अंतरराष्ट्रीय
न्यूजीलैंड के राजनीतिक दल माओरी पार्टी ने देश का नाम बदलने का अभियान छेड़ा है. पार्टी चाहती है कि देश का आधिकारिक नाम बदलकर कर आओतिएरोआ कर दिया जाए. पर क्यों?
डॉयचे वेले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
पिछले हफ्ते माओरी पार्टी ने एक ऑनलाइन याचिका शुरू की जिसमें दो मांगें की गई हैं. पहली तो यह कि न्यूजीलैंड का नाम बदलकर आओतिएरोआ कर दिया जाए. और दूसरी, देश के सारे शहरों, कस्बों और जगहों के नाम वापस वह कर दिए जाएं जो अंग्रेजों के आने से पहले माओरी काल में हुआ करते थे.
याचिका कहती है, "अब समय आ गया है कि ते रिओ माओरी को देश की पहली और आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया जाए. हम एक पोलीनीजियन देश हैं. हम आओतिएरोआ हैं."
याचिका में देश की संसद से यह मांग की गई है कि देश का नाम बदलने के साथ ही एक प्रक्रिया शुरू की जाए जिसके तहत 2026 तक देश की तमाम जगहों के वही नाम रख दिए जाएं तो ते रिओ माओरी भाषा में हुआ करते थे.
मांगकोसमर्थन
माओरी पार्टी की इस मांग को भारी समर्थन मिल रहा है. याचिका शुरू होने के दो दिन के भीतर ही उस पर 50 हजार से ज्यादा लोग दस्तखत कर चुके थे. पार्टी के एक नेता राविरी वाइतीती ने पत्रकारों से कहा कि इतनी तेजी से न्यूजीलैंड में शायद ही किसी याचिका को समर्थन मिला हो.
उन्होंने कहा, "पिछले साल के चुनाव ने हमें बताया कि 80 प्रतिशत लोग ते रिओ माओरी को अपनी पहचान का हिस्सा बनाने पर गर्व महसूस करते हैं. हमारी याचिका को मिला समर्थन उस बात की पुष्टि करता है. हम इसके लिए शुक्रगुजार है और कोशिश करते रहेंगे कि हमारी आवाज सुनी जाए."
भारतीय मूल की सपना सामंत न्यूजीलैंड में रहती हैं. पेशे से डॉक्टर और जुनून से मानवाधिकार कार्यकर्ता सामंत कहती हैं कि यह एक जरूरी और सामयिक पहल है. डीडब्ल्यू से उन्होंने कहा, "नाम में यह बदलाव देशाहंकार या राष्ट्रवाद नहीं है. यह साम्राज्यवाद के वक्त में हुई गलतियों को ठीक करने की पहल है."
क्योंउठीहैमांग?
माओरी लोग न्यूजीलैंड के मूल निवासी हैं. वे मानते हैं कि आओतिएरोआ नाम इस जगह को पूर्वी पोलीनिजिया से आए एक यात्री कूपे ने दिया था. यह नाम माओरी लोक कथाओं में 1200-1300 एडी में मिलता है.
इन लोक कथाओं के मुताबिक कूपे, उनकी पत्नी कुरामारोतिनी और उनके जहाज का चालकदल एक ऐसी जगह की खोज में निकले थे जो क्षितिज के पार हो. तब उन्हें सफेद बादल में लिपटी यह जगह मिली. उसे देखकर कुरामारोतिनी चिल्लाईं, ."हे आओ! हे आओ! हे आओतिआ! हे आओतिएरोआ!." (एक बादल, एक बादल! एक सफेद बादल! एक लंबा सफेद बादल!)
इसी कहानी का एक और रूप भी है जिसमें कहा जाता है कि कूपे की बेटी ने जमीन को सबसे पहले देखा था और उस छोटी नाव के नाम पर जगह का नाम रख दिया जो उस वक्त कूपे चला रहे थे.
मौजूदा नाम न्यूजीलैंड का जिक्र 1640 के दशक में मिलता है जब डच यात्री आबेल तस्मान ने न्यूजीलैंड का दक्षिणी द्वीप देखा था. तब इस द्वीप को नीदरलैंड्स के जीलैंड प्रांत के नाम पर न्यूजीलैंड यानी नया जीलैंड कहा गया.
एक सदी बाद अंग्रेज खोजी और यात्री कैप्टन जेम्स कुक ने ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का सटीक नक्शा बनाने की कोशिश की और तब इस जगह को न्यूजीलैंड के नाम से ही दर्ज किया.
विवादक्याहै?
यूं तो आओतिएरोआ नाम न्यूजीलैंड में आमतौर पर इस्तेमाल होता है. पासपोर्ट में भी इसे प्रयोग किया जाता है. लेकिन देश का नाम बदलने को लेकर बहुत से लोग असहमत हैं क्योंकि वे आओतिएरोआ नाम की ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता पर भरोसा नहीं करते.
बहुत से लोग मानते हैं कि आओतिएरोआ नाम न्यूजीलैंड के सिर्फ एक द्वीप के लिए प्रयोग हुआ था ना कि पूरे देश के लिए. दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि माओरी लोगों ने तो कभी जमीन के नाम रखे ही नहीं, इसलिए यह नाम कुछ ही सौ साल पहले चलन में आया था.
लेबर पार्टी के पूर्व सांसद माइकल बासेट ने मीडिया से बातचीत में कहा, "इन जगहों के लिए माओरी लोगों के पास कोई नाम नहीं था. आओतिएरोआ को तो तुलनात्मक रूप से हाल के समय में स्वीकार किया गया."
देश के पूर्व प्रधानमंत्री विन्सटन पीटर्स ने भी नाम बदलने की अपील का विरोध किया है. उन्होंने ट्विटर पर कहा, "यह माओरी उग्र वामपंथियों की बकवास है. देश और शहरों का नाम बदलना एक मूर्खतापूर्ण उग्रवाद है. हम ऐसा कोई नाम नहीं रखने जा रहे जिसकी कोई ऐतिहासिक विश्वसनीयता नहीं है. हम खुद को न्यूजीलैंड ही रखेंगे."
अबक्याहोगा?
जुलाई में नैशनल पार्टी के एक सदस्य स्टुअर्ट स्मिथ ने नाम बदलने के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने की मांग की थी. उन्होंने कहा कि जब तक जनमत संग्रह नहीं हो जाता, तब तक इस नाम का औपचारिक दस्तावेजों में प्रयोग प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.
माओरी याचिका के जवाब में भी कई याचिकाएं शुरू हो चुकी हैं जिनमें नाम बदलने का विरोध किया जा रहा है.
देश के प्रधानमंत्री जसिंडा आर्डर्न ने हालांकि अभी तक इस याचिका पर कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन 2020 में उन्होंने कहा था कि आओतिएरोआ को न्यूजीलैंड के साथ अदल-बदलकर इस्तेमाल करना एक अच्छी बात है. तब उन्होंने कहा था, "हालांकि आधिकारिक नाम बदलने की बात पर हमने अभी विचार नहीं किया है." (dw.com)
ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा है कि उन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों से बातचीत करने की कोशिश की है लेकिन वह अब तक सफल नहीं हो पाए हैं. ब्रिटेन ने फ्रांस को गुस्सा थूकने को कहा है.
संयुक्त राष्ट्र और क्वाड नेताओं की बैठक में हिस्सा लेने अमेरिका पहुंचे ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने बुधवार को वॉशिंगटन में कहा कि वह फ्रांस के साथ संबंधों को दोबारा बनाने में सब्र से काम लेंगे.
पिछले हफ्ते फ्रांस ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बीच हुए समझौते पर नाराजगी जताते हुए ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका से अपने राजदूत वापस बुला लिए थे. इस समझौते के चलते ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बीच 2016 में हुआ अरबों डॉलर का पनडुब्बी समझौता टूट गया था जिससे फ्रांस नाराज है.
बाइडेन-माक्रों बातचीत
अमेरिका ने फ्रांस के साथ बातचीत करके संबंधों को सामान्य करने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं. फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने अमेरिकी नेता जो बाइडेन से बुधवार को फोन पर बात की. इसके बाद फ्रांस ने कहा है कि उसका राजदूत अगले हफ्ते अमेरिका लौट जाएगा.
आधे घंटे तक चली इस बातचती को व्हाइट हाउस ने दोस्ताना बताया और कहा कि दोनों नेताओं ने अगले महीने मिलने का कार्यक्रम बनाया है. बातचीत के बाद एक साझा बयान भी जारी किया गया जिसमें कहा गया कि बाइडेन और माक्रों ने विस्तृत मश्विरे की प्रक्रिया शुरू की जिसका मकसद एक दूसरे का भरोसा जीतना है.
व्हाइट हाउस प्रवक्ता जेन साकी ने कई बार पत्रकारों के इस सवाल को नजरअंदाज किया कि जो बाइडेन ने माक्रों से माफी मांगी या नहीं. कई बार पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि बाइडेन ने माना है कि "ज्यादा सलाह मश्विरा किया जा सकता था."
साकी ने कहा, "राष्ट्रपति को उम्मीद है कि यह फ्रांस के साथ अमेरिका से लंबे, महत्वपूर्ण और सहयोगी रिश्तों के सामान्य होने की ओर लौटने की ओर कदम है."
साझा बयान के मुताबिक बाइडेन और माक्रों इस बात पर सहमत हुए हैं कि "फ्रांस और यूरोपीय सहयोगियों से जुड़े रणनीतिक मसलों पर और ज्यादा खुली बातचीत से स्थिति को ज्यादा फायदा होता."
बोरिस जॉनसन की दो टूक
आकुस समझौते के तीसरे पक्ष ब्रिटेन के रुख में ज्यादा नरमी नहीं दिखी है. वॉशिंगटन पहुंचे ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने बिना किसी लाग लपेट के कहा कि फ्रांस को गुस्सा थूक कर आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए.
जॉनसन ने कहा कि आकुस समझौता "मूलभूत रूप से वैश्विक सुरक्षा के लिए एक महान कदम है." उन्होंने कहा, "तकनीक साझा करने की एक नई साझीदारी के लिए बहुत समदर्शी तीन सहयोगी कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए हैं. ऐसा नहीं है कि इसमें अन्य देश नहीं आ सकते. यह किसी को बाहर धकेलने की कोशिश नहीं है. मिसाल के तौर पर यह चीन के खिलाफ नहीं है."
समझौते के बाद फ्रांस ने ब्रिटेन के साथ होने वाली विदेश मंत्री स्तरीय बैठक रद्द कर दी थी. यह बैठक इसी हफ्ते होनी थी नाराज फ्रांस ने बैठक रद्द करने का फैसला किया. फ्रांस की रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली ने अपने ब्रिटिश समकक्ष बेन वॉलेस से न मिलने का फैसला खुद किया. इस बारे में ब्रिटिश रक्षा मंत्रालय ने कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
ऑस्ट्रेलिया से नहीं हुई बात
लेकिन ऑस्ट्रेलिया के साथ संबंधों को सामान्य करने की दिशा में खास प्रगति नहीं हो पाई है. मॉरिसन ने कहा है कि उन्होंने भी फ्रांसीसी राष्ट्रपति से फोन पर बात करने की कोशिश की थी लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई.
मॉरिसन ने कहा, "हां, हमने कोशिश की है. और अब तक वह मौका नहीं आया है. लेकिन हम धैर्य रखेंगे."
ऑस्ट्रेलियाई नेता ने कहा कि वह फ्रांस की निराशा समझते हैं और मानते हैं कि अमेरिका फ्रांस के बीच मतभेद अलग तरह के हैं. उन्होंने कहा, "मैं इंतजार करूंगा और जब सही वक्त आएगा और मौका मिलेगा तो हम भी ऐसी ही बातचीत करेंगे."
आकुस समझौते पर अमेरिकी नेताओं से चर्चा करने के बाद मॉरिसन ने कहा कि ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय समझौते को दोनों दलों के नेताओं का समर्थन मिला है.
फ्रांस की नाराजगी
फ्रांस ऑस्ट्रेलिया के साथ करीब 60 अरब डॉलर का समझौता रद्द किए जाने से नाराज है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और युनाइटेड किंग्डम ने मिलकर एक नया रक्षा समूह बनाया है जो विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित होगा. इस समूह के समझौते के तहत अमेरिका और ब्रिटेन अपनी परमाणु शक्तिसंपन्न पनडुब्बियों की तकनीक ऑस्ट्रेलिया के साथ साझा करेंगे जिसके आधार पर ऐडिलेड में नई पनडुब्बियों का निर्माण होगा.
इस कदम को क्षेत्र में चीन के बढते प्रभाव के जवाब के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन नए समझौते के चलते फ्रांस की जहाज बनाने वाली कंपनी नेवल ग्रुप का ऑस्ट्रेलिया के साथ हुआ समझौता खत्म हो गया है.
नेवल ग्रुप ने 2016 में ऑस्ट्रेलिया के साथ समझौता किया था जिसके तहत 40 अरब डॉलर की कीमत की पनडुब्बियों का निर्माण होना था, जो ऑस्ट्रेलिया की दो दशक पुरानी कॉलिन्स पनडुब्बियों की जगह लेतीं.
फ्रांस का दावा है कि इस समझौते से पहले उससे सलाह-मश्विरा नहीं किया गया. पिछले हफ्ते फ्रांस के विदेश मंत्री ज्याँ-इवेस ला ड्रिआँ ने कहा था कि ऑस्ट्रेलिया ने आकुस के ऐलान से जुड़ीं अपनी योजनाओं के बारे में उनके देश को सिर्फ एक घंटा पहले बताया.
टीवी चैनल फ्रांस 2 को ला ड्रिआँ ने कहा, "असली गठजोड़ में आप एक दूसरे से बात करते हैं, चीजें छिपाते नहीं हैं. आप दूसरे पक्ष का सम्मान करते हैं और यही वजह है कि यह एक असली संकट है."
रिपोर्टः वीके/एए (रॉयटर्स, एपी)
कार्बन मुक्त भविष्य के लिए जर्मनी ग्रीन हाइड्रोजन को जादुई हथियार मानता है. खासकर उन उद्योगों के लिए जिनका कार्बन उत्सर्जन बहुत ज्यादा है. लेकिन राष्ट्रीय हाइड्रोजन प्लान में चुनाव बाद कुछ बदलाव देखने को मिल सकते हैं.
जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल की सरकार ने अपने बनाए अंतिम कानूनों में से एक की मई में घोषणा कर सबको चौंका दिया था. अपनी उदासीन पड़ी जलवायु साख को चमकाने की कोशिश में उन्होंने जर्मनी को तय लक्ष्य से पांच साल पहले ही यानी 2045 तक कार्बन न्यूट्रल बनाने की घोषणा की. बर्लिन मानता है कि डीकार्बनाइजेशन की इस योजना में इलेक्ट्रिक गाड़ियों जैसे सामान्य बदलावों से इतर हाइड्रोजन भी केंद्रीय भूमिका निभाएगा.
मैर्केल की सरकार ने जून, 2020 में एक राष्ट्रीय हाइड्रोजन रणनीति प्रस्तुत की, जिसका उद्देश्य "उन सेक्टरों में जलवायु संरक्षण को संभव बनाना था, जहां ऐसा किया जाना कठिन है." जैसे- स्टील निर्माण, निर्माण, हवाई यातायात और जहाजों से होने वाला भारी परिवहन.
पर्यावरण मंत्री स्वेन्या शुल्से ने रणनीति पेश करते हुए कहा, "इनमें भी कार्बन न्यूट्रैलिटी "संभव है क्योंकि 'ग्रीन हाइड्रोजन' हल बन सकता है." उन्होंने सिर्फ पवन, सौर ऊर्जा और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा से हाइड्रोजन बनाने के जर्मन लक्ष्य के संदर्भ में यह बात कही.
इस योजना में हाइड्रोजन के विश्वसनीय, किफायती और टिकाऊ उत्पादन और इसके परिवहन और भंडारण के लिए एक गुणवत्तापूर्ण बुनियादी ढांचा स्थापित किया जाना है. जिसके लिए सरकार शुरुआत में 7 बिलियन यूरो या 8.2 बिलियन डॉलर की मदद देगी और अतिरिक्त 2 बिलियन यूरो अंतरराष्ट्रीय भागीदारी के जरिए विदेशों से हाइड्रोजन के आयात को सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षित रखे जाएंगे.
दरअसल सरकार ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन उपकरण लाने की कोशिश कर रही है, जिससे 2030 तक 5 गीगावाट क्षमता और साल 2040 तक और 5 गीगावाट अतिरिक्त क्षमता हासिल की जा सके. आसान भाषा में कहें तो 5 गीगावाट क्षमता से ग्रीन हाइड्रोजन पांच परमाणु रिएक्टर की संयुक्त शक्ति के बराबर ऊर्जा पैदा करता है, और यह लिथुआनिया की साल भर की ऊर्जा जरूरत के बराबर है.
पर्यावरण सुरक्षा के पाले में सभी राजनीतिक दल
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जर्मनी की ग्रीन पार्टी कार्बन उत्सर्जन मुक्त इस अभियान को दिल खोलकर समर्थन दे रही है. जलवायु परिवर्तन पर लोगों की बढ़ती चिंता के बीच ग्रीन पार्टी पर्याप्त शक्तिशाली है कि वह सितंबर के आम चुनावों के बाद इस एक्शन प्लान को बढ़ावा दे सके. चाहे वह गठबंधन में छोटी सहयोगी बनकर ऐसा करे या सरकार से बाहर रहकर.
यह योजना सोशल डेमोक्रेट्स और सीडीयू/सीएसयू की वर्तमान सरकार की ही दिमागी उपज है. इस नाते अगर कंजरवेटिव ब्लॉक की इन पार्टियों से कोई जर्मन चांसलर बना तो उसके ग्रीन हाइड्रोजन योजना से पीछे हटने की संभावना नहीं होगी.
हालांकि धुर दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी इस मामले में अलग है. फिलहाल उसके साथ कोई भी पार्टी गठबंधन नहीं करना चाहती. जिससे बिजनेस समर्थक लिबरल फ्री डेमोक्रेट्स (FDP) जर्मनी में ग्रीन हाइड्रोजन को लेकर मुख्यधारा की सोच से बाहर हो जाती है. गैस के स्रोत की बात आने पर एफडीपी ने 'नई तकनीकी को स्वीकार करने वाला' बने रहने की प्रतिबद्धता जताई है. ऐसे में लिबरल लोग मायने रखते हैं क्योंकि पहले की कई सरकारों की तरह वे इस साल भी किंगमेकर बन सकते हैं.
ग्रीन बनाम ब्लू, ग्रे और टरक्वाइज
फिलहाल जर्मनी की सारी हाइड्रोजन 'ग्रे हाइड्रोजन' है, जिसे जीवाश्म हाइड्रोकार्बन्स का इस्तेमाल कर बनाया जाता है. यह अपेक्षाकृत कम खर्चीली है, क्योंकि ग्रीन हाइड्रोजन के मुकाबले इसका दाम करीब पांच गुना कम है. हरा रंग पर्यावरण के लिए सबसे अनुकूल हाइड्रोजन की निशानी है क्योंकि इसे नवीकरणीय ऊर्जा की मदद से इलेक्ट्रोलिसिस के जरिए बनाया जाता है और इसे बनाने की प्रक्रिया पूरी तरह से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन से मुक्त होती है.
फिर ब्लू हाइड्रोजन आती है, जिसे जीवाश्म गैस से बनाया जाता है लेकिन इसे कम कार्बन वाला माना जाता है क्योंकि यह कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को जमीन के नीचे दबाने के लिए कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) तकनीकी का इस्तेमाल करती है. और अंतत: टरक्वाइज हाइड्रोजन है, जिसका निर्माण नैचुरल गैस पाइरोलिसिस का इस्तेमाल कर किया जाता है. यह एक ऐसी विधि है जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होने के बजाए ठोस कार्बन पैदा होता है.
जर्मनी के लिबरल लोगों की तरह ईयू कमीशन ने भी सभी चार तरह के हाइड्रोजन को कार्बन न्यूट्रैलिटी हासिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण माना है. उनका कहना है कि हाइड्रोजन बाजार को शुरुआती चरण में आगे बढ़ाने के लिए जीवाश्म आधारित हाइड्रोजन और इसकी कार्बन स्टोरेज क्षमता की जरूरत होगी.
बहस में गहमागहमी भी
हालांकि जर्मनी के ग्रीन हाइड्रोजन रोडमैप ने राजनेताओं, बिजनेसमैन और शिक्षाजगत में एक जीवंत बहस खड़ी कर दी है. एनर्जी कंपनी ई.ऑन की एक वरिष्ठ अधिकारी काथरीना राइषे मानती हैं कि अगले कुछ सालों में "विकल्प ग्रीन और ब्लू हाइड्रोजन नहीं होंगे बल्कि ब्लू हाइड्रोजन और कोयला होंगे." राइषे ने यह बयान जर्मन हाइड्रोजन काउंसिल की चेयरवुमन के तौर पर दिया. यह काउंसिल बिजनेस, सिविल सोसाइटी और पर्यावरणीय समूहों के 25 विशेषज्ञों का एक समूह है, जिन्हें सरकार की ओर से राष्ट्रीय रणनीति की निगरानी के लिए नियुक्त किया गया है.
जुलाई, 2020 में राइषे ने एक काउंसिल रिपोर्ट पेश की थी जिसने ब्लू हाइड्रोजन का जोरदार समर्थन किया गया था. इसमें कहा गया था कि अकेले ग्रीन हाइड्रोजन जर्मन उद्योगों को डीकार्बनाइज करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी. और यह हाइड्रोजन मार्केट को एकमात्र स्रोत (नवीकरणीय स्रोतों) तक सीमित कर देगी. "ऐसा करके यह फायदे के बजाए नुकसान ज्यादा करेगी."
हालांकि पर्यावरण समूहों ने सरकार के पर्यावरण को केंद्र में लाने के कदम का स्वागत किया है. बुंड इंवायरमेंटल एनजीओ की वेरेना ग्रेचेन ने डीडब्ल्यू को बताया कि जीवाश्म गैस पर आधारित हाइड्रोजन को पर्यावरण संरक्षण के मामले में "ग्रीन हाइड्रोजन के समान नहीं माना जा सकता." हाइड्रोजन काउंसिल का एक सदस्य होने के नाते ग्रेचेन रिपोर्ट में भी एक असहमति की आवाज रही हैं.
जलवायु थिंक टैंक ई3जी के एक रिसर्चर फेलिक्स हाइलमन ने डीडब्ल्यू को एक ईमेल में बताया, सरकार की मान्यता है कि केवल ग्रीन हाइड्रोजन ही टिकाऊ है, "जो पिछले दरवाजे से लंबे समय तक जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में बने रहने के खतरे को कम करती है."
बड़े स्तर पर कामकाज
जर्मनी की वर्तमान हाइड्रोजन खपत सालाना 55 टेरावाट घंटे (TWh) है और इसका उत्पादन पैटर्न दुनिया के बाकी हिस्सों के समान ही है, जिसका उत्पादन दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह ही प्राकृतिक गैस का उपयोग कर किया जाता है. विशेषज्ञों का आकलन है कि प्लान के मुताबिक 2030 तक हाइड्रोजन के उत्पादन में 5 गीगावाट की बढ़ोतरी इसे केवल 14 टेरावाट घंटे बढ़ा सकेगी. जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उस समय तक हाइड्रोजन की मांग 90-110 टेरावाट घंटे तक पहुंचने का अनुमान है.
सिस्टम अनेलिस्ट ओलिवियर गुइलन और होल्गर हंसेल्का जर्मन हेल्महोल्त्स एसोसिएशन के लिए भविष्य की हाइड्रोजन मांग और इससे जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर की मॉडलिंग कर रहे हैं. शोध संगठनों की वेबसाइट पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि आदर्श तो यही रहेगा कि मांग का लगभग आधा घरेलू सौर और पवन ऊर्जा से पैदा किया जाए लेकिन इसके लिए पहले नवीकरणीय बिजली उत्पादन की क्षमता को अगले दशक में चौगुना करना की जरूरत होगी.
अपनी नीति की घोषणा के बावजूद सरकार को हाइड्रोजन योजना की सीमाओं की जानकारी है और वह उत्तरी यूरोप के साथ ही स्पेन और उत्तरी अफ्रीका के बहुत से पवन और सौर ऊर्जा उत्पादक देशों के साथ आयात साझेदारी स्थापित करने का प्रयास कर रही है. संभावनाओं का एक एटलस विकसित किया जा रहा है ताकि ऐसे इलाकों को खोजा जा सके, जो हाइड्रोजन के उत्पादन और निर्यात के लिए सबसे उपयुक्त हों.
जर्मन उद्योग जगत भी हाइड्रोजन अभियान की तेजी की बराबरी करने की उम्मीद कर रहा है और सरकारी फंडिंग का लाभ पाने के लिए लगभग 20 अरब यूरो की 60 से ज्यादा परियोजनाएं शुरू कर चुका है. ताकि वह उन योजनाओं का लाभ ले सके, जिनका सरकार की ओर से वादा किया गया है. लेकिन फेडरेशन ऑफ जर्मन इंडस्ट्रीज (बीडीआई) के प्रमुख सिगफ्रीड रूसवुर्म निवेश कर रहे लोगों को यह चेतावनी देना जरूरी समझते हैं कि निवेश "मनमाने नहीं होने चाहिए."
रूसवुर्म ने एक जर्मन रेडियो स्टेशन डॉयचलैंडफुंक से कहा, "हमें एक रणनीति की जरूरत है... और हम गारंटी चाहते हैं कि संभावित नए प्लांट संचालन के लिए पर्याप्त हाइड्रोजन की सप्लाई कर सकें. अगर यह सुनिश्चित नहीं किया गया, तो भविष्य में इसके लिए कोई निवेश नहीं आएगा."
अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी ने संयुक्त राष्ट्र की बैठक में शामिल होने की इच्छा जाहिर की है. संयुक्त राष्ट्र की एक समिति इस अनुरोध का मूल्यांकन कर रही है.
आमिर खान मुत्तकी ने इस विषय में संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश को चिट्ठी लिख कर इस समय न्यू यॉर्क में चल रही संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की 76वीं आम बहस में अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व करने का अनुरोध किया है. संयुक्त राष्ट्र ने बताया कि चिट्ठी संस्था के न्यू यॉर्क स्थित मुख्यालय को "अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात" के विदेश मंत्रालय द्वारा भेजी गई है.
चिट्ठी में तालिबान ने दलील दी है कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी को "हटा दिया गया है" और दूसरे देश अब उन्हें राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मान्यता नहीं देते हैं. चिट्ठी में यह संकेत भी दिया गया है कि तालिबान संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान के राजदूत को हटा कर अपने प्रवक्ता सुहैल शाहीन को वहां भेजना चाहता है.
मान्यता का सवाल
तालिबान का कहना है कि मौजूदा राजदूत गुलाम इसकजाई अब देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं और उनका मिशन खत्म हो चुका है. अमेरिका, जर्मनी और दूसरे कई राष्ट्र अब तालिबान को अफगानिस्तान के वास्तविक शासक के रूप में देखते हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक उसे एक वैध सरकार की मान्यता नहीं दी है.
संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने तालिबान की चिट्ठी को परिचय-पत्र समिति को विचार करने के लिए भेज दिया है. इस समिति में नौ देशों के प्रतिनिधि हैं, जिनमें अमेरिका, रूस, चीन, स्वीडन, नामिबिया, द बहामास, भूटान, सिएरा लियोन और चिली शामिल हैं.
संयुक्त राष्ट्र के प्रवक्ता फरहान हक ने बताया कि इस समिति के पास यह फैसला करने की शक्ति है कि किसी भी देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए किस नेता और किस राजदूत को मान्यता दी जाए.
अफगानिस्तान का प्रतिनिधि कौन
हक ने यह भी कहा, "ऐसा नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र सरकारों को मान्यता दे रहा है, ऐसा उसके सदस्य देश कर रहे हैं." पूर्व में ऐसे भी मामले हुए हैं जब संयुक्त राष्ट्र में किसी देश का राजदूत उस देश के शासकों से सम्बद्ध नहीं रहा है.
जैसे अफगानिस्तान पर तालिबान का 1990 के दशक के मध्य से 2001 तक नियंत्रण था, लेकिन उस समय संयुक्त राष्ट्र में देश का प्रतिनिधित्व पिछली सरकार के राजदूत ही कर रहे थे, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान को मान्यता नहीं दी थी. फिलहाल संयुक्त राष्ट्र में आम बहस 27 सितंबर तक चलेगी, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि बहस में अफगानिस्तान की तरफ से कौन भाग लेगा. (dw.com)
सीके/एए (डीपीए)
अगर आप रात में कई बार सांस लेने में तकलीफ के कारण जग जाते हैं और सुबह आपका मुंह सूखा रहता है, साथ ही पूरे दिन सिर दर्द और थकान महसूस करते हैं तो यह अब्सट्रक्टिव स्लीप एप्निया के कारण हो सकता है.
(dw.com)
'डेंटल स्लीप मेडिसिन' पर हुए एक सम्मेलन के मुताबिक भारत में करीब 40 लाख लोग, खासकर बुजुर्ग और मोटे लोग ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया (ओएसए) सिंड्रोम से पीड़ित हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति सांस लेने में तकलीफ के कारण रात में कई बार जगता है और पूरे दिन सिर दर्द और थकान के साथ सुबह शुष्क मुंह का अनुभव करता है, तो यह अब्सट्रक्टिव स्लीप एप्निया के कारण हो सकता है.
श्वसन चिकित्सा में ओएसए का आमतौर पर निरंतर पॉजिटिव वायुमार्ग दबाव मशीनों के साथ इलाज किया जाता है, लेकिन दंत चिकित्सा भी आसान प्रबंधन प्रदान करती है.
सरस्वती डेंटल कॉलेज के डीन प्रोफेसर अरविंद त्रिपाठी के मुताबिक , "मोटापा, जीवन शैली का तनाव और दांतों का पूरा गिरना ऊपरी वायुमार्ग में दबाव का कारण बन सकता है. यह सांस लेने पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है. अगर ऐसी स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है और अनुपचारित छोड़ दी जाती है, तो यह शरीर की ऑक्सीजन की आवश्यकता को प्रभावित करती है और हृदय और श्वसन संबंधी समस्याएं पैदा कर सकती है."
दंत चिकित्सा के विशेषज्ञों का कहना है कि इस स्थिति का इलाज मैंडिबुलर उन्नति उपकरण के साथ किया जा सकता है, एक मौखिक उपकरण जो अस्थायी रूप से जबड़े और जीभ को आगे बढ़ाता है, गले के कसने को कम करता है और वायुमार्ग की जगह को बढ़ाता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के लखनऊ कार्यालय के डॉ अंकुर के मुताबित, "लगभग 80 प्रतिशत रोगियों को नहीं पता कि वे ओएसए से पीड़ित हैं और यह घातक हो सकता है. इसलिए लोगों को इसके बारे में बुनियादी जानकारी होनी चाहिए."
खर्राटों का वक्त पर इलाज न किया जाए तो यह स्लीप एप्निया बीमारी बन सकती है. इस हाल में सोते समय सांस कुछ सेकेंड के लिए रुक जाती है. ऐसे में तीखी आवाज के साथ सांस आती है, ये एप्निया कहलाता है.
एए/वीके (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 21 सितम्बर| पाकिस्तान के सूचना एवं प्रसारण मंत्री फवाद चौधरी ने मंगलवार को कहा कि पाकिस्तान में अपनी निर्धारित श्रृंखला से इंग्लैंड और न्यूजीलैंड क्रिकेट टीमों की वापसी, प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा बाद के अफगान अभियानों के लिए पाकिस्तान को आधार के रूप में उपयोग करने पर अमेरिका को साफतौर पर मना करने का परिणाम है। पाकिस्तानी अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून की एक हालिया रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।
जुलाई में, इमरान खान ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वह अमेरिका को अपने अफगान अभियानों के लिए पाकिस्तान को आधार के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देंगे और इस बयान से काफी हलचल हुई थी, जिससे मुख्यधारा और सोशल मीडिया पर समान रूप से बहस हुई थी।
मंगलवार को खान की अध्यक्षता में हुई एक कैबिनेट बैठक के बाद एक प्रेस वार्ता में, चौधरी ने कहा कि पाकिस्तान अमेरिका को साफतौर पर मना करने की कीमत चुका रहा है। यह कहते हुए कि राष्ट्रों को इस तरह की कीमत चुकानी होगी, यदि वे अपना सिर ऊंचा रखना चाहते हैं, रिपोर्ट में कहा गया है कि यह वास्तव में भुगतान करने के लिए एक छोटी सी कीमत है और गर्वित राष्ट्र ऐसी कीमतों का भुगतान करते रहते हैं।
सूचना मंत्री ने इंग्लैंड और न्यूजीलैंड द्वारा सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए पाकिस्तान में होने वाले क्रिकेट मैच को छोड़कर अपने देश निकल जाने पर सामने आ रही विभिन्न प्रतिक्रियाओं के बीच यह बयान दिया है। कैबिनेट की चर्चा के बारे में एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, "यदि आप कहते हैं कि बिल्कुल नहीं, तो फिर आपको एक कीमत चुकानी होगी। मुझे लगता है कि देश कीमत चुकाने और ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार है।"
चौधरी ने कहा कि न्यूजीलैंड और इंग्लैंड क्रिकेट टीमों द्वारा एक के बाद एक वापसी से अकेले पाकिस्तान टेलीविजन (पीटीवी) को करीब 20 करोड़ से 25 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।
चौधरी ने कहा, "हमने अपने वकीलों के साथ चर्चा शुरू कर दी है कि हम उन्हें अदालतों में कैसे ले जा सकते हैं।"
बता दें कि न्यूजीलैंड और इंग्लैंड ने पाकिस्तान में सुरक्षा कारणों के चलते क्रिकेट सीरीज खेलने से मना कर दिया है, जिसके बाद से ही पाकिस्तानी खेल प्रशंसक निराश हैं और सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। केवल प्रशंसक ही नहीं, बल्कि पूर्व पाकिस्तानी क्रिकेटर्स से लेकर राजनेता भी इस घटना को लेकर लगातार बयान दे रहे हैं, क्योंकि वह दो देशों की टीमों की ओर से सुरक्षा कारणों से वापस चले जाने के बाद हुए अपमान को सहन नहीं कर पा रहे हैं। (आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 21 सितम्बर | एप्पल के विश्लेषक मिंग-ची कू ने एक नवीनतम शोध नोट में दावा किया है कि क्यूपर्टिनो स्थित टेक दिग्गज अपना पहला फोल्डेबल आईफोन 2024 में लॉन्च कर सकती है, जबकि पहले यह 2023 में होने वाला था। आईमोर ने कुओ के हवाले से कहा, "हमने अंडर-डिस्प्ले फिंगरप्रिंट वाले आईफोन के लॉन्च में देरी और फोल्डेबल आईफोन को क्रमश: 2एच23 और 2024 करने के लिए अपने पूवार्नुमान को संशोधित किया है। हमारा मानना है कि इससे 2022 और 2023 में आईफोन शिपमेंट को नुकसान होगा।"
बिजनेस कोरिया ने हाल ही में बताया कि एप्पल और एलजी एक फोल्डेबल ओएलईडी पैनल विकसित कर रहे हैं जो मोटाई कम करने के लिए ऩक्काशी का उपयोग करता है और आकार में 7.5-इंच की संभावना है।
साइट का मानना है कि एप्पल के पहले फोल्डेबल स्मार्टफोन में क्लैमशेल डिजाइन होगा।
इससे पहले, कुओ ने कहा था कि एप्पल 2016 से फोल्डेबल डिवाइस पर शोध कर रहा है, लेकिन हाल के महीनों में फोल्डेबल आईफोन को लेकर अफवाहें काफी बढ़ गई हैं।
गैलेक्सी जेड फ्लिप जैसी डिजाइन वाला आगामी फोल्डेबल आईफोन भी उसी बाजार में प्रतिस्पर्धी प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में अधिक किफायती होगा।
एप्पल भी सैमसंग गैलेक्सी फोल्ड के समान फोल्डिंग डिस्प्ले वाले आईफोन की इंजीनियरिंग की प्रक्रिया में है और आईफोन निर्माता ने सैमसंग से फोल्डेबल डिस्प्ले के एक बैच का आदेश दिया है, यह सुझाव देते हुए कि यह एक फोल्डेबल आईफोन पर काम कर रहा है।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कंपनी अपने फोल्डेबल आईफोन के लॉन्च के बाद आईपैड मिनी को भी बंद कर सकती है।(आईएएनएस)
चीन का एवरग्रांदे समूह अरबों डॉलर के ऋण को चुकाने से चूक सकता है, जिसे लेकर वैश्विक निवेशक चिंता में हैं. कंपनी का कहना है कि उस पर निर्माण और दूसरे क्षेत्र में 38 लाख से ज्यादा लोगों की नौकरियां निर्भर हैं.
चीन के नियामकों ने अभी तक यह नहीं कहा है कि वो एवरग्रांदे समूह को लेकर क्या कर सकते हैं. अर्थशास्त्री उम्मीद कर रहे हैं कि अगर समूह और बैंकों में ऋण चुकाने को लेकर समझौता नहीं हो पाया तो ऐसे में सरकार हस्तक्षेप कर सकती है. लेकिन आशंका है कि कोई भी आधिकारिक समाधान बैंकों और बॉन्ड धारकों के लिए घाटे नहीं बचा पाएगा.
ऑक्सफर्ड इकोनॉमिक्स के टॉमी वू ने एक रिपोर्ट में कहा कि सरकार "कंपनी को बचा लेने की कोशिश करती हुई दिखाई नहीं देना चाहती है", लेकिन संभव है कि "व्यापक जोखिम को घटाने और आर्थिक उथल पुथल को समेटने" के ऋण के स्वरूप को बदलने" की व्यवस्था कर सकती है.
क्या है एवरग्रांदे
चीन की कई बड़ी कंपनियों का ऋण बढ़ता जा रहा है और सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी इसे अर्थव्यवस्था के लिए खतरा मानती है. सरकार ने कंपनियों के ऋण पर लगाम लगाने के लिए कई कोशिशें की हैं और एवरग्रांदे समूह इन कोशिशों के सबसे बड़े पीड़ितों के रूप में सामने आया है.
23 सितंबर को एवरग्रांदे को ब्याज का भुगतान करना है और निवेशकों देखना चाह रहे हैं कि समूह इस भुगतान के बारे में क्या करता है. समूह का मुख्यालय हांग कांग के पास शेनजेन शहर में है. इसकी स्थापना 1996 में की गई थी और धीरे-धीरे ये चीन में घर, ऑफिस टावर और शॉपिंग मॉल बनाने वाला सबसे बड़ा समूह बन गया.
कंपनी का कहना है कि उसके पास दो लाख से भी ज्यादा कर्मचारी हैं और निर्माण और दूसरे क्षेत्रों में 38 लाख से भी ज्यादा लोगों की नौकरियां उस पर निर्भर हैं. कंपनी का यह भी दावा है कि उसके पास 280 शहरों में 1,300 परियोजनाएं चल रही हैं और उसके पास कुल 350 अरब डॉलर की संपत्ति है.
एवरग्रांदे का संस्थापक शू जिआइन 2017 में चीन का सबसे अमीर उद्यमी था. हुरुन रिपोर्ट के मुताबिक तब उसके पास 43 अरब डॉलर की संपत्ति थी. इंटरनेट उद्योगों की सफलता के साथ वो सूची में नीचे आ गया है, लेकिन फिर भी पिछले साल वो देश का सबसे अमीर रियल एस्टेट डेवलपर था.
2020 में हुरुन की परोपकारी व्यक्तियों की सूची में भी उसका नाम सबसे ऊपर था. अनुमान है कि उसने उस साल करीब 42 करोड़ डॉलर दान में दिए. एवरग्रांदे अब इलेक्ट्रिक गाड़ियां, मनोरंजन पार्क, स्वास्थ्य क्लिनिक, मिनरल वाटर और दूसरे उद्योगों में चली गई है.
अभी तक क्या असर हुआ है
इस साल की शुरुआत से लेकर अभी तक हांग कांग शेयर बाजार में कंपनी के शेयरों में 85 प्रतिशत की गिरावट आई है. शू ने कंपनी को ऋण के आधार पर ही बनाया था. वैसे तो पूरा रियल एस्टेट उद्योग ही उधार के पैसों पर चलता है, लेकिन संभव है कि शू ने बाकियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही ऋण ले लिया हो.
30 जून तक एवरग्रांदे का बॉन्डधारकों, बैंकों, ठेकेदारों और दूसरे ऋणदाताओं पर 310 अरब डॉलर की देनदारी थी. इसमें से 37.3 अरब डॉलर तो साल भर के अंदर देना है जो कंपनी की नकद पूंजी (13.5 अरब डॉलर) का लगभग तीन गुना है. एवरग्रांदे तब फंसी जब नियामकों ने रियल एस्टेट से संबंधित ऋण लेने पर नई पाबंदियां लगाईं.
ये पाबंदियां ऋण पर निर्भरता को कम करने के कम्युनिस्ट पार्टी के लंबे अभियान के तहत लगाईं गईं. अर्थशास्त्री एक दशक से भी ज्यादा समय से चेतावनी दे रहे हैं कि चीन के ऋण का बढ़ता स्तर खतरे का कारण बन सकता है. कम्युनिस्ट पार्टी ने 2018 तक इस तरह के वित्तीय जोखिमों को कम करने को एक प्राथमिकता बनाया हुआ है.
लेकिन इसके बावजूद पिछले साल कुल कॉर्पोरेट, सरकारी और आम लोगों का ऋण आर्थिक उत्पादन के 300 प्रतिशत पर पहुंच गया. यह 2018 में 270 प्रतिशत था. यह एक मध्यम आय वाले देश के लिए असामान्य रूप से ज्यादा है.
कम्युनिस्ट पार्टी क्या करना चाह रही है
कम्युनिस्ट पार्टी व्यापार और ऋण-आधारित निवेश की जगह देश के अंदर खपत पर आधारित आर्थिक विकास को बढ़ावा देना चाह रही है. इस वजह से वो ऋण पर लगाम रही है. 2014 के पहले तक तो वित्तीय बाजारों में डर फैलने से बचाने के लिए वो हस्तक्षेप करके कंगाल हो रहे उधारकर्ताओं को बचा लेती थी.
2014 में पार्टी ने उधारकर्ताओं और ऋणदाताओं को जबरदस्ती अनुशासन की राह पर लाने के लिए कई कदम उठाए. इन कदमों के तहत उसने 1949 के बाद पहली बार कॉर्पोरेट ऋण चुकाने में असमर्थता की अनुमति दी. तब से इस तरह की और भी अनुमतियां दी गई हैं, लेकिन उनमें कोई भी उधारकर्ता एवरग्रांदे जितना बड़ा नहीं था.
वैसे तो दूसरी बड़ी रियल एस्टेट कंपनियों का हाल ऐसा नहीं है, लेकिन 2017 के बाद से सैकड़ों छोटी कंपनियां बंद जरूर हुई हैं. उस साल से नियामकों ने निर्माण से पहले मकान बेचने जैसी पैसे इकट्ठे करने के तरीकों पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया था.
चीन के बाहर असर
हालांकि माना जाता है कि चीन के आवासीय रियल एस्टेट से देश की वित्तीय व्यवस्था को ज्यादा खतरा नहीं है, क्योंकि ज्यादातर मकान नकद पैसों से खरीदे जाते हैं, ना कि ऋण से. इस वजह से अमेरिका में 2008 में जो हुआ था वैसा कुछ यहां होने की संभावना कम है.
कुछ टिप्पणीकारों ने कहा है कि एवरग्रांदे कहीं चीन का "लेहमन लम्हा" ना बन जाए, लेकिन अर्थशास्त्री कहते हैं कि वित्तीय बाजार में इसके व्यापक असर का खतरा कम है. एवरग्रांद के पास 18 अरब डॉलर के बकाया विदेशी मुद्रा के बॉन्ड हैं जिनमें से अधिकांश चीनी बैंकों और अन्य संस्थानों के पास हैं.
इसके अलावा कंपनी के पास 215 अरब डॉलर की जमीन और स्थिर दामों वाले आंशिक रूप से तैयार प्रोजेक्ट भी हैं. इसके बावजूद अगर कंपनी ऋण चुकाने से चूक ही जाती है तो चीन की बैंकिंग व्यवस्था में इतना पैसा है कि वो उस घाटे को पचा लेगी. लेकिन निवेशक नियामकों के कदमों का इंतजार कर रहे हैं.(dw.com)
सीके/एए (एपी)
बीजिंग, 21 सितम्बर | टिक्कॉक के चीनी संस्करण बाइटडांस के लघु वीडियो ऐप डॉयिन ने घोषणा की है कि यह ऐप पर बच्चों के समय को प्रति दिन 40 मिनट तक सीमित कर रहा है और रात भर के उपयोग पर प्रतिबंध लगा रहा है। द वर्ज ने बताया कि 14 साल से कम उम्र के किशोर सुबह 6 बजे से रात 10 बजे के बीच डॉयिन तक पहुंच सकेंगे, लेकिन उस विंडो के बाहर ऐप का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे।
14 वर्ष से कम आयु के उपयोगकर्ताओंको युवा मोड में प्रवेश करने की आवश्यकता होगी जो प्रति दिन 40 मिनट के उपयोग तक सीमित होगा। नए नियंत्रण उन उपयोगकर्ताओं पर लागू होते हैं जिन्होंने अपना वास्तविक नाम और उम्र दर्ज की है। कंपनी ने माता-पिता से अपने बच्चों की वास्तविक जानकारी भरने का भी अनुरोध किया है।
इसके अलावा, यूथ मोड में उपयोगकर्ताओं के लिए उपलब्ध सामग्री में अब "दिलचस्प लोकप्रिय विज्ञान प्रयोग, संग्रहालयों और दीर्घाओं में प्रदर्शनियां" जैसी शैक्षिक सामग्री शामिल होगी।
जून में, चीन ने अपने "माइनर प्रोटेक्शन लॉ" को संशोधित किया, जिसके लिए सोशल मीडिया ऐप सहित इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को "नाबालिगों के लिए समय प्रबंधन, सामग्री प्रतिबंध और उपभोग सीमा जैसे संबंधित कार्यों को स्थापित करने" की आवश्यकता होती है।
चीन के राष्ट्रीय प्रेस और प्रकाशन प्रशासन द्वारा हाल ही में प्रकाशित नियमों के अनुसार, चीन में 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों और किशोरों को ऑनलाइन वीडियो गेम खेलने के लिए प्रति सप्ताह केवल तीन घंटे तक की अनुमति होगी।
18 साल से कम उम्र के लोगों को दिन में एक घंटे रात 8 बजे के बीच वीडियो गेम खेलने की अनुमति है और सप्ताहांत और कानूनी छुट्टियों के दिन रात 9 बजे तक। एजेंसी ने नियमों को बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के तरीके के रूप में पेश किया है।(आईएएनएस)
ऐसी खबरें सामने आई हैं कि सीआईए के एक अफसर को हाल ही में भारत में हवाना सिंड्रोम के लक्षण महसूस हुए. यह एक रहस्मयी बीमारी है जिसके लक्षण सिर्फ ऐसे अमेरिकी अधिकारियों में देखे गए हैं जिन्हें विदेश में नियुक्त किया गया था.
इस सीआईए अफसर का नाम सामने नहीं आया है लेकिन यह बताया जा रहा है कि उसका उपचार किया गया है. वह कुछ ही दिनों पहले एजेंसी के निदेशक विलियम बर्न्स के साथ भारत आए थे.
हवाना सिंड्रोम सबसे पहले 2016 में क्यूबा में अमेरिका के दूतावास में काम करने वाले अमेरिकी अधिकारियों और उनके परिवार के सदस्यों में देखा गया था. इसके बाद क्यूबा में अमेरिकी दूतावास की अधिकांश गतिविधियों को बंद कर दिया गया था. ये गतिविधियां अभी भी बंद हैं. तब से अब तक करीब 200 लोगों में इसके लक्षण पाए गए हैं.
क्या है हवाना सिंड्रोम
लक्षणों में माइग्रेन, जी मचलाना, याददाश्त कमजोर हो जाना और चक्कर आना शामिल हैं. सीएआईए के एक प्रवक्ता ने बताया कि एजेंसी विशेष घटनाओं या अफसरों पर टिप्पणी नहीं करती है.
उन्होंने कहा, "जब भी कोई व्यक्ति संभावित स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों की शिकायत करता है, तो उस स्थिति के लिए हमारे पास प्रोटोकॉल तैयार हैं. इनमें उचित चिकित्सा और उपचार शामिल हैं."
शुरू में सिर्फ अमेरिकी अधिकारियों ने ही इन लक्षणों की शिकायत की थी, लेकिन बाद में क्यूबा में ही कनाडा के दूतावास के भी कुछ अधिकारियों में ऐसे लक्षण पाए गए. इसके बाद कनाडा ने भी क्यूबा में अपने दूतावास में नियुक्त अधिकारियों की संख्या को बहुत कम कर दिया था.
पिछले महीने, अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस को वियतनाम की राजधानी हनोई की अपनी यात्रा को तीन घंटे टाल देना पड़ा क्योंकि वहां के अमेरिकी दूतावास ने बताया था कि वहां किसी में हवाना सिंड्रोम जैसे लक्षण देखे गए हैं.
रूस पर आरोप
जुलाई में बर्न्स ने बताया था कि उन्होंने एक वरिष्ठ अधिकारी को सिंड्रोम की तफ्तीश करने वाली एक टास्क फोर्स का मुखिया नियुक्त किया है. इस अधिकारी ने कभी ओसामा बिन लादेन की तलाश करने वाले अभियान का नेतृत्व किया था.
अमेरिका की नैशनल अकैडेमी ऑफ साइंसेज के एक पैनल ने पाया था कि इसके पीछे सबसे संभाव्य अनुमान यही हो सकता है कि कोई "निशाना बना कर छोड़ी हुई रेडियो फ्रीक्वेंसी ऊर्जा की लहरें" ये सिंड्रोम पैदा करती हैं.
बर्न्स ने कहा है कि इसकी "बहुत मजबूत संभावना" है कि सिंड्रोम को जान बूझकर पैदा किया जा रहा है और इसके लिए रूस जिम्मेदार हो सकता है. लेकिन कुछ ही दिनों पहले क्यूबा ने इस पर एक विस्तृत वैज्ञानिक रिपोर्ट जारी करते हुए इस सिंड्रोम से जुड़े आरोपों की आलोचना की थी.
क्यूबा की अकैडेमी ऑफ साइंसेज ने यहां तक सवाल उठाए थे कि इतने विविध लक्षणों को किसी एक सिन्ड्रोम का नाम दिया भी जा सकता है या नहीं. अकैडेमी ने यह भी कहा था कि प्रस्तावित किए गए स्पष्टीकरण में कुछ तो ऐसी बातें हैं जो भौतिक विज्ञान के मूल सिद्धांतों के ही खिलाफ हैं.
हालांकि अकैडेमी के वैज्ञानिकों ने माना था की अमेरिकी शोधकर्ताओं ने जिन सबूतों के बारे में बताया है उनमें से अधिकांश का निरीक्षण वो नहीं कर पाए हैं.
सीके/वीके (रॉयटर्स/एपी)
सिंगापुर के वैज्ञानिकों ने अनोखी पट्टियां बनाई हैं. फलों के कचरे से बनी ये पट्टियां सस्ती भी हैं और ज्यादा असरकारक भी.
सिंगापुर की नानयंग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने बचे हुए खाने से एंटीबैक्टीरियल पट्टियां बना दी हैं. इस खोज ने खाने की बर्बादी कम करने का रास्ता खोज लिया है.
सिंगापुर स्थित एनटीयू के शोधकर्ताओं ने बचे हुए ड्यूरियन के छिलके से सेल्युलोस पाउडर निकालकर उसे बैक्टीरियारोधी पट्टियों में तब्दील कर दिया. इसके लिए छिलकों को सुखाया गया और फिर ग्लाइसरोल में मिलाया किया गया. इस मिश्रण से नर्म हाइड्रोजेल तैयार हुआ जिसे काटकर पट्टियां बनाई गईं.
फेंकने से बेहतर है
प्रोफेसर विलियम चेन एनटीयू के फूड ऐंड साइंस प्रोग्राम के निदेशक हैं. वह बताते हैं, "सिंगापुर में हम हर साल लगभग एक करोड़ बीस लाख ड्यूरियन खाते हैं. लेकिन उसका गुदा ही खाया जा सकता है, छिलके और बीज का तो कुछ कर नहीं पाते. इसका बस पर्यावरण को नुकसान ही होता है.”
ड्यूरियन में आधे से ज्यादा हिस्सा तो छिलका ही होता है जिन्हें फेंक दिया जाता है और वे कचरे के रूप में जलवायु के लिए खतरनाक हो जाते हैं. विलियम चेन की टीम ने उन्हीं छिलकों का इस्तेमाल किया.
चेन बताते हैं कि उन्होंने जो तकनीक ईजाद की है वह खाने की अन्य चीजों जैसे सोया बीन और अनाज आदि को भी हाइड्रोजेल में बदल सकती है.
किफायती और असरदार
इस हाइड्रोजेल से जो पट्टियां बनाई गई हैं, वे घावों आम पट्टियों के मुकाबले ज्यादा आरामदायक हैं. वे घाव को ठंडा और नम रखती हैं जिससे घाव भरने की प्रक्रिया तेज हो जाती है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि कचरे और खमीर से पट्टियां बनाना आम पट्टियां बनाने के मुकाबले बहुत सस्ता पड़ता है. आम पट्टियों में भी एंटिबैक्टीरियल गुण होते हैं लेकिन वे चांदी या कॉपर जैसी महंगी धातुओं से लिए जाते हैं. इसलिए उनकी कीमत बढ़ जाती है.
सिंगापुर में ड्यूरियन फल बेचने वाले टान इंग चुआन बताते हैं कि मौसम के दौरान वह लगभग 1800 किलोग्राम फल बेचते हैं. यानी औसतन रोजाना लगभग 30 पेटियां. वह कहते हैं, "जिस चीज को आमतौर पर हम फेंक देते हैं उससे जुड़ी खोज इस फल को और ज्यादा चिरस्थायी बनाएगी.”
रिपोर्टः वीके/सीके (रॉयटर्स)
अमेरिका ने नवंबर से भारत, चीन, ब्राजील और यूरोप के अधिकतर देशों समेत कुल 33 देशों पर लगे यात्रा प्रतिबंध हटाने का फैसला किया है. व्हाइट हाउस के मुताबिक वैक्सीन की पूरी खुराक ले चुके लोग अमेरिका आ-जा सकेंगे.
व्हाइट हाउस के कोरोना वायरस प्रतिक्रिया संयोजक जेफ जिएंट्स ने सोमवार को एक बयान जारी कर नवंबर की शुरुआत से सीमाएं खोलने का ऐलान किया है. इसके साथ ही 18 महीने से जारी सीमा प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी. हालांकि पिछले ही हफ्ते बाइडेन सरकार ने कहा था कि अभी सीमाएं खोलने का सही वक्त नहीं आया है क्योंकि कोविड के मामले बढ़ रहे हैं.
अनेक देशों ने अमेरिका के इस फैसले का स्वागत किया है. करीब डेढ़ साल से जारी इन प्रतिबंधों का असर हजारों लोगों पर पड़ा था जो व्यापार, शिक्षा या निजी कारणों से अमेरिका की यात्रा करना चाहते हैं.
डेढ़ साल बाद खुलेंगी सीमाएं
अमेरिका ने कहा है कि वैक्सीन की पूरी खुराक ले चुके लोगों को ही यात्रा की इजाजत होगी. जिन देशों को छूट दी गई है उनमें फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, स्विट्जरलैंड और ग्रीस समेत शेनेगन क्षेत्र के 26 देश शामिल हैं. इनके अलावा ब्रिटेन, आयरलैंड, चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका, ईरान और ब्राजील के लोगों को भी यात्रा की इजाजत होगी.
अमेरिका ने अपनी सीमाएं पिछले साल जनवरी में विदेशियों के लिए तब बंद कर दी थीं जब कोरोना वायरस के मामले आने लगे थे. सबसे पहले चीन से आने वाले यात्रियों पर प्रतिबंध लगाया गया था जो धीरे धीरे अन्य देशों पर भी लागू हो गया.
अभी प्रतिबंध हटाने की तारीख का ऐलान नहीं किया गया है और बस इतना कहा गया है कि नवंबर की शुरुआत में यात्राएं शुरू की जा सकेंगी. वैसे कोरोना वायरस के दौरान भी 150 से ज्यादा देशों के लोगों पर अमेरिका आने जाने की कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन सोमवार की घोषणा का अर्थ है कि अब उन देशों से भी केवल वही लोग अमेरिका जा सकेंगे जिन्होंने वैक्सीन की खुराक ली है.
घोषणा का स्वागत
अमेरिका में उद्योगपतियों के संगठन चैंबर ऑफ कॉमर्स ने इस घोषणा का स्वागत करते हुए कहा है कि यह "अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तेज बहाली में मदद करेगी." एक अन्य संगठन ‘एयरलाइन फॉर अमेरिका‘ के मुताबिक कोविड महामारी के फैलने से पहले की तुलना में अगस्त में अंतरराष्ट्रीय यात्राएं 43 प्रतिशत कम हुईं.
अमेरिका का यह फैसला मंगलवार को जो बाइडेन के संयुक्त राष्ट्र महासभा में संबोधन के ठीक एक दिन पहले आया है. हालांकि व्हाइट हाउस की प्रवक्ता जेन साकी ने कहा कि इस फैसले का कूटनीतिक आधार नहीं है. उन्होंने कहा, "अगर हमें अपने लिए चीजें आसान करनी होतीं तो यह फैसला तब लेते जब राष्ट्रपति बाइडेन जून में अपने पहले विदेश दौरे पर गए थे. या फिर गर्मियों की शुरुआत में यह फैसला करते. हमारा फैसला विज्ञान पर आधारित है."
अमेरिका में जून से डेल्टा वेरिएंट के कारण कोविड के मामले और मौतें लगातार बढ़ रही हैं. रविवार को देश में लगभग 29,000 नए मामले दर्ज हुए थे.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अमेरिका की घोषणा का स्वागत करते हुए इसे उद्योग और व्यापार के लिए एक शानदार प्रोत्साहन बताया. अमेरिका में जर्मनी की राजदूत एमिली हाबेर ने ट्विटर पर कहा, "लोगों के आपसी संपर्क और अटलांटिक में व्यापार के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण फैसला है."
कौन सी वैक्सीन मान्य होंगी?
अमेरिका जाने के लिए लोगों को यात्रा से पहले ही वैक्सीन का सबूत देना होगा. उन्हें अमेरिका में एकांतवास में रहने जरूरत नहीं होगी. व्हाइट हाउस ने कहा कि कौन कौन सी वैक्सीन मान्य होंगी, इसका फैसला सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल ऐंड प्रिवेंशन (CDC) करेगी.
सीडीसी का कहना है कि उसी व्यक्ति को पूरी तरह से वैक्सिनेटेड माना जाएगा जिसने मान्यता प्राप्त वैक्सीन ली हों. संस्था की प्रवक्ता क्रिस्टन नोर्डलंड ने कहा, "सीडीसी उसी को पूरी तरह वैक्सीनेटेड मानता है जिसने एफडीए से अधिकृत या मान्यताप्राप्त वैक्सीन लो हो या फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जिस वैक्सीन को मान्यता दी हो. लेकिन यह सूची बदली जा सकती है."
भारत इस बात को लेकर खासा परेशान रहा है कि उसके यहां निर्मित कोविशील्ड वैक्सीन को कुछ देश मान्यता नहीं दे रहे हैं. मसलन ब्रिटेन ने भारत की कोविशील्ड वैक्सीन को मान्यता नहीं दी है जिस पर भारत ने कड़ा ऐतराज जताया है. भारत के ऐतराज के बाद ब्रिटिश उच्चायोग ने एक बयान जारी कर कहा कि इस बारे में बातचीत की जा रही है.
कोविशील्ड को भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने ऑक्सफर्ड-एस्ट्रेजेनेका के साथ मिलकर बनाया है. नए नियमों के मुताबिक यह वैक्सीन लेने वाले लोगों को ब्रिटेन जाने के बाद 10 दिन तक एकांतवास मे रहना होगा क्योंकि उन्हें वैक्सीनेटेड नहीं माना जा रहा है.
वीके/एए (रॉयटर्स, डीपीए, एएफपी)
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जर्मनी के संसदीय चुनाव में कई सीरियाई शरणार्थी पहली बार मतदान करेंगे. शरणार्थी मैर्केल के आभारी तो हैं, लेकिन उनके दल को समर्थन करने के लिए बाध्य महसूस नहीं करते हैं.
तारिक साद अन्य सीरियाई शरणार्थियों की मदद करने के इच्छुक हैं, जो जर्मनी में एक नया घर बसाने के लिए अपनी मातृभूमि सीरिया में गृह युद्ध से भाग निकल कर आए हैं. साद 26 सितंबर को संसदीय चुनाव को ऐसा करने के अवसर के रूप में देखते हैं.
इन दिनों साद सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) के लिए बाल्टिक तट पर श्लेस्विग-होल्स्टीन के अपने गोद लिए गए राज्य में प्रचार कर रहे हैं. सीरिया में वे फायरिंग में घायल हो गए थे. जर्मनी में आने के दो साल बाद 2016 में वे इस पार्टी में शामिल हुए थे.
राजनीति विज्ञान के 28 वर्षीय छात्र साद कहते हैं, "मैंने सोचा कि मेरे जीवन को कठिन बनाने वाली चीजें दूसरों को भी पीड़ा दे रही हैं. जितनी जल्दी हो सके उन्हें दूर करने के लिए एक राजनीतिक दल में शामिल होना चाहिए."
साद आगे कहते हैं, "हमारे माता-पिता कई सालों तक (सीरिया में) एक अलग राजनीतिक व्यवस्था के तहत रहते आए. यह जर्मनी में एक नई पीढ़ी विकसित करने का अवसर है." साद कई शरणार्थियों की तरह एक जर्मन नागरिक के रूप में पहली बार मतदान करें.
चांसलर अंगेला मैर्केल का 2015 में हजारों सीरियाई शरणार्थियों के लिए दरवाजा खोलने का फैसला 2017 में जर्मनी के संसदीय चुनाव अभियान का एक निर्णायक मुद्दा था.
सभी नए जर्मन नागरिक साद की तरह अपने मतदान के इरादे के बारे में स्पष्ट नहीं हैं. स्विस सीमा के पास जिंगेन शहर के रहने वाले 29 साल के महेर उबैद के मुताबिक, "मैं इस अवसर को पाकर खुश हूं लेकिन मैं सतर्क हूं और शायद वोट नहीं करूंगा."
उबैद ने 2019 में जर्मन नागरिकता हासिल की. वह कहते हैं कि राजनीतिक दलों के बीच विदेश नीति को लेकर स्पष्टता की कमी है और विशेष रूप से सीरिया को लेकर. इसी वजह से वह मतदान को लेकर हिचकिचा रहे हैं.
जर्मनी में सीरियाई लोग
संघीय आंकड़ों के मुताबिक जर्मन नागरिकता हासिल करने वाले सीरियाई लोगों की संख्या 2020 में 74 प्रतिशत बढ़कर 6,700 हो गई. कुल सीरियाई शरणार्थियों की संख्या बहुत अधिक होने का अनुमान है, जो करीब सात लाख हो सकती है. लेकिन नागरिकता हासिल करने के लिए समय और कोशिश की जरूरत होती है.
एक्सपर्ट काउंसिल ऑन इंटीग्रेशन एंड माइग्रेशन (एसवीआर) द्वारा 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि 2017 में केवल 65 प्रतिशत जर्मनों ने प्रवास की पृष्ठभूमि के साथ मतदान किया, जबकि 86 प्रतिशत मूल निवासी जर्मनों ने मतदान किया.
अध्ययन में पाया गया था कि भाषा प्रवाह और सामाजिक-आर्थिक स्थिति प्रवासियों की भागीदारी को निर्धारित करने वाले दो कारक थे, साथ ही उनके देश में रहने की अवधि भी.
शोध में कहा गया था, "एक व्यक्ति जितना अधिक समय तक जर्मनी में रहता है...उतनी ही अधिक संभावना है कि वे राजनीति को समझेंगे और राजनीतिक जीवन में भाग ले सकते हैं."
सीरियाई लोग मैर्केल के रूढ़िवादी दल का समर्थन करने की अधिक संभावना रखते दिखते हैं, जिसने 2013 से 2016 तक शर्णार्थी नीति को आकार दिया था. उसी दौरान अधिकांश लोग जर्मनी पहुंचे थे.
मैर्केल के उत्तराधिकारी पर नजर
16 साल तक चांसलर पद रहने वालीं मैर्केल अब विदा हो रही हैं और ऐसे में कई सीरियाई लोग हैं जो अलग हटकर गुना भाग कर रहे हैं.
लाइपजिष में प्रवासी एकीकरण संगठन के प्रमुख अब्दुल अजीज रमादान के मुताबिक, "सीरियाई लोगों को बहुत होशियार होना चाहिए... मैर्केल ने जो किया वह सही था लेकिन उनके उत्तराधिकारी क्या कर रहे हैं?"
फेसबुक पर सीरियाई प्रवासियों के समूह के सदस्यों के बीच एक अनौपचारिक सर्वे से पता चलता है कि अधिकांश अब एसपीडी को वोट देंगे, उसके बाद ग्रीन पार्टी को वोट डालेंगे अगर वे वोट के हकदार होते हैं तो. तीसरा "विकल्प मुझे परवाह" नहीं था.
फ्राइबुर्ग में रहने वाले डॉ. महमूद अल कुतफाइन ने पिछले चुनाव में भी मतदान किया था. वह कहते हैं, "भावना के साथ मैंने मैर्केल की पार्टी के लिए मतदान किया था क्योंकि उन्होंने शरणार्थियों का समर्थन किया था."
इस बार के चुनाव को लेकर वह अब तक कोई फैसला नहीं कर पाए हैं. वह कहते हैं, "चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है लेकिन मैं ईमानदारी से कहूं तो अभी तक मैंने फैसला नहीं किया है."
एए/वीके (रॉयटर्स)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 सितंबर को तीन दिवसीय दौरे पर अमेरिका पहुंच रहे हैं.
इस दौरान क्वाड देशों के नेताओं की बैठक के इतर वो पहली बार नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ द्विपक्षीय बातचीत भी करेंगे.
इसके अलावा वो अमेरिका की उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस से भी मुलाक़ात करेंगे.
व्हाइट हाउस ने सोमवार को बताया कि अमेरिकी राष्ट्रपति 24 सितंबर को क्वाड देशों के नेताओं के साथ बैठक से इतर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी बैठक करेंगे.
इसके अलावा बाइडन जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा से भी द्विपक्षीय बातचीत करेंगे.
भारत और जापान के प्रधानमंत्रियों से अलग-अलग मुलाक़ात करने को लेकर यह भी समझा जा रहा है कि ऑकस को लेकर अमेरिका दोनों क्वाड संगठन के देशों की चिंताओं को समाप्त करना चाह रहा है.
दरअसल क्वाड में अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया भागीदार हैं और यह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा के लिए एक चतुर्भुज रणनीति बनाने का समझौता है.
क्वाड देशों के नेताओं की बैठक में कोविड-19 से निपटने के तरीक़ों, वैक्सीन सप्लाई, भारत-प्रशांत क्षेत्र में मुक्त आवाजाही, अफ़ग़ानिस्तान मुद्दा, पर्यावरण संकट और उभरती तकनीक साझा करने के विषय शामिल रहेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे के दौरान एप्पल कंपनी के सीईओ टिम कुक समेत कई बड़ी कंपनियों के अधिकारियों से भी मिलने की उम्मीद है.
वहीं, 25 सितंबर को वो संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करेंगे. (bbc.com/hindi)
ट्विटर ने सोमवार को बताया कि एक 'क्लास ऐक्शन सूट' को निपटाने के लिए वो 809.5 मिलियन डॉलर का भुगतान करने जा रहा है.
क़ानून में 'क्लास ऐक्शन सूट' का मतलब उस मुक़दमे से होता है जब कई एक ही मुद्दे पर दायर की गई कई याचिकाओं पर एकसाथ कार्यवाही होती है.
इस मामले में ट्विटर पर अपने यूजर बेस को लेकर निवेशकों को गुमराह करने का आरोप लगाया गया था. कंपनी ने कहा है कि प्रस्तावित समझौते पर जज के दस्तखत के बाद सभी दावों को सुलझा लिया जाएगा और ये बात भी मानी जाएगी कि ट्विटर ने कोई ग़लती नहीं की थी.
साल 2016 में दायर किए गए इस मुक़दमे में ट्विटर के निवेशक डोरिस शेनविक ने दावा किया था कि कंपनी ने जानबूझकर अपने यूजर बेस को लेकर गलतबयानी की थी और वे आंतरिक जानकारी सार्वजनिक करने में नाकाम रहे थे.
इसका नतीजा ये हुआ कि कंपनी के शेयरों के दाम चढ़ गए और जैसी ही यूजर बेस और इंगेजमेंट का असली डेटा सामने आया, शेयरों की कीमत गिर गई. कंपनी का कहना है कि उसके पास जो नकदी उपलब्ध है, उससे वो सेटलमेंट की रकम का भुगतान साल 2021 की चौथी तिमाही में करेगी.
मुक़दमे के अनुसार, साल 2014 में ट्विटर ने ये दावा किया कि हर महीने उसका यूजर बेस बढ़कर 550 मिलियन से ज़्यादा होने की संभावना है और लंबे समय में ये बढ़कर एक अरब से भी ज़्यादा हो सकता है. साल 2019 में ट्विटर ने अपने यूजर बेस और यूजर इंगेजमेंट की जानकारी हर महीने देनी बंद कर दी थी.
उस वक़्त जो आख़िरी जानकारी कंपनी की ओर से उपलब्ध कराई गई थी, वो 330 मिलियन की थी. अब ट्विटर अपने यूजर बेस का डेटा दैनिक आधार पर देता है. साल 2017 में ट्विटर ने कहा था कि उसने गलती से अपने मासिक डेटा को बढ़ाकर पेश किया था क्योंकि इसमें थर्ड पार्टी ऐप का भी डेटा शामिल कर लिया गया था जो नहीं किया जाना चाहिए था. (bbc.com/hindi)
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रू़डो की लिबरल पार्टी ने सोमवार को हुए संसदीय चुनाव जीत लिया है लेकिन संसद में बहुमत हासिल करने से वो चूक गए हैं. मध्यावधि चुनाव कराने का फ़ैसला जस्टिन ट्रूडो के लिए बहुत फ़ायदे का नहीं रहा.
इस बार के नतीजे भी दो साल पहले के परिणाम की तर्ज पर ही रहे. जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. साल 2015 में वे पहली बार चुनाव जीते थे और उसके बाद से वे सत्ता में बने हुए हैं.
लिबरल पार्टी 157 सीटों पर चुनाव जीत चुकी है या जीतने की स्थिति में है. साल 2019 में भी उनकी पार्टी को इतनी ही सीटें मिली थीं. कनाडा की संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स में बहुमत के लिए 170 सीटों की ज़रूरत पड़ती है.
कन्जरवेटिव्स 121 सीटों पर जीत चुके हैं या बढ़त बनाए हुए हैं. साल 2019 में भी उनकी यही स्थिति थी. वामपंथी न्यू डेमोक्रेट्स 29 सीटों पर आगे हैं. उन्हें पिछली बार की तुलना में पांच सीटों का फायदा हुआ है.
ब्लॉक क्यूबेकोइस की सीटें घटकर 28 हो गई हैं और ग्रीन पार्टी को कनाडा के संसदीय चुनावों में दो सीटों पर संतोष करना पड़ा है.
एक स्थिर अल्पमत वाली सरकार के नेता के तौर पर ट्रूडो ने मध्यावधि चुनाव कराने का फ़ैसला लिया था. हालांकि उनकी सरकार के गिराये जाने का कोई ख़तरा नहीं था.
विपक्ष ने उन पर आरोप लगाया कि इस मध्यावधि चुनावों की कोई ज़रूरत नहीं थी और ट्रूडो ने निजी महत्वाकांक्षा के लिए ये फ़ैसला लिया था. (bbc.com/hindi)
रूस में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की यूनाइटेड रशिया पार्टी ने संसदीय चुनाव में बहुमत हासिल कर लिया है. हालांकि, पिछले चुनाव के मुक़ाबले पार्टी के समर्थन में थोड़ी कमी आई है.
चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली के भी आरोप लगे लेकिन रूस के चुनाव आयोग ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया.
संसदीय चुनाव में अधिकतर वोटों की गिनती हो चुकी है. पुतिन की यूनाइटेड रशिया पार्टी को करीब 50 फ़ीसदी वोट हासिल हुए हैं. पिछले चुनाव के मुक़ाबले पार्टी को मिले वोट थोड़े घटे हैं. 2016 में पुतिन की पार्टी को 54%वोट मिले थे.
राष्ट्रपति पुतिन के कटु आलोचकों को चुनाव में हिस्सा नहीं लेने दिया गया था. चुनाव के दौरान धांधली की रिपोर्टें भी सामने आईं थीं.
चुनाव आयोग के मुताबिक दूसरे नंबर पर रही कम्युनिस्ट पार्टी को करीब 19 फ़ीसदी वोट मिले हैं. कम्युनिस्ट पार्टी के वोट आठ प्रतिशत बढ़े हैं.
अधिकारियों का कहना है कि देश की 450 सीटों वाली संसद में पुतिन की पार्टी को दो तिहाई से ज़्यादा बहुमत हासिल होगा.
वैसे राष्ट्रपति पुतिन के सत्ता में आने के बाद रूस में चुनाव नाममात्र के ही रह गए हैं, क्योंकि देश के राजनीतिक समीकरणों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है.
समाचार एजेंसी एपी के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गेन्नादी ज़्यूगानोव ने चुनाव में बड़े पैमाने पर अनियमितता का आरोप लगाया है .
समझा जाता है कि जेल में बंद पुतिन के आलोचक ऐलेक्सी नवेलनी के लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों और रूस के जीवन स्तर को लेकर जताई जाने वाली चिंताओं की वजह से पुतिन की पार्टी का समर्थन प्रभावित हुआ है.
मगर रूस के बहुत सारे लोगों में पुतिन अभी भी लोकप्रिय हैं जिन्हें लगता है कि वो पश्चिम की चुनौती के सामने डटे रहे हैं और उन्होंने देश का गौरव बढ़ाया है.
रूस के चुनाव में इस बार कई शहरों में पहली बार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग हुई.
वहीं 1993 के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन के चुनाव पर्यवेक्षक रूसी अधिकारियों की पाबंदियों की वजह से रूस नहीं आए.
एक स्वतंत्र निगरानी संस्था गोलोस का कहना है कि रविवार रात तक मतदान के दौरान अनियमितताओं के 4,500 मामले दर्ज किए गए. रूस इस संस्थान को एक "विदेशी एजेंट" बताता है.
मतदान के दौरान कुछ पुलिस थानों के बाहर लंबी क़तारें दिखाई दीं जिनके वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए. समाचार एजेंसी इंटरफ़ैक्स ने भी ख़बर दी कि पुलिस थानों के बाहर ऐसा ख़ास तौर पर हुआ.
मगर रूस सरकार के एक प्रवक्ता ने इन दावों को ख़ारिज कर दिया कि ये इस बात का संकेत है कि लोगों ने दबाव में आकर वोट दिए.
मगर गोलोस का कहना है कि उनके पास ऐसे कई संदेश आए कि उनसे उनके मालिक जबरन वोट डलवा रहे हैं. (bbc.com)
आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक के पास के पहाड़ों से पिछले छह महीनों से लावा निकल रहा है. अब यह पर्यटन का भी एक बड़ा आकर्षण बन चुका है और अभी तक इसे देखने तीन लाख लोग आ चुके हैं.
सबसे पहले 19 मार्च को रेक्याविक के दक्षिणपश्चिम की तरफ रेक्याविक प्रायद्वीप पर माउंट फगरादाल्सफियाल के पास एक दरार में से लावा निकलना शुरू हुआ था. अब इस प्रस्फुटन को छह महीने पूरे हो गए हैं. पिछले 50 सालों में यह सबसे लंबे समय तक चलने वाला प्रस्फुटन है.
कभी तो यहां से बस धीरे धीरे लावा निकलता रहता है और कभी गर्म पानी के किसी स्त्रोत की तरह नाटकीय रूप से पत्थर भी बाहर निकलने लगते हैं. अब तो यह पर्यटन का एक अहम् आकर्षण बन गया है. आइसलैंड टूरिस्ट बोर्ड के मुताबिक अभी तक इसे देखने तीन लाख लोग आ चुके हैं.
14.3 करोड़ टन लावा
यह आइसलैंड का 20 सालों में छठा प्रस्फुटन है. इसके पहले इस द्वीप के केंद्र-पूर्व में स्थित होलुराउन में इस तरह का प्रस्फुटन देखने को मिला था, जो अगस्त 2014 से फरवरी 2015 के अंत तक चला था. ज्वालामुखी विशेषज्ञ थोरवल्डुर थोरडार्सन ने बताया, "छह महीनों तक चलना एक काफी लंबा प्रस्फुटन है."
इस बार जो लावा क्षेत्र बना है उसे माउंट फगरादाल्सफियाल के नाम पर "फगरादालश्राउन" नाम दिया गया है, जसका मतलब है "लावा की एक सुंदर घाटी". अभी तक करीब 14.3 करोड़ टन लावा बाहर निकल चुका है. हालांकि तुलनात्मक रूप से यह काफी कम मात्रा है.
होलुराउन प्रस्फुटन के बाद जितना लावा निकला था यह उसके एक दहाई से भी कम है. उस प्रस्फुटन में इतना लावा निकला था जितना आइसलैंड में 230 सालों में नहीं निकला था.
इंस्टिट्यूट ऑफ अर्थ साइंस में भूवैज्ञानी हाल्दोर गैरसन ने बताया कि ताजा प्रस्फुटन "एक तरह से ख़ास हैं क्योंकि इसमें तुलनात्मक रूप से रसाव बरकरार रहा है और यह मजबूती से चलता ही जा रहा है."
उनका कहना है, "आइसलैंड के ज्वालामुखियों के बारे में हमें जो मालूम है उसके हिसाब से सामान्य रूप से उनके प्रस्फुटन की शुरुआत बड़ी तेजी से होती है, फिर धीरे धीरे वो कम होता जाता है और फिर रुक जाता है."
चार साल तक चला प्रस्फुटन
देश का सबसे लंबा प्रस्फुटन 50 सालों से भी पहले हुआ था. यह दक्षिणी तट के करीब सुर्तसी द्वीप पर हुआ था और नवंबर 1963 से लेकर जून 1967 तक लगभग चार साल तक चला था.
मौजूदा प्रस्फुटन शुरूआती नौ दिनों के बाद कम हो गया था लेकिन सितंबर में लावा फिर सामने आया. ज्वालामुखी के मुंह में से अक्सर लाल रंग का गर्म लावा निकलता. बीच बीच में उसमें से धुएं का एक शक्तिशाली गुबार भी निकलता.
वो ठोस हो चुकी सतह के नीचे आग की सुरंगों में जमा भी हो गया. उसे ऐसे पॉकेट बने जो अंत में ढह गए और एक लहर की तरह बह गए. इस नजारे को देखने आने वालों की संख्या संभव है तीन लाख से भी ज्यादा हो, क्योंकि गिनती प्रस्फुटन शुरू होने के पांच दिनों बाद शुरू की गई थी.
पहले महीने में 10 दरारें खुलीं जिनसे सात छोटे छोटे मुंह बने. इनमें से अब सिर्फ 2 नजर आते हैं. ज्वालामुखी का एक ही मुंह अभी भी सक्रीय है. इंस्टिट्यूट ऑफ अर्थ साइंस के मुताबिक यह 1100 फुट चौड़ा है और इस इलाके के सबसे ऊंचे पहाड़ से सिर्फ कुछ दर्जन फुट छोटा.
हालांकि ज्वालामुखी अभी भी शांत होने का कोई संकेत नहीं दे रहा है. गैरसन ने बताया, "यह प्रस्फुटन जिस भी कुंड से हो रहा है लगता है उसमें अभी भी मैग्मा मौजूद है. हो सकता है यह लंबे समय तक चले. (dw.com)
सीके/एए (एएफपी)
कनाडा के चुनावों में प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की एक बार फिर जीत संभव है, लेकिन उनका संसद में बहुमत हासिल कर पाना मुश्किल लग रहा है. क्या चुनावों को समय से पहले कराने का उनका दांव रंग लाएगा?
ट्रूडो अल्पमत की सरकार चला रहे हैं जिसकी वजह से वो दूसरी पार्टियों पर निर्भर हैं. इस निर्भरता की वजह से उन्हें अपनी नीतियों पर समझौता भी करना पड़ा है. पिछले महीने ओपिनियन पोल में वो दूसरी पार्टियों से काफी आगे चल रहे थे, जिसकी वजह से उन्होंने चुनावों को तय समय से दो साल पहले ही कराने का ऐलान कर दिया.
उनका कहना था कि उनकी लेफ्ट-ऑफ-सेंटर लिबरल सरकार का कोविड-19 महामारी से निपटने में कैसा प्रदर्शन रहा इस पर जनता की मुहर की जरूरत है. लेकिन चुनाव जल्दी कराने के फैसले से लोग खुश नहीं हुए और धीरे धीरे उन्होंने अपनी बढ़त को गंवा दिया.
मजबूत नेतृत्व का लक्ष्य
लिबरल रणनीतिकार भी मान रहे हैं कि हाउस ऑफ कॉमन्स की 338 सीटों में से अधिकतर को जीतना मुश्किल होगा. 49-वर्षीय ट्रूडो की सरकार ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ने में रिकॉर्ड दर्जे का ऋण ले लिया. हाल के दिनों में उन्होंने सबके टीकाकरण पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
वो वैक्सीन को अनिवार्य बनाने में विश्वास रखते हैं जबकि कंजर्वेटिव पार्टी के 48-वर्षीय नेता एरिन ओ'टूल रैपिड टेस्टिंग को वरीयता देते हैं. 19 सितंबर को चुनावी अभियान का आखिरी दिन था और इस दिन ट्रूडो ने पूरे देश में 4,500 किलोमीटर लंबी यात्रा की.
उन्होंने ओंटारियो के नियाग्रा फॉल्स में अपने समर्थकों को बताया, "हमें एक स्पष्ट, मजबूत नेतृत्व की जरूरत है जो बिना किसी आना कानी के टीकाकरण को आगे बढ़ाता रहे और हम यही करेंगे. मिस्टर ओ'टूल ऐसा नहीं कर सकते और करेंगे भी नहीं."
ट्रुडो अगर वकई बहुमत हासिल नहीं कर पाते हैं तो इससे उनके भविष्य पर सवाल उठेंगे. वो एक करिश्माई और प्रगतिशील राजनेता हैं और लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे लिबरल नेता पिएरे ट्रूडो के बेटे हैं. वो 2015 में सत्ता में आए थे, लेकिन 2019 में चेहरे पर काला रंग पोते हुए उनकी पुरानी तस्वीरों के सामने आने के बाद उनकी सरकार अल्पमत में आ गई.
नाराज हैं मतदाता
पोल में सामने आया है कि लिबरल और कंजर्वेटिव दोनों को बराबर लोकप्रियता हासिल है, जिसकी वजह से सैद्धांतिक रूप से ट्रूडो को बढ़त मिलनी चाहिए, क्योंकि शहरी केंद्रों में लिबरल पार्टी मजबूत है. अधिकतम सीटें शहरी केंद्रों में ही हैं.
एक लिबरल रणनीतिकार ने बताया, "यह निश्चित रूप से काफी करीबी लड़ाई है. क्या बहुमत संभव है? हां. क्या इसकी सबसे ज्यादा संभावना है? नहीं." लिबरल यह मान रहे हैं कि जल्दी चुनाव कराने की वजह से मतदाता खुश नहीं हैं. जब भी मतदान कम होता है तो उसका फायदा कंजर्वेटिव पार्टी को मिलता है.
दोनों पार्टियां मतों के विभाजन का भी सामना कर रही हैं जिसकी वजह से मामला और पेचीदा हो गया है. लिबरलों की वाम की तरफ झुकाव वाले न्यू डेमोक्रैट्स से भी टक्कर है और दूसरी तरफ टीकाकरण का विरोध करने वाली दक्षिणपंथी पीपल्स पार्टी ऑफ कनाडा (पीपीसी) कंजर्वेटिव पार्टी को नुकसान पहुंचा सकती है.
ट्रूडो ने सार्वजनिक रूप से सजग रुख अपनाया है और बहुमत के सवाल से बचते रहे हैं. उन्होंने मोंट्रियल में पत्रकारों को बताया, "मैं चाहता हूं कि पूरे देश में जितने संभव हों उतने लिबरल जीतें क्यों हमें एक मजबूत सरकार की जरूरत है."
लेकिन निजी तौर उनके साथी खुल कर बात कर रहे हैं. एक का कहना है, "आप महामारी में चुनाव फिर से एक अल्पमत की सरकार पाने के लिए तो नहीं कराते हैं."(dw.com)
सीके/एए (रॉयटर्स)
हमजा अमीर
इस्लामाबाद, 20 सितम्बर | पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में पुलिस ने इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान (आईईए) का झंडा फहराने के लिए एक बेहद संवेदनशील मदरसा के प्रभावशाली कट्टरपंथी मौलवी के खिलाफ मामला दर्ज किया है।
जाने-माने कट्टरपंथी मौलवी और तालिबान के मुखर समर्थक मौलाना अब्दुल अजीज ने इस्लामाबाद में महिलाओं के लिए एक धार्मिक स्कूल जामिया हफ्सा मदरसा पर तालिबान का झंडा फहराया।
जानकारी के अनुसार, मदरसे से झंडा हटाने से इनकार करने पर पुलिस ने अजीज के खिलाफ देशद्रोह और आतंकवाद का मामला दर्ज किया है। अधिक जानकारी से पता चला कि अजीज और उसके समर्थकों ने पुलिस को इमारत में प्रवेश करने से रोक दिया था। हालांकि बाद में राजधानी के उपायुक्त ने ट्वीट कर इस बात की पुष्टि की कि झंडा हटा दिया गया है, इलाके को खाली करा लिया गया है और मौलवी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया है।
तालिबान के लिए अजीज का खुला समर्थन एक खुले रहस्य की तरह ही है, क्योंकि 2007 में अल-कायदा के साथ घनिष्ठ संबंध रखने और जामिया हफ्सा और लाल मस्जिद में एक विद्रोही समूह का नेतृत्व करने के लिए उन्हें दो साल की जेल की सजा दी गई थी।
2007 में एक बड़ा ऑपरेशन किया गया था, जिसमें अजीज के छोटे भाई समेत दर्जनों लोग मारे गए थे।
अजीज तालिबान के खुले तौर पर समर्थक बने हुए हैं और उनकी ओर से देश में इस्लामिक शरिया प्रणाली लागू करने की मांग की जा रही है। तालिबान के साथ उनकी संबद्धता और आत्मीयता को इस तथ्य से अच्छी तरह से स्थापित किया जा सकता है कि लाल मस्जिद में एक पुस्तकालय का नाम मारे जा चुके अंतर्राष्ट्रीय आतंकी अलकायदा सुप्रीमो ओसामा बिन लादेन के नाम पर रखा गया है, जो उसे शहीद के रूप में सम्मान के तौर पर दिखाता है।
लाल मस्जिद 2007 के हमले के बाद से बंद है। हालांकि, अजीज अपनी मांगों और तालिबान के समर्थन के बारे में हमेशा से ही स्पष्ट रहे हैं।
अजीज को अभी भी लोगों का व्यापक समर्थन प्राप्त है। हालांकि, 2007 के बाद से, उसे लाल मस्जिद में उपदेश देने की अनुमति नहीं दी गई है।
अजीज ने एक बयान में कहा, "हमने पहले भी पाकिस्तान में इस्लामी शासन प्रणाली की स्थापना के लिए काम किया है और हम अपने प्रयास जारी रखेंगे।"
ताजा घटना ने उस समर्थन पर गंभीर चिंता जताई है जो अजीज जैसे मौलवी तालिबान को प्रदान करते हैं, क्योंकि उनके पास बड़े पैमाने पर अनुयायी हैं और अधिकांश हजारों छात्रों के साथ विशाल मदरसा चला रहे हैं।
इस साल अगस्त में अफगानिस्तान के तालिबान के अधिग्रहण को पाकिस्तान में कई लोगों से जश्न की प्रतिक्रिया मिली है। स्थानीय लोगों, मौलवियों और यहां तक कि कुछ राजनेताओं ने पड़ोसी देश के घटनाक्रम पर खुशी व्यक्त की है, जिसे वे नाटो और संयुक्त राज्य अमेरिका का एक बड़ा नुकसान कहते हैं।
यह भावना और तालिबान के लिए एक अचिह्न्ति समर्थन, तालिबान समर्थक हंगामे या हमले की संभावनाओं का मुकाबला करने की चुनौती को पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के लिए और भी कठिन बना देता है। (आईएएनएस)
मॉस्को, 20 सितम्बर | रूस की पर्म स्टेट यूनिवर्सिटी के सभी भारतीय छात्र सुरक्षित हैं, जहां सोमवार को एक बंदूकधारी के हमले में कम से कम आठ लोगों की मौत हो गई और 24 अन्य घायल हो गए। भारतीय दूतावास ने यह जानकारी दी। रूस में भारत के दूतावास ने एक बयान में कहा, "रूस के पर्म स्टेट यूनिवर्सिटी में हुए भीषण हमले से स्तब्ध हैं। लोगों की जान जाने की घटना पर हम गहरी संवेदना व्यक्त करते हैं और घायलों के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हैं। दूतावास स्थानीय अधिकारियों, भारतीय छात्रों के प्रतिनिधियों के संपर्क में है। पर्म स्टेट मेडिकल में सभी भारतीय छात्र सुरक्षित हैं।"
पर्म स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी (2020-21) के लिए छात्रों का एक हालिया बैच 29 अगस्त को नई दिल्ली से रवाना हुआ था।
यह रूस में सबसे पुराने में से एक विश्वविद्यालय है, जो कि पर्म में स्थित है। पर्म मास्को से लगभग 1,300 किमी पूर्व में स्थित है।(आईएएनएस)
काबुल के अंतरिम मेयर ने कहा है कि शहर की कामकाजी महिलाएं घर पर ही रहें. उन्होंने कहा कि महिलाओं को सिर्फ उसी काम की अनुमति होगी जो पुरुष नहीं कर सकते.
कामकाजी महिलाओं को लेकर तालिबान ने 19 सितंबर को एक नया आदेश जारी किया है. तालिबान का कहना है कि महिलाओं को सिर्फ वही काम करने की इजाजत होगी जो पुरुष नहीं कर सकते हैं. यह फैसला अधिकतर महिला कर्मचारियों को काम पर लौटने से रोकेगा.
शहर की अधिकांश महिला श्रमिकों को वापस काम पर जाने से रोकने का फैसला एक और संकेत है कि तालिबान इस्लाम की कठोर व्याख्या को लागू कर रहा है, जबकि उसने सहिष्णु और समावेशी सरकार का वादा किया था. तालिबान नेताओं ने महिला अधिकारों को लेकर अब तक यही कहा है कि महिलाओं को शरिया कानून के दायरे में आजादी दी जाएगी.
अंतरिम मेयर हमदुल्लाह नामोनी ने अपनी नियुक्ति के बाद पहली बार पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए रविवार को कहा कि पिछले महीने तालिबान के सत्ता पर काबिज होने से पहले शहर में करीब तीन हजार महिला कर्मचारी थीं और वे सभी विभागों में काम करती थी. नामोनी ने कहा कि महिला कर्मियों पर अगला फैसला होने तक उन्हें घर पर ही रहना होगा.
महिला अधिकारों को सीमित करता तालिबान
पिछली बार जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर 1996-2001 के बीच राज किया, लड़कियों को स्कूल जाने की इजाजत नहीं थी और महिलाओं के काम करने पर कड़ी पाबंदियां लगी हुई थीं. धार्मिक पुलिस को बहुत ज्यादा ताकत हासिल थी और वे किसी को भी नियम तोड़ने के आरोप में कोड़े लगा सकते थे.
हाल के दिनों में नई तालिबान सरकार ने लड़कियों और महिलाओं के अधिकारों को वापस लेते हुए कई फरमान जारी किए हैं. इसमें मिडिल और हाई स्कूल की छात्राओं से कहा कि वे फिलहाल स्कूल नहीं लौट सकतीं, जबकि उसी ग्रेड के लड़कों के लिए पिछले सप्ताह के अंत में स्कूल खोल दिए गए.
विश्वविद्यालय की महिला छात्रों से कहा गया कि वे लड़कों से अलग हटकर बैठेंगी. साथ ही उन्हें सख्त इस्लामी ड्रेस कोड का पालन करने को कहा गया है. अमेरिका के समर्थन वाली पिछली सरकार में अधिकतर स्थानों पर विश्वविद्यालयों में सह शिक्षा थी.
महिलाओं की मांग
तालिबान ने 17 सितंबर को ही महिला मामलों के मंत्रालय को बंद कर दिया और इसके बदले 'सदाचार प्रचार एवं अवगुण रोकथाम' मंत्रालय बनाया, जिसका काम इस्लामी कानून लागू करना है.
रविवार, 19 सितंबर को एक दर्जन से अधिक महिलाओं ने मंत्रालय के बाहर प्रदर्शन किया और महिलाओं की भागीदारी की मांग की. एक तख्ती पर लिखा था, "जिस समाज में महिलाएं सक्रिय नहीं होती हैं, वह समाज बेजान होता है."
तालिबान को अफगानिस्तान पर काबिज हुए महीनाभर से ज्यादा हो गया है. इस दौरान बड़े शहरों में लगभग रोज विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. देशभर में कई जगहों पर छोटे-छोटे समूहों में इस तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं. आमतौर पर महिलाएं इन प्रदर्शनों की अगुआ होती हैं. ये छोटे-छोटे प्रदर्शन तालिबान के लिए बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं.
एए/सीके (एपी, रॉयटर्स)
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के गठबंधन से नाराज फ्रांस ने एक के बाद एक कई ऐसे कड़े कदम उठाए हैं जो पश्चिमी देशों की एकता में दरार की तरह दिखाई दे रहे हैं.
डॉयचे वेले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से अपने राजदूतों को वापस बुलाने के बाद अब फ्रांस ने ब्रिटेन के साथ होने वाली विदेश मंत्री स्तरीय बैठक रद्द कर दी है. यह बैठक इसी हफ्ते होनी थी लेकिन समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि ऑस्ट्रेलिया के साथ ब्रिटेन और अमेरिका के समझौते से नाराज फ्रांस ने बैठक रद्द करने का फैसला किया.
बताया जाता है कि फ्रांस की रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली ने अपने ब्रिटिश समकक्ष बेन वॉलेस से न मिलने का फैसला खुद किया. इस बारे में ब्रिटिश रक्षा मंत्रालय ने कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है.
इस बीच फ्रांस सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा है कि अमेरिका और फ्रांस के नेताओं के बीच आने वाले दिनों में फोन पर बातचीत होगी.
क्यों नाराज है फ्रांस?
फ्रांस ऑस्ट्रेलिया के साथ करीब 90 अरब डॉलर का समझौता रद्द किए जाने से नाराज है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और युनाइटेड किंग्डम ने मिलकर एक नया रक्षा समूह बनाया है जो विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित होगा. इस समूह के समझौते के तहत अमेरिका और ब्रिटेन अपनी परमाणु शक्तिसंपन्न पनडुब्बियों की तकनीक ऑस्ट्रेलिया के साथ साझा करेंगे.
इस कदम को क्षेत्र में चीन की बढ़ती सक्रियता के बरअक्स देखा जा रहा है. नए समझौते के तहत अमेरिका परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी बनाने की तकनीक ऑस्ट्रेलिया को देगा जिसके आधार पर ऐडिलेड में नई पनडुब्बियों का निर्माण होगा. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के एक प्रवक्ता ने बताया कि नए समझौते के चलते फ्रांस की जहाज बनाने वाली कंपनी नेवल ग्रुप का ऑस्ट्रेलिया के साथ हुआ समझौता खत्म हो गया है.
नेवल ग्रुप ने 2016 में ऑस्ट्रेलिया के साथ समझौता किया था जिसके तहत 40 अरब डॉलर की कीमत की पनडुब्बियों का निर्माण होना था, जो ऑस्ट्रेलिया की दो दशक पुरानी कॉलिन्स पनडुब्बियों की जगह लेतीं.
फ्रांस ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन पर पीठ में छुरा भोंकने का आरोप लगाते हुए कहा कि वह अपने पूर्ववर्ती डॉनल्ड ट्रंप की तरह व्यवहार कर रहे हैं. फ्रांस के विदेश मंत्री ला ड्रियां ने एक रेडियो स्टेशन से कहा, "यह क्रूर है, एकतरफा है और अप्रत्याशित है. यह फैसला मुझे उसी सब की याद दिलाता है जो ट्रंप किया करते थे."
ऑस्ट्रेलिया को पछतावा नहीं
फ्रांस का दावा है कि इस समझौते से पहले उससे सलाह-मश्विरा नहीं किया गया. फ्रांस के विदेश मंत्री ज्याँ-इवेस ला ड्रिआँ ने कहा है कि ऑस्ट्रेलिया ने आकुस के ऐलान से जुड़ीं अपनी योजनाओं के बारे में उनके देश को सिर्फ एक घंटा पहले बताया.
टीवी चैनल फ्रांस 2 को ला ड्रिआँ ने कहा, "असली गठजोड़ में आप एक दूसरे से बात करते हैं, चीजें छिपाते नहीं हैं. आप दूसरे पक्ष का सम्मान करते हैं और यही वजह है कि यह एक असली संकट है."
हालांकि ऑस्ट्रेलिया का कहना है कि उसने कई महीने पहले समझौते को लेकर फ्रांस से अपनी चिंताएं साझा की थीं. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने माना है कि उन्होंने आकुस के ऐलान से कुछ घंटे पहले फ्रांसीसी राष्ट्रपति से बात करने की कोशिश की थी.
उन्होंने कहा कि उन्होंने बुधवार रात करीब 8.30 बजे इमानुएल माक्रों को फोन किया था. हालांकि दोनों के बीच बातचीत हुई या नहीं, यह उजागर नहीं किया गया है.
समाचार चैनल एबीसी के मुताबिक ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा, "उनके पास यह जानने की हर संभव वजह थी कि हम हमलावर श्रेणी की पनडुब्बी की क्षमताओं को लेकर इसलिए चिंतित थे क्योंकि यह हमारे रणनीतिक हितों पर खरी नहीं उतर रही थी. मुझे ऑस्ट्रेलियाई हितों को प्राथमिकता देने के फैसले पर कोई पछतावा नहीं है." (dw.com)
ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका ने मिलकर एक सामरिक मंच बना लिया है. इस मंच के ऐलान से कुछ देश खुलेआम तो कुछ अंदर ही अंदर नाराज हैं. क्या इस मंच से कुछ सकारात्मक हासिल कर पाएंगे ये तीन देश?
डॉयचे वेले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट
आखिरकार जिसका डर था वही हुआ. चीन की बढ़ती ताकत और उसके आक्रामक और यदा-कदा हिंसात्मक रवैये के नाम पर लामबंद हो रहे पश्चिमी देशों और उनके जापान और भारत समेत तमाम एशियाई सहयोगी देशों के लिए ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंग्डम-अमेरिका (आकुस) का त्रिपक्षीय गठबंधन एक आश्चर्यजनक खबर बनकर उभरा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के बीच इसी हफ्ते हुई ऑनलाइन वार्ता के दौरान इस त्रिपक्षीय सहयोग मंच का ऐलान किया गया.
देखा जाए तो यह तीनों ही देश एक दूसरे के साथ कई तरह के सामरिक, सैन्य और कूटनीतिक सहयोग के विभिन्न मोर्चों पर पिछली आधी सदी से भी ज्यादा से काम कर रहे हैं. ऐसे में एक नए मोर्चे का उद्घाटन कहीं गैरजरूरी तो कहीं बेवजह की चौधराहट दिखाने का जरिया ही लगता है.
कई देश खफा
हालांकि इस नए त्रिपक्षीय मंच के काफी पहलुओं पर अभी रोशनी पड़नी बाकी है लेकिन फिलहाल इतना साफ है कि प्रतिद्वंद्वी चीन के अलावा इस सहयोग ने इन तीनों पश्चिमी देशों के बड़े यूरोपीय सहयोगी, संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद के पांच सदस्यों में से एक, और इंडो-पैसिफिक में अच्छा दखल रखने वाले देश फ्रांस को भी खफा कर दिया है. यूरोपीय संघ के बाकी देशों को भी यह बात नाराज न करे तो पसंद तो नहीं ही आएगी.
आकुस की शिखर वार्ता के तुरंत बाद आये फ्रांस के विदेश मंत्री ज्याँ-वे ले ड्रिआँ के वक्तव्य ने साफ कर दिया है कि फ्रांस अमेरिका और ब्रिटेन के इस कदम को पीठ में छुरा घोंपने जैसा मानता है. चीन ने भी इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
चीन का मानना है कि इस कदम से अमेरिका ने क्षेत्रीय राजनीति को एक जीरो-सम गेम या यूं कहें कि एक ऐसे राजनीतिक अखाड़े में बदल दिया है जिसमें एक पक्ष का हारना तय है.
चीन की चिंताओं के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि उससे प्रतिस्पर्धा और तनातनी के बीच अमेरिका एक के बाद एक नया सामरिक इंद्रजाल बिछाता जा रहा है. इस दौड़ में चीन कहीं न कहीं अब कमजोर भी होता जा रहा है. हालांकि चीन भी आसानी से हार मानने वाला नहीं है.
यूरोपीय राजनीति से भी जुड़े हैं तार
आकुस के इस अप्रत्याशित ऐलान का वक्त भी खासा दिलचस्प है. सबसे बड़ी बात तो यही है कि यूरोपीय संघ की इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटिजी के ऐलान से ठीक एक दिन पहले ब्रिटेन के इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में इस सामरिक कदम उठाने के तार सीधे तौर पर यूरोपीय राजनीति से जुड़े हैं
ब्रेक्जिट के बाद से ही अलग-थलग महसूस कर रहे ब्रिटेन ने ग्लोबल ब्रिटेन-आसियान में डायलॉग पार्टनर के ओहदे और तमाम छोटे बड़े व्यापार समझौते कर अपनी प्रासंगिकता साबित करने की कोशिश की है.
फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ के इंडो-पैसिफिक में तेजी से पैठ बनाने से ब्रिटेन की कूटनीतिक और सामरिक गतिविधियां बढ़ी हैं. लेकिन इस जल्दबाजी में लिए कदम में ब्रिटेन की अलग-थलग पड़ने की बेचैनी बहुत बड़ा कारक है.
शायद ब्रिटेन को इस बात का अंदाजा जल्दी ही हो भी जाएगा. दक्षिणपूर्व एशिया के कई देश अभी भी ब्रिटेन को अमेरिका से अलग एक मजबूत और भरोसेमंद पार्टनर के तौर पर देखते थे, पर अब वैसा होना मुश्किल होगा.
कहीं न कहीं ब्रिटेन को अभी भी लगता है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र खास तौर पर दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में फ्रांस की बढ़ती मौजूदगी उसके लिए अच्छी नहीं होगी. भारत और फ्रांस के बीच रक्षा और सामरिक सहयोग भी ब्रिटेन को रास नहीं आया है और अमेरिका को भी यह बात खास अच्छी नहीं लगी है. उस पर ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बीच 2019 में रक्षा करार हुआ. साथ ही हाल में भारत, फ्रांस, और ऑस्ट्रेलिया के बीच त्रिपक्षीय करार हुआ, तो शायद उसे भी एक अलग नजरिये से देखा गया होगा.
फ्रांस और अन्य पश्चिमी सहयोगी
बहरहाल आकुस के जरिये ऑस्ट्रेलिया को आठ परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बियां अमेरिका मुहैया कराएगा. इस निर्णय के साथ ही ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस के साथ हुए करार को रद्द कर दिया है और यही बात फ्रांस को नागवार गुजरी है.
फ्रांस की चिंता सिर्फ पनडुब्बी नहीं है. सवाल है कि अमेरिका ने उसे किनारे कर इस त्रिपक्षीय समझौते को मंजूरी दी. जाहिर है यह बात अब जब निकल पड़ी है तो बहुत दूर तलक जाएगी. मसलन एक सवाल तो लाजिमी है कि क्या ‘फाइव आईज' के बाकी दो साथी - कनाडा और न्यूजीलैंड - इस लायक नहीं थे कि उन्हें आकुस में शामिल किया जाता?
मान लीजिये अपनी परमाणु नीतियों की वजह से ये दोनों देश न भी शामिल होना चाहें तो भी क्या अब ‘फाइव आईज' की उतनी ही महत्ता रहेगी, जितनी पहली थी?
और भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के चार देशों वाले क्वॉड्रिलैटरल सिक्यॉरिटी डायलॉग का क्या, जिसकी शिखर बैठक अगले ही हफ्ते 24 जुलाई को होनी है? आकुस-क्वाड-फाइव आईज- और फ्रांस के साथ त्रिपक्षीय सहयोग के मंचों के बीच कोई सहयोग की गुंजाइश है, या बनाई जाएगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है. इस मुद्दे पर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के कई देशों की राजधानियों में सरगर्मी से चिंतन-मनन हो रहा होगा.
आकुस का आना फिलहाल तो ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली कहावत की और इशारा करता सा दिखता है. खास तौर पर अगर हाल में लिए गए तमाम मिनीलैटरल सहयोग समझौतों को किसी तर्कसंगत क्रम में जोड़ा नहीं गया तो. और फ्रांस के गुस्से के नतीजे तो खैर समय आने पर ही जाहिर होंगे. (dw.com)
चीन के साथ ताइवान का व्यापारिक संबंध दशकों के अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है.
कुछ दिनों पहले चीन ने ताइवान से उसके दो किस्मों की सेबों (शरीफा) को आयात नहीं करने की धमकी दी.
अब ताइवान ने इस मामले को विश्व व्यापार संगठन में ले जाने की धमकी दी है.
दोनों देशों के बीच फलों के व्यापार को लेकर इस ताज़ा छिड़े विवाद में चीन ने ख़तरनाक कीटाणुओं का हवाला देते हुए सेब की इन (शुगर एप्पल और वैक्स एप्पल) दो किस्मों के आयात को रोकने की धमकी दी है.
चीन का कहना है कि उसके यहां की फसलों को इन कीटाणुओं से नुकसान पहुंचने की आशंका है.
चीन के कस्टम विभाग का कहना है कि उसे ताइवान के शुगर एप्पल में प्लानोकोकस माइनर नाम के कीट बार-बार मिले हैं.
इसने अपनी ग्वांगडोंग शाखा और जुड़े हुईं सभी शाखाओं को कस्टम पर इन फलों को रोकने के लिए कहा है.
ताइवान ने क्या कहा?
ताइवान के कृषि मंत्री चेन ची चुंग ने कहा कि यह चीन का बग़ैर किसी वैज्ञानिक कारण बताए एकतरफ़ा व्यवहार है. साथ ही उन्होंने चीन के इस फ़ैसले की आलोचना की.
चेन ने कहा, हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि, "ताइवान ने चीन से कहा है कि अगर वो 30 सितंबर से पहले मौजूदा समस्या का हल ढूंढने की ताइवान के अनुरोध का जवाब नहीं देता तो वह इस मसले को विश्व व्यापार संगठन के समक्ष ले जाएगा."
चेन ने यह भी कहा कि सरकार इससे प्रभावित किसानों की मदद के लिए 100 मिलियन ताइपे डॉलर (3.6 मिलियन अमेरिकी डॉलर) खर्च करेगी.
इसी साल फ़रवरी के महीने में भी चीन ने ताइवान से अनानास ख़रीदने पर 'हानिकारक जीवों' का हवाला देते हुए प्रतिबंध लगाया था. ताइवान ने तब कहा था कि यह उनके देश पर चीन के दबाव बनाने की एक चाल है.
चीन और ताइवान के बीच विवाद
दशकों से चीन की कम्युनिस्ट सरकार का दावा है कि ताइवान एक देश नहीं बल्कि चीन का ही एक प्रांत है. वहीं ताइवान हमेशा इस दावे को ख़ारिज करता रहा है.
चीन में हुए गृहयुद्ध में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को 1949 में हराया था. इसके बाद कॉमिंगतांग ने ताइवान में जाकर अपनी सरकार बनाई.
दूसरे विश्व युद्ध में जापान ने हार के बाद कॉमिंगतांग को ताइवान का नियंत्रण सौंपा था. लेकिन जब कॉमिंगतांग ने वहां अपनी सरकार बनाई तो विवाद यह उठा कि जापान ने ताइवान किसको दिया था.
तब चीन में कम्युनिस्ट सत्ता में थे और ताइवान में कॉमिंगतांग का शासन था.
माओत्से तुंग का मानना था कि चीन में जब जीत उनकी हुई है तो ताइवान पर अधिकार भी उनका ही है जबकि कॉमिंगतांग का कहना था कि बेशक चीन के कुछ हिस्सों में उनकी हार हुई है मगर आधिकारिक रूप से वे ही चीन का प्रतिनिधित्व करते हैं.
इसके बाद से ही दोनों आधिकारिक चीन होने का दावा करने लगे.
लेकिन जब 1971 से चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य हो गया तो 1979 में ताइवान की यूएन में आधिकारिक मान्यता ख़त्म कर दी. इसके बाद ही, चीन के मुक़ाबले ताइवान कमज़ोर पड़ने लग गया.
व्यावहारिक तौर पर ताइवान ऐसा द्वीप है जो 1950 से ही स्वतंत्र रहा है. मगर चीन इसे अपना विद्रोही राज्य मानता है. जहां ताइवान ख़ुद को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र मानता है, वहीं चीन का मानना है कि ताइवान को चीन में शामिल होना चाहिए. (bbc.com)