशा अथवा उनके साथियों तक इसलिए सीमित नहीं रखा जाना चाहिए कि हो सकता है मौजूदा प्रकरण में देश-विदेश के और भी नाम जुड़ते जाएँ और नई गिरफ्तारियाँ भी हों। इस तरह के प्रकरणों में चर्चा अक्सर नए घटनाक्रम और व्यक्तियों पर सिमट जाती है और जो लोग सत्ता-विरोध अथवा अन्य कारणों से पहले से जेलों में डाल गए हैं उनके चेहरे नागरिक स्मृतियों से गुम होने लगते हैं। हमें इस समय इस बात का ठीक से अनुमान भी नहीं होगा कि कितने नागरिक अथवा ‘कार्यकर्ता’ किन-किन आरोपों के तहत कहाँ-कहाँ बंद हैं और उनकी मौजूदा शारीरिक-मानसिक दशा कैसी है। अत: हम यहाँ चर्चा दिशा को संदर्भ बनाकर एक व्यापक विषय पर केंद्रित करना चाहते हैं!
क्या नागरिक स्तर पर ऐसी किसी आपसी बातचीत या अफवाह से इनकार किया जा सकता है कि अलग-अलग कारणों के चलते व्यवस्था या सरकार के प्रति नाराजगी रखने वाले वर्गों और समुदायों का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। और यह भी कि ऐसे सभी लोग राष्ट्र-विरोधी अथवा देश-विरोधी गतिविधियों में संलग्न नहीं करार दिए जा सकते। सरकार को भी पता होगा ही कि मुखर विरोध व्यक्त करने का साहस दिखाने वाले लोगों के अलावा भी ऐसे नागरिकों की तादाद कहीं अधिक होगी जो सडक़ के दोनों तरफ भीड़ के बीच खड़े तो हैं पर वे न तो अपने हाथ ऊँचे करके अभिवादन कर रहे हैं और न ही मुस्कुरा रहे हैं।
अल्पसंख्यक मुसलमान, दलित, प्रवासी मजदूर, किसान, छोटे व्यापारी, आढ़तिये, ‘आंदोलनजीवी’, ‘बुद्धिजीवी’, बेरोजगार, आदि तो पहले से ही गिनती में थे। पूछा जा सकता है कि जिस ‘युवा मन’ की आँखों में ‘डिजिटल इंडिया’ के सपने काजल की तरह रोपे गए थे वे भी क्यों ‘नाराजियों’ की भीड़ में शामिल होने दिए रहे हैं ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया, जाधवपर यूनिवर्सिटी, शांति निकेतन, बीएचयू आदि-क्या ये सारे कैम्पस अब उन युवाओं को तैयार नहीं कर रहे हैं जिनकी कि देश को सम्पन्न बनाने के लिए जरूरत है ? अगर ऐसा ही है तो वे तमाम प्रतिभाशाली भारतीय कहाँ से निकले होंगे जो इस समय दुनिया भर के मुल्कों में उच्च पदों पर आसीन होकर नाम भी कमा रहे हैं और हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार भी बढ़ा रहे हैं? क्या अचानक ही कुछ हो गया है कि राष्ट्रभक्तों का उत्पादन करने वाले शैक्षणिक संयंत्र देशद्रोही उगलने लगे हैं?(ताजा संदर्भों में प्रधानमंत्री का यह कथन महत्वपूर्ण है कि दुनिया में जो आतंक और हिंसा फैला रहे हैं उनमें भी कई अत्यधिक कुशल, काफी प्रबुद्ध और उच्च-स्तरीय शिक्षा प्राप्त लोग हैं। दूसरी तरफ, ऐसे लोग हैं जो कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, प्रयोगशालाओं में जुटे रहते हैं।)
छह जनवरी को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में ट्रम्प-समर्थकों ने कैपिटल हिल पर जिस समय हिंसक हमला किया था उपराष्ट्रपति पेंस की उपस्थिति में चुनाव परिणामों की पुष्टि के लिए सीनेट की बैठक चल रही थी। हमला इतना हिंसक और आक्रोश भरा था कि पेंस सहित सभी सीनेटरों को जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर शरण लेनी पड़ी थी। भारतीय भक्तों के लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि अमेरिका के संसदीय इतिहास की इस सबसे शर्मनाक घटना के बाद कितने लोगों के खिलाफ देशद्रोह या राजद्रोह के मुक़दमे दायर किए गए हैं और हजारों हमलावरों में से कितने लोगों की अब तक गिरफ्तारियां हो चुकी हैं।
एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अगर नागरिकों के शांतिपूर्ण तरीके से विरोध व्यक्त करने के अधिकार छीन लिए जाएँगे तो फिर साम्यवादी/तानाशाही देशों और हमारे बीच फर्क की सारी सीमाएँ समाप्त हो जाएँगी। एक प्रजातंत्र में नागरिक आंदोलनों से निपटने की सरकारी ‘टूलकिट’ भी प्रजातांत्रिक ही होनी चाहिए। ट्विटर, फेसबुक आदि लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स पर इस समय जो नकेलें कसी जा रही हैं उन्हें भी नागरिक आजादी पर बढ़ते जा रहे प्रतिबंधों के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। यह मुद्दा अलग से चिंता का विषय हो सकता है कि आर्थिक विकास के आक्रामक प्रयासों के साथ-साथ प्रजातांत्रिक मूल्यों के ह्रास के जिस प्रयोग को अंजाम दिया जा रहा है वह अन्तरराष्ट्रीय जगत में हमारी इज्जत बढ़ा रहा है या नैतिक रूप से हमें कमजोर कर रहा है! निजीकरण केवल सार्वजनिक उपक्रमों का ही किया जा सकता है; सार्वजनिक प्रतिरोधों, संवेदनाओं और व्यथाओं का नहीं।
दिशा रवि पर आरोप है कि ‘टूलकिट’ को ग्रेटा थुंबर्ग के साथ साझा करने के पीछे मकसद किसान आंदोलन को विश्व स्तर पर खड़ा करके देश का माहौल बिगाडऩा था। सवाल यह है कि क्या दिशा या उनके कुछ साथियों की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन का सर्वव्यापी होना रुक जाएगा?
अगर सरकार ऐसा मानकर चल रही है तो उसे अपने सारे सलाहकारों को बदल देना चाहिए। हकीकत यह है कि दुनिया की कोई भी ताक़त अभी तक कोई ऐसा ‘टूलकिट’ नहीं बना पाई है जो निहत्थे नागरिकों के अहिंसक प्रतिकार को विश्वव्यापी होने से रोक सके। सर्वशक्तिमान अंग्रेज भी गांधी के खिलाफ ऐसा नहीं कर पाए थे। किसान आंदोलन की आवाज को अहिंसक तरीके से दुनिया के कानों तक पहुँचने का दिशा रवि का प्रयास अगर देश के खिलाफ युद्ध छेडऩे की श्रेणी में आता है तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए।