अंतरराष्ट्रीय
नई दिल्ली, 25 अगस्त| इस्लामाबाद और नई दिल्ली ने लगभग 28 महीने के अंतराल के बाद एक-दूसरे के राजनयिकों को असाइनमेंट वीजा जारी किया है, क्योंकि दोनों पक्ष 2019 से बर्फ पर चल रहे संबंधों को सामान्य बनाने की मांग कर रहे हैं। एक्सप्रेस ट्रिब्यून की रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान और भारत ने हाल के हफ्तों में एक-दूसरे के राजनयिक कर्मचारियों को बड़ी संख्या में असाइनमेंट वीजा जारी किए हैं।
दोनों देशों ने इस साल 15 मार्च तक जमा किए गए सभी आवेदनों पर वीजा जारी किया है।
पाकिस्तान ने 33 भारतीय अधिकारियों को वीजा जारी किया, जबकि सात पाकिस्तानी राजनयिकों को भारत से असाइनमेंट वीजा मिला।
सूत्रों ने कहा कि पाकिस्तान और भारत के बीच 15 जून तक असाइनमेंट आवेदनों पर वीजा जारी करने के लिए एक समझौते की संभावना है।
इसके बाद दोनों देश एक दूसरे के राजनयिकों को और वीजा जारी कर सकते हैं।
सभी देश दूसरे देशों के राजनयिकों और दूतावास के कर्मचारियों को असाइनमेंट वीजा जारी करते हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल जनवरी में, दोनों देशों के शीर्ष खुफिया अधिकारियों ने दुबई में गुप्त वार्ता की, अगले कई महीनों में संबंधों को सामान्य करने के लिए एक मामूली रोडमैप के उद्देश्य से कूटनीति के एक बैक चैनल को फिर से खोल दिया।
बाद में फरवरी में, दोनों देशों की सेनाओं ने अप्रत्याशित संयुक्त युद्धविराम की घोषणा की।
वाशिंगटन में संयुक्त अरब अमीरात के दूत ने अप्रैल में पुष्टि की कि खाड़ी राज्य भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता कर रहा था ताकि परमाणु-सशस्त्र प्रतिद्वंद्वियों को 'स्वस्थ और कार्यात्मक' संबंध तक पहुंचने में मदद मिल सके।
राजदूत यूसेफ अल ओतैबा ने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के हूवर इंस्टीट्यूशन के साथ एक आभासी चर्चा में कहा कि यूएई ने 'कश्मीर को नीचे लाने और युद्धविराम बनाने में एक भूमिका निभाई थी, उम्मीद है कि अंतत: राजनयिकों को बहाल करने और रिश्ते को स्वस्थ स्तर पर वापस लाने के लिए।"
उन्होंने कहा, "हो सकता है कि वे सबसे अच्छे दोस्त न बनें, लेकिन कम से कम हम इसे उस स्तर तक ले जाना चाहते हैं जहां यह काम कर रहा है, जहां यह काम कर रहा है, जहां वे एक-दूसरे से बात कर रहे हैं।"
इस साल मार्च में, एमी स्टाफ के प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने भारत और पाकिस्तान से 'अतीत को दफनाने' और सहयोग की ओर बढ़ने का आह्वान किया। (आईएएनएस)
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद इस्लामिक स्टेट (आईएस) के समर्थन वाले मीडिया समूह हरकत में आ गए हैं. इन मीडिया चैनलों ने इंटरनेट पर तालिबान के ख़िलाफ़ प्रचार के लिए बाक़ायदा ऑनलाइन अभियान लॉन्च कर दिया है.
तालिबान के ख़िलाफ़ आईएस का अभियान 16 अगस्त से ही बढ़ने लगा था, जब तालिबान ने अफ़गानिस्तान के कई हिस्सों पर नियंत्रण के बाद राजधानी काबुल पर क़ब्ज़ा किया था.
तालिबान के ख़िलाफ़ आईएस की यह मुहिम 19 अगस्त से और तेज़ हो गई. इसी दिन इस्लामिक स्टेट ने तालिबान पर अपना आधिकारिक बयान जारी किया और उसे 'अमेरिका का पिट्ठू' बताया.
इस्लामिक स्टेट ने बताया कि अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हुआ है, वो तालिबान नहीं अमेरिका की जीत है. क्योंकि तालिबान इस विचार को आगे बढ़ाने में सफल हो गया है कि चरमपंथी समूहों के लिए आगे का रास्ता बातचीत से होकर जाता है.
आईएस समर्थित मीडिया समूहों ने 16 अगस्त से अब तक 22 प्रोपेगैंडा लेख प्रकाशित किए हैं, जो ज़्यादातर पोस्टर की शक्ल में हैं. इसके साथ ही फ़्रेंच भाषा में अनुवाद किए गए तीन पोस्टर भी हैं. इन पोस्टरों को मैसेजिंग ऐप टेलिग्राम पर आईएस समर्थित सर्वर रॉकेटचैट पर जारी किया गया है.
हालाँकि, इस अभियान का कोई एक हैशटैग नहीं है जैसा कि अब तक देखने में आया है. ऐसे में आने वाले दिनों में इन प्रयासों को संगठित करने के लिए कोई एक हैशटैग सामने आ सकता है. इसी बीच एक आईएस समर्थित मीडिया समूह तलए अल-अंसर अपने पोस्टरों पर Apostate Taliban नाम का हैशटैग इस्तेमाल कर रहा है.
इन प्रोपोगेंडा पोस्टरों के अलावा एक ऐसा वीडियो है, जो इन पोस्टरों से अलग नज़र आता है. इसे एक सीनियर हाई प्रोफ़ाइल आईएस समर्थक प्रोड्यूसर तुर्जुमन अल-असवीर्ती ने पोस्ट किया है.
इस वीडियो में अंग्रेज़ी बोलने वाला एक व्यक्ति दिखता है, जो ये साबित करने की कोशिश कर रहा है कि तालिबान ने अमेरिका के साथ सांठ-गांठ की हुई है. और ये साबित करने के लिए वो सीआईए के इस्लामाबाद स्टेशन के पूर्व प्रमुख रॉबर्ट एल ग्रेनियर की किताब "88 डेज़ टू कंधार" का सहारा लेता है.
ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में तालिबान की ओर से और ज़्यादा दुष्प्रचार शुरू हो सकता है.
हालाँकि, अल-क़ायदा के समर्थकों और इस समूह की यमन शाखा ने तालिबान को उसकी ऐतिहासिक जीत पर बधाई दी. इसके साथ ही कुछ अन्य उदारवादी जिहादी और इस्लामी समूहों ने भी तालिबान का समर्थन किया है.
तालिबान पर आक्रामक आईएस के सोशल मीडिया समर्थक
इस ताज़ा अभियान में आईएस का समर्थन करने वाले मीडिया समूहों के चिर-परिचित संदिग्धों ने हिस्सा लिया है.
ये काफ़ी पुराने यूज़र्स हैं, जैसे अल-बत्तर और तलाए अल-अंसार, अल-मुरहफत, अल-तक़वा, हदम-अल असवार, अल-अदियत और अल-असवीर्ती, जिन्होंने अब तक सबसे ज़्यादा पोस्टर जारी किए हैं. अल-बत्तर, तलाए अल-अंसार जैसे पुराने गुटों ने अब तक सबसे बड़ी संख्या में पोस्टर जारी किए हैं,
19 अगस्त को छपे इस्मालिक स्टेट के तालिबान विरोधी संपादकीय से पहले के पोस्टर तालिबान के कथित धार्मिक उल्लंघनों पर केंद्रित थे.
मीडिया समूहों ने अफ़ग़ानिस्तान में हज़ारा शिया जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए तालिबान के सुलह संदेश की ओर भी इशारा किया. इस्लामिक स्टेट इन्हें विधर्मी कहता है.
आईएस के संपादकीय के बाद जारी किए गए अधिकांश पोस्टर, बड़े पैमाने पर आधिकारिक आईएस लाइन को ही आगे बढ़ाते दिख रहे हैं.
हर मौक़े पर इन आईएस समर्थकों का यही रवैया रहता है. कुछ पोस्टरों ने तालिबान की दोहा में हुई बैठकों या शिया त्योहारों में उनकी मौजूदगी की तस्वीरें भी लगाई गई हैं. इनकी तुलना में आईएस की शरिया को लागू करने वाली तस्वीरें लगाई गई हैं.
कई पोस्टरों ने आईएस के इस संदेह को ज़ाहिर किया गया है कि तालिबान कभी भी अफगानिस्तान में शरिया को पूरी तरह से लागू नहीं करेगा.
कुल मिलाकर, आईएस समर्थकों ने ज़ोर देकर कहा कि अब तालिबान वह समूह नहीं है, जो 20 साल पहले मुल्ला उमर के नेतृत्व में था. ये बदल गया है कि और अब तालिबान इस क्षेत्र में जिहाद को कमज़ोर करने के लिए एक अमेरिकी योजना को गुप्त रूप से लागू कर रहा है.
22 अगस्त को टेलीग्राम और रॉकेटचैट पर आईएस समर्थकों ने एक वीडियो डाला. इसका शीर्षक है- अफ़ग़ानिस्तान, दो योजनाओं के बीच. ये वीडियो तुर्जुमान अल-असवीर्ती की ओर से आया और इसे काफ़ी शेयर किया गया. आईएस समर्थकों ने 19 अगस्त को तालिबान को "एक्सपोज़" करने और नए वीडियो का टीज़र भी जारी किया.
इस वीडियो में रॉबर्ट एल ग्रेनियर के 2001 में देश पर अमेरिकी आक्रमण से पहले तालिबान के साथ एक समझौते पर बातचीत करने के अपने अनुभव साझा करते सुना जा सकता है. ग्रेनियर इस बातचीत में अपनी पुस्तक "88 डेज़ टू कंधार" से भी कई क़िस्से सुनाते हैं.
ग्रेनियर के शब्दों का प्रयोग करते हुए, वीडियो यह निष्कर्ष निकालता है कि तालिबान अपने संस्थापक मुल्ला उमर के दिनों से बदल गया है और अब उसने अमेरिका के साथ सीक्रेट डील करके मुजाहिदीन को धोखा दिया है.
इस वीडियो के एक क्लिप में ग्रेनियर को यह कहते हुए दिखाया गया है कि अमेरिका एक स्थानीय अफ़ग़ान सेना की तलाश में है, जो जिहादियों से लड़ सके और उसे उम्मीद है कि तालिबान उस भूमिका को निभाएगा.
अमेरिका के जाल में तालिबान
वीडियो में अमेरिकी उच्चारण में बोलने वाला एक जिहादी कहता है, "अमेरिका एक नए तालिबान नेतृत्व के माध्यम से अपनी योजना को लागू करने में सफल था. तालिबान का ये नेतृत्व मुल्ला उमर के सिद्धांत के ख़िलाफ़ हो गया है. इस योजना के तहत वे इस्लामिक ख़िलाफ़त की स्थापना को रोकना चाहते है. साथ ही इससे अमेरिका को अफ्रीका, इराक़, सीरिया, और पूर्वी एशिया इस्लामिक स्टेट से लड़ने में आसानी होगी."
इस वीडियो में यही जिहादी अपनी बात कुछ यूँ ख़त्म करता है, "अमेरिका आईएस की योजना के जाल में फँस गया है. अब अमेरिका थकने के बाद युद्ध ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन उसके पास कोई रास्ता नहीं है. हम अमेरिका में जाकर इस पर हमला करेंगे." (bbc.com)
टीवी स्क्रीन, विश्वविद्यालयों से लेकर राष्ट्रीय संसद तक अफगान महिलाओं ने अपनी आवाज सुनाने और अपने चेहरे को दिखाने के लिए संघर्ष करते हुए दो दशक बिताए. लेकिन कुछ ही दिनों में वे जनता की नजरों से ओझल होती नजर आ रही हैं.
15 अगस्त को अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अधिकार संगठन और सहायता संगठन अपनी वेबसाइट से महिला लाभार्थियों, कर्मचारियों और अन्य स्थानीय महिलाओं की तस्वीरें हटा रहे हैं.
एशिया और प्रशांत के लिए संयुक्त राष्ट्र महिला निदेशक मोहम्मद नसीरी कहते हैं, "हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता सुरक्षा सुनिश्चित करनी है और उसमें हमारी टीमों की सुरक्षा भी शामिल है. उन महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा जिनके साथ हम काम कर रहे हैं."
उन्होंने कहा, "(सामग्री) एक बार आश्वस्त होने पर फिर से अपलोड की जाएगी. हम यह देखेंगे कि जमीन पर क्या हो रहा है." उन्होंने अफगानिस्तान में वर्तमान स्थिति को "लैंगिक आपातकाल" के रूप में बताया है.
महिलाओं से जुड़ी सामग्री हट रही
नसीरी ने कहा कि तस्वीरों को हटाने का कदम अस्थायी है और इसका मतलब यह नहीं है कि संगठन अफगान महिलाओं को छोड़ रहा है, लेकिन वह सावधानी बरत रहा है क्योंकि वह तालिबानियों द्वारा हाल के किए गए वादों को सुनिश्चित करना चाहता है. हाल ही में तालिबान ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए वादे किए हैं.
2001 में अमेरिका के हमले के बाद वहां महिलाओं पर अत्याचार बंद हो पाया था. अमेरिकी नेतृत्व वाली विदेशी सेना की वापसी के साथ ही तालिबान ने तेजी से क्षेत्रीय बढ़त हासिल की और अब पूरे देश पर तालिबान का कब्जा है. तालिबान शासन के दौरान महिलाओं को शरीर और चेहरे को बुर्के से ढकने पड़ते थे. उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया और काम नहीं करने दिया जाता था. महिलाएं बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के घर से बाहर नहीं जा सकती थीं.
20 साल की आयु वर्ग की युवतियां तालिबान के शासन के बिना बड़ी हुईं, अफगानिस्तान में इस दौरान महिलाओं ने कई अहम तरक्की हासिल की. लड़कियां स्कूल जाती हैं, महिलाएं सांसद बन चुकी हैं और वे कारोबार में भी हैं. वे यह भी जानती हैं कि इन लाभों का उलट जाना पुरुष-प्रधान और रूढ़िवादी समाज में आसान है.
कुछ अधिकार कार्यकर्ता को चिंता है कि महिलाओं की तस्वीरों को हटाने से अनजाने में सार्वजनिक जीवन से महिलाओं को हटाने की विचारधारा को बल मिल सकता है जिसे तालिबान के 1996-2001 के शासन के दौरान सख्ती से लागू किया गया था.
तालिबान का डर
लेकिन इस डर के बीच कि लोगों को निशाना बनाने के लिए किसी भी डिजीटल पदचिह्न का इस्तेमाल किया जा सकता है. कम से कम पांच अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया कि वे उन तस्वीरों को हटा रहे हैं जो अफगान महिलाओं, बच्चों और कर्मचारियों की पहचान करती हैं.
नाम न बताने की शर्त पर ऑक्सफैम के प्रवक्ता ने कहा, "एहतियात के तौर पर (सामग्री) को सक्रिय रूप से हटा रहे हैं."
पिछले हफ्ते साइट के कुछ समय के लिए ऑफलाइन होने के बाद चैरिटी ने शुक्रवार को अपने अफगानिस्तान पेज के एक संशोधित संस्करण को बहाल कर दिया, जबकि यूएन वीमेन ने अपने स्थानीय पेज को एक बयान के साथ बदल दिया और देश को उन स्थानों की सूची से हटा दिया जहां यह संचालित होता है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि शिक्षाविदों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं समेत हजारों अफगानों को "तालिबान के बदला का गंभीर खतरा है" क्योंकि तालिबान ने एक सप्ताह पहले ही सत्ता पर कब्जा किया है.
एमनेस्टी के एक कार्यकर्ता जिसने अपना नाम नहीं बताया, उसने कहा कि उनके कई सहयोगी छिप गए हैं.(dw.com)
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर में सबसे ऊंचे स्थान पर पहली बार बारिश हुई है. वैज्ञानिकों का मानना है कि कई घंटों तक हुई इस बारिश का कारण जलवायु परिवर्तन ही हो सकता है.
अमेरिका के स्नो ऐंड आइस डाटा सेंटर के मुताबिक बारिश 14 अगस्त को बर्फ में 3,000 मीटर से भी ज्यादा की ऊंचाई पर कई घंटों तक हुई. बारिश के होने के लिए तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से ऊपर या बस थोड़ा सा नीचे होना चाहिए.
ग्रीनलैंड में बारिश का होना इस बात का संकेत है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बर्फ की चादर को बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से कितना खतरा है. डेनिश मीटियोरोलॉजिकल इंस्टिट्यूट के शोधकर्ता मार्टिन स्टेंडल का कहना है,"यह एक एक्सट्रीम घटना है क्योंकि मुमकिन है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ हो. संभव है कि यह ग्लोबल वॉर्मिंग का एक संकेत हो."
असाधारण घटना
उन्होंने बताया कि पिछले 2,000 सालों में बर्फ की चादर पर सिर्फ नौ बार तापमान हिमांक बिंदु से ऊपर बढ़ा है. इनमें से तीन बार तो ऐसा सिर्फ पिछले 10 सालों में ही हुआ है, लेकिन 2012 और 2019 में जब पिछली बार ऐसा हुआ था तब बारिश नहीं हुई थी.
स्टेंडल ने कहा,"हम यह साबित नहीं कर पाए हैं कि उसके पहले बाकी छह बार बारिश हुई थी या नहीं लेकिन इसकी संभावना कम ही है. इस वजह से यह जो बारिश हमने देखी है वो और ज्यादा असाधारण है."
बारिश गर्मियों के ऐसे मौसम के बाद आई जिस दौरान ग्रीनलैंड में नए रिकॉर्ड बनाने वाला 20 डिग्री से ज्यादा तापमान देखा गया. गर्मी की इस लहर के बीच बर्फ की चादर के पिघलने की रफ्तार और बढ़ गई है. चादर का पिघलना कई दशकों पहले शुरू हुआ था लेकिन 1990 में इसकी रफ्तार बढ़ने लगी.
कोलंबिया विश्वविद्यालय की लामों-डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी की ग्लेशियोलॉजिस्ट इन्द्राणी दास का कहना है,"यह बर्फ की चादर के लिए अच्छा संकेत नहीं है. बर्फ पर पानी बुरा होता है...उससे बर्फ की चादर का पिघलना और बढ़ जाता है."
क्यों बुरी है बारिश
पानी ना सिर्फ बर्फ के मुकाबले गर्म होता है, वो और गहरे रंग का भी होता है जिसकी वजह से वो सूरज की रोशनी को प्रतिबिंबित करने की जगह उसे ज्यादा सोख लेता है. बर्फ के पिघलने से जो पानी निकल रहा है वो समुद्र में बह रहा है जिसे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है.
ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर का क्षेत्रफल फ्रांस के कुल क्षेत्रफल से भी तीन गुना ज्यादा बड़ा है. इसमें इतना पानी है कि इसके पिघलने से पूरी दुनिया में समुद्र का स्तर सात मीटर तक बढ़ सकता है.
बर्फ के पिघलने से वैज्ञानिक चिंतित हैं क्योंकि आर्कटिक की बर्फ वैश्विक औसत से ज्यादा रफ्तार से पिघल रही है. जनवरी में छपे एक यूरोपीय अध्ययन के मुताबिक, ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर के पिघलने से समुद्र का स्तर साल 2100 तक 10 से 18 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है. यह रफ्तार पिछले अनुमान से 60 प्रतिशत ज्यादा तेज है.
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पहले ही ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर के पिघलने से निकले हुए पानी ने पिछले कुछ दशकों में दुनिया में समुद्र के स्तर के बढ़ने में 25 प्रतिशत योगदान दिया है. वैश्विक तापमान के बढ़ने से इस योगदान के और बढ़ने की संभावना है. (dw.com)
सीके/वीके (एएफपी/रॉयटर्स)
संयुक्त राष्ट्र, 24 अगस्त | संयुक्त राष्ट्र के वरिष्ठ अधिकारियों ने यमन की स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त की है, जबकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय से नागरिकों और विशेष रूप से युद्धग्रस्त देश में बच्चों की रक्षा के लिए संबंधित पक्षों की मदद करने का आह्वान किया है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की मंगलवार की रिपोर्ट के अनुसार, यह देखते हुए कि पश्चिमी एशियाई देश में छह साल से युद्ध हर चीज पर हावी हो जाता है, संयुक्त राष्ट्र के मानवतावादी प्रमुख मार्टिन ग्रिफिथ ने सोमवार को यमन पर सुरक्षा परिषद की बैठक में कहा कि युद्ध मजबूत है।
उन्होंने कहा कि इस साल अब तक शत्रुता में 1,200 से अधिक नागरिकों के मारे जाने या घायल होने की खबर है।
राजनीतिक और शांति निर्माण मामलों के सहायक महासचिव खालिद मोहम्मद खियारी ने देश की राजनीतिक स्थिति पर चिंता व्यक्त की।
उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से, यमन पर पिछले परिषद सत्र के बाद से कोई और प्रगति नहीं हुई है। पार्टियों को प्रस्तुत चार-सूत्रीय योजना के आधार पर एक समझौते पर पहुंचने के लिए संयुक्त राष्ट्र के चल रहे प्रयासों में, जिसमें एक राष्ट्रव्यापी युद्धविराम, साना हवाईअड्डा खोलना, होदेइदाह बंदरगाह के माध्यम से ईंधन और अन्य वस्तुओं के प्रवाह पर प्रतिबंधों में ढील देना और यमनी पार्टियों के बीच आमने-सामने की राजनीतिक वार्ता फिर से शुरू करना शामिल है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के कार्यकारी निदेशक हेनरीटा फोर ने उसी बैठक में कहा कि छह साल से अधिक समय पहले, वयस्कों ने यमन में युद्ध शुरू किया था। उन्होंने बच्चों पर हिंसक संघर्ष के भयानक टोल को जानने के बावजूद ऐसा किया।
यूनिसेफ प्रमुख ने कहा कि यमन में युद्ध, अब अपने सातवें वर्ष में, दुनिया में सबसे बड़ा मानवीय संकट पैदा कर चुका है, जो एक सार्वजनिक स्वास्थ्य और कोविड -19 महामारी के सामाजिक आर्थिक परिणामों से बदतर है।
खियारी ने सभी पक्षों से नागरिक जरूरतों को प्राथमिकता देने और अर्थव्यवस्था को हथियार बनाने से दूर रहने का आह्वान किया।
फोर ने पार्टियों से बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास करने और उन्हें आग की रेखा से बाहर रखने के लिए अपने कानूनी दायित्वों का पालन करने का आग्रह किया।
यूनिसेफ प्रमुख ने कहा कि मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि स्कूलों, छात्रों और शिक्षकों सहित शिक्षा का सम्मान और सुरक्षा यमनी बच्चों और युवाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। हम शिक्षा के खिलाफ खतरों और हमलों की गंभीरता और आवृत्ति और सेना के लिए स्कूलों के उपयोग के बारे में गंभीर रूप से चिंतित हैं। (आईएएनएस)
लंदन, 24 अगस्त | भारतीय टीम के पूर्व सलामी बल्लेबाज और कप्तान सुनील गावस्कर का कहना है कि टी 20 लीग के जरिए दी जाने वाली वित्तीय सुरक्षा बल्लेबाजों को आजकल विस्फोटक प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है जिसका चलन उनके खेलने के समय में नहीं था। गावस्कर से पूछा गया कि क्या बेहतर सुरक्षात्मक उपकरण बल्लेबाजों को पहले की तुलना में अधिक आक्रामक तरीके से खेलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।
द इंडस एंटरप्रेन्योर्स (टीआईई) लंदन द्वारा आयोजित आशीष रे के साथ एक सार्वजनिक बातचीत में गावस्कर ने कहा, "यह सिर्फ सुरक्षात्मक गियर नहीं है। मुझे लगता है कि टी20 लीग के संदर्भ में उनके पास यही है जिसका वे हिस्सा हो सकते हैं। जब हम खेलते थे उस वक्त जो भी आमदनी हुई, 500 रुपये या जब मैंने क्रिकेट खेलना समाप्त किया, तो टेस्ट मैच के लिए 5,000 रुपये मिलते थे, यह हमारे लिए अतिरिक्त आय थी।"
उन्होंने कहा, "अगर हम अच्छा प्रदर्शन नहीं करते थे तो हमें टेस्ट टीम से बाहर रखा जाता था। हमें अपनी नौकरी पर वापस जाना पड़ता था, टाटा, रेलवे, एयर इंडिया, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया के साथ नौ से पांच की नौकरी करनी पड़ती थी। आज के समय में यह चिंता और डर नहीं है। आपके पास आईपीएल, बिग बैश और द हंड्रेड हैं। बल्लेबाजों को लगता है कि मैं विस्फोटक प्रदर्शन करूं।" (आईएएनएस)
इस्लामाबाद, 24 अगस्त | पाकिस्तान स्थित विभिन्न धार्मिक संगठनों की गहन जांच से पता चलता है कि अफगानिस्तान में तालिबान की जीत के पक्ष में उनके बीच बयानबाजी बढ़ रही है। इस तरह के मजबूत नैरेटिव वास्तव में पाकिस्तान और पूरे क्षेत्र के हितों के लिए हानिकारक हो सकते हैं। जमीयत-ए-उलेमा-ए-इस्लाम (एस) और दीफा-ए-पाकिस्तान काउंसिल के प्रमुख मौलाना हमीद-उल-हक हक्कानी ने तालिबान की जीत को मौलाना सामी-उल-हक की विचारधारा और उनके विचारों की जीत करार दिया।
उन्होंने घोषणा की कि अगले शुक्रवार, 27 अगस्त को वे 'यूम-ए-तशक्कुर' मनाएंगे, जो तालिबान की जीत के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा करने के लिए होगा। मौलाना हामिद ने कहा कि दुनिया को अपनी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था को अफगानिस्तान पर नहीं थोपना चाहिए, क्योंकि तालिबान ने पिछले 20 वर्षों में बहुत कुछ सीखा है। मौलाना हामिद ने मांग की कि दुनिया को तुरंत तालिबान की सरकार को स्वीकार करना चाहिए और राजनयिक संबंधों को पुनर्जीवित करना चाहिए।
मौलाना हामिद जेयूआई के शूरा के एक सत्र के बाद लाहौर प्रेस क्लब में एक सभा को संबोधित कर रहे थे।
मौलाना ने आगे अफगानिस्तान में नवीनतम विकास के लिए अल्लाह को धन्यवाद दिया और कहा कि सभी को माफी की घोषणा करके, तालिबान ने अफगान लोगों का दिल जीत लिया है, विश्व सेना पिछले 40 वर्षों से अफगानिस्तान में खून-खराबा कर रही थी और वहां 20 साल से भारत और अमेरिका की पसंदीदा सरकारें थीं।
उन्होंने उल्लेख किया कि तालिबान ने अपने देश को कब्जे वाले बलों से मुक्त कर दिया है और शांति से काबुल में प्रवेश किया है। उन्होंने कहा कि लोगों ने उनका स्वागत किया है, अगर तालिबान की बातों और कार्यों में विरोधाभास होता तो वे वह जीत नहीं पाते।
इसके अलावा मौलाना हक ने ऐलान किया है कि 2 नवंबर को मौलाना सामी-उल-हक की मौत की याद में लाहौर, कराची और इस्लामाबाद में बड़े सम्मेलन होंगे। इन सम्मेलनों में तालिबान नेताओं को भी आमंत्रित किया जाएगा। इस मौके पर देशभर में रैलियां निकाली जाएंगी।
मौलाना ने कहा कि उन्होंने तालिबान को समर्थन देने के लिए राबता आलमी इस्लामी को धन्यवाद दिया। अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार के सत्ता में आने के बाद अब पाकिस्तान की सीमाएं सुरक्षित हो जाएंगी। हक ने कहा कि वे पाकिस्तान में एक धार्मिक गठबंधन बनाने की कोशिश करेंगे और अगर सभी धार्मिक ताकतें एकजुट हो जाएं तो पाकिस्तान सही मायने में मदीना के राज्य जैसा हो सकता है।
प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले मौलाना हामिद ने जेयूआई के शूरा में कहा था कि वे अफगान मुद्दे पर चर्चा करने और तालिबान को समर्थन देने के लिए धार्मिक और राजनीतिक दलों का एक सत्र बुलाएंगे। सत्र में तालिबान के सामने आने वाली समस्याओं और कठिनाइयों पर ध्यान दिया जाएगा। (आईएएनएस)
काबुल, 24 अगस्त | अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में बैंकों और मुद्रा विनिमय बाजारों के बंद होने से लोगों में चिंता पैदा हो गई है और विशेषज्ञों का मानना है कि इस स्थिति से आर्थिक मंदी आएगी। अफगान मीडिया ने बताया, 15 अगस्त को काबुल में तालिबान की वापसी के साथ, सभी बैंकिंग गतिविधियां बंद कर दी गईं और वे अभी भी बंद हैं।
काबुल बैंक से पैसे निकालने का इंतजार कर रहे एक नाराज व्यक्ति ने कहा कि रोजगार नहीं है और लोगों के पास रोटी खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अगर बैंक बंद रहे और वाणिज्य बंद रहा तो लोग लूटपाट और अन्य अपराध शुरू कर सकते हैं।
फेसबुक यूजर नजला राहिल ने एक पोस्ट में कहा, "हमारे लोगों की सारी संपत्ति बैंकों में है। अब बैंक बंद हैं और कोई मजदूरी भी नहीं ले सकता। यह दुखी देश क्या कर सकता है? उन्हें किससे शिकायत करनी चाहिए?"
अपने खाते से पैसे निकालने के लिए अजीजी बैंक की एक शाखा के सामने कई दिनों तक इंतजार करने वाले शफीकुल्लाह अजीजी ने कहा कि वह पैसे निकालने में असमर्थ हैं, जबकि उन्हें इसकी तत्काल आवश्यकता थी।
उन्होंने कहा कि ऐसी खबरें थीं कि पिछले शनिवार को बैंक फिर से खुलेंगे, लेकिन उन्हें अभी खोला जाना बाकी है।
बैंक के मुख्य मुख्यालय का दौरा करने वाले काबुल के एक अन्य निवासी कैस मोहम्मदी ने पझवोक अफगान न्यूज को बताया कि वह तालिबान के काबुल पर कब्जे के बाद दैनिक आधार पर बैंक का दौरा करते हैं, लेकिन बैंक बंद रहे।
उन्होंने अपनी आर्थिक समस्याओं के बारे में शिकायत की और कहा, "मैं एक सरकारी अधिकारी हूं, सरकार गिरने से दो दिन पहले हमारा वेतन हमारे खातों में स्थानांतरित कर दिया गया था, लेकिन मेरा पैसा बैंक में फंस गया है और मुझे नहीं पता कि क्या करना है मेरे पास रोटी खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं।" (आईएएनएस)
काबुल, 24 अगस्त | अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच व्यापार पिछले एक हफ्ते में 50 फीसदी बढ़ा है क्योंकि अफगानिस्तान की सीमाओं और सूखे बंदरगाहों पर तालिबान का कब्जा है। स्थानीय मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि अफगानिस्तान के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने कहा कि ट्रांजिट में समस्याओं के बावजूद, व्यापार बढ़ गया है।
चैंबर के डिप्टी खान जान अलोकोजई ने कहा कि बैंकों के बंद होने के कारण ट्रांजिट सेक्टर में समस्याएं अभी भी दिखाई दे रही हैं लेकिन अफगानिस्तान के निर्यात और पाकिस्तान के आयात में वृद्धि देखी गई है।
इस बीच, अफगानिस्तान के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इनवेस्टमेंट के सदस्यों ने भी सोमवार 23 अगस्त को तालिबान के सदस्यों के साथ मुलाकात की और निजी क्षेत्र की समस्याओं को साझा किया और तालिबान ने उन्हें हल करने का आश्वासन दिया।
ईरान ने यह भी कहा है कि तालिबान के देश से कहने के बाद से गैस और तेल का निर्यात बढ़ा दिया गया है।
अफगानिस्तान इस्लामिक अमीरात के प्रवक्ता एआईई जबीउल्लाह मुजाहिद ने सोमवार को एक सभा में कहा कि वे आर्थिक स्थिति पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और अपनी तैयार की गई योजनाओं को लागू करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
एक दुर्लभ कदम में, आर्थिक और वित्तीय मामलों के लिए एआईई के आयोग ने सीमा शुल्क को एक और घोषणा तक धातुओं के निर्यात की अनुमति नहीं देने का निर्देश दिया है।
आयोग ने कहा कि विदेशी धातु के लिए कम पैसे दे रहे हैं जबकि आंतरिक कारखानों और कंपनियों को बड़ी मात्रा में उनकी जरूरत है। (आईएएनएस)
अफ्रीकी देश इथियोपिया ने सोशल मीडिया वेबसाइट फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सऐप जैसे मंचों से मुकाबला करने के लिए ऐसे ही घरेलू प्लैटफॉर्म तैयार करना शुरू कर दिया है.
इथियोपिया की सरकारी संचार सुरक्षा एजेंसी ने कहा है कि फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म का मुकाबला करने के लिए घरेलू मंच विकसित किए जा रहे हैं. हालांकि अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट प्रतिबंधित नहीं की जाएंगी.
इथियोपिया में पिछले करीब एक साल से युद्ध जारी है. स्थानीय टिग्रे पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (टीपीएलफ) के बागियों और सरकार के बीच लगातार हिंसक संघर्ष चल रहा है. टीपीएलएफ देश के उत्तर में टिग्रे पर नियंत्रण हासिल कर चुका है और अन्य इलाकों की ओर बढ़ रहा है.
इस हिंसक संघर्ष में दोनों पक्षों के समर्थकों ने अपने अपने प्रचार के लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया है. सरकार चाहती है कि उसके घरेलू मंच फेसबुक, ट्विटर, वॉट्सऐप और जूम जैसी अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट की जगह ले पाएं.
कैसे होगा मुकाबला?
इन्फॉर्मेशन नेटवर्क सिक्यॉरिटी एजेंसी (INSA) के महानिदेशक शुमेटे गीजा का कहना है कि फेसबुक जैसे मंच भेदभाव करते हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि फेसबुक ने ऐसी पोस्ट और अकाउंट डिलीट किए हैं जो इथियोपिया की सच्चाई बयान करते थे.
शुमेटे ने इस बारे में कोई ब्यौरा नहीं दिया कि इन योजनाओं के लिए कितना बजट होगा और कब तक ये वेबसाइट तैयार हो पाएंगी. लेकिन उन्होंने यह जरूर कहा कि देश के पास ऐसे प्लैटफॉर्म तैयार करने की तकनीकी क्षमता है और किसी विदेशी को काम पर नहीं रखा जाएगा. उन्होंने कहा, "स्थानीय क्षमता से तकनीक विकसित करने की वजह साफ है. आपको क्या लगता है कि चीन वीचैट क्यों इस्तेमाल करता है?”
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने सोशल मीडिया बंद करने जैसे कदमों के लिए इथियोपिया की सरकार की आलोचना की है. पिछले एक साल में कई बार फेसबुक और वॉट्सऐप बंद हुए हैं, जिनके बारे में सरकार ने कोई टिप्पणी नहीं की है.
फेसबुक के अफ्रीका में प्रवक्ता केजिया अनीम-अडो ने इथियोपिया की घरेलू प्लैटफॉर्म तैयार करने की योजनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं की. शुमेटे के आरोपों पर भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. ट्विटर और जूम ने भी इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है.
स्टैटिस्टा के मुताबिक 11.5 करोड़ की आबादी वाले देश इथियोपिया में लगभग 60 लाख फेसबुक ग्राहक हैं. लेकिन इसी साल जून में हुए आम चुनाव से पहले फेसबुक ने कहा था कि उसने इथियोपिया में सक्रिय फर्जी खातों के एक नेटवर्क को बंद किया है.
अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनी ने कहा कि इन्फॉर्मेशन नेटवर्क सिक्यॉरिटी एजेंसी से संबंधित लोगों से जुड़े ये फर्जी खाते घरेलू ग्राहकों को निशाना बना रहे थे.
कई देशों में ऐसे मंच तैयार
वीचैट एक चीनी ऐप है जिसे स्थानीय कंपनी टेनसेंट होल्डिंग्स ने बनाया है. यह ऐप देश में बहुधा इस्तेमाल की जाती है. इसे चीन की सरकार द्वारा लोगों पर निगरानी का एक हथियार भी माना जाता है.
भारत में भी ट्विटर के मुकाबले के लिए एक मंच तैयार हुआ है, जिसका नाम कू है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर से संबंध अच्छे नहीं रहे हैं. बीते कुछ महीनों में एक के बाद एक ऐसी कई बातें हुई हैं जिनसे दोनों के रिश्तों में खटास आई है. उसके बाद से कू ने काफी प्रगति की है. कई केंद्रीय और राज्य मंत्री कू को बढ़ावा दे रहे हैं.
वीके/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
अफगानिस्तान से पूरी तरह निकलने के लिए तय की गई 31 अगस्त की तारीख अमेरिका के गले की फांस बन गई है. जो बाइडेन पर तारीख बढ़ाने का दबाव है लेकिन तालिबान ने कह दिया है कि कोई बदलाव बर्दाश्त नहीं होगा.
पश्चिम देश अफगानिस्तान से अपने नागरिकों को वापस लाने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं. काबुल एयरपोर्ट पर भीड़ बढ़ रही है और सुविधाएं इतनी बड़ी संख्या में लोगों को संभालने के लिए उपयुक्त नहीं हैं.
एयरपोर्ट फिलहाल पश्चिमी सेनाओं के नियंत्रण में है लेकिन देश छोड़ने को उत्सुक लोगों के बीच अफरा-तफरी बढ़कर कई बार भगदड़ में बदल चुकी है और गोलीबारी भी हो चुकी है. इस कारण करीब 20 लोगों की जान जा चुकी है.
31 अगस्त की तारीख
अमेरिका ने ऐलान किया था कि उसका 20 साल लंबा अभियान 31 अगस्त को खत्म हो जाएगा और उसके सभी सैनिक अफगानिस्तान छोड़ देंगे. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यह तारीख अप्रैल में घोषित की थी.
लेकिन सभी लोगों को निकालने का काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया है इस कारण बहुत से देश चाहते हैं कि अमेरिका अपनी समयसीमा को 31 अगस्त से बढ़ा दे. जो बाइडेन ने पिछले हफ्ते कहा भी था कि जरूरत पड़ने पर अमेरिकी सैनिक ज्यादा समय तक रुक सकते हैं.
लेकिन तालिबान ने स्पष्ट कर दिया है कि तारीख में किसी तरह का बदलाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और ऐसा होता है तो अमेरिका को नतीजे भुगतने होंगे. तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने अमेरिकी समाचार चैनल स्काई न्यूज को बताया, "अगर अमेरिका और ब्रिटेन लोगों को निकालने के लिए अतिरिक्त समय चाहते हैं तो जवाब है, नहीं. ऐसा नहीं हुआ तो नतीजे भुगतने होंगे.”
बाद में बीबीसी से बातचीत में शाहीन ने कहा कि उचित दस्तावेजों के साथ कोई भी अफगान व्यवसायिक उड़ानों से देश से जा सकता है. शाहीन ने कहा, "यह वजह कोई बहुत वजनदार नहीं है कि बहुत सारे अफगान हैं जो विदेशी सेनाओं के साथ काम करते थे और उन्हें निकाला नहीं जा सका है. 31 अगस्त के बाद यहां रुकना दोहा समझौते का उल्लंघन होगा.”
अमेरिका का रुख
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने उम्मीद जताई है कि तारीख बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. रविवार को उन्होंने कहा कि इस बारे में बातचीत की जा रही है. अमेरिका ने तालिबान के काबुल पर नियंत्रण करने के बाद 37 हजार लोगों को वहां से निकाला है.
पेंटागन के मुख्य प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा कि अमेरिका इस महीने के आखिर तक लोगों को निकालने का काम पूरा करने पर ध्यान दे रहा है. उन्होंने कहा, "हमारा पूरा ध्यान इस महीने के आखिर तक ज्यादा से ज्यादा लोगों को निकाल लेने पर है. और अगर समयसीमा बढ़ाने पर बातचीत की जरूरत पड़ती है तो हम सही समय पर यह बातचीत करेंगे.”
बाइडेन के सुरक्षा सलाहकार जेक सलीवन ने कहा है कि अमेरिका पहले से ही तालिबान से इस बारे में बातचीत कर रहा है. उन्होंने कहा, "हमारी राजनीतिक और रक्षा अधिकारियों के जरिए तालिबान से रोजाना बात हो रही है. लेकिन आखिर में समयसीमा बढ़ाने का फैसला राष्ट्रपति बाइडेन का होगा.”
क्या चाहता है यूरोप?
ब्रिटेन का मानना है कि समयसीमा बढ़ाई जानी चाहिए. ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन मंगलवार को जी-7 की बैठक में अमेरिका से समयसीमा बढ़ाने का अनुरोध करना चाहते हैं. लेकिन ब्रिटेन के सेना मंत्री जेम्स हीपी ने स्काई न्यूज से कहा कि इस बारे में बातचीत जी-7 के नेताओं के बीच नहीं बल्कि तालिबान के साथ होनी है.
फ्रांस ने भी नजदीक आती समयसीमा को लेकर चिंता जताई है और लोगों को सुरक्षित निकालने के लिए ज्यादा समय की जरूरत बताई है. जर्मनी के विदेश मंत्री हाईको मास ने कहा है कि वह नाटो और तालिबान दोनों के साथ बातचीत कर रहे हैं कि काबुल एयरपोर्ट को समयसीमा के बाद भी काम करते रहने दिया जाए.
शनिवार को यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख योसेप बोरेल ने कहा था कि दसियों हजार अफगान कर्मचारियों और उनके परिजनों को 31 अगस्त की समयसीमा से पहले निकालना गणीतीय आधार पर असंभव है.
वीके/एए (रॉयटर्स, एएफपी)
-नेहा शर्मा
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्ज़े के बाद से भारत लगातार लोगों को वहां से निकाल रहा है. भारतीय वायुसेना के विमान अफ़ग़ानिस्तान में फंसे लोगों को निकाल रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में फंसी और वहां से वापस लौटने की राह देख रही एक भारतीय महिला ने हमसे अपने अनुभव साझा किये.
लतीफ़ा (बदला हुआ नाम) ने काबुल से दिल्ली आने के लिए 19 अगस्त की फ़्लाइट बुक की थी. उन्होंने एयर इंडिया की फ़्लाइट से अपने लिए बुकिंग करवायी थी. लेकिन उन्हें क्या पता था कि अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन इतनी तेज़ी से होगा.
तालिबान ने देखते ही देखते महज़ कुछ दिनों में काबुल समेत पूरे अफ़ग़ानिस्तान को अपने कब्ज़े में ले लिया.
उनके कब्ज़ा करते ही सभी कमर्शियल फ़्लाइट्स रद्द कर दी गईं और इसी के साथ एयर इंडिया की वो फ़्लाइट भी कैंसिल हो गई जिससे लतीफ़ा को भारत लौटना था.
अफ़ग़ानिस्तान से लौटे लोग
21 अगस्त की शाम को जब मैंने उनसे बात की तो लतीफ़ा काबुल एयरपोर्ट के बाहर एक मिनी बस के अंदर लगभग 20 घंटे से बिना कुछ खाए-पिए, शौच गए बैठी हुई थीं.
वो लगातार कोशिश में थीं कि कैसे भी करके भारतीय वायु सेना के विमान में सवार हो जाएं.
लतीफ़ा एक भारतीय हैं और उनकी शादी एक अफ़ग़ान से हुई है. वह अक्सर अफ़ग़ानिस्तान आया करती थीं.
भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों ही जगहों पर उनका परिवार है, जिससे मिलने के लिए वो दोनों ही देशों की यात्राएं करती थीं.
15 अगस्त
15 अगस्त की सुबह लतीफ़ा को पता चला कि अफ़ग़ानिस्तान में रातों-रात ज़्यादातर दूतावास बंद हो गए और दूतावास के कर्मचारी जैसे भी संभव हो सके वहां से निकल रहे हैं.
लतीफ़ा के पति चाहते थे कि वह जल्द से जल्द अफ़ग़ानिस्तान से बाहर चली जाएं. इसके पीछे वजह ये थी कि लतीफ़ा एक भारतीय हैं और भारतीय होने के नाते उनकी जान को अधिक ख़तरा था.
लतीफ़ा ने अपना पासपोर्ट और नीला बुर्का लिया और अपने पति के साथ जो भी फ़्लाइट मिल सके उसके बारे में पूछताछ करने, पति और ससुराल वालों के लिए वीज़ा लेने के लिए भारतीय दूतावास गईं.
लतीफ़ा ने बताया,"जब हम भारतीय दूतावास पहुंचे तो ये हमारा सौभाग्य था कि दूतावास अभी बंद नहीं हुआ था. लेकिन तालिबान के कब्ज़े से उपजे हालात का तनाव हवा में साफ़ महसूस किया जा सकता था. वे सभी दस्तावेजों को नष्ट कर रहे थे और कार्रवाइयों से जुड़े पन्नों को जला रहे थे.''
''कर्मचारियों ने हमें बताया कि वे शाम तक काम करेंगे. मैं अपने परिवार के बाकी सदस्यों के लिए वीज़ा लेने पहुंची थी. उन्होंने मुझे शाम तक परिवार के सदस्यों के पासपोर्ट और दूसरे ज़रूर दस्तावेज़ लेकर आने को कहा. उसके बाद मैं घर आ गई."
भारतीय दूतावास से लौटते समय उन्होंने चारों तरफ़ मची अफ़रा-तफ़री को देखा और लोगों की लाचारी को महसूस किया.
उन्होंने बताया, "लोग तालिबन के डर से इधर-उधर भाग रहे थे. मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ रखा था और हम तेज़ क़दमों से अपने घर को जा रहे थे. ऐसा लग रहा था कि पूरा काबुल शहर सड़कों पर उतर आया हो और एयरपोर्ट की ओर भागा जा रहा हो. यह सबकुछ बेहद डरावना था.''
''जब मैं अपने घर पहुंची तो मेरी बिल्डिंग का सिक्योरिटी स्टाफ़ बदल चुका था. जो स्टाफ़ पहले हुआ करता था उनकी यूनिफ़ॉर्म होती थी लेकिन अब जो खड़े थे उन्होंने कुर्ता-पायजामा पहन रखा था. मेरी बिल्डिंग तालिबान के घेरे में थी."
लतीफ़ा और उनके पति ने घर से पासपोर्ट उठाया और उसी शाम दूतावास वापस चले गए. उनकी किस्मत अच्छी थी कि उनके परिवार के बाकी सदस्यों को भी वीज़ा मिल गया.
इसके बाद शुरू हुआ भारत सरकार के विदेश मंत्रालय से उस फ़ोन कॉल का इंतज़ार, जिस पर उनका सबकुछ दांव पर लगा हुआ था. लतीफ़ा भारतीय हैं इसलिए उनका नाम प्रथमिकता सूची में था.
19 अगस्त
लतीफ़ा बताती हैं,"मुझे 19 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय से एक संदेश मिला. मुझे काबुल में एक विशेष स्थान (सुरक्षा कारणों से ख़ुलासा नहीं किया जा सकता) तक पहुंचने को कहा गया. जिन लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से निकलना था, उन्हें उस जगह पर इकट्ठा होना था.''
''मैं अपने पूरे परिवार को पीछे छोड़कर जा रही थी. ये किसी भी तरह से आसान नहीं था. लेकिन मेरे परिवार को मेरी चिंता थी और सबसे अहम बात..हमारे पास कुछ भी सोचने के लिए समय नहीं था. हमसे कहा गया था कि हम सिर्फ़ एक छोटा हैंडबैग लेकर ही आएं. इसलिए मैंने अपना लैपटॉप, हार्ड ड्राइव, फ़ोन, एक पावर बैंक उठाया और घर से निकल गई. "
लतीफ़ा के अलावा उस सेफ़हाउस में लगभग 220 अन्य यात्री भी थे, जो बेसब्री से अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने का इंतज़ार कर रहे थे. इसमें भारतीय मुसलमान, हिंदू, सिख और कुछ अफ़ग़ान परिवार भी थे.
लतीफ़ा बताती है कि उस समय सेफ़हाउस में भी सुरक्षित महसूस नहीं हो रहा था. इसके बाद अगले दो दिन बेहद फ़िक्र और तनाव में गुज़रे.
लतीफ़ा बताती हैं, "वहां कोई व्यवस्था नहीं थी और ना ही हमें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि हमें वहां से कब निकाला जाएगा. सेफ़हाउस के अंदर हमें कोई सुरक्षा नहीं दी गई थी. बल्कि बाहर तालिबान हमारी निगरानी के लिए था ताकि कोई दूसरा उपद्रवी समूह हम पर हमला न कर सके. हम बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे थे. डर इतना हावी था कि हम सो भी नहीं सके. "
20 अगस्त
लतीफ़ा बताती हैं कि 20 अगस्त को रात क़रीब 10 बजे अचानक से वहां से निकालने का आदेश आया. उसी रात क़रीब 10 से 11:30 बजे के बीच हम लगभग 150 यात्री सात मिनी बसों में हवाई अड्डे के लिए रवाना हुए. हर मिनी बस में 21 लोगों के बैठने के लिए सीटें थीं.
लतीफ़ा बताती हैं,"तालिबान हमें सुरक्षा दे रहा था. उनकी एक कार हमारे आगे चल रही थी और दूसरी हमारे पीछे. हम रात क़रीब साढ़े बारह बजे काबुल एयरपोर्ट पहुंचे. अफ़ग़ानिस्तान से बाहर भागने के लिए बड़ी संख्या में लोग एयरपोर्ट के बाहर इंतज़ार कर रहे थे.''
''एक तरफ तालिबान लगातार कई राउंड की फ़ायरिंग कर रहे थे तो दूसरी ओर अमेरिकी सैनिक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए आंसू गैस के गोले दाग रहे थे. हमें उत्तरी गेट पर ले जाया गया, जिसका ज्यादातर इस्तेमाल सेना ही करती है."
भले ही तालिबान ने हमें अपनी निगरानी में हवाई अड्डे तक पहुँचाया हो लेकिन यह लतीफ़ा और बाकी यात्रियों की परीक्षा का अंत नहीं था.
अमेरिकी सैनिक काबुल हवाई अड्डे की निगरानी कर रहे हैं और उन्होंने इन यात्रियों को हवाई अड्डे के अंदर प्रवेश करने से रोक दिया.
इस कारण 20 और 21 अगस्त की रात लतीफ़ा और दूसरे यात्रियों ने बाहर खड़ी बस के अंदर बैठकर गुज़ारी. इस समय तक इन लोगों को इस बारे में कोई सूचना नहीं थी कि आख़िर उन्हें कब बाहर निकाला जाएगा.
लतीफ़ा बताती हैं, "हमारे साथ बच्चे, महिलाएं और बीमार लोग थे. हम सचमुच सड़क पर फंसे हुए थे. कुछ महिलाओं के पीरियड्स चल रहे थे लेकिन आसपास शौचालय की सुविधा नहीं थी. हम एक खुली जगह पर बैठे हुए थे जहां कोई भी हम पर हमला कर सकता था. "
21 अगस्त
लतीफ़ा और उनके साथ के दूसरे यात्रियों के लिए यह एक मुश्किल रात थी. लेकिन सुबह और डरावनी होने वाली थी.
वो बताती हैं, "सुबह क़रीब 9:30 बजे तालिबान लड़ाके हमारी बसों में आ गए और हमारे को-ऑर्डिनेटर से पूछताछ करने लगे. उन्होंने उनका फ़ोन छीन लिया और उन्हें थप्पड़ मार दिया. हमें पता नहीं चल रहा था कि आख़िर क्या हो रहा है."
उन सात बसों में सवार सभी यात्रियों को तालिबान लड़ाके अपने साथ एक अज्ञात जगह पर ले जा रहे थे.
वो कहती हैं, "हमें एक इंडस्ट्रियल इलाक़े में ले जाया गया,हम उनकी हिरासत में थे. वहां मौजूद तालिबान लड़ाके युवा थे. उनमें से कुछ तो 17-18 साल के ही मालूम पड़ रहे थे.''
''हम डरे हुए थे और लगभग हर किसी के मन में सिर्फ़ यही चल रहा थी कि सबकुछ ख़त्म हो चुका है. हम सभी के लिए वे कुछ घंटे जीवन के सबसे ख़तरनाक घंटे थे. हमें लगा कि अब हम अपने परिवार से दोबारा कभी नहीं मिल पाएंगे. कभी घर नहीं जा पाएंगे."
एक पार्क में पुरुष अलग और महिलाएं अलग बैठी हुई थीं. तालिबान लड़ाकों ने उनके पासपोर्ट छीन लिए थे और उनसे पूछताछ कर रहे थे. अफ़ग़ानों से शादी करने वाली भारतीय महिलाओं को बाकी भारतीयों से अलग कर दिया गया था.
लतीफ़ा बताती हैं, "मैंने उनसे कहा कि मैं एक भारतीय हूं और भारतीयों के साथ रहना पसंद करूंगी इस पर उन्होंने कहा कि मुझे अफ़ग़ानों के साथ रहना चाहिए. मुझे डर लग रहा था कि वे मेरे भारतीय भाइयों और बहनों के साथ क्या करने वाले हैं."
वो बताती हैं, "एक तालिबान लड़ाके ने मुझसे पूछा - आप इस देश को क्यों छोड़ना चाहती हैं? हम इसे बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं अफ़ग़ानिस्तान वापस आऊंगी? मैंने कहा-नहीं, हम तुमसे डरते हैं. इस पर उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि हमें डरने की कोई ज़रूरत नहीं है.''
''उन्होंने हमें पीने के लिए पानी दिया लेकिन आंख नहीं मिलायी. बाद में उन्होंने हमें बताया कि सुरक्षा को खतरा है और वे यह सुनिश्चित कर रहे थे कि हम सुरक्षित रहें. मुझे भारतीय समूह के एक मित्र का संदेश भी मिला और उसने बताया कि तालिबान ने उन्हें खाना खिलाया और उनकी अच्छी देखभाल की."
उस दिन बाद में, स्थानीय अफ़ग़ान मीडिया से बात करते हुए तालिबान के एक प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि उन्होंने यात्रियों को हिरासत में लिया था क्योंकि उन्हें कुछ संदेह था और वे सभी की सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते थे. उन्होंने यात्रियों के अपहरण की ख़बरों को ख़ारिज कर दिया.
कुछ घंटों के बाद, लतीफ़ा को अफ़ग़ानों और अन्य भारतीय महिलाओं के साथ बस में बिठा दिया गया. अन्य भारतीय समूह भी उनके साथ शामिल हो गए. दोपहर क़रीब 2 बजे वे एकबार फिर काबुल हवाई अड्डे के उत्तरी द्वार पर खड़े थे और एकबार फिर हवाई अड्डे में प्रवेश करने का उनका इंतजार शुरू हो गया.
लतीफ़ा बताती हैं, "विदेश मंत्रालय हमें हवाई अड्डे के अंदर घुसाने की कोशिश कर रहा था लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रह थी. मुझे गुस्सा आ रहा था कि हमने उन्हें अपने तालिबान के हिरासत में रहने की बात बता दी थी लेकिन फिर भी कोई कार्रवाई नहीं की जा रही थी.''
''हमें जानकारी नहीं है कि दरवाजे के पीछे क्या बातचीत हो रही थी लेकिन वहां फंसे हर शख़्स की तरह मैं भी हताश और कमज़ोर महसूस कर रही थी."
"अगर वे इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे तो उन्हें हमें अपने घरों से बाहर निकलने के लिए नहीं कहना चाहिए था. हम कम से कम अपने घरों में छिपे तो होते. हम पर इतना ख़तरा तो नहीं होता."
शाम 5 बजे - लतीफ़ा के समूह को भारतीय विदेश मंत्रालय ने सूचित किया कि अगले 15-20 मिनट में उन्हें हवाई अड्डे पर ले जाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
शाम 6 बजे - मंत्रालय की ओर से एक और फ़ोन आया और इस बार लतीफ़ा और उनके समूह को वापस सेफ़हाउस जाने के लिए कहा गया. उस समय लगा कि हर कोशिश बेकार हो गई.
तालिबान ने पाकिस्तान बॉर्डर सील किया, थमा भारत-अफ़ग़ानिस्तान व्यापार
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े का भारत पर क्या होगा असर?
वह कहती हैं तब मैं सोच रही थी "क्या हमारी सरकार के पास कोई ताक़त नहीं है? क्या वे हमें एयरपोर्ट में प्रवेश भी नहीं करा सकते? हमें यहां छोड़ दिया गया है. कोई तो हमें यहां से बाहर निकाले."
रातें जागते हुए लतीफ़ा भावनात्मक रूप से टूट चुकी थीं. बाकियों की हालत भी ऐसी ही थी.
शाम 6:50 बजे - "अधिकारियों ने हमें बताया है कि हमें रात में निकाला जा सकता है लेकिन क्या पता... ऐसा वे बहुत बार कह चुके थे. हम निराश हो चले थे और हममे से कई लोग तो वापस घर लौटने का विचार कर रहे थे. हम 3 दिन से सोए नहीं थे. जिनके साथ छोटे बच्चे थे उनके साथ परिस्थितियां और मुश्किल थीं."
8 बजे - थकी और निराश लतीफ़ा ने यह सोचकर घर वापस जाने का फ़ैसला किया कि वो इतनी जल्दी तो देश से बाहर नहीं जा सकेंगी. लेकिन बाद में उसी रात भारतीय वायु सेना के सी-17 विमान ने भारतीयों और अफ़ग़ानों के एक समूह को सफलतापूर्वक वहां से निकाला. और लतीफा जैसे कई लोग जो वापस घर वापस चले गए, छूट गए.
9:40 बजे - "मुझे दूसरों ने बताया कि यह फ़टाफ़ट हो गया. सेफ़हाउस पहुंचने के तुरंत बाद ही उन्हें वापस एयरपोर्ट ले जाया गया. उनके पास इतना समय भी नहीं था कि वे मुझे सूचित कर सकते. मैं पीछे छूट गई थी. वे सभी एयरपोर्ट के भीतर थे."
लतीफ़ा कहती हैं,"मैं सेफ़हाउस छोड़ने के फ़ैसले के लिए ख़ुद पर नाराज़ नहीं होना चाहती थी. हम मानसिक और शारीरिक रूप से थक चुके थे. मैं अभी भी आशान्वित थी क्योंकि मुझे बताया गया कि और लोगों को भी निकालने के लिए उड़ानें संचालित की जाएंगी."
22 अगस्त
लतीफ़ा से विदेश मंत्रालय ने दो बार संपर्क किया और उनका नाम उन लोगों की एक नई सूची में जोड़ा गया जिन्हें निकाला जाना था.
23 अगस्त
लतीफ़ा से भारतीय मंत्रालय ने 2:30 (स्थानीय समयानुसार) बजे संपर्क किया और उनसे कहा गया कि वह सुबह 5:30 बजे तक एक ख़ास जगह पर पहुंच जाएं. बसें सुबह 6:30 बजे हवाई अड्डे के लिए रवाना होने वाली थीं.
सुबह 8 बजे- 21 सीटों की क्षमता वाली दो मिनी बसें 70-80 यात्रियों को लेकर हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के मुख्य द्वार पर पहुंचीं. बाहर का नज़ारा पहले सा ही था.
"बड़ी संख्या में लोग अभी भी अपनी किस्मत आज़मा रहे थे. हमने तालिबान लड़ाकों को लोगों को चाबुक से मारते देखा है. वे हवा में फायरिंग कर रहे थे. हमें सभी खिड़कियों को बंद रखने और पर्दे लगाने के लिए कहा गया था. यह डरावना था."
सुबह 8:45 बजे- लतीफ़ा को लेकर बस मेन गेट से सुरक्षित एयरपोर्ट में दाखिल हुई.
वो कहती हैं, "बहुत मुश्किल से हम अंदर जाने में कामयाब हो सके. मुख्य द्वार पर तालिबान के सदस्य थे. कुछ मुख्य द्वार के अंदर भी दिखाई दिये. हम और अंदर पहुंचे और यहां से हम अमेरिकी सैनिकों को देख सकते थे. वे हमें वेव कर रहे थे. कुछ भारतीय अधिकारी हमें लेने आए और हमारे पासपोर्ट की जांच की."
सुबह 10 बजे - सभी महिला यात्रियों को एक अस्थायी तंबू में बैठाया गया और अमेरिकियों ने उन्हें खाना दिया.
11:20 बजे - "अमेरिकी सैनिकों ने आकर हमें तंबू से बाहर निकाला और उसके बाद हमें धधकते सूरज के नीचे टरमैक पर बिठाया गया. हम भारतीय विमान के उतरने का इंतजार कर रहे थे. हमने सुना कि वे अमेरिकी सैनिकों से लैंड करने के लिए अनुमति मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे."
दोपहर 12:04 बजे - "मैं भारतीय सैन्य विमानों को टरमैक से दूर खड़ा देख सकती थी. उसके बाद हमें फ़्लाइट में चढ़ने के लिए ले जाया गया."
12:20 बजे - "हम भारतीय सैन्य विमान के अंदर थे और वे हमें ताजिकिस्तान ले जा रहे थे."
दोपहर 1 बजे - लतीफ़ा का फ़ोन दोपहर 1 बजे स्विच ऑफ हो गया. हमने उन्हें कॉल करके चेक करने की कोशिश की. पर बात नहीं हो सकी. इसका शायद यह मतलब है कि फ़्लाइट ने क़ाबुल से ताजिकिस्तान के लिए उड़ान भर ली हो और भारत के रास्ते होकर आया हो.
24 अगस्त
आख़िरकार लतीफ़ा की फ़्लाइट सुबह 9:40 बजे दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर लैंड हुई और इस तरह एक दुखद अध्याय का अंत हुआ.
मैंने फ़्लाइट लैंड होने के तुरंत बाद उन्हें कॉल किया और कहा- वेलकम होम लतीफ़ा.
यह सुनकर वो रोने लगीं और बोलीं, "मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं इसका क्या मतलब समझूँ. मैं तो यहाँ आ गई हूँ लेकिन मेरे पति और परिजन अब भी अफ़गानिस्तान में हैं."
लतीफ़ा ने कहा, "काबुल में मेरे साथ जो कुछ हुआ, अब मुझे वो सब याद आ रहा है. जब हम काबुल में थे तब हमारे सोचने के लिए भी एक मिनट का वक़्त नहीं था लेकिन जैसे ही फ़्लाइट दुशांबे पहुँची, सबकुछ याद आने लगा."
उन्होंने कहा, "मैं जम सी गई हूँ. अब मैं बस यही दुआ कर रही हूँ कि मेरे पति और सास-ससुर भी जल्दी वहाँ से सुरक्षित निकल जाएं. जब तक ऐसा नहीं होता, मुझे नहीं लगेगा कि मैं घर वापस आ गई हूँ." (bbc.com)
इस्लामाबाद. अफगानिस्तान पर तालिबान राज आने के बाद पाकिस्तान खुलकर इस संगठन का समर्थन कर रहा है. प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ जश्न मना रही है. इस बीच पीटीआई की एक नेता ने कश्मीर को लेकर सनसनीखेज दावा किया है. नीलम इरशाद शेख ने कहा कि तालिबान पाकिस्तान के साथ है. तालिबान आएंगे और कश्मीर को जीतकर उसे पाकिस्तान को देंगे.
इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ की मेंबर नीलम इरशाद शेख ने यह विवादित बयान पाकिस्तान के ‘बोल टीवी’ के एक डिबेट में दिया. लंबे समय से माना जाता है कि तालिबान के पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से गहरे संबंध है.
नीलम ने कहा, ‘इमरान सरकार बनने के बाद पाकिस्तान का मान बढ़ा है. तालिबान कहते हैं कि हम आपके साथ हैं और इंशा अल्लाह वे हमें कश्मीर फतह करके देंगे.’ एंकर ने जब उनसे पूछा कि तालिबान आपको कश्मीर देंगे, यह किसने आपसे कहा. इस पर नीलम ने कहा, ‘भारत ने हमारे टुकड़े किए हैं और हम फिर जुड़ जाएंगे. हमारी फौज के पास पावर है, सरकार के पास पावर है. तालिबान हमारा साथ दे रहे हैं, क्योंकि जब उनके साथ ज्यादती हुई तो पाकिस्तान ने उनका साथ दिया था. अब वो हमारा साथ देंगे.’
नीलम का यह बयान ऐसे समय पर आया है पाकिस्तान पर तालिबान आतंकियों की खुलकर मदद करने के आरोप लग रहे हैं. अफगानिस्तान में जंग के दौरान हजारों की संख्या में आतंकी पाकिस्तान के कबायली इलाके से अफगानिस्तान में गए. विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की मदद से अफगानिस्तान में एक बार फिर से तालिबान राज आ गया है.
इमरान खान ने तालिबान को बताया था आम नागरिक
इससे पहले इमरान खान ने भी तालिबान के लड़ाकों को आम नागरिक करार दिया था. उन्होंने कहा था, ‘अफगानिस्तान में खून की होली खेल रहे तालिबानी कोई आतंकी नहीं हैं, वो आम नागरिक हैं. अमेरिका में अफगानिस्तान में सब बर्बाद कर दिया.’ इमरान ने कहा कि पाकिस्तान में 30 लाख शरणार्थी रहते हैं और पाकिस्तान कैसे उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकता है. उन्होंने कहा कि इन शरणार्थियों में ज्यादातर पश्तून हैं. यह वही जातीय समूह है जो अफगानिस्तान में लड़ रहा है.
एक समय में 'काबुल का कसाई' कहे जाने वाले अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार ने कहा है कि भारत को अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर बयान जारी करने के बजाय अपने देश के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए.
अफ़ग़ानिस्तान के दूसरे बड़े चरमपंथी गुट हिज़्ब-ए-इस्लामी के नेता ने रविवार को काबुल में पाकिस्तानी पत्रकारों से बात करते हुए ये टिप्पणी की और कहा कि भारत को अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए.
पाकिस्तान की समाचार एजेंसी एपीपी के अनुसार हिकमतयार ने साथ ही कहा कि भारत सरकार को अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से कश्मीर की लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए.
हालाँकि, उन्होंने साथ ही कहा कि भारत को अफ़ग़ानिस्तान में अमन क़ायम करने के लिए सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए.
एपीपी के अनुसार अफ़ग़ान नेता ने साथ ही अफ़ग़ानिस्तान संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान के लिए पाकिस्तान सरकार और प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के प्रयासों की सराहना की.
उन्होंने उम्मीद जताई की काबुल में बहुत जल्द एक ऐसी सरकार गठित हो जाएगी जो अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को भी स्वीकार्य होगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी.
अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के राजदूत मंसूर अहमद ख़ान ने रविवार को काबुल में गुलबुद्दीन हिकमतयार के साथ मुलाक़ात की.
बातचीत के बाद राजदूत ने ट्वीट कर लिखा कि उन्होंने गुलबुद्दीन हिकमतयार के साथ मौजूदा हालात और तालिबान तथा अन्य अफ़ग़ान समुदायों की मिली-जुली समावेशी व्यवस्था को क़ायम करने का रास्ता तैयार करने पर चर्चा की.
पिछले सप्ताह तालिबान नेता अनस हक़्क़ानी के नेतृत्व में तालिबान के प्रतिनिधियों ने काबुल में जिन बड़े अफ़ग़ान नेताओं से सरकार गठन के बारे में चर्चा की थी उनमें पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह, सीनेट अध्यक्ष फ़ज़ुलहादी मुस्लिमयार के अलावा गुलबुद्दीन हिकमतयार भी शामिल थे.
कौन हैं गुलबुद्दीन हिकमतयार
गुलबुद्दीन हिकमतयार की गिनती अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास की सबसे विवादित हस्तियों में होती है. एक ज़माने में उन्हें 'बुचर ऑफ़ काबुल' यानी काबुल का कसाई कहा जाता था.
अफग़ानिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री ने 80 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ के क़ब्ज़े के बाद मुजाहिद्दीनों की अगुवाई की थी. उस समय ऐसे करीब सात गुट थे.
इसके बाद 90 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में जो गृह युद्ध हुआ उसमें गुलबुद्दीन हिकमतयार की भूमिका बहुत विवादित रही.
90 के दशक में काबुल पर कब्ज़े के लिए उनके गुट हिज़्ब-ए-इस्लामी के लड़ाकों की दूसरे गुटों के साथ बड़ी हिंसक लड़ाइयाँ होती थीं.
इस दौरान बड़े पैमाने पर हुए ख़ून खराबे के लिए इस गुट को काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार माना जाता है. गृह युद्ध के दौरान हिकमतयार और उनके गुट ने काबुल में इतने रॉकेट दागे कि उन्हें लोग 'रॉकेटआर' भी कहने लगे थे.
इसी गृह युद्ध के कारण गुलबुद्दीन हिकमतयार अलग-थलग पड़ गए और जब तालिबान सत्ता में आई तो उन्हें काबुल से भागना पड़ा था.
2017 में हिकमतयार 20 साल बाद काबुल लौटे. इसके एक साल पहले उनकी अफ़ग़ान सरकार के साथ डील हुई थी जिसके तहत उनकी वापसी हुई.
गुलबुद्दीन हिकमतयार को अमेरिका ने 2003 में आतंकवादी घोषित किया था. उन पर तालिबान के हमलों का समर्थन करने का आरोप लगा था.
2016 में तत्कालीन अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने उन्हें पुराने मामलों में माफ़ी दे दी थी. (bbc.com)
पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शासन को लेकर भले ही गर्मजोशी दिखाई हो लेकिन सत्ता बदलने के बाद से उसे एक फ़िक्र भी परेशान कर रही है.
पाकिस्तान के गृह मंत्री शेख रशीद अहमद ने सोमवार को इसका ज़िक्र करते हुए बताया कि उनकी सरकार इसे लेकर अफ़ग़ान तालिबान के संपर्क में है.
पाकिस्तान सरकार की चिंता 'तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान' यानी टीटीपी को लेकर है. टीटीपी पर पाकिस्तान में चरमपंथ की कई घटनाओं को अंजाम देने का आरोप है.
इस संगठन को पाकिस्तान तालिबान के तौर पर भी पहचाना जाता है और ये पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान के सरहदी इलाकों में सक्रिय है.
ये दावा भी किया जाता है कि टीटीपी के चरमपंथी पाकिस्तान में हमलों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल करते हैं.
संयुक्त राष्ट्र की जुलाई में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान के छह हज़ार से ज़्यादा प्रशिक्षित लड़ाके हैं.
टीटीपी के अफ़ग़ान तालिबान से गहरे रिश्ते बताए जाते हैं. अफ़ग़ानिस्तान की अमेरिका के समर्थन वाली पूर्व सरकार से अफ़ग़ान तालिबान के संघर्ष के दौरान टीटीपी ने उनका समर्थन और सहयोग किया.
क्यों बढ़ी चिंता?
पाकिस्तान मीडिया में आई रिपोर्टों के मुताबिक काबुल पर तालिबान के नियंत्रण स्थापित होने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में 'तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान' के कई चरमपंथियों को रिहा कर दिया गया है.
पाकिस्तान के गृह मंत्री शेख रशीद अहमद ने बताया कि इमरान ख़ान सरकार ने इसे लेकर अफ़ग़ान तालिबान से संपर्क किया है और तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि वो टीटीपी के चरमपंथियों को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल नहीं करने देंगे.
गृह मंत्री शेख रशीद अहमद ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया, "इस मामले से जुड़े (अफ़गानिस्तान के) अधिकारियों से कहा गया है कि जिन लोगों ने पाकिस्तान में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया हैं, उन पर नियंत्रण रखा जाए. अफ़ग़ान तालिबान ने (हमें) भरोसा दिया है कि टीटीपी को किसी सूरत में अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल नहीं करने दी जाएगी. "
पाकिस्तान के गृह मंत्री का बयान आने के पहले मीडिया में आई रिपोर्टों में दावा किया गया था कि पाकिस्तान ने टीटीपी से जुडे 'मोस्ट वांटेड आतंकवादियों' की एक लिस्ट अफ़ग़ान तालिबान को सौंपी है. बताया जाता है कि इस लिस्ट में उन चरमपंथियों के नाम शामिल हैं, जो फिलहाल अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय हैं.
'द एक्सप्रेस ट्रिब्यून' ने इस बारे में अपनी रिपोर्ट में बताया है कि अफ़ग़ान तालिबान के काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद ये लिस्ट उन्हें सौंपी गई.
जांच आयोग
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में पाकिस्तान के एक अधिकारी के हवाले से बताया, "हमने (अफ़ग़ान तालिबान के सामने) इस मुद्दे को उठाया है. हमने टीटीपी के अफ़ग़ानिस्तान से गतिविधियां चला रहे वांटेड आतंकवादियों की एक लिस्ट उन्हें दी है. " रिपोर्ट में इस अधिकारी के नाम की जानकारी नहीं दी गई है.
कुछ रिपोर्टों में ये भी दावा किया गया है कि अफ़ग़ान तालिबान के प्रमुख हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा ने तीन सदस्यीय आयोग बनाया है जो पाकिस्तान की शिकायत पर गौर करेगा और पता लगाएगा कि क्या टीटीपी सीमा के पार चरमपंथी हमलों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल कर रहा है?
कौन हैं पाकिस्तान तालिबान?
तहरीक-ए-तालिबान यानी पाकिस्तान तालिबान की स्थापना दिसंबर 2007 में 13 चरमपंथी गुटों ने मिलकर की थी. टीटीपी का मक़सद पाकिस्तान में शरिया पर आधारित एक कट्टरपंथी इस्लामी शासन कायम करना है.
पाकिस्तान तालिबान का पाकिस्तान की सेना से टकराव बना रहता है. कुछ वक़्त पहले संगठन के प्रभाव वाले इलाक़े में पेट्रोलिंग कर रहे एक पुलिसकर्मी को बुरी तरह पीटने की ख़बर सामने आई थी.
साल 2014 में पेशावर में एक आर्मी स्कूल पर हुई गोलीबारी में करीब 200 लोगों की जान चली गई थी जिनमें ज़्यादातर छात्र थे. इस घटना के लिए टीटीपी को ज़िम्मेदार बताया जाता है.
पाकिस्तान साल 2014 से टीटीपी के ठिकानों को ध्वस्त करता रहा है. लेकिन पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर मौजूद इलाक़ों में टीटीपी का ख़ासा प्रभाव है.
ये माना जाता है कि टीटीपी के ज़्यादातर सदस्य अफ़ग़ानिस्तान में हैं और वहीं से सीमापार हमलों की योजना बनाते हैं.
क्या है संभावना?
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की जुलाई की एक रिपोर्ट के मुताबिक अफ़गानिस्तान में टीटीपी के करीब छह हज़ार प्रशिक्षित लड़ाके हैं. अफ़ग़ान तालिबान के साथ भी उनके रिश्ते हैं. अफ़ग़ान तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान की पूर्व सरकार के साथ संघर्ष में भी टीटीपी के लड़ाकों ने उनकी मदद की थी.
अफ़ग़ानिस्तान में जब तालिबान मजबूत हो रहे थे तब भी पाकिस्तान में टीटीपी को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे.
पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हारून रशीद ने जून में बीबीसी हिंदी की संवाददाता कमलेश मठेनी से बातचीत में कहा था कि इस मामले में पाकिस्तान की चिंता जायज़ है. ऐसे आसार बहुत कम हैं कि अफ़ग़ान तालिबान पूरी तरह से टीटीपी के ख़िलाफ़ हो जाएगा.
हारून रशीद के मुताबिक, "जब अफ़ग़ानिस्तान में पहले तालिबान सरकार थी तब पाकिस्तान तालिबान का वजूद नहीं था. ऐसे में अभी ये कहना मुश्किल होगा कि पाकिस्तान तालिबान के लिए उनका रवैया क्या होगा. ऐसा कोई ऑपरेशन नहीं दिखता कि अफ़ग़ान तालिबान पाकिस्तान तालिबान के ख़िलाफ़ लड़कर उनको ज़बरदस्ती रोकने की कोशिश करेंगे. दोनों की विचारधारा एक ही है और उनमें समानता भी है तो पाकिस्तान पर इसका दुष्प्रभाव पड़ना लाज़िमी है."
हालांकि, फिलहाल पाकिस्तान सरकार दावा कर रही है कि अफ़ग़ान तालिबान ने कहा है कि वो उनकी चिंता से वाकिफ हैं और टीटीपी को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे. (bbc.com)
ब्रिटेन में सशस्त्र सेना के मंत्री जेम्स हिप्पे ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान से लोगों को निकालने का मिशन अमेरिकी सैनिकों के वहां से हटते ही ख़त्म होगा.
उन्होंने कहा कि ब्रिटेन 31 अगस्त की पहले से तय समयसीमा पर काम कर रहा था. इसी तारीख़ को अमेरिका को भी अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना है. हालांकि प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से और समय मांगने की उम्मीद है.
जेम्स हिप्पे ने ये भी कहा कि लोगों की वहां से निकालना तालिबान के सहयोग पर भी निर्भर करता है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि ब्रिटेन तालिबान के साथ कुछ भी "पहले से मान कर" नहीं चल रहा.
प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन मंगलवार को जी7 देशों की एक आपातकालीन बैठक के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से अमेरिकी सैनिकों को वापस लाने की समय सीमा बढ़ाने के लिए कहेंगे ताकि लोगों को वहां से निकालने की उड़ाने जारी रह सकें.
बताया जा रहा है कि काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के एक हफ़्ते बाद भी वहां देश से बाहर निकलने के लिए हवाई अड्डे पर लोग हज़ारों की संख्या में इंतज़ार में हैं.
मंत्री जेम्स हिप्पे ने बीबीसी ब्रेकफ़ास्ट को बताया कि बीते हफ़्ते तक 6,631 लोगों को वहां से निकाल कर ब्रिटेन लगा गया है और अगले 24 घंटों में नौ और विमान वहां से निकलेंगे.
उन्होंने बताया कि अफ़ग़ानिस्तान में अब भी ब्रिटिश पासपोर्ट वाले क़रीब 1,800 लोग मौजूद हैं और यूके सरकार के साथ काम करने वाले 2,275 अफ़ग़ान लोगों का भी यहां पुनर्वास किया जा सकता है साथ ही अफ़ग़ान सिविल सोसाइटी के लोगों की भी एक सूची है, अगर हम सक्षम हुए तो उन्हें भी बाहर निकालना चाहेंगे.
उन्होंने कहा कि यह निकासी अमेरिका के बग़ैर संभव नहीं है जिसने हवाई अड्डे पर "पूरे ऑपरेशन को बढ़िया तरीक़े से" संभाल लिया है.
उन्होंने कहा कि अगर समयसीमा बढ़ाने का अवसर नही मिला तो तो हमें 31 अगस्त तक अपनी योजनाओं के मुताबिक काम करना होगा और अगर ऐसा है तो वहां से अधिक से अधिक लोगों को निकालने के लिए हर मिनट मायने रखता है. (bbc.com)
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि तालिबान चाहता है कि उसे वैध माना जाए, इस संबंध में कई वादे भी किए गए हैं लेकिन अमेरिकी सरकार ये देखेगी कि वह उन्हें लेकर कितना गंभीर है.
जब बाइडन से ये पूछा गया कि क्या वह तालिबान पर भरोसा करते हैं तो इसके जवाब में उन्होंने कहा कि वह किसी पर भरोसा नहीं करते हैं.
इसके साथ ही बाइडन ने बताया कि काबुल एयरपोर्ट से अमेरिकी फ़्लाइट के ज़रिए निकलने वाले शरणार्थियों के साथ क्या होगा.
उन्होंने कहा, “मैं किसी पर भरोसा नहीं करता हूं. तालिबान को एक मौलिक निर्णय लेना है. क्या तालिबान अफगानिस्तान के लोगों को एकजुट करने और उनकी भलाई के लिए प्रयास करने जा रहा है, जो कि 100 वर्षों से किसी एक समूह ने कभी नहीं किया है?''
''अगर वह ऐसा करता है तो उसे आर्थिक मदद और व्यापार से लेकर तमाम अन्य मामलों में मदद की ज़रूरत पड़ेगी''
बाइडन ने ये सब कुछ तब कहा है जब कई देश अपने नागरिकों को अमेरिकी सुरक्षा घेरे में संचालित किए जा रहे काबुल एयरपोर्ट की मदद से अफ़ग़ानिस्तान से निकालने की कोशिश कर रहे हैं.
अमेरिकी सेना ने पिछले 9 दिनों में लगभग 25000 लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकाला है. इस तरह जुलाई से अब तक कुल 30 हज़ार लोगों को बाहर निकाला गया है.
इस अभियान के तहत अमेरिका पहुंच रहे लोगों के भविष्य के बारे में बाइडन ने कहा है कि वे लोग जो अमेरिकी विमानों में बैठकर काबुल से बाहर जा रहे हैं.
वे पहले एक सैन्य अड्डे पर जा रहे हैं जहां उनकी स्क्रीनिंग होगी, उनकी पृष्ठभूमि की जाँच की जाएगी और प्रक्रिया पूरी होने के बाद अमेरिका में शिफ़्ट किया जाएगा.
इससे पहले शुक्रवार को बाइडन ने इसे इतिहास में सबसे ज़्यादा बड़ा और ख़तरनाक एयरलिफ़्ट अभियान करार दिया है. (bbc.com)
कोलंबो, 22 अगस्त| श्रीलंका ने तालिबान द्वारा देश पर कब्जा किए जाने के बाद अफगानिस्तान में फंसे नागरिकों को निकालने के लिए भारत से सहायता का आग्रह किया है। विदेश मंत्रालय ने कहा कि श्रीलंका अफगानिस्तान की स्थिति के बारे में चिंतित है।
विदेश मंत्रालय ने कहा, "हमारी प्राथमिक चिंता अफगानिस्तान में रहने वाले श्रीलंकाई लोगों की सुरक्षा और उन्हें सुरक्षित अफगानिस्तान में श्रीलंकाई लोगों को बाहर निकालें और वापस श्रीलंका ले जाना है।"
86 श्रीलंकाई लोगों में से 46 को पहले ही निकाला जा चुका है और 20 और को निकाला जाना है, जबकि 20 ने तालिबान के अधीन अफगानिस्तान में रहने का विकल्प चुना है।
श्रीलंका ने तालिबान द्वारा की गई माफी की पेशकश और किसी भी विदेशियों को नुकसान नहीं पहुंचाने के वादे का स्वागत किया और देश पर कब्जा करने वाले आतंकवादी समूह से अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान करने का आग्रह किया।
श्रीलंकाई सरकार ने इस्लामिक कट्टरपंथी समूह की अफगानिस्तान में महिलाओं को काम करने और लड़कियों को स्कूल जाने की अनुमति देने की प्रतिज्ञा का भी स्वागत किया।
बड़े पैमाने पर प्रवास की संभावनाओं की चिंता व्यक्त करते हुए, चरमपंथी धार्मिक तत्वों ने एक सुरक्षित पनाहगाह खोजने का प्रयास किया और पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र पर अस्थिरकारी प्रभाव डालने वाले अवैध मादक पदार्थों के व्यापार में वृद्धि, सार्क के सदस्य के रूप में श्रीलंका ने इस पर किसी भी क्षेत्रीय प्रयासों में सहायता करने का बीड़ा उठाया।
हालांकि, विदेश मंत्रालय ने आग्रह किया कि चूंकि तालिबान अब सत्ता में है, कानून और व्यवस्था की स्थिति को स्थिर किया जाना चाहिए और अफगानिस्तान में सभी लोगों की सुरक्षा, सुरक्षा और सम्मान की रक्षा की जानी चाहिए।
70 प्रतिशत आबादी के साथ दुनिया के सबसे प्रमुख बौद्ध देशों में से एक श्रीलंका ने मार्च 2001 में तालिबान द्वारा 6वीं शताब्दी की बामियान बुद्ध की मूर्तियों को नष्ट करने की कड़ी निंदा की थी, जबकि 1996 से 2001 तक देश पर आतंकवादियों का नियंत्रण था। (आईएएनएस)
संजीव शर्मा
नई दिल्ली, 22 अगस्त| तालिबान ने एक तस्वीर जारी की है, जिसमें अमेरिकी सैनिकों की आड़ में समूह की कई सेनाएं 1945 में इवो जीमा की लड़ाई के दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकी सैनिकों की एक प्रसिद्ध छवि का मजाक उड़ा रही हैं।
रूस टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान लड़ाकों की एक कुलीन इकाई अमेरिका निर्मित सामरिक गियर पहने हुए, जिसे उन्होंने पीछे हटने वाले अफगान बलों से जाहिरा तौर पर कब्जा कर लिया था, उसने एक प्रचार तस्वीर के लिए तस्वीर खिंचवाई, जिससे कई नाराज अमेरिकियों ने 'अंतिम अपमान' पाया।
एक तस्वीर में ज्यादातर अमेरिकी रूढ़िवादियों के बीच, तालिबान की कमांडो यूनिट बद्री 313 के सदस्यों को नाइट-विजन गॉगल्स सहित पूर्ण छलावरण और सामरिक गियर दान करते हुए देखा जाता है। 1945 में इवो जीमा की लड़ाई के दौरान माउंट सुरिबाची में अमेरिकी सैनिकों की एक प्रतिष्ठित तस्वीर को अमेरिकी ध्वज को ऊपर उठाते हुए प्रतीत होते हैं।
अधिकांश आक्रोश व्यक्तिगत रूप से अमेरिकी कमांडर-इन-चीफ, राष्ट्रपति जो बाइडेन पर निर्देशित किया गया था, जिन्होंने पिछले सप्ताह अराजक वापसी के लिए बढ़ती आलोचना का सामना किया था जिसने अमेरिकी और सहयोगियों के जीवन को खतरे में डाल दिया था।
टेलीविजन कमेंटेटर जॉन कार्डिलो ने कहा, बाइडेन को इस्तीफा देना चाहिए या महाभियोग और हटा दिया जाना चाहिए, जो हाल ही में न्यूजमैक्स टीवी पर होस्ट थे। यह बस बदतर और बदतर होता जा रहा है!
कांग्रेस की महिला एलिस स्टेफनिक ने कहा, यह जो बिडेन की विरासत है जिसे पूरी दुनिया देख सकती है।
रूढ़िवादी स्तंभकार और पूर्व टीवी होस्ट मेघन मैक्केन, दिवंगत रिपब्लिकन सीनेटर जॉन मैक्केन की बेटी ने कहा, हम दुनिया में हंसी का पात्र हैं।
पिछले कई हफ्तों में, काबुल पर तालिबान के हमले से पहले भी, ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें उग्रवादियों को युद्ध की लूट का निरीक्षण करते हुए दिखाया गया है, जिसमें अफगान नेशनल आर्मी (एएनए) से जब्त किए गए यूएस-निर्मित हथियार भी शामिल हैं। एएनए पूरी तरह से ध्वस्त हो गया, क्योंकि अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन ने अपनी वापसी को तेज करना शुरू कर दिया, कुछ इकाइयों ने बिना किसी लड़ाई के आत्मसमर्पण कर दिया, और अपने हथियार और उपकरण आतंकवादी समूह को सौंप दिए।
कुछ अनुमानों के अनुसार, तालिबान के पास अब 2,000 से अधिक अमेरिकी यूएस हमवीज और अन्य बख्तरबंद वाहन हो सकते हैं, और 40 से अधिक विमान हो सकते हैं, जिनमें ब्लैक हॉक्स, स्काउट अटैक हेलीकॉप्टर और सैन्य ड्रोन शामिल हैं। यह 2003 के बाद से पेंटागन द्वारा अफगान बलों को उपहार में दिए गए 600,000 एम16 असॉल्ट राइफलों और अन्य पैदल सेना के हथियारों, संचार उपकरणों के कुछ 162,000 टुकड़े और 16,000 नाइट-विजन गॉगल्स के विशाल शस्त्रागार का भी लाभ उठा सकता है। (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 22 अगस्त| अमेरिका के कब्जे वाले काबुल हवाईअड्डे पर पहुंचने के प्रयास में तालिबान ने अमेरिकियों को पीटा है। किर्बी ने अल अरबिया से कहा, हम मामलों के बारे में जानते हैं, एक छोटी संख्या जिसे हम जानते हैं .. हमारे पास पूर्ण दृश्यता नहीं है, लेकिन हम कुछ ऐसे मामलों के बारे में जानते हैं, जहां कुछ अमेरिकी और निश्चित रूप से, जैसा कि रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन ने भी उस बयान में कहा था, अफगान-अफगान जिन्हें हम खाली करना चाहते हैं, उन्हें परेशान किया गया है और कुछ मामलों में पीटा गया है।
किर्बी ने कहा कि अधिकांश अमेरिकी जिनके पास उनके साथ अपनी साख है, उन्हें तालिबान चौकियों के माध्यम से अनुमति दी जा रही है।
उन्होंने कहा, हम छिटपुट मामलों से अवगत हैं, जहां उन्हें अनुमति नहीं दी जा रही है, जहां कुछ उत्पीड़न चल रहा है। और हां, पिछले सप्ताह के भीतर कुछ शारीरिक हिंसा हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक तालिबान लड़ाके को या तो नहीं मिला अमेरिकियों को हवाईअड्डे पर जाने की अनुमति देने के लिए शब्द या शब्द का पालन करने का फैसला किया।
अमेरिकी सेना के मेजर जनरल हैंक टेलर ने भी निकासी पर अद्यतन संख्या देते हुए कहा कि इस सप्ताह निकाले गए 17,000 लोगों में से 2,500 अमेरिकी थे। (आईएएनएस)
काबुल, 22 अगस्त| तालिबान ने अफगानिस्तान के अपदस्थ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति अशरफ गनी और अमरुल्ला सालेह को अपनी माफी दी है, जिससे दोनों अगर चाहें तो अफगानिस्तान लौट सकते हैं। जियो न्यूज के साथ एक विशेष साक्षात्कार में, तालिबान के वरिष्ठ नेता खलील उर रहमान हक्कानी ने कहा कि समूह और गनी, सालेह और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, हमदुल्ला मोहिब के बीच कोई दुश्मनी नहीं है।
हक्कानी ने कहा, हम अशरफ गनी, अमरुल्ला सालेह और हमदुल्ला मोहिब को माफ करते हैं। तालिबान और तीनों के बीच दुश्मनी केवल धर्म के आधार पर थी।
उन्होंने कहा, हम अपनी तरफ से सभी को माफ करते हैं, जनरल (जो हमारे खिलाफ युद्ध में लड़े) से लेकर आम आदमी तक।
हक्कानी ने देश से भागने वाले लोगों से ऐसा नहीं करने का आग्रह किया, और कहा कि दुश्मन प्रचार कर रहा था कि तालिबान उनसे बदला लेगा।
उन्होंने कहा, ताजिक, बलूच, हजारा और पश्तून सभी हमारे भाई हैं।
हक्कानी ने कहा कि तालिबान वे नहीं थे जो अमेरिका के खिलाफ युद्ध में गए थे, यह कहते हुए कि समूह ने अमेरिका के खिलाफ हथियार उठाने का फैसला किया था जब उसने अपनी मातृभूमि पर हमला किया और अपनी संस्कृति, धर्म और देश के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
उन्होंने कहा, अमेरिकी हमारे खिलाफ, हमारी मातृभूमि पर हथियारों का इस्तेमाल कर रहे थे, भगवान ने तालिबान को अमेरिकी हथियार युद्ध की लूट के रूप में दिए।
उन्होंने कहा कि तालिबान ने अपने दुश्मनों पर एक बड़ी जीत हासिल की है, यह कहते हुए कि अफगानिस्तान सेना में 350,000 सैनिक शामिल थे और उन्हें अमेरिका, नाटो और अन्य देशों का समर्थन प्राप्त था।
हक्कानी ने कहा कि तालिबान चाहता है कि सभी मुस्लिम देश आपस में मेल-मिलाप करें। उन्होंने दुनिया भर के देशों को अपने नागरिकों को उचित अधिकार प्रदान करने की सलाह दी, और कहा कि अफगानिस्तान में एक समावेशी अफगान सरकार का गठन किया जाएगा।
उन्होंने कसम खाई, अत्यधिक सक्षम, शिक्षित लोग अफगानिस्तान में सरकार बनाएंगे। जनता को एकजुट करने वाले लोगों को नई सरकार में शामिल किया जाएगा।
अफगानिस्तान के भीतर सभी समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार का वादा करते हुए, हक्कानी ने कहा कि सभी विचारधाराओं के लोग तालिबान के प्रति अपनी निष्ठा की प्रतिज्ञा कर रहे हैं।(आईएएनएस)
वाशिंगटन, 22 अगस्त| अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने अमेरिकी एयरलाइंस को अफगानिस्तान से निकासी मिशन में मदद के लिए 18 विमान उपलब्ध कराने का आदेश दिया है। पेंटागन ने रविवार को यह जानकारी दी। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, पेंटागन के प्रेस सचिव जॉन किर्बी ने एक बयान में कहा कि ऑस्टिन ने अमेरिकी परिवहन कमान के कमांडर को सिविल रिजर्व एयर फ्लीट (सीआरएएफ) के चरण 1 को सक्रिय करने का आदेश दिया है, जो अफगानिस्तान से निकासी का समर्थन करने के लिए पेंटागन को वाणिज्यिक हवाई गतिशीलता संसाधनों तक पहुंच प्रदान करता है।
बयान में कहा गया है, मौजूदा सक्रिय 18 विमान हैं। इनमें हैं अमेरिकन एयरलाइंस, एटलस एयर, डेल्टा एयर लाइन्स और ओमनी एयर से तीन-तीन, हवाईयन एयरलाइंस से दो और युनाइटेड एयरलाइंस से चार।
बयान में कहा गया है कि वाणिज्यिक विमान काबुल हवाईअड्डे पर उड़ान नहीं भरेंगे।
कहा गया, अमेरिकी सैन्य विमान काबुल में और उसके बाहर संचालन पर ध्यान केंद्रित करेगा और वाणिज्यिक विमानों का उपयोग अस्थायी सुरक्षित ठिकानों और अंतरिम मंचन ठिकानों से यात्रियों की आगे की आवाजाही के लिए किया जाएगा।
पेंटागन के अनुसार, इतिहास में यह तीसरी बार है, जब सेना ने सीआरएएफ को सक्रिय किया है। पहला खाड़ी युद्ध के दौरान और दूसरा इराक युद्ध के दौरान।
15 अगस्त को राजधानी काबुल में तालिबान बलों के प्रवेश करने के बाद से अमेरिका अमेरिकियों और उसके अफगान सहयोगियों को देश से निकालने के लिए हाथ-पांव मार रहा है। (आईएएनएस)
काबुल, 22 अगस्त| काबुल हवाईअड्डे पर अराजक स्थिति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तालिबान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दहशत के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया है। अमीर खान मुत्ताकी ने रविवार को राजधानी काबुल के तालिबान के अधिग्रहण के बाद पश्चिम पर अफगानिस्तान में घबराहट और अराजकता पैदा करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।
बीबीसी ने बताया कि मुत्ताकी ने दावा किया कि इस समय अराजकता की एकमात्र जगह काबुल हवाईअड्डा है, जहां लोगों की गोली मारकर हत्या की जा रही है।
उन्होंने आगे दावा किया कि अमेरिका एक निकासी नाटक बनाकर अपनी हार छिपाने की कोशिश कर रहा है।
इस बीच, अमेरिका ने अगस्त के अंत से आगे निकासी का विस्तार करने के लिए बढ़ती कॉलों के बीच, निकासी के प्रयासों में मदद करने के लिए वाणिज्यिक एयरलाइनों का मसौदा तैयार किया है।
रिपोर्टों के अनुसार, डेल्टा, युनाइटेड एयरलाइंस और अन्य के विमान अफगानिस्तान से अंतिम गंतव्यों के लिए पहले से ही निकाले गए लोगों को उड़ान भरने में मदद करेंगे। विमान काबुल में उड़ान नहीं भरेंगे, बल्कि इसका उपयोग तीसरे देशों में यात्रियों को स्थानांतरित करने में मदद के लिए किया जाएगा। (आईएएनएस)
सना, 22 अगस्त | यमनी सरकार ने घोषणा की कि सऊदी अरब के नेतृत्व वाले गठबंधन द्वारा शुरू किए गए हवाई हमले में देश के तेल समृद्ध प्रांत मारिब में एक ईरानी सैन्य अधिकारी की मौत हो गई। सूचना मंत्री मुअम्मर अल-एरियानी ने शनिवार को एक बयान में कहा, हैदर सेरजन, जो हौउतियों के सलाहकार के रूप में काम करता था, शुक्रवार की रात नौ अन्य लोगों के साथ मारा गया था।
मंत्री ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र से 'यमनी मामलों में ईरान के हस्तक्षेप के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने' का आग्रह किया।
सऊदी नेतृत्व वाले गठबंधन ने हादी की सरकार का समर्थन करने के लिए मार्च 2015 में यमनी संघर्ष में हस्तक्षेप किया।(आईएएनएस)
-नॉरबेर्टो परेडेस
अफ़ग़ानिस्तान में ऐसा क्या है जो इसे पूरी दुनिया में 'साम्राज्यों की कब्रगाह' के रूप में जाना जाता है? आख़िर क्यों अमेरिका से लेकर ब्रिटेन, सोवियत संघ समेत दुनिया की तमाम बड़ी शक्तियां इसे जीतने की कोशिश में नाकाम रहीं.
ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास और भूगोल में मिलता है.
19वीं सदी में, तब दुनिया में सबसे ताक़तवार रहे ब्रितानी साम्राज्य ने अपनी पूरी शक्ति के साथ इसे जीतने की कोशिश की. लेकिन 1919 में आख़िरकार ब्रिटेन को अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर जाना पड़ा और उन्हें स्वतंत्रता देनी पड़ी.
इसके बाद सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया. मंशा ये थी कि 1978 में तख़्तापलट करके स्थापित की गयी कम्युनिस्ट सरकार को गिरने से बचाया जाए. लेकिन उन्हें ये समझने में दस साल लगे कि वे ये युद्ध जीत नहीं पाएंगे.
ब्रितानी साम्राज्य और सोवियत संघ के बीच एक बात ऐसी है जो दोनों पर लागू होती है. दोनों साम्राज्यों ने जब अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया तो वे अपनी ताक़त के चरम पर थे. लेकिन इस हमले के साथ ही धीरे- धीरे दोनों साम्राज्य बिखरने लगे.
साल 2001 में अमेरिकी नेतृत्व में हमले और उसके बाद कई सालों तक चले युद्ध में लाखों लोगों की जान गयी है. इस हमले के बीस साल बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाने का फैसला किया है.
ये एक विवादास्पद फैसला था जिसकी दुनिया भर में कड़ी आलोचना की गयी. इस एक फैसले की वजह से अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर इतनी तेजी से तालिबान का कब्ज़ा हो गया है.
बाइडन ने अपने इस फ़ैसले का बचाव करते हुए कहा है कि अमेरिकी नागरिकों को "एक ऐसे युद्ध में नहीं मरना चाहिए जिसे खुद अफ़ग़ानी लोग न लड़ना चाह रहे हों"
'साम्राज्यों की कब्रगाह' के रूप में अफ़ग़ानिस्तान की ख्याति को याद करते बाइडन ने कहा, "चाहें जितनी भी सैन्य शक्ति लगा लें, एक स्थिर, एकजुट और सुरक्षित अफ़ग़ानिस्तान हासिल करना संभव नहीं है."
हालिया सदियों में अफ़ग़ानिस्तान को नियंत्रित करने की कोशिश करने वाली दुनिया की सबसे ताक़तवर सेनाओं के लिए अफ़ग़ानिस्तान एक कब्रगाह जैसा ही साबित हुआ है.
शुरुआत में इन सेनाओं को थोड़ी सफलता भले ही मिली हो लेकिन आख़िरकार इन्हें अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर भागना ही पड़ा है.
अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास पर 'अफ़ग़ानिस्तान: साम्राज्यों की कब्रगाह' नाम की किताब लिखने वाले डिफेंस और फॉरेन पॉलिसी एनालिस्ट डेविड इस्बी बीबीसी मुंडो को बताते हैं, "ऐसा नहीं है कि अफ़ग़ान काफ़ी शक्तिशाली हैं. बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हुआ है, वो आक्रमणकारी ताक़तों की ग़लतियों की वजह से हुआ है."
क्यों पस्त हुईं बड़ी शक्तियां?
इस्बी मानते हैं कि निष्पक्षता के साथ देखा जाए तो अफ़ग़ानिस्तान एक कठिन जगह है. ये एक जटिल देश है जहां आधारभूत ढांचा काफ़ी ख़राब है, विकास काफ़ी सीमित है और चारों ओर से ज़मीन से घिरा हुआ है.
इस्बी कहते हैं, "लेकिन सोवियत संघ, ब्रिटेन या अमेरिका, किसी भी साम्राज्य ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर लचीलापन नहीं दिखाया है. वे अपने ढंग से चलना चाहते थे और उन्हें चलना भी पड़ा लेकिन वे कभी अफ़ग़ानिस्तान की जटिलता समझ नहीं पाए."
अक्सर कहा जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान को जीतना असंभव है. ये एक ग़लत बयान है: ईरानियों, मंगोलों और सिकंदर ने अफ़ग़ानिस्तान को जीता है.
लेकिन ये तय है कि ये एक ऐसा दुस्साहस है जिसकी एक कीमत चुकानी पड़ती है. और इससे पहले काबुल पर हमला करने वाले पिछले तीन साम्राज्य अपने प्रयास में बुरी तरह फेल हुए हैं.
ब्रितानी साम्राज्य और तीन आक्रमण
19वीं सदी में ज़्यादातर समय के लिए अफ़ग़ानिस्तान ब्रितानी और रूसी साम्राज्यों के बीच मध्य एशिया को नियंत्रित करने की रस्साकसी में प्रमुख मंच था.
कई दशकों तक रूस और ब्रिटेन के बीच राजनयिक और राजनीतिक संघर्ष जारी रहा जिसमें आख़िरकार ब्रिटेन की जीत हुई. लेकिन ब्रिटेन को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी.
ब्रिटेन ने 1839 से 1919 के बीच तीन बार अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया और ये कहा जा सकता है कि तीनों बार ब्रिटेन फेल हुआ.
पहले एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में ब्रिटेन ने 1839 में काबुल पर कब्जा कर लिया. क्योंकि ब्रिटेन को लग रहा था कि अगर उसने ये कदम नहीं उठाया तो उससे पहले रूस काबुल पर कब्ज़ा कर लेगा.
इसके चलते ब्रिटेन को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा. कुछ जनजातियों ने बेहद सामान्य हथियारों से दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क की सेना को बर्बाद कर दिया.
बड़ी हार
तीन साल के आक्रमण के बाद अफ़ग़ानिस्तान ने आख़िरकार हमलावर सेना को भागने के लिए मजबूर कर दिया.
साल 1842 की छह जनवरी को ब्रितानी कैंप से जलालाबाद के लिए निकली 16000 सैनिकों में सिर्फ एक ब्रितानी नागरिक ज़िंदा लौटा.
इस्बी बताते हैं कि इस "युद्ध ने उप महाद्वीप में ब्रितानी विस्तार को कमजोर कर दिया और इस धारणा को भी प्रभावित किया कि ब्रितानी अजेय हैं."
इसके चार दशक बाद ब्रिटेन ने एक बार फिर कोशिश की. इस बार इसे कुछ सफलता मिली.
साल 1878 से 1880 के बीच हुए दूसरे एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान ब्रितानी संरक्षित राज्य बन गया. लेकिन ब्रिटेन को काबुल में एक रेज़िडेंट मिनिस्टर रखने की अपनी नीति को त्यागना पड़ा.
इसकी जगह ब्रितानी साम्राज्य ने एक नये अफ़ग़ान अमीर को चुनकर देश से अपनी सेनाओं को वापस बुला लिया.
लेकिन साल 1919 में जब इस नये अमीर ने खुद को ब्रिटेन से आज़ाद घोषित कर दिया तब तीसरा एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध शुरू हुआ.
ये वो समय था जब एक ओर बोल्शेविक क्रांति ने रूसी ख़तरे को कम कर दिया और प्रथम विश्व युद्ध ने ब्रितानी सैन्य खर्च को बेतहाशा बढ़ा दिया. ऐसे में ब्रितानी साम्राज्य में अफ़ग़ानिस्तान के प्रति रुचि कम होती गयी.
इसी वजह से चार महीनों तक चली जंग के बाद ब्रिटेन ने आख़िरकार अफ़ग़ानिस्तान को स्वतंत्र घोषित कर दिया.
हालांकि, ब्रिटेन आधिकारिक रूप से अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद नहीं था. लेकिन ऐसा माना जाता है कि उन्होंने कई सालों तक अपना प्रभाव वहां बनाए रखा.
साल 1920 के दौरान अमीर अमानुल्लाह ख़ान ने देश को सुधारने की कोशिश की. इनमें महिलाओं के बुरक़ा पहनने की प्रथा को ख़त्म करना शामिल था. इन सुधारवादी प्रयासों ने कुछ जनजातियों और धार्मिक नेताओं को नाराज़ कर दिया जिससे एक गृह युद्ध की शुरुआत हुई.
इस संघर्ष की वजह से अफ़ग़ानिस्तान में कई दशकों तक हालात तनावपूर्ण रहे. और 1979 में सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण कर दिया ताकि एक बुरी तरह असंगठित कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बनाए रखा जा सके.
कई मुजाहिदीन संगठनों ने सोवियत संघ का विरोध करते हुए उनके ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी. इस जंग में मुजाहिदीनों ने अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब से पैसा और हथियार लिए.
रूस ने ज़मीनी और हवाई हमले किए ताकि उन इलाकों के गाँवों और फसलों को नष्ट किया जा सके जिन्हें वे समस्या की वजह मानते थे. इसकी वजह से स्थानीय आबादी अपने घर छोड़ने या मरने के लिए विवश हुई.
इस आक्रमण में बेहद बड़े स्तर पर ख़ून-ख़राबा हुआ. इस युद्ध में लगभग 15 लाख लोगों की मौत हुई और पचास लाख लोग शरणार्थी बन गए.
एक समय में सोवियत संघ की फौज बड़े शहरों और कस्बों को अपने नियंत्रण में करने में सफल हो गयी. लेकिन ग्रामीण इलाकों में मुजाहिदीन अपेक्षाकृत रूप से स्वच्छंदता से घूमते थे.
सोवियत संघ की सेना ने कई तरीकों से चरमपंथ ख़त्म करने की कोशिशें की लेकिन गुरिल्ला सैनिक अक्सर ऐसे हमलों से बच जाते थे.
इसी समय तत्कालीन सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव को अहसास हुआ कि रूसी अर्थव्यवस्था को बदलने की कोशिश करते हुए युद्ध जारी नहीं रख सकते और 1988 में अपने सैनिकों को वापस लेने का फैसला किया.
लेकिन इस वापसी से सोवियत संघ की छवि कभी उबर नहीं पायी. सोवियत संघ के लिए अफ़ग़ानिस्तान 'वियतनाम युद्ध' बन गया. ये एक बेहद ख़र्चीला और शर्मनाक युद्ध था जिसमें सोवियत संघ अपनी पूरी ताक़त लगाने के बावजूद स्थानीय गुरिल्ला लड़ाकों से हार गया.
इस्बी कहते हैं कि "सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में वैध सत्ता का दावा किया, ठीक ऐसे समय में जब सोवियत प्रणाली में, उसकी सरकार और उसकी सेना में गंभीर और मौलिक अंतर्विरोध थे."
"ये सोवियत संघ की सबसे बड़ी ग़लतियों में से एक थी."
इसके बाद सोवियत संघ का विघटन हो गया.
अमेरिकी अभियान और विनाशकारी वापसी
अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटेन और सोवियत संघ के असफल प्रयासों के बाद अमेरिका ने 9/11 हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र का समर्थन करने और अल-क़ायदा ख़त्म करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया.
इससे पहले दो साम्राज्यों की तरह अमेरिका भी जल्द ही काबुल जीतने और तालिबान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने में सफल रहा.
तीन साल बाद अफ़ग़ान सरकार अस्तित्व में आई लेकिन तालिबान के हमले जारी रहे. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 में सैन्य टुकड़ियों की संख्या में बढ़ोतरी की जिससे तालिबान पीछे हटा. लेकिन ऐसा ज़्यादा दिनों के लिए नहीं हुआ.
साल 2001 में युद्ध की शुरुआत के बाद साल 2014 में सबसे ज़्यादा खूनखराबा देखा गया. नेटो सेनाओं ने अपना मिशन पूरा करके ज़िम्मेदारी अफ़ग़ान सेना पर सौंप दी.
इसकी वजह से तालिबान ने ज़्यादा इलाकों पर कब्जा कर लिया. इसके अगले साल लगातार आत्मघाती बम धमाके दर्ज किए गए. इनमें काबुल की संसद और हवाई अड्डे के नज़दीक किया गया धमाका शामिल है.
इस्बी के मुताबिक़, अमेरिकी हमले में कई चीजें ग़लत ढंग से की गयीं.
वह कहते हैं, "सैन्य और राजनयिक प्रयासों के बावजूद, कई समस्याओं में से एक समस्या ये थी कि अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को छद्म युद्ध छेड़ने से रोक नहीं पाया जिसने अपनी सफलता साबित की है.
"ये अन्य हथियारों से ज़्यादा सफल साबित हुआ है."
हालांकि, सोवियत संघ के युद्ध में ज़्यादा ख़ून-खराबा हुआ लेकिन अमेरिकी आक्रमण ज़्यादा ख़र्चीला साबित हुआ.
सोवियत संघ ने जहां अफ़ग़ानिस्तान में प्रति वर्ष लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर खर्च किए, वहीं अमेरिका के लिए 2010 और 2012 के बीच, युद्ध की लागत प्रति वर्ष लगभग 100 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई थी.
लेकिन काबुल के पतन की तुलना दक्षिण वियतनाम की घटनाओं से भी की गई है.
रिपब्लिकन पार्टी की कांग्रेस सदस्या स्टेफनिक ने ट्वीट करके लिखा है, "यह जो बाइडन का साइगॉन है, "
"अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक विनाशकारी विफलता जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा."
अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबानी कब्जे से अफ़ग़ानिस्तान में एक मानवीय संकट पैदा हुआ है जिसके चलते हज़ारों - लाखों लोग बेघर हो गए हैं.
इस्बी कहते हैं, "मध्यम अवधि में, यह देखना आवश्यक होगा कि क्या तालिबान शासन को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में मंजूरी मिलेगी, मुझे इस मामले में काफ़ी संदेह है."
और यदि विश्व बिरादरी के लिए तालिबान से निपटना असंभव हो जाता है, तो यह देखना अहम होगा कि क्या कोई अन्य शक्ति दुनिया में साम्राज्यों की कब्रगाह माने जाने वाले अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण करने का जोख़िम उठाती है. (bbc.com)