दयाशंकर मिश्र

हमारा परिवार !
27-Sep-2020 12:35 PM
हमारा परिवार !

कोरोना वायरस ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है, वहां से हमारा अकेले सकुशल लौटना मुश्किल होता जा रहा है। हां, यह आसान हो सकता है, अगर हम साथ मिलकर खड़े हो जाएं।

हमारे ज्यादातर फ़ैसले परिवार के नाम पर होते हैं, लेकिन असल में वह परिवार के लिए नहीं होते। परिवार का अर्थ हर दिन छोटा होता जा रहा है। हम समय के उस टुकड़े में हैं, जहां एक भाई दूसरे भाई को ‘उनके’ परिवार की मंगलकामना के संदेश भेजते हैं। परिवार के दायरे को बढ़ाए बिना प्रेम, स्नेह, आत्मीयता को उपलब्ध होना संभव नहीं! संयुक्त परिवार का संबंध एक साथ रहने से नहीं, होने से है। हम एक जगह रहकर भी एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं, अलग-अलग रहकर भी एक-दूसरे के बहुत करीब हो सकते हैं। कोरोना वायरस ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है, वहां से हमारा अकेले सकुशल लौटना मुश्किल होता जा रहा है। हां, यह आसान हो सकता है, अगर हम साथ मिलकर खड़े हो जाएं।

पश्चिम के समाज के मुकाबले हमारी सामाजिकता हमेशा से गहरी रही है। एक दशक पहले भारत में आए भीषण आर्थिक संकट में इसीलिए हम कहीं अधिक सुरक्षित रहे। हमारे पास बचत थी, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण था एक-दूसरे का साथ। एक दशक में परिवार हमारी कल्पना के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से बिखर गए। हमने संयुक्त परिवार को केवल साथ रहने से जोड़ दिया। हम भूल गए कि बदली हुई परिस्थितियों में अब एक ही शहर में रह पाना परिवार के सभी सदस्यों के लिए संभव नहीं। एक ही शहर में रहते भी साथ रहना संभव नहीं। लेकिन अलग-अलग रहकर भी साथ निभाना मुश्किल नहीं।

हमारी अधिकांश मुश्किलें मानसिक होती हैं। जब तक हम मन से किसी चीज के लिए तैयार नहीं होते, उसका होना कठिनतम होता जाता है। हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि संकट मुश्किल है, लेकिन हमारे साथ होने से उसकी शक्ति आधी हो जाती है।

मैं पिछले पंद्रह दिन में ‘जीवन संवाद’ को मिले एक अनुभव का जिक्र करना चाहता हूं। किस्सा है मध्यप्रदेश के इंदौर से विवेक वासवानी का। वहां पांच भाइयों के भरे-पूरे परिवार में एक भाई को कोरोना के कारण घाटा उठाना पड़ा। इतना अधिक कि उसे अपना सारा काम समेटना पड़ा। उसके बाद दूसरे शहर जाकर उसने अपनी यात्रा आरंभ करने का फैसला किया। उसे दूसरे शहर जाना ही इसलिए पड़ा, क्योंकि उसके परिवार ने उसकी किसी भी तरह की मदद से इंकार कर दिया। क्योंकि सभी का मानना है कि वह एक नहीं, पांच परिवार हैं। मदद तो दूर, उल्टे वह मुश्किल के समय भाई के साथ हिसााब-किताब करने से भी पीछे नहीं रहे, जबकि परिवार के सबसे छोटे सदस्य विवेक ने हमेशा दूसरों के लिए रास्ता बनाने में मदद की है!

विवेक के मन में ऐसे विचार आ रहे थे कि जब उन्होंने किसी का नुकसान नहीं किया तो उनके साथ यह क्यों हो रहा है। उस समय मैंने केवल उनसे इतना ही कहा था कि स्वयं को थोड़ा समय दीजिए। जल्दबाजी मत कीजिए, दुनिया के बारे में अपनी राय बनाने में! मुझे यह लिखते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है कि दूसरे शहर में विवेक के दोस्तों ने बाहें फैलाकर उनका स्वागत किया, क्योंकि उनका मानना है कि वह सब एक ही परिवार के हैं। परिवार की यह वही परिभाषा है, जिसका हमने आज के संवाद में जिक्र किया। विवेक की कहानी अपने ऊपर विश्वास, प्रेम और मनुष्यता की कहानी है। जिंदगी एक दरवाजा बंद करती है, अनेक खिड़कियां खोल देती है। हां, हमें खिड़कियों से नीचे उतरने का हुनर मालूम होना चाहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र

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