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-सुदीप ठाकुर
कल शाम मानपुर से मित्र के एस कुंजाम ने संदेश भेजा कि देव प्रसाद आर्य नहीं रहे! कद्दावर आदिवासी नेता देव प्रसाद आर्य से हुई मुलाकातें सहसा याद आ गईं। यों तो उन्हें 1980-90 के दशकों के दौरान एकाधिक बार देखने का मौका मिला था। मगर उनसे लंबी बात करने का पहला मौका मिला था 2013 के छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के दौरान। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के महाराष्ट्र तथा बस्तर से सटे घने जंगलों वाले मानपुर-मोहला क्षेत्र के उनके गांव हथरा में हुई मुलाकात आदिवासियों के संघर्ष के साथ ही इस अंचल की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को जानने-समझने का अवसर बन गई। बिना दूध की चाय के कई दौर के साथ हुई इस बातचीत में उन्होंने बताया था कि कैसे बेमेतरा में स्कूल की मास्टरी करते हुए वह कम उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे और फिरंगी सरकार के अधिकारियों को धता बताकर प्रभात फेरियां निकालते थे। आखिरकार उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।
आजादी मिलने के कई वर्षों बाद उन्होंने मास्टरी छोड़ दी और राजनीति से जुड़ गए और उनकी प्रेरणा बने एक अन्य महान आदिवासी नेता लाल श्याम शाह।
लाल श्याम शाह मोहला पानाबरस के जमींदार थे और उन्होंने आदिवासियों के हक में लंबी लड़ाई लड़ी थी। उनके कई आंदोलनों में देव प्रसाद आर्य कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ थे। लाल श्याम शाह कभी किसी राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं बने और उन्होंने दो बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चौकी विधानसभा से चुनाव जीता था। उन्होंने आदिवासियों के हक के लिए समय से पूर्व विधानसभा से इस्तीफा भी दिया। उनके बाद 1962 तथा 1967 में चौकी सीट से देव प्रसाद आर्य ने चुनाव जीता। देव प्रसाद आर्य प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में रहे। उनकी दलगत प्रतिबद्धता लाल श्याम शाह के आंदोलनों से उन्हें अलग नहीं कर सकी। मेरी किताब लाल श्याम शाह, एक आदिवासी की कहानी के सिलसिले में उनसे काफी बातें हुई थीं।
करीब सवा दो वर्ष पूर्व एक मई, 2018 को लाल श्याम शाह के 100वें जन्मदिन के मौके पर जब पानाबरस नागरिक समिति ने मेरी किताब को केंद्रित कर आदिवासी अधिकारों का सवाल विषय पर एक सम्मेलन आयोजित किया था, तो 90 वर्ष से अधिक उम्र होने के बावजूद देव प्रसाद आर्य जी न केवल उसमें आए थे, बल्कि अपनी दमदार आवाज से सभा को संबोधित भी किया था।
लाल श्याम शाह की तरह ही देव प्रसाद आर्य खांटी आदिवासी नेता थे, जिन्हें सत्ता के तमाम प्रलोभन कभी प्रभावित नहीं कर सके। सही मायने में उन्हें जीते जी वैसा सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। उनके निधन से छत्तीसगढ़ ने एक और कद्दावर नेता खो दिया...
अपनों के प्रेम, अनुराग पर भरोसा कीजिए। संकट साथ मिलकर सहने से कम होता जाता है। हर अंधेरी रात की सुबह है। बस रात से डरना नहीं और सुबह में यकीन रखना है।
आसान नहीं है, बनी-बनाई लकीर के पार चले जाना! आसान नहीं है, जो दिमाग सोच ले, उससे बाहर जाकर कुछ सोच लेना। जिंदगी में धारणा के विपरीत जाना सबसे मुश्किल काम है। जीवन फूल की तरह हो, बस खिलने पर जोर, दूसरे से होड़ नहीं! हम जो कुछ एक बार सोच लेते हैं, उसमें स्वादानुसार नमक मिलाते जाते हैं! धारणा के विपरीत जाना साहस का काम है, इसे बढ़ाने के बारे में सोचना है! ‘जीवन संवाद’ को राजस्थान के जोधपुर से एक ईमेल मिला है। इसमें कोरोना के कारण अपने व्यापार में भारी घाटा उठा रहे युवा उद्योगपति ने अपने संकट का जिक्र करते हुए सुझाव मांगे हैं। वह जीवन से उतने अधिक निराश नहीं थे, जितने इस बात से निराश थे कि अचानक आए संकट ने उन्हें कई दशक पीछे धकेल दिया। उनके साथ के लोग कहीं आगे निकल गए। भारी आर्थिक कर्ज के बीच उनका मानसिक स्वास्थ्य निरंतर अस्थिर हो रहा है।
उनसे लंबी बातचीत से लग रहा था कि वह इस बात के लिए व्याकुल हैं कि किसी तरह शहर से कुछ दिनों के लिए अपना कारोबार समेटकर बाहर चले जाएं। जिससे उधार मांगने वालों से किसी तरह खुद को बचा सकें। उनकी चिंता स्वाभाविक है। वह संकट को हल करने में लगे थे, लेकिन उनका दिमाग धीरे-धीरे सारे रास्ते बंद करता जा रहा था। उनका कहना था कि उनकी पत्नी बहुत कमजोर हैं और आर्थिक संकट, कर्ज-वसूली करने वालों के सामने संभावित अपमान से वह अपने आपको संभाल नहीं पाएंगी। मैं भी उनकी चिंता से कुछ-कुछ सहमत था, लेकिन मैं इस बात के लिए राजी नहीं था कि बिना उनको बताए अचानक शहर से बाहर आने की योजना बनाई जाए। वह मुझे तरह-तरह के तर्क देते रहे, लेकिन मैं सहमत नहीं था।
कल अंतत: मेरे कई बार अनुरोध के बाद उन्होंने अपनी पत्नी से मेरी बात कराई। मैं उनकी पत्नी की बातें सुनकर प्रसन्नता और आनंद से भर गया। उनकी पत्नी ने जो कुछ कहा, वह मेरी अपेक्षा से बहुत आगे बढक़र था। उन्होंने कहा, हम जोधपुर छोडक़र कहीं नहीं जाना चाहते।
हम संघर्ष करना चाहते हैं, क्योंकि सामने संघर्ष की मिसाल रखना चाहते हैं। नए शहर में इतना कुछ नया होगा कि हमें अपनी जड़ें जमाने में बरसों बीत जाएंगे। हम कर्ज में जरूर हैं, लेकिन हम हारना नहीं चाहते। वह भी बिना लड़े।
लगभग 60 मिनट की बातचीत में 55 मिनट उनकी पत्नी बोलती रहीं। मैं चुपचाप आनंद से सुनता रहा। उनकी पत्नी के पास पति के हर संकट की जानकारी थी। बस तनाव नहीं था। जबकि उनके पति निरंतर मुझसे यही कहते, वह बहुत कमजोर हैं। संकट का सामना नहीं कर पाएंगी। मुश्किल को सह नहीं पाएंगी। बिना कुछ कहे हम कितना कुछ दिमाग में ‘घर’ कर लेते हैं। दो महीने से यह युवा उद्योगपति मन ही मन घुट रहा था। जीवन के बहुत ही खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुका था। केवल यही सोचकर कि उसकी पत्नी कमजोर हैं। वह तनाव और संघर्ष को नहीं सह पाएंगी। कितना कम जानते हैं हम अपने परिवारवालों को!
सोशल मीडिया के जमाने में हम रात-दिन दुनिया को जानने का दावा करते रहते हैं, लेकिन अपने ही लोगों के प्रेम, शक्ति से अपरिचित रहते हैं। इस अपरिचय के कारण बहुत सारा तनाव ओढ़ लेते हैं। अपनों के प्रेम, अनुराग पर भरोसा कीजिए। संकट साथ मिलकर सहने से कम होता जाता है। हर अंधेरी रात की सुबह है। बस रात से डरना नहीं और सुबह में यकीन रखना है। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
संबंधों में प्रेम, करुणा को स्थायी भाव दें। जब तक हम अपने मूल्य से परिचित नहीं होंगे, अपने होने को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा।
हमारे आस-पास इस समय तरह तरह के संकट तैर रहे हैं। आर्थिक-मानसिक और इन सबसे बढक़र स्वयं के प्रति दुविधा। अपने होने पर संदेह। अपनी काबिलियत पर तरह-तरह के प्रश्न स्वयं ही करने लगते हैं। इसके कारण हमारे मन में अनिश्चितता, संशय के बादल गहरे होने लगते हैं। इसका असर यह होता है कि हम अपने होने पर सवाल खड़े करने लगते है। एक छोटी-सी कहानी इस बारे में आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्टता से आप तक पहुंच सके।
एक बार एक व्यक्ति अपने होने पर बहुत अधिक दुविधा से घिर गया। उसके भीतर तक यह बात घर कर गई कि उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बहुत दिनों तक परेशान रहने के बाद किसी ने उसे महात्मा बुद्ध के पास जाने की सलाह दी। वह बुद्ध के पास पहुंचा। उनसे निवेदन किया, ‘मैं किसी काम का नहीं हूं। संसार को मेरी कोई जरूरत नहीं। मेरा कोई मूल्य नहीं। कुछ ऐसा कीजिए, जिससे मैं अपने होने को महसूस कर सकूं। अभी तो ऐसा लगता है कि मेरे होने से दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपनी कीमत खो चुका हूं।’
महात्मा ने उसे प्यार से अपने पास बुलाया और एक चमकदार पत्थर (जो असल में कीमती रूबी रत्न था) देते हुए कहा, ‘इसे किसी को बेचना नहीं। बस चार अलग-अलग तरह के लोगों से इसकी कीमत पूछकर आओ। किसी भी हालत में इसे किसी को देना नहीं!’ उसने ऐसा ही करने का भरोसा दिया।
उस व्यक्ति को कुछ दूरी पर ही एक सब्जी वाला मिला। उसने अपनी हथेली पर चमकदार पत्थर रखते हुए, सब्जी वाले से कहा कि इसका मूल्य बताओ। उसने कहा, ‘मुझे इसकी कीमत तो नहीं पता, लेकिन चमक रहा है, तो कुछ काम आ सकता है। तुम इसके बदले में पांच किग्रा मनचाही सब्जियां ले लो।’ जब उस व्यक्ति ने ऐसा करने से मना कर दिया, तो उसने कुछ और सब्जियां देने का प्रस्ताव किया। लेकिन दूसरे का उद्देश्य तो कीमत पता करना था। आगे चलकर उसे अनाज का व्यापारी मिला। उसने बदले में एक बोरी गेहूं की पेशकश कर दी। क्योंकि उसे लगा यह अवश्य कोई कीमती पत्थर है। कुछ दूर और जाने पर उसे एक थोड़े पढ़े-लिखे सज्जन दिखे। उनके सामने भी जब यही प्रस्ताव रखा गया, तो उन्होंने कहा, मैं इसके बदले सौ स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं!
कीमत पता करने निकले व्यक्ति को लगा कि अब और अधिक लोगों से पूछने का अर्थ नहीं। इसका मूल्य किसी जौहरी से पूछना चाहिए। वह सीधे जौहरी की दुकान पर गया। पारखी जौहरी देखते ही समझ गया कि यह कीमती रूबी रत्न है, लेकिन उसने सोचा कहीं ऐसा न हो कि इसे लालच आ जाए। इसलिए उसने उसकी कीमत दस हजार रुपये बताई। कीमत सुनकर वह जाने को हुआ तो व्यापारी को लगा अच्छा सौदा हाथ से निकल जाएगा। उसने दो गुना दाम बता दिया। उसके बाद भी जब उसने कहा कि वह तो केवल कीमत पूछने आया था, तो व्यापारी उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और उससे कहा, ‘तुम इसकी मुंहमांगी कीमत मुझसे ले लो, क्योंकि यह तुम्हारे काम का नहीं है। यह मेरे काम का है।’ कीमत पूछने निकले व्यक्ति ने किसी तरह उससे पीछा छुड़ाया!
बुद्ध के पास पहुंचकर उसने सारा किस्सा सुनाया। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, ‘ठीक इस रत्न की तरह ही मनुष्य की कीमत है। जिसे लोग अपनी समझ, जरूरत और अवसर के अनुरूप तय करते हैं। यह तय करते हुए असल में हमारी कीमत कम और उनकी जरूरत अधिक होती है। जो ऐसा नहीं करते, असल में वही सच्चा प्रेम रखते हैं! इसलिए, दूसरों के मूल्यांकन से दुखी नहीं होना है। अपने होने का एहसास दूसरों से अधिक खुद के भीतर सहेजना होगा। ऐसा न होने पर हम हर किसी को खुद को दुखी करने का अवसर देते रहेंगे!’
इस कहानी को जीवन से जोडक़र देखें, तो हम पाते हैं कि इसके किरदार जरूर बदल गए, लेकिन संकट जस का तस है।
जैसे ही हमारे बीच किसी की अच्छी नौकरी लगती है। हमारे लिए उसका मूल्य बदल जाता है। जैसे ही उसकी नौकरी छूटी, हम तुरंत कीमत घटाने लग जाते हैं! जितना संभव हो ऐसा करने से बचें। संबंधों में प्रेम, करुणा को स्थायी भाव दें। जब तक हम अपने मूल्य से परिचित नहीं होंगे, अपने होने को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा।
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
देश में इस समय सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स-फेसबुक और व्हाट्सएप-आदि पर नागरिकों के जीवन में कथित तौर पर घृणा फैलाने और सत्ता-समर्थक शक्तियों से साँठ-गाँठ करके लोकतंत्र को कमजोर करने सम्बन्धी आरोपों को लेकर बहस भी चल रही है और चिंता भी व्यक्त की जा रही हैं। पर बात की शुरुआत किसी और देश में सोशल मीडिया की भूमिका से करते हैं :
खबर हमसे ज़्यादा दूर नहीं और लगभग एकतंत्रीय शासन व्यवस्था वाले देश कम्बोडिया से जुड़ी है। प्रसिद्ध अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ की वेबसाइट द्वारा जारी इस खबर का सम्बंध एक बौद्ध भिक्षु लुओन सोवाथ से है, जिन्होंने अपने जीवन के कई दशक कम्बोडियाई नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा की लड़ाई में गुजार दिए थे। अचानक ही सरकार समर्थक कर्मचारियों की मदद से बौद्ध भिक्षु के जीवन के संबंध में फेसबुक के पेजों पर अश्लील किस्म के वीडियो पोस्ट कर दिए गए और उनके चरित्र को लेकर घृणित मीडिया मुहीम देश में चलने लगी। उसके बाद सरकारी नियंत्रण वाली एक परिषद द्वारा बौद्ध धर्म में वर्णित ब्रह्मचर्य के अनुशासन के नियमों के कथित उल्लंघन के आरोप में लुओन सोवाथ को बौद्ध भिक्षु की पदवी से वंचित कर दिया गया। उनके खिलाफ इस प्रकार से दुष्प्रचार किया गया कि उन्होंने गिरफ्तारी की आशंका से कहीं और शरण लेने के लिए चुपचाप देश ही छोड़ दिया। सब कुछ केवल चार दिनों में हो गया।
फेस बुक सरीखे सोशल मीडिया प्लेटफार्म के राजनीतिक दुरुपयोग को लेकर तमाम प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में जो चिंता जाहिर की जा रही है, उसका कम्बोडिया केवल छोटा सा उदाहरण है।हम अपने यहाँ अभी केवल इतने खुलासे भर से ही घबरा गए हैं कि एक समुदाय विशेष को निशाना बनाकर साम्प्रदायिक वैमनस्य उत्पन्न करने के उद्देश्य से प्रसारित की जा रही पोस्ट्स को किस तरह बिना किसी नियंत्रण के प्रोत्साहित किया जाता है। अभी यह पता चलना शेष है कि देश की प्रजातांत्रिक सम्पन्नता को एक छद्म एकतंत्र की आदत में बदल देने के काम में मीडिया और सोशल मीडिया के संगठित गिरोह कितनी गहराई तक सक्रिय हैं।
कोरोना ने नागरिकों की जीवन पद्धति में सरकारों की सेंधमारी के लिए अधिकृत रूप से दरवाज़े खोल दिए हैं और इस काम में सोशल मीडिया का दुनिया भर में ज़बरदस्त तरीक़े से उपयोग-दुरुपयोग किया जा रहा है। महामारी के इलाज का कोई सार्थक और अत्यंत ही विश्वसनीय वैक्सीन नहीं खोज पाने या उसमें विलम्ब होने का एक अन्य पहलू भी है ! अलावा इसके कि महामारी का दुश्चक्र लगातार व्यापक होता जाएगा और संक्रमण के साथ-साथ मरनेवालों की संख्या बढ़ती जाएगी, नागरिक अब अधिक से अधिक तादाद में अपने जीवन-यापन के लिए सरकारों की कृपा पर निर्भर होते जाएँगे। पर इसके बदले में उन्हें ‘अवैध’ रूप से जमा किए गए हथियारों की तरह अपने ‘वैध’ अधिकारों का ही समर्पण करना पड़ेगा।
सरकारें अगर इस तरह की भयंकर आपातकालीन परिस्थितयों में भी अपने राजनीतिक आत्मविश्वास और अर्थव्यवस्थाओं को चरमराकर बिखरने से बचाने में कामयाब हो जातीं हैं, तो माना जाना चाहिए कि उन्होंने एक महामारी में भी अपनी सत्ताओं को मजबूत करने के अवसर तलाश लिए हैं। चीन के बारे में ऐसा ही कहा जा रहा है। महामारी ने चीन के राष्ट्राध्यक्ष को और ज़्यादा ताकतवर बना दिया है। रूस में भी ऐसी ही स्थिति है। दोनों ही देशों में सभी तरह का मीडिया इस काम में उनकी मदद कर रहा है। रूस में तो पुतिन के धुर विरोधी नेता नेवेल्नी को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का जबरदस्त तरीके से उपयोग किया गया। रूस के बारे में तो यह भी सर्वज्ञात है कि उसने ट्रम्प को पिछली बार विजयी बनाने के लिए फेसबुक का किस तरह से राजनीतिक इस्तेमाल किया था।
नागरिकों को धीमे-धीमे फैलने वाले जहर की तरह इस बात का कभी पता ही नहीं चल पाता है कि जिस सोशल मीडिया का उपयोग वे नागरिक आजादी के सबसे प्रभावी और अहिंसक हथियार के रूप में कर रहे थे वही देखते-देखते एकतंत्रीय व्यवस्थाओं के समर्थक के विकल्प के रूप में अपनी भूमिका-परिवर्तित कर लेता है। (उल्लेखनीय है कि महामारी के दौर में जब दुनिया के तमाम उद्योग-धंधों में मंदी छाई हुई है, सोशल मीडिया संस्थानों के मुनाफे जबरदस्त तरीक़े से बढ़ गए हैं। अख़बारों में प्रकाशित खबरों पर यक़ीन किया जाए तो चालीस करोड़ भारतीय व्हाट्सएप का इस्तेमाल करते हैं। अब व्हाट्सएप चाहता है कि उसके पैसों का भुगतान किया जाए। इसके लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति चाहिए। इसीलिए व्हाट्सएप की नब्ज पर भाजपा की पकड़ है।)
ऊपर उल्लेखित भूमिका का सम्बंध अफ्रीका के डेढ़ करोड़ की आबादी वाले उस छोटे से देश ट्यूनिशिया से है, जो एक दशक पूर्व सारी दुनिया में चर्चित हो गया था। सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न अहिंसक जन-क्रांति ने वहाँ न सिर्फ लोकतंत्र की स्थापना की बल्कि मिस्र सहित कई अन्य देशों के नागरिकों को भी प्रेरित किया। ट्यूनिशिया में अब कैसी स्थिति है? बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, खऱाब अर्थव्यवस्था के चलते लोग देश में तानाशाही व्यवस्था की वापसी की कामना कर रहे हैं। वहाँ की वर्तमान व्यवस्था ने उन्हें लोकतंत्र से थका दिया है। ट्यूनिशिया के नागरिकों की मनोदशा का विश्लेषण यही हो सकता है कि जिस सोशल मीडिया ने उन्हें ‘अरब क्रांति’ का जन्मदाता बनने के लिए प्रेरित किया था वही अब उन्हें तानाशाही की ओर धकेलने के लिए भी प्रेरित कर रहा होगा या इसके विपरित चाहने के लिए प्रोत्साहित भी नहीं कर रहा होगा।
नागरिकों को अगर पूरे ही समय उनके आर्थिक अभावों, व्याप्त भ्रष्टाचार और जीवन जीने के उपायों से ही लड़ते रहने के लिए बाध्य कर दिया जाए और सोशल मीडिया के अधिष्ठाता अपने मुनाफे के लिए राजनीतिक सत्ताओं से साँठ-गाँठ कर लें तो उन्हें (लोगों को) लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं, मानवाधिकार और संवैधानिक संस्थाओं का स्वेच्छा से त्याग कर एकाधिकारवादी सत्ताओं का समर्थन करने के लिए अहिंसक तरीकों से भी राजी-खुशी मनाया जा सकता है। और ऐसा हो भी रहा है !
-विष्णु नागर
यह देश आजकल सुशांत सिंह राजपूतमय है।आज की तारीख में सुशांंत की आत्महत्या इतना पापुलर सब्जेक्ट है कि उसने मोदीजी की ‘पापुलरिटी’ को पीछे ढकेल दिया है। पहले टीवी चैनल और अखबार मोदीजी से शुरू होकर मोदीजी के एजेंडे पर खत्म होते थे। फिलहाल देश के हालात 180 डिग्री बदले हुए लग रहे हैं। अब सुबह होती है, शाम होती है, रात होती है, सुशांत-सुशांत-सुशांत सुनते- सुनते जिंदगी तमाम होती है। यही कारण है कि मेरा विषय भी इस बार बदला हुआ है। सबको समय के साथ चलना पड़ता है, चाहे समय साथ चले, न चले। क्षमा करें मोदीजी इस बार चाहकर भी पूरी तरह आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। इसका मुझे अपार दुख है मगर इसके लिए मैं नहीं आपकी सीबीआई, ईडी, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, आपके सुब्रमण्यम स्वामी, आपकी परमभक्ता कंगना रनौत, आपके टीवी चैनल, अखबार सब जिम्मेदार हैं। सबने मिल कर इस सोये हुए लेखक को जगा दिया है कि हे मूरख मोदी-मोदी क्या करता है, सारी दुनिया आज सुशांत- सुशांत कर रही है और तू इस हकीकत से मुँँह फेरे बैठा है। तू भी सुशांत-सुशांत कर।
वाकई वे सही हैं। सुशांत की आत्महत्या को ढाई महीने से ज्यादा हो गए हैं मगर चौबीस घंटे चलनेवाला यह सीरियल इतना अधिक पापुलर है कि लगता है कि कोरोना खत्म हो सकता है मगर ये खत्म नहीं होगा। रहस्य, रोमांच, रोमांस, फाइट, कामेडी सब के सब मसाले इसमें इतनी अच्छी तरह समाहित हैं कि इसे स्पांसर की कोई कमी नहींं। ऐसी हालत में अगर यह 2024 तक भी चलता रहे तो आश्चर्य नहीं और ऐसा हुआ तो खतरा यह है कि जनता कहीं यह न कहने लगे कि मोदीजी जाओ, सुशांतजी आओ। आपके हितचिंतक होने के नाते मैं यह बात आज ही बताए दे रहा हूँ, कल मत कहना कि नहींं बताया था। आपको असली चुनौती अब राहुल गाँधी नहीं, सुशांत सिंह दे रहा है। जो आज मेरी बात पर हँस रहे हैं कि कोई देश मर चुके आदमी को भी कभी प्रधानमंत्री बना सकता है, तो वे 2024 तक इस सीरियल की पापुलरिटी बनाए रखकर खुद नतीजा देख लें।उन्हें असलियत का पता चल जाएगा।मौत के बाद ऐसी जबरदस्त पापुलरिटी पानेवाला कोई भी शख्स उस दुनिया मेंं चैन से नहीं बैठ सकता और इस दुनिया में आए बगैर रह नहीं सकता!
सुशांत सीरियल की, मोदी सीरियल से ज्यादा पापुलरिटी होने की ठोस वजह है। मोदीजी अपने सीरियल में अकेले ही सबकुछ कर लेज्ञते हैं। एक्टर, एक्ट्रेस, कैरेक्टर एक्टर, विलन, निर्देशक, कैमरामैन, स्पाटबाय, स्क्रिप्ट राइटर, ड्रेस डिजाइनर, बैकग्राउंड म्यूजिशियन, लाइटमैन यानी सब वही होते हैं।वह किसी के लिए कुछ छोड़ते नहीं क्योंकि कोरोना-काल में भी उन्हें दिन में अ_ारह घंटे काम करने का रिकॉर्ड मेनटेन करना है। उधर मरणोपरांत सुशांत सिंह ने ऐसी कोई कसम नहीं खाई है! अपने सीरियल का हीरो वह जरूर है मगर बाकी सारे रोल उसने दूसरों को दिए हैं। रिया चक्रवर्ती डबल रोल में है। वह हिरोइन भी है और प्राण का महिला अवतार भी। सुशांत ने अपने पिता, बहन, वकील, आदित्य ठाकरे, महेश भट्ट, शाहरुख खान, करण जौहर, बिहार पुलिस, महाराष्ट्र पुलिस, सीबीआई, ईडी, ड्रग कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारियों, एंकरों, क्राइम रिपोर्टरों आदि सबको एक्टिव रोल दे रखा है। इनमें से कुछ के लिए तो अभिनय का यह पहला मौका है और रोल धाँसू मिला है। मंजे हुए अभिनेताओं ने भी इसे पुण्य का काम समझ कर फीस लेने से मना कर दिया है। अभी भी वेकेंसीज बची हैंं। सीरियल आगे बढ़ता जाएगा, एक्टर बढ़ते जाएँगे। इस सीरियल में कोई पर्दे पर आकर फिर गुम नहीं हो जाता, इसलिए इसके फेल होने का कोई चांस नहीं है। वह सीरियलों में फिल्म ‘शोले’ है। इसके अलावा दोनों सीरियलों में एक बड़ा फर्क और भी है। मोदीजी का सीरियल आता है तो अभक्त कोटि के हम अधम मनुष्य टीवी बंद कर देते हैं मगर भक्तगण अगरबत्ती जलाकर, आलथी-पालथी मारकर प्रणाम की मुद्रा में मोदी वचनामृतों का पान करते हैं। सुशांत सीरियल को भक्त हो या अभक्त, सब लोग खा पीकर, रिलैक्स होकर आराम से बैठकर देखते हैं। सासें, बहुओं से कहती हैं : ‘बहू, छोड़ काम, बाद में कर लेना। तू तो आ मेरे पास आ और बैठ के ये देख’। बहुओं के सामने ऐसे अद्भुत क्षण जीवन में यदाकदा ही आते हैं। वे भी सास के आग्रह पर उनके पैर छुकर बगल में बैठ जाती हैं। किसी को कोई टेंशन नहीं होता। इसलिए भी यह फेल नहीं हो सकता।
वैसे भी आज की तारीख में देश की सबसे बड़ी कोई चिंता है तो सुशांत की आत्महत्या है। कोरोना नहीं, बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था नहीं, चीन नहीं, पाकिस्तान नहीं। राममंदिर तक बताइए ठंडे बस्ते में है। उधर खतरा मोदीजी के द्वार पर दस्तक दे रहा है कि मोदीजी संभलो, सुशांत से बचो। अभी भी वक्त है। वैसे खतरा अमिताभ बच्चन, सलमान खान आदि की पापुलरिटी को भी कम नहीं है। वे भी संभल जाएँ तो उनके फिल्मी भविष्य के लिए अच्छा है!
साठ साल का सफर पूरा कर 'कादम्बिनी' आखिर लाकडाउन की बलि चढ़ा दी गई- बाल पत्रिका 'नंदन' के साथ। 'कादम्बिनी' से हालांकि मेरा संबंध बारह साल पहले ही छूट गया था और अब वह पत्रिका मुझे भेजा जाना भी बंद हो चुका था मगर उसके अतीत से पहले पाठक के रूप में और बाद में उसके संपादक के समकक्ष जिम्मेदारी संभाल चुकने के कारण उससे एक लगाव था, इसलिए यह खबर मेरे लिए भी दुखद है।टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की राह पर देर से ही सही, हिंदुस्तान टाइम्स समूह भी आ गया। कादम्बिनी प्रबंधन की उपेक्षा का शिकार तो मेरे कार्यकाल से पहले ही होने लगी थी।मेरे समय महीने में एक या दो बार कादम्बिनी का जो विज्ञापन हिन्दुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान में छपता था, उसे भी बाद में बंद कर दिया गया था। उसका आकार तथा कुछ और परिवर्तन मेरे न चाहते हुए भी किए गए थे कि इससे नये विज्ञापन आएँगे। न विज्ञापन लाए गए, न प्रसार संख्या बढ़ाने के कोई प्रयास हुए। खैर। वैसे लिखना तो चाहता था कादम्बिनी से अपने संबंधों के बारे में पहले ही मगर टलता रहा और कल वह दिन भी आ गया कि उसकी अंत्येष्टि के बाद श्रद्धांजलि देनी पड़ रही है।
मेरे आरंभिक दिनों में बच्चों के दो ही मासिक ऐसे थे, जो आकर्षित करते थे-पराग और नंदन। चंदामामा भी काफी मशहूर था,उसका बड़ा पाठकवर्ग था मगर वह मेरी पसंद कभी नहीं बन सका। इसी प्रकार सांस्कृतिक मासिकों में कादम्बिनी और नवनीत थे। मैं कोई 1965 के आसपास कादम्बिनी का पाठक बना हूँगा। जब मैंने कादम्बिनी पढ़ना शुरू किया था, तब इसके संपादक रामानंद दोषी हुआ करते थे और तब मुझे यह पत्रिका नवनीत के साथ ही अच्छी लगती थी। कहना कठिन था कि कौनसी बेहतर थी।कब राजेन्द्र अवस्थी कादम्बिनी के संपादक बने और उनके रहते आरंभ में यह पत्रिका कैसी थी, यह मेरी स्मृति में दर्ज नहीं है। 1997 में हिन्दुस्तान अखबार से जुड़ने के बाद भी इसमें कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हुई क्योंकि इसकी छवि प्रबुद्ध लोगों में खराब बन चुकी थी। यदाकदा इसे पलटकर भी यही छवि पुष्ट होती थी। अवस्थी जी शायद बिक्री के फार्मूले के तौर पर उसे जादूटोना, तंत्रमंत्र,ज्योतिष आदि की पत्रिका बना दिया था, खासकर अपने आखिरी कुछ वर्षों में। इस कारण चिढ़ सी पैदा हो गई थी।क्या पता था कि मैं भी कभी इससे जुड़ूँगा!
मैं तो दैनिक हिन्दुस्तान में विशेष संवाददाता था, जो मैं नवभारत टाइम्स में भी था। तत्कालीन संपादक लाए थे, कुछ कहकर, कुछ सोचकर। उन्हें करने नहीं दिया गया या जो भी रहा हो, इस संस्थान में आना तब कुल मिलाकर घाटे का सौदा ही लग रहा था। तब नवभारत टाइम्स की जो साख थी, वह हिन्दुस्तान की नहीं थी।खैर आए तो काम तो करना ही था। तब हिन्दुस्तान टाइम्स समूह और टाइम्स ऑफ इंडिया समूह दोनों की छवि यह थी कि यहाँ की नौकरी, सरकारी नौकरी जितनी ही पक्की है और यह बात तब के लिए सही भी थी। दोनों संस्थानों में यूनियनों का दबदबा था। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में तो कुछ ज्यादा ही था।इस कारण यहाँ आने पर भी नौकरी छूटने का डर नहीं था।
जो मुझे लाए थे,वह संपादक बदले। दूसरे आए,वह भी बदले। फिर मृणाल पांडेय हिन्दुस्तान की प्रमुख संपादक बन कर आईं। आने के करीब दो साल बाद 2002 के अंत में कभी वह प्रबंधन को यह विश्वास दिला पाईं कि कादम्बिनी और नंदन का भी कायाकल्प करना जरूरी है। पता नहीं क्या सोचकर मृणालजी ने कादम्बिनी का एसोसिएट एडिटर बनने का प्रस्ताव मेरे सामने रखा। मेरे लिए यह आश्चर्यजनक था,हालांकि इससे पहले वह मुझसे पूछ चुकी थीं हिंदुस्तान अखबार के रविवारीय संस्करण का एसोसिएट एडीटर बनने के लिए मगर प्रबंधन ने तब आपत्ति की थी कि हम विशेष संवाददाता को सीधे यह पद नहीं दे सकते लेकिन जब कादम्बिनी की बात आई तो प्रबंधन ने यह मंजूर कर लिया।मैं कादम्बिनी में लाया गया फरवरी, 2003 में और क्षमा शर्मा नंदन में। नियुक्ति पत्र हमें जनवरी, 2003 से मिला था मगर सुना यह कि अवस्थीजी ने प्रबंधन से कहा कि हमने इतने वर्ष इस संस्थान की सेवा की है तो कम से कम हमें साल के पहले महीने में तो रिटायर मत कीजिए। यह बात मान लेनी भी चाहिए थी और मान ली गई। इस कारण सब मानने लगे थे कि अवस्थी जी बड़े पावरफुल हैं और उन्होंने मृणालजी के इरादों पर चूना फेर दिया है। इस कारण यह जानते हुए भी कि फरवरी से मैं ही कादम्बिनी का सर्वेसर्वा होनेवाला हूँ, एक धनंजय सिंह को छोड़कर स्टाफ के किसी सदस्य की हिम्मत नहीं हुई मुझसे मिलने की। धनंजय सिंह वहाँ असंतुष्ट थे और मेरा आना उनके लिए सुखद था। वह समय-समय पर वहाँ के समाचार देते रहते थे।
बहरहाल एक फरवरी को मैंने और क्षमाजी ने अपने-अपने पद संभाले। उस कक्ष में उस कुर्सी पर बैठे,जिस पर पूर्व संपादक बैठा करते थे। एसोसिएट एडीटर होते हुए भी मृणालजी यह स्पष्ट कर चुकी थीं कि सबकुछ मुझे ही देखना है,उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। इसलिए इस जिम्मेदारी की खुशी भी थी और यह भय भी था कि क्या इसे मैं संभाल पाऊँगा मगर आशंका पर खुशी और रोमांच हावी था। आशंका इसलिए भी हावी नहीं थी कि अब मैं पक्की नौकरी की बजाए तीन साल के कांट्रेक्ट पर था और यह सोचकर गया था कि जो होगा, देखा जाएगा। हद से हद घर बैठा दिया जाएगा। देखेंगे। इतना खतरा उठाना चाहिए।
मृणालजी के सहयोग और समर्थन से पत्रिका का कायाकल्प करने की कोशिश की। भूत-प्रेतों, ज्योतिष, बाबाओं का निष्कासन पहले ही अंक से किया, जो मार्च, 2003 को सामने आया।कवर पर ईंट ढोती मजदूर औरत थी क्योंकि 8 मार्च को महिला दिवस था। अभी अंक आँखों के सामने नहीं है मगर इस अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का निराला की कविता में आँखों के वर्णन पर था। बाद में भी उनका भरपूर सहयोग मिलता रहा। अपने छात्रों के बारे में उन्होंने एक सीरीज लिखी, जो बाद में पुस्तकाकार रूप में सामने आई। यह अपनी तरह की दुर्लभ पुस्तक है। प्रिय कहानीकार और मित्र मधुसुदन आनंद तब तक कहानी लिखने से विरक्त से हो चुके थे, उन पर भावनात्मक दबाव डालकर उनसे कहानी लिखवाई। गुणाकर मुले जैसे अत्यंत विश्वसनीय विज्ञान लेखक से लिखवाया।
आधुनिक और महत्वपूर्ण लेखकों से इसे जोड़ने का सिलसिला बहुत आगे तक बढ़ा। भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती आदि सब बड़े लेखक जुड़ते चले गए।
जो किया, नहीं किया, इस पर ज्यादा लिखना ठीक नहीं।बगैर अंधविश्वासों का खेल खेलते हुए (मासिक भविष्यफल का एक स्तंभ छोड़कर) इसे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की लोकप्रिय-पठनीय पत्रिका बनाए रखने का प्रयत्न किया। तब के.के.बिरला जीवित थे, उन्होंने स्वयं मुझे बुला कर शाबाशी दी। मृणालजी तो खुश थी ही, पाठक भी। स्टाफ ने भी जिसकी जितनी योग्यता थी, सहयोग किया। सबसे दोस्ताना संबंध बना। हरेक का जन्मदिन सब मिल कर प्रेस क्लब में मनाते। बीयर पीनेवाले बीयर पीते।
मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे निजी सहायक बलराम दुबे रहे, जो योग्य और विश्वसनीय रहे। बाकी सभी संपादकीय सहयोगियों का सहयोग भी मिला। मेरे कार्यकाल में हरेप्रकाश उपाध्याय, पंकज पराशर,शशिभूषण द्विवेदी, ऋतु मिश्रा जैसे योग्य लोग आए।
2008 में जब कादम्बिनी छोड़कर नई दुनिया के दिल्ली संस्करण में आना मेरे लिए जीवन का बहुत दुविधाजनक निर्णय था। जिन मृणालजी ने यह बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी, उन्हें छोड़कर जाना सबसे कठिन था मगर मित्र आलोक मेहता से पुराने और घरेलू संबंध थे। वही मुझे इस संस्थान में लाए थे। फिर दैनिक में फिर से काम करने का अपना आकर्षण भी था। मृणालजी ने स्वाभाविक ही बुरा माना। दुखद संयोग की मृणालजी भी उसके बाद वहाँ ज्यादा समय तक नहीं रहीं मगर उन्हें नई-नई जिम्मेदारियां मिलती गईं और अभी भी वह हेरल्ड समूह में हैं। उन्होंने जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता मुझे दी थीं, उसके लिए मैं हमेशा आभारी रहूँगा।
आखिरी दिन सब मुझे नीचे तक छोड़ने आए, सिवाय एक को छोड़कर, जिन्हें मैंने पुराने स्टाफ में योग्य मानकर सबसे अधिक आगे बढ़ाया था। वह उस समय भावी संपादक से अपनी निष्ठा जताने के लिए उनके पास आकर बैठ गए थे और उनकी पीठ मेरी तरफ थी।
दुख को स्वीकार करने से वह सहज होने लगता है। जैसे ही दुख सहज होता है, मन सुख की ओर बढ़ जाता है... जीवन में आस्था और अपने अहंकार को समझने से हमारे बहुत सारे संकट, मन की गांठें खुलने लगती हैं, धीरे-धीरे।
इतना सारा कर्ज कैसे उतरेगा। सबकुछ बर्दाश्त है, लेकिन कोई अपना उधार मांगने जब आएगा, तो उसकी आवाज तो ऊंची होगी! सबकुछ सहा जा सकता है, लेकिन देनदार की तीखी और तेज आवाज सहन करने की मुझमें क्षमता नहीं। उनकी आवाज दर्द से भरी हुई थी। मैंने उनको कुछ कहने की जगह सुनने की कोशिश की। देर तक उनकी सिसकी और रुक-रुक कर बाहर आती उदासी, उनके मन के लिए हितकारी होगी, इस विश्वास के साथ मैंने उनके आंसुओं को बहने दिया। गुरुवार के अंक में जिस घटना का मैंने जिक्र किया था। आज का अंक उसका विस्तार है।
अपने को बहुत अधिक सुरक्षित रखने, बहुत तेजी से सबकुछ हासिल करने की चाहत में हम अपने बुजुर्गों के कुछ ठोस, बुनियादी नियमों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। अपने लालच पर नियंत्रण, जो है पहले उसे ठीक से संभाल लिया जाए। कर्ज कैसा भी हो अच्छा नहीं होता। इन तीन चीजों को बीते बीस वर्षों में हमने भुलाने की यथासंभव कोशिश की है। अपने जिस मित्र का मैं यहां जिक्र कर रहा हूं, उसके लिए संघर्ष नया नहीं है, लेकिन सब तरफ से घिरने, अपनों से छले जाने की पीड़ा इस बार गहरी है। बाहरी दुनिया से मिले दुख, तनाव को सहना आसान हो जाता है, लेकिन इसका कारण घर के भीतर होने पर मन को समझाना मुश्किल है। इसी गांठ को सुलझाने की राह पर हमें आगे बढऩा है!
कोरोना के रूप में हमारे सामने जो संकट है वह हम सभी के लिए इस मायने में नया है कि किसी ने भी ऐसा संकट अब तक नहीं देखा, जिसमें हमारी सामाजिकता पर इतनी बड़ी पाबंदी हो।
हमारे अस्तित्व को हमारे मिलने से सीधे चुनौती हो। पूरी दुनिया एक ही तरह के डर का सामना कर रही हो। अब तक ऐसा केवल सिनेमा के पर्दे पर ही दिखाई देता था। इस अर्थ में दुनिया सचमुच एक जैसी हो गई है। लेकिन उसे असल में गांव जैसा होना होगा। गांव, जिसके संकट और सुख बहुत अधिक एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। वहां लोग जीवन-मृत्यु में एक-दूसरे के निकट सहभागी होते हैं। शहर और गांव यहीं आकर एक-दूसरे से बहुत अलग हो जाते हैं।
इस दोस्त की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उसके पास गांव की तरह दुख का सामना करने का अभ्यास नहीं है। अब तक मैं उसे जो संभाल पाया हूं, तो केवल गांव की कहानियां सुनाकर। उसने मुझसे कहा कि पहले कभी तुमने यह क्यों नहीं सुनाईं, जबकि हम तो तीसरी कक्षा से साथ पढ़े। स्कूल, कॉलेज साथ में बीता। मैं केवल उससे इतना ही कह पाया कि पहली बार ही इनकी जरूरत तुम्हें महसूस हो रही है। कहानियां हमेशा मेरे लिए दवाइयों का काम करती हैं। खुद के लिए भी और उनके लिए भी जिनसे मुझे प्रेम है।
एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे सुख के बारे में। संभव है इससे मेरी बात और अधिक स्पष्ट हो सके।
एक राजा जिसके राज्य में हर प्रकार की सुख-सुविधाएं थी। उसे एक दिन एक फकीर ने कह दिया, ‘तुम सुखी नहीं लगते’। राजा ने पूछा, ‘सुख कैसे मिलेगा’! फकीर ने कहा, ‘तुम्हें किसी सुखी आदमी की कमीज चाहिए। उसके बिना तुम्हारे लिए सुख को पाना मुश्किल दिखता है’। राजा कई महीने तक राज्य में ऐसा व्यक्ति तलाशता रहा, जो स्वयं को सुखी कह सके, लेकिन उसे ऐसा कोई मिला नहीं। उसके सिपाही सुखी आदमी को खोज ही रहे थे कि एक दिन एक घने पेड़ के नीचे अपनी बैलगाड़ी के पास विश्राम करते व्यक्ति के मुंह से उन्होंने सुना, ‘जैसा मैं सुखी, वैसा सुख सबको मिले!’
राजा के सैनिक तुरंत उसकी ओर दौड़े और उससे पूछा कि क्या तुम सुखी हो! जब उसने कई बार अपना उत्तर दोहरा दिया, तो सैनिकों ने उससे कहा, ‘तुम्हें राजा के पास चलना होगा। राजा ऐसे आदमी की तलाश कर रहे हैं जो सुखी हो’। उसने जाने से मना कर दिया। सैनिकों ने उससे कहा, ‘तुम्हारे पास तो कमीज तक नहीं है। राजा सुखी आदमी की कमीज की तलाश में है’।
उस गाड़ीवान ने कहा, ‘मेरे सुख को किसी कमीज की जरूरत नहीं’। सैनिकों ने तुरंत राजा को जाकर यह बात बताई। राजा ने उसके लिए कई प्रलोभन भेजे, लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया और कहा, ‘राजा को जरूरत है तो स्वयं आएं। मुझे राजा की जरूरत नहीं’।
राजा बड़े भारी लाव लश्कर के साथ उससे मिलने पहुंचा, लेकिन उसने राजा से मिलने से इनकार कर दिया। तीसरे प्रयास में जब वह अकेला गाड़ीवान से मिलने गया, तो गाड़ीवान ने उससे संवाद स्वीकार किया। राजा ने पूछा, ‘सुख कैसे मिलेगा’। उस बेहद सामान्य दिखने वाले बैलगाड़ी के मालिक ने कहा, ‘सुख भीतर है राजा। जैसे सुख को जीते हो, वैसे दुख को जियो। दोनों एक ही हैं। जैसे रात-दिन वैसे सुख-दुख। उसने राजा को कई कहानियां सुनाईं’। उन सबका सूत्रवाक्य केवल इतना ही था कि अगर जीवन में आस्था है। उसमें आस्था है, जिसके भरोसे तुम हो। तो दुख के लिए मन में जगह बनाओ। उसे स्वीकार करो। दुख को स्वीकार करने से वह सहज होने लगता है। जैसे ही दुख सहज होता है, मन सुख की ओर बढ़ जाता है।
गाड़ीवान की कहानियां ही मैंने अपने दोस्त को सुनाईं। मुझे यह कहते हुए बहुत संतोष है कि अब वह ठीक हो रहे हैं। बिना किसी दवाई के केवल अपने मन की ओर बढऩे से। जीवन में आस्था और अपने अहंकार को समझने से हमारे बहुत सारे संकट, मन की गांठें खुलने लगती हैं, धीरे-धीरे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
जब कभी किसी को इंसान का जिक्र करना हो, तो उसकी जगह पुरुष या मर्द का जिक्र करना काफी मान लिया जाता है। और तो और बहुत सी पढ़ी-लिखीं और सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को भी बतलाने पर भी यह बात समझ नहीं आती कि उनकी जुबान में औरतों के साथ नाइंसाफी हो रही है।
ब्लॉग-न्यूज18 : सुनील कुमार
इन दिनों मीडिया के अच्छे-खासे जानकार लोग भी टीवी पर जिस तरह की जुबान बोलते हैं, और जैसी भाषा में लिखते हैं, उसमें अगर उनका नाम और चेहरा साथ न भी रहे, तब भी यह जाना जा सकता है कि लिखने वालों में मर्द अधिक हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि लड़कियों और महिलाओं की जुबान में कोई बहुत बड़ा फर्क हो। जब कभी किसी को इंसान का जिक्र करना हो, तो उसकी जगह पुरूष या मर्द का जिक्र करना काफी मान लिया जाता है। और तो और बहुत सी पढ़ी-लिखीं और सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को भी बतलाने पर भी यह बात समझ नहीं आती कि उनकी जुबान में औरतों के साथ बेइंसाफी हो रही है।
दरअसल सदियां या हजारों बरस से महिलाओं को किसी भाषा में कोई जगह ही नहीं दी गई है। यह सिलसिला दुनिया के अधिकतर देशों के आजाद होने, वहां कानून या संविधान लागू हो जाने, महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और इक्कीसवीं सदी आ जाने के बाद भी जारी है। जब इंसान कहना हो, तो आदमी कहना काफी मान लिया जाता है। किसी का ध्यान दिलाएं, तो भी उनका यह मानना रहता है कि आदमी का मतलब तो आदमी और औरत दोनों ही होता है। एक किस्म से यह सोचना गलत इसलिए नहीं है कि हिन्दुस्तान जैसे देवियों वाले देशों में देवी पूजा के सैकड़ों या हजारों बरस बाद जो संविधान बना, और जो कानून बना, कानून की धाराएं बनीं, उनमें कहीं भी औरत के लिए अलग से संबोधन नहीं है। कानून भारतीय नागरिक के लिए अंग्रेजी का ‘ही’ शब्द इस्तेमाल करता है, और उसे पुल्लिंग की तरह ही लिखता है। भारत का नागरिक कहीं जाता है, खाता है, रहता है, न कि भारत की नागरिक कहीं जाती है, खाती है, या रहती है।
आदमी का जिक्र इस तरह से किया गया है कि मानो धरती पर पहले आदमी ही आया। शरीर विज्ञान यह कहता है कि औरत से मर्द ने जन्म लिया, न कि मर्द से औरत ने (जैसा कि अभी हाल के बरसों में चिकित्सा वैज्ञानिकों ने जरूर कर दिखाया है)। नतीजा यह हुआ कि मानव में स्त्री और पुरुष दोनों आ सकते थे, लेकिन पुरुष के भीतर स्त्री को मानो गिन ही लिया है।
भाषा की लैंगिक बेईमानी देखें, तो जंगल में कोई शेर नरभक्षी हो सकता है, आदमखोर हो सकता है, मैनईटर हो सकता है, और मानो वह हिंदी जुबान में नारीभक्षी नहीं हो सकता, उर्दू में औरतखोर नहीं हो सकता, और अंग्रेजी में वुमैनईटर नहीं हो सकता। हालांकि जानवरों का जेंडर-इंसाफ इंसानों के मुकाबले बहुत बेहतर है, और वे आदमी और औरत को बिना भेदभाव निशाना बनाते हैं। खुद जानवरों की, पशु-पक्षियों की बिरादरी को देखें तो वहां आमतौर पर मादा को रिझाने के लिए नर मेहनत करते हैं, उनके लिए तोहफे लेकर आते हैं, कुल मिलाकर वे इंसानों से बेहतर होते हैं।
भाषा को अनायास ही नहीं गढ़ लिया गया। जिस भाषा के व्याकरण की एक-एक बारीकी को लेकर ज्ञानी लोगों ने बड़ी मेहनत की, और फिर जिसे समाज पर इस तरह लादा गया कि कम पढ़े-लिखे लोग हमेशा ही भाषा की शुद्धता में कमजोर बने रहें, जिस भाषा को सामाजिक गैरबराबरी के लिए एक औजार की तरह ढाला गया, उस भाषा को हमेशा से ही औरत के खिलाफ भी बनाया गया। दूसरी भाषाओं के कहावत और मुहावरे तो मैं अधिक नहीं जानता, लेकिन भारत की हिंदी, और हिंदी की क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों की कहावतें देखें, मुहावरे देखें, तो वे औरतों के लिए एक बड़ी हिकारत से गढक़र बनाई गई हैं। औरतों की जिक्र वाली अधिकतर कहावतें उन्हें बुरी, अपशकुनी, बदचलन बताने वाली होती हैं। शायद ही कोई सकारात्मक बात औरतों के बारे में लिखी गई है, और यह भी तब है जब औपचारिक हिंदी शुरू होने के पहले से, उसके सैकड़ों बरस पहले से इस देश में देवी-पूजा होती आई है।
भाषा का सामाजिक अन्याय देखें तो उसके सुबूत पाना बड़ा आसान है। अंग्रेजी में मैन से शुरू होने वाले शब्द अगर ढूंढ़े जाएं, तो बड़ी संख्या में सामने आ जाएंगे। वुमन से शुरू होने वाले शब्द ढूंढ़ें तो गिने-चुने ही निकलेंगे। हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया के बाकी देशों में भी जहां अंग्रेजी में बोर्ड लगाए जाते हैं, वहां सडक़ बनाती हुई महिला मजदूरों के आसपास भी मैन एट वर्क के बोर्ड देखने मिल जाएंगे, महिला मजदूर का तो कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अंग्रेजी भाषा में महिलाओं के साथ बेइंसाफी को लेकर अधिक हैरानी नहीं होती। हिन्दुस्तान में आजादी के बाद से पहले चुनाव से ही महिलाओं को वोट देने का हक मिला, जो अंग्रेजी बोलने वाले कई बड़े-बड़े देशों में नहीं था। जहां सरकार चुनने के लिए महिलाओं को वोट देने का हक न हो, वहां की भाषा उनके साथ इंसाफ करे यह बात अटपटी होती।
जो अमेरिका अपने लोकतंत्र को ढाई सौ बरस से अधिक पुराना बताता है, उस लोकतंत्र में 1920 तक महिलाओं को वोट डालने का हक नहीं था। जो ब्रिटेन अपने आपको लोकतंत्र की जननी कहता है, उस लोकतंत्र में भी सैकड़ों बरस के संसदीय इतिहास के बाद जाकर 1918 और 1928 में दो कानून बनाकर महिलाओं को वोट का हक दिया गया था। अंग्रेजी भाषा तो इन दोनों ही देशों में इसके सैकड़ों बरस पहले से बन चुकी थी, इसलिए उसमें तो किसी इंसाफ की गुंजाइश थी नहीं।हम हिन्दुस्तान के कई महान लोगों को देख लें, जिनका अधिकतर लिखा और कहा किताबों में दर्ज भी है। वे सिर्फ आदमी, पुरूष, आता, जाता, खाता, की जुबान लिखते थे या हैं। आने वाली सदियों को लेकर उनकी महान सोच थी, वे सामाजिक न्याय की बात भी करते थे, लेकिन उनकी भाषा में नागरिक के रूप में, इंसान के रूप में औरत कहीं भी नहीं दिखती। ऐसे दूरदर्शी, ऐसे विचारक भी कुछ दशक बाद के नारीवादी-आंदोलन की कल्पना नहीं कर पाए थे, उसके मुद्दों की कल्पना नहीं कर पाए थे। सच तो यह है कि गांधी और अंबेडकर के रहते हुए ही इंग्लैंड और अमेरिका में महिला अधिकारों को लेकर बड़े-बड़े आंदोलनों का इतिहास बन चुका था, लेकिन ऐसे महान लोग भी भाषा की बेइंसाफी को या तो समझ नहीं पाए थे, या उसे समझकर भी जारी रखना उन्हें ठीक लगा था। पल भर के लिए याद करें कि गांधी के विशाल प्रभाव के दौर में जब भारत की संविधान सभा इस देश के लोकतंत्र की शब्दावली भी गढ़ रही थी, तब भी राष्ट्रपति, राज्यसभा के उपसभापति जैसे शब्द बनाते हुए उन्होंने इन ओहदों को क्या कभी किसी महिला के साथ सोचा था?
आज भी गांवों से लेकर शहरी फुटपाथ तक, और महानगरों में बहुत पढ़ी-लिखी महिलाओं तक, अगर गंदी गालियां देना तय करती हैं, तो उनकी सौ फीसदी गालियां ठीक महिलाओं पर वार करने वाली रहती हैं, जिस तरह कोई मर्द गालियां देता है। मर्द भी मां, बहन, और बेटी के नाम की गालियां देता है, और औरत भी गाली देने पर उतरती है, तो वह भी ये ही तमाम गालियां इस्तेमाल करती हैं। भाषा के सबसे हिंसक पहलू, गंदी गालियों के पीछे की लैंगिक राजनीति को ज्यादातर महिलाएं समझ नहीं पातीं।
हिन्दी के बड़े-बड़े दिग्गज लेखक, अखबारनवीस, या दूसरे माध्यमों के मीडियाकर्मी अपनी भाषा में औरत के अस्तित्व को समझ ही नहीं पाते। फिल्मी दुनिया में जहां कई अभिनेत्रियां लगातार महिलाओं के हक के लिए सार्वजनिक रूप से लड़ती हैं, उन्होंने कभी इस बात का विरोध नहीं किया कि फिल्मी दुनिया में मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान किस तरह एक्ट्रेस शब्द को खो चुके हैं, और अब वे एक्टर तबके के भीतर ही गिनी जा रही हैं। अभी कुछ बरस पहले तक तो फिल्मी पुरस्कारों में अभिनेता और अभिनेत्री, एक्टर-एक्ट्रेस जैसे तबके होते थे, जो कि अब खोकर महज एक्टर-मेल, और एक्टर-फीमेल हो गए हैं। एक्ट्रेस शब्द कहां गया, किसी को पता नहीं।
भाषा की इस इंसाफी की कहानी अंतहीन है, महिलाओं के साथ यह बेइंसाफी उसी किस्म की है जिस किस्म की बेइंसाफी भाषा में गरीबों के लिए, पति खो चुकी महिलाओं के लिए, बीमारों और गरीबों के लिए, जानवरों के लिए, बूढ़ों के लिए रहती है। भाषा की इस राजनीति का विरोध करने की जरूरत है। जिस किसी को लिखने और बोलने में जहां इंसान के लिए मर्द का इस्तेमाल दिखे, वहां जागरूक लोगों को उसके बारे में तुरंत ही लिखना चाहिए, फिर चाहे बहस के मुद्दा कुछ भी हों, बोलने के मुद्दा कुछ भी हों। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को दूसरों के लिखे एक-एक शब्द पर रोकने-टोकने की सहूलियत हासिल है, और उसका इस्तेमाल करना चाहिए। (hindi.news18)
मुश्किल वक्त है, कसकर हाथ पकडक़र चलना है! एक-दूसरे के लिए जीना है, एक-दूसरे के साथ जीना है।
उसने कहा, अगर तुम्हारा फोन नहीं आता तो संभव है, हम इस जन्म में फिर बात न कर पाते। वह जीवन समाप्त करने की तैयारी कर रहा था! मुझे उसको लेकर कुछ बेचैनी हो रही थी, अजीब-सी घबराहट। मेरा टेलीपैथी में बड़ा यकीन है! कई दिन से बार-बार फोन करने के बाद भी उससे बात नहीं हो पा रही थी। किसी तरह बुधवार की रात बात हुई, तो देर रात तक चलती रही। मेरा एक दोस्त, सखा, सुख-दुख का गवाह मुश्किल लड़ाई में है। कोरोना ने उसे मुश्किल वक्त में डाल दिया है। सबकुछ ठीक होने के दावे के बीच अंधकार की खाई में पहुंच गया है। हमने मिलकर उम्मीद के रास्ते पर चलना शुरू किया है। यह सब बहुत निजी है उसके बाद भी इसलिए लिख रहा हूं ताकि हम सब यह समझ पाएं कि खतरा कितना बढ़ गया है।
आप सभी से मेरी दिल की गहराइयों से गुजारिश है कि अपनों से निरंतर बात करें। बार-बार संवाद करें। उन्हें कुछ समझाने की जगह केवल उनको सुनने की कोशिश करें। बहुत सीमित क्षमता, संसाधन के साथ मैं यही कोशिश कर रहा हूं। आप सबके साथ के लिए बहुत शुक्रिया! ‘जीवन संवाद’ की पूरी यात्रा इस साथ पर ही टिकी है। अपने हर उस व्यक्ति से गहरे संपर्क में रहिए, जिसके साथ आप जीना चाहते हैं! हम जीते हुए कई बार यह भूल जाते हैं कि एक-दूसरे से संपर्क सामान्य परिस्थितियों में भी रखना है, जिससे सबकुछ बिखरने से पहले खुद को बचाया जा सके!
ऊपर जो कुछ आपने पढ़ा है, उसे लिखते हुए ‘जीवन संवाद’ के 800 से अधिक अंको में से आज मुझे सबसे अधिक संतोष की अनुभूति हो रही है। इसके पहले भी अनेक पाठकों ने मुझे बताया कि इस कॉलम ने उनके जीवन को बचाने में मदद की है, लेकिन कल रात का अनुभव इस मायने में मेरे लिए नया था कि किसी ने मुझसे सीधे-सीधे स्वीकार किया कि वह अपना जीवन समाप्त करने ही जा रहा था। उसके बाद लगभग घंटे-घंटे की बातचीत।
जीवन की आस्था से जुड़ी कहानियों की लंबी चर्चा, सुख-दुख की व्याख्या के बीच अपने मित्र को जीने के लिए राजी करना मेरे लिए सबसे कठिन चुनौती थी। ठीक वैसे ही जैसे डॉक्टर के लिए अपने निकट संबंधी का जटिल ऑपरेशन करने का निर्णय लेना।
‘जीवन संवाद’ के सफर में आप सबकी ओर से मिले विश्वास, प्रेम ने मुझे जीवन के प्रति जो नजरिया दिया है, उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं! फिलहाल यही कहना चाहूंगाा कि फूल को अकेले ही खिलना होता है, लेकिन उसकी खुशबू सबको मिलती है। जीवन में संघर्ष का सामना भी कुछ इसी तरह करना चाहिए। फूल की तरह हमें खुद को शक्ति से भरने का हुनर सीखना होगा! मुश्किल वक्त है, कसकर हाथ पकडक़र चलना है! एक-दूसरे के लिए जीना है, एक दूसरे के साथ जीना है। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
संकट की इस घड़ी में हम मीडिया के लोग अपने ही आईनों में अपने ही हर घड़ी बदलते नक़ली चेहरों को देख रहे हैं. किसी क्षण अपनी उपलब्धियों पर तालियाँ ठोकते हैं और अगले ही पल छातियाँ पीटते नज़र आते हैं ! इस पर अब कोई विवाद नहीं रहा है कि मीडिया चाहे तो देश को अनचाहे युद्ध के लिए तैयार कर सकता है या फिर किसी समुदाय विशेष के प्रति प्रायोजित तरीक़े से नफ़रत भी फ़ेला सकता है. किसी अपराधी को स्वच्छ छवि के साथ प्रस्तुत कर सकता है और निरपराधियों को मुजरिम बनवा सकता है.
मीडिया की इस विशेषज्ञता को लेकर विदेशों में किताबें/उपन्यास लिखे जा चुके हैं जिनमें बताया गया है कि प्रतिस्पर्धियों से मुक़ाबले के लिए बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों के द्वारा किस तरह से अपराध की घटनाएँ स्वयं के द्वारा प्रायोजित कर उन्हें अपनी एक्सक्लूसिव ख़बरों के तौर पर पेश किया जाता है. ताज़ा संदर्भ एक फ़िल्मी नायक की मौत को लेकर है. चैनलों के कुछ दस्ते युद्ध जैसी तैयारी के साथ नायक की महिला मित्र और कथित प्रेमिका को मौत के पीछे की मुख्य खलनायिका घोषित करने का तय करके सुबूत जुटाने लगते हैं. कोई ढाई महीनों तक वे इस काम में लगे रहते हैं. अपनी समूची पत्रकारिता की ईमानदारी को दाव पर लगा देते हैं. देश के चौबीस करोड़ दर्शक उनके कहे पर यक़ीन करने लगते हैं. अचानक से उन्हीं चैनलों में किन्हीं एक-दो के ‘अबतक’ मौन चेहरों का ज़मीर जागता है या जगवाया जाता है और एक झटके में ‘खलनायिका’ ही ‘विक्टिम’ घोषित हो जाती है. करोड़ों दर्शक अपने सिर पीटने लगते हैं और कुछ आत्मग्लानि से कपड़े भी फाड़ने लगते हैं.
मीडिया वही है पर घटनाक्रम के क्लायमेक्स पर पहुँचने के ठीक पहले वह अब दोनों तरफ़ की एक्सक्लूसिव ख़बरें परोसेगा और दोनों ही पक्षों की सहानुभूति भी बटोरेगा.दर्शक कभी समझ ही नहीं पाएगा कि मीडिया उसके ही द्वारा बिना किसी मुक़दमे के आरोपी और खलनायिका घोषित की जा चुकी और अब ‘विक्टिम’ स्थापित की जा रही महिला की विश्वसनीयता के लिए काम कर रहा है या स्वयं की विश्वसनीयता को बचाने में जुट गया है. दर्शक यह भी समझ नहीं पाएँगे कि इनमें अपने पेशे के प्रति ईमानदार कौन हैं और कौन बेईमान ?आरुषि हत्याकांड के मीडिया कवरेज को याद किया जा सकता है. मीडिया की असली ताक़त को तो जो सत्ता में रहता है वही समझ सकता है.
पीपल उगने के बाद धीरे-धीरे अधिक जगह घेरेगा ही। वह नीम नहीं है। वह पीपल है। सबका अपना स्वभाव है। इतने सारे देशज पेड़-पौधों से घिरा रहने वाला समाज भी मनुष्यों के बारे में एकदम प्रकृति-विरोधी तरीके से विचार करता है।
छोटी-सी कहानी से संवाद आरंभ करते हैं। महात्मा बुद्ध का बहुत सुंदर प्रसंग है। संन्यास के कई वर्ष बाद बुद्ध पिता से मिलने राजमहल गए। तब तक दुनिया बुद्ध के ज्ञान से परिचित हो चुकी थी। लाखों लोग उनके उपदेशों से प्रभावित थे। अहिंसा, करुणा, दया पर हर कोई उनकी बात सुनने को तत्पर था। पिता ने उनको गले लगाते हुए कहा, ‘मुझे पता था तुम जरूर लौट आओगे। तुमने हमें बहुत परेशान किया, फिर भी मुझे खुशी है कि तुम लौट आए।’ महात्मा बुद्ध के पिता राजा थे। जब वह संन्यासी बुद्ध से बात कर रहे थे, तब भी वह राजा ही बने रहे। वह पिता नहीं बन पाए।
बुद्ध ने उन्हें समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘मैं अब महल से बहुत दूर चला गया हूं। मैं आपकी इस दुनिया के योग्य नहीं हूं।’ पिता ने नाराज होते हुए कहा, ‘मैं तुम्हें बचपन से जानता हूं। तुम हमेशा से ही जिद्दी हो। मैं तुम्हारी बातों और यहां से जाने को लेकर सारे अपराध क्षमा कर सकता हूं। तुम इधर-उधर की बात मत करो, बस लौट आओ। मैं तुम्हारा पिता हूं। तुमसे बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।’
बुद्ध ने उनसे बहस नहीं की। अनुमति लेकर हमेशा के लिए महल से दूर अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए। दूसरी ओर हम कितना अधिक एक-दूसरे को जानने का दावा करते हैं! जबकि अभी तक तय नहीं है कि हम स्वयं को भी जानते हैं कि नहीं! दूसरे को जानने का अहंकार हमारे अंदर बहुत गहरे उतर गया है। इसकी पहचान से ही हम भीतर की ओर आगे बढ़ पाएंगे! यह केवल बुद्ध की बात नहीं। हम एक-दूसरे को जीवनभर नहीं समझ पाते। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि समझने की कोशिश नहीं करते। हां, अभिमान जरूर करते हैं सबको समझने का।
इसके साथ ही एक दूसरी यात्रा पर मैं आपको ले जाना चाहता हूं। जहां इसे न समझने का कारण है। यह कारण है- बीज और फूल का।
जब किसी व्यक्ति को हम एकदम जन्म से देख रहे होते हैं, तो हमेशा ही उसके बारे में पूर्वानुमान से भर जाते हैं। जैसे ही वह हमारे अनुमानों की उल्टी दिशा में जाना शुरू करता है, हम घबराने लगते हैं, क्योंकि हमने उसे बीज रूप से (बचपन से/बहुत पहले से) देखा हुआ है। अगर वह हमारे अनुमान की दिशा में जा रहा है, तो वह ठीक दिशा में जा रहा है। अगर उससे जरा भी दाएं-बाएं होता है, तो हम घोषणा करने लगते हैं कि वह गलत दिशा में दौड़ रहा है।
जबकि ऐसा होने की उम्मीद कहीं अधिक होती है, अगर उस बीज में विराट वृक्ष होने की संभावना हो। पीपल उगने के बाद धीरे धीरे अधिक जगह घेरेगा ही। वह नीम नहीं है। वह पीपल है। सबका अपना स्वभाव है। इतने सारे देशज पेड़-पौधों से घिरा रहने वाला समाज भी मनुष्यों के बारे में एकदम प्रकृति-विरोधी तरीके से विचार करता है।
बुद्ध के पिता ने जो उनसे कहा, हम सबके पिता/परिवार और शिक्षक यही तो दोहराते रहते हैं। हम तुम्हें जानते हैं, तुम यह काम नहीं कर पाओगे। संसार में जो भी नवीन काम हुए, जो भी लोग अपने जीवन के असली अर्थ को उपलब्ध हुए, इन विचारों से दूर रहकर ही हुए। अपने निर्णय पर डिगे रहने के कारण हुए। इसलिए जब लोग यह कहकर रास्ता रोकने लगें कि यह तुम्हारे बस में नहीं, तो बहुत जरूरी है कि उस पर दो बार और सोचा जाए!
स्थितियों का विवेकपूर्ण आंकलन जरूरी काम है, लेकिन इससे भी जरूरी है हमेशा यह याद रखना कि अगर हमारा रास्ता आसान है, तो मुश्किल भी छोटी होगी। अगर मुश्किलें बड़ी हैं, तो ही लक्ष्य के बड़ा होने की संभावना है!
इसलिए जब भी कोई नया रास्ता चुनने का समय आए, तो ऐसे लोगों के पास अपने प्रश्न लेकर जाइए, जो आपसे सचमुच में परिचित हों। केवल आपके जन्म और बड़े होने की प्रक्रिया से नहीं!
शुभकामना सहित...
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
अक्सर मैं विज्ञापनों पर नजर नहीं डालता, पत्नी ने ‘ज्योतिष’ के नाम पर छपे विज्ञापनों की ओर ध्यान दिलाया, जिनका दरअसल ‘ज्योतिष’ से भी कोई संबंध नहीं है। ये तथाकथित तांत्रिकों के विज्ञापन हैं, जिनकी संख्या यहाँ कम नहीं, 37 है। ये दिलचस्प विज्ञापन हैं। ऐसे ही घर आए एक पर्चे के बारे में पहले लिखा जा चुका है।अगर कोई वैज्ञानिक- तार्किक सोच का व्यक्ति है, तो उसका इन विज्ञापनों को पढक़र मनोरंजन होगा।
सबसे पहले इस बात ने मुझे आकर्षित किया कि उन्होंने वशीकरण, मुठकरनी, लव मैरिज, गृह क्लेश, मनचाही शादी, प्यार में धोखा, दुश्मन से छुटकारा, गड़ा धन निकालने, सौतन की समस्या आदि-आदि ऐसी तमाम समस्याओं का हल ‘तत्काल’ करने का वायदा किया है। किसी ने तो केवल तीन घंटे का समय माँँगा है, किसी ने दो ही घंटे का और किसी ने तो एक घंटे का और एक ने तो महज एक मिनट का समय मांगा है। ‘तत्काल सेवा’ के ये कुछ अनुपम उदाहरण हैंं। कंप्यूटर से भी किसी विषय पर सामग्री सर्च करना हो तो इससे अधिक समय लग जाता है। इनमें से कुछ तो कंप्यूटर से भी तेज हैंं! कुछ का अनुभव कहता है कि एक घंटा, दो घंटे, तीन घंटे का समय देना चाहिए ताकि अपने बैंक अकाउंट में पैसा आ जाए या नकद मिल जाए, तभी समाधान बताएं। इससे यह असर भी पड़ता है कि तांत्रिक महाराज सोच- समझकर, तंत्र क्रिया करके, समस्या को गंभीरता से लेते हुए समाधान देते हैं। वे उन चालू तांत्रिकों में से नहीं हैंं, जो एक मिनट या पाँच मिनट में समाधान पकड़ा देते हैं। एक मिनट या पाँच मिनट वालों का भी बाजार है और घंटे,दो घंटे या तीन घंटे वालों का भी मार्केट है।
एक और दिलचस्प बात यह है कि कुछ तो 102त्न या 101त्न समाधान का दावा करते हैं लेकिन कोई- कोई तो 1000त्न का । एक महागुरु गंगाराम का दावा तो एक लाख प्रतिशत गारंटीड समाधान का है। मेरा गणित अच्छा नहीं है और मैंने कभी सुना भी नहीं पहले की समस्या का हजार फीसदी या एक लाख प्रतिशत समाधान क्या होता है। 100त्न तो समझ में आ जाता है, 101त्न कहने का भी रिवाज है यानी उम्मीद से कुछ ज्यादा ही अच्छा समाधान लेकिन यह दस हजार या एक लाख प्रतिशत ‘गारंटीड समाधान’ क्या होता है, समझने में नाकामयाब हूूँ क्योंकि समाधान की यह ‘गारंटीड तकनीक’ और इसका गणित बिल्कुल नया है।
बहुत से तांत्रिक समस्या के ‘फ्री समाधान’ का दावा करते हैं, कुछ काम के बाद फीस लेते हैं। कुछ अपनी फीस पहले बता देते हैं। कोई 501 रुपये लेता है, कोई 1050 रुपये, कोई 650 रुपये, कोई 551 रुपये।
501 से 1050 रुपये तक की फीस का भी और फ्री में मिलने वाले समाधान का भी अपना आकर्षण है। सामान्य ढंग से सोचने की बात है कि कोई व्यक्ति एक हजार या पाँच हजार या अधिक रुपये देकर विज्ञापन छपवा रहा है , तो मुफ्त समाधान क्या देता होगा! यह ‘ग्राहक’ को फँसाने का एक तरीका है।तय फीस में उसी किस्म की सुरक्षा है, जो दुकान में ‘एक दाम’ के बोर्ड लगे होने से मिलती है। ‘गारंटीड समाधान’ का वायदा तो हर तथाकथित तांत्रिक देता है। कोई-कोई ‘ओपन चैलेंज’ भी देते हैं, जैसे एक ‘विश्व प्रसिद्ध’ सीताराम जी ने दिया है। दुकानदार दुकान पर लिख कर रखता है -‘फैशन के इस युग में माल की गारंटी नहीं’ लेकिन यह तो साहब ‘खुला चैलेंज’ देते हैं। ‘विश्व प्रसिद्ध’ की बीमारी भी हम लोगों को लगी हुई है। यह पता नहीं कौन सा ‘विश्व’ है और वहां कौन सी और किस बात की इनकी ‘प्रसिद्धि’ है।
एक शर्मा जी 15 बार ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ हैंं और एक पंडित विशाल ‘सेवन टाइम गोल्ड मेडलिस्ट’ हैं। य ह सात और पंद्रह बार वाले ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ किस बात के ‘गोल्ड मेडलिस्ट’हैंं, खुद ही जानेंं। क्या पता ‘तंत्र विद्या’ का भी अपना कोई ‘तंत्र’ हो, जो मेडल बाँटता हो या विशुद्ध से भी विशुद्ध से भी ‘परिशुद्ध’ मेडल देता हो।वैसे यह धंधा किस तरह झूठ और धोखेबाजी पर आधारित है, इसका पता इसी अखबार में छपे दो विज्ञापन देते हैं।
एक पंडित दुर्गा प्रसाद का विज्ञापन कहता है- ‘शब्दों के जाल में न फँसेंं।’ एक तांत्रिक ‘उस्ताद मोइन जी सम्राट’ के विज्ञापन की शुरुआत ऐसे होती है-’ ‘तांत्रिक बाबाओं के रूप में बैठे हैं शैतान, फिर कैसे होंगे काम।’ अब ये चेतावनी देनेवाले खुद क्या होंगे, क्या नहीं,कौन जाने लेकिन ये विज्ञापन यह तो बता ही देते हैं कि शब्द जाल बिछाकर शैतानी हरकत करने वाले बहुत हैं बल्कि यह पूरा धंधा ही इस पर निर्भर है। वैसे खुद अखबार वाले विज्ञापन के अंत में अंग्रेजी में सूचना देते हैं कि ये वर्गीकृत विज्ञापन तथ्यों में जाए बगैर प्रकाशित किए जाते हैं और इनके दावों के लिए अखबार जिम्मेदार नहीं है। (23 दिसंबर, 2014 को लिखित)
(हाल ही में अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित ‘एक नास्तिक का धार्मिक रोजनामचा’ से।)
निर्णय में मतभेद को मनभेद बना लेने से जीवन सरल नहीं होता, बल्कि उलझता जाता है। मन को इस उलझन से बचाना है।
रिश्तों में इन दिनों बढ़ती दरार, दूरी का कारण केवल इंटरनेट, स्मार्टफोन और समय की कमी नहीं है। जब यह तीनों नहीं थे तो इनकी जगह कुछ दूसरी चीजें थीं। हां, इतना जरूर हुआ है कि पहले गुस्सा फेंकना इतना सहज नहीं था। जितना इनके कारण आज हो गया। नाराजगी की पहली परत मन में बनती नहीं कि हम दूसरे की ओर गुस्सा फेंकना शुरू कर देते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुछ क्षण/दिन पहले तक सबकुछ ठीक ही था। रिश्तों में बढ़ती दूरियों का कारण अपने को पूरी तरह सही मान लेना और दूसरे को हर हाल में गलत मानते रहना है, जबकि कभी ऐसा भी हो सकता है कि आप तो पूरी तरह सही हों, लेकिन दूसरा गलत न हो।
फैसले लेने की प्रक्रिया में असहमति को हम अक्सर ही नाराजगी मान लेते हैं, जबकि यह बिल्कुल व्यावहारिक नहीं है। लेकिन दूसरों को सलाह देते समय हमारे मन में कहीं न कहीं यह बात तैरती रहती है कि जो हमने उससेे कहा, वह उसके अनुकूल आचरण करे। अगर वह किसी कारण से ऐसा न कर पाए तो हम पूरी जिंदगी यही मानकर चलते हैं कि उसने ठीक नहीं किया, जबकि उसने केवल अपना निर्णय लिया था। निर्णय में मतभेद को मनभेद बना लेने से जीवन सरल नहीं होता, बल्कि उलझता जाता है। मन को इस उलझन से बचाना है।
इसका एक सहज सूत्र है। अपनी स्वतंत्रता को स्वीकार करना और दूसरे की स्वतंत्रता को अपनी मंजूरी देना। हम मानकर चलते हैं कि दूसरों के जीवन के निर्णय सब हमें ही करने हैं। पहलेे माता-पिता बच्चों की पढ़ाई सेे लेकर उनके विवाह तक के निर्णय में अपने अधिकारों का पूरा ‘इस्तेमाल’ करतेे हैं। उसके बाद जब वह जीवन के अंतिम चरण की ओर बढ़ते हैं, तो वह अपने ही बच्चों द्वारा सबसे अधिक उपेक्षित होते हैं। अपनी उपेक्षा को वह बहुत अधिक महत्व देते हैं, लेकिन उस व्यवहार की ओर उनका ध्यान नहीं जाता, जो उन्होंने अपने ही परिजनों के साथ किया था!
अपने एक परिचित परिवार की छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं।
पिता बहुत अधिक अनुशासन प्रिय थे और उन्होंने अपने इकलौतेे बेटे को एक भी निर्णय जीवन में नहींं लेने दिया। हमेशा सारे निर्णय वही करते रहे, क्योंकि उनका मानना था कि बेटे के लिए वही सबसे अच्छे निर्णय कर सकते हैं।
लेकिन जैसे ही बेटे की पढ़ाई पूरी हुई। बाहरी दुनिया से उसका परिचय हुआ। उसने धीरेे-धीरे महसूस किया कि उसकी दुनिया अपने निर्णय से बननी चाहिए। उसने अपने माता-पिता के साथ वही व्यवहार शुरू कर दिया, जो माता-पिता उसके साथ करतेे आए। उसने न केवल अपनी मर्जी से करियर की राह चुनी, बल्कि अपने जीवनसाथी के चयन मेंं भी माता- पिता के पारंपरिक विचार से हटकर अपने विचार को प्राथमिकता दी।
पहले बेटे को लगता क्यों उसके साथ गलत हो रहा है। अब माता-पिता को लग रहा है कि बेटा गलत कर रहा है। हम जीवन में स्वतंत्रता के मूल विचार से जैसेे-जैसे दूर होते जाते हैं जीवन के सौंदर्य से दूर निकलते जाते हैं। इसलिए बहुत जरूरी है कि हम इस बात को समझें कि जीवन के अलग-अलग समय में विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते समय दूसरे को ‘जगह’ देना बहुत जरूरी है। सबसे अधिक जरूरी। इससे जीवन में प्रेम रूपी ऑक्सीजन की संतुलित मात्रा बनी रहती है।
अगली बार किसी को गलत साबित करने से पहले यह जरूर सोचिएगा कि कुछ गलती तो आपकी भी है! जीवन इतना भी मुश्किल नहीं कि अपने किए गए फैसले पर पुनर्विचार न किया जा सके। गलती स्वीकार करने, दूसरों केे लिए हृदय बड़ा रखने से जीवन में केवल प्रेम ही बढ़ता है। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
जीवन, अपने मूल्यों को समझिए। तुलना के मोह से बाहर आइए। अपने मन की सुगंध को महसूस कीजिए। अपने सपनों की कीमत पर जीवन को गिरवी मत रखिए।
दुनिया में युद्ध का इतिहास पुराना है। हम जब शांति में भी रहते हैं, तो युद्ध की तैयारी करते हैं। सजगता से देखने पर पता चलेगा कि दुनिया शांति में कम, युद्ध और युद्ध की तैयारी में अधिक रहती है। मानसिक रूप से हम युद्ध के इतने समर्थक हो चले हैं कि हमेशा जंग के लिए तैयार रहते हैं। मन के युद्ध कभी थमते ही नहीं। राजनीति के क्षेत्र दूसरे हैं और जीवन के दूसरे। लेकिन उदारीकरण के नाम पर दुनिया में जो कुछ रचा जा रहा है, उसका सबसे अधिक नुकसान अगर किसी को हुआ है, तो वह मनुष्य का मन है।
शांत, सुंदर, सुकून वाले मन में इतनी चिंता थोपी जा रही है कि मन का स्वभाव ही बदलता जा रहा है। हम करीब-करीब नींद में चल रहे हैं! जीवन के छोर हमारे वश में नहीं। हमारे नाम पर कोई दूसरा फैसले कर रहा है! दूसरों से होड़, मुकाबला, आगे निकलने की आकांक्षा ने जीवन का सारा रस छीन लिया। इसमें कुछ भी गलत नहीं था, अगर इसमें जीवन का रस बाकी रहता। जब हम कहते हैं कि हम तालाब का पानी बचाने के लिए उसकी खुदाई कर रहे हैं, तो हमें इस बात का ध्यान रखना ही होता है कि खुदाई करते हुए हम कहीं तालाब के तटबंधों को ही नुकसान न पहुंचा दें। यही बात जीवन पर भी लागू होती है! कहीं पहुंचने, जल्दी पहुंचने के फेर में सबकुछ छूटता जा रहा है। हमारी जरूरत का तो इंतजाम हो सकता है, लेकिन दुनिया में कोई ऐसा अलादीन का चिराग नहीं, जो हमारे लालच को पूरा कर सके।
एक छोटा-सा किस्सा आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात सरलता से आप तक पहुंच सके।
एक राजा के दरबार में बड़ी विचित्र घटना घटी। राजमहल के बाहर मीलों तक पांव रखने की जगह न थी। एक फकीर आया था दरबार में। राजा के लिए उसको संतुष्ट करना कोई बड़ी बात न थी। लेकिन उसने एक शर्त रखी। उसके पास खोपड़ी का कंकाल था। उसे ही उसने अपना भिक्षापात्र बना लिया था। फकीर ने राजा से कहा, ‘मैं उससे ही भिक्षा लेता हूं जो मेरे भिक्षापात्र को पूरा भर सके।’
राजा हंसा। राजा हंसते ही हैं जब कोई उनके वैभव को चुनौती दे! राजा ने कहा, ‘तुम्हें लगता है, मेरे पास इतना वैभव भी नहीं कि तुम्हारी यह टूटी खोपड़ी न भर सकूं।’ उसने अपने वजीर से कहा, ‘इसे हीरे-जवाहरात से भर दो!’ जैसे-जैसे वजीर हीरे और बहुमूल्य वस्तुएं खोपड़ी में भरते गए, राजा की हंसी डूबती गई। फकीर हंसता ही रहा। सुबह से शाम होने को आई, लेकिन खोपड़ी पूरी न भर पाई!
राजा फकीर के चरणों में गिर पड़ा! उसने कहा, ‘मुझे क्षमा करें। मैं आपको पहचान न सका। आपको देने योग्य मेरे पास कुछ नहीं।’ फक़ीर ने कहा, ‘तुम अभी भी नहीं पहचान रहे। इस खोपड़ी को भरने का प्रश्न है, जो खोपड़ी तुम्हारे शरीर पर है उसे रिक्त करो। उसमें से अहंकार, लालच और अपने कुछ होने के दंभ को निकाल बाहर फेंको।’
उस फकीर के भिक्षापात्र का पता नहीं। राजा उसे भर पाया कि नहीं। लेकिन हमारा अपना दिमाग भी ठीक उसके जैसा है। लाख जतन कर लीजिए वह भरता नहीं। वह तब तक नहीं भरेगा, जब तक हम राजा की तरह व्यवहार करना बंद नहीं करेंगे। दूसरों से तुलना बंद कीजिए। जीवन, अपने मूल्यों को समझिए। तुलना के मोह से बाहर आइए। अपने मन की सुगंध को महसूस कीजिए। अपने सपनों की कीमत पर जीवन को गिरवी मत रखिए। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
प्रशांत भूषण को अगर कोई सजा मिलती है तो उसका स्वागत किया जाए या नहीं ? उन्हें जिस अवमानना का दोषी पाया गया है उसमें अधिकतम छह माह की क़ैद या जुर्माना या दोनों की सजा दी जा सकती है। यहाँ विषय क़ैद की अवधि अथवा जुर्माने की राशि का नहीं बल्कि अवमानना के मामले में किसी भी छोटी या बड़ी सजा के इतिहास में दर्ज होने और उस पर देश और दुनिया के नागरिकों की ओर से होने वाली प्रतिक्रिया का है। प्रशांत भूषण को सर्वोच्च न्यायालय ने विचार करने के लिए जो दो-तीन दिन का समय दिया था वह रविवार रात को समाप्त हो जाएगा। प्रशांत भूषण को अपने किए के प्रति न तो किसी प्रकार का पश्चाताप है और न ही सजा को लेकर वे किसी भी तरह के दया भाव की अपेक्षा कर रहे हैं। सवाल अब यह है कि नागरिकों की इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया है या होनी चाहिए?
देश के स्वतंत्रता दिवस के ठीक एक दिन पहले यानि कि चौदह अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय की तीन-सदस्यीय खंडपीठ द्वारा भूषण को उनके दो ट्वीट्स के लिए अवमानना का दोषी ठहराए जाने के बाद सजा का वे तमाम नागरिक निश्चित ही स्वागत करना चाहेंगे, जो न्यायपालिका की गरिमा को हर क़ीमत पर बनाए रखने के पक्षधर हैं, और उनके साथ वे लोग भी जो अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण भूषण जैसे लोगों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं। इनमें दोनों ही प्रमुख दलों के लोग भी शामिल माने जा सकते हैं। इन लोगों का मानना हो सकता है कि सजा के बाद न्यायपालिका जैसी संस्थाओं के प्रति अवमाननाओं के ‘दुस्साहस’ की घटनाओं में कमी आ जाएगी।
दूसरी ओर, इस बात में कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि वे तमाम नागरिक भी, जो संख्या में कम होते हुए भी भूषण जैसे गिने-चुने लोगों के समय-समय पर व्यक्त होने वाले अप्रतिम ‘साहस’ और विचारों के साथ आत्मीय भाव से जुड़े हुए हैं, अगर यही चाहते हों कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए अहिंसक संघर्ष में लगे इस व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सजा एक पुरस्कार मानकर सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए। पर इस दूसरी तरह की ‘अल्पसंख्यक ‘जमात के इस तरह की कामना करने के कारण पहली तरह के नागरिकों से सर्वथा भिन्न हैं।
ये दूसरी तरह के नागरिक या तो संख्या में अब बहुत ही कम बचे हैं या फिर उन लोगों के ही वैचारिक उत्तराधिकारी हैं जो 25 जून 1975 की शाम दिल्ली के ऐतिहासिक राम लीला मैदान में उपस्थित थे और तिहत्तर-वर्षीय जयप्रकाश नारायण को उसी आवाज में बोलता हुआ सुन रहे थे जो वर्ष 1922 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कंठ से उपजी थी। जे पी के साथ तब मंच पर मोरारजी देसाई के अलावा नानाजी देशमुख, मदन लाल खुराना और अन्य कई राष्ट्रीय नेता उपस्थित थे। इन सब लोगों को तब कोई अनुमान नहीं था कि कुछ ही घंटों के बाद और रात के ख़त्म होने के पहले देश की तकदीर बदलने वाली है।
जयप्रकाश नारायण तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ए एन रे से अपील कर रहे थे कि उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ़ इंदिरा गांधी की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई नहीं करना चाहिए।’ वे ऐसा इसलिए नहीं कह रहे हैं कि उनकी निष्पक्षता के प्रति कोई अविश्वास है बल्कि इसलिए कि सरकार द्वारा अन्य तीन जजों की वरीयता को लांघकर उनका उक्त पद के लिए चयन किया गया है। अत: लोगों के मन में शंकाएँ उत्पन्न हो सकतीं हैं।’ जे पी ने अस्सी मिनट के इसी उद्बोधन में अपने उस कथन को भी दोहराया कि पुलिस, सेना के जवानों और सरकारी सेवकों को सरकार के ‘अवैध और अनैतिक’ आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए। राम लीला मैदान पर उपस्थित हुए इस क्षण का साक्षी बनना किसी के लिए भी गौरव की बात हो सकती थी।मेरे लिए भी थी।
अपने ‘यंग इंडिया‘अख़बार में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ आलेख प्रकाशित करने के आरोप में मार्च 1922 में तब केवल तिरपन-वर्षीय महात्मा गांधी को अहमदाबाद स्थित उनके साबरमती आश्रम से गिरफ़्तार कर लिया गया था।उन पर आरोप लगाया गया कि वे क़ानून के द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ़ घृणा उत्पन्न करने अथवा अवमानना या असंतोष फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को स्वीकार करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि वे अदालत से दया की प्रार्थना नहीं करना चाहते हैं। वे किसी कम कठोर सजा की माँग भी नहीं करते हैं। वे यहाँ जो भी कठोरतम दंड हो सकता है उसे प्रसन्नतापूर्वक अपने उस कार्य के परिणामस्वरूप स्वीकार करने के लिए उपस्थित हैं जिसे क़ानून जान बूझकर किया गया अपराध मानता है और वे किसी भी नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य समझते हैं। (64 वर्षीय प्रशांत भूषण ने भी अपने उत्तर में ऐसा ही कुछ उद्धृत किया है।)
अंग्रेज जज सी एन बू्रफफि़ल्ड ने तब गांधीजी को छह वर्षों के कारावास की सजा तो दी थी पर साथ ही यह भी जोड़ा था कि भारत में कभी घटनाचक्र इस तरह से बने और सरकार के लिए ऐसा सम्भव हो कि सजा की अवधि को कम करके आपको रिहा किया जा सके तो ‘मेरे से अधिक कोई और व्यक्ति प्रसन्न नहीं होगा।’
मानहानि के कारण आहत भावनाओं को लेकर सजा के समर्थक नागरिकों से भिन्न जो तबका है वह जानता है कि प्रशांत भूषण का वास्तविक इरादा उस संविधानिक संस्था की अवमानना का क़तई हो ही नहीं सकता जिसकी वाणी के साथ करोड़ों मूक लोगों का भविष्य बंधा हुआ है। उनका क्षोभ तो उन निहित स्वार्थों के प्रति है जो समस्त प्रजातांत्रिक संस्थानों के चेहरों को एक विशेष कि़स्म की वैचारिक व्यवस्था और राष्ट्रवाद की परतों से ढाँकना चाहते हैं। प्रशांत भूषण द्वारा स्वीकार की जाने वाली सजा लोगों के मन से सविनय प्रतिकार के फलस्वरूप प्राप्त हो सकने वाले दंडात्मक पुरस्कार के प्रति भय को ही कम करेगी।जैसे महामारी पर नियंत्रण के लिए उसके संक्रमण की चैन को तोडऩा जरूरी हो गया है उसी प्रकार लोकतंत्र पर बढ़ते प्रहारों को रोकने के लिए नागरिकों के मौन की लगातार लम्बी होती शृंखला को तोडऩा भी आवश्यक हो गया है। अत: इस कठिन समय में प्रशांत भूषण की उपस्थिति का एक आवश्यक उपलब्धि के रूप में स्वागत किया जाना चाहिए।
कुछ होगा
कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा
न टूटे तिलिस्म सत्ता का
मेरे अंदर एक कायर टूटेगा
-रघुवीर सहाय
-विष्णु नागर
बिहार और पश्चिम बंगाल में अक्टूबर में चुनाव होने के आसार हैं।ऐसे समय में 'मैला आँचल और' परती : परिकथा' जैसी बड़ी रचनाओं के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशताब्दी वर्ष में यह याद करना समीचीन होगा। आज से 48 वर्ष पहले इस अविस्मरणीय लेखक ने भी एक बार विधानसभा चुनाव लड़ने का साहस या कहें कि दुस्साहस किया था। उन्होंने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और वही हुआ, जो एक निर्दलीय उम्मीदवार के साथ अक्सर होना होता है।
1952 तक वह सोशलिस्ट पार्टी के माध्यम से राजनीति में सक्रिय थे। मजदूर और किसान मोर्चे पर भी वह डटे रहे थे मगर उन्हें जल्दी ही यह समझ में आ गया कि राजनीति में लेखक की स्थिति दूसरे दर्जे की होती है। हर पार्टी का अपना एक 'तबेला' होता है। इसके चारों तरफ दीवारें खींच कर वह अपने 'कमअक्ल' कामरेडों को इधर-उधर आकर्षित होने से बचाती है। उनके अपने ऐसे कड़े अनुभव रहे।एक बार एम एन राय की विचारधारा से जुड़े एक कलाकार के साथ उन्हें देख लिया गया तो अगले दिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें बुलाया और एमएन राय के विरुद्ध भाषण पिला दिया। अपने एक अच्छे मित्र और कम्युनिस्ट छात्र नेता से वह मिला करते थे। एक बार रामवृक्ष बेनीपुरीजी ने उन्हें देख लिया तो समझाया कि क्यों उन्हें कम्युनिस्टों से बातें नहीं करनी चाहिए। यह भी उन्होंने देखा कि नेता आत्म प्रचार से ऊपर नहीं उठ पाते। यह भी समझ में आया कि दलगत राजनीति में बुद्धिजीवी से भी अपेक्षा रहती है कि वह अपनी बुद्धि गिरवी रख कर पार्टी का काम करे। वहाँ किसी व्यक्ति, किसी गुट का होना भी आवश्यक है। ये सब पाबंदियाँ, तुच्छताएँ उन्हें रास नहीं आ रही थीं। वह 1952 के प्रथम आम चुनाव से पहले ही दलगत राजनीति को विदा कहने का मन बना चुके थे।
इन सब कारणों से उस पार्टी से भी भरोसा उठ गया था, जिसके लिए बरसों उन्होंने लगन से काम किया था मगर उनका विश्वास समाजवादी आदर्शों और जयप्रकाश नारायण में अंत तक बना रहा। वह सक्रिय राजनीति से दूर थे मगर निस्पृह नही थे। वह अपने अनेक उपन्यासों को इसका प्रमाण मानते थे। वह राजनीति के प्रति आभारी थे कि उसने उन्हें गाँव-गाँव जाने का मौका दिया, लोगों को, उनकी संस्कृति और भाषा को जानने का अवसर दिया। बतौर एक लेखक उन्हें बनाया।
पटना में जब एक संवाददाता सम्मेलन में रेणु जी ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने के अपने निर्णय की घोषणा की और अगले दिन जब यह खबर बिहार के दैनिक समाचार पत्रों में छपी, तब वहां के बुद्धिजीवियों में हलचल सी मची।उन्हें जाननेेवालेे इस फैैसले से चकित थे कि रेणु के सिर पर यह क्या भूत सवार हो गया है। जब राजनीति में थे, तब तो चुनाव लड़ा नहीं, अब क्यों लड़ रहे हैं? जिस पार्टी- पोलिटिक्स से घबरा कर इन्होंने उससे दूरी बनाई थी, उसमें फिर से क्यों पड़ रहे हैं? और चुनाव लड़ना ही था तो किसी पार्टी से टिकट माँगते। इतने बड़े लेखक को कोई भी पार्टी टिकट दे देती। उन्हें करीब से जानने वाले लोग नामांकन पत्र भरने के बाद से इसे वापिस लेने की आखिरी तारीख तक इंतजार करते रहे कि शायद उनका मन बदल जाए,अपना नामांकन वे वापस ले लें। इस बीच कुछ दलों उन्हें अपना समर्थन देने की पेशकश भी की। रेणु ने ऐसे सभी प्रस्ताव ठुकरा दिए।इस बीच वह पटना से अपने चुनाव क्षेत्र फारबिसगंज में पर्चा दाखिल करने और अपनी उम्मीदवारी का प्रचार करने चले गए।
रेणु ने चुनाव लड़ने के चार बड़े कारण बताए थे। एक तो उनके क्षेत्र में पहली बार राजनीति हिंदू-मुसलमानों को बांटने मेंं सफल हुई थी। इस संघर्ष में बहुत से लोग जख्मी हुए थे। कुछ गिरफ्तारियां हुई थीं, मुकदमे चले थे। गांव के सैकड़ों लोग महीनों कचहरी में परेशान किए गए थे ।एक और घटना ने उन्हें विचलित किया था। उनके गांव में भूख से दो गरीबों की मौत हो गई थी। क्षेत्र के विधायक ने इसे भूख से हुई मौत बताया मगर सरकार ने हमेशा की तरह इससे इनकार किया।इसके बाद उस विधायक ने दूसरी बार इस बारे में अपना मुंह नहीं खोला।दूसरा कारण एम ए तक जिस नौजवान ने सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था, उसे कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी। चुने हुए प्रत्याशियों में उसका नाम पहले स्थान पर होते हुए भी उसे नौकरी नहीं दी जाती थी। रेणु के यह सलाह देने पर कि उसे क्षेत्र के विधायक और सांसद से इस बारे में मिलने चाहिए। उसका जवाब था कि इनकी वजह से ही यह सब हो रहा है। गुस्से में आकर उसने रेणु को भी नहीं बख्शा। उसने कहा कि आप जैसे लोग राजनीति से निर्विकार हो गए, उसी कारण यह सब हो रहा है। उनके क्षेत्र में 14 निरपराध आदिवासी संथाल मार मार दिए गए थे। इसके बाद उन्हें लगा कि अब भी वह कुछ नहीं करते तो वे अपनी ही निगाह में गिर जाएँगे।
नामांकन भरने के बाद रेणु ने फैसला किया कि वह अपने इलाके के कई प्रमुख स्थानों के लोगों को बुलाकर उनसे अपनी उम्मीदवारी के बारे में उनकी राय जानने की कोशिश करेंगे। अगर वे उन्हें अपने प्रतिनिधि के योग्य न समझेंं तो वह अपना नामांकन वापस ले लेंगे। इस सिलसिले में चार गोष्ठियों के बाद उन्हें विश्वास हुआ कि उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए।जो लोग बोलने आए थे,उनमें कुछ उनके उपन्यासों के वास्तविक पात्र थे, जो उस समय जीवित थे। लाठी, पैसे और जाति की ताकत के बल पर चुनाव जीते जाते थे और रेणु का यह प्रयास था कि इनके बगैर चुनाव लड़कर दुनिया को दिखाया जाए। समाज और तंत्र में प्रवेश करती हुई इन विकृतियों से लड़कर देखा जाए। वह अपनी चुनाव सभाओं में दिनकर, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, सुमित्रा नंदन पंत और रघुवीर सहाय की कविताएं उदृत करते थे। उनका कहना था कि अपने क्षेत्र के साधारण जन के सुख -दुख में सक्रिय रूप से हाथ बँटाने के लिए, अपने लोगों की समस्याओं को मुक्त कंठ से प्रस्तुत करने के लिए वह चुनाव लड़ रहे हैं। समाधान तो सरकार ही कर सकती है लेकिन वह इन समस्याओं को सरकार के सामने रखेंगे और कभी चैन से नहीं बैठेंगे। अकेला और निर्दलीय होने के कारण उनकी आवाज कोई बंद नहीं कर पाएगा।
वैसे तो चुनाव लड़ते समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि वह जीतेंगे नहीं लेकिन उस समय लिए गए साक्षात्कारों में जाहिर है कि उन्होंने यह नहींं कहा।जिस समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधि उनके घर आकर अपनी पार्टी के समर्थन उन्हें देने की पर्ची लिखकर छोड़ गया था, वही उनके खिलाफ खड़ा हुआ था।
चुनाव की डुगडुगी बजते ही आदमी किस तरह बदल जाता है, इसका अनुभव उन्हें चुनाव के दौरान हुआ। वह कहते हैं, आप चिनियाबादाम (मूँगफली) वाले से बात कीजिए, आप उससे चिनियाबादाम ले लीजिए लेकिन वो वोट आपको देगा या नहीं देगा, इसके बारे में वह एकदम चुप रहेगा। उनके बारे में यह भी कहा जाने लगा था कि इनकी तो कोई पार्टी नहीं है और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। उनके विरोधियों ने नारा लगाया कि बड़े हैं, पद्मश्री टाइटल वाले लेखक हैं लेकिन विधानसभा में जाकर क्या करेंगे? रेणु कहते थे कि भाई एक गरीब आदमी- जिसका नाम वोटर लिस्ट में लिखा हुआ है-वह चुनाव लड़ सकता है या नहीं, यह देखने के लिए मैं खड़ा हुआ हूं। लोगों ने कहा,वैसे खयाल तो बहुत अच्छा है आपका। देखते हैंँ।उनमें कुछ दूर की कौड़ी जाने वाले भी थे। उन्होंने कहा कि यह किताब लिखने के लिए आया है तो इसे वोट देकर क्या होगा?
और जिस दिन वोट पड़े ,उस दिन देखा कि मधुबनी में जो प्रयोग छोटे पैमाने पर हुआ था, वह वहां व्यापक रूप से हो रहा है। गांव-गांव लोग वोट देने जा रहे हैं और खाली वापस आ रहे हैं क्योंकि लाठी लेकर वहाँ गुंडे खड़े हैंं।रेणु को कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से भी कम वोट मिले।
तब उन्हें लगा था कि नहीं ये लड़के ठीक कहते हैं कि चेंज बैलट के जरिए नहीं होगा। बैलट की डेमोक्रेसी भ्रमजाल है। तब जो निराशा बढ़ी,उसकी तुलना वह प्रेम में असफल हुए उस व्यक्ति से करते हैं,जो कविता करने लगता है।' राजनीति में असफल होकर मैं उपन्यास लिखने लगा लेकिन चुनाव हारने के बाद मैं क्या करूंगा? चुनाव हारने वाला व्यक्ति घर में बीवी तक की निगाह में गिर जाता है। थोड़ा कर्ज उन पर चढ़ गया था।लोगों ने कहा कि चुनाव में अनुभव पर लिखो तो उन्होंने कहा कि मेरा चुनाव चिन्ह नाव था,इसलिए कागज की नाव शीर्षक से एक रिपोर्ताज लिखूंगा लेकिन लगा कि अब कलम छूने का अधिकार उन्हें नहीं है। अगर कुछ थामना है तो दो ही चीजें थाम सकते हैं या तो बंदूक या कलेजा। अब कलेजा थाम कर बैठो।अब कहीं से कुछ नहीं होने वाला,हालांकि बिहार आंदोलन में फिर उन्हें रोशनी दिखी और वह इसके अटूट हिस्से बन गए।
सरलता का किसी के पहनावे से कोई लेना-देना नहीं। सरलता हमारे चित्त्त में होती है। हृदय में होती है। चाहे आप महल में रहें या झोपड़ी में। सरलता तो दोनों जगह एक जैसा महसूस करने में है।
सुकरात के सरल व्यवहार, जीवन की कहानियां मशहूर हैं। महानतम दार्शनिक, विचारक, सत्यनिष्ठ होने के साथ ही वह सरल व्यवहार के लिए भी उतने ही विख्यात रहे। सरलता का जीवनशैली से दूर जाना आम की मिठास कम होते जाने सरीखा है! आज सुकरात के जीवन से एक कहानी आपसे कहता हूं। सुकरात के समय ही यूनान के दूसरे दार्शनिक डायोजनीज का भी बड़ा नाम था। लेकिन सुकरात की बात ही कुछ और थी। उनके स्वभाव में सरलता बहा करती थी, वह कुछ भी ओढ़ते नहीं थे। जैसे भीतर, वैसे बाहर। जैसे बाहर, वैसे ही भीतर।
दूसरी तरफ डायोजनीज जैसे विद्वान थे, जो सरलता को अभ्यास से साधने की कोशिश कर रहे थे। वह उनके भीतर थी नहीं, लेकिन उन्हें विश्वास था कि अभ्यास से इसे पाया जा सकता है। जबकि सुकरात के साथ सरलता को पाने जैसी कोई बात न थी।
डायोजनीज, खुद को सरल, सादा दिखने के लिए नए-नए कपड़ों को फाडक़र, उनमें चिथड़े लगाकर, उनको फटा-पुराना, मैला दिखाकर सादगी से रहने का अभ्यास करते। यहां तक कि उपहार में मिले कीमती वस्त्रों को भी काटकर, मैला करके, उस पर चिथड़े लगाकर पहनते। इससे कुछ लोग बड़े प्रभावित भी होते। जब उनको लगा कि उनका प्रभाव बढऩे लगा है तो एक दिन वह सुकरात से मिलने पहुंचे।
सुकरात के पास उस समय अनेक लोग बैठे हुए थे। उन सबके बीच ही डायोजनीज ने सुकरात से कहा, ‘तुम्हें सुंदर वस्त्रों में देखकर लगता है तुम कैसे साधु हो। यह तुम्हारी सरलता है! इतनी महंगे वस्त्र।’ ऐसा कहते समय वह भूल रहे थे कि सरलता का किसी के पहनावे से कोई लेना-देना नहीं। सरलता हमारे चित्त्त में होती है। हृदय में होती है। चाहे आप महल में रहें या झोपड़ी में। सरलता तो दोनों जगह एक जैसा महसूस करने में है। एक जैसी नींद आ जाने में है!
सुकरात ने डायोजनीज की बात सुनकर हंसते हुए कहा, ‘हो सकता है मैं सरल न हूं! तुम ठीक कहते हो।’ डायोजनीज ने समझा अपनी बात बन गई। उसने कहा तुम खुद ही यह स्वीकार कर रहे हो! मैंने भी लोगों से यही कहा था कि तुम सरल आदमी नहीं हो। आज तुम खुद भी यह स्वीकार करते हो कि तुम सरल नहीं हो!
सुकरात ने मुस्कराते हुए कहा, ‘तुम कहते हो तो इनकार करने का कोई कारण ही नहीं।’ उनकी बात सुनकर डायोजनीज गदगद हो गया। विजय के एहसास से खिलखिलाने लगा। आज उसे इस बात का बहुत गर्व था कि उसने एक ऐसे व्यक्ति को हरा दिया, जिसकी सरलता की मिसाल यूनान में दी जाती है। वह उतरकर वहां से अपने घर को जा ही रहे थे कि नीचे सुकरात के शिष्य प्लेटो (अफ़लातून) मिल गए।
प्लेटो ने पूछा क्या बात है आज बहुत आनंद में दिख रहे हैं। डायोजनीज ने कहा, ‘बात ही कुछ ऐसी है। आज तुम्हारे गुरु सुकरात ने स्वयं सबके सामने यह स्वीकार किया है कि वह सरल नहीं हैं। उनके जीवन में सरलता नहीं! इसका अर्थ यह है कि यूनान में मैं ही सबसे सरल व्यक्ति हूं। मेरी सरलता को अब कोई चुनौती नहीं!’
प्लेटो उनकी बात सुनने के बाद, मुस्कराते हुए सिर से लेकर पांव तक उनको देखते हुए कहते हैं, ‘यह जो नए कपड़ों में तुमने चिथड़े लगा रखे हैं। जगह-जगह से कपड़ों के छेद तुम्हारे भीतर के अहंकार को छुपाने में असफल हैं। तुम्हारे इन कपड़ों से अहंकार के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता। जबकि तुम दार्शनिक हो। चिंतक हो।’
अपनी बात समझाते हुए प्लेटो ने कहा, ‘असल में तुम समझ ही नहीं पाए। यही तो सरल आदमी का लक्षण है। तुम उससे कहने जाओ कि वह सरल नहीं है और वह सरलता से स्वीकार कर ले। दूसरी ओर तुम हो जो सरलता के ताज के लिए परेशान हो। अब तुम स्वयं सोचो सरलता कहां है! किसके हृदय में है!’
प्लेटो बड़ी सुंदर बात कहते हैं, ‘जहां किसी चीज की चेष्टा/ प्रयास है। वहां उसका होना संभव नहीं। हम जितनी कोशिश करते हैं, किसी चीज को पाने की, वह असल में हमसे उतनी ही दूर होती जाती है’। सरलता का यह प्रसंग ताओ उपनिषद से लिया गया है।
डायोजनीज जो कोशिश बहुत पहले करके हार गए। हम आज भी उससे लडऩे की कोशिश कर रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि सरलता के मायने क्या हैं। सरलता साबित करने से नहीं आएगी। यह दूसरों के जैसे दिखने, होने में नहीं है। सरलता बस अपने जैसा होने में है। जैसे भीतर, वैसे बाहर। स्वयं के स्वभाव में होना ही सरलता है। जीवन को कार्बन कॉपी होने से बचा लेने पर ही सरलता के निकट पहुंचना संभव है! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
सवाल बहुत ही काल्पनिक है जिसे अंग्रेज़ी में हाइपथेटिकल कहते हैं। ऐसे सवाल पश्चिमी प्रजातांत्रिक देशों में आम चलन में हैं। अमेरिका जैसे देश में तो इन दिनों कुछ ज़्यादा ही। काल्पनिक सवाल की उपज का भी एक कारण है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में उन्हें सतत्तर प्रतिशत लोगों द्वारा पसंद किया जाना बताया गया है। एक अन्य सर्वे में छियासठ प्रतिशत उन्हें फिर से प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। उनके मुक़ाबले राहुल गांधी केवल आठ प्रतिशत लोगों की ही पसंद रह गए हैं। अब काल्पनिक सवाल यह है कि अगर अमेरिका के साथ ही भारत में भी इसी नवम्बर में लोक सभा चुनाव करवा लिए जाएँ तो परिणाम किस तरह के आएँगे! भारतीय जनता पार्टी को पिछले चुनाव (2019) में 303 सीटें मिलीं थीं जो कि कुल (543) सीटों का लगभग 56 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता अगर 77 प्रतिशत है तो भाजपा को प्राप्त हो सकने वाली सीटों का अनुमान भी आसानी से लगाया जा सकता है।
सवाल खड़ा करने का दूसरा कारण यह है कि एक ऐसे समय जब कि बिगड़ती आर्थिक स्थिति और कोरोना के कारण उपजी चिकित्सा सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों में दुनिया के अन्य देशों के शासनाध्यक्षों को अपनी कम होती साख के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है, हमारे प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ रही है ! अमेरिका में इस समय नियमित हो रहे ओपिनियन पोल्स में राष्ट्रपति ट्रम्प विरोधी पक्ष के उम्मीदवार जो बायडन से लोकप्रियता में काफी पीछे चल रहे हैं। इसका बड़ा कारण कोरोना से होने वाला बेक़ाबू संक्रमण, खऱाब आर्थिक स्थिति और बढ़ती हुई बेरोजग़ारी है। ये ही कारण कमोबेश हमारे यहाँ भी मौजूद हैं।
कोरोना से संक्रमित होने वालों का आंकड़ा न सिर्फ उपलब्ध चिकित्सा सुविधाओं की छतें पार कर रहा है, कड़ी सुरक्षा और सभी-तरह की आवश्यक ‘छुआछूत’ का निर्ममता से पालन करने के बावजूद बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इस समय अस्पतालों को ही अपना घर और दफ़्तर बनाए हुए हैं। देश की आधी से ज़्यादा आबादी अभी भी आरोपित और स्वैच्छिक लॉक डाउन की गिरफ्त में है। यह सब तब है जब प्रधानमंत्री एक से अधिक बार दावा कर चुके हैं कि सही समय पर लिए गए फ़ैसलों के कारण भारत दूसरे देशों की तुलना में कोरोना से लड़ाई में बहुत अच्छी स्थिति में है।
कल्पना ही की जा सकती है कि कोरोना को लेकर जिस ‘सही समय ओर सही फ़ैसले’ का जि़क्र किया जा रहा है वह नहीं होता तो हम आज किस बदतर हाल में होते और प्रवासी मज़दूरों की संख्या और उनकी व्यथाओं की गिनती कहाँ तक पहुँच जाती ! दूसरी ओर यह भी उतना ही सच है कि महामारी को नियंत्रित करने और इलाज की व्यवस्था को दुरुस्त करने में हमारी स्थिति अभी भी ‘दिन भर चले अढ़ाई कोस’ वाली हालत में ही है। प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल कि़ले से आश्वस्त किया है कि इस समय तीन वैक्सीन पर देश में काम चल रहा है। तो क्या वैक्सीन के आते ही सब-कुछ ठीक हो जाएगा? विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो आवश्यक वैक्सीन का बन जाना अभी पूरी तरह से तय नहीं है। अगर बन भी गई तो हमारे यहाँ के आखिरी व्यक्ति तक उसे पहुँचने में दो-तीन साल लग जाएँगे। तो फिर वैक्सीन का आश्वासन महामारी के इलाज के लिए है या फिर केवल उसका जनता के बीच भय कम करने के लिए ?
अगर हम वापस वहीं लौटें जहां से बात शुरू की थी तो इस समय कोरोना संक्रमण के दुनिया भर में प्रतिदिन के सबसे ज़्यादा मरीज़ हमारे यहीं प्राप्त होने के साथ ही सरकार को और भी ढेर सारी समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। इनमें चीन द्वारा लद्दाख़ में हमारे स्वाभिमान पर किया गया अतिक्रमण, पाकिस्तान और नेपाल के साथ तनाव, अत्यंत खऱाब आर्थिक स्थिति, भयानक बेरोजग़ारी आदि को भी जोड़ सकते हैं। क्या कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इन सब समस्याओं के बाद भी सर्वेक्षणों में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं व्यक्त हो रहा है ! हम अगर कहना चाहें कि ‘कुछ तो निश्चित ही पड़ रहा होगा’ तो क्या फिर उनकी लोकप्रियता को लेकर प्रचारित किए जा रहे सर्वेक्षण विश्वसनीय नहीं हैं ? या फिर सरकार की विश्वसनीयता तो वैसी ही क़ायम है, जनता ने ही अपनी विश्वसनीयता खो दी है? ऐसा पहले तो कभी देखा और सुना नहीं गया !
प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता तो और भी अद्भुत थी, जिसके दम पर उन्होंने निर्धारित समय से कुछ महीने पूर्व ही चुनाव करवाने का फ़ैसला ले लिया था फिर भी उनकी सरकार को जाना पड़ा। इसके भी पहले वर्ष 1992 के अंत में बाबरी ढाँचे के विध्वंस के बाद हुए विधान सभा चुनावों में भी भाजपा को सीटों का कोई ज़्यादा फ़ायदा नहीं मिल पाया था। तो क्या ऐसा नहीं लगता कि कहीं कुछ गड़बड़ ज़रूर है जिसे हमारे चेहरों पर चढ़ी हुई नक़ाबें बाहर नहीं आने दे रही है ! हमें यह भी बता दिया गया है कि अब इन्हीं नक़ाबों के साथ ही आपस में दूरियाँ बनाए हुए एक लम्बा वक्त गुज़ारना है। हो सकता है कि यह लम्बा वक्त अगले चुनावों की मतगणना के साथ ही ख़त्म हो। और वह चुनाव अमेरिका के साथ तो इतनी जल्दी निश्चित ही ‘मुमकिन’ नहीं हैं। हमारे लिए इसी बीच एक और भी बड़ी दिक्कत एक अमेरिकी अखबार ने ही उजागर कर दी है! वह यह कि अपनी विश्वसनीयता को लेकर हम कोई सफाई अब सोशल मीडिया पर भी लिखकर शेयर नहीं कर सकते।
प्रेम और स्नेह मनी प्लांट की तरह बोतल और गमलों में तैयार नहीं होते। उनके लिए आम के वृक्ष लगाने सरीखे उपाय करने होते हैं। जो चीज इतनी आसानी से मिल जाती है, उसका स्वाद और समय दोनों ही बहुत देर तक नहीं टिकता।
आज जीवन संवाद की शुरुआत एक छोटी-सी कहानी से। दो यात्री रास्ता भटक गए। रेगिस्तान में फंस गए। गर्मी, भूख, प्यास से बेहाल हो गए। उनके पास खाने-पीने का जो भी सामान था खत्म हो गया। तीन-चार दिन में लगने लगा कि अब वहां से जीवित लौटना संभव नहीं होगा। जीवन की आशा उनके मन में कमजोर होने लगी। तभी दोनों को एक छोटा-सा पहाड़ नजर आया। पहाड़ के नीचे संकरा रास्ता था। उन्होंने उस दरार से झांककर देखा, तो पाया कि दूसरी तरफ खूबसूरत घाटी थी। साफ पानी का झरना। नरम घास। मीठे फलों से लदे पेड़ थे।
दोनों कड़े परिश्रम के बाद दूसरी ओर उतर गए। मीठा पानी पिया। विश्राम करने लगे। पहले ने कहा अब यहां कुछ दिन आराम से रहूंगा। उसके बाद आगे का सफर तय करूंगा। बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंचे हैं कितना संकरा रास्ता था। दूसरे ने कहा, ठीक है। जैसा तुम चाहो, लेकिन इस रास्ते के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। जिस तरह हम फंसे उसी तरह अनेक लोग भीषण गर्मी में फंसे हैं। उनकी मदद करना भी जरूरी है।
ऐसा कहकर उसने अपने लिए थोड़ा-सा पानी, कुछ फल लिए और वापस मुश्किल रास्ते से दूसरी ओर लौट गया। जिससे वह रेगिस्तान में भटके हुए, बेहाल यात्रियों को इस घाटी का रास्ता बता सके। कुछ ऐसी व्यवस्था कर पाए कि आपदा में फंसे लोग यहां तक आसानी से पहुंच जाएं। रेगिस्तान में संकट में फंसे लोग ऐसी कहानियों से ही जिंदा रहते हैं। मनुष्यता का दीपक लोगों की जान बचाने में वहां प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोनों तरह से अपनी भूमिका निभाता है।
रेगिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वह अपना व्यवहार कभी नहीं बदलता। हां, रेत के टीले जरूर हवाओं से इधर-उधर होते रहते हैं।
जो अपने जीवन के महत्व को समझते हैं। वह ऐसे ही व्यवहार करते हैं, जिस तरह दूसरे यात्री ने किया। जिंदगी केवल अपने लिए रास्ता बनाने का काम नहीं। जो जीवन से प्रेम करते हैं, वह दूसरों के लिए रास्ता ‘बुनते’ चलते हैं। आखिर हम सब दूसरों के लगाए वृक्षों के ही फल खाते हैं। जीवन में कुछ न कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जिसके दरवाजे दूसरों के लिए भी खुलते हों! प्रेम और स्नेह मनी प्लांट की तरह बोतल और गमलों में तैयार नहीं होते। उनके लिए आम के वृक्ष लगाने सरीखे उपाय करने होते हैं
जो चीज इतनी आसानी से मिल जाती है, उसका स्वाद और समय दोनों ही बहुत देर तक नहीं टिकता। इसलिए हमें मुश्किल रास्तों से घबराना बंद करना होगा।
जीवन की दिशा, दशा को वैज्ञानिक तरीके से समझना होगा। विज्ञान पढऩे का अर्थ यह नहीं होता कि हमारा दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक हो जाए। इसीलिए आपने देखा होगा कि बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी दकियानूसी विचारों से घिरे रहते हैं।
यह समझना जरूरी है कि पढ़े-लिखे का अर्थ क्या है! डिग्री हासिल करने के लिए पढऩा-लिखना कोर्स को याद करके परीक्षा देने जैसा है। इसलिए, किसी की डिग्रियों से उसकी जीवनदृष्टि का अंदाजा लगाने की गलती मत करिए। अगर ऐसा होता तो आपकी दृष्टि में बड़ी-बड़ी नौकरियों में बैठे लोग करुणा, क्षमा, अहिंसा, प्रेम और स्नेह से इतने वंचित नहीं होते। उनके भीतर दूसरों के लिए, संकट में फंसे हुए लोगों के लिए वैसी ही दृष्टि होती जैसी हमारी कहानी के दूसरे यात्री के पास है।
जीवन अलग तरीके के गुणों से चलता है। नौकरी अलग तरह के तरीकों से। हम व्यक्तिगत जिंदगी में जो कुछ भी हैं, हमें कोशिश करनी है कि हम मनुष्य के रूप में अपने परिवार, समाज और दुनिया के लिए कुछ बेहतर लौटा सकें। हमेशा ध्यान रहे कि आप गमलों में मनी प्लांट लगाने पर ध्यान दे रहे हैं, जबकि आपका उद्देश्य आम और पीपल के पौधे लगाना होना चाहिए।
शुभकामना सहित....
-दयाशंकर मिश्र
जिंदगी को हमने कमतर मान लिया। मुश्किल, तनाव की बूंदाबांदी होते ही भावुक हो जाते हैं। हमें जीवन को अनिवार्य बनाना है। रिश्ते कैसे भी हो जाएं, किसी भी स्थिति में जीवन को दूसरे नंबर पर नहीं रखना है। जीवन हमेशा सबसे पहले है।
जब कभी रिश्तों के मोड़ ऐसी घुमावदार स्थिति में पहुंच जाएं, जहां विकल्प सीमित हों, वहां निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए हमारी असली परीक्षा तो ऐसी स्थिति में ही होती है। इन दिनों ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं, जहां दो व्यक्तियों के बीच संबंध इतने अधिक खराब हो जाते हैं कि साथ रहना असंभव लगने लगता है। वहां लोग जीवन से मुंह मोडऩे का रास्ता अधिक अपनाने लगे हैं। ऐसे रिश्ते को वहीं छोडक़र आगे बढ़ जाने का विकल्प होते हुए भी लोग उसे नहीं चुन रहे। जिंदगी को हमने कमतर मान लिया। मुश्किल, तनाव की बूंदाबांदी होते ही भावुक हो जाते हैं। हमें जीवन को अनिवार्य बनाना है। रिश्ते कैसे भी हो जाएं, किसी भी स्थिति में जीवन को दूसरे नंबर पर नहीं रखना है। जीवन हमेशा सबसे पहले है।
अगर किसी रिश्ते में रहना संभव नहीं है, तो उससे बाहर आने का विकल्प चुना जाए, जीवन को बिना किसी तरह संकट में डाले! पति-पत्नी के साथ ही माता-पिता, भाई-बहन और बेहद घनिष्ठ मित्रता में भी यह देखने में आता है कि आपसी विश्वास की दीवार कई बार इतनी कमजोर हो जाती है कि बहुत मरम्मत के बाद भी उसे पुरानी स्थिति में लाना संभव नहीं होता। ऐसे में इस दीवार के निरंतर कमजोर होते जाने और किसी दिन अचानक गिर जाने का खतरा बना रहता है। दीवार गिरेगी तो जीवन को भी हानि हो सकती है। इसलिए हरसंभव कोशिश करने के बाद भी खंडहर हो चुके रिश्तों से बाहर आने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।
भारतीय समाज की रचना इतनी जटिल और पुरुषप्रधान है कि अक्सर ही लड़कियों/ स्त्रियों को इस स्थिति से बाहर आने में बहुत अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह संभव नहीं है। अपने जीवन में ऐसे प्रसंगों का स्वयं गवाह रहा हूं। जहां, मेरे विशाल संयुक्त परिवार में ही इस तरह के मामले सामने आने पर पुरुषों की ओर से कोई पहल नहीं की गई। लेकिन जब बेटियों ने आवाज बुलंद करनी चाही कि अपने खंडहर हो चुके रिश्ते को छोडक़र जीवन की नई राह चुननी चाहिए, तो उसे वैसा समर्थन नहीं मिला, जैसा मिलना चाहिए था। लेकिन उनने जीवन को चुना। इन पंक्तियों के लेखक को यह सौभाग्य मिला कि वह गांव की हिम्मतवर और प्रतिभाशाली बेटियों का सारथी बन सके। उनकी यात्राओं में शामिल होकर जीवन संघर्ष का जो रस मुझे मिला। उससे मेरा यह विश्वास निरंतर गहरा होता जा रहा है कि जीवन दूसरों का दिखाया आईना नहीं, बल्कि वह तस्वीर है जिसमें हमें ही रंग भरने हैं। रंग भरते समय इस बात की गुंजाइश हमेशा रखनी चाहिए कि अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, तो तस्वीर नए सिरे से भी बनानी पड़ सकती है!
समाज के रूप में हम रिश्तों के प्रति इतने परंपरावादी/ यथास्थितिवादी हैं कि एक ही रिश्ते में घुटना तो स्वीकार है, लेकिन यह स्वीकार नहीं कि हम (स्त्री/पुरुष। कोई भी) नई राह पर चल सकें। जबकि पुराने रास्ते पर चलना संभव नहीं है। मैं अलग होने पर जोर नहीं दे रहा हूं। मैं केवल इस बात का विश्वास दिलाना चाहता हूं कि जीवन संभावनाओं से भरा हुआ और बहुत व्यापक है। इसे समझिए। जीवन को रिश्तों का बंदी मत बनाइए। किसी का जीवनसाथी एक बार बन जाने का मतलब यह नहीं है कि किसी भी स्थिति में इससे अलग नहीं हुआ जा सकता। विवाह / रिश्ते में रजामंदी, एक साथ होने का फैसला ऐसा नहीं है कि उसे जीवन का पर्यायवाची बना लिया जाए। जब तक साथ रहें, खुशबू की तरह रहें। जब अलग हो जाएं, तो वैसे जैसे एक रास्ता कहीं जाकर दो पगडंडियों में बदल जाता है। शुभकामना सहित...
(hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
ब्लॉग-न्यूज18 : सुनील कुमार
सोशल मीडिया को लेकर अमरीका से हिन्दुस्तान तक एक नई बहस छिड़ गई है क्योंकि अमरीकी कंपनी फेसबुक के बारे में अमरीका के ही एक कारोबारी अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने यह रिपोर्ट छापी है कि भारत में फेसबुक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी भाजपा के नेताओं द्वारा पोस्ट की गई भडक़ाऊ सामग्री को हटाने से हिचकती है क्योंकि उसे यह खतरा लगता है कि इससे केन्द्र की भाजपा-अगुवाई वाली भारत सरकार से संबंधों में तनाव खड़ा होगा। हालांकि फेसबुक ने इस रिपोर्ट के बाद यह सफाई दी है कि वह अपनी नीतियां लागू करते हुए नेताओं और पार्टियों का ख्याल नहीं करती है, और सभी पर एक तरह के नियम लागू करती है।
हो सकता है कि फेसबुक की बात सही भी हो। और यह बात भी अपनी जगह सही है कि फेसबुक कई किस्म के दूसरे गलत काम कर रही है जिसकी वजह से दुनिया के कई देशों में उस पर तरह-तरह का जुर्माना भी लगा है। वह अपने इस्तेमाल करने वाले लोगों की निजी जानकारी का कारोबारी इस्तेमाल करती है, और इसके लिए योरप में उस पर मोटा जुर्माना लगाया जा चुका है, वह अमरीका में भी तरह-तरह की सुनवाई के नोटिस पाते रहती है। कई देशों में वह संसद की कमेटियों के प्रति जवाबदेह है, कई देशों में अदालतों के कटघरे में है। कुल मिलाकर यह कि फेसबुक एक इतना बड़ा और विविधता वाला कारोबार है कि दुनिया के अलग-अलग देशों के अलग-अलग कानून से उसका कहीं न कहीं टकराव होता ही है। फेसबुक जैसा कोई कारोबार दुनिया के इतिहास में पहले नहीं था, इसलिए दुनिया में ऐसे कारोबार को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून बने भी नहीं थे। अब जब यह धंधा बढ़ते-बढ़ते दुनिया के सबसे अधिक संख्या में लोगों की भागीदारी वाला प्लेटफॉर्म बन गया है तो अब सबको इसके बारे में अधिक नियम बनाने की जरूरत पड़ रही है।
अब अगर अमरीकी अखबार की रिपोर्ट देखें, तो यह बात जाहिर है कि फेसबुक नफरत से भरा हुआ है, हिंसा की धमकियों से भरा हुआ है, लेकिन कमोबेश ऐसा ही हाल ट्विटर का भी है। ट्विटर खबरों में कम आता है क्योंकि उसका एक बड़ा इस्तेमाल मीडिया के लोग भी करते हैं, लेकिन फेसबुक अधिक सामाजिक और कम पेशेवर लगता है जहां पर लोग नफरत को बड़े लंबे खुलासे से लिख सकते हैं, और लिखते हैं।
यह बात साफ है कि फेसबुक नफरत से भरा हुआ है। अब यहां पर दो सवाल उठते हैं कि यह नफरत कौन लोग फैला रहे हैं, पहली नजर में यह दिखता है कि हिन्दुस्तान में राष्ट्रवादी, हिन्दूवादी लोगों के बीच के अधिक आक्रामक लोग इसमें अधिक लगे हैं। कम से कम हिन्दी और अंग्रेजी इन दो भाषाओं की पोस्ट में इन्हीं की बहुतायत दिखती है, और बाकी भाषाओं की पोस्ट के बारे में कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा, क्योंकि जिस भाषा को जानते नहीं उस पर क्या कहें।
लेकिन यह बात भी बहुत साफ है कि ट्विटर पर लोग दसियों हजार की संख्या में रात-दिन एक खास सोच के हिमायती होकर उससे असहमत तमाम सोच पर अधिकतम संभव हिंसा की बातें लिखते हैं, धमकियां लिखते हैं, और न ट्विटर उन पर तुरंत कोई कार्रवाई करता, और न ही भारत सरकार ऐसी हिंसा को खत्म करने के लिए कोई कार्रवाई करते दिखती।
सरकार से, भाजपा से, आक्रामक-हिन्दुत्व से असहमत लोगों पर पूरे वक्त सिर्फ हमला करने को तैनात दिखते लोग टूट पड़ते हैं। बहुत से पत्रकार, लेखक, फिल्म कलाकार ऐसे हैं जिन्हें बलात्कार की हजार-हजार धमकियां मिलती हैं, उनके साथ-साथ उनके परिवार की और महिलाओं को भी बलात्कार की धमकी दी जाती है, बच्चियों तक से रेप की बातें पोस्ट की जाती हैं। हिन्दुस्तान की सरकार अपने सारे कड़े आईटी कानून के साथ भी ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती यह सवाल तो किसी मासूम और नासमझ बच्चे के मन में भी खड़ा हो सकता है।
फेसबुक अपने कम्प्यूटर एल्गोरिद्म के सहारे किसी विचारधारा की पोस्ट, या किसी विचारधारा के लोगों को बढ़ावा दे, किसी भी विचारधारा या उसके लोगों को पीछे दबाता चले, इसमें भी कोई हैरानी नहीं है, और ऐसे आरोप अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के वक्त से लेकर अभी तक चलते ही रहे हैं। लेकिन यह तो फिर एक ढंकी-छुपी हरकत होगी। फेसबुक और ट्विटर पर तो नफरत और हिंसा को इतने खुले तरीके से जगह मिलती है, इतने खुले शब्दों में उन्हें लिखा जाता है कि दुनिया का कोई भी मामूली कम्प्यूटर ऐसे गिने-चुने शब्दों को सर्च करके भी ऐसी पोस्ट निकाल सकता है। फिर जब फेसबुक कोई बिना मुनाफे वाला सामाजिक संगठन न होकर, दुनिया का एक सबसे बड़ा कारोबार बन गया है, तो उसकी यह सामाजिक और कानूनी जवाबदेही भी हो गई है कि वह अपने प्लेटफॉर्म पर नफरत और हिंसा की शिनाख्त करे, उन्हें हटाए, उन्हें पोस्ट करने वाले लोगों को ब्लैकलिस्ट करे, ब्लॉक करे। यही बात ट्विटर पर भी लागू होती है, और यही बात दूसरे सोशल मीडिया या मैसेंजर सर्विसों पर भी लागू होती है जिनमें लोग एक-दूसरे को नफरत और हिंसा बढ़ाते हैं।
हिन्दुस्तान में तो बहुत से ऐसे बड़े जिम्मेदार लेखक और पत्रकार हैं जो लगातार जिम्मेदारी की बातें लिखते हैं, लेकिन जिन्हें फेसबुक पर ब्लॉक किया जाता है। उनकी लिखी पूरी तरह से अहिंसक और विवादहीन बातों पर उन्हें नोटिस मिलता है कि उनका अकाऊंट निलंबित किया जा रहा है। शायद इन सोशल मीडिया पर अगर बड़ी संख्या में लोग किसी अकाऊंट को आपत्तिजनक और विवादास्पद बताते हुए शिकायत करते हैं, तो शायद महज संख्या के आधार पर उन्हें ब्लॉक कर दिया जाता है। जिन लोगों को हम लगातार पढ़ते हैं, और जिनका हिन्दुस्तान की एकता और यहां के अमन के लिए लिखना जरूरी है, उनको भी ब्लॉक कर दिया जाता है, और अपने ही शब्दों में संभावित हत्यारे-बलात्कारी इन पर बने रहते हैं, तो फिर इनकी यह बात गले उतरना मुश्किल होता है कि इनकी नीतियां सबके लिए बराबर हैं। वैसे भी कारोबार और सरकार, महज उच्चारण में मिलते-जुलते शब्द नहीं है, इनका एक-दूसरे से गहरा घरोबा हमेशा से रहते आया है।
यह बात याद रखने की जरूरत है कि अमरीका की दर्जनों बड़ी कंपनियों ने सार्वजनिक घोषणा करके फेसबुक से अपने विज्ञापन हटाने की घोषणा की है क्योंकि वहां हिंसा और नफरत कम नहीं हो रही है। आज फेसबुक जैसी कंपनी अपने कम्प्यूटरों पर ऐसा इंतजाम आसानी से कर सकती है कि इन कंपनियों की तारीफ लोगों को न दिखे, और इन कंपनियों के खिलाफ लिखा जा रहा लोगों को बार-बार दिखे। ऐसे खतरे के बावजूद अगर अमरीका की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने यह सामाजिक सरोकार दिखाया है कि उन्होंने ऐसी घोषणा करके इश्तहार देने बंद कर दिए हैं, तो उनसे हिन्दुस्तानी कारोबारियों को भी कुछ सीखना चाहिए जिनके इश्तहार नफरत फैलाने वालों को लगातार मिलते हैं, बस उनका टीआरपी अच्छा होना चाहिए, उनके पेज हिट्स अच्छे होने चाहिए, या जिन अखबारों का सर्कुलेशन अच्छा हो। अच्छा होना अब अक्षरों से नहीं गिनाता, संख्याओं से गिनाता है। लेकिन अमरीकी विज्ञापनदाताओं ने एक जिम्मेदारी दिखाई है, और बाकी दुनिया के कारोबारियों पर भी सामाजिक दबाव बनना चाहिए कि वे नफरत को बढ़ावा न दें।
हम महज हिन्दुस्तान की बात नहीं कर रहे, और न ही सिर्फ फेसबुक की बात कर रहे, सोशल मीडिया से लेकर परंपरागत मीडिया तक, और नए डिजिटल मीडिया तक का हाल यह है कि उन्हें बढ़ावा देने वाले विज्ञापनदाताओं के सरोकार शून्य हैं। अब इसके बाद अगर दुनिया में सोच पर काबू और असर रखने वाले अकेले सबसे बड़े माध्यम, फेसबुक, पर नफरत और हिंसा इस तरह बेकाबू रहेंगे, तो दुनिया में बेइंसाफी भी बेकाबू बढ़ते चलेगी। (hindi.news18.com)
जीवनदृष्टि जब किसी भी कारण से बाधित हो जाती है तो जिंदगी अधिक दूर तक नहीं देख पाती। प्रेम, स्नेह के होते हुए भी कई बार हम स्वयं को हर चीज के लिए जिम्मेदार मानने लगते हैं।
हर चीज की वजह आप हो, यह जरूरी नहीं। कई बार हम अनजाने में खुद को इतना महत्वपूर्ण मान लेते हैं कि अपने आसपास हो रही हर घटना के लिए खुद को कसूरवार मानने लगते हैं। कोरोना के कारण बहुत सारे लोगों की नौकरियां जा रही हैं। नौकरियां जा रही हैं, क्योंकि कंपनियां अपने खर्चों को संभालने में असमर्थ हैं। आर्थिक और व्यापारिक दुनिया की नींव हिली हुई है। यह सब चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। हम इनमें से किसी को भी प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन हम इन सबसे प्रभावित होते हैं। इसलिए हम में से बहुत से लोगों की नौकरियों पर संकट है। संकट आ चुका है/आने वाला है।
इसके कारण अच्छे भले हंसते-गाते लोग भी तनाव में दिख रहे हैं। कोरोना के डर ने सबको भयभीत कर दिया है। क्रिकेट में बल्लेबाज तब अक्सर आउट नहीं होता, जब वह लापरवाही दिखाए। बल्कि उसके आउट होने की संभावना ऐसी स्थिति में बढ़ जाती है, जहां वह गेंदबाज को अपने ऊपर हावी हो जाने दे। बल्लेबाज इससे एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है, जहां उसके पांव चलने बंद हो जाते हैं। फुटवर्क थम जाता है। एक बार गेंदबाज आपको ऐसी स्थिति में ले आए, तो उसके बाद वह सहज ही बल्लेबाज को आउट कर लेता है।
‘जीवन संवाद’ को बड़ी संख्या में आपके ईमेल और संदेश अपने सहकर्मियों के खराब बर्ताव, एक-दूसरे को न समझ पाने और असंभव लक्ष्य के पीछे दौड़ाने जैसी शिकायतें मिल रही हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि हर कोई अपनी नौकरी को सुरक्षित रखना चाहता है और वह इसके लिए किसी भी कीमत तक जाने को तैयार है।
पंद्रह दिन पहले एक रोज देर शाम जब मैं आपके लिए अगले दिन के लिए ‘जीवन संवाद’ की तैयारी कर रहा था। गुजरात से एक फोन आया। मेरी पूूर्व सहकर्मी की मित्र निहारिका भटनागर एक प्रतिष्ठित आईटी कंपनी को अहमदाबाद में अपनी सेवाएं दे रही हैं। निहारिका ने बताया कि वह चिंता (एंजायटी) से इतनी परेशान हैं कि इससे उबरने के लिए दवाइयों का उपयोग कर रही हैं। डॉक्टर को दिखाया है। मैंने उनसे कहा कि वह अत्यधिक सोच-विचार कर रही हैं? उन्होंने कहा नहीं। लेकिन इसके साथ ही यह भी बताया कि कुछ महीने से नींद गायब है। बेचैनी है। स्वयं के भीतर अपराधबोध है। अपनी ही अपेक्षाओं पर खरा न उतरने से स्वयं के प्रति नाराजगी है। कई बार हम चिंता में तो होते हैं, लेकिन उसे स्वीकार नहीं कर पाते। हम स्वयं ही नहीं समझ पाते कि किस तरह की भ_ी में हमारा मन जला जा रहा है।
डॉक्टर ने उनको शरीर के हिसाब से दवाई दी। लेकिन मेरा सुझाव था कि संकट मन का है। अपने अंतर्मन को नहीं संभाल पाने का है। डॉक्टर को उनसे अधिक संवेदनशीलता से बात करनी चाहिए थी। सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि वह स्वयं के प्रति गहरे संदेह से गुजर रही हैं। सारे रास्ते बंद हो गए हैं, जब इस तरह के विचारों ने उनको घेर लिया, तो यहीं से चिंता ने चक्रव्यूह रच लिया। डॉक्टर की दवाइयां निसंदेह रूप से जरूरी हैं लेकिन अभी वह ऐसी स्थिति में हैं, जहां से स्वयं को संभाल सकती हैं।
हमने जीवन के अलग-अलग पक्षों पर बात की। कुछ कहानियां सुनीं। वही जिंदगी की कहानी जो आप जीवन संवाद में पढ़ते, इसके फेसबुक लाइव में सुनते हैं। उनको अपने भीतर झांकने और मन की खरपतवार की सफाई का निवेदन किया। वही निवेदन आपसे करता हूं, स्वयं से संवाद बढ़ाएं। उन रास्तों की ओर न देखें जो बंद हो रहे हैं, उन पगडंडियों को तलाशने की कोशिश करें जो आपकी प्रतीक्षा में हैं।
मुझे यह कहते हुए बेहद संतोष, प्रसन्नता है कि अब उनकी स्थिति बेहतर है। दवाइयां बंद हो गई हैं। उनका संकट सामाजिक, आर्थिक से अधिक मानसिक है। भीतर का संकट है। जीवनदृष्टि जब किसी भी कारण से बाधित हो जाती है तो जिंदगी अधिक दूर तक नहीं देख पाती। प्रेम, स्नेह के होते हुए भी कई बार हम स्वयं को हर चीज के लिए जिम्मेदार मानने लगते हैं। आज जिस दशा में हैं, संभव है वह कल से बेहतर न हो, लेकिन आने वाला कल उससे तो हम परिचित नहीं हैं। इसलिए उसके प्रति मन में निराशा ठीक नहीं। जो चीजें हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, उनकी चिंता में घुलना बंद कर दीजिए। हां, जो कर सकते हैं, उसमें पूरा समर्पण दीजिए। इससे जिंदगी की दशा और दिशा दोनों सरलता से बदली जा सकती हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
प्रश्न यह नहीं कि दुर्योधन ने कृष्ण की सेना ही क्यों चुनी! प्रश्न यह है कि हम में से अधिकांश लोग अगर दुर्योधन की जगह होते, तो क्या चुनते! आज भी क्या चुन रहे हैं! हम जो चुन रहे हैं, उसमें भी प्रेम की जगह शक्ति ही अधिक है...
हम जो चुनते हैं, उससे बहुत कुछ तय नहीं होता। उससे ही सबकुछ तय होता है! अक्सर हमारा चुना हुआ लुभावना, लोकप्रिय और आश्वस्त करने वाला होता है। हम गुणवत्ता से चुनाव नहीं करते हम चुनाव करते समय जो आधार बनाते हैं वह अक्सर वैसे ही होते हैं, जिसकी कहानी हमें महाभारत में स्पष्ट सुनाई गई है! जब युद्ध होना तय हुआ तो पांडव और कौरव दोनों ही मदद का निवेदन लेकर कृष्ण के पास पहुंचे। संयोग से दोनों का कृष्ण के पास पहुंचने का समय एक ही था। लेकिन दोनों के दृष्टिकोण, जीवन के प्रति नजरिए में बड़ा फर्क था। दुर्योधन सोते हुए कृष्ण के सिरहाने बैठ जाते हैं, तो अर्जुन उनके पांव की ओर। दोनों का चयन मूलत: दोनों के व्यवहार से जुड़ा हुआ है।
जब हम विनम्रता से किसी के पास जाते हैं, तो हमारी आवाज, हमारा मन श्रद्धा के साथ निवेदन के लिए होता है। विनम्रता में स्नेह शामिल होता है। दूसरी ओर अहंकार के साथ ऐसा नहीं। अहंकार के साथ शक्ति का भाव अधिक होता है। इसलिए जब मदद मांगने का पहला अवसर अर्जुन को मिला, तो उन्होंने अकेले कृष्ण को चुना! उन्होंने निहत्थे कृष्ण को चुना। उन्होंने युद्ध में शस्त्र न उठाने वाले कृष्ण को चुना!
जब कृष्ण ने यह कहा था कि विशाल सेना और निहत्थे कृष्ण में से चुनना है, तो दुर्योधन भीतर ही भीतर डर गया होगा। उसे अवश्य ही लगा होगा कि कहीं अर्जुन और कृष्ण की प्रशिक्षित विशाल सेना न मांग ले। उसे लगा तो होगा कि अर्जुन वही मांगेगा, क्योंकि निहत्थे का वह क्या करेगा! लेकिन अर्जुन ने दुर्योधन के उलट चित्त पाया था। उसका मन तो कृष्णमय था। प्रेम में था। उसके मन में कहीं कोई दुविधा नहीं है।
दुविधा की दुनिया तो दुर्योधन जैसों के लिए है। जो विशाल सेना और प्रेम, स्नेह के बीच केवल शक्ति को चुनते हैं। शक्ति को चुनना असल में अपने अहंकार की पुष्टि है। जहां शक्ति के प्रति आग्रह अधिक होगा, वहां अहंकार से दूरी संभव नहीं।
प्रश्न यह नहीं कि दुर्योधन ने सेना क्यों चुनी! प्रश्न यह है कि हम में से अधिकांश लोग अगर दुर्योधन की जगह होते, तो क्या चुनते! आज भी क्या चुन रहे हैं। हम जो चुन रहे हैं, उसमें भी प्रेम की जगह शक्ति ही अधिक है। कौरवों की हार केवल इसलिए नहीं हुई, क्योंकि पांडवों के पक्ष में धर्म था। बल्कि इसलिए भी हुई, क्योंकि वहां दूर-दूर तक अहंकार था। शक्ति के अनुयायी, समर्थक कई बार यह भूल जाते हैं कि उनके सेनापति मजबूरी में उनका साथ दे रहे हैं मन से नहीं।
जिस सेना के सेनापति भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण जैसे महारथी हों, उसका हारना केवल पांडवों की जीत नहीं है। उससे कहीं अधिक कौरवों की हार है। यह तीनों ही किसी न किसी रूप में पांडवों के साथ थे। उनकी विजय को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे थे। अहंकार के साथ ऐसा ही है। कल अहंकार दुर्योधन के साथ था, आज वह किस रूप में हमारे साथ है हमें नहीं पता!
इसलिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि हम अपने जीवन में दिए गए विकल्पों में से क्या चुनते हैं। महाभारत में द्रौपदी वस्त्रहरण, लाक्षागृह के होने पर जब धृतराष्ट्र और उनके समर्थित, पोषित, वचनबद्ध मौन चुन रहे थे तो असल में वह युद्ध की नींव रख रहे थे। अकेले दुर्योधन को युद्ध का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उसके अहंकार की इसमें बड़ी भूमिका है, लेकिन उससे अधिक भूमिका उन लोगों की है जो अपनी अपनी निष्ठा, निष्ठा के अहंकार से बंधे थे। इसलिए, यह बहुत जरूरी है कि हम अपने चुनाव और लक्ष्यों के प्रति सजग रहें। उनको पाने की हड़बड़ी में कहीं हम दुर्योधन जैसी गड़बड़ी न करें।
हमें भले ही बड़े युद्ध लडऩे हों, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि हम कहीं कृष्ण की जगह उनकी सेना के भरोसे तो नहीं हैं। कृष्ण किसी भी प्रश्न को अधूरा नहीं छोड़ते। इसलिए आगे चलकर जब वह हस्तिनापुर जाते हैं शांतिदूत बनकर तो दुर्योधन की जगह विदुर के यहां भोजन का निमंत्रण स्वीकार करते हैं। दुर्योधन के नाराज होने पर वह उन्हें समझाते हैं, तुमको मुझसे स्नेह नहीं, नहीं तो तुम मेरे लिए लड़ जाते! दो पल के लिए केवल कल्पना करके देखिए अगर उस दिन दुर्योधन ने निहत्थे कृष्ण को मांग लिया होता, तो महाभारत की कहानी कुछ और होती।
मनुष्य प्रेम में गलतियां नहीं करता। असल में वह प्रेम में गलतियां करता ही नहीं। हां, उसका प्रेम कितना गहरा है यह प्रश्न जरूर उपस्थित होता है। गलतियां तो शुरू ही वहां से होती है, जहां प्रेम नहीं होता। हम प्रेम को दिखाना तो चाहते हैं, लेकिन बस अपने फायदे के लिए। ऐसे प्रेम का परिणाम वही होता है जो दुर्योधन का हुआ!
इसलिए यह जरूरी है कि हम अपने चयन के प्रति सावधान रहें। प्रेम में लेकिन, किंतु-परंतु होने से जायका बिगड़ जाता है। वहां शर्तों के लिए जगह नहीं हो सकती। कृष्ण वह सबकुछ करते हैं जो पांडवों के लिए जरूरी है! यहां तक कि वह अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ देते हैं। दूसरी ओर उनको देखिए जो कौरवों के सेनापति हैं। उनमें दुर्योधन के प्रति प्रेम नहीं, इसलिए वह अपनी शपथ के पिंजरे में स्वयं कैद हो जाते हैं।
प्रेम, अंतत: प्यार ही सबसे बड़ा हितैषी है। हमारा ख्याल जिस सुंदरता से प्रेम रख सकता है, वैसा कोई दूसरा नहीं। यह मन, जीवन, जीवनशैली तीनों को बखूबी संभालता है। लेकिन सबसे पहले हमें इसके साथ रिश्ते को संवारना होता है!
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
एक राजनीतिक दल के ऊर्जावान प्रवक्ता की एक टीवी चैनल की उत्तेजक डिबेट में भाग लेने के बाद कथित मौत को लेकर टीआरपी बढ़ाने वाले कार्यक्रमों की प्रतिस्पर्धा पर चिंता व्यक्त की जा रही है। एक सभ्य समाज में ऐसा होना स्वाभाविक भी है पर इस तरह की बहसों के पीछे काम कर रहे प्रभावशाली लोग और जो प्रभावित हो रहे हैं वे भी अच्छे से जानते हैं कि शोक की अवधि समाप्त होते ही जो कुछ चल रहा है, उसे मीडिया की व्यावसायिक मजबूरी मानकर स्वीकार कर लिया जाएगा। मीडिया उद्योग को नज़दीक से जानने वाले लोग भी अब मानते जा रहे हैं कि बहसों के ज़रिए जो कुछ भी बेचा जा रहा है, उसकी विश्वसनीयता उतनी ही बची है, जितनी कि उनमें हिस्सा लेने वाले प्रवक्ताओं/प्रतिनिधियों के दलों/संस्थानों की जनता के बीच स्थापित है।
सत्ता की राजनीति में बने रहने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों ने समाज को जाति और वर्गों के साम्प्रदायिक घोंसलों में सफलतापूर्वक बांटने के बाद अब मीडिया के उस टुकड़े को भी अपनी झोली में समेट लिया है, जिसका जनता की आकांक्षाओं का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व कर पाने का साहस तो काफी पहले ही कमजोर हो चुका था। अब तो केवल इतना भर हो रहा है कि ‘आपातकाल’ ने जिस मीडिया के ऊपरी धवल वस्त्रों में छेद करने का काम पूरा कर दिया था, आज उसे लगभग निर्वस्त्र-सा किया जा रहा है। उस जमाने में (अपवादों को छोड़ दें तो) जो काम प्रिंट मीडिया का केवल एक वर्ग ही दबावों में कर रहा था, वही आज कुछ अपवादों के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा तबका स्वेच्छा से कर रहा है। यही कारण है कि एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता की किसी उत्तेजक बहस के कारण कथित मौत दर्शकों की आत्माओं पर भी कोई प्रहार नहीं करती और मीडिया के संगठनों की ओर से भी कोई खेद नहीं व्यक्त किया जाता।
समझदार दर्शक तो समझने भी लगे हैं कि टीवी की बहसों में प्रायोजित तरीके से जो कुछ भी परोसा जाता है, वह केवल कठपुतली का खेल है, जिसकी असली रस्सी तो कैमरों के पीछे ही बनी रहने वाली कई अंगुलियाँ संचालित करतीं हैं। एंकर तो केवल समझाई गई स्क्रिप्ट को ही अभिनेताओं की तरह पढऩे काम अपने-अपने अन्दाज़ में करते हैं। पर कई बार वह अन्दाज भी घातक हो जाता है। हो यह गया है कि जैसे अब किसी तथाकथित साधु, पादरी, ब्रह्मचारी या धर्मगुरु के किसी महिला या पुरुष के साथ बंद कमरों में पकड़े जाने पर समाज में ज़्यादा आश्चर्य नहीं प्रकट किया जाता या नैतिक-अनैतिक को लेकर कोई हाहाकार नहीं मचता, वैसे ही मीडिया के आसानी से भेदे जा सकने वाले दुर्गों और सत्ता की राजनीति के बीच चलने वाले सहवास को भी ‘नाजायज़ पत्रकारिता ‘के कलंक से आजाद कर दिया गया है।
एक राजनीतिक प्रवक्ता की मौत को कारण बनाकर अब यह उम्मीद करना कि मूल मुद्दों पर जनता का ध्यान आकर्षित करने से ज़्यादा उनसे भटकाने के लिए प्रायोजित होने वाली बहसों का चरित्र बदल जाएगा, एंकरों के तेवरों में परिवर्तन हो जाएगा या राजनीतिक दल उनमें भाग लेना ही बंद कर देंगे वह बेमायने है।ऐसा इसलिए कि जो कुछ भी अभी चल रहा है, उसे कायम रखना मीडिया बाजार की सत्ताओं की राजनीतिक मजबूरी और व्यावसायिक जरूरत बन गया है। मीडिया उद्योग भी नशे की दवाओं की तरह ही उत्पादित की जाने वाली खबरों और बहसों को बेचने के परस्पर प्रतिस्पर्धी संगठनों में परिवर्तित होता जा रहा है।
दर्शकों और देश का भला चाहने वाले कुछ लोग अभी हैं जो लगातार सलाहें दे रहे हैं कि जनता द्वारा चैनलों को देखना बंद कर देना चाहिए। पर वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि फिर देखने के लिए नया क्या है और कहाँ उपलब्ध है? यह वैसा ही है जैसे सरकारें तो बच्चों से उनके खेलने के असली मैदान छीनती रही और उनके अभिभावक उन्हें वीडियो गेम्स खेलने के लिए भी मना करते रहें। ये भले लोग जिस मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ बता रहे हैं उसे ही इस समय असली मीडिया होने की मान्यता हासिल है। जो गोदी मीडिया नहीं है वह फिल्म उद्योग की उन लो बजट समांतर फि़ल्मों की तरह रह गया है, जिन्हें बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार तो मिल सकते हैं देश में बॉक्स ऑफिस वाली सफलता नहीं।
एक प्रवक्ता की मौत से उपजी बहस का उम्मीद भरा सिरा यह भी है कि चैनलों की बहसों में जिस तरह की उत्तेजना पैदा हो रही है वैसा अखबारों के एक संवेदनशील और साहसी वर्ग में (जब तक सप्रयास नहीं किया जाए )आम तौर पर अभी भी नहीं होता। यानी कि काली स्याही से छपकर बंटने वाले अख़बार चैनलों के ‘घातक’ शब्दों के मुक़ाबले अभी भी ज़्यादा प्रभावकारी और विश्वसनीय बने हुए हैं। उन्हें लिखने या पढऩे के बाद व्यक्ति भावुक हो सकता है, उसकी आँखों में आंसू आ सकते हैं पर उसकी मौत नहीं होती।यह बात अलग से बहस की है कि जिस दौर से हम गुजर रहे हैं उसमें मौत केवल अख़बारों को ही दी जानी बची है पर वह इतनी जल्दी और आसानी से होगी नहीं।चैनल्स तो खैर जिंदा रखे ही जाने वाले हैं।उनमें बहसें भी इसी तरह जारी रहेंगी। सिर्फ प्रवक्ताओं के चेहरे बदलते रहेंगे। एंकरों सहित बाकी सब कुछ वैसा ही रहने वाला है।
खुद को नकलची होने से बचाना सबसे जरूरी काम है। हमें भीतर से इस बात के लिए तैयार होना होगा कि दूसरे का हमें कुछ नहीं चाहिए। अपने बनाए नए रास्ते ही जब हमें लुभावने लगेंगे, तभी हम अपनी पहचान को प्राप्त हो पाएंगे।
खुद की पहचान मुश्किल काम है। हम अक्सर ही इससे दूर रहते हैं। जीवन में तीन बातें ही खास हैं- जन्म, प्रेम और पहचान। जन्म वश में नहीं। प्रेम की समाज में व्यवस्था नहीं। पहचान करने के लिए बहुत साहस चाहिए। इसलिए हम दुखी, अकेले हुए जा रहे हैं। यह चक्रव्यूह टूटना चाहिए। जन्म हम तय नहीं कर सकते। इसे कोई और हमारे लिए तय करता है। यह हमारे नियंत्रण में नहीं। उसके बाद प्रेम। प्रेम, हम कितना सीख पाएंगे यह हमारे ऊपर ही निर्भर करता है, क्योंकि इसे सिखाने की कोई व्यवस्था नहीं। हमारे किसी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में प्रेम पढ़ाया नहीं जाता। इसके उलट सारी व्यवस्थाएं हम इस तरह से करते हैं कि किसी तरह प्रेम कम होता जाए।
हम बच्चों को एक-दूसरे से अधिक अंक लाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जन्म से ही। एक-दूसरे से आगे बढऩे के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए नहीं, क्योंकि इसका मनुष्य होने से कोई रिश्ता है, बल्कि इसलिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे दुनियादारी में पीछे रह जाएं। जीवन के अर्थ को वह भले ही न समझ पाएं, लेकिन हमारी नजर इसी पर रहती है कि वह दुनिया के मुकाबले में कहीं पिछड़ न जाएं!
जीवन संवाद में प्रेम पर तो हम निरंतर बात करते ही रहे हैं। आज पहचान पर कुछ बातें आपसे साझा करता हूं। एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी, अपनी पहचान के बारे में...
अमेरिका में अब्राहम लिंकन के निधन के बाद उन पर एक नाटक तैयार किया गया। नाटक में लिंकन की भूमिका के लिए जिस व्यक्ति को चुना गया, उसे नाटक शुरू होने के छह महीने पहले से तैयारी पर लगाया गया। नाटक महत्वपूर्ण था। पूरे अमेरिका की इस पर नजर थी। इसलिए, उसके परिवार ने भी इस किरदार को ठीक से निभाने में पूरा सहयोग किया। उसे घर पर लिंकन होने का पूरा एहसास कराया गया।
वह व्यक्ति किरदार में इतना डूब गया कि वह पूरी तरीके से स्वयं को अब्राहम लिंकन ही समझने लगा। जब तक नाटक चल रहा था, तब तक तो किसी का इस ओर ध्यान नहीं गया। लेकिन धीरे-धीरे उनकी पत्नी और बच्चों ने नाटक के निर्देशक से इस बात की शिकायत करते हुए कहा कि वह यह मानने को राजी ही नहीं कि वह लिंकन नहीं हैं!
उस व्यक्ति को लिंकन के बारे में इतनी अधिक जानकारियां हो गई थीं, इतने अधिक विवरण उसके पास थे कि वह स्वयं को अब्राहम लिंकन ही समझने लगा। अंतत: उसे डॉक्टरों को दिखाना पड़ा। मनोचिकित्सकों के पास ले जाया गया। तब भी जल्दी से उस पर असर नहीं हुआ। उसके परिवार और मित्रों की चिंताएं बढ़ती जा रही थीं। वह किसी भी तरह से इस बात के लिए राजी नहीं था कि वह लिंकन नहीं है। डॉक्टरों को एक उपाय सूझा, उन्होंने उसे झूठ पकडऩे वाली मशीन से परीक्षण (लाई डिटेक्टर टेस्ट) के लिए तैयार किया। तब कहीं जाकर उसे यह समझाया जा सका कि वह लिंकन नहीं है। उसने केवल लिंकन का किरदार निभाया है!
वह खुशकिस्मत था। उसे कुछ ही वर्षों में पता चल गया कि वह लिंकन नहीं है! हम में से अधिकांश लोग पूरी जिंदगी न जाने खुद को क्या-क्या मानते हुए बिता देते हैं। हमें कोई कितना भी समझा ले, हम इस बात के लिए राजी नहीं होते कि हम जिसके गुमान में हैं, हम वह नहीं हैं! यह बताए भी कौन! क्योंकि बताने में बड़ा झंझट है। इसलिए जानते-बूझते सब लोग शांत रहते हैं। कितनी खतरनाक शांति है, लेकिन एक समाज के रूप में हमने इसे स्वीकार किया है।
खुद को नकलची होने से बचाना सबसे जरूरी काम है। हमें भीतर से इस बात के लिए तैयार होना होगा कि दूसरे का हमें कुछ नहीं चाहिए। अपने बनाए नए रास्ते ही जब हमें लुभावने लगेंगे, तभी हम अपनी पहचान को प्राप्त हो पाएंगे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र