श्रवण गर्ग

क्या ऐसी ‘हिंसक अराजकता’ के साथ ही जीना पड़ेगा ?
24-Jul-2020 11:30 AM
क्या ऐसी ‘हिंसक अराजकता’ के साथ ही जीना पड़ेगा ?

-श्रवण गर्ग

देश की राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में बीस जुलाई को एक बेकसूर पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या पर पत्रकारिता के शीर्ष संस्थानों जैसे एडिटर्स गिल्ड, भारतीय प्रेस परिषद आदि की ओर से किसी औपचारिक भी प्रतिक्रिया का आना अभी बाकी है। ये संस्थान और बड़े सम्पादक अभी शायद यही तय कर रहे होंगे कि जो व्यक्ति मारा गया, वह वास्तव में भी कोई पत्रकार था या नहीं। यह भी कहा जा रहा है कि वह गुंडों के खिलाफ अपनी किसी प्रकाशित रिपोर्ट को लेकर तो नहीं मारा गया। उसकी हत्या तो अपनी भांजी के साथ छेड़छाड़ के खिलाफ की गई पुलिस रिपोर्ट की वजह हुई। ऐसे लोगों को विक्रम जोशी के अपनी छोटी-छोटी बेटियों की आँखों के सामने मारे जाने या उसके पत्रकार होने या न होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता ! ये जानते हैं कि दिल्ली और अन्य गाँव-शहरों में रोजाना ही लोगों को सडक़ों पर मारा जाता है और कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलता।मैं विक्रम जोशी को नहीं जानता। वे गाजियाबाद के किस स्थानीय अखबार में काम करते थे यह भी पता नहीं। मेरे लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त था कि वे एक बहादुर इंसान रहे होंगे। और यह भी कि अपनी भांजी के साथ छेड़छाड़ को लेकर पुलिस तक जाने की हिम्मत कोई पत्रकार ही ज़्यादा कर सकता है। आम आदमी पुलिस और गुंडों दोनों से ही कितना डरता है, सबको जानकारी है।

विक्रम जोशी की हत्या तो देश की राजधानी की नाक के नीचे हुई इसलिए थोड़ी चर्चा में भी आ गई, पर सुनील तिवारी के मामले में तो शायद इतना भी नहीं हुआ होगा। मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र के निवाड़ी जिले के गाँव पुतरी खेरा में पत्रकार तिवारी की दबंगों द्वारा हाल ही में हत्या कर दी गई। सुनील तिवारी ने भी पुलिस अधीक्षक को आवेदन कर उन दबंगों से अपनी सुरक्षा का आग्रह किया था, जिनके खिलाफ वे लिख रहे थे और और उन्हें धमकियाँ मिल रहीं थीं।कोई सुरक्षा नहीं मिली।तिवारी का वह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमें वे बता रहे हैं कि उन्हें और उनके परिवार को किस तरह का खतरा है।निश्चित ही अब पूरी कोशिश यही साबित करने की होगी कि तिवारी पत्रकार थे ही नहीं।आरोप यह भी है कि तिवारी जिस अखबार के लिए उसके ग्रामीण संवाददाता के रूप में काम करते थे उसने भी उन्हें अपना प्रतिनिधि मानने से इनकार कर दिया है।आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए।

क्या पत्रकार होना न होना भी पत्रकारिता जगत की वे सत्ताएँ ही तय करेंगी जो मीडिया को संचालित करती हैं, जैसा कि अभिनेता के रूप में पहचान स्थापित करने के लिए फिल्म उद्योग में जरूरी है? अगर आप सुशांत सिंह राजपूत हैं तो वे लोग जो बालीवुड की सत्ता चलाते हैं आपको कैसे अभिनेता मान सकते हैं ! ऐसा ही अब मीडिया में भी हो रहा है। पहले नहीं था। गाजियाबाद या निवाड़ी या और छोटी जगह पर होने वाली मौतें इसीलिए बिना किसी मुआवजे के दफ्न हो जातीं हैं कि मौजूदा व्यवस्था आतंक के नाम पर केवल विकास दुबे जैसे चेहरों को ही पहचानती है। वह भी उस स्थिति में अगर आतंक से प्रभावित होने वालों का सम्बन्ध व्यवस्था से ही हो।

गाजियाबाद के विक्रम जोशी या निवाड़ी के सुनील तिवारी को व्यक्तिगत तौर पर जानना जरूरी नहीं है। ज़्यादा जरूरी उन लोगों को जानना है जिनके जिम्मे उनके जैसे लाखों-करोड़ों के जीवन की सुरक्षा की जवाबदारी है और इनमें बिना चेहरे वाले कई छोटे-छोटे पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता शामिल हैं। वर्ष 2005 से अब तक कोई 68 आरटीआई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं और छह को आत्महत्या करनी पड़ी है। इस सिलसिले में ताजा मौत 38-वर्षीय पोयपिन्हुँ मजवा की है जो बीस मार्च को मेघालय में हुई है। व्यवस्था के साथ-साथ ही उस समाज को भी अब जानना जरूरी हो गया है जिसके भरोसे संख्या में अब बहुत ही कम बचे इस तरह के लोग अभी भी तराज़ू के भारी पलड़े की तरफ बिना देखे हुए अपने काम में ईमानदारी से में लगे हुए हैं और समाज हरेक ऐसी मौत को अपनी ही एक और साँस का उखड़ जाना नहीं मानता।

विक्रम जोशी की हत्या को लेकर मैंने एक ट्वीट किया था। उसकी प्रतिक्रिया में सैकड़ों लोग मेरे द्वारा व्यक्त चिंता के समर्थन में आ गए। पर कुछ उनसे अलग भी थे जिनके विचारों का उल्लेख यहाँ इसलिए जरूरी है कि देश किस तरह से चलना चाहिए ये ही लोग तय करते हैं। जैसे : (1)’ सही कह रहे हैं श्रीमानजी ! अधिकांश मीडिया जगत के पास साँसों के अलावा कुछ भी नहीं बचा। कलम तो पहले ही बिक चुकी है, अब साँसों का भी संकट खड़ा हो गया है ‘, (2)’ पिछली सरकार में तो पत्रकारों को जेड प्लस सुरक्षा थी। कोई भी पत्रकार की हत्या नहीं हुई, लिस्ट भेजूँ क्या ?’, (3) ‘विक्रम जोशी की हत्या उनके द्वारा पत्रकार की हैसियत से किसी रिपोर्ट के प्रकाशन के कारण नहीं हुई है।’ ऐसे और भी कई ट्वीट।

एक घोषित अपराधी विकास दुबे की पुलिस के हाथों ‘संदेहास्पद’ एंकाउंटर में हुई मौत की जाँच तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही है, पर गुंडों के हाथों सामान्य नागरिकों, पत्रकारों, आरटीआई कार्यकर्ताओं, आदि की आए दिन होने वाली हत्याएँ तो सभी तरह के संदेहों से परे हैं। फिर भी अपराधियों को सजा क्यों नहीं मिलती? क्या हमें इसी तरह की हिंसक अराजकता के बीच जीना पड़ेगा?

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