अक्सर कहा जाता है कि सर्दी या बारिश में जोड़ों या कमर का दर्द बढ़ जाता है. लेकिन ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक शोध के बाद कहा है कि इस मान्यता में कोई सच्चाई नहीं है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
यह पुरानी मान्यता है कि मौसम बदलने पर जोड़ों या मांसपेशियों का दर्द बढ़ जाता है. बहुत से लोग कहते हैं कि गठिये का दर्द भी मौसम के हिसाब से कम या ज्यादा हो सकता है. लेकिन एक ताजा अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने इस समझ को चुनौती दी है.
ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं को जोड़ों के दर्द और मौसम में कोई संबंध नहीं मिला. शोधकर्ताओं ने पाया कि अधिक तापमान और कम उमस में गाउट का खतरा दोगुना हो सकता है. अपने शोध में उन्होंने पाया कि गर्मी के मौसम में शरीर में पानी की कमी होने से गाउट के मरीजों में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ गई.
तापमान से संबंध नहीं
दुनियाभर में बड़े पैमाने पर लोग जोड़ों के दर्द से पीड़ित रहते हैं. ऑस्ट्रेलिया में ही इनकी संख्या एक चौथाई आबादी के करीब है. वैज्ञानिकों ने अपने शोध के जरिए इस आम समझ को चुनौती दी है कि मौसम का असर इस दर्द पर होता है. उन्होंने कहा कि जोड़ों के दर्द को लेकर बहुत सी गलतफहमियां हैं और इसके इलाज के विकल्प बहुत कम हैं.
सिडनी यूनिवर्सिटी की ओर से जारी एक बयान में शोधकर्ता प्रोफेसर मानुएला फरेरा ने कहा, "आमतौर पर लोग मानते हैं कि किसी खास मौसम में कमर, कूल्हे या जोड़ों के दर्द और गठिये के दर्द में वृद्धि हो जाती है. हमारा शोध इस समझ को चुनौती देता है और दिखाता है कि बारिश हो या धूप, मौसम का हमारे अधिकतर दर्दों से कोई संबंध नहीं है.”
सिडनी के कोलिंग इंस्टिट्यूट की प्रोफेसर फरेरा और उनकी टीम ने मांसपेशियों और हड्डियों (मस्कोस्केलटल) के दर्द को लेकर अब तक हुए तमाम अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के डेटा का विश्लेषण किया. लगभग 15 हजार मरीजों के इस डेटा में दर्द के बढ़ने के 28 हजार से ज्यादा मामले शामिल थे. इनमें सबसे ज्यादा मामले घुटने या कूल्हे के गठिये के थे. उसके बाद कमर के निचले हिस्से का दर्द सबसे ज्यादा पाया गया.
मौसम के भरोसे ना रहें
विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने पाया कि हवा के तापमान, नमी या दबाव में बदलाव या बारिश से दर्द में बढ़ने के मामलों में कोई बदलाव नहीं हुआ था. यानी ऐसा नहीं हुआ कि जब मौसम बदला तो मरीजों का दर्द के इलाज के लिए आना बढ़ गया या कम हो गया. उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ.
यह पहला ऐसा अध्ययन है जिसमें जोड़ों या मांसपेशियों के दर्द का मौसम से संबंध होने पर खोज की गई. शोधकर्ता कहते हैं कि उनके नतीजे उस समझ को एक भ्रांति साबित करते हैं. साथ ही वे मरीजों को भी चेताते हैं कि मौसम के असर के इंतजार में अपने दर्द को नजरअंदाज ना करें.
प्रोफेसर फरेरा कहती हैं, "दर्द में राहत के लिए मरीजों और डॉक्टरों को वजन में कमी और व्यायाम जैसी चीजों पर ध्यान देना चाहिए ना कि इस इंतजार में रहना चाहिए कि मौसम बदलेगा तो दर्द कम हो जाएगा.” (dw.com)
(जस्टिन रॉबर्ट्स, जोसेफ लिलिस और मार्क कॉर्टनेज, एंग्लिया रस्किन विश्वविद्यालय)
कैंब्रिज, 25 जनवरी। बुढ़ापा जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा है, जो दीर्घायु की खोज के प्रति हमारे मजबूत आकर्षण को समझा सकता है। शाश्वत यौवन का आकर्षण अपने जीवनकाल को बढ़ाने की उम्मीद रखने वाले लोगों के लिए अरबों पाउंड के उस उद्योग को संचालित करता है, जो बुढ़ापा रोधी उत्पादों से लेकर पूरक और आहार तक का कारोबार करते हैं।
यदि आप 20वीं सदी की शुरुआत पर नजर डालें तो ब्रिटेन में औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 46 वर्ष थी। आज ये 82 साल के करीब है. हम वास्तव में पहले से कहीं अधिक लंबे समय तक जी रहे हैं, संभवतः चिकित्सा प्रगति और बेहतर रहने और काम करने की स्थितियों के कारण।
लेकिन लंबे समय तक जीवित रहने की भी कीमत चुकानी पड़ी है। अब हम पुरानी और अपक्षयी बीमारियों की उच्च दर देख रहे हैं - हृदय रोग इस सूची में लगातार शीर्ष पर है। इसलिए जबकि हम इस बात से रोमांचित हैं कि हमें लंबे समय तक जीने में क्या मदद मिल सकती है, शायद हमें लंबे समय तक स्वस्थ रहने में अधिक रुचि होनी चाहिए। हमारी "स्वस्थ जीवन प्रत्याशा" में सुधार करना एक वैश्विक चुनौती बनी हुई है।
दिलचस्प बात यह है कि दुनिया भर में कुछ ऐसे स्थानों की खोज की गई है जहां उल्लेखनीय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य वाले शतायु लोगों का अनुपात अधिक है।
उदाहरण के लिए, सार्डिनिया, इटली के एकेईए अध्ययन ने एक "ब्लू जोन" की पहचान की (यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसे नीले पेन से चिह्नित किया गया था), जहां व्यापक सार्डिनियन समुदाय के मुकाबले मध्य-पूर्वी पहाड़ी इलाकों में रहने वाले ऐसे स्थानीय लोगों की संख्या अधिक थी जो अपने 100 वें जन्मदिन पर पहुंच गए थे। ।
इस दीर्घायु हॉटस्पॉट का तब से विस्तार हुआ है, और अब इसमें दुनिया भर के कई अन्य क्षेत्र भी शामिल हैं, जिनमें लंबे समय तक जीवित रहने वाले, स्वस्थ लोगों की संख्या भी अधिक है। सार्डिनिया के साथ-साथ, इन ब्लू जोन में अब लोकप्रिय रूप से शामिल हैं: इकारिया, ग्रीस; ओकिनावा, जापान; निकोया, कोस्टा रिका; और लोमा लिंडा, कैलिफ़ोर्निया।
अपने लंबे जीवन काल के अलावा, इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग कुछ अन्य समानताएं भी साझा करते दिखाई देते हैं, जो एक समुदाय का हिस्सा होने, जीवन का उद्देश्य रखने, पौष्टिक, स्वस्थ भोजन खाने, तनाव के स्तर को कम रखने और उद्देश्यपूर्ण दैनिक व्यायाम या शारीरिक कार्य करने पर केंद्रित हैं।
उनकी दीर्घायु उनके पर्यावरण से भी संबंधित हो सकती है, ज्यादातर ग्रामीण (या कम प्रदूषित) होने के कारण, या विशिष्ट दीर्घायु जीन के कारण।
हालाँकि, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि आनुवंशिकी केवल लगभग 20-25% दीर्घायु के लिए जिम्मेदार हो सकती है - जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति का जीवनकाल जीवनशैली और आनुवंशिक कारकों के बीच एक जटिल तालमेल है, जो लंबे और स्वस्थ जीवन में योगदान देता है।
क्या इसका रहस्य हमारे आहार में है?
जब आहार की बात आती है, तो प्रत्येक ब्लू जोन का अपना दृष्टिकोण होता है - इसलिए एक विशिष्ट भोजन या पोषक तत्व उल्लेखनीय दीर्घायु की व्याख्या नहीं करता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पौधों के खाद्य पदार्थों (जैसे स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियां, फल और फलियां) से भरपूर आहार इन क्षेत्रों में उचित रूप से सुसंगत प्रतीत होता है।
उदाहरण के लिए, लोमा लिंडा के सेवेंथ-डे एडवेंटिस्ट मुख्यतः शाकाहारी हैं। ओकिनावा में सौ साल के लोगों के लिए, बैंगनी शकरकंद, सोया और सब्जियों से फ्लेवोनोइड्स (आमतौर पर पौधों में पाया जाने वाला एक रासायनिक यौगिक) का उच्च सेवन बेहतर हृदय स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है - जिसमें निम्न कोलेस्ट्रॉल स्तर और स्ट्रोक और हृदय रोग की कम घटनाएं शामिल हैं।
निकोया में, स्थानीय रूप से उत्पादित चावल और फलियों की खपत को टेलोमेयर की अधिक लंबाई के साथ जोड़ा गया है। टेलोमेयर हमारे गुणसूत्रों के अंत में संरचनात्मक भाग हैं जो हमारी आनुवंशिक सामग्री की रक्षा करते हैं। हर बार कोशिका के विभाजित होने पर हमारे टेलोमेयर छोटे हो जाते हैं - इसलिए जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, वे उत्तरोत्तर छोटे होते जाते हैं।
कुछ जीवनशैली कारक (जैसे धूम्रपान और खराब आहार) भी टेलोमेयर की लंबाई को छोटा कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि टेलोमेयर की लंबाई उम्र बढ़ने के बायोमार्कर के रूप में कार्य करती है - इसलिए लंबे टेलोमेयर का होना, आंशिक रूप से, दीर्घायु से जुड़ा हो सकता है।
लेकिन पौधे आधारित आहार ही एकमात्र रहस्य नहीं है। उदाहरण के लिए, सार्डिनिया में, स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियों और पारंपरिक खाद्य पदार्थों जैसे कि एकोर्न ब्रेड, पैन कारासौ (एक खट्टी रोटी), शहद और नरम पनीर के अधिक सेवन के साथ ही मांस और मछली का सेवन कम मात्रा में किया जाता है।
कई ब्लू ज़ोन क्षेत्रों में जैतून का तेल, वाइन (संयम के साथ - दिन में लगभग 1-2 गिलास), साथ ही चाय का भी समावेश देखा गया है। इन सभी में शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो उम्र बढ़ने के साथ हमारी कोशिकाओं को क्षति से बचाने में मदद कर सकते हैं।
शायद फिर, यह इन शतायु लोगों के आहार में विभिन्न पोषक तत्वों के सुरक्षात्मक प्रभावों का एक संयोजन है, जो उनकी असाधारण दीर्घायु की व्याख्या करता है।
इन दीर्घायु गर्म स्थानों का एक और उल्लेखनीय अवलोकन यह है कि भोजन आमतौर पर घर पर ताजा तैयार किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पारंपरिक ब्लू ज़ोन आहार में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ, फास्ट फूड या शर्करा युक्त पेय शामिल नहीं होते हैं जो उम्र बढ़ने में तेजी ला सकते हैं। तो जितना यह जानना जरूरी है कि ये लंबे समय तक जीवित रहने वाली आबादी क्या कर रही है, उतना ही यह जानना भी जरूरी है कि वह क्या नहीं कर रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि 80% पेट भरने तक खाने का एक पैटर्न है (दूसरे शब्दों में आंशिक कैलोरी में कमी। यह इस बात का समर्थन करने में भी महत्वपूर्ण हो सकता है कि हमारी कोशिकाएं उम्र बढ़ने के साथ क्षति से कैसे निपटती हैं, जिसका अर्थ लंबा जीवन हो सकता है।
इन ब्लू ज़ोन आहारों को बनाने वाले कई कारक - मुख्य रूप से पौधे-आधारित और प्राकृतिक संपूर्ण खाद्य पदार्थ - हृदय रोग और कैंसर जैसी पुरानी बीमारियों के कम जोखिम से जुड़े हैं। ऐसे आहार न केवल लंबे, स्वस्थ जीवन में योगदान दे सकते हैं, बल्कि अधिक विविध आंत माइक्रोबायोम का समर्थन कर सकते हैं, जो स्वस्थ उम्र बढ़ने के साथ भी जुड़ा हुआ है।
जब दीर्घायु की बात आती है तो आहार बड़ी तस्वीर का केवल एक हिस्सा है, यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसके बारे में हम कुछ कर सकते हैं। वास्तव में, यह न केवल हमारे स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार के केंद्र में हो सकता है, बल्कि हमारी उम्र बढ़ने की गुणवत्ता में भी सुधार ला सकता है।
द कन्वरसेशन एकता एकता 2501 1158 कैंब्रिज (द कन्वरसेशन)
सिडनी, 22 जनवरी । एक शोध से यह बात सामने आई है कि बचपन में हुई फूड एलर्जी से अस्थमा और फेफड़ों की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
मर्डोक चिल्ड्रेन्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के नेतृत्व में किए गए शोध में पाया गया कि प्रारंभिक जीवन में फूड एलर्जी अस्थमा के बढ़ते जोखिम और छह साल की उम्र में फेफड़ों के विकास में कमी से जुड़ी थी।
अध्ययन में 5,276 शिशुओं को शामिल किया गया, जिन्होंने खाद्य एलर्जी के परीक्षण के लिए मूंगफली और अंडे और मौखिक भोजन की चुनौतियों सहित आम फूूड एलर्जी के लिए परीक्षण किया। छह साल की उम्र में बच्चों का खाद्य एलर्जी और फेफड़ों के कार्य परीक्षण किया गया।
लांसेट चाइल्ड एंड एडोलेसेंट हेल्थ में प्रकाशित नतीजों से पता चला कि छह साल की उम्र तक, 13.7 प्रतिशत ने अस्थमा के डायग्नोसिस की सूचना दी। बिना फूड एलर्जी वाले बच्चों की तुलना में, छह साल की उम्र में फूड एलर्जी वाले शिशुओं में अस्थमा विकसित होने की संभावना लगभग चार गुना अधिक थी।
इसका असर उन बच्चों पर सबसे ज़्यादा पड़ा जिनकी फूड एलर्जी छह साल की उम्र तक बनी रही, उन लोगों की तुलना में जिनकी एलर्जी की उम्र बढ़ चुकी थी। फूड एलर्जी से पीड़ित बच्चों में फेफड़ों की कार्यक्षमता कम होने की संभावना भी अधिक थी।
मर्डोक चिल्ड्रेन में एसोसिएट प्रोफेसर राचेल पीटर्स ने कहा, ''बचपन में हुई फूड एलर्जी, चाहे इसका समाधान हो या नहीं, बच्चों में खराब श्वसन परिणामों से जुड़ी हुई थी। यह संबंध बचपन में फेफड़ों के विकास में कमी को देखते हुए वयस्कता में श्वसन और हृदय की स्थिति सहित स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ा है।''
“फेफड़ों का विकास बच्चे की ऊंचाई और वजन से संबंधित होता है और फूड एलर्जी वाले बच्चे बिना एलर्जी वाले अपने साथियों की तुलना में छोटे और हल्के हो सकते हैं। यह फूड एलर्जी और फेफड़ों की कार्यप्रणाली के बीच संबंध को समझा सकता है। फूड एलर्जी और अस्थमा दोनों के विकास में समान प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाएं शामिल होती हैं।''
पीटर्स ने कहा, “फूड एलर्जी वाले शिशुओं के विकास की निगरानी की जानी चाहिए। हम उन बच्चों को आहार विशेषज्ञ की देखरेख में रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो अपनी एलर्जी के कारण भोजन से परहेज कर रहे हैं ताकि स्वस्थ विकास सुनिश्चित करने के लिए पोषण प्रदान किया जा सके।''
मर्डोक चिल्ड्रेन एंड यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की प्रोफेसर श्यामली धर्मगे ने कहा कि निष्कर्षों से चिकित्सकों को रोगी की देखभाल में मदद मिलेगी और श्वसन स्वास्थ्य की निगरानी पर अधिक सतर्कता को बढ़ावा मिलेगा।
फूड एलर्जी वाले बच्चों को निरंतर प्रबंधन और शिक्षा के लिए क्लिनिकल इम्यूनोलॉजी या एलर्जी विशेषज्ञ द्वारा प्रबंधित किया जाना चाहिए।
प्रोफेसर धर्मेज ने कहा कि चिकित्सकों और माता-पिता को फूड एलर्जी वाले बच्चों में अस्थमा के लक्षणों के प्रति भी सतर्क रहना चाहिए क्योंकि खराब नियंत्रित अस्थमा गंभीर भोजन-प्रेरित एलर्जी प्रतिक्रियाओं और एनाफिलेक्सिस के लिए एक जोखिम कारक था। (आईएएनएस)।
मिशेल रॉबर्ट्स
कैंसर से जूझ रहे कुछ बच्चों का ब्रिटेन में एक नई तरह की दवा से इलाज किया जा रहा है. ये दवा कीमोथेरेपी से बहुत कम ज़हरीली है.
11 साल के अर्थर को ब्लड कैंसर के इलाज के लिए लंदन के ग्रेट ऑरमंड स्ट्रीट अस्पताल में यह दवा दी गई. वह इस दवा को लेने वाले शुरुआती लोगों में से एक हैं.
उनके परिवार के लोग इस नई थेरेपी को ‘उम्मीद की एक किरण’ बता रहे हैं क्योंकि इससे अर्थर की तबीयत ज़्यादा ख़राब नहीं हुई.
ख़ास बात यह है कि इसे कहीं पर भी मरीज़ को दिया जा सकता है. इस वजह से अर्थर घर पर परिवार के साथ ज़्यादा समय बिता पाए और अपनी पसंद के काम भी कर पाए.
वह इस दवा को पीठ पर पहने जाने वाले बैग (पिट्ठू) में लेकर घूम सकते थे. इस बैग को ‘ब्लीना बैकपैक’ कहा जाता है.
जब बेअसर हुई कीमोथेरेपी
अर्थर के इलाज के लिए ब्लीनाटूमोमैब या ब्लीना ही एकमात्र विकल्प था क्योंकि कीमोथेरेपी से कैंसर ठीक नहीं हो पा रहा था और उसके साइड इफ़ैक्ट से वह कमज़ोर भी हो गए थे.
वयस्कों में कैंसर के इलाज के लिए ब्लीना को इस्तेमाल करने का लाइसेंस पहले से ही मिला हुआ था. मगर अब विशेषज्ञों को उम्मीद है कि यह बच्चों के लिए भी सुरक्षित रहेगी.
यूके में क़रीब 20 ऐसे सेंटर हैं, जहां बी-सेल एक्यूट लिंफोब्लास्टिक ल्यूकेमिया (बी-ऑल) से जूझ रहे बच्चों के इलाज के लिए इसका ऑफ़-लेबल इस्तेमाल किया जा रहा है.
ऑफ़-लेबल का मतलब है- मंज़ूर की जा चुकी दवा को उसके इस्तेमाल के लिए मंज़ूर किए गए ढंग के अलावा किसी और तरीक़े या किसी और बीमारी के लिए इस्तेमाल करना.
यह दवा इम्यूनोथेरेपी पर आधारित है. यानी ये शरीर में कैंसर वाली कोशिकाओं की पहचान करती है ताकि शरीर का अपना प्रतिरोधक तंत्र उन्हें पहचाने और फिर नष्ट कर दे.
यह काम बहुत ही बारीक़ी से होता है. स्वस्थ कोशिकाएं एकदम सुरक्षित रहती हैं, जबकि कीमोथेरेपी में ऐसा नहीं होता.
ब्लीना एक बैग के अंदर तरल रूप में आती है. इसे पतली सी प्लास्टिक की ट्यूब के माध्यम से सीधे मरीज़ की नस में डाला जाता है. यह ट्यूब कई महीनों तक मरीज़ की बांह से जुड़ी रहती है.
बैटरी से चलने वाला एक पंप तय मात्रा में ख़ून में दवा डालता रहता है. इस दवा का एक बैग कई दिनों तक चलता है.
ये पूरी किट एक छोटे से बैग में डालकर कहीं भी ले जाई जा सकती है. इसका आकार नोटबुक से भी छोटा है.
छोटे आकार और बैग में डाले जा सकने का मतलब था कि अर्थर अपनी पसंद के कोई भी काम कर सकते थे. जैसे कि वह घर के बगल के पार्क में झूला झूल सकते थे और उसी समय उनका इलाज भी चल रहा होता था.
वहीं, एक तो कीमोथेरेपी उनके लिए बेअसर रही थी और फिर उसने उन्हें इतना कमज़ोर कर दिया था कि वो मौज-मस्ती भी नहीं कर पाते थे.
शुरुआती दिक्कतें
ब्लीना का इस्तेमाल कर रहे बाक़ी मरीज़ों की तरह अर्थर को शुरू में एक दवा दी गई थी ताकि उन्हें नई क़िस्म से इलाज से कोई गंभीर रिएक्शन या साइड इफ़ेक्ट न हो जाए.
शुरू में उन्हें कुछ दिन बुख़ार आया और उस दौरान उन्हें जांच के लिए अस्पताल में रहना पड़ा.
लेकिन जल्द ही वह घर जा पाए.
दवा का यह बैग लगातार अर्थर के पास रहा. उनके बिस्तर पर भी. भले ही इसका पंप थोड़ी आवाज़ करता है, लेकिन रात को वह आराम से सो पाते थे.
कीमो करवाना अर्थर के लिए बहुत मुश्किलों भरा रहा था. उनकी मां सैंडरीन कहती हैं कि ब्लीना से उन्हें बहुत राहत मिली.
उन्होंने कहा, “उसकी हालत बहुत ख़राब हो गई थी. मुश्किल यह थी कि दवा (कीमो) की मार उसके शरीर पर पड़ रही थी.”
“एक ओर हम उसका इलाज कर रहे थे मगर दूसरी ओर उसी इलाज से उसकी तबीयत बिगाड़ रहे थे. इस दौर से गुज़रना बहुत मुश्किल भरा होता है.”
बड़ा क़दम
अर्थर को हर चार दिन में अस्पताल जाना पड़ा ताकि डॉक्टर ब्लीना किट में फिर से दवा भर सकें. बाक़ी समय घर पर रहकर ही इलाज चलता रहा.
उनकी मां सैंडरीन ने कहा, “उसे इस बात से ख़ुशी हुई कि वह इसे (दवा के बैग को) पकड़ सकता है, ज़िम्मेदारी उठा सकता है. वो इस सब में ढल गया था.”
अप्रैल 2023 के अंत में अर्थर का आख़िरी ऑपरेशन हुआ और उनकी बांह से ट्यूब निकाल ली गई.
सैंडरीन कहती हैं, “ये एक बड़ा क़दम था. उसे आज़ादी मिल गई थी.”
डॉक्टर कहते हैं कि ब्लीना के इस्तेमाल से कीमोथेरेपी की ज़रूरत बहुत कम की जा सकती है, शायद 80% तक.
यूनाइटेड किंगडम में हर साल क़रीब 450 बच्चों में उसी तरह के कैंसर पाया जाता है, जो अर्थर को हुआ था.
कीमो के साइड इफ़ैक्ट
चीफ़ इन्वेस्टिगेटर और कंसल्टेंट पीडिएट्रिक हेमेटोलॉजिस्ट, प्रोफ़ेसर अजय वोरा ने बताया, “कीमोथेरेपी में ऐसे ज़हर होते हैं जो ल्यूकेमिया वाली कोशिकाओं को मारते हैं. लेकिन ये सामान्य कोशिकाओं को भी नुक़सान पहुंचाते हैं . इसी कारण कीमो के साइड इफ़ेक्ट देखने को मिलते हैं.”
वह कहते हैं, “ब्लीनाटूमोमैब एक कोमल और कम कष्ट देने वाला इलाज है.”
हाल के दिनों में कैंसर के इलाज के लिए एक और इम्यूनोथेरेपी आधारित दवा- किमेरिक एंटीजन रिसेप्टर टी-सेल थेरेपी (सीएआर-टी) भी उपलब्ध हुई है.
लेकिन ये ब्लीना से महंगी है. इसमें मरीज़ों की कोशिकाएं ली जाती हैं, उनमें प्रयोगशाला में बदलाव करके फिर से मरीज़ के शरीर में दवा के तौर पर डाला जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में समय भी लगता है.
अर्थर का इलाज सफल रहा है और कैंसर ख़त्म हो गया है.
सैंडरीन कहती हैं, “हमें न्यू इयर पर पता चला कि ब्लीना ने काम किया है और अब कैंसर के कोई निशान बाक़ी नहीं हैं. ऐसे में हमारी ख़ुशियां दोगुनी हो गईं.” (bbc.com)
नयी दिल्ली, 8 जनवरी। एक अध्ययन के अनुसार आंख की रेटिना में रक्त के प्रवाह में परिवर्तन से पता चल सकता है कि माइग्रेन के कुछ रोगियों को दृश्यता से संबंधित लक्षण क्यों अनुभव होते हैं।
रेटिना अधिकांश कशेरुकी श्रेणी के और कुछ मोलस्का (स्थलीय अथवा जलीय) श्रेणी के प्राणियों की आंखों के ऊतकों की सबसे भीतरी, प्रकाश के प्रति संवेदनशील परत होती है।
पत्रिका ‘हेडेक: द जर्नल ऑफ हेड एंड फेस पेन’ में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है। अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार माइग्रेन के रोगियों में इस अवलोकन का उपयोग चिकित्सक इस स्थिति के नैदानिक उपचार में सहायता के लिए कर सकते हैं।
माइग्रेन के रोगियों को अक्सर आंखों के आसपास दर्द, प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता और दृश्यता संबंधी धुंधलापन जैसे लक्षणों का अनुभव होता है। इन लक्षणों के लिए क्या तंत्र जिम्मेदार है इसे अब तक अच्छी तरह से समझा नहीं गया है।
अमेरिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिलिस के अनुसंधानकर्ताओं ने माइग्रेन के लक्षण उभरने के दौरान और बीच में माइग्रेन के रोगियों की रेटिना रक्त वाहिकाओं में परिवर्तन को देखने के लिए एक ‘नॉन-इनवेसिव इमेजिंग’ तकनीक का उपयोग किया जिसे ऑप्टिकल सुसंगत टोमोग्राफी एंजियोग्राफी या ओसीटीए के रूप में जाना जाता है।
ये प्रयोग औरा (कुछ कुछ समय के अंतराल पर दिखने वाले) लक्षणों वाले 37 माइग्रेन रोगियों, गैर ‘औरा’ लक्षणों वाले 30 माइग्रेन रोगियों और 20 स्वस्थ रोगियों पर किया गया था।
अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि ‘औरा’ लक्षणों वाले और गैर ‘औरा’ लक्षणों वाले दोनों माइग्रेन रोगियों के लिए माइग्रेन के लक्षण उभरने के दौरान रेटिना में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है। (भाषा)
अभी भी कुछ लोगों के सीने में यह कृत्रिम हृदय धड़क रहा है, लेकिन अहम सवाल यह है कि आम लोगों तक यह तकनीक कब पहुंचेगी?
डॉयचे वैले पर आना कार्टहाउज की रिपोर्ट-
हृदय वास्तव में हमारे शरीर का एक काफी सरल अंग होता है. यह एक पंप है, जिसमें चार चैम्बर, कुछ वाल्व, ट्यूब और वायरिंग होते हैं. इसमें मौजूद दो चैंबर में पुराना खून आता है और दो चैंबरों से साफ खून बाहर निकलता हैं. स्मार्ट वाल्व ट्रैफिक लाइट की तरह खून के एकतरफा प्रवाह को नियंत्रित करते हैं.
किसी इंसान में यह प्रक्रिया लगातार जारी रहती है. हालांकि, जब पंप सही तरीके से काम नहीं करता है, तो इंसान की स्थिति गंभीर होने लगती है. स्थिति ज्यादा खराब होने पर पंप इतना कमजोर हो जाता है कि यह पूरे शरीर में रक्त को प्रभावी ढंग से नहीं पहुंचा पाता.
ऐसी स्थिति में लोगों को सांस लेने में भी बेहद तकलीफ होती है. उनके शरीर के अलग-अलग हिस्सों तक पर्याप्त रक्त की आपूर्ति नहीं हो पाती है, इसलिए ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी हो जाती है. ऐसे में सिर्फ एक रास्ता बचता है कि उस इंसान में नया हृदय प्रत्यारोपित किया जाए.
हालांकि, हृदय दान करने वाले लोगों की संख्या काफी कम है. जर्मनी में स्थिति ज्यादा गंभीर है, क्योंकि अंग दान के लिए लोगों की लोगों की सहमति जरूरी होती है. साथ ही, अगर इस बात की कोई जानकारी नहीं होती कि किसी व्यक्ति ने मरने से पहले अंगदान की इच्छा जाहिर की है या नहीं, तो उसके परिजनों को अंतिम निर्णय लेना होता है.
1982 में पहला कृत्रिम हृदय
हृदय रोग विशेषज्ञ और हृदय सर्जन 60 वर्षों से अधिक समय से कृत्रिम हृदय बनाने की कोशिश कर रहे हैं. जिन मरीजों का हृदय पूरी तरह खराब नहीं होता है उनके लिए कुछ ऐसी प्रणालियां हैं जो हृदय के कुछ हिस्सों को सहारा दे सकती हैं. हालांकि, जिनका हृदय पूरी तरह खराब हो चुका होता है उनके लिए सिर्फ एक ही उपाय बचता है और वो है नया हृदय प्रत्यारोपित करना.
वर्ष 1982 में पहली बार पूरा और स्थायी हृदय अमेरिका में प्रत्यारोपित किया गया था. हालांकि, ये हृदय सिर्फ जरूरी काम ही करते हैं. वे मरीज की सभी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं.
यही वजह है कि मरीज की सभी जरूरतों को पूरा करने वाले पहले कृत्रिम हृदय के प्रत्यारोपण की खबर काफी सुर्खियों में रही. इसके पीछे के मास्टर माइंड फ्रांसीसी हृदय सर्जन एलेन कारपेंटियर ने इससे पहले हार्ट वाल्व को लेकर काफी नाम कमाया था. उन्होंने पुरानी और आर्टिफिशियल मटीरियल को बदलने के लिए बायोमटीरियल का इस्तेमाल किया, जैसे कि सुअर का कार्टिलेज.
इसका फायदा यह हुआ कि नए हृदय वाले रोगियों को जीवन भर थक्कारोधी दवा लेने की जरूरत खत्म हो गई जबकि, कृत्रिम मटीरियल वाले हृदय में इन दवाओं की जरूरत होती है, लेकिन इनमें काफी ज्यादा खून बहने का खतरा होता है.
हाल के वर्षों में बढ़ा प्रत्यारोपण
कारपेंटियर ने पूरे हृदय में बायोमटीरियल का इस्तेमाल किया. उन्होंने जटिल सेंसर जैसे कई अन्य हिस्सों में भी बदलाव किया, ताकि वे अच्छे से काम करें. इस तरीके से उन्होंने नई तकनीक वाला कृत्रिम हृदय बनाने में सफलता पाई. यह हृदय किसी व्यक्ति की शारीरिक गतिविधि के अनुकूल हो सकता है.
इस कृत्रिम हृदय में कोमल बायोमटीरियल और संवेदकों की श्रृंखलाएं लगाई गईं जिसकी मदद से ये असली हृदय की तरह सिकुड़ता और फैलता है. अगर आपको बैठना, चलना, दौड़ना या डांस करना है, तो आपको ऐसे हृदय की जरूरत होती है जो यह सब करने में मदद कर सके. नए हृदय के साथ कोई व्यक्ति इन सभी कामों को कर पाता है.
फ्रांस की बायोमेडिकल कंपनी के वैज्ञानिकों द्वारा कारमेट के बनाए गए इस कृत्रिम हृदय को 76 वर्षीय एक मरीज के शरीर में लगाया गया. यह मरीज गंभीर हृदय रोग से पीड़ित था. नए पंप के साथ वह 74 दिनों तक जीवित रहा. कारमेट के प्रमुख स्टीफन पियाट बताते हैं कि हाल के वर्षों में हृदय बनाने में इस्तेमाल किए जाने वाले मटीरियल, सॉफ्टवेयर और पंपों में कई तरह के बदलाव किए गए हैं.
इस तरह के 50 हृदय अब तक रोगियों में प्रत्यारोपित किए जा चुके हैं. 14 रोगियों के लिए वे तत्कालीन समाधान के तौर पर लगाए गए थे, क्योंकि उन्हें किसी और का हृदय मिलने में देर हो रही थी. फिलहाल, करीब 15 लोगों में कारमेट का कृत्रिम दिल अब भी धड़क रहा है. वहीं, बाकी मरीजों की मौत हो चुकी है.
जटिल है कारमेट हृदय की तकनीक
कभी-कभी, तकनीकी संवेदनाओं में भी छोटी-मोटी समस्याएं हो सकती हैं. उदाहरण के लिए, कारमेट हृदय बहुत बड़ा होता है. इस वजह से छोटे सीने वाले लोगों के लिए यह उपयुक्त नहीं है. खासकर, महिलाओं में अक्सर इसे प्रत्यारोपित नहीं किया जा सकता.
इसके अलावा, यह काफी जटिल भी है. इसमें करीब 250 कॉम्पोनेंट होते हैं. बर्लिन चैरिटी अस्पताल में जर्मन हार्ट सेंटर के एवगेनिज पोटापोव बताते हैं, "इसमें से हर एक कॉम्पोनेंट के टूटने का खतरा रहता है.”
इस वजह से अन्य कृत्रिम हृदय की तुलना में कारमेट हृदय अधिक असुरक्षित होता है. साथ ही, हमेशा की तरह हर सुविधा के लिए एक कीमत चुकानी होती है. हर एक कारमेट हृदय की कीमत करीब 2,00,000 डॉलर है, जो काफी महंगा है.
एवगेनिज पोटापोव कहते हैं कि कंपनी के मुताबिक हृदय प्रत्यारोपित कराने वाले आधे मरीज छह महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते. हालांकि, इन लोगों की मौत कारमेट हृदय की वजह से नहीं होती, बल्कि जिन लोगों में कृत्रिम हृदय लगाया जाता है वे आमतौर पर पहले से ही गंभीर रूप से बीमार होते हैं.
जिन लोगों में हृदय से जुड़ी समस्याएं ज्यादा गंभीर नहीं होती हैं वे अन्य सहायता प्रणालियों की मदद से कई वर्षों तक जीवित रहते हैं और अंगदान करने वाले किसी व्यक्ति की तलाश में रहते हैं.
अस्थायी समाधान है कृत्रिम हृदय
क्या लंबे समय तक कारमेट हृदय की मदद से जिंदा रहना संभव है? इस सवाल के जवाब में पियाट कहते हैं कि इसका जवाब काफी मुश्किल है.
पियाट ने घोषणा की है कि कंपनी आने वाले समय में लॉन्ग-टर्म थेरेपी की दिशा में आगे बढ़ेगी. अब तक कारमेट हृदय को सिर्फ यूरोपीय बाजार में तत्काल समाधान के तौर पर अनुमति दी गई है.
वहीं एवगेनिज पोटापोव कहते हैं, "अगर इसका आकार आधा होता और इसमें कोई तकनीकी समस्या नहीं होती, तो मैं तुरंत इसका इस्तेमाल शुरू कर देता.” वहीं, 2021 के अंत में कंपनी को गुणवत्ता से जुड़ी समस्याओं की वजह से अपने इस उत्पाद को एक साल के लिए बाजार से हटाना पड़ा.
इस बीच शोधकर्ता आनुवंशिक रूप से बेहतर बनाए गए सुअर के दिल और संशोधित टिश्यू पर प्रयोग कर रहे हैं. हालांकि, अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि वे कारमेट हृदय की अगली वर्षगांठ से पहले तक कृत्रिम हृदय की तुलना में ज्यादा सफल होंगे या अंग दान करने वाले लोगों की संख्या बढ़ने से भविष्य में इस कृत्रिम समाधान की जरूरत कम हो जाएगी? (dw.com)
वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने डायबिटीज का एक ऐसा इलाज खोजा है, जो अगर कामयाब रहा तो इंसुलिन के टीके लेने की जरूरत नहीं रहेगी.
ऑस्ट्रेलिया के बेकर हार्ट इंस्टिट्यूट के वैज् ञानिकों ने शोधपत्र में कहा है कि अपनी रिसर्च के दौरान वे पेंक्रियाटिक स्टेम सेल्स में ऐसे बदला व करने में कामयाब रहे, जिनके बाद कोशिकाएं ज्यादा इंसुलिन पैदा करने लगीं.
मेलबर्न के इन शोधकर्ताओं ने कैंसर की दवाओं का इ स्तेमाल किया और इस दिशा में पहले से जारी शोध को आ गे बढ़ाया है.मोनाश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकइस दिशा में पहले शोध कर चुके हैं, जिसे बेकर हार् ट के वैज्ञानिक एक कदम और आगे ले जाने में कामयाब र हे.
हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि उनकी रिसर्च अभी शुरुआती दौर में है और इसका अगला कदम जानवरों पर ट्रायल के रूप में होगा. लेकिन बेकर इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक सैम अल-ओस ्ते कहा कि भविष्य में यह इलाज, दोनों के लिए काफ ी फायदेमंद साबित हो सकता है.
मेलबर्न के एबीसी रेडियो से बातचीत में उन्होंन े कहा, "हमने मरीज की बची हुई पेंक्रियाटिक कोशिकाओ ं को प्रभावित करने का तरीका खोजा है जिससे उन्हें बीटा कोशिकाओं की तरह इंसुलिन पैदा करना सिखाया जा सके.”
अल-ओस्ता ने कहा कि यह इलाज टाइप-1 डायबिटीज का रास ्ता बदल कर हर वक्त इंसुलिन लेने की जरूरत को खत्म कर सकता है.
कैंसर की दवाओं ने किया काम
डायबिटीज एक ऐसी बीमारी है जिसमें मरीज के शरीर म ें कुदरती तौर पर इंसुलिन पैदा होना बंद या कम हो ज ाता है. या फिर उनका शरीर हॉर्मोन को उस तरह इस्तेमाल नही ं करता, जैसा उसे करना चाहिए. बहुत से लोगों को इंसुलिन की इस जरूरत को पूरा करने के लिए नियमित तौर पर इंसुलिन के इंजेक्शन लि पड़ते हैं.
बेकर इंस्टिट्यूट के शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च में कैंसर की दो दवाओं का इस्तेमाल किया है. ये दवाएं अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रे शन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं. प्रोफेसर अल-ओस्ता ने बताया, "हम इन दवाओं को अलग त रह से इस्तेमाल करने में कामयाब रहे हैं.”
शोध के लिए वैज्ञानिकों ने टाइप-1 डायबिटीज के मर ीजों द्वारा दान किए गए उत्तकों को एक प्लेट में रख ा और उन पर कैंसर की दवाओं का इस्तेमाल किया. नेचर पत्रिका के 'सिग्नल ट्रांसडक्शन एंड टारगेट ेड थेरेपी' में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक कुछ ही दिनों में वे इंसुलिन पैदा करने लगे. इनमें बच्चों और वयस्कों, दोनों के उत्तक शामिल थ े.
बढ़ रही है डायबिटीज
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में डायबिटीज के 42 करोड़ से ज्यादा मरीद हैं. इनमें से ज्यादातर कम आय वाले देशों में हैं. हर साल यह बीमारी 15 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले ती है. पिछले कुछ दशकों से मरीजों की संख्या लगा तार बढ़ रही है.
डायबिटीज के मरीजों की संख्या के मामले में भारत दुनिया के दस सबसे बड़े देशों में है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की 2022 की रिपोर् ट के अनुसार 95,600 लोगों को टाइप-1 डायबिटीज थी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसारभारत में 18 वर्ष से ऊपर केलगभग 7.7 करोड़ लोग डायबिटीज (टाइप-2) से पीड़ित हैं और करीब ढ़ाई करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें यह बीमारी होने का खतरा है. 50 प्रति जागरूक भी न हीं हैं.
एक अध्ययन के अनुसार यह बीमारी 2050 तक दुनिया के 1.3 अरब लोगों को अपनी चपेट में ले सकती है. भारत के सामने भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं.भारत में टाइप 2 डायबिटीज को अब तक बढ़ती उम्र के साथ जुड़ी हुई बीमारी माना जाता है.
'लांसेट' पत्रिका मेंपिछले साल प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया कि अ गले 30 € और क्षेत्र में फैल जाएगी. इसके पीड़ितों में से 96 प्रतिशत लोगों को टाइप 2 ड ायबिटीज है. (dw.com)
लंदन, 24 दिसंबर । अक्सर कहा जाता है कि महिलाओं के आँसू देखकर पुरुष पिघल जाते हैं। अब वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इसका राज उनके आँसुओं के गंध में छिपा है।
शोधकर्ताओं ने पाया है कि महिलाओं के आंसू सूंघने से पुरुषों में आक्रामकता से संबंधित मस्तिष्क की गतिविधि कम हो जाती है, जिससे आक्रामक व्यवहार में कमी आती है।
इज़रायल में वीज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने अध्ययन किया, जिसमें पता चला कि मानव आंसुओं में एक रासायनिक संकेत शामिल होता है जो आक्रामकता से संबंधित दो मस्तिष्क क्षेत्रों में गतिविधि को कम कर देता है।
पीएलओएस बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में संस्थान की ब्रेन साइंस लैब से पीएचडी छात्र शनि एग्रोन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने यह निर्धारित करने के लिए काम किया कि क्या आंसुओं का लोगों में आक्रामकता-अवरोधक प्रभाव उतना ही है जितना कि कृंतकों (चूहे आदि) में होता है।
प्रयोगों की एक श्रृंखला में, पुरुषों को या तो महिलाओं के भावनात्मक आँसुओं और नमकीन पानी में से एक सूँघने के लिए दिया गया, बिना यह बताये कि वे क्या सूँघ रहे हैं।
इसके बाद, उन्होंने दो-खिलाड़ियों का खेल खेला जो एक खिलाड़ी में दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार उत्पन्न करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जिसे धोखाधड़ी के रूप में चित्रित किया गया था।
अवसर मिलने पर, पुरुष कथित धोखेबाज़ों से बदला लेने के लिए उन्हें पैसे का नुकसान करा सकते थे, हालाँकि उन्हें खुद कुछ हासिल नहीं होना था।
शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं के भावनात्मक आंसुओं को सूंघने के बाद, पूरे खेल के दौरान आक्रामक व्यवहार करने वाले पुरुषों के प्रतिशोध में 44 प्रतिशत या लगभग आधे की गिरावट आई।
शोधकर्ताओं ने उल्लेख किया कि यह परिणाम कृंतकों में देखे गए प्रभाव के बराबर लगता है, लेकिन कृंतकों की नाक में एक संरचना होती है जिसे वोमेरोनसाल अंग कहा जाता है जो सामाजिक रासायनिक संकेतों को पकड़ता है।
मस्तिष्क विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर नोम सोबेल ने कहा, "इन निष्कर्षों से पता चलता है कि आंसू एक रासायनिक कवच है जो आक्रामकता के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है - और यह प्रभाव कृंतकों और मनुष्यों और शायद अन्य स्तनधारियों के लिए भी आम है।"
एग्रोन ने कहा: "हम जानते थे कि आंसू सूंघने से टेस्टोस्टेरोन कम होता है, और टेस्टोस्टेरोन कम होने से महिलाओं की तुलना में पुरुषों में आक्रामकता पर अधिक प्रभाव पड़ता है, इसलिए हमने पुरुषों पर आंसुओं के प्रभाव का अध्ययन करना शुरू किया क्योंकि इससे हमें परिणाम मिलने की अधिक संभावना थी।" (आईएएनएस)
संतान की पैदाइश को सुगम बनाने वाली जीन्स यानी आप में फर्टिलिटी बढ़ाने की जिम्मेदार जीन्स ही समय से पहले आपका काल बन सकती हैं. ये कहना है एक नए अध्ययन का.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
उत्पत्ति से जुड़ी कई पहेलियों में से एक ये है कि प्रजनन क्षमता खोते ही बुढ़ापे में हम ढह क्यों जाते हैं. वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रजनन के लिए हमने जो विकास किया उसका संबंध हमारे बुढ़ापे से हो सकता है. ये लाखों-करोड़ों साल से चले आए प्राकृतिक चयन का नतीजा है.
यूके बायोबैंक के 2,76,406 प्रतिभागियों की जीनों का विश्लेषण करने वाले एक अध्ययन ने पाया कि प्रजनन को बढ़ावा देने वाली जीनों के वाहक लोगों में बुढ़ापे में बचने की संभावना कम होती है.
अमेरिका में मिशिगन यूनिवर्सिटी से जुड़ी और साइंस जर्नल में प्रकाशित उक्त अध्ययन की वरिष्ठ लेखक जियानची चियांग ने बताया, "हमारी एंटागोनिस्टिक प्लीओट्रोपी परिकल्पना कहती है कि प्रजनन को प्रोत्साहित करने वाले जीन म्युटेशनों में उम्र को कम करने की संभावना ज्यादा होती है."
शोध के मुताबिक, जिन लोगों में प्रजनन को प्रोत्साहित करने वाली जीन होती हैं उनमें 76 साल की उम्र तक आते, मरने की आशंका ज्यादा होती है. अध्ययन ये भी दिखाता है कि 1940 से 1969 के दरमियान पीढ़ियों में प्रजनन के लिए जिम्मेदार जीन्स की संख्या बढ़ी थी. मतलब इंसान अभी भी इस लक्षण या खासियत को विकसित और मजबूत कर रहे हैं.
अमेरिका में बरमिंघम की अलाबामा यूनिवर्सिटी में एजिंग रिसर्च के जानकार स्टीफन ऑस्टड कहते हैं, "ये दिखाता है कि उच्च प्रजनन और निम्न बचाव (और इसका उलट भी) का विकासमूलक पैटर्न आधुनिक मनुष्यों में अभी भी मौजूद है. हमारे जीन वैरियंट, सैकड़ों हजार साल के क्रमिक विकास का नतीजा हैं. हैरान करने वाली बात ये है कि इंसानों का स्वास्थ्य पहले की अपेक्षा कहीं बेहतर हुआ है, उसके बावजूद ये पैटर्न अभी भी कायम है." स्टीफन ऑस्टड खुद इस अध्ययन में शामिल नहीं थे.
बुढ़ापे में मनुष्य ज्यादा प्रजनन-सक्षम क्यों नहीं रहते?
वैज्ञानिक कुछ समय से बुढ़ापे के विकासपरक उद्गमों पर माथापच्ची करते आ रहे हैं. विकासपरक नजरिये से ये अस्पष्ट है कि प्रजनन की हमारी क्षमता उम्र के साथ गिरती क्यों जाती है. निश्चित ही बुढ़ापे में ज्यादा जनन-सक्षम होना विकासपरक नजरिए से लाभप्रद है, तो क्या इससे अपनी जीन्स को आगे बढ़ाने का हमें और समय मिल जाता है?
एंटागोनिस्टिक प्लीओट्रोपी हाइपोथेसिस के मुताबिक ऐसा नहीं है. ये परिकल्पना कहती है कि शुरुआती जीवन में प्रजनन सक्षमता के लाभ बुढ़ापे की डरावनी कीमत चुकाने का कारण बनते हैं. ये नया अध्ययन अब अपने निष्कर्षों के समर्थन में इंसानों के एक विशाल सैंपल से ठोस प्रमाण मुहैया कराता है.
स्पेन के बार्सिलोना की पोम्पिओ फाब्रा यूनिवर्सिटी में आनुवांशिकी विज्ञानी अरकादी नवारो कुआर्तिलास कहते हैं, "कुछ लक्षण (और उन्हें उभारने वाले जेनेटिक वेरियंट) युवा उम्र में महत्वपूर्ण होते हैं, हमें मजबूत, ताकतवर और जनन-सक्षम बनाए रखने में मदद करते हैं.
लेकिन जब हम उम्रदराज होते हैं, वही लक्षण या खासियतें, समस्याएं पैदा करने लगते हैं, हमें कमजोर और अस्वस्थ बनाकर. ये ऐसा है मानो कुछ म्युटेशनों (जीन परिवर्तनों) के दो पहलू हों, एक अच्छा पहलू, जब हम युवा होते हैं और थोड़ा खराब पहलू, जब हम बूढ़े होते हैं." अरकादी खुद इस अध्ययन में शामिल नहीं थे.
इसकी एक मिसाल है महिलाओं में माहवारी बंद होने और प्रजनन क्षमता खत्म हो जाने से जुड़े प्रभाव. एक स्त्री के जीवनकाल के दौरान उसके अंडाणु पूरी तरह खत्म हो जाते हैं. इसकी वजह से जवानी में वो ज्यादा जनन सक्षम रहती है लेकिन आगे चलकर माहवारी बंद हो जाने से उसकी वो उर्वरता भी चली जाती है.
जीवविज्ञानियों का मानना है कि प्रजनन के नियमित चक्रों के लाभ, उम्र के साथ जनन सक्षमता खत्म हो जाने की स्थिति पर भारी पड़ सकते हैं. इसमें समस्या यही है कि माहवारी के बंद होने से बुढ़ापे की गति तेज हो जाती है. स्टीफन ऑस्टड कहते हैं, "दूसरा उदाहरण ये है कि एक जीन वैरियंट जनन सक्षमता को इतना बढ़ा देता है कि औरत को जुड़वा बच्चे पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है.
विकासमूलक तौर पर ये फायदेमंद हो सकता है क्योंकि वो औरत, एक बच्चा पैदा करने वाली औरत की अपेक्षा, अपने उस वैरियंट की और प्रतियां छोड़ कर जा सकती है. लेकिन जुड़वां बच्चों की पैदाइश का असर उनके शरीर पर पड़ता है और वो ज्यादा तेजी से बूढ़ी होती जाती है. एक प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी प्रक्रिया यही है."
उनके मुताबिक इसका उलट भी उतना ही सच है. जीवन में शुरुआती दौर में जनन सक्षमता को घटाने वाले जीन वैरियंट के चलते व्यक्ति को कम बच्चे पैदा होंगे या एक भी नहीं होगा. लिहाजा व्यक्ति में बुढ़ापा धीरे धीरे आएगा.
बुढ़ापे पर पर्यावरण का असर?
वैसे इस प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी परिकल्पना की आलोचना भी हो रही है. एक आलोचना ये है कि ये परिकल्पना, बुढ़ापे पर पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के व्यापक प्रभावों को अपने विश्लेषण में शामिल नहीं करती. अध्ययन भी इस बारे में खामोश है.
आखिरकार, इतिहास में मनुष्य पहले के मुकाबले ज्यादा लंबे समय तक जी रहे हैं और इसकी बड़ी वजह आनुवंशिक विकास नहीं बल्कि बेहतर स्वास्थ्य देखरेख है.
चियांग कहती हैं, "समान लक्षण वाले बदलावों के ये रुझान, पर्यावरणीय बदलावों से संचालित हैं जिनमें जीवनशैलियों और तकनीकों के बदलाव भी शामिल हैं. ये विषमता या अंतर इस बात का संकेत है कि यहां अध्ययन के लिए आए फेनोटाइपिक बदलावों में, पर्यावरणीय कारकों के मुकाबले आनुवंशिक कारकों की भूमिका छोटी है."
ऑस्टड का कहना है कि अध्ययन का एक आश्चर्यजनक निष्कर्ष ये रहा कि प्रजनन के लिए जिम्मेदार जीनों का बुढ़ापे पर इस कदर मजबूत और गौरतलब असर होता है. वो कहते हैं, "पर्यावरणीय कारक इतने अहम है कि मैं वाकई हैरान हूं कि उनकी अहमियत के बावजूद इस अध्ययन में देखे गए पैटर्न बने रहे. मेरे ख्याल से अध्ययन में सैकड़ों हजारों लोगों को शामिल करने का फायदा है."
शोध निष्कर्षों का बुढ़ापे पर प्रभाव
ऑस्टड के मुताबिक प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी परिकल्पना के पास इस पर्चे से पहले प्रमाणों के ढेर थे लेकिन इंसानों के लिए नहीं. इंसानों पर रिसर्च और इतने विशाल आकार के सैंपल के साथ, ये अध्ययन बुढ़ापे से संबंधित रोगों को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "आखिरकार, इनमें से कुछ वैरियंटों की अब जांच हो सकती है, ये देखने के लिए कि क्या जीवन के उत्तरार्ध में उनका किसी स्वास्थ्य समस्या से संबंध है या नहीं. इस तरह उन समस्याओं पर करीब से निगाह रखी जा सकती है और संभवतः उन्हें रोका भी जा सकता है."
वैज्ञानिक मानते हैं कि परिकल्पना ये समझाने में भी मदद कर सकती है कि बहुत सारे गंभीर आनुवंशिक विकार हमारे लंबे विकासपरक इतिहास में आखिर क्यों बने रहते आए. इस प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी का एक अच्छा उदाहरण है सिकल सेल एनीमिया. जहां एनीमिया का कारण बनने वाला विरासत में आया एक रक्त विकार, दरअसल मलेरिया के खिलाफ एक सुरक्षात्मक मेकेनिज्म के रूप में विकसित हुआ.
चियांग ने डीडब्ल्यू को बताया कि प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी, हंटिंग्टन रोग में भी काम आ सकती है. उन्होंने कहा, "स्नायु तंत्र में खराबी लाने वाले हंटिंग्टन रोग को पैदा करने वाले म्युटेशन, उत्पादकता को भी बढ़ा देते हैं." ऐसी परिकल्पनाएं भी सामने आई हैं जिनके मुताबिक इस बीमारी के जीन म्युटेशन, कैंसर के मामलों में भी कमी ले आते हैं.
चियांग का कहना है कि बुढ़ापा विरोधी विज्ञान के लिए भी इस रिपोर्ट से कुछ नतीजे निकाले जा सकते हैं. "सैद्धांतिक तौर पर, उम्र बढ़ाने के लिए उन प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी वाले म्युटेशनों में इधर-उधर थोड़ी मरम्मत की जा सकती है, लेकिन प्रजनन क्षमता में कमी या देरी का नुकसान भी साथ में जुड़ा है." (dw.com)
लंदन, 20 दिसंबर । एक शोध से यह बात सामने आई है कि 12 सप्ताह तक चुकंदर का रस लेने से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से पीड़ित लोगों में सुधार हुआ है।
सीओपीडी एक गंभीर फेफड़ों की स्थिति है जो दुनिया भर में लगभग 400 मिलियन लोगों को प्रभावित करती है, जिसमें क्रोनिक ब्रोंकाइटिस और वातस्फीति (एम्फाइजिमा) शामिल है, जिससे सांस लेने में कठिनाई होती है और लोगों की शारीरिक गतिविधि की क्षमता गंभीर रूप से सीमित हो जाती है।
इससे दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है।
यूरोपियन रेस्पिरेटरी जर्नल में प्रकाशित नए शोध में एक केंद्रित चुकंदर के रस के पूरक का परीक्षण किया गया, जिसमें चुकंदर के रस के मुकाबले नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है, जो दिखने और स्वाद में समान था। लेकिन, नाइट्रेट हटा दिया गया था।
इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के प्रोफेसर निकोलस हॉपकिंसन ने कहा, ''कुछ सबूत हैं कि नाइट्रेट के स्रोत के रूप में चुकंदर के रस का उपयोग एथलीटों द्वारा अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है और साथ ही रक्तचाप को देखते हुए कुछ अल्पकालिक अध्ययन भी किए गए हैं।''
हॉपकिंसन ने कहा, ''रक्त में नाइट्रेट का उच्च स्तर नाइट्रिक ऑक्साइड की उपलब्धता को बढ़ा सकता है, एक रसायन जो रक्त वाहिकाओं को आराम देने में मदद करता है। यह मांसपेशियों की कार्यक्षमता को भी बढ़ाता है यानी समान कार्य करने के लिए उन्हें कम ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।''
अध्ययन में सीओपीडी वाले 81 लोगों को शामिल किया गया और जिनका सिस्टोलिक रक्तचाप 130 मिलीमीटर पारा (एमएमएचजी) से अधिक था।
मरीजों के रक्तचाप की निगरानी करने के साथ-साथ, शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया कि अध्ययन की शुरुआत और अंत में मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
प्रतिभागियों को 12 महीने के कोर्स में नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का रस दिया गया और कई रोगियों को बिना नाइट्रेट वाला चुकंदर का रस दिया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि नाइट्रेट युक्त पूरक लेने वालों ने नाइट्रेट लेने वालों की तुलना में सिस्टोलिक रक्तचाप में 4.5 मिमी/एचजी की औसत कमी का अनुभव किया।
नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का जूस पीने वाले मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं, इसमें भी औसतन लगभग 30 मीटर की वृद्धि हुई।
प्रोफेसर हॉपकिंसन ने कहा, "अध्ययन के अंत में हमने पाया कि नाइट्रेट युक्त चुकंदर का जूस पीने वाले लोगों का रक्तचाप कम था और उनकी रक्त वाहिकाएं कम कठोर हो गईं। जूस से यह बात भी सामने आई कि सीओपीडी वाले लोग छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
यह इस क्षेत्र में अब तक के सबसे लंबी अवधि के अध्ययनों में से एक है। परिणाम बहुत आशाजनक हैं, लेकिन इसके लिए दीर्घकालिक अध्ययनों की आवश्यकता होगी।''
स्वीडन में कारोलिंस्का इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर अपोस्टोलोस बोसियोस ने कहा, "सीओपीडी को ठीक नहीं किया जा सकता है, इसलिए मरीजों को इस स्थिति के साथ बेहतर जीवन जीने और उनके हृदय रोग के खतरे को कम करने में मदद करने की सख्त जरूरत है।"
हालांकि, बोसियोस ने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए लंबी अवधि तक रोगियों का अध्ययन करने की आवश्यकता पर बल दिया। (आईएएनएस)
लंदन, 20 दिसंबर । एक शोध से यह बात सामने आई है कि 12 सप्ताह तक चुकंदर का रस लेने से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से पीड़ित लोगों में सुधार हुआ है।
सीओपीडी एक गंभीर फेफड़ों की स्थिति है जो दुनिया भर में लगभग 400 मिलियन लोगों को प्रभावित करती है, जिसमें क्रोनिक ब्रोंकाइटिस और वातस्फीति (एम्फाइजिमा) शामिल है, जिससे सांस लेने में कठिनाई होती है और लोगों की शारीरिक गतिविधि की क्षमता गंभीर रूप से सीमित हो जाती है।
इससे दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है।
यूरोपियन रेस्पिरेटरी जर्नल में प्रकाशित नए शोध में एक केंद्रित चुकंदर के रस के पूरक का परीक्षण किया गया, जिसमें चुकंदर के रस के मुकाबले नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है, जो दिखने और स्वाद में समान था। लेकिन, नाइट्रेट हटा दिया गया था।
इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के प्रोफेसर निकोलस हॉपकिंसन ने कहा, ''कुछ सबूत हैं कि नाइट्रेट के स्रोत के रूप में चुकंदर के रस का उपयोग एथलीटों द्वारा अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है और साथ ही रक्तचाप को देखते हुए कुछ अल्पकालिक अध्ययन भी किए गए हैं।''
हॉपकिंसन ने कहा, ''रक्त में नाइट्रेट का उच्च स्तर नाइट्रिक ऑक्साइड की उपलब्धता को बढ़ा सकता है, एक रसायन जो रक्त वाहिकाओं को आराम देने में मदद करता है। यह मांसपेशियों की कार्यक्षमता को भी बढ़ाता है यानी समान कार्य करने के लिए उन्हें कम ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।''
अध्ययन में सीओपीडी वाले 81 लोगों को शामिल किया गया और जिनका सिस्टोलिक रक्तचाप 130 मिलीमीटर पारा (एमएमएचजी) से अधिक था।
मरीजों के रक्तचाप की निगरानी करने के साथ-साथ, शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया कि अध्ययन की शुरुआत और अंत में मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
प्रतिभागियों को 12 महीने के कोर्स में नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का रस दिया गया और कई रोगियों को बिना नाइट्रेट वाला चुकंदर का रस दिया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि नाइट्रेट युक्त पूरक लेने वालों ने नाइट्रेट लेने वालों की तुलना में सिस्टोलिक रक्तचाप में 4.5 मिमी/एचजी की औसत कमी का अनुभव किया।
नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का जूस पीने वाले मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं, इसमें भी औसतन लगभग 30 मीटर की वृद्धि हुई।
प्रोफेसर हॉपकिंसन ने कहा, "अध्ययन के अंत में हमने पाया कि नाइट्रेट युक्त चुकंदर का जूस पीने वाले लोगों का रक्तचाप कम था और उनकी रक्त वाहिकाएं कम कठोर हो गईं। जूस से यह बात भी सामने आई कि सीओपीडी वाले लोग छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
यह इस क्षेत्र में अब तक के सबसे लंबी अवधि के अध्ययनों में से एक है। परिणाम बहुत आशाजनक हैं, लेकिन इसके लिए दीर्घकालिक अध्ययनों की आवश्यकता होगी।''
स्वीडन में कारोलिंस्का इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर अपोस्टोलोस बोसियोस ने कहा, "सीओपीडी को ठीक नहीं किया जा सकता है, इसलिए मरीजों को इस स्थिति के साथ बेहतर जीवन जीने और उनके हृदय रोग के खतरे को कम करने में मदद करने की सख्त जरूरत है।"
हालांकि, बोसियोस ने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए लंबी अवधि तक रोगियों का अध्ययन करने की आवश्यकता पर बल दिया। (आईएएनएस)
सिकल सेल के लिए उपलब्ध जीन थेरेपी सिर्फ तीन देशों में उपलब्ध है, जहां इस रोग के मरीज सबसे कम पाए जाते हैं. भारत और अफ्रीकी देशों में इसके मरीज सबसे ज्यादा हैं लेकिन वहां इलाज नहीं है.
भारत के गौतम डोंगरे के दो बच्चे हैं. तंजानिया के पस्कासिया माजेजे का एक बेटा है. दोनों ही लोग अपने-अपने बच्चों की बीमारियों को लेकर परेशान हैं. तीनों बच्चों को एक ही बीमारी है जो उन्हें अपने-अपने माता-पिता से विरासत में मिली है. उनके खून में एक ऐसी गड़बड़ी है जिसके कारण रक्त-कोशिकाओं में भयंकर दर्द होता है. इसे सिकल सेल डिजीज यानी रक्त कोशिकाओं का रोग कहते हैं.
अब इन रोगियों को जीन थेरेपी से ठीक होने की उम्मीद दिख रही है लेकिन डोंगरे कहते हैं, "हम बस प्रार्थना कर रहे हैं कि यह इलाज हमारे लिए भी उपलब्ध हो जाए."
पर निकट भविष्य में डोंगरे की प्रार्थना का असर होने की संभावना कम ही है. विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत और अफ्रीका के उन दूर-दराज इलाकों में यह इलाज लोगों की पहुंच में नहीं है, जिन इलाकों में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है.
बस तीन देशों में इलाज
जीन थेरेपी अब भी ज्यादातर विकसित देशों में ही उपलब्ध है. यह दुनिया के सबसे महंगे इलाजों में से है और भारत या अफ्रीका के आदिवासी इलाकों में इसका खर्च वहन कर पाना लोगों के बस में नहीं है. दिक्कत सिर्फ इलाज की अधिक कीमत ही नहीं है. इसके लिए लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता है और अत्याधुनिक उपकरणों व कुशल डॉक्टरों की जरूरत होती है.
सिकल सेल डिजीज के लिए दो जीन थेरेपी मान्यता प्राप्त हैं. अमेरिका ही ऐसा देश है जहां ये दोनों थेरेपी उपलब्ध हैं. इसके अलावा ब्रिटेन और बहरीन में भी एक-एक थेरेपी उपलब्ध है.
अमेरिका के न्यू ऑरलीन्स में सिकल सेल थेरेपी के विशेषज्ञ डॉ. बेंजामिन वॉटकिंस कहते हैं, "अधिकतर मरीज उन इलाकों में रहते हैं जहां इस तरह की थेरेपी उपलब्ध ही नहीं है. हम चिकित्सा जगत के लोगों को और पूरे समाज को इस बारे में सोचना होगा.”
लंदन में इस साल एक चिकित्सा सम्मेलन हुआ था जिसका केंद्रीय विषय जीन थेरेपी था. वहां भी सिकल सेल थेरेपी के अत्याधिक खर्च और जहां जरूरत है, वहां अनुपलब्धता को लेकर चर्चा हुई. उसके बाद पत्रिका नेचर में छपे संपादकीय में लिखा गया कि इतनी अधिक कीमत के कारण गरीब और विकासशील देशों के लोगों की पहुंच से इसका बाहर होना इस क्षेत्र में विकास के लिए भी हानिकारक है.
कुछ वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि नए इलाज अगर सही मरीजों तक नहीं पहुंचे तो भविष्य में और नए इलाज कभी नहीं खोजे जाएंगे और सिकल डिजीज का पूरी तरह खत्म करने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.
गरीब देशों पर मार
विकासशील और गरीब देशों में सिकल सेल रोग से मरने या अपंग होने की संभावना धनी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है. इसका देर से पता चलना और आधारभूत इलाज भी मुश्किल से मिलना घातक साबित होता है. डॉ. वॉटकिंस कहते हैं कि जीन थेरेपी इस बीमारी के इलाज में एक बहुत बड़ा कदम है लेकिन उन मरीजों को नहीं भुलाया जा सकता जिन्हें असल में इसकी जरूरत है.
सिकल सेल रोग जन्म के साथ ही होता है और मरीज पर जन्म से ही मार करता है. उसका हीमोग्लोबिन प्रभावित होता है. इस रोग के कारण लाल रक्त कोशिकाओं का आकार सिकल यानी दरांती जैसा हो जाता है. इससे रक्त प्रवाह प्रभावित होता है और असहनीय दर्द होता है. यह अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है और स्ट्रोक का भी खतरा होता है. फिलहाल इसका एकमात्र इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट है, जिसके अपने खतरे और सीमाएं हैं.
दुनिया में सिकल सेल रोग के कितने मरीज हैं, इस बारे में कोई पुख्ता आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. विशेषज्ञ उनकी संख्या 60 से 80 लाख के बीच आंकते हैं. यह रोग उन इलाकों में ज्यादा पाया जाता है जहां मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सिकल सेल यानी इस रोग से ग्रस्त कोशिकाएं मलेरिया से लड़ सकती हैं.
भारत में चुनौतियां
एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस रोग के करीब 10 लाख मरीज हैं जबकि अफ्रीका में 50 लाख से ज्यादा लोग इससे पीड़ित हैं.
डोंगरे नागपुर में रहते हैं. वह नेशनल अलायंस फॉर सिकल सेल ऑर्गेनाइजेशंस के अध्यक्ष हैं और अपने परिवार के अलावा दूसरे रोगियों के रोजमर्रा के संघर्ष को देखते हैं. वह कहते हैं कि आम लोगों में ही नहीं, डॉक्टरों में भी रोग को लेकर जागरूकता नहीं है.
वह बताते हैं कि उनके बेटे गिरीश को जब वह पेट और टांगों में दर्द के लिए डॉक्टरों के पास लेकर जाते थे तो उन्हें कुछ समझ नहीं आता था. डोंगरे कहते हैं कि ढाई साल तक डॉक्टर यह पता नहीं लगा सके थे कि गिरीश को सिकल सेल रोग है. अन्य लोगों को तो सालों साल तक पता ही नहीं चलता कि उन्हें इतना दर्द क्यों होता है.
जुलाई में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिकल सेल उन्मूलन अभियान की शुरुआत की थी. इस अभियान का मकसद जागरूकता, शिक्षा, जल्द इस रोग का पता लगाना और इलाज उपलब्ध कराना है. डोंगरे इस कोशिश की तारीफ करते हैं लेकिन कहते हैं कि चुनौतियां बहुत बड़ी हैं.
वीके/एए (एपी)
(निक फुलर, सिडनी विश्वविद्यालय)
सिडनी, 11 दिसंबर। अमेरिका के संस्थापकों में से एक बेंजामिन फ्रैंकलिन का एक प्रसिद्ध कथन है कि मृत्यु और करों के अलावा कुछ भी निश्चित नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि हम एक और बात कि "जब आप अपना वजन कम करने की कोशिश कर रहे होंगे तो आपको ज्यादा भूख लगेगी" को निश्चितता की सूची में शामिल कर सकते हैं।
वजह है बेसिक बायोलॉजी। तो यह कैसे काम करता है - और आप इसके बारे में क्या कर सकते हैं?
हार्मोन हमारी भूख की भावना को नियंत्रित करते हैं
कई हार्मोन हमारी भूख और तृप्ति की भावनाओं को नियंत्रित करने में आवश्यक भूमिका निभाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण हैं घ्रेलिन - जिसे अक्सर भूख हार्मोन कहा जाता है - और लेप्टिन।
जब हम भूखे होते हैं, तो हमारे पेट से घ्रेलिन निकलता है, जो हमारे मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस नामक हिस्से को सूचित करता है और हमें खाने के लिए कहता है।
जब खाना बंद करने का समय होता है, तो हमारी आंत और वसा ऊतक जैसे विभिन्न अंगों से लेप्टिन सहित कुछ हार्मोन निकलते हैं, जो मस्तिष्क को संकेत देते हैं कि हमारा पेट भर गया है।
डाइटिंग इस प्रक्रिया को बाधित करती है
लेकिन जब हम अपना आहार बदलते हैं और वजन कम करना शुरू करते हैं, तो हम भूख बढ़ाने वाले इन हार्मोनों की कार्यप्रणाली को बाधित कर देते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया को ट्रिगर करता है जो हमारे पूर्वजों तक जाती है। उनके शरीर ने इस तंत्र को अभाव की अवधि के अनुकूल होने और भुखमरी से बचाने के लिए एक प्रतिक्रिया के रूप में विकसित किया।
हमारी भूख को प्रबंधित करने वाले हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है, जिससे हमें और अधिक भूख लगती है, जबकि हमें यह संकेत देने के लिए कि हमारा पेट भर गया है, वे अपने स्तर को कम कर देते हैं, जिससे हमें लगता ही नहीं कि हमारा पेट भर गया है।
इससे हमारी कैलोरी की खपत बढ़ जाती है और हम कम हुआ वजन वापस पाने के लिए अधिक खाते हैं।
लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि वज़न वापस बढ़ने के बाद भी, हमारे भूख हार्मोन अपने सामान्य स्तर पर बहाल नहीं होते हैं - वे हमें अधिक खाने के लिए कहते रहते हैं ताकि हम थोड़ी अतिरिक्त वसा प्राप्त कर सकें। यह हमारे शरीर का डाइटिंग के रूप में भुखमरी के अगले दौर के लिए तैयारी करने का तरीका है।
सौभाग्य से, ऐसी कुछ चीजें हैं जो हम अपनी भूख को नियंत्रित करने के लिए कर सकते हैं, जिनमें शामिल हैं:
1. हर दिन नाश्ते में भरपूर और स्वस्थ आहार लेना
दिन भर की हमारी भूख की भावनाओं को प्रबंधित करने का सबसे आसान तरीका यह है कि हम अपना अधिकांश भोजन दिन में पहले खा लें और अपने भोजन के आकार को कम कर दें ताकि रात का खाना सबसे छोटा भोजन हो।
शोध से पता चलता है कि कम कैलोरी या कम नाश्ते से पूरे दिन भूख की भावना, विशेष रूप से मिठाइयों की भूख बढ़ जाती है।
एक अन्य अध्ययन में भी यही प्रभाव पाया गया। प्रतिभागियों ने दो महीने के लिए कैलोरी-नियंत्रित आहार लिया, जहां उन्होंने पहले महीने के लिए नाश्ते में 45%, दोपहर के भोजन में 35% और रात के खाने में 20% कैलोरी खाई, इसके बाद उन्होंने शाम को अपना सबसे बड़ा भोजन और नाश्ते में सबसे छोटा भोजन करना शुरू किया। नाश्ते में सबसे ज्यादा भोजन करने से पूरे दिन भूख कम लगती है।
शोध से यह भी पता चलता है कि हम शाम की तुलना में सुबह भोजन से 2.5 गुना अधिक कुशलता से कैलोरी जलाते हैं। इसलिए रात के खाने के बजाय नाश्ते पर जोर देना न केवल भूख नियंत्रण के लिए, बल्कि वजन प्रबंधन के लिए भी अच्छा है।
2. प्रोटीन को प्राथमिकता देना
प्रोटीन भूख की भावना को नियंत्रित करने में मदद करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थ जैसे लीन मीट, टोफू और बीन्स भूख बढ़ाने वाले घ्रेलिन को दबाते हैं और पेप्टाइड वाईवाई नामक एक अन्य हार्मोन को उत्तेजित करते हैं जो आपको पेट भरा हुआ महसूस कराता है।
और जिस तरह नाश्ता करना हमारी भूख को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण है, उसी तरह हम जो खाते हैं वह भी महत्वपूर्ण है, शोध से पता चलता है कि अंडे जैसे प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों वाला नाश्ता हमें लंबे समय तक तृप्त महसूस कराएगा।
लेकिन इसका मतलब सिर्फ प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थ खाना नहीं है। भोजन संतुलित होना चाहिए और इसमें हमारी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रोटीन, साबुत अनाज कार्ब और स्वस्थ वसा का स्रोत शामिल होना चाहिए।
उदाहरण के लिए, साबुत अनाज वाले टोस्ट पर अंडे और साथ में एवोकैडो।
3. अच्छी वसा और फाइबर से भरपूर मेवे खाएं
सूखे मेवों को लेकर अक्सर यह गलत धारणा रहती है कि वे वजन बढ़ाते हैं - लेकिन मेवे हमारी भूख और वजन को नियंत्रित करने में हमारी मदद कर सकते हैं। मेवों में पाए जाने वाले फाइबर और अच्छी वसा को पचने में अधिक समय लगता है, जिसका अर्थ है कि हमारी भूख लंबे समय तक संतुष्ट रहती है।
अध्ययनों से पता चलता है कि आप अपने वजन को प्रभावित किए बिना प्रति दिन 68 ग्राम तक मेवे खा सकते हैं।
एवोकैडो में फाइबर और हृदय के लिए उपयोगी मोनोअनसैचुरेटेड वसा भी उच्च मात्रा में होती है, जो उन्हें तृप्ति की भावनाओं को प्रबंधित करने के लिए एक और उत्कृष्ट भोजन बनाती है। यह एक अध्ययन द्वारा समर्थित है जिसमें पुष्टि की गई है कि जिन प्रतिभागियों ने नाश्ते में एवोकैडो शामिल किया था, वे उन प्रतिभागियों की तुलना में अधिक संतुष्ट और कम भूख महसूस करते थे, जिन्होंने समान कैलोरी वाला लेकिन कम वसा और फाइबर सामग्री वाला भोजन खाया था।
इसी तरह, घुलनशील फाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थ - जैसे बीन्स और सब्जियाँ - खाने से हमें पेट भरा हुआ महसूस होता है। इस प्रकार का फाइबर हमारी आंत से पानी को आकर्षित करता है, जिससे एक जैल बनता है जो पाचन को धीमा कर देता है।
4. मन लगाकर खाना
जब हम वास्तव में जागरूक होने और जो भोजन खा रहे हैं उसका आनंद लेने में समय लगाते हैं, तो हम धीमे हो जाते हैं और बहुत कम खाते हैं।
68 अध्ययनों की समीक्षा में पाया गया कि मन लगाकर खाने से हमें तृप्ति की भावनाओं को बेहतर ढंग से पहचानने में मदद मिलती है। ध्यानपूर्वक भोजन करने से हमारे मस्तिष्क को हमारे पेट से आने वाले उन संकेतों को पहचानने और उनके अनुकूल ढलने के लिए पर्याप्त समय मिलता है जो हमें बताते हैं कि हमारा पेट भर गया है।
खाने की मेज पर बैठकर अपने भोजन की खपत को धीमा कर दें और प्रत्येक कौर के साथ खाने की मात्रा को कम करने के लिए छोटे बर्तनों का उपयोग करें।
5. पर्याप्त नींद लेना
नींद की कमी हमारे भूख हार्मोन को परेशान करती है, जिससे भूख की भावना बढ़ती है और लालसा पैदा होती है। इसलिए रात में कम से कम सात घंटे की निर्बाध नींद लेने का लक्ष्य रखें।
अपने शरीर में मेलाटोनिन जैसे नींद लाने वाले हार्मोन के स्राव को बढ़ाने के लिए सोने से दो घंटे पहले अपने उपकरणों को बंद करने का प्रयास करें।
6. तनाव प्रबंधन
तनाव हमारे शरीर में कोर्टिसोल के उत्पादन को बढ़ाता है और भोजन की लालसा को बढ़ाता है।
इसलिए जब आपको ज़रूरत हो तब समय निकालें और तनाव-मुक्त गतिविधियों के लिए समय निर्धारित करें। 2019 के एक अध्ययन में पाया गया कि सप्ताह में कम से कम तीन बार बाहर बैठने या टहलने से कोर्टिसोल का स्तर 21% तक कम हो सकता है।
7. कुछ खाद्य पदार्थों को प्रतिबंधित करने से बचना
जब हम वजन कम करने या स्वस्थ भोजन करने के लिए अपना आहार बदलते हैं, तो हम आम तौर पर कुछ खाद्य पदार्थों या खाद्य समूहों को प्रतिबंधित करते हैं।
हालाँकि, यह हमारे मेसोकोर्टिकोलिम्बिक सर्किट - मस्तिष्क के इनाम प्रणाली भाग - में गतिविधि को बढ़ाता है - जिसके परिणामस्वरूप अक्सर हमें उन खाद्य पदार्थों की लालसा होती है जिनसे हम बचने की कोशिश कर रहे हैं। जो खाद्य पदार्थ हमें खुशी देते हैं वे एंडोर्फिन नामक अच्छा महसूस कराने वाले रसायन और डोपामाइन नामक सीखने वाले रसायन छोड़ते हैं, जो हमें उस अच्छी प्रतिक्रिया को याद रखने में सक्षम बनाते हैं।
जब हम अपना आहार बदलते हैं, तो हमारे हाइपोथैलेमस में गतिविधि - मस्तिष्क का चतुर हिस्सा जो भावनाओं और भोजन सेवन को नियंत्रित करता है - भी कम हो जाती है, जिससे हमारा नियंत्रण और निर्णय कम हो जाता है। यह अक्सर एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया को ट्रिगर करता है जिसे "भाड़ में जाओ प्रभाव" कहा जाता है। ऐसा तब होता है जब हम किसी ऐसी चीज़ में लिप्त होते हैं जिसे करके हमें लगता है कि हमें दोषी महसूस नहीं करना चाहिए और फिर हम बार-बार वही करते हैं।
जब आप डाइट पर जाएं तो अपने पसंदीदा भोजन को पूरी तरह से बंद न करें या भूख लगने पर खुद को इससे दूर न रखें। इससे खाने का आनंद खत्म हो जाएगा और अंततः आप अपनी तलब के सामने घुटने टेक देंगे।
द कन्वरसेशन एकता एकता 1112 1045 सिडनी (द कन्वरसेशन)
अविश्वसनीय
अंबिकापुर सीट के मतों की गिनती रोमांचक रही है। न तो कांग्रेस, और न ही भाजपा के कई स्थानीय नेताओं को भरोसा था कि भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल की जीत होगी। राजेश, सरगुजा राजघराने के मुखिया डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव को कड़े संघर्ष के बाद 94 मतों से हराने में कामयाब रहे।
बताते हैं कि जीत की घोषणा में विलंब हो रहा था। तभी केन्द्रीय राज्य मंत्री रेणुका सिंह का फोन एक कार्यकर्ता के पास पहुंचा, और फिर उन्होंने रेणुका सिंह की कलेक्टर से बात कराई। चर्चा है कि रेणुका सिंह का लहजा इतना सख्त था कि कलेक्टर भी हड़बड़ा गए, और फिर उन्होंने तुरंत राजेश अग्रवाल को विजयी प्रमाण पत्र जारी किया।
बाबा की हार की वजह
अंबिकापुर में टीएस सिंहदेव की हार में हकीम अब्दुल मजीद की भी अहम भूमिका रही है। जोगी पार्टी के प्रत्याशी अब्दुल हकीम ने करीब 12 सौ वोट हासिल किए। हकीम को अपने मुस्लिम समाज के वोट मिले, जो कि कांग्रेस के परम्परागत वोटर रहे हैं। यद्यपि सिंहदेव समर्थकों ने नामांकन से पहले उन्हें अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश की थी, लेकिन वो सफल नहीं हो पाए।
मतगणना के दौरान अब्दुल मजीद, भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल के साथ खड़े थे, और उन्हें दिलासा दे रहे थे। राजेश लगातार लीड घटने से घबराए हुए थे। अब्दुल हकीम उनसे मजाकिया लहजे में कह रहे थे कि घबराने की जरूरत नहीं है। उनके पास दवाई है। और जब टीएस सिंहदेव हार गए, तो उनके समर्थकों का गुस्सा अब्दुल हकीम पर फूट पड़ा, और उन्होंने हकीम के साथ झूमाझटकी की। बाद में पुलिस हस्तक्षेप के बाद हकीम किसी तरह बच पाए।
पार्टी का खर्च बचा
कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेताओं को सरकार के रिपीट होने का भरोसा था। तमाम एग्जिट पोल का भी नतीजा कुछ इसी तरह का था। मगर कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा।
बताते हैं कि सरकार के एक ताकतवर मंत्री के अति उत्साही करीबियों ने मतगणना की एक दिन पहले बंगले में विजयी पार्टी का भी आयोजन कर रखा था। इसमें एक हजार कार्यकर्ताओं, और कई नेताओं को बुलाने की तैयारी थी।
इसी बीच किसी ने मंत्री जी के कान में फूंक दिया कि पार्टी का खर्चा, चुनाव खर्च में जुड़ जाएगा। क्योंकि चुनाव आचार संहिता प्रभावशील है। फिर मंत्री जी ने पार्टी को कैंसल कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि अगले दिन मंत्रीजी खुद बुरी तरह चुनाव हार गए। इस हार से मंत्री जी, और उनके समर्थक हतप्रभ हैं।
बूढ़ादेव प्रसन्न
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 23 साल बाद पाली-तानाखार में वापसी की है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संस्थापक हीरासिंग मरकाम अविभाजित मध्यप्रदेश में विधायक चुने गए थे। इसके बाद छत्तीसगढ़ बनने के बाद वे उतने सफल नहीं हो सके। पिछले साल उनका निधन हो गया और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी अनाथ जैसी हो गई। उनके बेटे तुलेश्वर ने कमान संभाली और पार्टी के फिर से खड़ा करने में जी जान लगा दी। इसमें उन्होंने गोंडवाना समाज के हर रीति-रिवाज का भी पालन किया। चुनाव के पहले वे गोंडवाना समाज के देव बूढ़ादेव के मंदिर पहुंचे। धमधा के त्रिमूर्ति महामाया मंदिर में पूजा-पाठ, अनुष्ठान भी किया। उन्होंने अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने सारा जतन किया। इसके बाद समाज का साथ मिला। बूढ़ादेव भी प्रसन्न हो गए और भाजपा की आंधी और कांग्रेस से टक्कर लेते हुए उन्होंने गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को एक सीट दिलाने में सफलता हासिल कर ही ली।
महंत साबित हुए असली लीडर
विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही कांग्रेस के अनुकूल नहीं रहे हैं। मगर विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत को अविभाजित जांजगीर-चांपा जिले में कांग्रेस की जीत का असली नायक कहा जा रहा है। डॉ. महंत न सिर्फ खुद सक्ती सीट से चुनाव जीते, बल्कि जिले की तमाम सीट जांजगीर-चांपा, अकलतरा, चंद्रपुर, पामगढ़, और जैजैपुर से कांग्रेस प्रत्याशी को जिताने में अहम भूमिका निभाई। सोशल मीडिया पर उन्हें असली लीडर कहा जा रहा है। जांजगीर-चांपा की तरह बालोद जिले में भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल रहा, और यहां की तीनों सीटें पार्टी जीतने में कामयाब रही है।
सीटों और वोटों के बीच का फासला
किसी पार्टी को मिले वोट और उसकी जीतने वाली सीटों में अक्सर बड़ा फर्क होता है। मध्य प्रदेश में सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले थे। पर वहां कांग्रेस को सीटें 114 मिल गई और भाजपा को 109 ही। कुल वोट कम मिलने के बावजूद कांग्रेस की वहां सरकार बन गई थी।
इस बार तीन राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई। पर उसे मिले वोटों का फासला सीटों की तुलना में देखना दिलचस्प होगा। जैसे राजस्थान में भाजपा को करीब 1 करोड़ 65 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर 9 लाख के आसपास है। मगर यहां भाजपा को 115 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर रुक गई। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 2 करोड़ 11 लाख मिले वहां कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख। पर सीटों का अंतर बहुत अधिक आ गया। कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई और भाजपा ने 163 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने कांग्रेस के दोगुने से भी अधिक सीटें हासिल कर ली। छत्तीसगढ़ में भाजपा को लगभग 72 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 66 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर करीब 6 लाख का ही है। पर भाजपा ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए यहां 54 सीटों पर काबिज हुई और कांग्रेस 35 पर रह गई। राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रही भारत राष्ट्र पार्टी का भी तेलंगाना में यही हाल रहा। उसे करीब 87 लाख वोट मिले, पर कांग्रेस ने 5 लाख अधिक 92 लाख वोट लेकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। बीआरएस ने 2018 के मुकाबले में 49 सीटें गंवा दी। यहां भाजपा ने भी 32 लाख वोट हासिल किए हैं। पर उसे सिर्फ 8 सीटें मिली। लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही होता है। भाजपा ने सन् 2019 में 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे 303 सीटें मिलीं। सन् 2014 के चुनाव में तो 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
सीटों और वोटों के बीच का फासला
किसी पार्टी को मिले वोट और उसकी जीतने वाली सीटों में अक्सर बड़ा फर्क होता है। मध्य प्रदेश में सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले थे। पर वहां कांग्रेस को सीटें 114 मिल गई और भाजपा को 109 ही। कुल वोट कम मिलने के बावजूद कांग्रेस की वहां सरकार बन गई थी।
इस बार तीन राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई। पर उसे मिले वोटों का फासला सीटों की तुलना में देखना दिलचस्प होगा। जैसे राजस्थान में भाजपा को करीब 1 करोड़ 65 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर 9 लाख के आसपास है। मगर यहां भाजपा को 115 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर रुक गई। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 2 करोड़ 11 लाख मिले वहां कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख। पर सीटों का अंतर बहुत अधिक आ गया। कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई और भाजपा ने 163 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने कांग्रेस के दोगुने से भी अधिक सीटें हासिल कर ली। छत्तीसगढ़ में भाजपा को लगभग 72 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 66 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर करीब 6 लाख का ही है। पर भाजपा ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए यहां 54 सीटों पर काबिज हुई और कांग्रेस 35 पर रह गई। राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रही भारत राष्ट्र पार्टी का भी तेलंगाना में यही हाल रहा। उसे करीब 87 लाख वोट मिले, पर कांग्रेस ने 5 लाख अधिक 92 लाख वोट लेकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। बीआरएस ने 2018 के मुकाबले में 49 सीटें गंवा दी। यहां भाजपा ने भी 32 लाख वोट हासिल किए हैं। पर उसे सिर्फ 8 सीटें मिली। लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही होता है। भाजपा ने सन् 2019 में 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे 303 सीटें मिलीं। सन् 2014 के चुनाव में तो 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
परिणाम के पहले का माहौल..
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के नेता ही नहीं, कार्यकर्ता भी ओवरकांफिडेंट थे। जैसे छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, राजस्थान में अशोक गहलोत का दोबारा मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था वैसे ही मध्यप्रदेश में कमलनाथ को सीएम मान लिया था। मध्यप्रदेश में ऐसे ही एक अति उत्साही कार्यकर्ता ने नतीजा आने से पहले ही सडक़ पर स्वागत द्वार लगा रखा था। ([email protected])
जैसे-जैसे एंटिबायोटिक दवाओं का असर कम हो रहा है, वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. अब नई एंटिबायोटिक दवाएं बनाने की कोशिश हो रही है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
सुपरबग यानी एंटीबायोटिक दवाओं का इंसानी शरीर पर खत्म हो जाना वैश्विक स्तर पर सेहत के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक माना जाता है. एक अनुमान के मुताबिक 2019 में इस वजह से 12.7 लाख लोगों की जान गई थी. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक यह खतरा इतना बड़ा हो जाएगा हर साल लगभग एक करोड़ लोगों की जानें सिर्फ इसलिए जा रही होंगी क्योंकि उन पर एंटीबायोटिक दवाएं असर नहींकर रही होंगी.
यह खतरा इतना बड़ा है इसलिए वैज्ञानिक इससे निपटने के लिए कई तरह की कोशिशें कर रहे हैं. इनमें नई तरह की एंटिबायोटिक दवाओं के विकास से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद लेने तक तमाम प्रयास शामिल हैं.
काम करना बंद कर रही हैं दवाएं
उत्तरी नाईजीरिया में काम कर रहीं डॉ. नुबवा मेदुगू कहती हैं कि जब उन्होंने 2008 में कानो शहर में अपने मेडिकल करियर की शुरुआत की थी तो टाइफॉयड से ग्रस्त बहुत से बच्चे अस्पताल में इसलिए आते थे क्योंकि दवाएं उन पर काम नहीं कर रही थीं. द कन्वर्सेशन मैग्जीन में एक पॉडकास्ट में डॉ. मेदुगू ने कहा, "मुझे तब पता नहीं था कि बहुत से मरीजों के संक्रमणों का ठीक ना होना एक बहुत बड़ी समस्या की झलक भर था.”
अब नाईजीरिया की राजधानी अबुजा के राष्ट्रीय अस्पताल में क्लिनिकल माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में शोध कर रहीं मेदुगू कहती हैं, "अब ऐसे इंफेक्शन खोजना लगभग असंभव हो गया है जिनमें कम से कम एक एंटिबायोटिक के लिए प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो गई है.”
हाल ही में इस विषय पर एक शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि कौन-कौन सी एंटिबायाटिक दवाओं का असर लगातार कम होता जा रहा है. वह कहती हैं कि सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि जो दवाएं कभी आखरी इलाज हुआ करती थीं, उनका असर भी अब खत्म हो रहा है.
नई एंटीबायोटिक दवाओं की तलाश
दुनिया में कई वैज्ञानिक अब ऐसी नई एंटिबायोटिक दवाएं विकसित करने में लगे हैं जो पुरानी दवाओं से पार पा चुके संक्रमणों पर प्रभावी साबित हो सकें. न्यूयॉर्क के रोचेस्टर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में बायोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर आंद्रे हड्सन उन्हीं में से एक हैं. वह पारंपरिक बायोप्रोस्पेक्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें मिट्टी जैसे कुदरती तत्वों से संभावित एंटिबायोटिक्स निकालने की कोशिश की जाती है.
एक इंटरव्यू में हडसन बताते हैं कि पारंपरिक रूप से किसी एक बैक्टीरिया को निकालकर उसका डीएनए पर शोध किया जाता है और उससे उस बैक्टीरिया के पूरे समुदाय पर असर डालने वाली दवा बनाई जाती है. लेकिन अब कुछ वैज्ञानिक मेटाजेनोमिक्स नामक तकनीक का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें किसी कुदरती तत्व जैसे कि मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया के पूरे समुदाय की सीक्वेंसिंग की जाती है.
साथ ही बहुत से वैज्ञानिक खोज की गति बढ़ाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि यह तकनीक उस सीमा तक सोच सकती है, जहां तक वैज्ञानिक भी नहीं सोच रहा हे हैं. हालांकि यह अभी सिर्फ सिद्धांत के स्तर पर ही है. (dw.com)
ध्वनि विश्लेषण एआई टाइप 2 डायबिटीज का पता करने के लिए एक उपयोगी टूल हो सकता है, लेकिन इसके साथ चेतावनी भी जुड़ी है.
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉएंड की रिपोर्ट-
उन्नत ध्वनि विश्लेषण का इस्तेमाल करने वाले मेडिकल डायग्नोस्टिक टूल्स तेजी से सटीक होते जा रहे हैं. स्पीच पैटर्न का विश्लेषण खासतौर पर पार्किंसंस या अल्जाइमर्स जैसी बीमारियों के लिए बहुमूल्य जानकारी मुहैया करा सकता है.
वॉयस एनालिसिस का इस्तेमाल करके मानसिक बीमारी, अवसाद, पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर और दिल की बीमारी का भी पता लगाया जा सकता है.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई संकुचित रक्त वाहिकाओं या थकावट के लक्षणों का भी पता लगा सकती है. इससे स्वास्थ्यकर्मियों को मरीजों का जल्द इलाज करने और किसी भी संभावित जोखिम को कम करने की अनुमति मिलती है.
अमेरिका के 'मेयो क्लिनिक प्रोसीडिंग्सः डिजिटल हेल्थ' मेडिकल जर्नल में छपे एक शोध के मुताबिक किसी व्यक्ति को टाइप 2 डायबिटीज है या नहीं यह आश्चर्यजनक सटीकता के साथ निर्धारित करने के लिए आवाज की एक छोटी रिकॉर्डिंग ही काफी है.
अज्ञात रोग
इस तकनीक का उद्देश्य अज्ञात डायबिटीज से पीड़ित लोगों की पहचान करने में मदद करना है. इस नई तकनीक के जरिए दुनियाभर में ऐसे 24 करोड़ लोगों को बहुत मदद मिलेगी जो टाइप-2 डायबिटीज के शिकार हैं, लेकिन उन्हें इसका पता ही नहीं है. यह आंकड़ा इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन का है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक भारत के कुछ राज्यों में मधुमेह के मामले तेजी से बढ़े हैं. करीब दस करोड़ भारतीय लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं. टाइप 2 डायबिटीज वाले लोगों में दिल से जुड़ी बीमारियों, जैसे दिल का दौरा और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है.
10 सेकेंड में कैसे पता चलेगा टाइप-2 डायबिटीज का
वैज्ञानिकों ने लोगों की सेहत के बुनियादी डाटा जैसे उम्र, सेक्स, ऊंचाई और वजन के साथ-साथ आवाज के छह से दस सेकेंड लंबे सैंपल लेकर एआई मॉडल विकसित किया, जिसकी मदद से पता चल सके कि व्यक्ति को टाइप-2 डायबिटीज है या नहीं.
इस मॉडल का डायग्नोसिस 89 फीसदी महिलाओं और 86 फीसदी पुरुषों के मामले में सही साबित हुआ. अमेरिका की क्लिक लैब ने यह एआई मॉडल तैयार किया है, जिसमें वॉयस टेक्नॉलजी के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके मधुमेह का पता लगाने में प्रगति हुई है.
एआईको प्रशिक्षित करने के लिए कनाडा में ओंटारियो टेक यूनिवर्सिटी में जेसी कॉफमैन और उनकी टीम ने 267 व्यक्तियों की आवाजें रिकॉर्ड कीं, जिन्हें या तो मधुमेह नहीं था या जिन्हें पहले से ही टाइप 2 मधुमेह का पता था.
अगले दो सप्ताह के दौरान प्रतिभागियों ने अपने स्मार्टफोन पर हर रोज छह बार एक छोटा वाक्य रिकॉर्ड किया. 18,000 से अधिक आवाज के नमूने तैयार किए गए, जिनमें से 14 अकूस्टिक फीचर को अलग किया गया, क्योंकि वे मधुमेह वाले और बिना मधुमेह वाले प्रतिभागियों के बीच भिन्न थे.
जेसी कॉफमैन ने कहा, "फिलहाल जो तरीके इस्तेमाल होते हैं, उनमें बहुत वक्त लगता है, आना-जाना पड़ता है और ये महंगे पड़ सकते हैं. वॉयस टेक्नॉलजी में यह संभावना है कि इन सारी रुकावटों को पूरी तरह से दूर कर दे."
वॉयस एनालिसिस के खतरे
डायग्नोस्टिक टूल्स के रूप में वॉयस एनालिसिस के समर्थक उस गति और दक्षता पर जोर देते हैं जिसके साथ रोगी की आवाज का इस्तेमाल करके बीमारियों का पता लगाया जा सकता है. लेकिन भले ही एआई समर्थित टूल्स बहुत विशिष्ट जानकारी मुहैया करने में सक्षम हों, मुट्ठी भर आवाज के नमूने एक अच्छी तरह से स्थापित डायग्नोस्टिक टूल्स विकसित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.
क्या दुरुपयोग हो सकता है
आलोचकों और डाटा सुरक्षा ऐक्टिविस्टों ने स्पीच एनालिसिस सॉफ्टवेयर के भारी जोखिम के बारे में चेतावनी दी है, उदाहरण के लिए नियोक्ताओं या इंश्योरेंस कॉल सेंटरों द्वारा इसका गलत इस्तेमाल किया जा सकता है.
एक जोखिम यह भी है कि स्पीच एनालिसिस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल सहमति के बिना किया जा सकता है और व्यक्तिगत स्वास्थ्य जानकारी के आधार पर ग्राहकों या कर्मचारियों को नुकसान हो सकता है.
यही नहीं संवेदनशील मेडिकल जानकारी हैक हो सकती है, उसे बेचा जा सकता है या फिर उसका गलत इस्तेमाल हो सकता है. हालांकि डायग्नोस्टिक टूल्स के रूप में स्पीच एनालिसिस पर स्पष्ट नियम और सीमाएं वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती हैं. यह पूरी तरह से राजनीति के दायरे में आता है. (dw.com)
हम हर दिन कई बुरी खबरें पढ़ते हैं. कभी युद्ध की, तो कभी प्राकृतिक आपदाओं से लोगों के मरने की. क्या आपको पता है कि ये बुरी खबरें हमारे सेहत पर किस तरह असर डाल रही हैं?
फोन पर किसी तरह की सूचना आते ही हम उसे तुरंत खबर पढ़ने लगते हैं. चाह कर भी ज्यादा देर तक अपने डिवाइस से दूरी नहीं रख पाते. हम अक्सर बुरी खबरों के चक्र में वापस लौट आते हैं. हिंसा, युद्ध और आपदा हमारे न्यूज फीड पर हावी हैं.
बुरी खबरें पढ़ने का दौर लगातार पिछले कई वर्षों से जारी है. 2019 के आखिर और 2020 की शुरुआत में कोरोना महामारी, उसके बाद यूक्रेन युद्ध, फिर कई देशों में भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं और अब मध्य-पूर्व में इस्राएल-हमास के बीच युद्ध. बुरी खबरों का दौर खत्म ही नहीं हो रहा है. ये सभी खबरें दिल दहलाने और हताश करने वाली कहानियों और तस्वीरों से भरी होती हैं. इन खबरों को लगातार पढ़ने की लत इंसानों को बीमार कर रही हैं.
डूमस्क्रोलिंग क्या है?
डूमस्क्रोलिंग का मतलब है, बुरी खबरों को स्क्रॉल करते रहना. तब भी जब यह हमें परेशान करती हैं. यह शब्द ‘डूम' और ‘स्क्रोलिंग' से मिलकर बना है. डूम का मतलब होता है आपदा, विनाश, अंत, भय. स्क्रोलिंग का मतलब है, इंटरनेट पर कुछ खोजना. डूमस्क्रोलिंग शब्द का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया जा रहा है कि लोग किस तरह लगातार बुरी खबरें देख और पढ़ रहे हैं. यह शब्द वास्तव में महामारी के दौरान प्रचलन में आया.
पाषाण युग के निशान
डूमस्क्रोलिंग पूरी तरह से नकारात्मक पूर्वाग्रह के बारे में है. इंसानों का झुकाव नकारात्मकता की ओर ज्यादा होता है. उदाहरण के लिए, प्रशंसा की तुलना में आलोचना इंसानों के व्यवहार पर ज्यादा असर डालती है. यही बात अच्छी खबर की तुलना में बुरी खबर के लिए भी लागू होती है. न्यूरो साइंटिस्ट मारेन उर्नर ने कहा, "हमारा मस्तिष्क सकारात्मक शब्दों की तुलना में नकारात्मक शब्दों को तेजी से और बेहतर तरीके से प्रोसेस करता है. इसका मतलब है कि हम उन्हें ज्यादा याद रखते हैं.”
यह बात विकासवादी जीवविज्ञान के परिप्रेक्ष्य से समझ में आती है. उर्नर ने कहा, "नुकीले और बड़े दांत वाली बिल्लियों की प्रजातियां या मैमथ के समय में खतरे से अनजान रहना नुकसानदायक था.” हमारा दिमाग अभी भी व्यवस्थित रूप से जानकारी इकट्ठा करके अनिश्चितता को दूर करने में हमारी मदद करने की कोशिश कर रहा है. हम उन खतरों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहते हैं जो हमारा इंतजार कर रहे हैं. जितनी अधिक बुरी खबरें हम सुनते हैं, उतना ही बेहतर तैयार महसूस करते हैं. हालांकि, यह एक भ्रांति है. हो सकता है कि इस तरह की सोच मैमथ के समय काम करती हो, लेकिन एप्लिकेशन और न्यूज फीड के युग में यह बेकार है.
चिप्स के बैग जैसे एप्लिकेशन
हमारे समाचार एप्लीकेशन हमें जुड़े रहने के लिए डिजाइन किए गए हैं. ‘कभी न खत्म होने वाले स्क्रोल' का विचार कोई भूल नहीं थी. यह एक मनोवैज्ञानिक चाल है जिसे 2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ता ब्रायन वैनसिंक के ‘बॉटमलेस सूप बाउल एक्सपेरिमेंट' की मदद से चित्रित किया गया था.
इस प्रयोग में, प्रतिभागियों के एक समूह को सूप के ऐसे बाउल मिले जिसका कोई निचला हिस्सा नहीं था. इन बाउल में सूप को लगातार इस तरह से भरा गया कि प्रतिभागियों को पता नहीं चला. प्रयोग के नतीजे से यह जानकारी मिली कि इस समूह के लोगों ने उस दूसरे समूह की तुलना में 73 फीसदी अधिक सूप का सेवन किया जिन्हें तय मात्रा में सूप दिया गया था. ज्यादा सूप का सेवन करने वाले समूह के लोग ना तो यह बता सके कि उन्होंने अधिक सूप का सेवन किया और ना ही यह कहा कि उन्हें पेट भरा हुआ महसूस हुआ.
इसके अलावा, एप्लिकेशन डिजाइनर एक और ट्रिक इस्तेमाल करते हैं. वह है ‘पुल-टू-रिफ्रेश' फंक्शन. इस विचार को कैसिनों से लिया गया है. जैसे ही आप स्क्रीन को नीचे की ओर खींचते हैं, पेज फिर से लोड हो जाता है और आप इस उत्साह के साथ इंतजार करते हैं कि कोई नई खबर मिलने वाली है.
यह ठीक उसी तरह है जैसे पहले के जमाने में जुए की मशीनों को घुमाने के लिए लीवर को नीचे की ओर खींचना होता था. उस समय लोग यह उम्मीद करते थे कि इस बार उन्हें कुछ न कुछ इनाम मिलेगा. इस जीत की उम्मीद के इंतजार के दौरान हमारा दिमाग खुशी वाला हार्मोन डोपामाइन रिलीज करता है और हम जीत की उम्मीद में बार-बार ऐसा करना चाहते हैं. यही कारण है कि लोग हारने पर भी जुआ खेलते रहते हैं.
दिमाग में लगातार तनाव
परेशान करने वाली खबरें देखने और पढ़ने से हमारे सेरोटोनिन लेवल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. हम थका हुआ, तनावग्रस्त, चिड़चिड़ा, मूडी महसूस करते हैं और सही से नींद नहीं आती है. ऐसी स्थिति में तनाव वाला हार्मोन कोर्टिसोल सक्रिय होता है. जब हम तनाव महसूस करते हैं, तो कोर्टिसोल हमें अस्थायी रूप से प्रोडक्टिव और सक्रिय महसूस करने में मदद कर सकता है. हालांकि, कोर्टिसोल का बढ़ा हुआ स्तर हानिकारक हो सकता है, क्योंकि इससे हम लगातार तनाव वाली स्थिति में आ सकते हैं.
डूमस्क्रॉलिंग अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करता है. अध्ययनों के मुताबिक, बुरी खबरेंज्यादा पढ़ने से लोग अवसाद और तनाव का शिकार हो सकते हैं. ये लक्षण पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर वाले लोगों में दिखते हैं. मनोवैज्ञानिकों और मीडिया संस्थान हफिंगटन पोस्ट के संयुक्त अध्ययन से पता चला है कि जिन लोगों ने सुबह-सुबह बुरी खबरें पढ़ने में तीन मिनट बिताए थे, उनके छह से आठ घंटे बाद यह कहने की संभावना 27 फीसदी अधिक थी कि उनका दिन खराब रहा. उसी अध्ययन में शामिल एक अन्य समूह ने तथाकथित ‘समाधान-आधारित' समाचार पढ़ा और उनमें से 88 फीसदी ने कहा कि उनका दिन अच्छा गुजरा.
बुरी खबरें और मीडिया
मीडिया कंपनियों को पता है कि बुरी खबरों से उन्हें ज्यादा क्लिक मिल सकता है. ज्यादा क्लिक का मतलब है ज्यादा प्रसार और ज्यादा कमाई. हालांकि, सवाल यह है कि जब डूमस्क्रॉलिंग इतनी ज्यादा खतरनाक है, तो मीडिया घरानों को स्थिति में सुधार के लिए क्या करना चाहिए?
शोधकर्ता मारेन उर्नर ने कहा कि पत्रकारों को खुद से पूछना चाहिए कि ‘आगे क्या करना है'. कहानियां बताते समय किसी समस्या की जानकारी देना जरूरी है, लेकिन समाधान खोजना भी शोध का हिस्सा होना चाहिए.
खबर पढ़ने की आदत करें विचार
दुनिया में क्या चल रहा है, इस बारे में अपडेट रहना जरूरी है. हालांकि, आप हर समय अपडेट रहें, यह जरूरी नहीं है. इसलिए, दिन की शुरुआत करने का एक अच्छा तरीका यह है कि बिस्तर से उठते ही घर के सभी डिवाइसों को चालू करने से बचें. इस बात पर विचार करें कि आप कितनी खबरें पढ़ते हैं और ये खबरें कब पढ़नी चाहिए.
साथ ही, भरोसेमंद स्रोत, पूरी जानकारी वाली खबरें और कम क्लिकबेट वाली हेडलाइनें चुनकर डूमस्क्रॉल की इच्छा से लड़ें. समाचार पढ़ने के लिए एक समय तय करें, जैसे कि दोपहर में 20 से 30 मिनट. पूरे दिन लगातार स्क्रॉल करने से बचें. नोटिफिकेशन और ब्रेकिंग न्यूज अलर्ट बंद कर दें.
कोरोना वायरस महामारी के बाद भारत में युवाओं में हार्ट अटैक के मामले बढ़ जाने के बाद भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इस विषय पर एक शोध किया है. आखिर हार्ट अटैक के मामले क्यों बढ़ रहे हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इस मामले पर एक शोध किया है और कहा कि कोरोना के टीके से युवाओं में अचानक मौत का खतरा नहीं बढ़ा है, बल्कि टीके से खतरा कम हुआ है.
भारत में हार्ट अटैक से युवाओं की मौत के मामले हाल के दिनों में बढ़े हैं. कई मामले ऐसे सामने आए जिनमें लोग डांस करते हुए, गरबा खेलते हुए, गाना गाते हुए या फिर जिम में कसरत करते हुए हार्ट अटैक के शिकार हो गए.
देश में हार्ट अटैक से हुई अचानक मौतों के बाद आईसीएमआर ने एक स्टडी की थी. आईसीएमआर ने अपने शोध में कहा कि कोविड की वजह से अस्पताल में लंबे समय तक भर्ती रहना, ज्यादा मेहनत वाले काम करना या ज्यादा शराब पीना अचानक मौत के कुछ कारक हैं.
क्या कहता है शोध
आईसीएमआर के शोध में यह भी कहा गया है कि जिन लोगों को संक्रमण का गंभीर सामना करना पड़ा है, उन्हें कम से कम एक या दो साल तक अत्यधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए. हालांकि यह शोध अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है. आईसीएमआर की रिपोर्ट की मानें तो, कोविड-19 के बाद दिल के मरीजों में 14 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है.
आईसीएमआर ने अपने शोध के लिए भारत में 18-45 आयु वर्ग के स्वस्थ वयस्कों के बीच अचानक मौतों की जांच की. इस शोध से यह भी पता चला कि कोविड-19 वैक्सीन से अचानक मौत का खतरा नहीं बढ़ा है.
लोगों को क्यों हो रहे ज्यादा हार्ट अटैक
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने बीते दिनों एक बयान में कहा, "आईसीएमआर ने एक स्टडी जारी की है. स्टडी कहती है कि जिन्हें गंभीर कोविड हुआ, संक्रमण को ज्यादा वक्त ना हुआ हो...उन्हें ज्यादा शारीरिक मेहनत नहीं करनी चाहिए, तेज दौड़ने, हैवी वर्कआउट से बचना चाहिए. ये सावधानी एक से दो साल के लिए बरतनी है."
स्वास्थ्य मंत्री का यह बयान इस बार गरबा में बहुत ज्यादा मौतों के बाद आया है. अकेले गुजरात में नवरात्रि के जश्न के दौरान 473 लोगों की हार्ट अटैक के कारण मौत की शिकायतें अस्पतालों को मिली.
हेल्थ एक्सपर्ट कहते हैं कि अगर स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि लोगों को ज्यादा मेहनत वाला काम या कठोर परिश्रम नहीं करना चाहिए तो उसके लिए सरकार ही एक पॉलिसी बनाए और बताए कि जिन लोगों का ऐसा पेशा है तो उनके लिए सरकार की क्या नीतियां हैं.
लंदन में सीनियर फिजिशियन और मेदांता अस्पताल में काम कर चुके डॉ. शुभांक सिंह डीडब्ल्यू से कहते हैं, "सरकार को ऐसा तंत्र बनाना चाहिए...जिसको भी गंभीर कोविड हुआ और उसके पास इसके सबूत हैं, तो सरकार कोई ऐसा तंत्र बनाए जिससे उन्हें दो साल तक नौकरी में आराम की सुविधा मिल सके."
डॉ. शुभांक सिंह कहते हैं कि जिस पेशे में भारी वजन उठाना पड़ता है, वैसे लोगों के लिए सरकार को जरूर कुछ नीति पेश करनी चाहिए ताकि उन्हें काम में आराम मिल सके.
लक्षण को ना करें नजरअंदाज
साथ ही डॉ. शुभांक सिंह कहते हैं कि जिन लोगों को गंभीर कोविड हुआ था या फिर वे लोग जो ऑक्सीजन सपोर्ट पर थे या उन्हें रेमडेसिविर दिया गया था तो उन्हें लाइफस्टाइल में बदलाव लाना पड़ेगा और उन्हें रेगुलर चेकअप कराना चाहिए.
वो कहते हैं कि जिसको मॉडरेट कोविड हुआ था, वे साल में एक बार तो जरूर कॉर्डियोलॉजिस्ट से चेकअप कराएं और जिन्हें गंभीर कोविड हुआ था वह साल में दो बार कॉर्डियोलॉजिस्ट से चेकअप कराएं.
डॉ. शुभांक सिंह का कहना है कि कई बार लोग शुरुआती लक्षणों को नजरअंदाज कर देते हैं जैसे कि एक-दो सीढ़ियां चढ़ने पर सांस फूल जाना, जल्दी सांस फूलना, छाती में बार-बार दर्द होना या पैरों में सूजन आ जाना, अगर ये लक्षण दिखते हैं तो इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और चेकअप करा लेना चाहिए.
कई कार्डियोलॉजिस्ट कहते हैं कि कोविड संक्रमण की वजह से कुछ लोगों में मायोकार्डिटिस हो गया है. यह वायरस के संक्रमण की वजह से होता है. इसमें दिल की मांसपेशी यानी मायोकार्डिटिस में सूजन आ जाती है. इससे दिल कमजोर हो जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड का संक्रमण दिल को नुकसान पहुंचाता है, जिसकी वजह से अचानक हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है. (dw.com)
वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके जरिए केवल 10 सेकेंड में यह पता लगाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति को डाइबिटीज है या नहीं. यह एआई की मदद से संभव है. भारत में डायबिटीज के करीब 10 करोड़ मरीज हैं.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट-
इस नई खोज की वजह से टाइप-2 डायबिटीज यानी मधुमेह का पता लगाना बेहद आसान हो जाएगा. इसके लिए जरूरत होगी अपने स्मार्टफोन में केवल दस सेकेंड तक बोलते रहने की. अमेरिका के मेयो क्लिनिक के प्रोसीडिंग्सः डिजिटल हेल्थ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने लोगों की सेहत के बुनियादी डाटा जैसे उम्र, सेक्स, ऊंचाई और वजन के साथ-साथ आवाज के छह से दस सेकेंड लंबे सैंपल लेकर एआई मॉडल विकसित किया, जिसकी मदद से पता चल सके कि व्यक्ति को टाइप-2 डायबिटीज है या नहीं.
इस मॉडल का डायग्नोसिस 89 फीसदी महिलाओं और 86 फीसदी पुरुषों के मामले में सही साबित हुआ. अमेरिका की क्लिक लैब ने यह एआई मॉडल तैयार किया है, जिसमें वॉइस टेक्नॉलजी के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके मधुमेह का पता लगाने में प्रगति हुई है.
कुछ वक्त पहले ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक भारत के कुछ राज्यों में मधुमेह के मामले तेजी से बढ़े हैं. करीब दस करोड़ भारतीय लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं.
क्लिक लैब्स का कमाल
लैब से जुड़ी वैज्ञानिक जेसी कॉफमैन ने कहा, "हमारा शोध डायबिटीज और बिना डायबिटीज वाले लोगों की आवाज में महत्वपूर्ण उतार-चढ़ाव दिखाता है और इससे डायबिटीज का पता लगाने की प्रक्रिया पूरी तरह से बदल सकती है. फिलहाल जो तरीके इस्तेमाल होते हैं, उनमें बहुत वक्त लगता है, आना-जाना पड़ता है और ये महंगे पड़ सकते हैं. वॉइस टेक्नॉलजी में यह संभावना है कि इन सारी रुकावटों को पूरी तरह से दूर कर दे.
इस अध्ययन में 18,000 आवाजों का इस्तेमाल हुआ, ताकि पता लगाया जा सके कि डायबिटीज के मरीजों और दूसरे लोगों की ध्वनियों में क्या फर्क है. सिग्नल प्रोसेसिंग के जरिए आवाज के सुर और गहनता में अंतर पता लगाया गया, जो सामान्य तौर पर इंसानी कानों को सुनाई नहीं देता.
बड़े काम की तकनीक
इस नई तकनीक के जरिए दुनियाभर में ऐसे 24 करोड़ लोगों को बहुत मदद मिलेगी, जो टाइप-2 डायबिटीज के शिकार हैं, लेकिन उन्हें इसका पता ही नहीं है. यह आंकड़ा इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन का है.
यह ताजा रिसर्च हेल्थकेयर में एआई के बढ़ते रोल की तरफ इशारा करती है, जहां मशीन लर्निंग मॉडल और डाटा साइंस का मेल रोगियों के इलाज और मेडिकल प्रक्रिया को आसान बनाने में मददगार है. रिसर्चरों का दावा है कि यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मॉडल, जो सेहत से जुड़े बुनियादी डाटा का इस्तेमाल करते हैं, ताकि मधुमेह का पता लगाया जा सके, इनका इस्तेमाल दूसरी बीमारियों का पता लगाने में भी हो सकता है. (dw.com)
एक शोध के मुताबिक लंबे समय तक बैठे रहने से होने वाली मृत्यु के जोखिम को साइकिल चलाने, रेजिस्टेंस ट्रेनिंग, बागवानी जैसी सिर्फ 20-25 मिनट की शारीरिक गतिविधि से कम किया जा सकता है.
ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन में ऑनलाइन प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि शारीरिक गतिविधि की उच्च क्षमता कम जोखिम से जुड़ी हुई है, भले ही हर दिन बैठे रहने में कितना समय बिताया जाए.
नॉर्वे में ट्रोम्सो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कहा अत्यधिक गतिहीन जीवनशैली मृत्यु के बढ़ते जोखिम से जुड़ी है.
कम से कम 50 वर्ष की आयु के लगभग 12,000 लोगों के अध्ययन से पता चला है कि आठ घंटे की दैनिक गणना की तुलना में दिन में 12 घंटे से अधिक समय तक बैठे रहने से मृत्यु का खतरा 38 प्रतिशत बढ़ जाता है.
हर दिन 22 मिनट से अधिक की मध्यम से तीव्र शारीरिक गतिविधि मृत्यु के कम जोखिम से जुड़ी थी.
जबकि, जोरदार शारीरिक गतिविधि मृत्यु के कम जोखिम से जुड़ी थी, गतिहीन जीवनशैली और मृत्यु के बीच संबंध को काफी हद तक शारीरिक गतिविधि से दूर किया जा सकता है.
उदाहरण के लिए दिन में 10 मिनट की शारीरिक गतिविधि 10.5 से कम घंटे बिताने वालों में मृत्यु के 15 प्रतिशत कम जोखिम से जुड़ी थी. वहीं प्रतिदिन 10.5 घंटे से अधिक गतिहीन समय बिताने वालों में यह जोखिम 35 प्रतिशत कम था.
वहीं शारीरिक गतिविधि में ज्यादा कैलोरी बर्न करने वाले लोग जो रोजाना 12 घंटे से अधिक काम करते हैं उनमें मृत्यु का जोखिम कम था.
शोधकर्ताओं ने कहा यह एक अवलोकन अध्ययन है और इस प्रकार, कारण और प्रभाव स्थापित नहीं किया जा सकता है.
शोधकर्ताओं ने कहा, "कम शारीरिक गतिविधि भी मृत्यु दर के जोखिम को कम करने के लिए एक प्रभावी रणनीति हो सकती है. वहीं अगर 22 मिनट से अधिक शारीरिक गतिविधि की जाए तो यह जोखिम समाप्त कर देती है."
शोधकर्ताओं ने कहा, "शारीरिक गतिविधि को बढ़ावा देने के प्रयासों से व्यक्तियों के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य लाभ हो सकते हैं."
एए/सीके (रॉयटर्स)
धरती पर ऐसे बहुत से जीव हैं जिनमें मस्तिष्क नहीं होता. लेकिन वे सीख रहे हैं और विज्ञान की इस समझ को चुनौती दे रहे हैं कि सीखने के लिए जटिल मस्तिष्क की जरूरत होती है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
जेली फिश, कोरल, फुंगी, बैक्टीरिया और चिकनी काई, ये ऐ तमाम ऐसे जीव हैं जिनके पास मस्तिष्क नहीं होता. लेकिन इस बात से इनके विकास में कोई फर्क नहीं पड़ता. इस तथ्य ने वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर किया है कि क्या मस्तिष्क के बिना जीवन संभव है.
सेंसरी एंड ईवॉल्यूशनरी इकोलॉजी लैब के निदेशक डॉ. टॉम व्हाइट ने इस बारे में गहन शोध किया है. ‘कन्वर्सेशन' पत्रिका में छपे लेख में डॉ. व्हाइट कहते हैं कि मस्तिष्क जैविक विकास की यात्रा का एक अद्भुत नतीजा है. वह लिखते हैं, "इस केंद्रीय अंग के व्यवहार को नियंत्रित करके इंसान समेत सभी प्राणी अप्रत्याशित माहौल में प्रतिक्रिया करने और फलने-फूलने की क्षमता हासिल करते हैं. सीखने का गुण बेहतर जीवन का मूल मंत्र साबित हुआ है.”
कितना जरूरी है मस्तिष्क?
बहुत से वैज्ञानिक इस सवाल से जूझते रहे हैं कि जिन प्राणियों के पास सीखने की यह क्षमता नहीं है, अगर वे भी विकसित हो रहे हैं, तो जीवन में मस्तिष्क की भूमिका कितनी अहम है. जेली फिश या फुंगी जैसे जीव सीखने की यह क्षमता नहीं रखते हैं पर उनका अस्तित्व इससे ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ है.
सिडनी यूनिवर्सिटी में सीनियर लेक्चरर डॉ. व्हाइट लिखते हैं, "सीखना दरअसल व्यवहार में बदलाव करना है. यह कई तरीके का हो सकता है. नॉन-एसोसिएटिव यानी बिना किसी सीधे जुड़ाव के सीखना इस पूरी प्रक्रिया के एक सिरे पर है. आपने देखा होगा कि लोग टीवी या ट्रैफिक के शोर को बंद कर देते हैं. यह बार-बार के अनुभव से सीखना है.”
इसी तरह एसोसिएटिव लर्निंग यानी जुड़ाव से सीखना है जो व्यवहार आधारित होती है. मसलन, खुश्बू आते ही खाने के लिए चले आना या दूध उबलने की आवाज आने पर ही गैस बंद कर देना इसी तरह का सीखना है. परागकणों की खुश्बू से मधुमक्खियां फूलों तक पहुंच जाती है, यह उन्होंने सीखा है.
जटिल मस्तिष्क
भाषा, संगीत या इस तरह के कौशल सीखना ज्यादा जटिल प्रक्रियाएं हैं क्योंकि उसमें शरीर के विभिन्न हिस्सों का सामंजस्य बनाना सीखना होता है. यह सोचने की क्षमता का प्रतीक है. इसके लिए मस्तिष्क के भीतर एक विशेष ढांचे की जरूरत होती है. इसलिए यह कौशल कुछ विशेष प्रजातियों तक सीमित है जिनमें गणना की क्षमता है, यानी जिनका मस्तिष्क ज्यादा जटिल है.
हाल ही में प्रकाशित एक शोध में वैज्ञानिकों ने दिखाया कि मस्तिष्क रहित जीव बॉक्स जेली फिश में सीखने की क्षमता है. पिछले हफ्ते ‘जर्नल ऑफ करंट बायोलॉजी' में प्रकाशित यह शोध कहता है कि कैरेबियाई मैंग्रोव जंगलों में यह पाया जाने वाला जीव बॉक्स जेली फिश धूप और छाया में आना-जाना सीख गया है.
हालांकि बॉक्स जेली फिश अन्य जेली फिश से अलग होते हैं. इनके पास 24 आंखें होती हैं. लेकिन मस्तिष्क इनके पास भी नहीं होता और अपने शरीर को ये न्यूरॉन्स के जरिये नियंत्रित करते हैं.
मस्तिष्क के बिना सीखना
जेली फिश और कुछ अन्य समुद्री जीव प्राणियों के सबसे शुरुआती पूर्वजों में से हैं और उनके पास केंद्रीय मस्तिष्क नहीं होता. इसके बावजूद ये ऐसे कई काम करते हैं, जिनमें सीखने की क्षमता की जरूरत होती है. मसलन, बीडलेट एनेमन नामक जीव अन्य जीवों को अपने इलाके में नहीं आने देते और किसी भी घुसपैठ का हिंसक विरोध करते हैं. लेकिन जब इन्हीं की प्रजाति के जीव इलाके में आते हैं तो ये जीव धीरे-धीरे उन्हें पहचानने लगते हैं और अपना हिंसक व्यवहार बदल लेते हैं.
शोधकर्ता और साइंस पत्रकार एरिका टेनीहाउस कहती हैं कि जेली फिश, घोंघे और स्टारफिश जैसे जीवों ने यह साबित किया है कि सीखने के लिए मस्तिष्क की जरूरत नहीं होती. न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में टेनीहाउस लिखती हैं, "ये बहुत साधारण से नजर आने वाले जीव बहुत अच्छे सीखने वाले हैं. और यह कोई बहुत हैरत की बात नहीं है क्योंकि उनमें स्नायु कोशिकाएं तो होती हैं. असल में सीखना स्नायु कोशिकाओं से जुड़ा मसला है और इनके शरीर में ये कोशिकाएं किसी एक जगह पर केंद्रित होने के बजाय कई जगहों में पसरी होती हैं.”
विज्ञान को चुनौती
लेकिन डॉ. व्हाइट कहते हैं कि ऐसे कई शोध हो चुके हैं जिन्होंने साबित किया है कि बिना स्नायु कोशिकाओं के भी सीखना संभव है. खाने के लिए रास्ता खोजना और उसे याद रखना, पहले के अनुभवों के आधार पर अपना व्यवहार बदलना और यहां तक कि किसी कड़वी चीज को एक बार चख लेने के बाद उसे दोबारा ना चखना ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं.
डॉ. व्हाइट कहते हैं कि पौधों को भी मस्तिष्क-रहित सोचने वाले जीवों में रखा जा सकता है. जैसे वीनस फ्लाईट्रैप अपने शिकार के स्पर्श को याद रखते हैं. इसी क्षमता के कारण वे सही समय पर पत्तों को बंद कर लेते हैं जिससे शिकार फंस जाता है. लेकिन वे उसे पचाने की क्रिया तभी शुरू करते हैं जब यह सुनिश्चित कर लें कि फंसा हुआ शिकार भरपूर पोषक भोजन है.
डॉ. व्हाइट कहते हैं, "सीखना सिर्फ मस्तिष्क से जुड़ी गतिविधि नहीं है. जैसे-जैसे मस्तिष्क-रहित जीवों में ज्ञान संबंधी क्षमताएं होने के सबूत मिल रहे हैं, संवेदनाएं, सोचना और आमतौर पर व्यवहार के विज्ञान को चुनौतियां मिल रही हैं.” (dw.com)
दुनिया में करीब 5.5 करोड़ लोग डिमेंशिया से पीड़ित हैं. दिमाग की कोशिकाएं क्यों मरती हैं इस बारे में हुई नई रिसर्च से वैज्ञानिकों को अल्जाइमर की कारगर दवाएं बनाने में मदद मिली है.
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉएंड की रिपोर्ट-
निया मेंडिमेंशिया से पीड़ित 5.5 करोड़ लोगों में एक बड़ी संख्या अल्झाइमर के रोगियों की है. डिमेंशिया से पीड़ित दो तिहाई लोग विकासशील देशों में रहते हैं. दुनिया की आबादी जिस तरीके से बूढ़ी हो रही है उससे अनुमान है कि 2050 तक डिमेंशिया के मरीजों की संख्या 13.9 करोड़ तक पहुंच जाएगी. इससे चीन, भारत, लातिन अमेरिका और उप सहारा अफ्रीका के देशों में रहने वाले लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे.
रिसर्चर अल्जाइमर के इलाज के लिए कई दशकों से काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें अब तक सीमित सफलता ही मिल सकी है. अब इस दिशा में एक नई उम्मीद जगी है. एक्टिव एजेंट लेकानेमाब की खोज के बाद खासतौर से रिसर्चर बहुत उत्साहित हैं. इस दवा को अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने मंजूरी दे दी है. इस दवा से ऐसे संकेत मिले हैं कि यह अल्जाइमर के शुरूआती दौर में उसके विकास को धीमा कर देती है.
दिमाग में जटिल प्रक्रियाएं
अल्जाइमर को रोकने के लिए दवा विकसित करना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि रिसर्चर अभी तक यह पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं कि बीमारी की चपेट में आने के बाद दिमाग में क्या होता है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि दिमाग की कोशिकाएं मरती क्यों हैं?
रिसर्चर यह जानते हैं कि एमिलॉयड और टाउ प्रोटीन दिमाग में विकसित होते हैं हालांकि हाल तक वो यह नहीं जानते थे कि ये दोनों साथ में कैसे काम करते हैं या कोशिकाओं की मौत पर असर डालते हैं. बेल्जियम और ब्रिटेन के रिसर्चरों का कहना है कि वो यह समझा सकते हैं कि अब क्या हो रहा है?
कोशिकाओं की मौत का रहस्य सुलझा
साइंस जर्नल में छपी रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक रिसर्चरों का कहना है कि इन असामान्य प्रोटीनों एमिलॉयड और टाउ के बीच एक सीधा संबंध है जिसे नेक्रोप्टोसिस या कोशिका की मौत कहा जाता है.
कोशिका की मौत आमतौर पर किसी संक्रमण या फिर सूजन के जवाब में प्रतिरक्षा है और यह शरीर को अवांछित कोशिकाओं से मुक्ति दिलाती है. इसकी वजह से शरीर में फिर स्वस्थ कोशिकाओं का विकास होता है. जब पोषक तत्वों की आपूर्ति रुक जाती है तो कोशिकाएं फूलने लगती हैं और प्लाज्मा झिल्ली नष्ट हो जाती है. कोशिकाएं फूल कर मर जाती हैं.
रिसर्चरों का कहना है कि अल्जाइमर के मरीज की कोशिकाएं दिमाग के न्यूरॉन्स में एमिलॉयड प्रोटीन के जाने से सूज जाती हैं. इसकी वजह से कोशिकाओं में आंतरिक रसायनों के गुण बदल जाते हैं. एमिलॉयड तथाकथित प्लेक के साथ झुंड बना लेते हैं और फाइबर जैसी टाउ प्रोटीन अपने बंडल बना लेते हैं जिन्हें टाउ टैंगल कहा जाता है.
जब ये दो चीजें होती हैं तो दिमाग की कोशिकाएं एक मॉलिक्यूल बनाती हैं जिसे एमईजी3 कहा जाता है. रिसर्चरों ने एमईजी3 को बनने से रोका और उनका कहना है कि जब वो उसे रोक सके तो दिमाग की कोशिकाएं जिंदा बच गईं.
यह काम करने के लिए रिसर्चरों ने इंसान के दिमाग की कोशिकाओं को जेनेटिकली मोडिफाइड चूहों के दिमाग में डाला जो बड़ी मात्रा में एमिलॉयड बनाते हैं.
ब्रिटेन की डिमेंशिया रिसर्च इंस्टिट्यूट के रिसर्चर ने बताया कि तीन चार दशकों में पहली बार अल्जाइमर के मरीजों में कोशिकाओं की मौत के संभावित कारण को समझने में सफलता मिली है.
नई दवाओं के लिए उम्मीद
बेल्जियम के केयू लॉयवेन और ब्रिटेन के डिमेंशिया रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के रिसर्चरों का कहना है कि उन्हें इस नई खोज से अल्जाइमर के मरीजों के लिए नई दवाओं और इलाज के विकास में मदद मिलने की उम्मीद है.
उनकी उम्मीद बेमानी नहीं है. लेकानेमैब दवा खासतौर से प्रोटीन एमिलॉयड को निशाना बनाती है. अगर एमईजी3 मॉलिक्यूल को बनने से रोका जा सका तो यह दवा दिमाग में कोशिकाओं की मौत को रोकने में सफल होगी. (dw.com)
एक ताजा शोध में कहा गया कि पिछले तीन दशकों में दुनिया भर में कैंसर से पीड़ित 50 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है. लेकिन यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ऐसा क्यों हो रहा है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (ऑन्कोलॉजी) में छपे ताजा शोध के मुताबिक 1990 से लेकर 2019 के बीच 14 साल से लेकर 49 वर्ष के लोगों में कैंसर के मामले 18.2 करोड़ से बढ़कर 32.6 करोड़ हो गए हैं. शोध कहता है पिछले 30 सालों में 50 साल से कम उम्र के लोगों में कैंसर के मामलों में 80 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार कैंसर फैलने का कारण वैश्विक जनसंख्या में वृद्धि है, जबकि कई अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि पचास वर्ष से कम उम्र के लोगों में निदान का चलन बढ़ा है और इसीलिए कैंसर के मामले भी सामने आ रहे हैं.
क्यों बढ़ रहा है कैंसर
हालांकि इस नए अध्ययन को करने वाले शोधकर्ताओं ने खराब आहार, तंबाकू और शराब के सेवन को कैंसर के खतरे को बढ़ाने वाले मुख्य कारकों के रूप में पहचाना है. अध्ययन में आगे कहा गया है कि कैंसर जैसी बीमारियों के तेजी से फैलने के पीछे के सभी कारण अभी भी अज्ञात हैं.
शोधकर्ताओं ने कहा लेकिन "शुरूआत में कैंसर के बोझ की बढ़ती प्रवृत्ति अभी भी स्पष्ट नहीं है." शोध में कहा गया है कि 2019 में 50 साल से कम उम्र के दस लाख लोगों की कैंसर से मौत हुई, जो 1999 की तुलना में 28 प्रतिशत अधिक है.
शोध के मुताबिक सबसे घातक कैंसर स्तन, फेफड़े, विंड पाइप और पेट के थे, जबकि पिछले तीन दशकों में स्तन कैंसर का सबसे अधिक निदान किया गया था. लेकिन जो कैंसर सबसे तेजी से फैलता या बढ़ता है वह नासॉफिरिन्क्स का होता है. यह वह जगह है जहां नाक का पिछला हिस्सा गले के ऊपरी हिस्से और प्रोस्टेट से मिलता है.
साल 1990 और 2019 के बीच प्रारंभिक शुरुआत वाले विंड पाइप और प्रोस्टेट कैंसर में वार्षिक 2.28 फीसदी और 2.23 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.
इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने दुनिया के 204 देशों में 29 विभिन्न कैंसर की दरों का विश्लेषण करने के साथ-साथ 2019 के "ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी" के डेटा का इस्तेमाल किया है.
अध्ययन में कहा गया है कि कोई देश जितना अधिक विकसित होगा, 50 वर्ष से कम उम्र के लोगों में कैंसर होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी.
2030 तक कैंसर और विकराल रूप लेगा
अध्ययन में कहा गया है कि इससे पता चलता है कि बेहतर स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली वाले अमीर देश कैंसर को पहले पकड़ लेते हैं, लेकिन केवल कुछ ही देश 50 से कम उम्र के लोगों में कैंसर के कुछ प्रकार की जांच कर पाने में सफल रहते हैं.
इन ट्रेंड्स के आधार पर शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि 50 से कम उम्र के लोगों में वैश्विक कैंसर के मामलों की संख्या 2030 तक 31 प्रतिशत बढ़ जाएगी, ऐसा ज्यादातर 40-49 आयु वर्ग के लोगों में होगा.
एए/सीके (एएफपी)
प्रयागराज (यूपी), 3 सितंबर। इलाहाबाद विश्वविद्यालय (एयू) के पूर्व छात्र सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों ने एक शोध निष्कर्ष में दावा किया है कि तंबाकू का पत्ता कैंसर के कई रूपों से लड़ने की क्षमता रखता है।
यह निष्कर्ष एक हैरान करने वाला विरोधाभास पेश करता है, क्योंकि डब्ल्यूएचओ के अनुसार, तंबाकू का उपयोग दुनियाभर में कैंसर से संबंधित सभी मौतों में से एक चौथाई के लिए जिम्मेदार है और फेफड़ों के कैंसर का प्राथमिक कारण बना हुआ है।
यूके में टेलर एंड फ्रांसिस लिमिटेड के प्रकाशन 'जर्नल ऑफ बायोमोलेक्यूलर स्ट्रक्चर एंड डायनेमिक्स' में एयू के पूर्व छात्र अमित दुबे, भारतीय वैज्ञानिक आयशा तुफैल और मलेशियाई शोधकर्ताओं मिया रोनी और प्रोफेसर ए.के.एम. मोयेनुल हक के साथ की गई उल्लेखनीय खोज प्रकाशित हुई है।
शोध निष्कर्ष के अनुसार, "4-[3-हाइड्रॉक्सीनिलिनो]-6,7-डाइमेथॉक्सीक्विनाज़ोलिन" नामक एक अद्वितीय कैंसर-रोधी तत्व तंबाकू के पत्तों से निकाला जा सकता है, जिसका कोई स्पष्ट दुष्प्रभाव नहीं होता है।
अमित दुबे ने बताया, “कैंसर कोशिकाओं का प्रसार, अस्तित्व, आसंजन, प्रवासन और विभेदन सभी एपिडर्मल ग्रोथ फैक्टर रिसेप्टर (ईजीएफआर) से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित होते हैं। ट्यूमर कोशिकाओं की दीवारों में ईजीएफआर होता है। उन्हें जीवित रहने और विकसित होने के लिए इस प्रोटीन की आवश्यकता होती है।''
अनुसंधान टीम ने ईजीएफआर प्रोटीन को लक्षित करने वाले ड्रग बैंक तत्वों की स्क्रीनिंग के लिए एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण का उपयोग किया।
इसे ड्रग बैंक के माध्यम से अलबर्टा विश्वविद्यालय और अलबर्टा कनाडा में मेटाबोलॉमिक्स इनोवेशन सेंटर द्वारा बनाए गए एक व्यापक फ्री-एक्सेस ऑनलाइन डेटाबेस के माध्यम से सुविधाजनक बनाया गया था, जहां से टीम ने अपने अध्ययन के लिए तंबाकू के पत्तों में पाए जाने वाले तत्व को प्राप्त किया था।
अमित ग्रेटर नोएडा में क्वांटा कैलकुलस प्राइवेट लिमिटेड में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। (आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 19 अगस्त । अकेले रहने से लोगों में सोचने की क्षमता कमजोर होती है, ऐसे लोग अक्सर अपॉइंटमेंट्स भूल जाते हैं, समय पर मेडिसिन नहीं ले पाते, उनके पास इमरजेंसी के समय भी कांटेक्ट करने के लिए कोई नहीं होता है। नए शोध से ये खुलासा हुआ है।
जामा नेटवर्क ओपन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ऐसे रोगियों के लिए, अकेले रहना स्वास्थ्य का एक सामाजिक निर्धारक है जिसका प्रभाव गरीबी, नस्लवाद और कम शिक्षा जितना गहरा है।
एक अनुमान के अनुसार, 4 में से 1 वृद्ध अमेरिकी अकेला रहता है और इन्हें डीमेंसिआ है। इनको असुरक्षित ड्राइविंग, घर से बाहर घुमते समय भटक जाना, समय पर मेडिसिन नहीं लेना और मेडिकल अपॉइंटमेंट्स मिस कर जाने का खतरा होता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया-सैन फ्रांसिस्को (यूसीएसएफ) इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ एंड एजिंग की ऐलेना पोर्टाकोलोन ने कहा, "ये निष्कर्ष हमारी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर प्रहार है, जो सभी के लिए घरेलू देखभाल सहायता प्रदान करने में विफल है।"
इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने 76 स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का साक्षात्कार लिया, जिनमें चिकित्सक, नर्स, सामाजिक कार्यकर्ता, केस वर्कर, घरेलू देखभाल सहायक और अन्य शामिल थे।
प्रदाताओं ने रोगियों द्वारा मेडिकल अपॉइंटमेंट्स मिस करने, डॉक्टर के फ़ोन कॉल का उत्तर देने में विफल रहने और यह भूल जाने कि अपॉइंटमेंट्स क्यों की गई थीं, के बारे में चिंताएं व्यक्त कीं।
एक साक्षात्कार में एक चिकित्सक ने कहा, "जरूरी नहीं कि हमारे पास वास्तव में उन तक पहुंचने का प्रयास करने के लिए कर्मचारी हों।"
कुछ मरीज़ अपने डॉक्टर को पूरी जानकारी नहीं मुहैया करा सके, जिससे डॉक्टर सही से इलाज नहीं कर सके।
एक केस मैनेजर के अनुसार, कई लोगों के पास इमरजेंसी कांटेक्ट के लिए कोई नाम नहीं था, "परिवार का कोई सदस्य नहीं, संकट की स्थिति में भरोसा करने के लिए कोई दोस्त भी नहीं"।
अध्ययन में कहा गया है कि इन रोगियों को समर्थन देने वाले अस्थिर बुनियादी ढांचे का एक परिणाम यह था कि उनकी पहचान तब तक नहीं की जाती थी जब तक कि उन्हें अस्पताल नहीं भेजा जाता था।
यूसीएसएफ प्रभाग के लेखक केनेथ ई. कोविंस्की ने कहा, "हमें याद रखने की जरूरत है कि मेडिकेयर और अन्य भुगतानकर्ता डीमेंसिआ से पीड़ित कमजोर लोगों को आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए पैसे देने से इनकार करते हैं, जबकि खर्च काफी कम होता है।" (आईएएनएस)।