अंतरराष्ट्रीय
योनास गार स्तोर के चुनावी अभियान का नारा था, आम आदमी. लेकिन नॉर्वे के नए प्रधानमंत्री बनने जा रहे स्टोर एक अरबपति हैं जो पहली नजर में कहीं से भी आम आदमी नहीं लगते.
सोमवार को आए शुरुआती नतीजों में विपक्षी वामपंथी गठबंधन के चुनाव जीतने की प्रबल संभावना बताई गई थी. इस सरकार का नेतृत्व 61 वर्षीय स्तोर के हाथों में हो सकता है, जिन्हें फिलहाल विभिन्न दलों के साथ गठजोड़ की कोशिशें करनी हैं.
स्तोर का चुनाव अभियान नॉर्वे में असमानता दूर करने के नारे पर आधारित था. उन्होंने देश में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई का मुद्दा उठाया. वैसे विकसित देशों में नॉर्वे सबसे समान समाजों में से एक है लेकिन अब तक सरकार में रही दक्षिणपंथी पार्टी के शासनकाल में देश में अरबपतियों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है.
विरासत के धनी
अपने अभियान के दौरान स्तोर ने बार-बार कहा, "अब आम लोगों की बारी है.” हालांकि उनका यह नारा उनकी जिंदगी के उलट है. वह डेढ़ करोड़ डॉलर से ज्यादा की संपत्ति के मालिक हैं. पर इसकी सफाई में वह कहते हैं, "मेरी दौलत साधारण नहीं है लेकिन मेरी बहुत सी बातें साधारण हैं.”
तीन बच्चों के पिता स्तोर कई मायनों में खानदानी विरासत के मालिक हैं. उनकी दौलत का मुख्य स्रोत स्टोव बनाने वाली उनकी पारिवारिक कंपनी को बेचने से मिला धन है. इस कंपनी को कभी उनके दादा ने दीवालिया होने से बचाया था
राजनीति भी स्तोर को विरासत में मिली है. पूर्व प्रधानमंत्री येन्स स्टोल्टेनबर्ग उनके मित्र ही नहीं मार्गदर्शक भी रहे हैं और उन्हीं के नक्शेकदम पर चलकर स्तोर आज प्रधानमंत्री पद के इतने करीब पहुंच गए हैं. स्टोल्टनबर्ग सरकार में वह 2005 से 2012 के बीच विदेश मंत्री और फिर 2012-13 में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं.
पार्टी में अंतर्विरोध
जब 2014 में स्टोल्टनबर्ग को नाटो का अध्यक्ष नामित किया गया तो लेबर पार्टी के नेता के तौर पर उनकी जगह लेने के लिए स्तोर का नाम स्वाभाविक माना गया. हालांकि आमतौर पर मजदूर-कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करती आई लेबर पार्टी की कमान एक अरबपति के हाथों में सौंपना बहुत से लोगों के गले नहीं उतरा था.
स्तोर की शख्सियत विरोधाभासों और विविधताओं से भरी हुई है. उन्होंने पैरिस में साइंस की पढ़ाई की तो कुछ दिन लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में भी बिताए. हार्वर्ड लॉ स्कूल में वह एक शोधकर्ता रह चुके हैं. उनकी शख्सियत में अरबपतियों की चकाचौंध है, तकनीकवेत्ताओं सी बेपरवाही भी. वह बढ़िया फ्रेंच बोलते हैं जो उन्हें एक अमीरजादे सा पेश करता है. और यही बात लेबर पार्टी के उनके वामपंथी सहयोगियों में से बहुतों को पसंद नहीं.
एक संपादक ने एक बार स्तोर के बारे में कहा था कि वह "उलटी तरफ से सामाजिक सीढ़ी चढ़े हैं”. जहाज तोड़ने वाले पिता और लाइब्रेरियन मां की संतान स्तोर पहली मई को मजदूर दिवस के मौके पर नॉर्वे का झंडा फहराने लगे हैं क्योंकि ऐसा न करने के लिए उनकी आलोचना हुई थी.
सबको खुश रखने की कला
राजनीतिक विश्लेषक योहानेस ब्रेग ने चुनाव से पहले उनके बारे में कहा था, "वह एक ऐसे नेता हैं जिनका कई बार लोग मजाक उड़ाते हैं, एक ऐसा बुद्धिजीवी तो लेबर पार्टी में बाहर का आदमी लगता है लेकिन अभियान में उन्होंने बढ़िया काम किया.”
स्तोर की भाषणकला के लगभग सभी कायल हैं. हालांकि कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इस खूबी का इस्तेमाल स्तोर भ्रमित करने के लिए करते हैं. उनके मार्गदर्शक स्टोल्टनबर्ग ने उन्हें पार्टी नेतृत्व सौंपते हुए कहा था, "जोनास एक असाधारण व्यक्ति हैं. वह खूब जानते हैं. और बहुत मेहनत कर सकते हैं. इस सबको वह अपने आसपास के लोगों को खुश रखने के गुण के साथ मिलाकर इस्तेमाल करते हैं.”
रिपोर्टः वीके/सीके (एएफपी)
काबुल को कब्जाने के एक महीने बाद तालिबान कई बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है. देश में सूखा और अकाल फैल रहे हैं और डर है कि इस महीने के अंत तक 1.4 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच सकते हैं.
चार दशक लंबे युद्ध और हजारों लोगों की मौत के बाद अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो चुकी है. पिछले 20 सालों में विकास के नाम पर खर्च किए गए अरबों डॉलर भी स्थिति को बेहतर नहीं बना पाए.
सूखे और अकाल की वजह से हजारों लोग ग्रामीण इलाकों को छोड़ कर शहरों की तरफ जा रहे हैं. विश्व खाद्य कार्यक्रम को डर है कि इसी महीने के अंत तक भोजन खत्म हो सकता है और करीब 1.4 करोड़ लोग भुखमरी के कगार तक पहुंच सकते हैं.
जिंदा रहने का सवाल
अभी तक पश्चिमी देशों ने ज्यादा ध्यान इन सवालों पर दिया है कि नई तालिबान सरकार महिलाओं के अधिकारों को संरक्षण देने का अपना वादा निभाएगी या नहीं या अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को शरण देगी या नहीं. लेकिन कई आम अफगानियों के लिए जिंदा रहना ही मुख्य प्राथमिकता है.
काबुल में रहने वाले अब्दुल्ला कहते हैं, "हर अफगान, बच्चा हो या बड़ा, भूखा है, उनके पास आटा और खाना पकाने का तेल तक नहीं है." बैंकों के बाहर अभी भी लंबी कतारें लग रही हैं. देश के खत्म होते पैसों को बचाए रखने के लिए एक सप्ताह में 200 डॉलर से ज्यादा निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.
पूरे काबुल में जहां तहां अस्थायी बाजार लग गए हैं जिनमें लोग नकद पैसों के लिए घर का सामान बेच रहे हैं. हालांकि सामान खरीदने की स्थिति में भी बहुत कम लोग बचे हैं.
अरबों डॉलर की विदेशी मदद के बावजूद अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा ही रही थी. आर्थिक विकास लगातार बढ़ती आबादी के साथ कदम मिला कर नहीं चल पा रहा था. नौकरियां कम हैं और सरकारी मुलाजिमों को कम से कम जुलाई से वेतन नहीं मिला है.
विदेशी मदद
अधिकतर लोगों ने लड़ाई के अंत का स्वागत तो किया है लेकिन अर्थव्यवस्था के लगभग बंद होने की वजह से यह राहत फीकी ही रही है.
काबुल के बीबी माहरो इलाके में रहने वाले एक कसाई ने अपना नाम छुपाते हुए बताया, "इस समय सुरक्षा के मोर्चे पर तो हाल काफी अच्छा है, लेकिन हमारी कमाई बिलकुल भी नहीं हो रही है. हर रोज हमारे लिए हालात और खराब, और कड़वे हो जाते हैं. यह एक बहुत ही बुरी स्थिति है."
पिछले महीने काबुल से विदेशी नागरिकों के निकाले जाने की अफरा तफरी के बाद हवाई अड्डा अब खुल रहा है और मदद का सामान लिए विमान पहुंच रहे हैं. "पूरे देश के विनाश" की संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय दाताओं ने एक अरब डॉलर से भी ज्यादा के दान का वादा किया है.
लेकिन पिछले सप्ताह तालिबान के पुराने कट्टरवादी सदस्यों की सरकार बनने की घोषणा के बाद दुनिया भर के देशों की प्रतिक्रिया ठंडी रही है. अंतरराष्ट्रीय मान्यता का कोई संकेत नजर नहीं आ रहा है और ना ही अफगानिस्तान के बाहर रोक कर रखी नौ अरब डॉलर से भी ज्यादा मूल्य की विदेशी मुद्रा को छोड़ देने का भी संकेत नजर नहीं आ रहा है.
तालिबान की कई चुनौतियां
तालिबान के अधिकारियों ने कहा है कि वो पिछली तालिबान सरकार के कड़े कट्टरवादी शासन को दोहराने का इरादा नहीं रखते हैं. इसके बावजूद बाहर की दुनिया को यह मनाने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है कि वो सही में बदल गए हैं.
इसके अलावा ऐसी अटकलें भी लग रही हैं कि तालिबान के अंदर कई गुट हैं और उनके बीच गहरे मतभेद चल रहे हैं. हक्कानी नेटवर्क के समर्थकों के साथ हुई गोलाबारी में उप प्रधानमंत्री अब्दुल गनी बरादर के मारे जाने की "अफवाहों" को तालिबान ने नकार दिया है.
अधिकारियों का कहना है कि सरकार सभी सेवाओं को फिर से शुरू करने की कोशिश कर रही है और सड़कें भी अब सुरक्षित हैं. लेकिन युद्ध जैसे जैसे खत्म हो रहा है, आर्थिक संकट उससे भी बड़ी समस्या बनता जा रहा है. जैसा कि एक दुकानदार ने कहा, "चोरियां नहीं हो रही हैं. लेकिन रोटी भी तो नहीं है." (dw.com)
सीके/एए (रॉयटर्स)
मलयेशियाई माताओं के एक समूह ने विदेशों में पैदा हुए बच्चों को अपनी राष्ट्रीयता देने के अधिकार से जुड़ा एक मुकदमा जीता है.
अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह एक ऐतिहासिक फैसला है और इस जीत से अन्य देशों में भेदभावपूर्ण नागरिकता कानूनों में सुधार की कोशिशों को बढ़ावा मिल सकता है. मलयेशिया पुरुषों को विदेशों में पैदा हुए बच्चों को नागरिकता देने की इजाजत देता है, लेकिन महिलाएं अब तक उसी अधिकार से वंचित थीं, क्योंकि संविधान केवल "पिता" को उनकी राष्ट्रीयता संतान को सुपुर्द करने का अधिकार देता है.
मांओं ने दी कोर्ट में चुनौती
उच्च न्यायालय में दायर एक मुकदमे में छह माताओं और अभियान समूह फैमिली फ्रंटियर्स ने तर्क दिया कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 8 का उल्लंघन करता है जो लैंगिक भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है.
इसी मामले पर हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि "पिता" शब्द में मां को भी मिलाकर पढ़ना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि मांओं के विदेश में जन्मे बच्चे मलयेशियाई नागरिकता के हकदार हैं.
पूर्व स्क्वैश चैंपियन और सात वर्षीय बेटे की मां चोंग वाई ली कहती हैं, "मैं बहुत रोमांचित हूं. यह एक बड़ी जीत है." चोंग ने बताया कि उन्होंने जश्न मनाने के लिए अपने 7 साल के बेटे को मलयेशियाई झंडे वाली टी-शर्ट पहनाई थी.
मुकदमा लड़ रहीं अन्य माताओं की तरह चोंग की शादी एक विदेशी नागरिक से हुई थी और उन्होंने विदेश में बेटे को जन्म दिया था. महिलाओं का कहना है कि नागरिकता नियम परिवारों को विभाजित करते हैं, महिलाओं को अपमानजनक संबंधों में फंसाने का जोखिम उठाते हैं और बच्चों को स्टेटलेस बना सकते हैं.
फैसले का बड़ा असर
मलेशिया की सरकार जिसने पहले इस मामले को "तुच्छ" के तौर पर बताया था, फिलहाल टिप्पणी से इनकार कर दिया है. लेकिन अधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि सरकार हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील कर सकती है.
यह अब तक साफ नहीं है कि मलेशिया में कितनी महिलाएं इस मुद्दे से प्रभावित हुई हैं लेकिन फैमिली फ्रंटियर्स ने कहा कि द्विराष्ट्रीय वाले परिवारों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि लोग विदेश में काम करने के लिए भी जाते हैं.
24 देश माता और पिता को अपने बच्चों को अपनी राष्ट्रीयता देने के समान अधिकार नहीं देते हैं, और अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह कानूनी जीत बदलाव ला सकती है.
एए/वीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
कहते हैं बिल्लियों को नौ बार जिंदगी मिलती है लेकिन असलियत में अक्सर गुर्दों की बीमारी इनकी मौत का कारण बनती है. जापान में इस बीमारी का इलाज खोज निकालने के लिए बिल्ली प्रेमियों ने चंदे में लगभग 20 लाख डॉलर जुटा लिए हैं.
टोक्यो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक पहले से बिल्लियों को गुर्दों की बीमारी से बचाने के तरीकों पर शोध कर रहे थे, लेकिन कोरोनावायरस महामारी के आने के बाद से इस शोध के लिए कॉर्पोरेट जगत से मिल रही फंडिंग बंद हो गई.
समाचार एजेंसी जिजि प्रेस ने जब इन शोधकर्ताओं की समस्या पर एक लेख छापा, तो वो वायरल हो गया. उस लेख की बदौलत बिल्ली प्रेमियों ने इस रिसर्च को जारी रखने के लिए ऑनलाइन चंदा इकठ्ठा करने की मुहिम चलाई और जल्द ही हजारों लोग इससे जुड़ गए.
क्या है ये बीमारी
20 डॉलर चंदा देने वाली एक महिला ने एक संदेश में लिखा, "मैंने पिछले साल में दिसंबर में अपनी प्यारी बिल्ली को गुर्दों की बीमारी की वजह से खो दिया...मुझे उम्मीद है कि यह रिसर्च आगे बढ़ेगी और कई बिल्लियों की इस बीमारी से मुक्त होने में सहायता करेगी."
90 डॉलर देने वाले एक व्यक्ति ने कहा,"मैं हाल ही में बिल्ली की एक बच्ची को घर ले कर आया. मैं चंदा देकर उम्मीद कर रहा हूं कि यह इलाज समय रहते मिल जाए और इस बिल्ली के भी काम आए."
पालतू बिल्लियां हों या जंगल में रहने वाले उनके बड़े भाई-बहन, इन सब पर इस बीमारी का बहुत खतरा रहता है. ऐसा इसलिए क्योंकि इनके जींस में एक प्रक्रिया के तहत अक्सर एक जरूरी प्रोटीन सक्रिय नहीं हो पाता है.
दोगुना जी सकेंगी बिल्लियां
इस प्रोटीन की खोज भी टोक्यो के इन्हीं शोधकर्ताओं ने की थी. इसे एआईएम के नाम से जाना जाता है और यह शरीर में मरी हुई कोशिकाओं और अन्य कचरे को साफ करने में मदद करता है. इससे गुर्दे बंद होने से बचे रहते हैं.
इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर तोरु मियाजाकी और उनके टीम इस प्रोटीन को एक स्थिर मात्रा और गुणवत्ता में बनाने के तरीकों पर काम कर रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि वो एक ऐसा तरीका खोज पाएंगे जिसकी वजह से बिल्लियों का औसत जीवनकाल 15 सालों से बढ़कर दोगुना हो सकता है.
मियाजाकी कहते हैं, "मैं उम्मीद कर रहा हूं कि आने वाले समय में जानवरों के डॉक्टर बिल्लियों को टीकों की ही तरह यह इंजेक्शन भी हर साल दे पाएंगे." उन्होंने आगे कहा, "अगर वो इसकी एक या दो खुराक हर साल दे पाएं तो अच्छा रहेगा."
लोकप्रिय शोध
जुलाई में लेख के छपने के कुछ ही घंटों में उनकी टीम को बिन मांगे ही 3,000 लोगों ने चंदा भेज दिया. कुछ ही दिनों में यह संख्या बढ़ कर 10,000 हो गई. यह संख्या विश्वविद्यालय को एक साल में मिलने वाले कुल चंदे से भी ज्यादा है.
सितंबर के मध्य तक पहुंचते पहुंचते चंदे में करीब 19 लाख डॉलर हासिल हो चुके थे. मियाजाकी कहते हैं, "मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मेरे शोध के नतीजों का लोगों को कितना इंतजार है."
एआईएम शरीर में कैसे काम करता है, इस सवाल पर उनकी टीम का शोध 2016 में 'नेचर मेडिसिन' पत्रिका में छपा था. यह टीम पालतू जानवरों के लिए ऐसा खाना भी विकसित कर रही है जिसमें ऐसा पदार्थ होगा जो बिल्लियों के खून में निष्क्रिय पड़े एआईएम को सक्रिय करमें में मदद कर सके.
सीके/वीके (एएफपी)
संयुक्त राष्ट्र ने दुनियाभर की सरकारों से आग्रह किया है कि कृषि सब्सिडी के मुद्दे पर ज्यादा उग्र सुधारवादी तरीके से सोचा जाए. अपनी एक रिपोर्ट में यूएन ने कृषि सब्सिडी में बड़े बदलावों की जरूरत बताई है.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि कृषि सब्सिडी पर दोबारा सोचे जाने की जरूरत है. एक रिपोर्ट में यूएन ने कहा है कि 80 प्रतिशत से ज्यादा सरकारी अनुदान या तो कीमतों को प्रभावित करता है, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है या असमानता बढ़ाता है.
कृषि सब्सिडी की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत बताते हुए यूएन ने मंगलवार को एक रिपोर्ट जारी की है. कृषि सब्सिडी एक तरह का सरकारी खर्च है जो किसानों की मदद के लिए विभिन्न देश करते हैं. यूएन का अनुमान है कि आने वाले सालों में यह खर्च बेतहाशा बढ़ सकता है.
80 फीसदी सब्सिडी की पुनर्योजना जरूरी
संयुक्त राष्ट्र की तीन एजेंसियों ने दुनियाभर की सरकारों से आग्रह किया कि अपने कृषि क्षेत्र की मदद के लिए किए जा रहे खर्चों का पुनर्गठन करें. रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के अलग-अलग देश सालाना कुल मिलाकर लगभग 540 अरब डॉलर सब्सिडी पर खर्च करते हैं. इसमें से करीब 470 अरब डॉलर को पुनर्गठित किए जाने की जरूरत है ताकि कृषि क्षेत्र को ज्यादा स्थिर, पर्यावरण के अनुकूल और न्यापूर्ण बनाया जा सके.
विश्व खाद्य और कृषि संगठन के महानिदेशक कू डोंग्यू ने कहा कि यह रिपोर्ट सरकारों के लिए चेतावनी जैसी है. तुरंत कदम उठाने की जरूरत बताते हुए डोंग्यू ने कहा कि इससे चार चीजें बेहतर होंगीः पोषण, उत्पादन, पर्यावरण और जीवन.
सब्सिडी समाप्त न करो, बदलो
‘अरबों डॉलर का मौका' (A Multi-Billion Dollar Opportunity) नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट को अगले हफ्ते होने वाले संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व्यवस्था सम्मेलन से ठीक पहले सार्वजनिक किया गया है. इस अध्ययन के लिए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विकास कार्यक्रम (UNDP) ने मिलकर कराया है.
रिपोर्ट के लेखकों ने जोर देकर कहा कि वे सब्सिडी खत्म करने की बात नहीं कर रहे हैं. रिपोर्ट कहती है कि सब्सिडी खत्म करने की जगह हम कृषि उत्पादकों को मिलने वाली मदद की पुनर्योजना की बात कर रहे हैं.
इस रिपोर्ट के मुताबिक फिलहाल जहां भी सब्सिडी दी जा रही हैं, उनमें से अधिकतर या तो कीमतों में राहत के रूप में दी जा रही है या फिर आयात-निर्यात पर कर के रूप में. कुछ जगहों पर किसी खास उत्पाद या फसल को बढ़ावा देने के लिए भी धन से मदद की जा रही है.
बढ़ता जाएगा खर्च
शोध कहता है, "यह नाकाफी है, कीमतों को प्रभावित करती है, लोगों की सेहत को नुकसान पहुंचाती है, पर्यावरण के लिए खतरनाक है और अक्सर असमान होती है क्योंकि छोटे किसानों के बजाय कृषि उद्योगों को प्राथमिकता देती है.”
संयुक्त राष्ट्र का यह भी अनुमान है कि आने वाले एक दशक में कृषि सब्सिडी के रूप में सरकारी खर्च तीन गुना तक बढ़ सकता है. रिपोर्ट कहती है कि 2030 तक यह खर्च 18 खरब डॉलर तक पहुंच सकता है, इस कारण तुरंत कदम उठाने की जरूरत और ज्यादा है.
यूएन के मुताबिक 2020 में 81 करोड़ से ज्यादा लोग भूखमरी का सामना कर रहे थे, 2.37 अरब लोगों को सालभर समुचित भोजन नहीं मिल पाया और तीन अरब लोग एक स्वस्थ भोजन का खर्च नहीं उठा सके.
वीके/एए (एएफपी, डीपीए)
ओलाफ शॉल्त्स सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के जर्मन चांसलर पद के उम्मीदवार हैं. उनके अनुभव पर को शक नहीं हैं और वे संकट काल की स्थितियों से निपटने के लिए जाने जाते हैं. लेकिन कई लोग कहते हैं कि उनमें किसी चीज की तो कमी है.
डॉयचे वेले पर सबीन किनकार्त्स की रिपोर्ट
जब एसपीडी ने आम चुनाव से एक साल से भी ज्यादा पहले चांसलर पद के उम्मीदवार के तौर पर ओलाफ शॉल्त्स के नाम की घोषणा की तो लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ. यह और भी ज्यादा चौंकाने वाला था कि पार्टी ने शॉल्त्स को चुना, जबकि वह कुछ महीने पहले ही पार्टी के नेतृत्व की दौड़ हार गए थे.
लेकिन ओलाफ शॉल्त्स ने अडिग आत्मविश्वास दिखाया है और अपने लंबे राजनीतिक करियर में कई तूफानों का सामना किया है.
कोरोना वायरस संकट के दौरान उन्हें चमकने का एक अच्छा मौका मिला, जब वित्त मंत्री के रूप में उनके पास अर्थव्यवस्था और देश के नागरिकों की तूफान का सामना करने में मदद के लिए इमरजेंसी फंड से अरबों यूरो की मदद बांटने का जिम्मा रहा.
शॉल्त्स ने शांत दक्षता और अत्यधिक आत्मविश्वास के साथ वादा किया, "यह वह बजूका (एक हथियार) है, जो काम पूरा करने के लिए जरूरी था. हम यह दिखाने के लिए अपने सभी हथियार सामने रख रहे हैं कि हम ऐसी समस्या की ओर से खड़ी की जाने वाली किसी भी आर्थिक चुनौती से उबरने के लिए पर्याप्त मजबूत हैं."
संकट के समय व्यावहारिकता, करिश्मे को हरा देती है, जो इस 62 वर्षीय के शख्स हाथों में आ गई है.
एक रोबोट का खिंचाव
समय 2003 के मुकाबले बहुत दूर निकल आया है, जब जर्मन साप्ताहिक डी त्साइट ने उन्हें 'शॉल्त्सोमेट' उपनाम दे दिया था. यह उपनाम उनके नाम में ऑटोमेट शब्द लगाकर बनाया गया था. जर्मन में इसका मतलब मशीन होता है और यह शब्द सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (SPD) के राष्ट्रीय महासचिव की रोबोट जैसी क्षमता की ओर इशारा करता था.
कहा जाता था इस मशीन का काम एसपीडी की नीतियों को बेचते जाना है. इसकी शुरुआत एक विवादित लेबर मार्केट रिफॉर्म प्रोग्राम से हुई थी, जिसे 2010 नाम दिया गया था. इसमें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पाने वाले कुछ लोगों के लाभ में बड़ी कटौती की जानी थी. शॉल्त्स को उस दौरान पार्टी के भीतर और बाहर दोनों ही जगह पर इस योजना का बचाव करना पड़ा था.
बाद में शॉल्त्स ने कहा था, "मैं वो आदमी था जिसे इस संदेश को फैलाने का काम सौंपा गया था. ऐसे में मुझे कुछ हद तक कठोरता का परिचय देना था." उन्होंने यह भी जोड़ा कि "मुझे वाकई एक अफसर जैसा महसूस हुआ था. मेरे पास कोई स्वतंत्रता नहीं थी."
उन्होंने कहा कि उनकी पहली चिंता उनकी अपनी समझ नहीं बल्कि तत्कालीन चांसलर और एसपीडी नेता जेराल्ड श्रोएडर और पार्टी के प्रति पूर्ण निष्ठा का प्रदर्शन करना था. वह कहते हैं, "मैं खुद का नहीं बल्कि पार्टी का बचाव करने की कोशिश कर रहा था."
व्यर्थ का काम
अंत में बचाव की कोशिशें व्यर्थ रहीं. न सिर्फ एसपीडी की चांसलरी सीडीयू को चली गई बल्कि ओलाफ शॉल्त्स की ऐसी छवि बन गई, जिसे बदलने में अब भी समय लगेगा. यह छवि है एक उबाऊ नौकरशाह और खुशी का अंत कर देने वाले की.
एसपीडी के अंदर बहुत से लोगों को इस इंट्रोवर्ट और हैम्बर्ग से आने वाली व्यावहारिक शख्स को खुशनुमा बनाने में बहुत समस्या हुई है जो सिर्फ उतना ही बोलता है, जितना एकदम जरूरी हो.
हालांकि शॉल्त्स ने धीरे-धीरे राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ते हुए अपना मोर्चा खोले रखा है. वह एसपीडी के महासचिव, राज्य के गृह मंत्री और हैम्बर्ग के मेयर रहे और फिलहाल जर्मनी के वित्त मंत्री और डिप्टी चांसलर हैं.
ओलाफ शॉल्त्स को पार्टी के कंजरवेटिव धड़े का सदस्य माना जाता है लेकिन उन्हें वामपंथी या दक्षिणपंथी जैसी राजनीतिक श्रेणियों में रखना भी बहुत मुश्किल है. एसपीडी के युवा संगठन जुसोस के उप प्रमुख के तौर पर उनके कई विचार सामाजिक तौर पर कट्टरपंथी और पूंजीवाद के कटु आलोचना वाले थे.
दिखावा सीखना
लेकिन शॉल्त्स को एसपीडी ज्वाइन किए एक लंबा समय बीत चुका है. वह 1975 में इसमें एक स्टूडेंट के तौर पर शामिल हुए थे और बुंडेसटाग के लिए उन्होंने 1998 में चुनाव लड़ा था. उस दौरान, शॉल्त्स ने हैम्बर्ग में अपनी वकालत शुरू की. व्यापार कानूनों में उनकी विशेषज्ञता थी. इस दौरान उन्होंने अर्थव्यवस्था और उद्यमिता के बारे में बहुत कुछ सीखा. जिसने उन पर अपनी छाप छोड़ी.
ओलाफ शॉल्त्स को यह स्वीकार करने में बहुत समय लगा कि राजनीति अपने विचार सुनाने और अपनी नीतियां बेचने का काम है. लेकिन जब 2019 के आखिरी में एसपीडी के उम्मीदवार एक-दूसरे से बहस करते हुए देश का दौरा कर रहे थे तो वित्त मंत्री बदले हुए लगे.
उनका व्यवहार ज्यादा भावुक, ज्यादा सुलभ और इन सबसे आगे मित्रवत था. इसी समय उन्होंने इस बात को भी कोई रहस्य नहीं रहने दिया था कि वे चांसलर पद के उम्मीदवारों की लाइन में हैं. लेकिन उन्हें सास्किया एसकेन और नोरबर्ट वॉल्टर बोरजंस की वामपंथी जोड़ी से करारी हार का सामना करना पड़ा.
लेकिन पार्टी के पुराने सैनिक रहे शॉल्त्स ने अपना मोर्चा बचाया. उन्होंने अपने काम पर अपना फोकस बनाए रखा और नए एसपीडी नेताओं को इसके साथ आगे बढ़ने दिया. वह वफादार बने रहे और कभी कटाक्ष नहीं किए. वे इस विचार के साथ सुरक्षित महसूस करते रहे कि पार्टी का नया नेतृत्व, जो उनके हिसाब से अनुभवहीन था, वह खुद ही गलतियां करेगा.
आने वाले महीनों में शीर्ष उम्मीदवार के तौर पर अपने नामांकन के बाद भी वे बड़ी गड़बड़ियों से बचे रहे. लेकिन उनकी लोकप्रियता की रेटिंग कम है और ग्रीन पार्टी के उभार के बाद बहुत कम लोग ही ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि एसपीडी के पास अगली जर्मन सरकार का नेतृत्व करने का कोई भी मौका है. (dw.com)
ख़ुदा ए नूर नासिर
दोहा समझौते में मुल्ला ग़नी बरादर की अहम भूमिका रही है
तालिबान की अंतरिम सरकार में आपसी फूट पड़ गई है. तालिबान के सीनियर अधिकारी ने ये बात बीबीसी को बताई है.
उन्होंने बताया कि राष्ट्रपति भवन में तालिबान के सह-संस्थापक मुल्ला ग़नी बरादर के समूह और एक कैबिनेट सदस्य के बीच कहासुनी हुई है.
हाल के दिनों में मुल्ला बरादर सार्वजनिक रूप से नहीं दिखे हैं. इसके बाद से ही क़यास लगाए जा रहे हैं कि तालिबान में नेतृत्व को लेकर असहमति सतह पर आ गई है.
हालांकि इन ख़बरों को तालिबान ने आधिकारिक रूप से ख़ारिज किया है.
तालिबान ने पिछले महीने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया था और अफ़ग़ानिस्तान को इस्लामिक गणतंत्र से इस्लामिक अमीरात बनाने की घोषणा की थी. तालिबान ने सात सितंबर को नई कैबिनेट की घोषणा की थी जिसमें सभी पुरुष हैं और शीर्ष पर वे हैं जो पिछले दो दशकों में अमेरिकी बलों पर हमले के लिए कुख्यात रहे हैं.
तालिबान के एक सूत्र ने बीबीसी पश्तो से कहा कि बरादर और ख़लील उर-रहमान के बीच आपसी कहासुनी हुई है. इसके बाद दोनों नेताओं के समर्थक आपस में भिड़ गए. ख़लील उर-रहमान आतंकवादी संगठन हक़्क़ानी नेटवर्क के नेता और तालिबान की सरकार में शरणार्थी मंत्री हैं,
विवाद क्यों छिड़ा?
क़तर स्थित तालिबान के एक सीनियर सदस्य और एक व्यक्ति, जो इस कलह में शामिल थे, उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि पिछले हफ़्ते ऐसा हुआ था. सूत्रों के अनुसार विवाद इसलिए हुआ क्योंकि बरादर, जिन्हें अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री बनाया गया है, वे सरकार की संरचना से ख़ुश नहीं हैं. अफ़ग़ानिस्तान में जीत के श्रेय को लेकर तालिबान के नेता आपस में उलझ रहे हैं.
रिपोर्ट्स के अनुसार बरादर को लगता है कि उनकी डिप्लोमेसी के कारण तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता मिली है जबकि हक़्क़ानी नेटवर्क के सदस्यों और समर्थकों को लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में जीत लड़ाई के दम पर मिली है. हक़्क़ानी नेटवर्क की कमान तालिबान के एक शीर्ष नेता के पास है.
बरादर तालिबान के पहले नेता हैं जिन्होंने 2020 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से फ़ोन पर सीधे बात की थी. इसके पहले इन्होंने तालिबान की तरफ़ से दोहा समझौते में अमेरिकी सैनिकों की वापसी को लेकर समझौते पर हस्ताक्षर किया था.
दूसरी तरफ़ शक्तिशाली हक़्क़ानी नेटवर्क है जो कि हाल के वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी बलों पर सबसे हिंसक हमलों में शामिल रहा है. अमेरिका ने इसे आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है. इसके नेता सिराजुद्दीन हक़्क़ानी तालिबान की नई सरकार में गृह मंत्री हैं.
अफ़वाहों का बाज़ार पिछले हफ़्ते तब गर्म हुआ जब तालिबान का सबसे अहम चेहरा माने जाने वाले बरादर सार्वजनिक मौजूदगी से ग़ायब हो गए. सोशल मीडिया पर उनकी मौत की ख़बरें चलने लगीं.
बरादर कहाँ हैं?
बीबीसी से तालिबान के सूत्रों ने कहा है कि विवाद के कारण बरादर काबुल छोड़ कंधार चले गए हैं. सोमवार को बरादार के नाम पर एक ऑडियो टेप जारी किया गया जिसमें वे कह रहे हैं कि वे यात्राओं पर बाहर हैं. इस ऑडियो टेप में बताया गया है कि इस वक़्त वे जहाँ भी हैं, ठीक हैं.
बीबीसी ने इस ऑडियो रिकॉर्डिंग की जाँच नहीं की है कि इसमें किसकी आवाज़ है. इस ऑडियो टेप को तालिबान की कई आधिकारिक वेबसाइटों पर पोस्ट किया गया है.
तालिबान का कहना है कि सरकार के भीतर कोई विवाद नहीं है और बरादर सुरक्षित हैं. लेकिन बरादर अभी क्या कर रहे हैं, इसे लेकर अलग-अलग बात कही जा रही है. एक प्रवक्ता ने कहा कि बरादर कंधार सुप्रीम नेता से मिलने गए हैं, लेकिन बाद में बीबीसी पश्तो को बताया गया कि वे थक गए थे और अभी आराम करना चाहते हैं.
अफ़ग़ानों के बीच तालिबान के बयान पर शक़ की कई वजहें हैं. 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया था कि उसने अपने संस्थापक नेता मुल्ला उमर की मौत की बात दो साल से ज़्यादा वक़्त तक छुपा कर रखी थी. इस दौरान तालिबान मुल्ला उमर के नाम पर बयान जारी करता रहा था.
बीबीसी से सूत्रों ने बताया कि बरादर काबुल पहुँचकर कैमरे के सामने आ सकते हैं और किसी भी तरह के विवाद की बात को ख़ारिज कर सकते हैं.
तालिबान के सुप्रीम नेता हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा को लेकर भी कई तरह की अटकलें हैं. वे सार्वजनिक रूप से कभी दिखे ही नहीं. उनके पास तालिबान की राजनीतिक, सैन्य और धार्मिक मामलों की ज़िम्मेदारी है.
इस बीच अफ़ग़ानिस्तान के कार्यकारी विदेश मंत्री ने मंगलवार को अंतरराष्ट्रीय दानकर्ताओं से मदद फिर से शुरू करने की अपील की है. उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपनी मदद को लेकर राजनीति नहीं करनी चाहिए.
संयुक्त राष्ट्र ने अफ़ग़ानिस्तान में हालात भयावह रूप से बिगड़ने की चेतावनी दी है. इसके बाद से एक अरब डॉलर से ज़्यादा की मदद को लेकर पहल शुरू की गई है.
ट्रंप ने की थी बरादर से बात?
पिछले महीने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक रेडियो कार्यक्रम में पुष्टि की कि उनकी पिछले साल 'तालिबान के प्रमुख' से बात हुई थी.
यह प्रमुख कौन था, इसके बारे में वो साफ़-साफ़ नहीं बता सके थे. लेकिन जब रेडियो शो के होस्ट ने उनसे पूछा कि वो मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर की बात कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि 'हाँ मैंने उनसे बात की थी.'
पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने गुरुवार 26 अगस्त को कंज़रवेटिव टॉक रेडियो होस्ट ह्यू ह्यूवेट के कार्यक्रम में यह बात रखी. उन्होंने बताया था कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सुरक्षाबलों के लिए साल 2020 में जब बातचीत जारी थी तो उन्होंने यह बातचीत की थी.
रेडियो कार्यक्रम में जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने मुल्ला बरादर से बात की थी और उन्होंने उनसे क्या कहा था? तो इस सवाल पर ट्रंप ने कहा कि उन्होंने मुल्ला बरादर को साफ़ और कड़े लफ़्ज़ों में कहा था कि अगर उन्हें (अमेरिका) नुक़सान पहुँचाया गया तो वो 'तालिबान को ऐसी चोट देंगे, जो आज तक विश्व इतिहास में कभी नहीं हुई होगी.'
ट्रंप ने विस्तार से इस पर बात की थी और उन्होंने बातचीत की शुरुआत उत्तर कोरिया और किम जोंग उन से मुलाक़ात के मुद्दे से शुरू की थी.
उन्होंने कहा था, "मेरी उनसे (तालिबान नेता) बातचीत तय कराई गई और लोग कह रहे थे कि आपको यह नहीं करना चाहिए. वैसे, मैंने उत्तर कोरिया के किम जोंग-उन के साथ भी बातचीत तय की थी. हमारे (अमेरिका-उत्तर कोरिया) बीच कोई परमाणु युद्ध नहीं हुआ था. मैं अगर राष्ट्रपति न होता तो ओबामा की बात सच होती और हमारे बीच परमाणु युद्ध हो चुका होता." (bbc.com)
अफ़ग़ानिस्तान की कमान तालिबान के हाथ में आने के बाद से ईरान भी आशंकित है. ईरान न केवल तालिबान से आशंकित है बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के बढ़ते प्रभाव को लेकर भी चिंतित है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने गल्फ़ अरब के एक सीनियर अधिकारी के हवाले से कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अगर टकराव शुरू होता है तो चीन-पाकिस्तान एक तरफ़ होंगे और भारत, रूस, ईरान एक तरफ़. ईरान के विदेश मंत्री की भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से भी अफ़ग़ानिस्तान को लेकर बात हुई है.
तेहरान टाइम्स के अनुसार 12 सितंबर को ईरान के एक सांसद ने कहा था कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई प्रमुख फ़ैज़ हामिद पंजशीर घाटी में तालिबान की हिंसक कार्रवाई में शामिल थे.
ईरानी सांसद ने ये भी कहा था कि तालिबान की कैबिनेट के गठन में भी आईएसआई प्रमुख की भूमिका थी. उन्होंने कहा था कि ईरान पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी भूमिका सुनिश्चित करने की अनुमति नहीं देगा.
ऐसी टिप्पणी केवल ईरान की तरफ़ से ही नहीं बल्कि तालिबान की ओर से भी आ रही है. मंगलवार को तालिबान के प्रवक्ता सैयद ज़र्कुराल्लाह हाशमी ने टोलो न्यूज़ टीवी पर एक बहस के दौरान ईरान पर निशाना साधते हुए कहा था, ''पिछले 40 सालों में ईरान में कोई सुन्नी मंत्री नहीं बना. हमने ये कभी नहीं कहा कि शिया को कोई पद नहीं देंगे. हमारी कैबिनेट में कोई शिया मंत्री नहीं है, इसका मतलब ये नहीं है कि शियाओं को कोई पद नहीं मिलेगा.''
हाशमी की इस टिप्पणी का वीडियो क्लिप साउथ एशिया मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट ने ट्वीट किया है.
पाकिस्तान का विरोध
भारत के जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका पर अमेरिकी चुप्पी को लेकर सवाल खड़ा किया और ईरान से सहानुभूति जताई है. ब्रह्मा चेलानी ने ट्वीट कर कहा है, ''अमेरिका के लिए ईरान वैसा देश है जो राज्य प्रायोजित आतंकवाद को बढ़ावा देता है लेकिन सऊदी अरब दुनिया भर में जिहादियों को सबसे ज़्यादा फ़ंड मुहैया कराता है और पाकिस्तान आतंकवादियों की शरणस्थली है, वे उनके पार्टनर हैं. यह दिलचस्प है कि पंजशीर में तालिबान की बर्बरता पर ईरान बोल रहा है और अमेरिका ख़ामोश है.''
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने तालिबान को लेकर ईरान के रुख़ को पाकिस्तान के लिए निराशाजनक कहा है. अपने एक वीडियो ब्लॉग में अब्दुल बासित ने कहा है, ''ईरान ने पाकिस्तान पर आरोप लगाया है कि पंजशीर प्रांत पर कब्ज़े में पाकिस्तानी एयर फ़ोर्स शामिल था. ईरान की सरकार ने तेहरान में पाकिस्तानी दूतावास के बाहर विरोध-प्रदर्शन की भी अनुमति दी. प्रदर्शनकारियों का कहना था कि पाकिस्तान तालिबान का समर्थन कर रहा है.''
ईरान क्यों कर रहा ऐसा?
अब्दुल बासित ने ईरान से निराशा जताते हुए कहा है, ''ईरान को इस मामले में कुछ भी बहुत सतर्कता से बोलना चाहिए. पाकिस्तान ईरान से संबंधों को लेकर काफ़ी संवेदनशील रहा है. हमें 18 अप्रैल, 2015 की तारीख़ याद है. पाकिस्तानी संसद ने यमन संघर्ष में सऊदी और ईरान के बीच किसी का भी पक्ष नहीं लेने का प्रस्ताव पास किया था. ईरान को याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान ने सऊदी अरब और उसके बीच हमेशा संतुलन बनाकर रखने की कोशिश की है. हमने दोनों देशों के बीच सेतु बनाने की कोशिश की है. लेकिन 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद से ईरान पाकिस्तान के मामले में उदार नहीं रहा है.''
अब्दुल बासित ने ईरान पर आरोप लगाते हुए कहा, ''ईरान न केवल पाकिस्तान में सामुदायिक फ़साद को बढ़ावा देता रहा है बल्कि इस मामले में पश्चिम एशिया और मध्य-पूर्व में भी उसने ऐसा ही किया. कश्मीर के मामले में भी ईरान का रुख़ भारत के पक्ष में ही रहा है. हालांकि ईरान के सर्वोच्च नेता ने कश्मीरियों के पक्ष में एक बयान जारी किया था. लेकिन तेहरान इन इक्के-दुक्के बयान से आगे नहीं गया.''
बासित ने कहा, ''हमारी सरकार को इस मामले पर तेहरान से बात करनी चाहिए. अगर ईरान को पाकिस्तान से कोई दिक़्क़त है तो उसे हमारी सरकार से निजी तौर पर बात करनी चाहिए. पाकिस्तान ईरान से अच्छा रिश्ता चाहता है, लेकिन यह एकतरफ़ा नहीं हो सकता. पाकिस्तान अपने दम पर ऐसा नहीं कर सकता. तालिबान के आने से ईरान की चिंता बढ़नी लाजिमी है. लेकिन चिंता की बात है कि ईरान भारत के साथ ज़्यादा सहज दिखता है.''
बासित ने कहा, ''चाबाहार पर ईरान भारत के साथ है. हम ईरान को मुस्लिम देश के तौर पर देखते हैं. हम सुन्नी बहुल देश हैं, लेकिन हम पाकिस्तानी राष्ट्रीय हित को लेकर एकजुट हैं. ईरान को भविष्य में इसे लेकर सतर्क रहना चाहिए.''
पाकिस्तान का बढ़ता विरोध
अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका को न केवल ईरान संदिग्ध नज़र से देख रहा है बल्कि काबुल में भी लोग पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए सड़कों पर उतरे थे. इन प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ तालिबान ने हवाई फ़ायरिंग की थी.
अफ़ग़ानिस्तान की आबादी में हज़ारा समुदाय का हिस्सा 10 से 20 फ़ीसदी माना जाता है. इनकी आबादी पारंपरिक रूप से मध्य अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारात इलाक़े में है. अफ़ग़ानिस्तान कुल आबादी 3.8 करोड़ में हज़ारा अहम अल्पसंख्यक हैं.
पाकिस्तान में भी हज़ारा समुदाय के लोग हैं और पश्चिम के देशों में भी हज़ारा प्रवासी हैं. हज़ारा भी मुसलमान ही हैं और ज़्यादातर शिया हैं. दुनिया भर में सुन्नी मुसलमानों की आबादी सबसे ज़्यादा है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान हज़ारा समुदाय को निशाने पर लेता रहा है.
तालिबान हज़ारा समुदाय के ख़िलाफ़ न केवल अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय रहा है बल्कि पाकिस्तान में भी रहा है. अफ़ग़ानिस्तान में हज़ारा हमेशा से भेदभाव के शिकार होते रहे हैं और तालिबान के एक बार फिर से सत्ता में आने पर ईरान की चिंता शिया मुसलमानों और सुन्नी कट्टरपंथ को लेकर बढ़ गई है.
तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में जिस अंतरिम सरकार की घोषणा की है, उसमें कोई भी शिया नहीं है. तालिबान की इस सरकार की इसलिए भी आलोचना हो रही है.
पाकिस्तान पर शक़
इसी महीने छह सितंबर को अपनी साप्ताहिक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद ख़ातिबज़ादेह ने तालिबान के सत्ता में आने पर चेतावनी दी थी. पंजशीर घाटी में तालिबान विरोधी नेताओं की मौत को सईद ख़ातिबज़ादेह ने शहादत कहा था. ईरानी विदेश मंत्रालय का यह बयान उसी दिन आया था जब तालिबान ने पंजशीर को भी अपने कब्ज़े में लेने की घोषणा की थी.
अफ़ग़ान और ईरानी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर पंजशीर में कथित तौर पर पाकिस्तान को तालिबान का साथ देने के मामले में आड़े हाथों लेते रहे. ये भी कहा गया कि तालिबान विरोधी मसूद के नेतृत्व वाले बल के प्रवक्ता फ़हीम दाश्ती पाकिस्तानी ड्रोन हमले में मारे गए थे.
पंजशीर में पाकिस्तान के शामिल होने पर पूछे गए सवाल के जवाब में सईद ख़ातिबज़ादेह ने कहा था, ''पंजशीर से जो ख़बरें आ रही हैं, काफ़ी चिंताजनक हैं. पिछली रात का हमला काफ़ी निंदनीय था. अफ़ग़ान नेताओं की शहादत ख़ेदजनक है. ईरान पंजशीर में विदेशी हस्तक्षेप की रिपोर्ट की समीक्षा कर रहा है. अफ़ग़ानिस्तान का इतिहास बताता है कि वहाँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विदेशी हस्तक्षेप से कुछ हासिल नहीं होता है. अफ़ग़ानिस्तान के लोग किसी भी विदेशी हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेंगे.''
तेहरान टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि तालिबान को लेकर ईरान का बदल रुख़ बताता है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में ऐसी सत्ता नहीं चाहता है, जो पड़ोसी देशों की चिंताओं को पारदर्शी तरीक़े से हल करने को तैयार नहीं है.
तेहरान टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ''तालिबान के शासन में अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर बाक़ी देशों की तरह ईरान भी चिंतित है. पहली चिंता यही है कि कुछ देश तालिबान को ईरान के ख़िलाफ़ काम करवाने की कोशिश कर सकते हैं. यूएई, बहरीन, सऊदी अरब और तुर्की पहले से ही तालिबान के संपर्क में हैं. काबुल में एयपोर्ट को लेकर यूएई और कुछ देश पहले से ही काम कर रहे हैं.''
ईरान के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद अहमदीनेजाद ने भी तालिबान को आड़े हाथों लिया है. अहमदीनेजाद ने हाल ही में कहा था, ''एक समूह, जिसे पड़ोसियों ने बनाया और ट्रेनिंग दी. उसने एक देश पर कब्ज़ा कर लिया और ख़ुद को सरकार कहना शुरू कर दिया. दुनिया मूकदर्शक बनी रही या समर्थन करती रही लेकिन एक अराजकता जैसी स्थिति दुनिया के सामने पैदा हुई है.''
वॉशिगंटन स्थिति थिंक टैंक इंटरनेशनल सिक्यॉरिटी प्रोग्राम के सीनियर फ़ेलो मुहम्मद अतहर जावेद ने तुर्की के सरकारी प्रसारक टीआरटी से कहा है, ''हमें अभी इंतज़ार करना चाहिए. अगर ईरान सीधे तौर तालिबान के ख़िलाफ़ जाता है तो इससे उसे ही समस्या होगी क्योंकि पश्चिम चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान में ईरान विरोधी सरकार हो ताकि उस पर दबाव बढ़ाया जा सके.'' (bbc.com)
बीजिंग, 14 सितम्बर | चीन के फुजियान प्रांत में कोविड-19 के डेल्टा वैरिएंट के मामले बढ़ने के साथ, देश में स्कूलों को बंद कर दिया गया है। इसके साथ ही सार्वजनिक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध के साथ ही वायरस के प्रसार को रोकने के लिए यात्रा प्रतिबंध भी लगा दिए गए हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, फुजियान प्रांत में शाम 6 बजे तक 120 स्थानीय रूप से प्रसारित पुष्ट कोविड-19 मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि 19 स्थानीय लक्षणहीन मामलों का पता चला है।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने मंगलवार को स्थानीय अधिकारियों के हवाले से यह जानकारी दी। प्रांतीय महामारी विरोधी कार्यसमूह ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि पुष्ट मामले पुतियन, क्वानझोउ और जियामेन शहरों में सामने आए हैं और पुतियन में नए लक्षणहीन वाहक का पता चला।
सभी संक्रमितों को इलाज के लिए अस्पतालों में स्थानांतरित कर दिया गया है। शुक्रवार को मामलों में नवीनतम पुनरुत्थान शुरू होने के बाद से, स्थानीय अधिकारियों ने उन करीबी संपर्कों का पता लगाने के लिए हर संभव प्रयास किए हैं, जो सभी केंद्रित क्वारंटीन में हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सोमवार तक, प्रांत के दो क्षेत्रों को कोविड-19 उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों और चार को मध्यम जोखिम वाले क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
फुजियान के अधिकारियों ने प्रांत में छात्रों और शिक्षकों के लिए एक सप्ताह के भीतर बड़े पैमाने पर कोविड-19 परीक्षण पूरा करने का भी आदेश दिया है। जियामेन शहर ने कोरोनावायरस रोगियों की पहचान करने के बाद एहितायत के तौर पर कई कदम उठाए हैं।
पुतियन के प्राथमिक विद्यालय के छात्र नवीनतम प्रकोप में पहले पहचाने गए कोविड-19 रोगियों में से थे।
अल जजीरा ने बताया कि सिंगापुर से लौटे पुतियन के पुतो प्राइमरी स्कूल में एक बच्चे के माता-पिता नवीनतम प्रकोप का संदिग्ध स्रोत हैं।
वह अगस्त में सिंगापुर से चीन लौटे थे और उन्होंने अपनी क्वारंटीन अवधि भी पूरी की थी। मगर उन्हें कोविड के लक्षण विकसित होने के बाद इस महीने एक बार फिर रिपोर्ट ली गई तो वे पॉजिटिव निकले।
रिपोर्ट में कहा गया है कि फुजियान के 32 लाख की जनसंख्या वाले शहर पुतियन ने सभी निवासियों के परीक्षण का आदेश दिया है, क्योंकि संक्रमण प्रांत में 100 से अधिक लोगों में फैल गया है।
इसके अलावा, देश का सबसे बड़ा व्यापार मेला चीन आयात और निर्यात मेला, जिसे कैंटन फेयर के रूप में भी जाना जाता है, पड़ोसी ग्वांगडोंग प्रांत में आयोजित किया जा रहा है, इसे भी 12 दिनों से घटाकर पांच दिन कर दिया गया है। साउथ चाइना मॉनिर्ंग पोस्ट के अनुसार, चीन विदेश व्यापार केंद्र के निदेशक चू शिजिया ने मंगलवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसकी जानकारी दी।
हवाई अड्डों की ओर से साझा की गई जानकारी के अनुसार, ग्वांगडोंग में कई हवाई अड्डे - जिनमें झुहाई, शेनझेन और ग्वांगझू शामिल हैं - अब फुजियान से आने वाले यात्रियों से लैंडिंग के बाद अनिवार्य परीक्षण करने की मांग कर रहे हैं, भले ही उनकी पिछले 48 घंटों में नेगेटिव रिपोर्ट आई हो।
फुजियान में भेजी गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग की टीम ने कहा कि यह संभावना है कि पुतियन में समुदायों, स्कूलों और कारखानों में मामलों का पता लगाना जारी रहेगा, जहां वर्तमान प्रकोप मुख्य रूप से केंद्रित है। (आईएएनएस)
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद जनता अपना असबाब औने पौने दाम में बेचकर देश से भागना चाहती है. लोग रोजमर्रा की चीजों और भोजन के लिए बाजारों में घरेलू सामान बेच रहे हैं.
जब से तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्ता संभाली है, देश से भागने की कोशिश कर रहे अफगानों की निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है. युद्धग्रस्त देश में कट्टर तालिबान के डर से अफगान हर कीमत पर देश से भागने की कोशिश कर रहे हैं.
तालिबान के आने के साथ ही जनता को गंभीर आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में राजधानी काबुल के बाजारों में लोग सालों से जोड़े सामान को कम कीमत पर बेच रहे हैं. वह बस इससे कुछ पैसे कमाने की उम्मीद लगा रहे हैं ताकि देश से भागने में उन्हें मदद मिल सके या फिर वे अपना और अपने परिवार के सदस्यों के लिए भोजन खरीद पाए.
गंभीर आर्थिक समस्या
15 अगस्त को काबुल पर कब्जे के साथ ही तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर नियंत्रण कर लिया था. तालिबान के आने के साथ ही अफगान समाज में गंभीर अराजकता फैल गई है. स्थानीय लोगों के लिए रोजगार नहीं है या रोजगार के अवसर सिकुड़ रहे हैं. अफगान वर्तमान में अपने बैंक खाते से प्रति सप्ताह 200 डॉलर से अधिक नहीं निकाल सकते हैं. इसका मतलब है कि अफगानिस्तान में नकदी की भारी कमी है.
काबुल के एक पहाड़ी कस्बे के रहने वाले मोहम्मद अहसान काबुल के बाजार में अपने घर से दो कंबल बेचने आए हैं. वे कहते हैं, "हमारे पास खाने के लिए कुछ नहीं है. हम बहुत गरीब हैं, इन चीजों को बेचने को मजबूर हैं." अहसान कहते हैं कि अमीर लोग काबुल में रहते थे, लेकिन अब सभी देश से भाग गए हैं.
अहसान निर्माण क्षेत्र में काम करते थे, लेकिन बिल्डिंग निर्माण का काम निलंबित है या फिर ठप्प पड़ गया है.
काबुल के इस बाजार में अस्थायी टेबलों पर प्लेट, गिलास, शीशे के बर्तन, रसोई के बर्तन और अन्य सामान बिखरे पड़े हैं. पुरानी सिलाई मशीन, कालीन और अन्य सामान भी लोग गाड़ी या फिर अपने कंधों पर लादकर यहां बेचने के लिए ला रहे हैं.मोहम्मद अहसान उन अनगिनत अफगानों में से एक हैं जिन्होंने अपने देश में एक के बाद एक कई बदलाव देखे हैं और कठिनाइयों का सामना किया है. अहसान और अन्य अफगान तालिबान के शांति और समृद्धि के दावों से सतर्क हैं. 1996 से 2001 तक पिछले तालिबान शासन के दौरान इस तरह के दावे अधिक बार किए गए थे. अहसान कहते हैं, "आप उनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकते हैं."
एक अन्य कारोबारी मुस्तफा का कहना है कि वे अपने 'शिपिंग कंटेनर' का इस्तेमाल एक दुकान के रूप में कर रहा हैं. उन्होंने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि जिन लोगों से उन्होंने सामान खरीदा है उनमें से कई देश छोड़ने की उम्मीद में सीमा की तरफ जा रहे थे. मुस्तफा कहते हैं, "पहले हम एक सप्ताह में एक या दो घरों से सामान खरीदते थे, अगर आपके पास सामान रखने की जगह है तो एक बार में आप 30 घरों के सामान खरीद सकते हैं. लोग असहाय और गरीब हैं."
मुस्तफा कहते हैं कि लोग 6 हजार डॉलर के दाम वाले माल दो हजार डॉलर में बेचने को मजबूर हो रहे हैं.
अफगानिस्तान पहले से ही सूखा और भोजन की कमी से जूझ रहा है और कोविड-19 महामारी ने लोगों की मुश्किलें और बढ़ाई हैं. कोरोना के कारण देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की स्थिति और भी भयावह हो गई है.(dw.com)
एए/सीके (एएफपी)
दुबई, 14 सितम्बर | मुंबई इंडियंस के कप्तान रोहित शर्मा ने आईपीएल 2021 के दूसरे चरण के लिए संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में क्वारंटीन के दौरान ट्रेनिंग शुरू कर दी है। आईपीएल 2021 का दूसरा चरण 19 सितंबर से शुरू होना है। रोहित इंग्लैंड से तेज गेंदबाज जसप्रीत बुमराह और बल्लेबाज सूर्यकुमार यादव के साथ शनिवार को यूएई पहुंचे थे। ये सभी खिलाड़ी छह दिनों के लिए क्वारंटीन में हैं।
मुंबई इंडियंस की फ्रेंचाइजी ने कप्तान के होटल में बाइसाईकिल के जरिए व्यायाम करने की फोटो ट्विटर पर साझा की।
फ्रेंचाइजी ने साथ ही फील्डिंग कोच जेम्स पामेंट का एक वीडियो शेयर किया जिसमें यूएई पहुंचने वाले खिलाड़ियों के साथ वह ड्रिल कर रहे हैं।
मुंबई इंडियंस आईपीएल की गत विजेता है और वह आईपीएल 2021 के दूसरे चरण में चेन्नई सुपर किंग्स की टीम के साथ मुकाबले से अपने अभियान की शुरूआत करेगी।
मुंबई का इसके बाद मकाबला अबु धाबी में कोलकाता नाइट राइडर्स से 23 सितंबर को होगा।(आईएएनएस)
सना, 14 सितम्बर | एक सैन्य सूत्र ने मंगलवार को जानकारी दी कि पिछले 24 घंटों में यमन के मारिब प्रांत में सऊदी के नेतृत्व वाले हवाई हमलों में कम से कम 43 हाउती विद्रोही मारे गए हैं। मारिब में सशस्त्र बलों के मीडिया सेंटर के सूत्र ने समाचार एजेंसी सिन्हुआ को बताया कि हवाई हमले में सिरवाह जिले में अग्रिम मोर्चे पर विद्रोहियों की चौकियों, सभाओं और अतिरिक्त सैन्य चौकियों को निशाना बनाया गया, जिसमें 43 लोग मारे गए और हथियारों से लैस नौ वाहनों को नष्ट कर दिया गया।
उन्होंने कहा, हवाई हमले विद्रोहियों द्वारा (यमनी) सेना के मोर्चे पर अग्रिम मोर्चे पर शुरू किए गए जमीनी हमलों की प्रतिक्रिया थे। उन्होंने दावा किया कि सरकार समर्थक सशस्त्र बलों में कोई हताहत नहीं हुआ है।
हाउती द्वारा संचालित अल-मसीरा टीवी ने अधिक विवरण दिए बिना ही सिरवाह जिले में 19 सऊदी नेतृत्व वाले हवाई हमलों की सूचना दी।
पिछले हफ्ते, हाउतीयों ने दक्षिण-पश्चिमी मारिब में राहाबा जिले पर नियंत्रण कर लिया था।
फरवरी में, हाउती मिलिशिया ने तेल-समृद्ध प्रांत, सऊदी समर्थित यमनी सरकार के अंतिम उत्तरी गढ़ पर नियंत्रण करने के प्रयास में मारिब पर एक बड़ा हमला किया था।
इसके बाद यमन का गृहयुद्ध 2014 के अंत में भड़क गया जब हाउती समूह ने देश के अधिकांश उत्तर पर नियंत्रण कर लिया और राष्ट्रपति अब्द-रब्बू मंसूर हादी की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सरकार को राजधानी सना से बाहर कर दिया।
हादी की सरकार का समर्थन करने के लिए मार्च 2015 में यमनी संघर्ष में एक सऊदी नेतृत्व वाले अरब गठबंधन ने हस्तक्षेप किया। (आईएएनएस)
-दिलनवाज़ पाशा
अमेरिका में हिंदुत्व को लेकर हुआ एक वर्चुअल सम्मेलन विवादों के बीच समाप्त हो गया है.
सोशल मीडिया पर समर्थन और विरोध में चले अभियानों के बीच 'डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व' नाम से हुई इस वर्चुअल कॉन्फ्रेंस में हिंदुत्व को नफ़रत से प्रेरित विचारधारा बताया गया और इस पर सवाल खड़े किए गए.
सम्मेलन के आयोजकों का कहना है कि इसका विरोध करने वालों ने उनकी आवाज़ को दबाने और पैनल में शामिल अकादमिक जगत के लोगों को डराने की कोशिश की.
वहीं इसका विरोध करने वाले लोगों और समूहों का कहना है कि ये सम्मेलन राजनीति से प्रेरित था और इसका मक़सद वैश्विक स्तर पर भारत और हिंदू धर्म की छवि ख़राब करना था.
हिंदुत्व की राजनीति को सेक्युलर करने की कोशिश
10-12 सितंबर के बीच ऑनलाइन हुए इस सम्मेलन को अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के 53 विश्वविद्यालयों के 70 से अधिक केंद्रों, इंस्टीट्यूट्स, कार्यक्रमों और अकादमिक विभागों का समर्थन प्राप्त था.
इसे अमेरिका की हार्वर्ड, स्टेनफर्ड, प्रिंस्टन, कोलंबिया, बर्कले, यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो, द यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिलवीनिया और रटजर्स जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों का सहयोग और समर्थन प्राप्त था.
आयोजकों का दावा है कि इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए दस हज़ार से अधिक लोगों ने पंजीकरण किया और साढ़े सात हज़ार से अधिक लोग इसके साथ जुड़े.
सम्मेलन के आयोजकों में शामिल प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश ने बीबीसी को बताया, "डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व सम्मेलन का मक़सद हिंदुत्व और भारत की विविधता पर उसके असर का विश्लेषण करना था. हिंदुस्तान के जो अलग-अलग धर्म हैं, अल्पसंख्यक हैं, दलित हैं, औरतें हैं उन पर हिंदुत्व का क्या असर हो रहा है, इस पर सम्मेलन के दौरान चर्चा की गई."
ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "आज जब हिंदुत्व वैश्विक स्तर पर प्रसार की कोशिश कर रहा है, तो हमने इस कॉन्फ्रेंस के जरिए ये समझने की कोशिश की है कि ग्लोबल स्तर पर इसका क्या असर हो रहा है."
आयोजकों का कहना है कि ये अमेरिका में विभिन्न अमेरिकी और अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सटियों के सहयोग से हिंदुत्व के मुद्दे पर हुआ अपनी तरह का पहला सम्मेलन है जिसमें बड़ी तादाद में अकादमिक और शिक्षा जगत के शोधार्थी और शिक्षाविद शामिल हुए. तीन दिन के इस सम्मेलन में कुल नौ सत्र हुए जिनमें 30 से अधिक वक्ताओं ने अपने विचार रखे.
इन सत्रों में ग्लोबल हिंदुत्व क्या है, हिंदुत्व की राजनीतिक अर्थव्यवस्था, जाति और हिंदुत्व, हिंदुत्व की जेंडर और सेक्सुअल पॉलिटिक्स, हिंदुत्व के प्रोपेगेंडा और डिजीटल इकोसिस्टम जैसे विषयों पर चर्चा की गई.
डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्वा
इमेज स्रोत,SUHAG SHUKLA
प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफर जैफरो ने अपने पेपर में ये बताया कि कैसे और क्यों हिंदुत्व 1995 के बाद वैश्विक स्तर पर बढ़ गया. हमने इस बात पर भी चर्चा की है कि कैसे हिंदुत्व विज्ञान के ख़िलाफ़ एजेंडा चला रहा है."
क्यों हुआ इस सम्मेलन का विरोध?
सोशल मीडिया पर इस सम्मेलन का ज़बरदस्त विरोध हुआ है. आयोजकों का दावा है कि सम्मेलन के ख़िलाफ़ चलाए गए ऑनलाइन अभियानों ने इस सम्मेलन में शामिल विश्वविद्यालयों के सर्वर जाम कर दिए.
बीबीसी को भेजे एक बयान में आयोजकों ने दावा किया है कि इस सम्मेलन के ख़िलाफ़ इसमें शामिल यूनिवर्सटियों के प्रेसिडेंट, प्रोवोस्ट और अन्य अधिकारियों को दस लाख के करीब ईमेल भेजे गए.
आयोजकों का दावा है कि ड्रयू यूनिवर्सिटी के सर्वर पर चंद मिनट के भीतर ही तीस हज़ार ईमेल भेज दिए गए. इस ऑनलाइन हमले की वजह से यूनिवर्सटियों को सम्मेलन के नाम वाले सभी ईमेल ब्लॉक करने पड़े.
आयोजकों का ये भी कहना है कि सम्मेलन के ख़िलाफ़ चले विस्तृत अभियान के बावजूद किसी भी यूनिवर्सिटी ने इससे अपने हाथ नहीं खींचे. हालांकि सम्मेलन की वेबसाइट दो दिन बंद रही, इसका फ़ेसबुक पेज भी बंद कर दिया गया.
सम्मेलन के ख़िलाफ़ व्यापक अभियान
भारत के हिंदूवादी समूहों और कार्यकर्ताओं के अलावा अमेरिका में रह रहे हिंदू समूहों ने भी इस सम्मेलन का ज़बरदस्त विरोध किया. हिंदू अमेरिकन फ़ाउंडेशन ने इस सम्मेलन के ख़िलाफ़ एक व्यापक अभियान चलाया.
इसके विरोध की वजह बताते हुए एचएएफ़ की संस्थापक सुहाग शुक्ला ने बीबीसी से कहा, "हम 'हिंदुओं की छवि' को लेकर चिंतित नहीं है. ये कार्यकर्ता हिंदुओं के ख़िलाफ़ अपना नफ़रत भरा एजेंडा दशकों से चला रहे हैं."
"हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि जब प्रोफ़ेसर अकादमिक स्वतंत्रता के नाम पर विभाजनकारी और नफ़रत भरे भाषण देंगे और ये राजनीतिक सक्रियतावाद के साथ मिल जाएगा तो इसका उदार शिक्षा व्यवस्था पर क्या असर होगा."
सुहाग कहती हैं, "शिक्षा का मकसद छात्रों को विविध विचारों को समझना और विभिन्न दृष्टिकोणों को तर्कशीलता और सम्मान से देखना सिखाना होता है. हम इसे लेकर भी चिंतित हैं कि जब हिंदुओं को सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया जाएगा और बर्बर बताया जाएगा तो इसका हिंदू छात्रों और शिक्षकों पर क्या असर होगा."
'कई लोगों को धमकी भरे संदेश मिले हैं'
सम्मेलन के आयोजकों का कहना है कि उन्हें अंदेशा था कि इसका विरोध होगा लेकिन इतना भारी विरोध होगा ये उन्होंने नहीं सोचा था.
ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "हमें ये अंदेशा तो था कि इस सम्मेलन का कुछ तो विरोध होगा लेकिन एक अकादमिक सम्मेलन से ये लोग इतने डर जाएंगे, ये हमने नहीं सोचा था. हमारे पैनल में शामिल कई लोगों को धमकी भरे संदेश मिले हैं."
"ट्विटर, फोन और ईमेल पर उन्हें धमकिया दी गई हैं. गंदी भाषा का इस्तेमाल किया गया है. ख़ासकर महिलओं को बहुत गंदे और धमकी भरे मैसेज मिले हैं. सम्मेलन में शामिल कुछ शिक्षाविद धमकियों की वजह से पीछे हटे हैं. ये लोग भारत में रहते हैं और हम उनकी सुरक्षा को ख़तरा नहीं पहुंचाना चाहते हैं."
वहीं विपक्षी विचारधारा के शिक्षाविदों को शामिल न करने के सवाल पर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "हमारे सम्मेलन का उद्देश्य साफ़ था कि हम हिंदुत्व पर चर्चा करेंगे और इसके बारे में लोगों में जागरूकता लाएंगे. हम हिंदुत्व का विरोध करते हैं. ये कोई बहस का मुक़ाबला नहीं था कि इसमें सभी पक्षों को शामिल किया जाता. बल्कि ये हिंदुत्व के मुद्दे पर अकादमिक चर्चा थी. इसलिए ही हमने दूसरे पक्ष को इसमें शामिल नहीं किया क्योंकि हम उनके एजेंडे को पहले से ही जानते हैं."
सम्मेलन के आलोचकों का तर्क है कि इस सम्मेलन में हिंदू धर्म को बदनाम करने की कोशिश की गई.
प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश इस आलोचना को दरकिनार करते हुए कहते हैं, "हम हिंदुत्व और हिंदू धर्म को एक नहीं मानते हैं. ये दोनों अलग-अलग हैं. हिंदुत्व एक राजनीतिक आंदोलन है जबकि हिंदू धर्म इससे बिलकुल अलग है. हिंदुत्व के समर्थक हमेशा ये कहने की कोशिश करते हैं कि हिंदुत्व ही हिंदू धर्म है. लेकिन वास्तव में ये बिलकुल अलग-अलग हैं. हम ये मानते हैं कि हम हिंदुत्व के ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं. हम देख रहे हैं कि पिछले छह-सात सालों या उससे पहले से हिंदुस्तान में हिंसा हुई है. वैश्विक स्तर पर भी ये लोग ये कहने की कोशिश करते हैं कि हिंदुत्व ही हिंदू धर्म है."
वहीं प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश के इस तर्क को ख़ारिज करते हुए विजय पटेल कहते हैं, "ये लोग मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए कुछ अपराधों की वजह से समूचे हिंदू समाज को एक रंग में रंगना चाहते हैं लेकिन इस तरह के अपराध तो हिंदुओं के ख़िलाफ़ भी हुए हैं. ऐसे में कुछ असंगठित अपराधों की वजह से समूचे हिंदू समाज को बदनाम नहीं किया जा सकता है. भारत एक सहिष्णु राष्ट्र है, इस तरह के एजेंडा आधारित सम्मेलन से भारत की छवि ख़राब हुई है."
हिंदुत्व को लेकर आयोजकों के विचार क्या हैं?
प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "हिंदुत्व भारत के मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, भारत के दलितों के ख़िलाफ़ है और भारत की महिलाओं के ख़िलाफ़ है. हम हिंदुत्व की आलोचना कर रहे हैं, हिंदुस्तान की आलोचना नहीं कर रहे हैं. बहुत लोग हिंदुत्व के बारे में नहीं जानते हैं."
"विद्वान तो जानते हैं लेकिन आम लोग नहीं जानते हैं. हम ये कोशिश कर रहे हैं कि आम लोगों को भी इस विचारधारा के बारे में पता चले. हिंदुत्व अब यूरोप और अमेरिका में भी फैल रहा है और फैलने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में यहां भी इसके बारे में लोगों को जागरूक करने की ज़रूरत है."
तमाम विरोध के बाद भी ये सम्मेलन हुआ और इसमें हिंदुत्व विचारधारा की आलोचना की गई. लेकिन सवाल ये है कि ये सम्मेलन इतना ज़रूरी क्यों था कि भारी विरोध के बाद भी इसे आयोजित किया गया?
इस सवाल पर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "अगर हम इस सम्मेलन को रोक देते तो ये उन लोगों की जीत होती. वो चाहते हैं कि हिंदुत्व को हम स्वीकार कर लें. वो जो तर्क देते हैं उसे हम स्वीकार कर लें और हिंदुत्व की कोई आलोचना ना करें. इसलिए उन्होंने इस सम्मेलन को रोकने की बहुत कोशिश की, हमारे पैनल में शामिल कई लोगों को धमकी भी मिली. यदि हम इस सम्मेलन को रोक देते तो ये अकादमिक आज़ादी के ख़िलाफ़ होता. क्या हम उनके डर से बात करना भी बंद कर दें?"
प्रकाश कहते हैं, "हमारे यूनिवर्सिटी कैंपस में भी ये लोग जड़े जमाने की कोशिश कर रहे हैं. ये लोग तर्क देते हैं कि भारत का मतलब है हिंदू और हिंदू का मतलब है हिंदुत्व. हमारा मानना है कि हिंदुत्व कोई धर्म नहीं है बल्कि एक राजनीतिक विचारधारा है जिसकी कुछ ख़ास विशेषताएं हैं जैसे ये विचारधारा जातिवाद पर चलती है, ये ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं."
"ये लोग गांधी और आंबेडकर को भी अपने हिसाब से अपनाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि दोनों ही जातिवाद के ख़िलाफ़ थे. हम अपने छात्रों को गांधी और आंबेडकर के बारे में पढ़ाते हैं. हम नहीं चाहते कि हमारे छात्र ये बात माने कि गांधी और आंबेडकर भी हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़े थे."
वहीं सुहाग शुक्ला तर्क देती हैं कि उनका विरोध सम्मेलन को रद्द कराने के लिए नहीं था.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "हमने कभी भी सम्मेलन को रद्द करने की मांग नहीं की थी, इसलिए हमें इसमें कोई शक ही नहीं था कि ये सम्मेलन होगा. सम्मेलन के आयोजकों ने ये झूठ जानबूझकर फैलाया है कि हमारे प्रयास इसे रद्द करवाने के लिए थे. हमने इस सम्मेलन से संबंधित विश्वविद्यालयों से इससे दूरी बनाने के लिए कहा था क्योंकि ये स्पष्ट तौर पर एक विभाजनकारी और राजनीतिक रूप से प्रेरित कार्यक्रम था जिसका मक़सद हिंदुओं के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना था."
सुहाग कहती हैं, "हिंदुओं की तुलना श्वेत वर्चस्ववादियों से की जा रही है. जबकि वास्तविकता ये है कि हम ख़ुद ही श्वेत वर्चस्ववाद के पीड़ित हैं. अमेरिका में हिंदू अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक हैं. हम अमेरिका की कुल आबादी का सिर्फ़ 1.3 प्रतिशत हैं. हमें लगता है कि इस सम्मेलन के आयोजक और इसमें शामिल हुए लोग या तो अपनी समझ गंवा चुके हैं या फिर उन्हें हमारी परवाह ही नहीं है."
हिंदुओं से माफ़ी मांगे संस्थान
इस सम्मेलन को अमेरिका, यूरोप और ब्रिटेन की प्रसिद्ध यूनिवर्सटियों ने समर्थन दिया था. अब हिंदूवादी कार्यकर्ता चाहते हैं कि ये संस्थान हिंदुओं से माफ़ी मांगे.
सुहाग कहती हैं, "अब जब ये सम्मेलन हो चुका है, हमारी चिंताएं सही साबित हुई हैं. सम्मेलन से पहले भले ही विश्वविद्यालयों ने आयोजकों को संदेह का लाभ दिया हो क्योंकि अधिकतर आयोजक या तो उनके कर्मचारी हैं या फैकल्टी हैं. लेकिन अब जब इस सम्मेलन की सामग्री सामने आ चुकी है, हम उम्मीद करते हैं कि विश्वविद्यालय इसे देखेंगे ताकि उन्हें पता चल सके कि जिस सम्मेलन के साथ उनकी साख अधिकारिक तौर पर जुड़ी थी उसमें हिंदुओं के प्रति कितनी नफ़रत थी."
"सम्मेलन से जुड़े संस्थानों को अपने कैंपस के हिंदू छात्रों और शिक्षकों से संपर्क करना चाहिए और समुदाय की तरफ से व्यक्त की गई चिंताओं को गंभीरता से ना लेने के लिए उनसे माफ़ी मांगनी चाहिए. इसके अलावा विश्वविद्यालयों को इस सम्मेलन की वजह से डर, हिंसा या किसी भी तरह का ख़तरा महसूस करने वाले छात्रों के प्रति सहयोग करना चाहिए."
वहीं सभी तरह की आलोचना को खारिज करते हुए ज्ञानप्रकाश कहते हैं, "यदि आप ये चर्चा सुनेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि ये एक अकादमिक चर्चा है. हिंदुत्व से जुड़े लोग चाहते हैं कि उन पर कोई चर्चा ही ना हो. भारत और हिंदुत्व एक चीज़ नहीं है. भारत एक विविध संस्कृति वाला देश है. हिंदुत्व एक कट्टरवादी राजनीतिक विचारधारा है.अब हमने ये तय किया है कि हम ना सिर्फ ये सम्मेलन कर रहे हैं बल्कि आगे भी इसे चलाए रखेंगे." (bbc.com)
एक पिता और उसका बेटा सोफे पर बैठ कर होमवर्क कर रहे हैं और मां और बेटी जमीन पर बैठे हैं. पाकिस्तान में मर्दों और औरतों के बारे में पुराने खयालात दिखाने वाली इन किताबों की आलोचना हो रही है.
पाकिस्तान में सत्तारूढ़ पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ ने इसी साल अगस्त में देश के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम (एसएनसी) में संशोधन किया और कहा कि ये संशोधन "शिक्षा प्रणाली में असमानता का अंत करने की राह में एक में एक मील का पत्थर है."
लेकिन इस नए पाठ्यक्रम की किताब जारी होने के बाद से सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इसकी आलोचना की है. उनका कहना है कि किताब में महिलाओं और पुरुषों को पितृसत्तात्मक रूप से दर्शाया गया है.
विचारधारा पर आधारित
यह आक्रोश शिक्षा विशेषज्ञों, ऐक्टिविस्टों और आम लोगों द्वारा की गई इस पाठ्यक्रम की आलोचना की ही तर्ज पर है. उनका कहना है कि यह लैंगिक बराबरी, धार्मिक अल्पसंख्यकों और सांस्कृतिक विविधता को शामिल करने में असफल हो गया है.
वीमेन ऐक्शन फोरम ने एक बयान में एसएनसी को "शिक्षा संबंधी अनिवार्यताओं की जगह विचारधारा संबंधित अनिवार्यताओं पर आधारित" बताया और कहा कि यह "समाज में विभाजन की सोच के बीज बोएगा."
पांचवीं कक्षा की अंग्रेजी की किताब के आवरण पर एक पिता-पुत्र की सोफे पर पढ़ाई करते हुए तस्वीर है जबकि मां-बेटी जमीन पर पढ़ रही हैं. मां-बेटी ने हिजाब से अपने अपने सरों को भी ढक रखा है.
अधिकतर किताबों के आवरण पर छोटी बच्चियों को भी हिजाब पहने दिखाया गया है. सामान्य रूप से लड़कियां यौवनारंभ या प्यूबर्टी शुरू होने के बाद हिजाब पहनना शुरू करती हैं. उसी किताब में महिला नेताओं को "पुरुषों की समर्थक" भी बताया गया है.
असलियत से परे
लड़कियों और महिलाओं को मुख्य रूप से मां, बेटी, पत्नी और शिक्षिका के रूप में दिखाया गया है. खेलने और व्यायाम करने के चित्रों में उनके चित्र नहीं हैं. सिर्फ लड़कों को खेलते और व्यायाम करते देखा जा सकता है. लड़कियों को जिन चित्रों में जगह दी गई है उनमें वो महज दर्शक की तरह नजर आ रही हैं.
इदारा-ए-तालीम-ओ-आगाही (आईटीए) केंद्र की सीईओ बेला रजा जमील पूछती हैं, "पाकिस्तान में लड़कियां और महिलाएं इस समय खेलों में श्रेष्ठ प्रदर्शन दिखा रही हैं. वे ओलंपिक खेलों में देश का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. के2 जैसे पर्वतों पर चढ़ रही हैं. तो किताबें क्यों इसे प्रतिबिंबित करने की जगह शारीरिक गतिविधियों और प्रतियोगी खेलों से उन्हें बाहर कर रही हैं."
ऐक्टिविस्ट और समाजशास्त्री निदा किरमानी ने डीडब्ल्यू को बताया कि लड़कियों के पहनावे को लेकर इन किताबों में जो संदेश दिए जा रहे हैं वो महिलाओं की लाज और कपड़ों के बारे में सरकार द्वारा दिए गए संदेशों के बाद ही आए हैं.
हाल ही में प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ लोगों का गुस्सा फट पड़ा था जब उन्होंने महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही यौन हिंसा के लिए उनके पहनावे को जिम्मेदार बताया था.
किरमानी कहती हैं, "ऐसा लग रहा है कि ये किताबें सभी लड़कियों और महिलाओं के लिए एक ही तरह के पहनावे की बात कर रही हैं, लेकिन हम सब जानते हैं कि पाकिस्तान में कपड़े पहनने का सिर्फ एक तरीका नहीं है, बल्कि पर्दा करने का कई तरह का दस्तूर मौजूद है."
दक्षिणपंथी एजेंडा
संघीय शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण मंत्रालय की तकनीकी सलाहकार आयशा रज्जाक ने डीडब्ल्यू को बताया कि हालांकि महिलाओं को पुलिस और पायलट के रूप में दिखाए जाने के उदाहरण भी हैं, यह एक अपवाद है. उनके अनुसार यह एसएनसी में मौजूद "लिंग आधारित प्रतीकवाद" को और आगे बढ़ाता है.
वह बताती हैं कि एसएनसी के अति-दक्षिणपंथी समर्थक इसी तरह के उदाहरणों को चुन कर आलोचना को नकार रहे हैं और पाठ्यक्रम में एक ऐसे एजेंडा को विश्वसनीयता देने की कोशिश कर रहे हैं जिसे पाकिस्तान के धार्मिक दक्षिणपंथी समर्थकों की तुष्टि के लिए बनाया गया है.
आईटीए की जमील ने यह भी कहा कि पाकिस्तान में महिलाएं पहले से भेदभावपूर्ण परंपराओं की वजह से अनुपातहीन रूप से प्रभावित हैं, वहां सर ढकने को सामान्य करने के संकेतों से उनके खिलाफ हिंसा और बढ़ सकती है.
पाकिस्तान के उच्च शिक्षा आयोग के पूर्व अध्यक्ष तारिक बनूरी ने डीडब्ल्यू को बताया कि एसएनसी में महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों और सांस्कृतिक विविधता के प्रतिनिधित्व में कमी की वजह से लोगों के बीच विभाजन बढ़ेगा और देश की शिक्षा प्रणाली और "उलझ" जाएगी.
"खतरा इस बात का है कि हमारे यहां एक और पीढ़ी जो सीख रही है उस पर सवाल नहीं उठा पाएगी. यह एक घातक समस्या है." दक्षिणी प्रांत सिंध ने एसएनसी को नकार दिया है और उसे "ऊटपटांग" और "लैंगिकवादी" बताया है. (बी. मारी)
एक सर्वे के मुताबिक जर्मनी में अधिकांश कर्मचारी जो कोरोना के कारण घर से काम कर रहे हैं वे आगे भी ऐसा ही करना चाहते हैं. दो तिहाई लोग महामारी के बाद भी घर से काम को जारी रखना उचित समझते हैं.
जनमत सर्वेक्षणकर्ता यूगव ने वर्क फ्रॉम होम के कर्मचारियों के लिए अपनी नवीनतम सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की है. सर्वे के मुताबिक घर से काम करने वाले महामारी खत्म होने के बाद भी अपना काम घर से जारी रखना चाहते हैं. सर्वे में दो तिहाई से अधिक ऐसे लोगों ने यह बात कही है. एक संस्था ईऑन ने इस सर्वे को कराया है.
सर्वेक्षण के आंकड़े
यूगव ने जिन लोगों से प्रतिक्रिया ली उनमें 71 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि वे भविष्य में वर्क फ्रॉम होम करना पसंद करेंगे. पिछले साल मई में महामारी की शुरुआत में यह संख्या महज 58 फीसदी थी, और उस दर को असामान्य माना जाता था. कोरोना महामारी के बाद कई देशों ने वर्क फ्रॉम होम का चलन अपनाया था.
सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से कम से कम 26 प्रतिशत ने हमेशा घर से काम जारी रखना पसंद किया और लगभग 45 प्रतिशत सप्ताह के दौरान कभी होम ऑफिस और कभी कंपनी के कार्यस्थल में काम करने के पक्ष में दिखे.
होम ऑफिस पसंद करने के कारण
सर्वे के मुताबिक कर्मचारियों के होम ऑफिस पसंद करने का एक मुख्य कारण घर से आने-जाने का समय बचना है. कर्मचारी कार्यालय आने-जाने में आने वाली यात्रा संबंधी परेशानियों से दूर रहने में सहज महसूस करते हैं. इस संकट से बचने के कारण इस साल 70 प्रतिशत से अधिक लोगों ने होम ऑफिस बनाए रखने के पक्ष में मतदान किया.
होम ऑफिस का समर्थन करने वाले 75 प्रतिशत लोगों को भी काम करने में आसानी और लचीलापन पसंद है. 52 प्रतिशत लोगों का कहना है कि होम ऑफिस बेहतर है क्योंकि कम यात्रा करना वास्तव में अधिक पर्यावरण के अनुकूल है.
ब्रिटिश सर्वेक्षण के समान परिणाम
युनाइटेड किंगडम में होम ऑफिस के लिए किए गए एक समान सर्वेक्षण ने कमोबेश समान नतीजे सामने आए हैं. सर्वेक्षण में शामिल दो-तिहाई ब्रिटिश कर्मचारियों ने कहा कि वे घर पर अपने जीवन में आए बदलावों से खुश हैं.
इसी सर्वे में बड़ी संख्या में कर्मचारी 'हाइब्रिड शेड्यूल' चाहते हैं. इस हाइब्रिड वर्क स्टाइल में वे आधा दिन ऑफिस में और आधा दिन दफ्तर के बाहर किसी जगह पर बिताना चाहते हैं.
एक तिहाई कर्मचारियों का मानना है कि होम ऑफिस से उनकी मानसिक स्थिति खराब हुई है. सर्वेक्षण करने वाली ब्रिटिश कंपनी ने एक हजार लोगों का साक्षात्कार लिया और उनमें से आधे से थोड़े अधिक लोग दफ्तर जाने को लेकर चिंतित दिखे.
एए/वीके (डीपीए, एपी)
एक रिपोर्टे के मुताबिक सोशल मीडिया वेबसाइट फेसबुक कई मशहूर लोगों, राजनेताओं और अन्य बड़ी हस्तियों को अपने ही मंच के लिए बनाए गए नियमों से छूट दे देती है.
(dw.com)
अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल ने खबर छापी है कि गुणवत्ता पर नियंत्रण के लिए शुरू किए गए एक कार्यक्रम के तहत फेसबुक ने कई हस्तियों को अपने ही बनाए नियमों से छूट दे रखी है.
एक अंदरूनी रिपोर्ट के हवाले से अखबार ने लिखा है कि 'क्रॉस चेक' नाम का यह कार्यक्रम फेसबुक इस्तेमाल करने वाले लाखों 'बड़े लोगों को' उन नियमों से छूट दे देता है जिन्हें आम लोगों पर सख्ती से लागू किया जाता है.
अचूक नहीं है कार्यक्रम
फेसबुक प्रवक्ता ऐंडी स्टोन ने ट्विटर पर इस कार्यक्रम 'क्रॉस चेक' का बचाव किया है. हालांकि उन्होंने कहा है कि फेसबुक इस बात से वाकिफ है कि नियमों के लागू करने की प्रक्रिया 'अचूक नहीं' है.
वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के जवाब में स्टोन ने ट्विटर पर लिखा, "न्याय की दो व्यवस्थाएं नहीं है. यह गलतियों के खिलाफ एक सुरक्षाकवच बनाने की कोशिश है. हम जानते हैं कि हमारा यह अमल अचूक नहीं है और गति व शुद्धता में ऊंच नीच होती रहती है."
वॉल स्ट्रीट जर्नल ने कुछ मशहूर लोगों द्वारा साझी की गईं पोस्ट का हवाला भी दिया है. इनमें फुटबॉल खिलाड़ी नेमार की एक पोस्ट है जिसमें उन्होंने एक महिला की नग्न तस्वीरें साझा की थीं. इस महिला ने नेमार पर बलात्कार का आरोप लगाया था. फेसबुक ने बाद में यह पोस्ट हटा दी थी.
फेसबुक पर क्या पोस्ट किया जाना चाहिए, इसे लेकर विवाद निपटाने के वास्ते एक स्वतंत्र बोर्ड स्थापित किया गया है. फेसबुक ने उस बोर्ड को भरोसा दिला रखा है कि कॉन्टेंट मॉडरेशन को लेकर दोहरी नीति नहीं अपनाई जाती. लेकिन वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट में किए गए दावे यदि सच हैं तो फेसबुक द्वारा दिलाया गया भरोसा गलत साबित होगा.
बोर्ड के प्रवक्ता जॉन टेलर ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "फेसबुक के कॉन्टेंट मॉडरेशन की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी को लेकर ओवरसाइट बोर्ड कई बार चिंता जता चुका है. खासकर मशहूर लोगों के खातों के बारे में कंपनी की नीति को लेकर."
व्हाइट लिस्ट
वॉल स्ट्रीट जर्नल कहता है कि कुछ यूजर ‘व्हाइट लिस्ट' में रखे गए हैं. उन्हें नियम लागू करने से सुरक्षा दी गई है जबकि कुछ मामलों में विवादास्पद सामग्री की समीक्षा ही नहीं होती.
अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक ‘व्हाइट लिस्ट' में रखे गए खातों से ऐसी ऐसी सूचनाएं साझा की गई थीं, जैसे हिलेरी क्लिंटन 'बाल यौन शोषण का गिरोह चलाती हैं' या फिर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने शरणार्थियों को जानवर कहा था.
रिपोर्ट का संकेत है कि 2020 में 'क्रॉस चेक' कार्यक्रम में 58 लाख यूजर थे. फेसबुक ने तीन साल एक पोस्ट में कहा था कि 'क्रॉस चेक' कार्यक्रम किसी को भी प्रोफाइल, पेज या सामग्री हटाए जाने से बचाता नहीं है, बस यह इतना सुनिश्चित करता है कि "जो फैसला किया गया है, वह सही है."
वीके/एए (एएफपी)
जर्मनी के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य के प्रमुख इस साल आम चुनाव में कंजरवेटिव चुनौती का नेतृत्व कर रहे हैं. अगर वे सफल रहते हैं तो चांसलर अंगेला मैर्केल की जगह लेंगे.
डॉयचे वेले पर क्रिस्टोफ स्टार्क की रिपोर्ट
सितंबर के संसदीय चुनावों के बाद किसके चांसलर बनने की सबसे ज्यादा संभावना है, यह सवाल चाहे आप जर्मनी में आम मतदाताओं से पूछें या बर्लिन में बैठे बड़े राजनीतिक विशेषज्ञों से, ज्यादातर आपसे यही कहेंगे, आर्मिन लाशेट. हालांकि पिछले हफ्तों में इस उम्मीद डगमगा रही है. मतदाताओं में लाशेट की लोकप्रियता गिरी है और वे उसे संभालने की कोशिश में लगे हैं. अंगेला मैर्केल की तरह ही आर्मिन लाशेट कंजरवेटिव क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) के सदस्य हैं, जो बुंडेस्टाग की सबसे बड़ी पार्टी है. यह बात स्पष्ट कर देती है कि क्यों यह 60 वर्षीय नेता दौड़ में सबसे आगे हैं. कम से कम, सैद्धांतिक तौर पर जरूर.
फिलहाल आर्मिन लाशेट जर्मनी के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया (एनआरडब्ल्यू) के मुख्यमंत्री हैं. उनकी परिस्थिति जर्मनी का अगला सबसे बड़ा नेता बनने की महत्वाकांक्षा के लिए आदर्श लगती है. और लाशेट कैंप के लिए ज्यादातर चीजें आराम से चल भी रही थीं. तभी जुलाई के अंत में आई घातक और विनाशकारी बाढ़ ने राइनलैंड-पैलेटिनेट राज्य में 180 से ज्यादा लोगों की जान ले ली. नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया के प्रमुख लाशेट तबसे भारी दबाव में हैं और थोड़े नरम शब्दों में भी कहें तो उनका चुनावी अभियान लड़खड़ा गया है.
चुनाव प्रचार के दौरान हुई भूल
कोलोन के दक्षिण-पश्चिम में पड़ने वाले एर्फ्टश्टाट शहर के एक दौरे के दौरान जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर स्थानीय लोगों (जिनमें से कई ने बाढ़ में अपना सब कुछ खो दिया था) के सामने अपना सदमा और गहरी चिंता जाहिर करते हुए बातें कर रहे थे. इसी दौरान कैमरे ने स्थानीय अधिकारियों के साथ हंसी-मजाक करते हुए आर्मिन लाशेट की कुछ तस्वीरें भी उतार ली थीं. हालांकि अपने अनुचित व्यवहार के लिए उन्होंने तुरंत माफी मांगी थी और इस माफी को वे पिछले दिनों में कई बार दोहराते भी रहे हैं.
लेकिन फिर बाढ़ के पानी के स्तर और प्रभाव को लेकर उनकी और किरकिरी हुई. लाशेट ने कहा था, "ऐसे किसी एक दिन के चलते हम अपने पूरे नजरिए को बदलने नहीं जा रहे हैं." यह टिप्पणी ऐसे समय में जर्मनी में आलोचना से नहीं बच सकी, जब कई लोग पहले ही जर्मनी में चौंकाने वाली बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाओं के बीच संभावित कदमों पर बात शुरू कर चुके थे. कुछ दिनों बाद उन्होंने इससे पलटते हुए कहा, "हम सभी जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए जो कर सकते हैं, वह करने की जरूरत है."
मैर्केलवादी होने की वजह से बने पार्टी प्रमुख
दुर्भाग्य से यह बातें लाशेट की उस छवि से मेल खाती हैं, जो जानकारों ने उनके बारे में बना रखी है. यानी जलवायु परिवर्तन से जूझने के बजाए नीति प्रतिबद्धताओं में बदलाव और कटौती में ज्यादा समझदारी देखने वाले की. कई आश्चर्य करते हैं कि वे कौन सी बातें हैं, जिन्हें वाकई इस उम्मीदवार का समर्थन है.
जनवरी में जब लाशेट को पार्टी अध्यक्ष के तौर पर चुना गया था तो कई लोगों ने उन्हें मैर्केल की नीतियों का प्रमुख समर्थक बताया था. पहले वकील और पत्रकार रहे लाशेट 2012 से ही सीडीयू के पांच उपाध्यक्षों में से एक हैं और उन्हें लंबे समय से मैर्केल और पार्टी प्रमुख आनेग्रेट क्रांप-कारेनबावर (2018 से 2020 तक) के दाएं हाथ के तौर पर देखा जाता था. अपनी पार्टी का विश्वास जीतने के लिए, लाशेट को सीडीयू और सीएसयू को यह विश्वास दिलाना पड़ा था कि चुनावों से इतर लंबे समय के लिए वे एक सुरक्षित विकल्प होंगे.
प्रशासन का व्यापक अनुभव
उन्होंने अपने दशकों पुराने राजनीतिक अनुभव और 2017 से नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया के मुख्यमंत्री होने की ओर इशारा किया. यह अपने आप में बहुत बड़ा जनसमर्थन है क्योंकि राज्य में जर्मनी की करीब एक चौथाई आबादी रहती है. वे भी कहते हैं, "एक राज्य प्रमुख जो 1.8 करोड़ लोगों के राज्य को कामयाबी से चलाता है, वह चांसलर भी बन सकता है."
मैर्केल की तरह लाशेट भी एक जबरदस्त मध्यमार्गी सीडीयू में विश्वास करते हैं. यह लाइन उनके भाषणों में अक्सर आती है, हम तभी जीतेंगे, "जब हम केंद्र में मजबूत होंगे." पश्चिमी जर्मन शहर आखेन के कैथोलिक अक्सर उनकी राइनलैंड से जुड़ी जड़ों की ओर इशारा करते हैं. वैसे अब तक आठ में से केवल एक चांसलर कोनराड आडेनावर, नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया से रहे हैं. वे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर के पहले चांसलर थे और 1949 से 1963 तक पद पर रहे थे.
लाशेट बनाम जोएडर
लाशेट ने मार्कुस जोएडर को पछाड़ कर चांसलरी के लिए कंजरवेटिव उम्मीदवार होने का हक हासिल किया है. जोएडर कंजरवेटिव 'यूनियन' की बवेरियन शाखा क्रिश्चियन सोशल यूनियन (CSU) के नेता हैं, जिसने युद्ध बाद की जर्मन राजनीति में अहम रोल अदा किया है.
जोएडर खुद को तेजतर्रार, दूरदर्शी ही नहीं बल्कि करिश्माई जताते आए हैं. हालांकि उनके आलोचक इसे अवसरवाद कहते हैं. बात यह है कि ओपिनियन पोल्स में वे राइनलैंड से आने वाले नेता से काफी आगे रहे. हालांकि लाशेट समर्थक इसके जवाब में जोरशोर से कहते रहे कि उनका नेता एक फाइटर है. मात्र 5 फीट 6 इंच के लाशेट एक हंसमुख और अच्छे स्वभाव वाले नेता हैं. लाशेट क्षेत्रीय लहजे के साथ बोलते हैं और सभी ओर आपसी सहमति और सौहार्द पर जोर देते हैं और सहज रहते हैं.
जब उन्होंने जर्मनी के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में चुनाव जीता तो उन्होंने कई लोगों को आश्चर्य में डाल दिया था. अब क्या वे देश भर के मतदाताओं को प्रभावित कर सकेंगे, यह कंजरवेटिव मध्यमार्ग पर निर्भर करेगा.
मैर्केल से दूरी
आर्मिन लाशेट और अंगेला मैर्केल का एक साथ काम करने का पुराना उपलब्धियों भरा सफर रहा है: जब मैर्केल अपनी 2015 की हजारों रिफ्यूजियों को प्रवेश देने 'वेलकम पॉलिसी' लाने के बाद अपनी ही पार्टी के कुछ धड़ों की ओर से तीखी आलोचना का सामना कर रही थीं, लाशेट उनके सहयोगी बने रहे थे.
लेकिन कोरोना वायरस महामारी के खिलाफ लड़ाई में गड़बड़ी और कमजोरियों को देखकर लाशेट ने धीरे-धीरे खुद को चांसलर से दूर कर लिया. ये एंटी इनकंबेंसी से बचने की उनकी नीति भी थी लेकिन इस बीच ऐसा लगने लगा है कि मैर्केल से दूरी की कीमत उनसे मतदाता उनसे दूर जाकर वसूल रहा है.
लाशेट, ग्रीन और एफडीपी
अगर लाशेट चांसलर बनना चाहते हैं तो उन्हें निराश हो चुकी कंजरवेटिव पार्टियों को एकजुट करना होगा ताकि वे नए आत्मविश्वास वाली ग्रीन पार्टी के पीछे धकेल सकें. हालिया सर्वे दिखाते हैं कि पर्यावरणवादी पार्टी ज्यादा पीछे नहीं है. लेकिन वे एक ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्हें लेकर यह अटकलें भी हैं कि वे सितंबर के बाद ग्रीन पार्टी के साथ एक आसान गठजोड़ भी बना सकते हैं.
लाशेट और ग्रीन पार्टी का सालों पुराना संबंध है: बुंडेसटाग में 1994 में उनकी उनकी एंट्री के बाद लाशेट ने अपनी पार्टी सीडीयू को तेजी से द ग्रीन्स के साथ रिश्ते बनाने में मदद की थी. लाशेट कह चुके हैं कि वे एक ऐसे गठबंधन सहयोगी को तवज्जो देंगे जो उदारवादी मुक्त बाजार समर्थक लिबरल डेमोक्रेट (एफडीपी) होगा. और सच में लाशेट अपने गृह राज्य में ऐसे एक गठबंधन के प्रमुख हैं.
यूरोपीय नेता
लाशेट के पास चांसलर बनने से पहले मैर्केल की तुलना में ज्यादा राजनीतिक अनुभव है. उनकी कानूनी और पत्रकारीय बैकग्राउंड से अलग, उन्हें स्थानीय, राज्य स्तर और संघीय तीनों स्तरों पर चुना जा चुका है बल्कि वे यूरोपीय संसद के भी सदस्य रहे हैं. बेल्जियम के सीमावर्ती क्षेत्र में पले-बढ़े लाशेट एक सच्चे यूरोपीय हैं. बेल्जियम में उनकी पारिवारिक जड़ें हैं और वे धाराप्रवाह फ्रेंच बोलते हैं. 2019 के बाद से ही लाशेट फ्रैंको-जर्मन सांस्कृतिक संबंधों के लिए जर्मनी के प्रतिनिधि भी रहे हैं और लंबे समय से पेरिस के राजनीतिक नेतृत्व के साथ उनके घनिष्ठ संबंध हैं.
ट्रांस-अटलांटिक संबंधों के बारे में लाशेट को छूटी कड़ी को फिर से पकड़ना होगा. हालांकि उन्होंने 2019 में राज्य के प्रमुख के तौर पर अमेरिका का दौरा करते हुए कुछ दिन बिताए थे. वे जलवायु और व्यापार नीति पर अमेरिका के साथ और सहयोग पर जोर देने की इच्छा रखते हैं.
एक विस्तृत क्षेत्र
सीडीयू से संबद्ध कोनराड आडेनावर फाउंडेशन की वेबसाइट पर उनका यह परिचय दिया हुआ है, "आर्मिन लाशेट एक ऐसे राजनेता हैं, जो पार्टी की सर्वोच्च कमान और राष्ट्रीय स्तर सहित सरकारी कार्यालयों को संभालने की सभी आवश्यक शर्तें पूरी करता है." हालांकि ऐसा लगता है कि लाशेट को अब भी मतदाताओं को यह बात समझाने की जरूरत होगी.
यहां तक कि अपने स्तर के नेताओं के बीच भी उन्हें बहुत काम करने की जरूरत होगी. उन्हें अपनी पार्टी के कंजरवेटिव नेताओं के साथ-साथ पार्टी की महिला सदस्यों तक भी पहुंचना होगा, जिन्हें मैर्केल पर हमेशा गर्व रहा है और फिर भी देश भर में महिला उम्मीदवार एक-चौथाई ही हैं. लाशेट की चांसलरशिप की राह लंबी और पथरीली है. (dw.com)
नई दिल्ली, 13 सितंबर| अफगानिस्तान सरकार के उपनेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के भाग्य के बारे में अटकलें तेज हो गई हैं, क्योंकि तालिबान नेताओं ने रविवार को काबुल में कतर के वरिष्ठ प्रतिनिधियों के साथ बैठक की, जिससे बरादर गैरहाजिर रहा। डेली मेल के मुताबिक, सोमवार को तालिबान को इस बात से इनकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि मुल्ला बरादर मर गया है। अफवाहें आईं कि वह अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ एक मुठभेड़ में मारा गया।
तालिबान ने जोर देकर कहा कि बरादर कंधार प्रांत में है, देश के भविष्य पर चर्चा करने के लिए समूह के सर्वोच्च नेता मावलवी हिबतुल्ला अखुंदजादा के साथ बैठक कर रहा है। अब अमेरिकी सैनिकों ने मोर्चा वापस ले लिया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया पर चली अफवाहों में कहा गया कि बरादर काबुल के राष्ट्रपति भवन में शुक्रवार को एक मुठभेड़ में मारा गया। मुठभेड़ शक्तिशाली और क्रूर हक्कानी परिवार के साथ एक बैठक के दौरान छिड़ गई।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हक्कानी परिवार के तीन सदस्य कतर के प्रतिनिधियों के साथ नई अफगान सरकार के अन्य सदस्यों के साथ-साथ प्रधानमंत्री मोहम्मद हसन अखुंड के नेतृत्व में शिखर सम्मेलन में थे।
बरादर तालिबान के संस्थापक सदस्यों में से एक है और उसने इसके पहले सर्वोच्च नेता मुल्ला उमर के डिप्टी के रूप में कार्य किया था, जिसकी 2013 में तपेदिक से मौत हो गई थी। बरादर के आईएसआईएस-के से भी संबंध हैं।
उमर की मौत के बाद बरादर ने तालिबान के राजनीतिक विंग के नेता के रूप में पदभार संभाला और वह संगठन के सबसे वरिष्ठ व्यक्तियों में से एक है।
कबीले के दो सदस्य - सिराजुद्दीन और खलील अब नई सरकार में वरिष्ठ पदों पर आसीन हैं, वे क्रमश: आंतरिक मंत्री और शरणार्थी मंत्री की भूमिकाएं निभा रहे हैं।
अन्ना हक्कानी एक उच्चस्तरीय वातार्कार के रूप में भी भूमिका निभाता है। वह कतरी राजनयिकों के साथ बैठक के दौरान मौजूद था।
बरादर की सुरक्षा के बारे में अफवाहें पिछले हफ्ते फैलनी शुरू हुईं, जब तालिबान ने अपनी नई सरकार की घोषणा की और उन्हें उप प्रधानमंत्री के रूप में नामित किया, इस व्यापक विश्वास के बावजूद कि वह शीर्ष पद लेंगे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे अटकलें लगाई गईं कि तालिबान के संस्थापक सदस्यों और हक्कानी नेटवर्क के बीच लड़ाई के कारण बरादर को पदावनत कर दिया गया। हक्कानी नेटवर्क तालिबान का एक शक्तिशाली गुट है, जिसके परिवार के सदस्यों ने नए प्रशासन में शीर्ष स्थान हासिल किया है। (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 13 सितंबर| पाकिस्तान में राजनीतिक दलों, छात्र संघों और नागरिक समाज के सदस्यों ने सोमवार को इस्लामाबाद में संसद भवन के बाहर विरोध प्रदर्शन कर रहे पत्रकारों के साथ एकजुटता व्यक्त करना जारी रखा और प्रस्तावित पाकिस्तान मीडिया विकास प्राधिकरण (पीएमडीए) बिल के खिलाफ आवाज उठाने में उनका साथ दिया। डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी, पीएमएल-एन के सूचना सचिव मरियम औरंगजेब और एमएनए मोहसिन डावर सहित अन्य ने रविवार रात पत्रकारों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए साइट का दौरा किया।
पीपीपी के सीनेटर शेरी रहमान और रजा रब्बानी सहित कई राजनेताओं ने सोमवार को विरोध शिविर का दौरा किया और प्रदर्शनकारियों को संबोधित किया।
रिपोर्ट के मुताबिक, पीपीपी अध्यक्ष बिलावल भुट्टो-जरदारी ने विरोध को संबोधित करते हुए कहा कि देश में पत्रकारों ने अतीत में पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी और उन्हें हराया। वे मौजूदा सरकार और मीडिया की स्वतंत्रता को चुनौती देने वाले उसके फैसलों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ेंगे।
उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि जहां तक सरकार की वैधता और मीडिया की स्वतंत्रता का सवाल है, हम सभी (हम सभी) एक ही पृष्ठ पर हैं।"
पीपीपी अध्यक्ष ने कहा कि उन्होंने पीएमडीए को मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए अतीत में किए गए उपायों की निरंतरता के रूप में देखा।
उन्होंने कहा, "कुछ लोग नहीं चाहते कि पत्रकार स्वतंत्र रूप से सोचें और मीडिया की आजादी के लिए संघर्ष करें। हमें उनके सामने नहीं झुकना चाहिए और कोई भी हमारे अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर पाएगा।"
उन्होंने आगे कहा कि इस समय देश की सरकार अपने प्रतिद्वंद्वियों पर हमला करने और पाकिस्तान में इस मुद्दे से निपटने के लिए मीडिया को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल कर रही है। यहां मीडिया को सशक्त बनाने की जरूरत है।
पीएमएल-एन के अध्यक्ष शहबाज शरीफ ने भी विधेयक को 'काला कानून' करार देते हुए और पत्रकारों के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए इस विधेयक का विरोध किया।
उन्होंने कहा, "सरकार में इसे पारित करने की हिम्मत नहीं है और हम इसकी अनुमति नहीं देंगे।" शरीफ ने सरकार को 'काला कानून' पारित करने के खिलाफ चेतावनी देते हुए कहा, "वरना बुरे नतीजे भुगतने होंगे।"
उन्होंने कहा कि मीडिया ने अपनी आजादी के लिए लड़ाई लड़ी है और इसे कोई नहीं छीन सकता। पीएमएल-एन अध्यक्ष ने कहा कि वह नेशनल असेम्बली में अन्य विपक्षी नेताओं के साथ इस मुद्दे का विरोध करेंगे और पीपीपी और अन्य राजनीतिक दलों के साथ आम सहमति हासिल करने का प्रयास करेंगे।
पत्रकार हामिद मीर धरना स्थल पर एक टॉक शो आयोजित करने की योजना बना रहे हैं।
विरोध का आह्वान पाकिस्तान फेडरल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स की अध्यक्षता वाली विभिन्न पत्रकार संस्थाओं ने किया था। (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 14 सितंबर| अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के उप प्रधान मंत्री मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने सोमवार को एक ऑडियो संदेश में पुष्टि की कि वह जीवित हैं और घायल नहीं हैं। टोलो न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान के प्रवक्ता मोहम्मद नईम द्वारा ट्वीट किया गया संदेश, तालिबान के बीच झड़पों में बरादार के घायल होने या मारे जाने की खबरों का अनुसरण करता है।
तालिबान के प्रवक्ता का कहना है कि तालिबान के डिप्टी पीएम मुल्ला अब्दुल गनी बरादर की हत्या की अफवाहें सच नहीं हैं। वह पिछले 2 सालों से हैबतुल्लाह अखुंदजादा के बारे में यही बात कह रहा है, लेकिन पिछले 2 सालों में अब तक कोई भी नहीं उसे देखा या अब तक उससे सुना।
इससे पहले की रिपोटरें में कहा गया था कि पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस के प्रमुख फैज हमीद, बरादर और हक्कानी समर्थित समूहों के बीच झड़प के बाद काबुल पहुंचे थे, जिसमें बरादर घायल हो गया था। (आईएएनएस)
ब्रेक्जिट जनमत संग्रह हों, 2016 का अमेरिकी चुनाव या इस साल जर्मनी के सैक्सोनी अनहाल्ट राज्य का चुनाव हो, सर्वे करने वाले गलत साबित हुए हैं. आखिर, इस महीने हो रहे संसदीय चुनावों में जनमत सर्वेक्षण कितने प्रासंगिक हैं.
डॉयचे वैले पर आस्ट्रिड प्रांगे की रिपोर्ट-
जनमत सर्वेक्षण पर शोध कर रहे इंस्टीट्यूट फॉर टारगेट ग्रुप कम्युनिकेशन आइएफजेड के संस्थापक व प्रबंध निदेशक थॉमस विंड कहते हैं, "सर्वेक्षण अधिक गलत नहीं, बल्कि अधिक विस्तृत हो गए हैं." उनका मानना है कि वास्तविक सर्वेक्षण में कोई समस्या नहीं है, समस्या उनकी बढ़ती संख्या में है. विंड कहते हैं, "हर दिन एक नया आंकड़ा या नया सर्वे प्रकाशित होता है और उसका असर होता है."
अधिक सर्वे, कम प्रतिभागी
राजनीतिक विज्ञानी फ्रांक ब्रेटश्नाइडर ने होहेनहाइम यूनिवर्सिटी में जनमत अनुसंधान तथा चुनाव सर्वेक्षण पर काफी अध्ययन किया है. और वे इस कथन की पुष्टि करते हैं. उनका कहना है कि 1980 से जर्मनी में चुनाव संबंधी ओपिनियन पोल और उनकी रिपोर्टिंग, दोनों की ही संख्या में दस गुणा इजाफा हुआ है.
लेकिन दूसरी ओर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में भाग लेने को इच्छुक लोगों की तादाद लगातार कम होती जा रही है. एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन, 'चुनाव सर्वे संबंधी त्रुटियां समय व स्थान,' के अनुसार बीस साल पहले सर्वेक्षण में जहां पूछे गए लोगों में तीस फीसद सर्वे में भाग लेते थे वहीं अब यह दर दस प्रतिशत से भी कम हो गई है.
अनिर्णय की स्थिति
जहां तक चुनाव सर्वेक्षण की गुणवत्ता का सवाल है, वह सैंपल से तय होती है. उन लोगों से निपटना एक बड़ी समस्या होती है, जो अनिर्णय की स्थिति में होते हैं. विशेषज्ञ विंड कहते हैं, "2016 में ब्रेक्जिट पर हुए जनमत संग्रह या अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव संबंधी सर्वेक्षण से यह साफ है कि हम लोग कुछ टारगेट ग्रुप तक पहुंच नहीं बना पाते हैं." अनिर्णय की स्थिति वालों को डीडब्ल्यू द्वारा महीने में एक बार प्रकाशित एआरडी डॉयचलैंड ट्रेंड सहित कई सर्वे से अलग रखा गया है.
विंड कहते हैं, "अनिर्णय की स्थिति वाले हमारे लिए इसलिए समस्या पैदा करते हैं क्योंकि उनकी संख्या सर्वेक्षण में भाग लेने वालों बीस प्रतिशत या उससे अधिक होती है." राजनीति विज्ञानी ब्रेटश्नाइडर इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं, "उदाहरण के तौर पर अमेरिका में ट्रंप के कई समर्थकों ने सर्वेक्षण में भाग लेने से इसलिए इंकार कर दिया, क्योंकि उनकी नजर में वे फेक न्यूज मीडिया की तरह व्यवस्था का हिस्सा थे."
ब्रेटश्नाइडर कहते हैं, "चूंकि उन्होंने पिछले चुनाव में वोट नहीं किया था, इसलिए उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन अब वे चुनावों में भाग ले रहे हैं, इससे वे चुनाव पूर्व सर्वेक्षण तथा चुनाव परिणाम के बीच विसंगति का कारण बनते हैं." यही बात जर्मनी में धुर दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट पार्टी एएफडी और उनके समर्थकों पर लागू होती है.
मूल्यांकन व पारदर्शिता
सर्वे कैसे किया गया है, यह भी उसके परिणाम को प्रभावित कर सकता है. लैंडलाइन टेलीफोन के द्वारा किया जा रहा सर्वे सार्थक माना जाता है क्योंकि वे किसी क्षेत्र विशेष से होते हैं और जिनसे इंटरव्यू किया जाता है उनके पास बात करने के लिए ज्यादा समय होता है. वहीं दूसरी तरफ सेल फोन से सर्वे में यह पता नहीं होता है कि उस वक्त वह व्यक्ति कहां है और क्या उससे वाकई संपर्क किया जा सकता है.
ऑनलाइन सर्वेक्षण करना आसान है, लेकिन वह अक्सर गुमनाम होता है तथा उन लोगों के लिए है जो इंटरनेट पर ज्यादा देर तक सक्रिय रहते हैं. इसलिए सैंपल क्वालिटी को बेहतर बनाने के लिए सर्वेक्षण करने वाली संस्थाएं कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों को ज्यादा तवज्जो देते हैं. जनमत सर्वेक्षण शोधकर्ता विंड कहते हैं, "ऐसे में चीजें रहस्यमयी होने लगती हैं." क्योंकि ये संस्थान अपनी कार्य पद्धति के बारे मं कुछ नहीं बताते.
चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण के मूल्यांकन तथा विश्लेषण में त्रुटि का संदेह बना रहता है. ऐसा इसलिए होता है कि सांख्यिकीय तौर पर गणना में प्राय: दो से तीन प्रतिशत तक का विचलन होता है. उदाहरण के तौर पर 2.5 प्रतिशत के संभावित विचलन के साथ यदि कोई पार्टी सर्वे में 24 फीसद वोट प्राप्त करती है तो वास्तव में उसका वोट प्रतिशत महज 21.5 प्रतिशत हो सकता है.
कितने सटीक है जर्मन नतीजे
अनिश्चितता के तमाम कारकों के बावजूद जर्मनी में संघीय चुनावों के लिए सर्वेक्षण पिछले 20 वर्षों में बहुत सटीक रहे हैं. वेबसाइट वालरेष्ट.डीई तथा डावुम.डीई पर प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार पिछले दो दशकों में केवल दो बार विचलन की दर तीन प्रतिशत की सामान्य दर से अधिक हुई है. जर्मनी की डी साइट वेबसाइट द्वारा 2001 से चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि पार्टियों के चुनाव परिणामों के पूर्वानुमान की औसत शुद्धता 1.74 प्रतिशत थी. पिछले दस सालों पर नजर डालें तो विचलन में औसतन 0.41 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई.
क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) तथा बवेरिया की उसकी सहोदर पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) को 2017 के संघीय चुनावों में सभी सर्वेक्षण संस्थानों ने बहुत बेहतर आंका था. डी साइट के डाटा पत्रकार क्रिश्चियान एंट को संदेह है कि विसंगति के आंकड़ों में वृद्धि एएफडी की सफलता और जर्मनी की पार्टियों में तेजी से आ रही टूट से संबंधित हो सकती है. अध्ययन से पता चलता है कि 1940, 1950,1960 व 1970 के बीच संभावित गल्ती की दर 2.1 प्रतिशत थी जबकि 2000 से यह दर दो प्रतिशत पर स्थिर है.
लेखकों के अनुसार "पार्टी जितनी बड़ी होगी, विचलन उतना ही ज्यादा होता है." सच ये है कि चुनाव सर्वेक्षण भले ही उससे अधिक सटीक हों, जितना लोग विश्वास करते हैं, लेकिन विसंगति अक्सर दो-तीन प्रतिशत से अधिक होती है. जैसा कि छह जून, 2021 को जर्मनी के सैक्सनी अनहाल्ट राज्य के चुनाव में हुआ. सर्वेक्षण में सीडीयू की स्पष्ट जीत का पूर्वानुमान नहीं लगाया गया था, बल्कि सीडीयू तथा एएफडी के बीच कांटे की टक्कर की बात कही गई थी. मीडिया में जनमत सर्वेक्षण की रिपोर्टिंग में शुद्धता की कमी सर्वेक्षणों और चुनाव परिणामों में विसंगति को और बढ़ा सकती है. (dw.com)
अंगेला मैर्केल की जगह कौन लेगा? जर्मनी का अगला चांसलर बनने के दौड़ में शामिल उम्मीदवारों का एक टीवी डिबेट में आमना-सामना हुआ. एसपीडी उम्मीदवार ओलाफ शॉल्त्स ने सबसे आगे होने के अपने दावे को एक ठोस प्रदर्शन कर बचाए रखा.
डॉयचे वैले पर बेन नाइट की रिपोर्ट-
चुनावों से पहले हुए एक पोल के मुताबिक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी एसपीडी के चांसलर उम्मीदवार ओलाफ शॉल्त्स ने चुनाव अभियान की अंतिम दौर की सीधी बहस में अपने प्रतिद्वंदियों के खिलाफ मामूली लेकिन ठोस बढ़त बनाए रखने के लिए रविवार शाम हुई त्रिपक्षीय टीवी बहस में संतोषजनक प्रदर्शन किया.
जर्मनी की सार्वजनिक प्रसारण सेवा पर डेढ़ घंटे चले इस त्रिपक्षीय द्वंद के खत्म होने के कुछ ही देर बाद जर्मन संस्था इंफ्राटेस्ट डिमाप के एक पोल में पाया गया कि 1500 दर्शकों में से 41 फीसदी ये मानते हैं कि शॉल्त्स सबसे विश्वसनीय रहे. इस पोल के मुताबिक वे क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन के उम्मीदवार आर्मिन लाशेट और ग्रीन पार्टी की अनालेना बेयरबॉक से काफी आगे रहे. इन दोनों ही उम्मीदवारों पर क्रमश: 27 फीसदी और 25 फीसदी लोगों ने भरोसा जताया.
यह दिखाता है कि शॉल्त्स ने अपने कंजरवेटिव प्रतिद्वंदी लाशेट के सवालों और टिप्पणियों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया. संभावना के मुताबिक ही लाशेट ने बहस की शुरुआत में वित्त मंत्री शॉल्त्स को उनके शांत व्यवहार से विचलित करने की कोशिश की. लेकिन ऐसे हमले बाद की बहस में कम हो गए, जब उम्मीदवारों पर नीतियों को विस्तार से पेश करने के लिए दबाव डाला गया.
कट्टरपंथियों से निपटना
लाशेट ने शॉल्त्स के खिलाफ नंबर बनाने में तेजी दिखाई. पहले उन्होंने शॉल्त्स से यह जानना चाहा कि क्या वे वापपंथी डी लिंके पार्टी के साथ गठबंधन बनाएंगे. शॉल्त्स इस सवाल से बचे, जबकि डिबेट का संचालन कर रही मेब्रिट इलनर ने भी उनपर चुनौतीपूर्ण सवाल दागा कि अब तक उन्होंने चुनाव बाद की संभावित सरकारी टीम या शैडो कैबिनेट के बारे में जानकारी क्यों नहीं दी है?
ओलाफ शॉल्त्स
लेकिन लाशेट खुद जल्द ही अपनी पार्टी के सहयोगियों, विशेषकर पूर्वी जर्मनी में सीडीयू के उम्मीदवार हंस-गियॉर्ग मासेन को लेकर दबाव में आ गए. मासेन पहले घरेलू खुफिया सेवा के प्रमुख रहे हैं, और अक्सर अपनी राष्ट्रवादी टिप्पणियों के चलते आलोचना के केंद्र में आ जाते हैं. कई लोग मानते हैं कि उनकी टिप्पणियां एक मध्यमार्गी पार्टी के प्रतिनिधि का विचार होने के बजाए एक धुर दक्षिणपंथी पार्टी की सोच लगती हैं.
लाशेट ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया कि अगर वे मासेन के निर्वाचन क्षेत्र के निवासी होते तो क्या उन्हें वोट देते. उन्होंने कहा, "मेरे और मिस्टर मासेन के बीच बहुत अंतर है. और उन्हें उस रास्ते पर चलना होगा, जो मैंने पार्टी के नेता के तौर पर तय किए हैं."
मनी लॉन्ड्रिंग पर कठिन सवाल
इस बीच सरकार के एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग विभाग एफआईयू की एक जांच के दौरान हाल ही में वित्त मंत्रालय पर सरकारी अभियोजकों की हालिया छापेमारी के बारे में पूछे जाने पर शॉल्त्स रक्षात्मक होने पर मजबूर हो गए. नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य के मुख्यमंत्री लाशेट ने शॉल्त्स से कहा, "अगर मेरे वित्त मंत्री ने आपकी तरह काम किया होता तो हम गंभीर समस्या में पड़ गए होते."
गुस्साए और हमले के लिए तैयार शॉल्त्स ने लाशेट पर एक भ्रामक तस्वीर पेश करने का आरोप लगाया और जांच को मामूली बताया क्योंकि यह कोलोन में एक कर्मचारी की संभावित अवैध गतिविधियों पर केंद्रित थी. उन्होंने कहा कि 2018 में उनका कार्यकाल शुरु होने के बाद से उन्होंने मंत्रालय में वित्तीय निगरानी को बढ़ावा दिया है.
आर्मिन लाशेट
अपनी बारी में, ग्रीन उम्मीदवार बेयरबॉक ने इस अवसर का इस्तेमाल सरकार में मौजूद दोनों ही पार्टियों पर हमला बोलने के लिए किया और कहा कि कर चोरी और मनी लॉन्ड्रिंग के जरिए हर साल जर्मनी को होने वाले अरबों के नुकसान की पर्याप्त रोकथाम के प्रयास करने में ये पार्टियां विफल रही हैं. उन्होंने कहा, "अब हम स्पष्ट रूप से देख पा रहे हैं कि यह एक बड़ी समस्या है."
जलवायु संकट
दोनों ही उम्मीदवारों को उनकी पार्टियों के जलवायु संकट से निपटने के रिकॉर्ड के बारे में चुनौती देने के दौरान बेयरबॉक सबसे मजबूत दिखीं. उन्होंने कहा, "हम नाटकीय ढंग से अपने जलवायु लक्ष्यों से चूक रहे हैं और आप दोनों ही साफ कर चुके हैं कि आप खुद को समाधानों की ओर नहीं बढ़ाएंगे बल्कि सिर्फ एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहेंगे कि कौन किस काम में बाधा डाल रहा है."
अपने चुनाव प्रचार में अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली एक लाइन को दोहराते हुए बेयरबॉक ने कहा कि अगली सरकार जलवायु संकट (को रोकने) पर सक्रिय असर डालने वाली अंतिम सरकारों में से एक होगी. उन्होंने कहा, "इसका मतलब है कि हमें पहले कोयला बिजली से मुक्ति पानी होगी और वो भी 2038 (इसके लिए वर्तमान लक्ष्य साल) से काफी पहले. क्योंकि हम अगले 17 सालों तक ऐसे बर्ताव करते हुए नहीं चल सकते, जैसे इससे कुछ प्रभाव (बुरा) ही नहीं पड़ रहा है."
अनालेना बेयरबॉक
शॉल्त्स और लाशेट दोनों ने ही दावा किया कि उनकी पार्टियां संकट से गंभीरता से निपट रही हैं. हालांकि दोनों ने जर्मनी के प्रमुख उद्योगों- विशेष तौर पर ऑटो और रासायनिक उद्योग की रक्षा करने के महत्व की बात भी कही. शॉल्त्स और बेयरबॉक पर उद्योगों के पर कतरने का आरोप लगाने से पहले लाशेट ने कहा, "जर्मन ऑटो उद्योग लंबे समय से सामंजस्य की राह पर है. यह कानूनों के साथ, प्रतिबंधों के साथ, नियमों के साथ काम नहीं करेगा बल्कि उस स्फूर्ति के साथ करेगा, जहां हर कोई कुछ नया बनाने की इच्छा रखता है."
अभी भी पीछे मैर्केल की पार्टी
शॉल्त्स ने यह भी कहा कि जर्मनी 100 सालों से भी ज्यादा समय के सबसे बड़े औद्योगिक बदलावों का सामना कर रहा है. उन्होंने कहा, "हमारे पास पिछले 250 साल का आर्थिक और औद्योगिक इतिहास है, जिसका आधार कोयला, गैस और तेल रहे हैं. और अगर हम इसे बदलना चाहते हैं, तो हमें इसे वाकई सफल करने के लिए काफी काम करना होगा."
चांसलर उम्मीदवारों की रविवार को हुई दूसरी बहस में एसपीडी चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू से छह अंक आगे रही. आईएनएसए (INSA) पोल के मुताबिक जहां एसपीडी को 26 फीसदी लोगों का साथ मिला, सीडीयू 20 फीसदी का ही समर्थन पा सकी. जबकि ग्रीन पार्टी सिर्फ 15 फीसदी के समर्थन के साथ इससे भी 5 अंक पीछे रही. यदि रविवार की बहस के बाद हुए स्नैप पोल्स पर जरा भी विश्वास करें तो सीडीयू के पास अपने पिछड़ने के अंतर को खत्म करने का समय समाप्त होता जा रहा है.
सैन फ्रांसिस्को, 13 सितम्बर | गूगल कथित तौर पर 4 अक्टूबर को पिक्सल स्मार्टफोन्स के लिए एंड्रॉइड 12 ऑपरेटिंग सिस्टम के स्टेबल वर्जन को लॉन्च करने की योजना बना रहा है। एक्सडीए-डेवलपर्स की रिपोर्ट के अनुसार, गूगल 4 अक्टूबर को एंड्रॉइड 12 के लिए स्रोत कोड प्रकाशित करेगा। यह स्रोत कोड एंड्रॉइड ओपन-सोर्स प्रोजेक्ट (एओएसपी) गेरिट पर प्रकाशित किया जाएगा। और यह संभवत: एंड्रॉइड 12 स्टेबल अपडेट पिक्सेल फोन के लिए अद्यतन की रिलीज के साथ मेल खाएगा।
गूगल ने हाल ही में पिक्सेल 5ए और कई तृतीय-पक्ष उपकरणों सहित पिक्सेल फोन के लिए पांचवां और अंतिम बीटा जारी किया है। एंड्रॉइड 12 बीटा 5 में नवीनतम सुधार और अनुकूलन हैं जो बीटा 4.1 के साथ शामिल नहीं थे।
गूगल ने कहा, एंड्रॉइड 12 में, अब आप नोटिफिकेशन में एनिमेटेड इमेज प्रदान करके अपने ऐप के नोटिफिकेशन अनुभव को समृद्ध कर सकते हैं। साथ ही, आपका ऐप अब उपयोगकर्ताओं को नोटिफिकेशन शेड से संदेशों का जवाब देने पर छवि संदेश भेजने में सक्षम कर सकता है।
गूगल ने पहले घोषणा की थी कि एंड्रॉइड 12 के साथ, लोग गेम को प्ले स्टोर पर डाउनलोड करने से लेकर आपके डिवाइस पर लॉन्च करने तक, इसे लगभग दो गुना तेज गति से डाउनलोड करने से पहले ही खेल सकेंगे।
'प्ले ऐज यू डाउनलोड' नाम का यह नया फीचर एंड्रॉइड गेम डेवलपर्स को ज्यादा पावर देगा।(आईएएनएस)
15 सितंबर को स्पेसएक्स पहली बार अंतरिक्ष में एक ऐसे दल को भेजने वाली है जिसमें एक भी पेशेवर अंतरिक्ष यात्री नहीं होगा. मिलिए एक रोमांचक अंतरिक्ष यात्रा पर निकलने वाले इन लोगों से.
स्पेसएक्स के अगले मिशन को "इंस्पिरेशन फोर" नाम दिया गया है, जिसमें चार ऐसे यात्री शामिल होंगे जिनमें से कोई भी पेशेवर अंतरिक्ष यात्री नहीं है. इस तरह के दल को अंतरिक्ष मिशन पर भेज कर यह संकेत देने की कोशिश की जा रही है कि अंतरिक्ष अब सबके लिए खुल रहा है.
इस प्रोजेक्ट के पीछे हैं अरबपति व्यापारी जैरेड आइजैकमैन. उन्होंने ही अपने खर्च पर इस पूरे मिशन को किराए पर ले लिया था और फिर तीन तीन अनाम लोगों को उनके साथ चलने के लिए आमंत्रित किया. उनके सहयात्रियों को चुनने के लिए एक अनूठी चयन प्रक्रिया को अपनाया गया.
अंतरिक्ष में पुरानी दिलचस्पी
38 साल के आइजैकमैन "शिफ्ट4पेमेंट्स" नाम की कंपनी के संस्थापक हैं और इस मिशन के कमांडर हैं. उनकी कंपनी दुकानों और रेस्तरां को बैंक कार्ड लेनदेन पूरा करने के लिए सेवाएं देती है. उन्होंने इस कंपनी को 16 साल की उम्र में अपने घर के बेसमेंट से शुरू किया था.
उन्हें हवाई जहाज उड़ाना बहुत पसंद है और उनके पास एक हल्के जेट में पूरी दुनिया का चक्कर लगाने का रिकॉर्ड है. वो कई सैन्य जहाज उड़ाने के भी काबिल हैं. 2012 में उन्होंने "ड्राकेन इंटरनैशनल" नाम की एक और कंपनी की स्थापना की जो अमेरिकी वायु सेना के पायलटों को प्रशिक्षण देती है.
आइजैकमैन शादीशुदा हैं और दो बच्चियों के पिता हैं. अंतरिक्ष पर्यवेक्षण में भी उनकी काफी दिलचस्पी रही है. 2008 में उन्होंने कजाकिस्तान से एक रूसी राकेट का प्रक्षेपण देखा, जो अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) जाने वाले पहले निजी पर्यटक रिचर्ड गैरियट को अंतरिक्ष में ले गया.
29 साल की अंतरिक्ष यात्री
उसके बाद ही उन्होंने स्पेसएक्स से संपर्क किया. इस मिशन पर जाने वाले हर यात्री की सीट एक नैतिक मूल्य का प्रतिनिधित्व करती है. आइजैकमैन की सीट "नेतृत्व" का प्रतिनिधित्व करती है.
यान पर दूसरी यात्री हेली आर्सेनो एक कैंसर सर्वाइवर हैं. उन्हें बचपन में ही कैंसर हो गया था. उनका इलाज अमेरिका के टेनिसी राज्य के मेम्फिस शहर में हुआ था जिसके लिए आइजैकमैन ने एक फंडरेजर आयोजित किया था. आज आर्सेनो उसी अस्पताल में एक फिजिशियन असिस्टेंट के रूप में काम करती हैं.
उनकी उम्र 29 साल है और वो अंतरिक्ष में पृथ्वी के चारों ओर ऑर्बिट में भेजे जाने वाली सबसे कम उम्र की अमेरिकी नागरिक होंगी. वो एक कृत्रिम अंग लिए अंतरिक्ष यात्रा करने वाली भी पहली व्यक्ति होंगी. वो इस मिशन की चिकित्सा प्रबंधक हैं. उनकी सीट "उम्मीद" का प्रतिनिधित्व करती है.
मिशन पर तीसरी यात्री होंगी सियैन प्रॉक्टर. वो 51 साल की हैं और एरिजोना के एक छोटे से कॉलेज में जियोलॉजी पढ़ाती हैं. उनका जन्म गुआम में हुआ था और उनके पिता ने अपोलो मिशनों के दौरान नासा के लिए काम किया था.
अलग अलग क्षेत्रों से हैं यात्री
प्रॉक्टर ने हवाई में मंगल ग्रह जैसे हालात में रहने के एक प्रयोग में हिस्सा लिया था और एक अंतरिक्ष यात्री बनने के लिए नासा में दो बार आवेदन किया था. 2009 में 3,500 उम्मीदवारों में से अंतिम दौर में पहुंचने वाले करीब दो दर्जन लोगों में वो भी शामिल थीं. वो अंतरिक्ष में जाने वाली सिर्फ चौथी अफ्रीकी अमेरिकन होंगी.
वो मिशन की पायलट होंगी और कमांडर की सहायक भी. उनकी सीट "समृद्धि" का प्रतिनिधित्व करती है. उन्होंने इसे एक प्रतियोगिता जीत कर हासिल किया, जिसे आइजैकमैन की कंपनी ने आयोजित किया था. प्रतियोगिता में उन्होंने अंतरिक्ष से जुड़ी एक ऑनलाइन सेल्स वेबसाइट बनाई थी.
चौथे यात्री हैं क्रिस्टोफर सेमब्रोस्की जो इराक में अमेरिकी वायु सेना में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. सेमब्रोस्की अब ऐरोनॉटिक्स उद्योग में काम करते हैं और वॉशिंगटन में लॉकहीड मार्टिन कंपनी के लिए काम करते हैं.
सेंट जूडस अस्पताल के लिए एक फंडरेजर में चंदा देने के बाद उन्हें इस मिशन के लिए चुना गया. सेमब्रोस्की की सीट "उदारता" का प्रतिनिधित्व करती है. मिशन के दौरान उनका काम होगा यान पर मौजूद कार्गो का प्रबंधन करना और पृथ्वी के साथ संचार का प्रबंधन करना.
सीके/वीके (एएफपी)
तालिबान के लिए प्रवक्ता के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बात करने वाले सुहैल शाहीन ने मुल्ला बरादर अखुंद के हवाले से उनके ज़ख़्मी होने या मारे जाने की ख़बर को ख़ारिज किया है.
सुहैल शाहीन ने ट्वीट कर दावा किया, ''इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़ग़ानिस्तान के उप-प्रधानमंत्री ने वॉइस मैसेज में उन दावों को ख़ारिज किया है, जिनमें एक संघर्ष में उनके मारे जाने या ज़ख़्मी होने की बात कही जा रही थी. उन्होंने कहा है कि यह पूरी तरह से झूठी और बेबुनियाद ख़बर है.''
अफ़ग़ानिस्तान की कमान अपने हाथ में लेने के बाद तालिबान ने सात सितंबर को मुल्ला बरादर को उप-प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा की थी. तालिबान के संस्थापकों में से एक मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा की थी.
साल 2010 से लेकर 2018 तक पाकिस्तान की जेल में रहने वाले बरादर ने तालिबान और अमेरिकी सरकार के बीच समझौते में अहम भूमिका निभाई थी.
साल 2010 में पाकिस्तान ने बरादर को कराची में गिरफ़्तार कर लिया और अगले 8 साल तक नहीं छोड़ा था. कहा जाता है कि मुल्ला बरादर पाकिस्तान की पसंद नहीं थे, इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं मिली.
तालिबान के एक और प्रवक्ता डॉ एम. नईम ने मुल्ला बरादर को उस वॉइस मैसेज को ट्विटर पर पोस्ट किया है.
मुल्ला बरादर ही 2019 से दोहा में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का नेतृत्व कर रहे थे और अंतरराष्ट्रीय वार्ता भी इन्हीं के नेतृत्व में चल रही थी.
मार्च 2020 में बरादर ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से फ़ोन पर बात की थी. इसे डोनाल्ड ट्रंप ने भी हाल ही में स्वीकार किया है. कहा जा रहा था कि मुल्ला बरादर के पास ही अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार की कमान होगी, लेकिन ये भी कहा जा रहा था कि पाकिस्तान उन पर भरोसा नहीं करता है इसलिए मुश्किल है. (bbc.com)