रमेश बैस सात बार के सांसद रहे, और नौ बार उन्होंने रायपुर संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था। उसके पहले वे मंदिर हसौद से भाजपा के विधायक थे, और उसके भी पहले उनकी राजनीति की शुरूआत राजधानी रायपुर के ब्राम्हणपारा से पार्षद बनकर हुई थी। विधायक रहते हुए वे लोकसभा के उम्मीदवार बने थे, और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की लहर में वे पहला संसदीय चुनाव हार गए थे। इसके बाद वे जीते, लेकिन एक चुनाव विद्याचरण शुक्ल से भी हारे। उसके बाद वे लगातार रायपुर के सांसद रहे, भाजपा के भीतर वे लालकृष्ण अडवानी और सुषमा स्वराज के साथ रहे, एनडीए-1 में वे अटल मंत्रिमंडल में वे सुषमा के सूचना प्रसारण मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे, बाद में एक और विभाग देखा, लेकिन वे कैबिनेट मंत्री नहीं बने। रमेश बैस के लिए मोदी सरकार का पहला कार्यकाल एक सदमे का रहा जब देश के सबसे वरिष्ठ भाजपा सांसदों में से एक होने के बावजूद उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। और अभी ताजा लोकसभा चुनाव में चूंकि भाजपा ने प्रदेश के हर भाजपा सांसद की टिकट काट दी थी, रमेश बैस की भी टिकट कट गई, लेकिन इससे भी उनकी इज्जत रह गई। लोगों का अंदाज भाजपा के इस अघोषित पैमाने के सामने आने के पहले से यह था कि रमेश बैस को इस बार शायद भाजपा टिकट न दे क्योंकि मोशा (मोदी-शाह) ने उन्हें मंत्रिमंडल के लायक नहीं समझा था, और उनकी उम्र भी 75 बरस के करीब पहुंचने को थी। लेकिन जब मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह के सांसद बेटे की टिकट भी कट गई, हर सांसद की टिकट कट गई, तो रमेश बैस की इज्जत रह गई। टिकट तो गई, लेकिन अकेले नहीं कटी, एक पैमाने के तहत कटी।
रमेश बैस का सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक मिजाज बड़ा ही बदलता रहा। वे रायपुर म्युनिसिपल के एक पार्षद के रूप में बहुत सक्रिय रहे, और मंदिर हसौद से विधायक के रूप में भी। राजधानी रायपुर से लगी हुई उनकी सीट थी, और रमेश बैस को हर शाम सरकारी काम के घंटों के वक्त रायपुर के कलेक्ट्रेट में देखा जाता था। वहां के कर्मचारी संघ के चलाए हुए चाय-नाश्ते के छोटे से रेस्त्रां और बाहर के पानठेले पर रमेश बैस का डेरा रहता था, लोग अपने कागज लेकर उनके पास वहीं पहुंचते थे, वे अधिकतर कागजों पर लिखकर उन्हें रवाना करते थे, और जरूरत पडऩे पर वे लोगों के साथ एक-एक सरकारी दफ्तर में जाकर उनका काम करवाते थे। रमेश बैस के अलावा एक भी और विधायक कलेक्ट्रेट में इस तरह रोजाना का डेरा डालकर लोगों के काम करवाने वाले नहीं हुए थे।
रमेश बैस से उन्हीं दिनों का मेरा परिचय रहा, और उनकी उम्र मुझसे खासी अधिक होने के बाद भी उसी वक्त से रमेश कहकर बातचीत जो शुरू हुई, तो वह अब तक उसी तरह जारी है, जब वे सांसद बनते रहते थे, तब भी, और जब वे केन्द्रीय मंत्री थे, तब भी। रायपुर से लेकर भोपाल तक, और दिल्ली तक, रमेश बैस के भीतर का छत्तीसगढ़ी कभी इधर-उधर टहलने भी नहीं गया, और हमेशा ही साथ रहा। लेकिन जनता के साथ उनका गहरा संपर्क विधायक होने के बाद से कम होता चले गया, और लंबे संसदीय जीवन में वे संसदीय सीट की अधिक परवाह करते कभी दिखे नहीं। जो रायपुर में उनके घर पहुंच जाए, उसके लिए चि_ी लिख देना, या फोन कर देना तो वे करते रहे, लेकिन इससे परे वे लोगों के लिए बहुत अधिक करने के शायद गैरजरूरी मानने लगे थे।
वैसे एक आदर्श स्थिति भी यही होना चाहिए कि लोग अपने नाली-पानी जैसे कामों के लिए पार्षद के पास जाएं, उससे बड़े कामों के लिए मेयर के पास जाएं, राज्य सरकार से जुड़े कामों के लिए विधायक के पास जाएं जो कि काम न होने पर विधानसभा में सवाल उठा भी सकते हैं। और सांसद का तो कोई अधिक काम पहले रहता नहीं था, जब तक सांसद निधि शुरू नहीं हुई, और उसके बाद फिर लोग सांसद के पास किसी सार्वजनिक काम के लिए आर्थिक मदद के लिए भी जाने लगे। जब छत्तीसगढ़ में एक भाजपा सांसद प्रदीप गांधी सवाल पूछने के लिए रिश्वत मांगते कैमरे में कैद हुए, और उनकी सदस्यता गई, जब एक और भाजपा सांसद फंसते-फंसते इसलिए रह गए कि दिल्ली में स्टिंग ऑपरेटरों की गाड़ी पंक्चर हो गई, और वे अपने सांसद-निवास पर रास्ता देखते-देखते उनकी ट्रेन का समय हो गया, और वे स्टेशन रवाना हो गए, और स्टिंग का शिकार होने से बच गए, तब रमेश बैस ऐसे किसी विवाद से बचकर बहुत लंबा संसदीय जीवन गुजार रहे थे।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमेश बैस उन दो लोगों में से एक रहे जिनके खिलाफ दोनों शुक्ल बंधु कोई न कोई चुनाव लड़े। रायपुर संसदीय सीट से एक बार विद्याचरण शुक्ल रमेश बैस के खिलाफ लड़े, और एक बार श्यामाचरण शुक्ल। ये दोनों ही भाई महासमुंद संसदीय सीट, और राजिम विधानसभा से पवन दीवान के खिलाफ भी लड़े थे।
रमेश बैस ने रायपुर संसदीय सीट से जब-जब चुनाव लड़ा, अधिकतर मौकों पर उनके खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव शुरू होने के पहले से ही हारे हुए मान लिए जाते थे। और रमेश बैस नामांकन के साथ ही जीते हुए समझ लिए जाते थे। यही वजह थी कि दिल्ली में भाजपा की सरकार बनाने के नाम पर, या कांग्रेस-यूपीए सरकारें हटाने के नाम पर जो लहर चलती थी, जो नारे लगते थे, उनके तहत दिल्ली में फलां जरूरी है, रमेश बैस मजबूरी है, जैसा नारा लगता था।
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राजनीति में रमेश बैस के अधिक ताकतवर होने का एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक मौका आया था। जब छत्तीसगढ़ राज्य बन गया, और पहली जोगी सरकार के कार्यकाल में राज्य के पहले विधानसभा चुनाव की तैयारी चल रही थी, तब भाजपा को इस राज्य में एक मजबूत प्रदेश अध्यक्ष तय करना था। उस वक्त केन्द्र में अटलजी की सरकार में रमेश बैस, और पार्टी के भीतर की वरिष्ठता में उनसे खासे जूनियर डॉ. रमन सिंह दोनों ही राज्यमंत्री थे, दोनों ही बिना किसी काम बंगलों में खाली रहते थे। ऐसी चर्चा रही कि भाजपा संगठन ने दोनों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष बनकर कौन जाना चाहेंगे? इस पर रमेश बैस ने तकरीबन भडक़ते हुए कहा था कि वे क्यों जाएंगे? उन्हें दिल्ली में मंत्री पद सुहा रहा था, और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री अजीत जोगी का अपनी पार्टी को दुबारा सत्ता में लाना तय सा लग रहा था। फिर रमेश बैस के अजीत जोगी से व्यक्तिगत संबंध भी थे, और विधायक रहते हुए भी वे भोपाल से इंदौर कलेक्टर रहे जोगी से मिलते रहते थे। जोगी के खिलाफ भाजपा को लीड करने की उनकी कोई सोच नहीं थी, और उन्होंने पार्टी को छत्तीसगढ़ लौटने के लिए साफ मना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने रमन सिंह को प्रदेश संगठन सम्हालने, और चुनाव की तैयारी करने के लिए कहा, और अपने सरल-विनम्र मिजाज के मुताबिक डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ आ गए, चुनाव की तैयारी की, और प्रदेश की जनता ने उन्हें जिताया, या जोगी को हराया, यह एक अलग बहस है, लेकिन डॉ. रमन विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जो मुख्यमंत्री बने, तो 15 बरस तक बने ही रहे। उन्होंने देश के मुख्यमंत्रियों के बीच, और भाजपा के भीतर लगातार सीएम रहने का एक रिकॉर्ड कायम किया जिसे आगे भी लोगों के लिए तोडऩा कुछ मुश्किल रहेगा। रमेश बैस मुख्यमंत्री बनने की राह पर दिल्ली से रायपुर की बस जो चूके तो चूक ही गए। भाजपा की सरकार बनने के वक्त उन्होंने कोशिश बहुत की कि मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी वरिष्ठता पर गौर किया जाए, लेकिन उस वक्त के एक-दो दूसरे दावेदारों के साथ-साथ रमेश बैस का नाम भी दिल्ली में मंजूर नहीं हुआ, और भाजपा संगठन ने डॉ. रमन को एक बेहतर पसंद माना।
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रमेश बैस खालिस छत्तिसगढिय़ा हैं, ओबीसी के हैं, किसान परिवार के हैं, और रायपुर के आसपास बहुत सी विधानसभा सीटों पर उनकी रिश्तेदारी भी है। लेकिन इतनी लंबी राजनीति में उनका सारा फोकस परिवार के एक-दो लोगों को बढ़ाने में रहा, और सात बार का सांसद अपने सात विधायक भी खड़े नहीं कर पाया। छत्तीसगढ़ी राजनीति में भी रमेश बैस महज ओबीसी की राजनीति करते रहे, और ओबीसी के भीतर महज कुर्मी समाज की राजनीति करते रहे, और कुर्मी समाज के भीतर महज अपने एक भाई और एक-दो भतीजों से परे किसी को आगे बढ़ाने का कोई श्रेय रमेश बैस के नाम नहीं लिखा है। यह बड़ी अजीब बात रही कि जो लगातार छत्तीसगढ़ की पहले अघोषित, और बाद में घोषित राजधानी से राजनीति करते रहा, उसके नाम अपने मातहत एक को भी नेता बनाने का योगदान दर्ज नहीं है। जब रमन सरकार में रमेश बैस के कोटे से किसी निगम-मंडल में मनोनयन की बारी आई थी, तो उस वक्त भी रमेश बैस ने अपने भाई श्याम बैस को ही बीज निगम का अध्यक्ष बनवाया था। इसके पहले के कार्यकाल में डॉ. रमन सिंह से रमेश बैस ने श्याम बैस को ही आरडीए का अध्यक्ष बनवाया था। भाजपा की राजनीति में लोगों को बढ़ाने के मामले में रमेश बैस का योगदान परिवार के तीन लोगों से परे किसी ने न सुना, न किसी को याद है।
रमेश बैस सांसद बनने के बाद यह बात शायद अच्छी तरह समझ गए थे कि वे अपने दम पर चुनाव नहीं जीतते हैं, या तो पार्टी जीतती है, या कांग्रेस हारती है। ऐसी बाईडिफाल्ट जीत की अधिक फिक्र करना उन्होंने छोड़ दिया था, और जिस तरह राजधानी रायपुर में कांग्रेस बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ लगातार हारने की काबिलीयत की अनिवार्य शर्त के साथ हर चुनाव में अलग-अलग लोगों को टिकट देते आई है, कुछ उसी अंदाज में रमेश बैस के खिलाफ भी हारने वाले लोग कांग्रेस ने खड़े किए, या फिर देश का माहौल कुछ ऐसा रहा कि कांग्रेस को हारना था, या भाजपा को जीतना था। इन सबका नतीजा यह निकला कि रमेश बैस ने लोगों से संपर्क एकदम सीमित रखा, और दिल्ली में उनके साथ बैठे हुए लोगों का यह तजुर्बा रहा कि छत्तीसगढ़ से किसी का फोन आने पर बहुत बार वे हाथ के इशारे से ही फोन उठाने वाले को कह देते थे कि अभी नहीं।
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लेकिन पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के दौरान रमेश बैस की सीएम बनने की हसरत बनी ही रही, और वे अपने आपको डॉ. रमन सिंह के मुकाबले बेहतर मानते रहे। यह एक अलग बात रही कि एक भी भाजपा विधायक रमेश बैस के साथ नहीं थे जो कि डॉ. रमन सिंह के मुकाबले उनके लिए खड़े रहते। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनाव में तीन बार के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की लीडरशिप में लडऩे के बाद अगर भाजपा 15 सीटों पर नहीं आ गई होती, तो रमेश बैस को आज मिला महत्व भी शायद न मिला होता। वे सबसे सीनियर गिने-चुने सांसदों में से एक होने के बाद भी मोदी-मंत्रिमंडल से बाहर रखे गए थे, इस बार सांसद भी नहीं बने थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें छोटे सही, लेकिन एक राज्य, त्रिपुरा, का राज्यपाल बनाकर पांच बरस का एक महत्व दे दिया, जिसके बिना वे महज भूतपूर्व सांसद रह गए होते।
त्रिपुरा में रहते हुए रमेश बैस छत्तीसगढ़ की राजनीति में अपने परिवार के दो-चार लोगों को संगठन में या म्युनिसिपल में कुछ बनवा देने में लगे रहते हैं, सात बार के सांसद रहे एक नेता के लिए राजनीति के इस आखिरी दौर में यह बहुत ही सोचनीय बात है कि उसके पास सोचने के लिए महज परिवार के दो-चार हैं।
रमेश बैस की राजनीतिक पराकाष्ठा में कांग्रेस के उल्लेखनीय योगदान के बिना उनकी चर्चा अधूरी ही रह जाएगी जिसने हर बार छांट-छांटकर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जो कि हारते ही रहें। बृजमोहन अग्रवाल के बारे में तो यह माना जाता है कि वे कांग्रेस पार्टी के भीतर अपने खिलाफ उम्मीदवार तय करने में खासी मेहनत करते हैं, लेकिन रमेश बैस के साथ तो ऐसी भी कोई ताकत नहीं रही।
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रमेश बैस केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ सांसद रहते हुए संसद में अपनी पार्टी की दूसरी-तीसरी कतार में ही बैठते थे, वहां लालकृष्ण अडवानी और सुषमा स्वराज के ठीक पीछे रमेश बैस का मौन मुस्कुराता चेहरा देखते हुए छत्तीसगढ़ इसी बात की राह देखते रह गया कि उसके इतने वरिष्ठ सांसद देश और दुनिया के मुद्दों पर कुछ महत्वपूर्ण बात बोलेंगे। लेकिन महत्वपूर्ण बातें उनके सामने की कतार से कही जाती थीं, और रमेश बैस के चेहरे पर उन्हें लेकर कामयाबी भरी एक खुशी जरूर झलकते रहती थी। छत्तीसगढ़ को संसद में रमेश बैस के सात कार्यकाल की यही याद सबसे अधिक रहेगी कि अडवानी-सुषमा के पीछे उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा बने रहता था।
लिखने के लिए रमेश बैस की और भी बहुत सी बातें हैं, लेकिन लिखने के लिए आज वक्त बस इतना ही है, उनके बारे में कुछ और बातें अगली किसी किस्त में। यहां लिखी बातें मामूली याददाश्त के आधार पर हैं, और तथ्य या आंकड़े की किसी गलती के लिए भूल-चूक लेना-देना।
-सुनील कुमार