दयाशंकर मिश्र

दूसरे की जगह खड़े होना!
21-Sep-2020 9:49 PM
दूसरे की जगह खड़े होना!

हमारी विचार प्रक्रिया के हिसाब से केवल हम ही निर्दोष हैं। सारी दुनिया हमें सता रही है। केवल हम ही सबसे भले हैं। अपने प्रति यह अतिरिक्त उदारता, भावुकता ही हमें दूसरों के प्रति कठोरता प्रदान करती है।

हम आजीविका के लिए जरूरी साक्षरता पर इतना अधिक जोर देते गए कि धीरे-धीरे हमारे भीतर शिक्षा के मूल्य, नैतिकता के बोध पीछे छूटते चले गए। जीवन के प्रति समझ कमजोर होती गई। एक-दूसरे को हम चुनौती मानने में इतने अधिक व्यस्त हो गए कि सहज प्रेम की डोर उलझने लगी। जिन मूल्यों के सहारे हम मजबूती से कठिनतम समय में भी टिके रहते थे, अब उनके सहारे एक दिन कटना भी मुश्किल हो जाता है! हमेशा जीवन को अपने ही दृष्टिकोण से समझने के प्रयास में रहते हैं। अपने नजरिए को ही अपनी नजर बना लेते हैं, जबकि जीवन एकतरफा नहीं। हम जीवन नदी के तट पर भी समन्वय को नहीं आने देते। नाव में साथ सफर की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है! दूसरे की जगह खड़े होकर देखने की कोशिश कीजिए, जीवन के उत्तर स्वयं मिलने लगेंगे!

महात्मा बुद्ध से जुड़ा संवाद आपसे साझा करता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो पाएगी। बुद्ध सुबह प्रार्थना करते, तो रोज वह क्षमा मांगते, संसार से। एक दिन आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप तो किसी को कष्ट देते नहीं, फिर किस बात की क्षमा! आप तो किसी को चोट भी नहीं पहुंचाते। फिर किस बात की माफी मांगते हैं’। बुद्ध ने बड़ी सुंदर बात कही। वह कहते हैं, ‘मुझे अपने अज्ञान के दिनों की याद है। कोई मुझे चोट नहीं भी पहुंचाता था, तो भी पहुंच जाती थी। आज जब मैं इस बात से परिचित हूं कि हर तरफ अज्ञान के समूह हैं। इन समूहों को मेरे बिना पहुंचाए भी अनेक बार मेरी बातों से चोट पहुंच रही होगी। फिर मैंने पहुंचाई या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको तो तकलीफ पहुंच रही होगी। मैं उसी तकलीफ की क्षमा चाहता हूं’!

आनंद ने कहा, ‘चोट उन्हें भले पहुंच रही हो, लेकिन पहुंचाने वाले तो आप नहीं हैं’! बुद्ध ने फिर बात दोहराई, ‘निमित्त तो मैं ही हूं! अगर मैं न रहूं, तो मुझसे चोट नहीं पहुंचेगी। मेरा होना ही काफी है। इसलिए मैं क्षमा मांगता रहूंगा। यह क्षमा किसी किए गए अपराध के लिए नहीं, बल्कि हो गए अपराध के लिए है। और हो गए अपराध में मेरा कोई योगदान न हो, उसके लिए भी है’!

महात्मा बुद्ध के उलट हमारी विचार प्रक्रिया के हिसााब से केवल हम ही निर्दोष हैं। सारी दुनिया हमें सता रही है। केवल हम ही सबसे भले हैं। अपने प्रति यह अतिरिक्त उदारता, भावुकता ही हमें दूसरों के प्रति कठोरता प्रदान करती है। जीवन के प्रति अपनी दृष्टि को बदले बिना हमारा बदलना संभव नहीं। केवल कपड़े बदल लेने से हम नहीं बदल जाते। हां, नए और सुंदर कपड़ों से संभव है दुनिया को हम कुछ और नजर आने लगें, लेकिन जिस तरह हमारे माता-पिता हमें पहचानने में गलती नहीं करेंगे, ठीक उसी तरह हमारा मन कपड़ों से नहीं बदलता। हां, शरीर की भाषा बदल सकती है। संभव है दूसरों का हमारे प्रति व्यवहार बदल जाए, लेकिन इन सबसे हम खुद को बहुत अधिक नहीं संभाल सकते।

असली बात तो वही है जो भीतर है। अपने भीतर को सहेजना सबसे जरूरी है। हमारे जीवन में सबसे अधिक संकट इससे ही आते हैं कि हम खुद को हमेशा, दुखी, पीडि़त और संघर्षशील बताते रहते हैं। बताते हुए मानने लगते हैं, जबकि अपने अतिरिक्त सबको दोषी, अपराधी, अन्यायपूर्ण साबित करने में जुटे रहते हैं। इसे बंद करना होगा। हम दूसरों को समझने की जितनी अधिक कोशिश करेंगे, हमारे भीतर करुणा और कोमलता उतनी ही बढ़ती जाएगी। वहां से जो सुंदर, सुलझी और सुगंधित शांति जीवन में प्रवेश करेगी, वह उन सभी संकटों को संभालने में सक्षम होगी जिनके कारण अभी हमको अनावश्यक संघर्ष करना होता है। इस अनावश्यक मानसिक संघर्ष से जीवन की आस्था और ऊर्जा का बहुत नुकसान होता है! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र

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