अंतरराष्ट्रीय
ब्रिटेन में अस्पताल नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं. इस गंभीर स्थिति को यूरोपीय यूनियन (ईयू) से आने वाले नर्सिंग स्टाफ के वापिस लौट जाने से जोड़ा जा रहा है.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट
कोविड महामारी की शुरुआत में स्वास्थ्यकर्मियों के योगदान पर तालियां बजा रहे ब्रिटेन में अब चिंता है नर्सों की भयंकर कमी से उपजने वाली खराब स्थिति पर. आंकड़ों के मुताबिक राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा यानी एनएचएस अस्पतालों में नर्सों के लगभग चालीस हजार पंजीकृत पद खाली पड़े हैं. कोविड से बाहर निकलने की कोशिशों को इससे बड़ा झटका लग सकता है. इसका एक उदाहरण स्कॉटलैंड में देखने को मिला जहां कोविड के मद्देनजर नर्सों की जरूरत को पूरा करने के लिए हाल ही में सैन्यकर्मियों की तैनाती करनी पड़ी.
सामान्य स्वास्थ्य विभाग हों या आपात सेवाएं, समूचे ब्रिटेन के ज्यादातर अस्पतालों में एक शिफ्ट के दौरान नर्सों की जरूरी संख्या को पूरा कर पाना एक चुनौती बन गया है. ऑक्सफोर्ड शहर के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल में नवजात शिशु विभाग के डॉक्टर अमित गुप्ता ने बातचीत में बताया कि "बाकी ब्रिटेन की तरह हमारे यहां भी काफी दिक्कत है. हमारा अस्पताल कमी को पूरा करने के लिए ब्रिटेन के बाहर से नर्सिंग स्टाफ भर्ती कर रहा है.”
नया नहीं है नर्सिंग संकट
नर्सिंग का ये संकट नया नहीं है. पिछले कुछ सालों में ब्रिटेन में बार-बार इस बात की चर्चा होती रही है कि महामारी के दौरान नर्सों की कमी से निपटा नहीं गया तो नतीजे बुरे होंगे. पिछले साल संसद की पब्लिक अकाउंट्स कमेटी ने कहा था कि देश के स्वास्थ्य विभाग को खबर ही नहीं है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एनएचएस में कितनी, कहां और किस तरह की विशेषज्ञता वाला नर्सिंग स्टाफ चाहिए. सरकार ने 2025 तक पचास हजार नर्सों की भर्ती का वादा किया था लेकिन समिति का कहना था कि इसके लिए किसी तरह का सरकारी प्लान है ही नहीं.
प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसन की सरकार पर स्वास्थ्य जरूरतों को लेकर लगातार दबाव बना हुआ है. एक तरफ कोविड की चुनौती बरकरार है तो दूसरी तरफ इन सर्दियों में फ्लू से पंद्रह हजार से साठ हजार मौतों का अनुमान लगाती एकेडमी ऑफ मेडिकल साइसेंज की चेतावनी. हालात इशारा करते हैं कि नर्सों की कमी आगे ज्यादा भयानक रूप ले सकती है.
पिछले दिनों लॉरी ड्राइवरों की कमी के चलते पेट्रोल की किल्लत और खाने-पीने के सामान की आमद पर हुए असर से ब्रेक्जिट के जमीनी असर की एक झलक दिखाई दी. ब्रेक्जिट के आम जीवन पर असर का एक और चिंताजनक उदाहरण नर्सों की कमी को भी कहा जा सकता है. ब्रिटेन में पेशेवर नर्सों की नियामक संस्था नर्सिंग ऐंड मिडवाइफरी काउंसिल के आंकड़े बताते हैं कि यूरोपीय आर्थिक क्षेत्र से आकर ब्रिटेन में काम करने वाली नर्सों की संख्या में नब्बे फीसदी गिरावट आई है. काउंसिल रजिस्टर के मुताबिक मार्च 2016 तक ये संख्या 9,389 थी जो मार्च 2021 में गिरकर 810 तक पहुंच गई.
ईयू नागरिकता रखने वाले नर्सिंग स्टाफ में गिरावट की तस्दीक हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के आंकड़े भी करते हैं जिसके मुताबिक जून 2016 में ईयू से नर्सों की संख्या कुल नर्सों का 7.4 प्रतिशत थी. मार्च 2021 में संख्या गिरकर 5.6 प्रतिशत पर पहुंच गई. दिक्कतें यहीं नहीं थमी. जुलाई 2020 में रॉयल कॉलेज ऑफ नर्सिंग (आरसीएन) के एक सर्वे में ये सामने आया कि महामारी के तनाव भरे अनुभव के बाद हर तीन में से एक नर्स ने एक साल के भीतर एनएचएस छोड़ देने की इच्छा जताई. इसमें कम तनख्वाह के साथ-साथ नर्सों के योगदान को जरूरी सम्मान ना मिलने से उपजी हताशा भी सामने आई.
बद से बदतर होते हालात पर बात करते हुए आरसीएन की इंग्लैंड निदेशक पैट्रिशिया मार्किस ने हाल ही में बीबीसी से कहा कि "हम विदेश से आने वाले नर्सिंग स्टाफ का स्वागत करते हैं. वे ब्रिटेन के लिए बेहद अहम हैं लेकिन सरकार को देखना ये चाहिए कि जिन नर्सों ने महामारी के दौरान काम किया है उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति क्या है.” अस्पतालों में स्टाफ की कमी के चलते मरीजों की लंबी होती प्रतीक्षा और स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ हिंसा की खबरें भी इस तस्वीर का एक और पहलू है जिसके खिलाफ ब्रिटेन की सबसे बड़ी नर्सिंग ट्रेड यूनियन यूनिसन समेत छह मेडिकल संस्थानों ने हाल ही में आवाज उठाई थी.
एक तरफ जहां यूरोपीय नर्सों की संख्या कम हुई है वहीं ईयू के अलावा दूसरे देशों से नर्सों की संख्या खासी बढ़ी है. एनएचएस अपने अस्पतालों में नर्सों की कमी पूरा करने के लिए ब्रिटेन और ईयू के बाहर से स्टाफ लेने की कोशिश में लगा है. इन देशों में भारत और फिलीपींस सबसे आगे हैं. हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के मुताबिक इस साल मार्च तक दर्ज आंकड़ों के मुताबिक चौंतीस हजार पांच सौ दस नर्सें एशियाई हैं और इनमें लगभग पचास फीसदी यानी सत्रह हजार आठ सौ बावन की नागरिकता भारतीय है.
कोविड की शुरूआत से लेकर अब तक लगातार ड्यूटी पर रहने वाली नीना जोसी, साल 2005 में केरल से लंदन आईं. रॉयल लंडन हॉस्पिटल में काम करने वाली नीना बताती हैं कि कोविड की पहली वेव के लिए कोई भी तैयार नहीं था. कम स्टाफ के साथ काम करने, और इतनी मौतें देखने के बाद परेशान होना लाजमी है लेकिन नौकरी छोड़ने का ख्याल कभी नहीं आया. वो दलील देती हैं कि "हम भारत में अपने परिवार छोड़कर यहां नौकरी करने ही तो आए थे. फिर यही जिंदगी बन गया, अब इसे छोड़कर दूसरा कोई काम करना मुमकिन नहीं है.”
नर्सों की कमी के दूसरे कारण
कोरोना से जूझने में गुजरे बेहद मुश्किल दिनों को याद करते हुए केरल से आईं एक और नर्स शैंटी जॉर्ज ने स्टाफ कम होते चले जाने के कई कारण गिनाए. लंदन के ही एक बड़े एनएचएस अस्पताल में नर्स शैंटी कहती हैं, "कुछ नर्सों को खुद बीमारियां थीं जिनके चलते उनका कोविड के दौरान काम करना सुरक्षित नहीं था. जो लोग रिटायरमेंट के करीब थे वो घबरा गए. जो महिला नर्स गर्भवती थीं उनको भी बुलाना नामुमकिन हो गया. ऐसे में दिक्कतें तो होनी ही थीं. जिन स्वास्थ्यकर्मियों को नर्सों की कमी पूरा करने के लिए लगाया भी जा रहा था वो प्रशिक्षित नहीं थे. अब नए लोग आ रहे हैं तो शायद हालात सुधरें”.
स्थिति सुधरने की आस में अपनी जिम्मेदारियों को निभाते चले जाने वाले नर्सिंग स्टाफ के सामने ज्यादा विकल्प हैं भी नहीं. डॉक्टर गुप्ता मानते हैं कि ब्रिटेन को इस मोड़ से आगे ले जाने के लिए नर्सों की बेहतर तनख्वाह, घरेलू प्रशिक्षित स्टाफ की संख्या बढ़ाना और विदेशी भर्तियों का मिला-जुला मॉडल अपनाना होगा. इस बीच फिलींपींस से नर्सों का एक नया जत्था ब्रिटेन पहुंच चुका है. जब तक सरकारी स्तर पर लंबी-अवधि के उपाय नहीं किए जाते तब तक ब्रिटेन की जमीन पर हर नर्स उम्मीद की एक किरण है. (dw.com)
चीनी पर लगे टैक्स की वजह से पुर्तगाल में तस्करों का एक नया समूह उभर कर सामने आया है. यह समूह स्पेन की सीमा पर मौजूद बॉर्डर क्रॉसिंग के जरिए सोडा की तस्करी करता है. पुर्तगाल को चीनी पर टैक्स लगाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?
डॉयचे वैले पर योआखेन फागेट की रिपोर्ट
सीमा शुल्क अधिकारी हेल्डर मेंडेस को यह याद नहीं है कि उन्होंने इस साल अक्टूबर महीने में हर दिन कितने ट्रकों को रोका और उनकी जांच की. मेंडेस की ड्यूटी स्पेन और पुर्तगाल की सीमा पर स्थित विलर फॉर्मोसो पर लगी हुई है. यह पुर्तगाल की सबसे व्यस्त सीमा चौकियों में से एक है.
आज अक्टूबर महीने का ही एक दिन है. सुबह के सात बजे हैं. मेंडेस अपने पांच सहयोगियों के साथ स्पेन से आने वाले ट्रकों की जांच कर रहे हैं. वह एक ट्रक को रोकते हैं, "नमस्ते, अपने कागज दिखाइए. इस ट्रक में क्या है? इसका वजन कितना है?" सीमा शुल्क के अधिकारी ट्रकों में एक प्रतिबंधित वस्तु की तलाश कर रहे हैं, जिसकी इन दिनों काफी ज्यादा मात्रा में तस्करी की जा रही है. वह वस्तु है, सॉफ्ट ड्रिंक.
पुर्तगाल में सॉफ्ट ड्रिंक पर चीनी टैक्स लागू होता है जबकि, स्पेन में इस पर सिर्फ वैट (वैल्यू ऐडेड टैक्स) लगता है. इसकी वजह से पुर्तगाल में सॉफ्ट ड्रिंक की कीमत ज्यादा है. नतीजा, सॉफ्ट ड्रिंक को अवैध रूप से स्पेन से पुर्तगाल में लाया जाने लगा है. इसने एक नए संगठित अपराध को जन्म दिया है. हालांकि, पुर्तगाल सरकार देश की सीमाओं पर स्थित सभी सीमा चौकियों पर गहन जांच अभियान चलाकर अवैध रूप से लाए जा रहे सॉफ्ट ड्रिंक को जब्त कर रही है, ताकि इसकी तस्करी पर लगाम लगाई जा सके.
पुर्तगाल ने 2017 में सॉफ्ट ड्रिंक पर टैक्स लगाया था. पुर्तगाली जीएनआर राष्ट्रीय पुलिस के आपराधिक जांच विभाग के प्रमुख और सीमा शुल्क जांच अधिकारी हेल्डर फर्नांडीस कहते हैं, "पिछले दो सालों के दौरान न सिर्फ सॉफ्ट ड्रिंक की तस्करी बढ़ी है बल्कि अब यह संगठित पेशा बन गया है."
डेढ़ साल पहले एक तलाशी अभियान ने साबित कर दिया था कि तस्कर कितने पेशेवर हो गए हैं. उस समय पुलिस ने 600 हेक्टोलीटर (15,850 गैलन) से अधिक बिना टैक्स वाला सोडा जब्त किया था. यह अब तक की सबसे बड़ी जब्ती थी. इतने सोडा पर करीब 40,000 यूरो का टैक्स बनता है.
यूरोपीय संघ में टैक्स को लेकर असमानता
फर्नांडीस कहते हैं, "समस्या यह है कि यूरोपीय संघ में टैक्स को लेकर कोई समानता और सामंजस्य नहीं है. यह वैट से लेकर चीनी पर लगने वाले टैक्स सभी के लिए है. चीनी-टैक्स लगाने का मकसद इसके इस्तेमाल को कम करना है. यह टैक्स भले ही कम है, लेकिन जब ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल करना होता है, तो फर्क पड़ता है."
इसलिए, मेंडेस और उनके सहयोगी ट्रकों की तलाशी लेते हैं. वे सामानों से लदे पैलेट की जांच करते हैं, टैंकर ट्रकों पर चढ़कर बिना टैक्स वाले ड्रिंक की तलाश करते हैं, और अपने लैपटॉप पर टैक्स फॉर्म के साथ लोडिंग दस्तावेजों का मिलान करते हैं.
मेंडेस कहते हैं, "यह सब करना आसान काम नहीं है. हमें काफी सारे डेटा का मिलान करना पड़ता है." मेंडेस और उनके सहयोगियों को यह पता लगाना होता है कि स्पैनिश वैट पहले ही ले लिया गया है या नहीं, पुर्तगाल में लगने वाले वैट का भुगतान किया गया है या नहीं, और क्या सबूत है कि चीनी पर लगने वाले टैक्स का भुगतान कर दिया गया है?
मेंडिस और उनके सहयोगी सीमाओं पर जो समय खर्च करते हैं उसका सकारात्मक प्रभाव पूरे देश में पड़ा है. स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, कई सोडा पॉप उत्पादकों ने अपने ड्रिंक में चीनी की मात्रा कम कर दी है और खपत में गिरावट आई है. चीनी पर प्रति हेक्टोलीटर सिर्फ 1 यूरो का टैक्स लगता है, इसके बावजूद इस टैक्स की वजह से मधुमेह और मोटापे सहित अन्य बीमारियों से लड़ने में सफलता मिल रही है.
मेंडेस कहते हैं, "जो लोग टैक्स को गंभीरता से नहीं लेते हैं, वही लोग ज्यादातर स्पेन से आने वाले सस्ते ड्रिंक का इस्तेमाल करते हैं. आखिर, लोग बच्चों के जन्मदिन की पार्टी के लिए सॉफ्ट ड्रिंक खरीदने स्पेन नहीं जाते हैं. हम उन पेशेवरों को पकड़ने का काम कर रहे हैं जो बड़े पैमाने पर तस्करी कर रहे हैं."
स्पेन से अवैध रूप से सॉफ्ट ड्रिंक लाकर पुर्तगाल में बेचना मुनाफे का सौदा बन गया है. फर्नांडीस एक ऐसे मामले को याद करते हैं जहां कैफीन वाले नींबू पानी के एक कैन की कीमत 50 सेंट थी जबकि, आमतौर पर इसकी कीमत यूरो में होती है. उन्होंने कहा कि विक्रेताओं को काफी ज्यादा फायदा होता था. इसी तरह, तस्करी करके लाए गए सोडे से काफी ज्यादा मुनाफा होता है. इसलिए, जांच की प्रक्रिया अब सिर्फ बॉर्डर क्रांसिंग तक ही सीमित नहीं है. वह कहते हैं, "अब हम देश में और दुकानों पर लगे हुए ट्रकों की भी नियमित तौर पर जांच करते हैं."
दोपहर के बाद का समय हो चुका है. सीमा-शुल्क के 48 अधिकारी करीब 500 ट्रकों की जांच कर चुके हैं. हालांकि, उन्हें अभी तक किसी ट्रक से अवैध तरीके से लाया जा रहा सॉफ्ट ड्रिंक नहीं मिला. अब मेंडेस और उनकी टीम के लोग बॉर्डर को छोड़कर अपने घर आराम करने जा रहे हैं. कल सुबह फिर वे इसी काम में लग जाएंगे. (dw.com)
जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद कई देश परमाणु संयंत्रों को बंद करने पर काम कर रहे हैं. वहीं, फ्रांस छोटे मॉड्यूलर परमाणु रिएक्टरों को स्थापित कर रहा है. फ्रांस की मंशा क्या है? ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करना या कुछ और?
डॉयचे वैले पर लीजा लुईज की रिपोर्ट
करीब 10 साल पहले जापान के फुकुशिमा में परमाणु उर्जा संयंत्र में हुए हादसे के बाद कई देशों ने परमाणु उर्जा पर अपने रुख की समीक्षा की. जैसे, जर्मनी और बेल्जियम जैसे देश क्रमश: 2022 और 2025 तक परमाणु उर्जा के इस्तेमाल को बंद करने का इरादा कर चुके हैं. इटली की 95 प्रतिशत आबादी परमाणु उर्जा के इस्तेमाल के खिलाफ है.
हालांकि फिनलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और फ्रांस जैसे देशों ने अभी भी मौजूदा परमाणु संयंत्रों को चालू रखने का फैसला किया है. साथ ही, हाल के वर्षों में इसके विस्तार की भी योजना बनाई है.
फ्रांस के एक कानून में कहा गया है कि देश में फिलहाल कुल उर्जा में 70 प्रतिशत हिस्सेदारी परमाणु उर्जा की है. इसे 2035 तक कम करके 50 प्रतिशत तक लाना है. राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने कुछ समय पहले इस लक्ष्य को ‘अवास्तविक' बताया था. अब जब देश छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों (एसएमआर) की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तो विशेषज्ञों का मानना है कि यह फ्रांस का छिपा हुआ एजेंडा हो सकता है.
दरअसल, आज से 10 साल पहले 2011 में जापान में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी ने फुकुशिमा स्थित परमाणु संयंत्र को ध्वस्त कर दिया था. यह हादसा आधुनिक इतिहास की एक बड़ी त्रादसी थी. इसकी वजह से वहां रेडियोधर्मिता इतनी ज्यादा है कि इंसानों का उसके करीब जाना खतरे से खाली नहीं है. वहां आज भी सफाई के लिए रोबोट का इस्तेमाल किया जा रहा है. इस घटना के बाद से ही कुछ देशों में परमाणु संयंत्रों को बंद करने की होड़ शुरू हो गई. हालांकि, कुछ देशों का मानना है कि फुकुशिमा के नुकसान को काफी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है.
एक बिलियन यूरो निवेश की योजना
हाल ही में फ्रांस के राष्ट्रपति ने तथाकथित छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों (एसएमआर) में निवेश करने की योजना की घोषणा की. उन्होंने कहा कि इससे परमाणु उर्जा के क्षेत्र में नए परिवर्तन का आगाज होगा. यह घोषणा तब की गई जब माक्रों ने एलिसी पैलेस में 30 बिलियन यूरो की ‘फ्रांस 2030 निवेश रणनीति' का खुलासा किया. जाहिर है कि नए रिएक्टर से फ्रांस को CO2 का उत्सर्जन कम करने में मदद मिलेगी.
इस समारोह के दौरान राष्ट्रपति ने कहा, "हमारे पास प्रतियोगियों से आगे बढ़ने का बेहतर समय है. हमारे पास ऐतिहासिक मॉडल हैं और मौजूदा परमाणु उर्जा संयंत्र हैं." नए रणनीति के तहत हाइड्रोजन पावर के विकास के लिए 8 बिलियन यूरो और एसएमआर के लिए 1 बिलियन यूरो आवंटित किए गए हैं. इसके बावजूद, माक्रों ने छोटे प्लांट को ‘पहला लक्ष्य' के तौर पर विकसित करने की घोषणा की है.
फ्रांस के मौजूदा रिएक्टर की क्षमता 1450 मेगावाट तक की है. हालांकि, एसएमआर की क्षमता 50 से लेकर 500 मेगावाट तक होगी. साइटों की कुल क्षमता बढ़ाने के लिए क्लस्टरों में एसएमआर बनाए जाने हैं.
इस बड़े निवेश के बावजूद, परमाणु चैंपियन फ्रांस एसएमआर की दौड़ में सबसे आगे नहीं है. सबसे आगे है अमेरिका. पोर्टलैंड स्थित स्टार्टअप न्यू-स्केल पावर दुनिया की पहली कंपनी है जिसके एसएमआर डिज़ाइन को मंजूरी मिली है. यह कंपनी 2027 में अपना पहला 60 मेगावाट की क्षमता वाले प्लांट को पूरा करने की योजना पर काम कर रही है. वहीं, रूस की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी रूस्तम ने 2028 में अपना पहला एसएमआर प्लांट बनाने का लक्ष्य रखा है.
फ्रांस का पहला संयंत्र 2030 में पूरा होने वाला है. इसके बावजूद, पेरिस स्थित फाउंडेशन फॉर स्ट्रैटेजिक रिसर्च के निकोलस माजुची को लगता है कि देश इस क्षेत्र का नेतृत्व कर सकता है. उन्होंने डॉयचे वेले को बताया, "हमारे पास इस क्षेत्र से जुड़ी पर्याप्त जानकारी है. अगर निजी क्षेत्र निवेश करने के लिए आगे बढ़ता है, तो हम निश्चित तौर पर 2030 में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकते हैं."
माजुची का मानना है कि परमाणु ऊर्जा फ्रांस की ऊर्जा का हिस्सा बनी रहनी चाहिए. वह कहते हैं, "इस प्रकार से पैदा होने वाली उर्जा स्थिर और अनुमानित होती है. पवन उर्जा जैसी नवीकरणीय उर्जा इसकी तुलना में कहीं नहीं हैं. और मौजूदा परमाणु उर्जा संयंत्र से शायद ही CO2 का उत्सर्जन होता है."
वह यह भी कहते हैं कि फ्रांस में परमाणु हादसे की संभावना न के बराबर है, क्योंकि यहां बेहतर तरीके से इसकी निगरानी की जाती है. साथ ही, देश के पास परमाणु कचरे से निपटने की बेहतर टेक्नोलॉजी भी है.
खर्चीला और धीमा
हालांकि, माइकल श्नाइडर को लगता है कि परमाणु उर्जा की मदद से जलवायु आपातकाल के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. वे इसे ‘खर्चीला और धीमा' बताते हैं. श्नाइडर वर्ल्ड न्यूक्लियर इंडस्ट्री स्टेट्स रिपोर्ट (WNISR) के संपादक हैं. इस रिपोर्ट में दुनिया भर के परमाणु उर्जा उद्योग के रूझानों का आकलन किया जाता है.
उन्होंने डॉयचे वेले को बताया, "एसएमआर को लेकर होने वाली चर्चा गर्म हवा की तरह होती है. पिछले साल 250 गीगावाट से अधिक नवीकरणीय उर्जा को ग्रिड में जोड़ा गया. इसमें महज 0.4 गीगावाट ही परमाणु उर्जा थी. इस तरह देखें, तो परमाणु उर्जा का हकीकत में काफी कम योगदान रहा."
श्नाइडर का कहना है कि परमाणु उर्जा संयंत्र केवल नवीकरणीय ऊर्जा की तुलना में अधिक विश्वसनीय प्रतीत होते हैं. फ्रांस के परमाणु रिएक्टरों को 2020 में औसतन एक तिहाई समय तक बंद रखना पड़ा. ऐसा रखरखाव की वजह से किया गया था, क्योंकि ये रिएक्टर करीब 35 वर्षों से अधिक समय से इस्तेमाल में हैं.
उन्होंने कहा कि नवीकरणीय ऊर्जा को विभिन्न ऊर्जाओं के गुलदस्ते के रूप में देखा जाना चाहिए. मांग के मुताबिक, एक प्रकार की ऊर्जा की जगह दूसरे प्रकार की ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा सकता है. पर्यावरणविद अक्सर यह भी कहते हैं कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र के निर्माण के दौरान काफी ज्यादा कार्बन फुटप्रिंट होते हैं.
श्नाइडर कहते हैं, "परमाणु ऊर्जा का संयंत्र बनाने में लंबा समय लगता है. 1986 में चेरनोबिल परमाणु हादसे के बाद फ्रांसीसी यूटिलिटी ईडीएफ और सीमेंस ने ईपीआर विकसित करना शुरू कर दिया. यह पानी के दबाव वाले रिएक्टर की तीसरी पीढ़ी का डिजाइन है. और इसके 35 साल बाद भी अभी तक फ्रांस में कोई ईपीआर नहीं है."
ईडीएफ उत्तरी फ्रांस में पिछले 9 साल से 1.6 गीगावाट वाले ईपीआर का निर्माण कर रहा है. शुरुआत में इसकी लागत 3.3 बिलियन यूरो थी, जो बढ़कर 11 बिलियन तक पहुंच जाएगी. अगले साल तक इस ईपीआर के पूरा होने की संभावना है. इन सब के बावजूद, राष्ट्रपति माक्रों जल्द ही फ्रांस में छह अतिरिक्त ईपीआर बनाने की योजना की घोषणा कर सकते हैं.
अमेरिका में येल विश्वविद्यालय में पर्यावरण और ऊर्जा अर्थशास्त्र के प्रोफेसर केनेथ गिलिंगम को इस तरह की देरी पर हैरानी होती है. वह कहते हैं कि क्या इस तरह की देरी के बावजूद, परमाणु क्षेत्र में निवेश करना आर्थिक रूप से सही है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "नए परमाणु संयंत्रों के लिए सुरक्षा की इतनी सख्त जरूरत होती है कि उनका निर्माण करना काफी महंगा होता है. मुझे वाकई नहीं समझ आता कि एसएमआर पर पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है, खासकर उस स्थिति में जब पक्के तौर पर नहीं पता कि यह काम करेगा या नहीं."
हालांकि, दक्षिणी इंग्लैंड में यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स स्कूल ऑफ बिजनेस के रिसर्च फेलो फिलिप जॉनस्टोन का मानना है कि एसएमआर का पैमाना अर्थशास्त्र के तर्क से अलग है. जॉनस्टोन ने डीडब्ल्यू को बताया, "हमें हमेशा बताया गया था कि बड़े परमाणु संयंत्रों के निर्माण से कई अन्य प्रभावों की वजह से होने वाले खर्चों में कमी होगी. और अब अचानक लगता है कि यह दूसरी तरह से काम करने वाला है?”
उनका मानना है कि फ्रांस के पास परमाणु ऊर्जा में निवेश जारी रखने के अन्य कारण भी हैं. उन्होंने माक्रों के दिसंबर 2020 के एक भाषण की ओर इशारा करते हुए कहा, "जो देश परमाणु उर्जा से जुड़े होते हैं वे अक्सर परमाणु हथियार संपन्न देश होते हैं. जैसे, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह."
माक्रों ने परमाणु क्षेत्र की प्रशंसा करते हुए कहा था, "असैनिक परमाणु शक्ति के बिना कोई सैन्य परमाणु शक्ति नहीं और सैन्य परमाणु शक्ति के बिना कोई असैन्य परमाणु शक्ति नहीं." फ्रांस में करीब 2,20,000 लोग परमाणु से जुड़े क्षेत्र में काम करते हैं.
जॉनस्टोन कहते हैं, "एसएमआर में निवेश सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण एक रणनीतिक निर्णय लगता है, भले ही इसका मतलब बहुत समय और पैसा बर्बाद करना है." (dw.com)
संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया इस सदी में 2.7 डिग्री सेल्सियस तापमान तक की बढ़ोत्तरी के रास्ते पर है. COP26 से पहले संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सदस्य देशों को इस पर तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए.
डॉयचे वैले पर जीनेटे स्विएंक की रिपोर्ट
"गर्मी बढ़ना जारी है”. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनईपी ने मंगलवार को इसी शीर्षक से नई उत्सर्जन गैप रिपोर्ट को पेश किया है. यह रिपोर्ट 120 देशों की अद्यतन राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं का विश्लेषण करती है, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान यानी एनडीसी के रूप में जाना जाता है.
एनडीसी पेरिस जलवायु समझौते के मूल में हैं. इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों को राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्य निर्धारित करने और उनके कार्यान्वयन और नए लक्ष्यों पर नियमित रूप से रिपोर्ट करने की बाध्यता होती है.
यूएनईपी की नवीनतम रिपोर्ट का यह शीर्षक बहुत कुछ कहता है और इसके निष्कर्ष बेहद गंभीर हैं. एनडीसी के अद्यतन निष्कर्षों के मुताबिक, साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सिर्फ 7.5 फीसद की कमी देखी जाएगी. लेकिन पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने और ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 55 फीसद तक कम करना होगा.
समय तेजी से आगे बढ़ रहा है
दूसरे शब्दों में, दुनिया को साल 2030 तक प्रति वर्ष 28 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के समतुल्य (GtCO2e) उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए. उत्सर्जन को 2 फीसद तक सीमित करने के लिए, देशों को अभी भी अपने जलवायु-हानिकारक उत्सर्जन को 30 फीसद या 13 GtCO2e कम करना होगा.
यूएनईपी की इक्जीक्यूटिव डायरेक्टर इंगर एंडरसन इस रिपोर्ट में लिखती हैं, "बहुत स्पष्ट होने की जरूरत है. हमारे पास योजनाएं बनाने, नीतियां बनाने, उन्हें लागू करने और आखिरकार कटौती करने के लिए सिर्फ आठ साल हैं. मतलब, घड़ी जोर से टिक-टिक कर रही है. समय बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है.”
हालांकि, यदि देश केवल अपने राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों पर टिके रहते हैं, जिन्हें पेरिस समझौते के तहत उन्हें व्यक्तिगत रूप से निर्धारित करने की अनुमति है, तो साफ है कि दुनिया 2.7 डिग्री सेल्सियस तक की तापमान वृद्धि के रास्ते पर है, जो खतरनाक है.
कोलोन स्थित गैर लाभकारी शोध संस्थान के निदेशक और नीदरलैंड की वेगनिंजेन यूनिवर्सिटी में जलवायु संरक्षण के प्रोफेसर निकलास होने कहते हैं, "इसके परिणामस्वरूप भयावह जलवायु परिवर्तन होगा जिसका हम बिल्कुल भी सामना नहीं कर पाएंगे. इसे हर कीमत पर टाला जाना चाहिए.”
महामारी में बड़ी चूक हो गई
यूएनईपी की रिपोर्ट में निराशा व्यक्त की गई है कि कोरोना वायरस महामारी के बाद अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए किए गए निवेशों में जलवायु संरक्षण का ध्यान बहुत कम रखा गया था. रिपोर्ट के मुताबिक, रिकवरी पैकेज के पांचवें हिस्से से भी कम राशि ऐसी है जिसका इस्तेमाल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में होना है.
साल 2020 में, COVID-19 महामारी के कारण दुनिया भर में नए उत्सर्जन में 5.4 फीसद की गिरावट आई. हालांकि, विश्व मौसम विज्ञान संगठन, संयुक्त राष्ट्र की मौसम और जलवायु एजेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसी दौरान, वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की साद्रता भी एक नई ऊंचाई पर पहुंच गई.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल की तुलना में यह वृद्धि पिछले एक दशक की औसत वृद्धि से भी अधिक थी. यूएनईपी की रिपोर्ट कहती है, "पिछले करीब बीस लाख वर्षों में किसी भी समय की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड की साद्रता अधिक है.”
यूएनईपी के मुताबिक, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, चीन और यूरोपीय संघ सहित कई देशों द्वारा किए गए नेट जीरो संकल्प से महत्वपूर्ण अंतर आ सकता है.
नेट जीरो का मतलब है मानव जितनी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहा है, उतनी ही मात्रा में इन गैसों को वातावरण से हटा देना चाहिए. कृत्रिम और प्राकृतिक ग्रीनहाउस गैस सिंक, जैसे कि पीटलैंड या जंगल इन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को संतुलित कर सकते हैं.
यूएनईपी की रिपोर्ट कहती है, "यदि मजबूती से बनाया गया और पूरी तरह से लागू किया गया तो नेट जीरो लक्ष्य ग्लोबल वॉर्मिंग से अतिरिक्त 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान कम कर सकते हैं. इस वजह से अनुमानित तापमान वृद्धि घटकर 2.2 डिग्री सेल्सियस तक ही रह सकती है.”
हालांकि, यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि कई देश साल 2030 के बाद तक नेट-जीरो के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में काम करने की योजना नहीं बना रहे हैं.
दो डिग्री की बढ़ोतरी भी घातक है
सदस्य देशों को इस मामले में आगे बढ़ने और एनडीसी समझौते को देखते हुए नेट जीरो पर तेजी से काम करने की जरूरत है. यूएनईपी की इक्जीक्यूटिव डायरेक्टर एंडरसन इस रिपोर्ट की भूमिका में लिखती हैं, "यह सब पांच साल या तीन साल बाद नहीं हो सकता. इस पर तत्काल अमल करने की जरूरत है.”
न्यू क्लाइमेट इंस्टीट्यूट के निकलास होने कहते हैं कि भले ही ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोक दिया गया हो, आने वाले दिनों में दुनिया एक बदली हुई जगह होगी. वो कहते हैं, "वर्तमान में हम तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि कर रहे हैं और हम इसके परिणाम के रूप में सूखा, बाढ़ और पूरी दुनिया में जंगल में आग की घटनाएं देख रहे हैं. तापमान में 2 डिग्री की वृद्धि का साफ मतलब है कि ये सभी घटनाएं और भी भयावह रूप में दिखेंगी और मौसम की चरम घटनाएं साल में कई बार दिखाई पड़ेंगी.”
यूएनईपी रिपोर्ट मीथेन उत्सर्जन में कमी के माध्यम से जलवायु लक्ष्यों और वर्तमान वास्तविकता के बीच की खाई को पाटने के लिए एक अवसर के तौर पर देखती हैं.
मीथेन न केवल जीवाश्म ईंधन के निष्कर्षण के दौरान निकलती है, बल्कि जैविक कचरे के अपघटन, अपशिष्ट जल के उपचार और पशुधन की खेती और चावल की खेती के माध्यम से भी उत्पन्न होती है.
हालांकि मीथेन वातावरण में महज 12 साल तक मौजूद रहती है जबकि इसकी तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड सदियों तक वातावरण में रहती है. अपेक्षाकृत कम जीवनकाल के दौरान यह जलवायु के लिए बहुत अधिक शक्तिशाली और इसलिए ज्यादा हानिकारक है. रिपोर्ट के मुताबिक, मीथेन उत्सर्जन में तेजी से कमी, कार्बन डाइऑक्साइड में गिरावट की तुलना में तापमान में बढ़ोत्तरी को जल्दी सीमित कर सकती है.
यूएनईपी रिपोर्ट तैयार करने वालों ने लिखा है कि गरीब देशों को मुआवजा भुगतान या स्पष्ट रूप से परिभाषित और ठीक से डिजाइन किए गए कार्बन बाजारों जैसे उपायों से भी जलवायु संरक्षण के लिए प्रेरित किया जा सकता है.
होने कहते हैं, "हमने जलवायु संरक्षण के उपायों में इतनी देर कर दी है कि यह जरूरी है कि विकसित देश घरेलू प्रयासों के अलावा, विकासशील देशों को जितनी जल्दी हो सके उत्सर्जन कम करने में मदद करें. उत्सर्जन का अंतर इतना बड़ा है कि कोई भी देश पीछे नहीं बैठ सकता.”
यूएनईपी की एंडरसन ने लिखा है कि इस साल की एमिशन गैप रिपोर्ट न केवल विफलताओं पर प्रकाश डालती है, बल्कि अधिक जलवायु कार्रवाई की विशाल क्षमता पर भी प्रकाश डालती है. उदाहरण के लिए, साल 2010 और 2021 के बीच लागू की गई नीतियां साल 2030 में वार्षिक उत्सर्जन को 11 GtCO2e कम कर देंगी.
एंडरसन कहती हैं कि इसलिए हमें जागना होगा और बिना किसी भेदभाव के इस पर आगे बढ़ना होगा. उनके मुताबिक, "एक प्रजाति के रूप में हम जिस आसन्न संकट का सामना कर रहे हैं, उसके प्रति हमें सचेत रहना है. हमें दृढ़ रहने की जरूरत है, हमें तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है, और हमें इसे अभी करना शुरू करना होगा.” (dw.com)
अफगानिस्तान में लड़कियों के स्कूल तालिबान के आने से बंद हैं. लेकिन कुछ लड़कियां आसमान में उड़ना चाहती हैं, पढ़ना चाहती हैं और एक कामयाब इंसान बनना चाहती हैं. इसके लिए वह जोखिम के बावजूद भी पढ़ाई कर रही हैं.
अफगानिस्तान के हेरात में घर में कैद जैनब मुहम्मदी को कोडिंग क्लास के बाद कैफेटेरिया में अपने दोस्तों के साथ गपशप मारने की याद सताती है. अब वह हर दिन गुपचुप से ऑनलाइन क्लास में शामिल होती है.
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद जैनब का स्कूल बंद हो गया लेकिन यह जैनब को सीखने से रोक नहीं पाया. जैनब कहती हैं, "मेरे जैसी लड़कियों के लिए खतरा और जोखिम है. अगर तालिबान को पता चलता है तो वह मुझे सजा दे सकता है. वह पत्थर से मारकर मुझे मौत के घाट उतार सकता है." जैनब ने सुरक्षा कारणों से अपना असली नाम नहीं बताया.
25 वर्षीय जैनब ने वीडियो कॉल पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "लेकिन मैंने अपनी उम्मीद या आकांक्षा नहीं छोड़ी है. मैं पढ़ाई जारी रखने के लिए दृढ़ हूं." तालिबान द्वारा स्कूल बंद करवाए जाने के बावजूद वह अनुमानित सैकड़ों अफगान लड़कियों और महिलाओं में से एक हैं जो लगातार सीख रही हैं - कुछ ऑनलाइन और अन्य अस्थायी स्कूलों में.
अफगानिस्तान की पहली महिला कोडिंग अकादमी कोड टू इंस्पायर की सीईओ फरेशतेह फोरो ने एन्क्रिप्टेड वर्चुअल क्लासरूम स्थापित किया है. उन्होंने स्टडी मैटेरियल अपलोड किए. जैनब की तरह 100 लड़कियों को लैपटॉप और इंटरनेट पैकेज मुहैया भी कराए.
वह कहती हैं, "आप घर पर बंद हो सकते हैं और बिना किसी झिझक के भौगोलिक चिंताओं के बिना वर्चुअल दुनिया का पता लगा सकते हैं. यही तकनीक की खूबसूरती है." सितंबर में सरकार ने कहा कि बड़े लड़के फिर से स्कूल शुरू कर सकते हैं लेकिन बड़ी लड़कियां जिनकी आयु 12-18 वर्ष के बीच है, उन्हें घर पर ही रहना होगा.
तालिबान, जिसने लगभग 20 साल पहले अपने आखिरी शासन के दौरान लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगा दी थी उसने वादा किया है कि वह उन्हें स्कूल जाने की अनुमति देगा क्योंकि वह दुनिया को दिखाना चाहता है कि वह बदल गया है. यूनिसेफ के मुताबिक 2001 में तालिबान के बेदखल होने के बाद स्कूल में उपस्थिति तेजी से बढ़ी, 2018 तक 36 लाख से अधिक लड़कियों का नामांकन हुआ. विश्वविद्यालय जाने वालों की संख्या, जो अब लाखों में है. उसमें भी वृद्धि हुई. 2020 में लगभग 6 फीसदी महिलाएं शिक्षा प्राप्त कर रही थीं, जो 2011 में सिर्फ 1.8 प्रतिशत था.
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
-सिकंदर किरमानी
हर कुछ दिनों में अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व में बसे जलालाबाबाद शहर के बाहरी इलाक़ों में सड़कों के किनारे लाशें देखी जा रही हैं.
किसी को गोली मारी गई थी तो किसी को फांसी पर लटकाया गया है, कई लोगों के सिर कलम कर दिए गए हैं.
इनमें से कई शवों के पास हाथ से लिखे नोट्स रखे गए हैं, जिनमें लिखा है कि इनका ताल्लुक इस्लामिक स्टेट (आईएस) की अफ़ग़ानिस्तान शाखा से था.
ये वो एक्स्ट्रा-जूडिशल और बर्बर हत्याएं हैं, जिनकी अब तक किसी ने ज़िम्मेदारी नहीं ली है. लेकिन माना जा रहा है कि इन हत्याओं के लिए तालिबान ज़िम्मेदार है.
आईएस तालिबान का कट्टर विरोधी माना जाता है. इसी साल अगस्त के महीने में आईएस ने राजधानी काबुल में मौजूद एयरपोर्ट के बाहर एक आत्मघाती बम धमाकों को अंजाम दिया था, जिसमें 150 लोगों की मौत हुई थी.
ये दोनों समूह अब एक ख़ूनी संघर्ष में उलझ गए हैं, जिसकी आँच जलालाबाद में महसूस की जा सकती है
तालिबान के विद्रोह के ख़त्म होने के बाद अब अफ़ग़ानिस्तान अधिक शांतिपूर्ण है. लेकिन जलालाबाद में स्थिति अलग है. यहाँ लगभग रोज़ाना ही दोनों समूहों के लड़ाकों को हमलों का सामना करना पड़ रहा है.
आईएस जिसे स्थानीय स्तर पर लोग "दाएश" कहते हैं, उसके लड़ाके हमला कर छिप जाने की रणनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे पहले अफ़ग़ानिस्तान की पूर्व सरकार पर हमले करने के लिए तालिबान सफलतापूर्वक इसी तरह की रणनीति अपना चुका है, जिसमें सड़कों के किनारे बम लगाना और छिप कर हत्याएं करना शामिल है.
इस्लामिक स्टेट का आरोप है कि तालिबान "विश्वासघाती" है क्योंकि वह इस्लाम को लेकर कट्टर नहीं है, वहीं तालिबान आईएस पर विधर्मी और चरमपंथी होने का आरोप लगाता है.
जलालाबाद शहर नांगरहार प्रांत में है, जहाँ के तालिबान के ख़ुफ़िया प्रमुख डॉक्टर बशीर हैं. डॉक्टर बशीर अपने सख़्त रुख़ के लिए जाने जाते हैं. इससे पहले उन्होंने कुनार में आईएस के बनाए गढ़ से उसे बाहर निकालने में मदद की थी.
डॉक्टर बशीर कहते हैं कि शहर के बाहर सड़कों के किनारे लोगों के देखने के लिए रखे गए शवों से तालिबान का कोई नाता नहीं है. हालांकि वो गर्व से कहते हैं कि उनके लड़ाकों में इस्लामिक स्टेट के दर्जनों सदस्यों को पकड़ा है. जिस वक़्त तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर रहा था, उस वक़्त मची अफ़रातफरी के बीच जेलों में बंद इस्लामिक स्टेट के कई लड़ाके भाग गए थे.
अफ़ग़ानिस्तान में 'नहीं है इस्लामिक स्टेट'
सार्वजनिक तौर पर तालिबान और डॉक्टर बशीर, इस्लामिक स्टेट के ख़तरे को कम कर बता रहे हैं. उनका कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध अब ख़त्म हो चुका है और वो देश में शांति और सुरक्षा लाएंगे और तालिबान के इस उद्देश्य को जो कमज़ोर करता है वो स्वीकार्य नहीं है.
अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ कई सबूत होने के बावजूद डॉक्टर बशीर दावा करते हैं कि देश में औपचारिक तौर पर इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी नहीं है.
वो कहते हैं, "दाएश नाम सीरिया और इराक़ की तरफ इशारा करता है, यहाँ अफ़ग़ानिस्तान में दाएश नाम का कोई ऐसा विद्रोही समूह नहीं है."
वो कहते हैं कि वो इन लड़ाकों को "विश्वासघातियों का ऐसा समूह मानते हैं, जिन्होंने इस्लामिक सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह किया है."
दरअसल, न केवल आईएस औपचारिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद है बल्कि समूह ने देश के प्राचीन नाम का इस्तेमाल करते हुए यहाँ के लिए अपनी एक अलग शाखा ही बना ली है, जिसका नाम है इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएस-के).
इस समूह ने सबसे पहले 2015 में अफ़ग़ानिस्तान में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी और उसके बाद आने वाले सालों में घातक हमलों को अंजाम दिया. लेकिन तालिबान के एक बार फिर सत्ता में आने के बाद इस समूह ने ऐसे इलाक़ों में आत्मघाती हमलों को अंजाम देना शुरू कर दिया है, जहाँ इसके लड़ाके पहले कभी नहीं जाते थे.
इस महीने की शुरुआत में इस्लामिक स्टेट ने देश के उत्तर में बसे कुंदूज़ शहर में शिया अल्पसंख्यक समुदाय के मस्जिदों पर और तालिबान का गढ़ माने जाने वाले कंधार पर हमले किए.
आईएस से निपटने को तालिबान तैयार
हालाँकि डॉक्टर बशीर ज़ोर देकर कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है.
वो कहते हैं, "हम दुनिया से यही कहते हैं कि चिंता न करें. अगर विश्वासघातियों का एक छोटा समूह सिर उठाता है और इस तरह के हमले करता है.... अल्लाह की मंशा रही तो जिस तरह हमने लड़ाई के मैदान में 52 देशों के गठबंधन को हराया था, इन्हें भी हरा देंगे."
दो दशकों तक अफ़ग़ानिस्तान में विद्रोह में शामिल रहे डॉक्टर बशीर कहते हैं कि, "हमारे लिए गुरिल्ला युद्ध को रोकना आसान होगा."
लेकिन सालों तक युद्ध और रक्तपात देख चुके अफ़ग़ान, पश्चिमी मुल्क और अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी इस्लामिक स्टेट के पैर पसारने को लेकर चिंतित हैं. अमेरिकी अधिकारी पहले ही चिंता जता चुके हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट विदेशी मुल्कों पर हमले करने के लिए छह महीनों से एक साल के भीतर तैयार हो सकता है.
फ़िलहाल इस्लामिक स्टेट अफ़ग़ानिस्तान के किसी इलाक़े पर कब्ज़ा नहीं कर पाया है. इससे पहले आईएस ने नंगरहार और कुनार प्रांतों में अपना बेस बना लिया था लेकिन तालिबान और अमेरिकी हवाई हमलों की मदद से अफ़ग़ान सेना ने उसे यहाँ से बाहर खदेड़ दिया था.
तालिबान की तुलना में इस समूह में अब कम ही लड़ाके हैं. जहाँ तालिबान के सत्तर हज़ार सदस्य हैं जो अब अमेरिकी हथियारों से लैस हैं, वहीं आईएस के लड़ाकों की संख्या अब कुछ हज़ार लड़ाकों तक सिमट गई है.
जलालाबाद में तालिबान का एक सदस्य. इस बात का डर जताया जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट केंद्रीय एशिया और पाकिस्तानी विदेशी लड़ाकों की मदद ले सकता है.
लेकिन इस बात की डर भी जताया जा रहा है कि आईएस देश में मौजूद दूसरे केंद्रीय एशिया और पाकिस्तानी विदेशी लड़ाकों को अपना सदस्य बना सकता है. साथ ही ये डर भी है कि अगर भविष्य में तालिबान के सदस्यों में मतभेद हुआ और ये समूह टूटा तो नाराज़ सदस्य भी आईएस का दामन थाम सकते हैं.
अमेरिका को उम्मीद है कि वो इस्लामिक स्टेट को निशाना बनाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के बाहर से हमले करना जारी रख सकेगा. हालांकि इस मामले में तालिबान उत्साहित है और मानता है कि वो अकेले विद्रोहियों का मुक़ाबला कर सकता है.
इस्लामिक स्टेट के कई सदस्य समूह छोड़ कर तालिबान और पाकिस्तान तालिबान में शामिल हो गए हैं. पाकिस्तान तालिबान, तालिबान से जुड़ा समूह है लेकिन उससे अलग है.
तालिबान के एक अधिकारी ने मुस्कुराते हुए मुझे बताया, "हम उन्हें अच्छे से जानते हैं और वो भी हमें बढ़िया से जानते हैं."
हाल के दिनों में नंगरहार में आईएस के दर्जनों लड़ाकों ने डॉक्टर बशीर के सैनिकों के सामने आत्मसमर्पण किया है. इनमें से एक जो पहले तालिबान में शामिल थे उन्होंने बताया कि इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के बाद उनका मोहभंग हो गया.
वो कहते हैं कि जहाँ तालिबान बार-बार इस बात पर ज़ोर देता है कि उनका उद्देश्य अफ़ग़ानिस्तान में 'इस्लामिक अमीरात' कायम करने का है, वहीं इस्लामिक स्टेट के इरादे वैश्विक स्तर पर पैर फैलाने के हैं.
वो कहते हैं, "आईएस दुनिया भर में सभी के लिए ख़तरा है. वो पूरी दुनिया पर अपना शासन चाहता है. लेकिन उसके कहने और करने में फ़र्क़ है. वो इतना ताक़तवर भी नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर सके."
कई अफ़ग़ान नागरिक आईएस के बढ़ रहे हमलों को देश में एक "नए खेल" की शुरुआत के रूप में देख रहे हैं.
जलालाबाद में केवल तालिबान को ही निशाना नहीं बनाया जा रहा है. इस महीने की शुरुआत में सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल रहमान मावेन एक शादी में शामिल होने के बाद से घर लौट रहे थे जब उनकी कार पर हमला किया गया. उनके दोनों बेटे छिप गए लेकिन अब्दुल को गोली मार दी गई. इस हत्या की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली.
उनके भाई शाद नूर हताश हैं. वो कहते हैं, "तहे दिल से कह रहा हूँ, जब तालिबान ने देश पर कब्ज़ा किया तो हम ख़ुश थे और आशावादी थे कि भ्रष्टाचार, हत्याएं, बम धमाके अब ख़त्म हो जाएंगे."
"लेकिन अब हमें इस बात का अहसास हो रहा है कि हमारे सामने एक नया चेहरा आ गया है, जिसका नाम दाएश है." (bbc.com)
-हुमैरा कंवल
तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में लोगों से पैसा ले रहे हैं, हालांकि स्थानीय लोग उसे 'टैक्स और चंदे' के बजाय 'भत्ते' का नाम दे रहे हैं. तालिबान पर आरोप लग रहा है कि लोगों को अपने इलाक़ों में रहने और यात्रा करने के लिए तालिबान को पैसे देना होता है.
यह भी दावा किया जा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के विभिन्न हिस्सों में लोग परिवार की विधवाओं को तालिबान से बचाने के लिए घर छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान के जोज़ान प्रांत में इसी तरह की स्थितियों का सामना कर रहे लोगों के साथ की गई बातचीत को इस लेख में शामिल किया गया है.
शबनम (बदल हुआ नाम) ने हाल ही में मज़ार-ए-शरीफ़ से जोज़ान की यात्रा की है. वो कहती हैं,'अब हम अफ़गानी महिलाएं मेहरम के बिना घर से बाहर नहीं निकल सकतीं. इस यात्रा में मेरे साथ एक महिला रिश्तेदार, उनके पति और बेटा थे.
तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत के रुख़ में बदलाव क्यों?
ये महिला जज कैसे तालिबान को चकमा देकर अफ़ग़ानिस्तान से भाग निकलीं?
जैसे ही आप मज़ार-ए-शरीफ़ शहर की सीमा से बाहर निकलते हैं, वहां एक सुरक्षा चौकी है जहां अब तालिबान दिखाई देते हैं. वे वाहनों की तलाशी लेते हैं, अंदर मौजूद यात्रियों पर नज़र डालते हैं, पूछताछ करते हैं और फिर सामान की तलाशी लेते हैं.
हालांकि, चौकियों पर तालिबान का एक अधिकारी ऐसा होता है जिसका काम ड्राइवरों से पैसे लेना होता है. उसके साथ एक हथियारबंद व्यक्ति होता है. हाईवे पर तालिबान के लड़ाके मोटरसाइकिलों पर गश्त करते नज़र आते हैं.
जोज़ान के अदख़ोय जिले तक तीन घंटे की यात्रा में, मैंने लगभग 11 चौकियों को पार किया.
मज़ार-ए-शरीफ़ निवासी पेशे से ड्राइवर नादिर (बदला हुआ नाम) बताते हैं, "तालिबान हर घर से चंदा इकट्ठा कर रहे हैं और हर कोई उन्हें अपनी हैसियत के हिसाब से पैसे दे रहा है. मैंने भी 100 अफ़ग़ानी रूपये दिए. किसी को इससे ज़्यादा देने पड़े और किसी को खाना देना पड़ा."
तो क्या वे आपके घर आते हैं?
"उन्होंने इस काम के लिए क्षेत्र के प्रमुख लोगों को रखा है और वे हमारे घरों में आते हैं लेकिन उनके साथ दो तालिबान सदस्य भी होते हैं."
काबुल और मज़ार-ए-शरीफ़ के अलावा मैं जोज़ान पहले भी कई बार आ चुका हूं. शबरग़ान जेल से गुज़रते हुए मैंने देखा कि वहां का मुख्य द्वार खुला था और तालिबान वहां भी पहरा दे रहे थे.
हाईवे की सभी चौकियां लड़ाई से प्रभावित थीं, और अब उनकी छतों पर तालिबान के झंडे लहरा रहे थे.
शबनम बताती हैं कि 'जब मैं अदख़ोय में दाख़िल हुई, तो सब कुछ पूरी तरह से बदला हुआ दिखाई दिया. ऐसा लगा जैसे यह कोई उजाड़ शहर है. सारी दुकानें बंद थी और एक डर जैसा माहौल था.'
'मुझे बताया गया कि तालिबान के आदेश के मुताबिक़ शाम को 5 बजते ही दुकानें बंद कर दी जाती हैं. जब हम अंदर दाख़िल हुए तो चार बज चुके थे. सूरज डूबने के बाद वहां कर्फ़्यू लग जाता है.'
पर्दा करने की नसीहत
गाड़ियों में संगीत पर पाबंदी और महिलाओं को पर्दा करने के निर्देश देने के अलावा, स्मार्टफ़ोन के इस्तेमाल से बचने के लिए कहा जाता है.
शबनम कहती है, "यहां मैं अपनी मौसी के पास ठहरी, जिन्होंने मुझे बताया कि इस बार जब तालिबान उनके इलाक़े में आए तो लड़ाई हुई थी. यहां की स्थिति काबुल और मज़ार-ए-शरीफ़ या अन्य प्रमुख शहरों से अलग थी."
उनकी मौसी ने बताया कि 'ऐसा लग रहा था जैसे कि हमारे घर के सामने जंग हो रही थी. बहुत से रिश्तेदार अपने बच्चों को लेकर, शरण लेने के लिए हमारे घर आ गए थे.
"बच्चे बहुत डरे हुए थे. वो तहख़ानों और ऊपर कमरों में डर के मारे घर के एक कोने से दूसरे कोने तक चिल्लाते हुए भाग रहे थे."
उनकी मौसी ने कहा कि वे युद्ध के भयानक दिन थे. तीन दिन तक ऐसा ही चलता रहा. इस लड़ाई में बहुत सी दुकानों में आग लगी और मार्केट के शीशे टूट कर चकनाचूर हो गये.
उन्होंने बताया कि 'तालिबान की पिछली सरकार में, तालिबान ने हमारे घर के कोने-कोने की तलाशी ली थी और पुरुषों को गिरफ़्तार कर लिया था. मेरे पास एक सिलाई मशीन थी, जो असल में उनके लिए नई चीज़ थी और वे मुझसे पूछने लगे कि यह क्या है.'
तालिबान
कॉलेज जाने वाली लड़कियां घरों में कैद
उन्होंने बताया कि उस दिन तालिबान ने 'हमारे बैग और हर चीज़ की तलाशी ली लेकिन कुछ नहीं मिला. वे एक जागीरदार के घर गए और ख़ूब तोड़-फ़ोड़ की. हमारे घर के पुरुषों को 10 दिन के बाद रिहा किया गया. उन्हें बहुत प्रताड़ित किया गया था.'
उन्होंने बताया कि जब लड़ाई ख़त्म हो गई, तो मैंने अपने पति से कहा कि मेरे साथ बाज़ार चलो, मुझे कुछ चीज़ें ख़रीदनी थीं. मेरे पति ने कहा कि जाओ, कुछ नहीं होगा, लेकिन मैंने देखा कि जिन महिलाओं ने मोज़े नहीं पहने थे या खुले जूते पहने हुए थे, तालिबान उनके साथ सख़्ती से पेश आ रहे थे. उसके बाद मैं डर से बाहर नहीं निकली. फिर शबरग़ान में लड़ाई शुरू हुई, तो हमारे घर पर और रिश्तेदार आ गए.
वो बताती हैं कि बड़े शहरों में आने से पहले भी तालिबान दूरदराज़ के गांवों में मौजूद थे.
वह कहने लगी कि अब उनकी उम्र 65 साल हो गई है. 'जब मैं छोटी थी और स्कूल जाती थी तो यह नीला बुर्का नहीं होता था. हमारी यूनिफ़ॉर्म स्कर्ट थी जो घुटने तक लंबी होती थी, जिसके साथ हम मोज़े पहनते थे. लेकिन फिर तालिबान ने बुर्क़े का आदेश दिया और दिन-ब-दिन उनके आदेश सख़्त होते गए.'
शबनम कहती है कि जैसे-जैसे आप इस इलाक़े में आगे बढ़ते जायेंगे, आपको सामान्य से बहुत कम महिलाएं दिखाई देंगी और स्कूल बंद मिलेंगे, जिनके प्रभारी अब तालिबान हैं.
यहां मुझे बहुत सी युवा लड़कियों से भी मिलने का मौक़ा मिला. कुछ लड़कियां यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित जोज़ान यूनिवर्सिटी के अंतिम वर्ष में थी, और अब घरों में क़ैद हो कर रह गईं.
भविष्य की चिंता
स्कूल, कॉलेज जाने वाली लड़कियों में भी निराशा और डर है कि उनकी शिक्षा का क्या होगा और क़ीमती साल बर्बाद होने के बाद, क्या भविष्य में अब कोई रास्ता बचा है, उनके किसी भी सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था.
वहां की महिलाओं का कहना है कि जिन्हें काम पर बुलाया भी गया है उन्हें भी वेतन नहीं दिया जा रहा है.
तालिबान ने स्कूल यूनिफ़ॉर्म को ग्रे से ब्लैक कर दिया है, लेकिन लड़कियां तो स्कूल बिल्कुल भी नहीं जा पा रही हैं.
मेरी मुलाक़ात यहां मरियम बीबी से हुई, जिनके कंधे और घुटने में आज भी बरसों पहले तालिबान द्वारा उनके घर पर फेंके गए ग्रेनेड के टुकड़े मौजूद हैं. उस दिन उन्होंने अपना एक बेटा भी खो दिया था.
उनके पति एक सिक्योरिटी गार्ड थे और अब उनका बेटा सिक्योरिटी गार्ड है जो तालिबान के डर की वजह से अपने घर पर नहीं रह सकता है.
जोज़ान के कई परिवारों ने मुझे बताया कि तालिबान ने उनसे न सिर्फ़ खाना बल्कि पैसे भी लिए हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि अब बिजली के बिल दोगुने आ रहे हैं और लोड शेडिंग भी बहुत हो रही है.
मुझे बताया गया कि तालिबान ने अलग-अलग लोगों से अलग-अलग रक़म ली है, जैसे शिक्षकों से एक हज़ार अफ़ग़ानी रूपये और अगर कोई व्यापारी है तो उससे 5 हज़ार अफ़ग़ानी रूपये लिए हैं.
मरियम बीबी की बहू एक स्कूल टीचर हैं. मरियम ने बताया कि उनकी बहू ने भी तालिबान को एक हज़ार अफ़ग़ानी रूपये दिए थे, लेकिन उन्होंने कहा कि यह जो कहा जा रहा है कि लड़कियां छठी कक्षा तक पढ़ सकती हैं. कम से कम यहां तो ऐसा नहीं हो रहा है.
इस क्षेत्र में लड़कियों को स्कूल जाने की इजाज़त नहीं है. उन्होंने कहा कि वह तालिबान के पहले के दौर को भूल गए थे, लेकिन अब बहुत मुश्किल हालात हैं. उनके मुताबिक़ इस इलाक़े में पहले भी हालात ख़राब थे और यह बेहद असुरक्षित इलाक़ा था. उन्होंने बताया कि तालिबान ने कई घरों में लूट-पाट भी की है.
मरियम बीबी ने कहा कि कोई महिला मजबूरी में भी रिक्शे में अकेली यात्रा नहीं कर सकती है. उनके अनुसार, दो महिलाओं और रिक्शा चालक को इस वजह से मार पड़ी, क्योंकि रिक्शा चालक रिक्शे में सवार महिलाओं का मेहरम नहीं था.
जोज़ान प्रांत के अदख़ोय जिले में लोगों की परेशानी की एक वजह सूखे के कारण खेती का न होना भी है. तालिबान के आने से पहले यहां के लोगों को अंतरराष्ट्रीय संगठनों से मदद के तौर पर आटा तो मिल जाता था, लेकिन इस बार वो भी नहीं मिला. अब लोग कहते हैं कि कौन उनकी मदद करेगा.
यहां के ग़रीब किसानों को भी तालिबान को टैक्स देना पड़ता है. सभी व्यापारिक केंद्रों पर तालिबान के प्रतिनिधि खड़े रहते हैं और मज़ार-काबुल हाईवे और हेरात-काबुल हाईवे पर आपको ऐसे ही प्रतिनिधि देखने को मिल जाएंगे. यहां उनके अलग-अलग सामान के लिए अलग-अलग रेट हैं. इसके अलावा, व्यापारियों और धनी दुकानदारों को तालिबान को भत्ता देना पड़ता है.
पैसे वसूलने का नया तरीका
अब तालिबान ने वहां भत्ता वसूल करने का नया तरीक़ा निकाला है. इसमें वो यहां के परिवारों से पैसे इकट्ठा करते हैं या अपने लड़ाकों के लिए खाना लेते हैं.
इदरीस (बदला हुआ नाम) ने मुझे बताया कि यहां तालिबान ने सभी शादीशुदा लोगों से खाना लेने के अलावा 150 अफ़ग़ानी रूपये लिए हैं. उनके मुताबिक़ तालिबान ने कहा है कि वे मदरसा बनाना चाहते हैं.
उन्होंने कहा कि ख़माब के 18 गांवों में पहले से ही 30 मदरसे हैं, लेकिन तालिबान फिर भी और मदरसे बनाने की घोषणा कर रहे हैं. इदरीस कहते हैं, 'वे युवाओं को तालिबान बनने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.' उन्होंने कहा कि तालिबान में शामिल होने वाले युवा लड़कों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है.
एक अन्य व्यक्ति ने मुझे बताया कि ऐसा भी हुआ है कि जो लोग सेना में थे, तालिबान ने उन लोगों से पैसे भी लिए, उनके हथियार भी ले लिए और उन्हें जेलों में भी बंद कर दिया.
इदरीस ने कहा कि ऐसी भी ख़बरें हैं कि उनके जिले में तालिबान का प्रतिनिधित्व कर रहे मुल्ला माजिद ने एक स्थानीय व्यक्ति की विधवा से शादी की है.
जोज़ान प्रांत के आक्चा ज़िले में भी ऐसे ही हालात की ख़बरें सुनने को मिली हैं. मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया कि तालिबान ने वहां दो विधवाओं से शादी करने के लिए कहा, लेकिन उनके बच्चे थे और वे शादी नहीं करना चाहती थी, इसलिए वे अपने परिवार सहित वहां से फ़रार हो गई.इदरीस के माता-पिता जोज़ान में रह रहे हैं.
वो कहते हैं, 'मेरे घर में भी एक भाभी विधवा है. हमें हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि उनका क्या होगा. हमारे बुज़ुर्ग माता-पिता अपना इलाक़ा नहीं छोड़ना चाहते हैं और न ही हम अर्थिक तौर पर किसी दूसरे इलाक़े में रहना बर्दाश्त कर सकते हैं.'
इदरीस कहते हैं, कि 'यहां आपको ऐसे युवा भी मिलेंगे, जिनकी नौकरी चली गई है. वे तालिबान की हिंसा को बर्दाश्त नहीं करना चाहते और किसी भी क़ीमत पर बिना पासपोर्ट के देश छोड़ना चाहते हैं.
ऐसे लोग भी मिलेंगे जो अभी भी अपने दिल में यह इच्छा रखते हैं कि आसपास के सभी लोग उनके साथ मिल जाये और तालिबान के ख़िलाफ़ उठ खड़े हों, लेकिन तालिबान का डर उन्हें ऐसा करने से रोकता है.
जोज़ान के करकान जिले में भी तालिबान टैक्स वसूल कर रहे हैं. वहां वो 140 किलो गेहूं में से सात किलो गेहूं वसूल करते हैं. पहले ये होता था कि यह दान के तौर पर ग़रीबों या स्थानीय मस्जिद को दिया जाता था, लेकिन अब इसे तालिबान ख़ुद ले रहे हैं और नहीं देने पर किसानों को धमकाते हैं.
जोज़ान की यात्रा के बाद शबनम ने फ़ोन पर फूट फूट कर रोते हुए मुझसे कहा, कि वह वहां की महिलाओं और पुरुषों के चेहरे पर फ़ैली उदासी और निराशा को शायद शब्दों में बयां नहीं कर सकती, लेकिन उन्होंने वहां जो देखा और महसूस किया उसका दर्द उनके दिल में हमेशा रहेगा.
तालिबान का पक्ष
बीबीसी ने तालिबान द्वारा लिए जाने वाले टैक्स और अनाज के बारे में जानने के लिए तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्ला मुजाहिद को सवाल भेजे और पूछा कि क्या ये आरोप सही हैं और यह भी कि अब जबकि तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान पर कंट्रोल है, तो आर्थिक और वित्तीय स्थिति से कैसे निपटा जा रहा है?
हमें तालिबान के कार्यालय से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के एक प्रांत में टैक्स कलेक्टर की ड्यूटी निभाने वाले तालिबान के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर इस बारे में हमें कुछ डिटेल दी है.
उन्होंने बीबीसी के मलिक मुदस्सिर से कहा कि दो तरह के टैक्स लिए जा रहे हैं.
उन्होंने कहा, "व्यापारी सीमावर्ती इलाक़ों से आने वाली चीज़ों पर टैक्स देते हैं. इसके भुगतान करने पर व्यापारियों को रसीद दी जाती है और यह हमारे डेटाबेस में जाती है. हर चीज़ की एक क़ीमत होती है, जैसे आटा और खाना बनाने के तेल पर अलग-अलग टैक्स लगता है."
तालिबान के टैक्स कलेक्टर ने कहा कि जो उपकर वसूल किया जा रहा है, उसे वह ग़रीबों को दे रहे हैं.
उन्होंने कहा कि किसान उन्हें आधा ही उपकर देते हैं. (उस क्षेत्र की प्रथा के अनुसार ये किसी वस्तु के दसवां हिस्सा या उसकी क़ीमत का दसवां भाग होता है) उन्होंने कहा कि अभी वही पुराना सिस्टम चल रहा है.
उन्होंने बताया कि 'हमें अभी तक कोई नया सिस्टम नहीं मिला है. हम पुराने सिस्टम के तहत ही लोगों से टैक्स वसूल कर रहे हैं.'
तालिबान के टैक्स कलेक्टर का कहना था कि हमारी सरकार पूरे अफ़ग़ानिस्तान में एक ही है. जब इस्लामिक अमीरात के अमीर का आदेश आता है, तो यह सभी के लिए होता है और हर कोई इसका पालन करता है. हमारा पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण है.
उन्होंने बताया कि अर्थव्यवस्था संकट में है, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिबंध लगाया है.
'अफ़ग़ानों ने बहुत पैसा कमाया लेकिन अब हम उन्हें पैसा नहीं दे पा रहे हैं. हमारे सामने यह एक बड़ी समस्या है.'
जब हमने उनसे पूछा कि बाहर के कौन से देश मदद कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा, कि 'हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद मिल रही है. पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और अन्य देशों से हमें मदद मिल रही है.'
'हमने वह मदद इकट्ठी कर ली है और इसे आपदा प्रबंधन एजेंसी और शरणार्थी विभाग को दे दिया है. इसके अलावा हमने स्वास्थ्य मंत्रालय को दवाएं दी हैं. आटा और खाना पकाने का तेल विभिन्न क्षेत्रों में ग़रीबों को वितरित किया गया है.
तालिबान के ग़रीबों की मदद करने के दावे अपनी जगह, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से ऐसे दृश्य भी सामने आ रहे हैं जहां दो वक़्त की रोटी के लिए लोग अपने घर का सामान बेचने के लिए मजबूर हो रहे हैं. (bbc.com)
नई दिल्ली, 29 अक्टूबर | भारतीय नागरिकों व प्रवासी भारतीय नागरिकों को पाकिस्तान में इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी कोर्स में दाखिला लेने से पहले अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) से एनओसी लेनी होगी। गौरतलब है कि हर वर्ष जम्मू-कश्मीर के कई छात्र पाकिस्तान के इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन ले रहे हैं। अभी तक सैकड़ों कश्मीरी छात्र पाकिस्तान के तकनीकी कॉलेजों में एडमिशन ले चुके हैं।
एआईसीटीई का कहना है कि गैर मान्यता प्राप्त संस्थानों में पढ़ाई करने के बाद हासिल की गई डिग्री भारतीय संस्थानों की डिग्री के बराबर नहीं होती। इस तरह की गैर मान्यता वाले संस्थानों की डिग्री प्राप्त करने के लिए भारी मात्रा में शुल्क खर्च करने के उपरांत भी ऐसे विद्यार्थियों को भारत में नौकरी के अवसर प्राप्त करने में समस्या का सामना करना पड़ता है। इसी मुद्दे को संज्ञान में लिया गया है। ऐसे विद्यार्थियों के माता-पिता का उन पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ से बचाने के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।
विद्यार्थियों से कहा गया है कि ऐसी डिग्री प्राप्त करने से पूर्व उसकी वैधता की सावधानीपूर्वक जांच सुनिश्चित कर लें। एआईसीटीई ने कहा है कि किसी भी ऐसे भारतीय नागरिक व भारत के प्रवासी नागरिक जो पाकिस्तान में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी कार्यक्रम हेतु उच्च शिक्षा में प्रवेश करना करना चाहते हैं, को एआईसीटीई से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त किया जाना अपेक्षित है। इसके लिए अनुमति प्राप्त करने हेतु विद्यार्थियों को आईसीटीसी की वेबसाइट पर उपलब्ध निर्धारित प्रारूप में आवेदन करना होगा।
तकनीकी शिक्षा परिषद के सदस्य सचिव ने इस विषय पर आधिकारिक सूचना जारी की है। जारी की गई सूचना में कहा गया है कि पाकिस्तानी संस्थानों के इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी पाठ्यक्रमों में दाखिले से पहले यह एनओसी प्राप्त करना आवश्यक है।
एआईसीटीई ने एक नोटिस जारी करते हुए कहा है कि ऐसे भारतीय नागरिक अथवा भारत के प्रवासी नागरिक द्वारा, जो पाकिस्तान में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी कार्यक्रम हेतु उच्च शिक्षा में प्रवेश प्राप्त करना चाहते हैं, वह एआईसीटीई से अनापत्ति सर्टिफिकेट प्राप्त करने के बाद ही इन संस्थानों में दाखिले लें।
अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए छात्रों को एआईसीटीई की आधिकारिक वेबसाइट, पर उपलब्ध कराये गये निर्धारित प्रारूप के अनुसार आवेदन करना पड़ेगा।
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने कहा है कि कई छात्र तकनीकी विषयों में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए विदेशी संस्थानों शिक्षण संस्थानों का रुख करते हैं। छात्र कई बार ऐसे संस्थानों में दाखिला ले लेते हैं जिनकी डिग्री हो को मान्यता प्राप्त नहीं है।
जाने-माने शिक्षाविद सीएस कांडपाल के मुताबिक अक्सर छात्र कम फीस होने के कारण इस प्रकार के संस्थानों शिक्षण संस्थानों का चुनाव करते हैं। हालांकि इनमें से कई संस्थानों कि कोई वैश्विक मान्यता नहीं है। इसके चलते छात्रों को कई वर्ष की पढ़ाई और धनराशि खर्च करने के उपरांत भी नौकरी नहीं मिल पाती है।(आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 29 अक्टूबर | गूगल ने क्लाउड गेमिंग सर्विस स्टैडिया गेम्स के लिए फ्री ट्रायल सपोर्ट जोड़ा है और इसके लिए स्टैडिया अकाउंट की भी जरूरत नहीं है। 9टु5 गूगल की रिपोर्ट के अनुसार, गूगल ने वीडियो गेम स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म 'स्टैडिया' के लिए अपने विशेष शीर्षक हैलो इंजीनियर के साथ 30 मिनट का फ्री ट्रायल शुरू किया है। यह ऑप्शन खिलाड़ियों को फ्री स्टैडिया प्रो सब्सक्रिप्शन के बिना ट्रायल करने की अनुमति देगा।
इसमें एक बार फ्री ट्रायल शुरू करने के बाद, खिलाड़ियों के पास स्टैडिया साइडबार के साथ पूरे गेम तक एक्सेस की अनुमति होगी और इसमें एक उलटी गिनती टाइमर लगा हुआ है, जो ट्रायल के दौरान समय को दिखाएगा।
यह एक ऐसा प्रयोग है जो गूगल अगले कुछ महीनों के लिए चला रहा है और आने वाले हफ्तों में यह अन्य चुनिंदा शीर्षकों के लिए उपलब्ध होगा।
खेल का अनुभव करने के लिए, सभी खिलाड़ियों को स्टैडिया पर खेल के पेज पर जाना होगा, जहां उन्हें 30 मिनट के नि: शुल्क परीक्षण की पेशकश करने वाला एक बटन मिलेगा।
इसके अलावा, गूगल के पास अन्य नि:शुल्क परीक्षणों के लिए एक समर्पित वेबपेज भी है जो वह आने वाले समय में पेश कर सकता है।
इससे पहले, स्टैडिया ने घोषणा की थी कि वह अपना पहला स्ट्रैटिजी गेम लॉन्च कर रही है जो नियंत्रक के बजाय टच करने के लिए प्रतिक्रिया करता है।
ह्यूमनकाइंड नाम का यह गेम मोबाइल के लिए स्टैडिया में एक नया 'डायरेक्ट टच' कंट्रोल मेथड पेश करेगा। 4एक्स टर्न-बेस्ड स्ट्रैटेजी गेम्स की शैली में ह्यूमनकाइंड की रिलीज के साथ, स्टेडिया गेम्स को कंट्रोलर करने का एक बिल्कुल नया तरीका शुरू कर रहा है।
एक कंट्रोलर पर निर्भर होने के बजाय, एंड्रॉइड पर खिलाड़ी 'डायरेक्ट टच' का लाभ उठा सकते हैं, जो आपके ऑन-स्क्रीन टैप को आपके गेम में भेजता है। (आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 29 अक्टूबर | फेसबुक के एक पूर्व कर्मचारी ने अमेरिकी अधिकारियों से कहा है कि मंच से बाल शोषण सामग्री को हटाने के कंपनी के प्रयास "अपर्याप्त" और "अधूरे" थे। ये आरोप बीबीसी समाचार द्वारा देखे गए दस्तावेजों में निहित हैं और दो सप्ताह पहले अमेरिकी सिक्योरिटीज और विनिमय आयोग (एसईसी) को प्रस्तुत किए गए थे।
गुमनाम व्हिसलब्लोअर का कहना है कि मॉडरेटर्स "पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं हैं और खराब तरीके से तैयार हैं।"
टेक दिग्गज ने एक बयान में कहा, "बच्चों के साथ इस घिनौने दुर्व्यवहार के प्रति हमारी कोई सहनशीलता नहीं है और इसका मुकाबला करने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं।"
"हमने इस भयानक अपराध की जांच करने, बच्चों को बचाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए उद्योग द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरणों को बनाने में मदद की है।"
बीबीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि उसने यह भी कहा कि उसने अन्य कंपनियों के साथ अपनी दुरुपयोग विरोधी तकनीकों को साझा किया है।
इस महीने की शुरुआत में पूर्व अंदरूनी सूत्र फ्रांसेस हॉगेन ने अमेरिकी कांग्रेस को बताया था कि फेसबुक के प्लेटफॉर्म से खुलासे हुए हैं कि "बच्चों को नुकसान पहुंचाते हैं, विभाजन को भड़काते हैं और हमारे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाते है।"
इस हफ्ते उन्होंने प्रस्तावित ऑनलाइन सुरक्षा विधेयक की जांच कर रही यूके की संसदीय समिति को भी सबूत दिए।
फेसबुक, ट्विटर, गूगल, यूट्यूब और टिकटॉक के वरिष्ठ अधिकारी भी सबूत देने वाले हैं।
नए खुलासे एक अज्ञात व्हिसलब्लोअर से आते हैं, जिसमें हानिकारक सामग्री को रोकने के लिए फेसबुक के भीतर टीमों के अंदर की जानकारी होती है। (आईएएनएस)
अफगानिस्तान में लड़कियों के स्कूल तालिबान के आने से बंद हैं. लेकिन कुछ लड़कियां आसमान में उड़ना चाहती हैं, पढ़ना चाहती हैं और एक कामयाब इंसान बनना चाहती हैं. इसके लिए वह जोखिम के बावजूद भी पढ़ाई कर रही हैं.
अफगानिस्तान के हेरात में घर में कैद जैनब मुहम्मदी को कोडिंग क्लास के बाद कैफेटेरिया में अपने दोस्तों के साथ गपशप मारने की याद सताती है. अब वह हर दिन गुपचुप से ऑनलाइन क्लास में शामिल होती है.
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद जैनब का स्कूल बंद हो गया लेकिन यह जैनब को सीखने से रोक नहीं पाया. जैनब कहती हैं, "मेरे जैसी लड़कियों के लिए खतरा और जोखिम है. अगर तालिबान को पता चलता है तो वह मुझे सजा दे सकता है. वह पत्थर से मारकर मुझे मौत के घाट उतार सकता है." जैनब ने सुरक्षा कारणों से अपना असली नाम नहीं बताया.
25 वर्षीय जैनब ने वीडियो कॉल पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "लेकिन मैंने अपनी उम्मीद या आकांक्षा नहीं छोड़ी है. मैं पढ़ाई जारी रखने के लिए दृढ़ हूं." तालिबान द्वारा स्कूल बंद करवाए जाने के बावजूद वह अनुमानित सैकड़ों अफगान लड़कियों और महिलाओं में से एक हैं जो लगातार सीख रही हैं - कुछ ऑनलाइन और अन्य अस्थायी स्कूलों में.
अफगानिस्तान की पहली महिला कोडिंग अकादमी कोड टू इंस्पायर की सीईओ फरेशतेह फोरो ने एन्क्रिप्टेड वर्चुअल क्लासरूम स्थापित किया है. उन्होंने स्टडी मैटेरियल अपलोड किए. जैनब की तरह 100 लड़कियों को लैपटॉप और इंटरनेट पैकेज मुहैया भी कराए.
वह कहती हैं, "आप घर पर बंद हो सकते हैं और बिना किसी झिझक के भौगोलिक चिंताओं के बिना वर्चुअल दुनिया का पता लगा सकते हैं. यही तकनीक की खूबसूरती है." सितंबर में सरकार ने कहा कि बड़े लड़के फिर से स्कूल शुरू कर सकते हैं लेकिन बड़ी लड़कियां जिनकी आयु 12-18 वर्ष के बीच है, उन्हें घर पर ही रहना होगा.
तालिबान, जिसने लगभग 20 साल पहले अपने आखिरी शासन के दौरान लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगा दी थी उसने वादा किया है कि वह उन्हें स्कूल जाने की अनुमति देगा क्योंकि वह दुनिया को दिखाना चाहता है कि वह बदल गया है. निसेफ के मुताबिक 2001 में तालिबान के बेदखल होने के बाद स्कूल में उपस्थिति तेजी से बढ़ी, 2018 तक 36 लाख से अधिक लड़कियों का नामांकन हुआ. विश्वविद्यालय जाने वालों की संख्या, जो अब लाखों में है. उसमें भी वृद्धि हुई. 2020 में लगभग 6 फीसदी महिलाएं शिक्षा प्राप्त कर रही थीं, जो 2011 में सिर्फ 1.8 प्रतिशत था.
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
टेक वर्ल्ड यानी तकनीकी कंपनियों के बीच एक शब्द की बहुत चर्चा है – मेटावर्स. इस शब्द का जादू ऐसा चढ़ा है कि फेसबुक ने अपना नाम बदलकर मेटा रख लिया है. पर असल में मेटावर्स होता क्या है?
साइंस फिक्शन लिखने वाले नील स्टीफेन्सन ने 1992 में अपने उपन्यास ‘स्नो क्रैश' के लिए यह शब्द – मेटा- गढ़ा था. स्टीफेन्सन की कल्पना सच के इतने करीब पहुंच गई है कि फेसबुक के सीईओ मार्क जकरबर्ग ने गुरुवार को ऐलान किया कि वह अपनी कंपनी का नाम बदलकर मेटा प्लैटफॉर्म्स इंक या छोटे में कहें तो मेटा रख रहे हैं.
पर इस शब्द के जादू के शिकार सिर्फ जकरबर्ग नहीं हैं. दुनियाभर की तकनीकी कंपनियां इस वक्त मेटावर्स में ही भविष्य खोज रही हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि यह भविष्य का इंटरनेट हो सकता है, जिसमें वर्चुअल रिएलिटी और अन्य तकनीकों की मिश्रण कर संवाद यानी एक दूसरे से बातचीत एक अलग स्तर पर पहुंच जाएगी.
वैसे कुछ विशेषज्ञ इसे लेकर चिंतित भी हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस तकनीक के जरिए इतना निजी डेटा टेक कंपनियों तक पहुंच जाएगा कि निजता की सीमा पूरी तरह खत्म हो जाएगी.
क्या है मेटावर्स?
आप यूं समझिए कि इंटरनेट जिंदा हो जाए तो क्या होगा. यानी जो कुछ भी वर्चुअल वर्ल्ड में, स्क्रीन के पीछे हो रहा है, वह एकदम आपके इर्द गिर्द होने लगे. यानी आप स्क्रीन को देखेंगे नहीं, उसके भीतर प्रवेश कर जाएंगे.
इस रूप में देखा जाए तो कल्पना की कोई सीमा नहीं है. मिसाल के तौर पर अब आप वीडियो कॉल करते हैं. मेटावर्स में आप वीडियो कॉल के अंदर होंगे. यानी आप सिर्फ एक दूसरे को देखेंगे नहीं, उसके घर, दफ्तर या जहां कहीं भी हैं, वहां आभासी रूप में मौजूद होंगे. और यह सिर्फ एक मिसाल है.
ऑनलाइन होने वाली हर गतिविधि को आप इसी संदर्भ में देख सकते हैं. भविष्य की तकनीक पर निगाह रखने वाली विक्टोरिया पेटरॉक कहती हैं कि इसमें शॉपिंग से लेकर सोशल मीडिया तक सारी ऑनलाइन एक्टविटीज शामिल होंगी. पेटरॉक के शब्दों में, "संपर्क का यह अगला स्तर है, जहां सारी चीजें एकसाथ एक आभासी दुनिया का हिस्सा बन जाएंगी. तो जैसे आप असल जिंदगी जीते हैं, वैसे ही वर्चुअल जिंदगी जिएंगे.”
क्या क्या कर पाएंगे मेटवर्स में?
इसकी कोई हद नहीं है कि आप मेटावर्स में क्या क्या आभासी रूप से कर पाएंगे. आप किसी नाटक या कॉन्सर्ट में जा पाएंगे, ऑनलाइन सैर कर पाएंगे, कलाकृतियां देख या बना पाएंगे. कपड़े ट्राई करके खरीद पाएंगे.
वर्क फ्रॉम होम की दुनिया में इस तकनीक को सबसे बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है. अभी आप वर्क फ्रॉम होम करते हुए अपने सहयोगियों को सिर्फ वीडियो कॉल में देखते हैं. मेटावर्स में आप अपने सहयोगियों के बीच मौजूद होंगे. वर्चुअल ऑफिस में सब साथ-साथ बैठे काम कर रहे होंगे.
फेसबुक ने कंपनियों के लिए मीटिंग सॉफ्टवेयर भी लॉन्च कर दिया है. इसे होराइजन वर्करूम्स का नाम दिया गया है. इसमें ऑक्युलस वीआर हेडसेट का प्रयोग होता है. हालांकि इस सॉफ्टवेयर के शुरुआती रिव्यूज तो अच्छे नहीं आए हैं. ऑक्युलस हेडसेड 300 अमेरिकी डॉलर यानी 20 हजार रुपये से ज्यादा के आते हैं, जिस कारण यह बड़ी आबादी के पहुंच से बाहर है.
अपनी प्रेजेंटेशन में जकरबर्ग ने कहा, "मेटावर्स के बहुत से अनुभव एक से दूसरे में टेलीपोर्ट हो जाने से जुड़े होंगे.” लेकिन टेक कंपनियों को अभी इस बात पर सहमत होना है कि वे अपने-अपने प्लैटफॉर्म एक दूसरे से कैसे जोड़ेंगी. पेटरॉक कहती हैं कि इसके लिए सभी को कुछ नियम-कायदों पर सहमत होना होगा ताकि ऐसा ना हो कि कुछ लोग फेसबुक मेटावर्स में हैं और कुछ माइक्रोसॉफ्ट मेटावर्स में.
मेटावर्स क्या बस फेसबुक का है?
नहीं. माइक्रोसॉफ्ट और निविडिया जैसे कई और कंपनियां मेटावर्स पर काम कर रही हैं. निविडिया ऑम्नीवर्स के वाइस प्रेजिडेंट रिचर्ड केरिस कहते हैं, "हमें लगता है कि बहुत सी कंपनियां मेटावर्स में अपनी-अपनी वर्चुअल दुनिया बना रही हैं. यह ठीक वैसे ही है जैसे बहुत सी कंपनियों ने वर्ल्ड वाइड वेब में अपनी अपनी वेबसाइट बनाई हैं. सुगम होना और विस्तार की संभावनाएं खुली रखना जरूरी है ताकि आप एक से दूसरी दुनिया में आ-जा सकें फिर वे चाहे किसी भी कंपनी की हों. ठीक वैसे ही जैसे आप एक वेबसाइट से दूसरी वेबसाइट पर जाते हैं.”
वीडियो गेमिंग कंपनियों की मेटावर्स में खास दिलचस्पी है. फोर्टनाइट गेम बनाने वाली कंपनी एपिक गेम्स ने मेटावर्स बनाने के लिए निवेशकों से एक अरब डॉलर जुटाए हैं. रोब्लॉक्स भी इस दौड़ की एक बड़ी खिलाड़ी है. अपने मेटावर्स के बारे में रोब्लॉक्स ने कहा है कि यह ऐसी जगह होगा जहां "करोड़ों थ्रीडी एक्सपीरियंस के बीच लोग एक साथ आकर खेल सकेंगे, सीख सकेंगे काम कर सकेंगे और एक दूसरे से मिलजुल सकेंगे.”
फैशन ब्रैंड्स भी इस ट्रेंड में कूद रही हैं. इटली की फैशन ब्रैंड गुची ने जून में रोब्लॉक्स के साथ एक साझीदारी की और सिर्फ डिजिल एक्ससेसरी बेचने की योजना बनाई है. कोका-कोला और क्लीनिके ने मेटावर्स के लिए डिजिटल टोकन बेचे हैं.
वीके/एए (एपी)
फिलीपींस में रिसाइक्लिंग करने वाला एक समूह बोतल, सिंगल यूज प्लास्टिक, चॉकलेट रैपर आदि का इस्तेमाल निर्माण सामग्री के लिए कर रहा है. वह देश में प्लास्टिक के कचरे को नदियों में जाने से रोकने की कोशिश में जुटा है.
प्लास्टिक फ्लेमिंगो या "द प्लाफ" जैसा कि वह आमतौर पर जाना जाता है, कचरे को इकट्ठा करता है. समूह के कर्मचारी इसे काटते हैं और फिर इसे "इको-लम्बर" नामक ईंट और तख्तों में ढालते हैं. इस तरह से इसका उपयोग बाड़ लगाने, सजावट या यहां तक कि आपदा वाले राहत शिविरों को बनाने के लिए किया जा सकता है.
द प्लाफ की मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिका रेयेस कहती हैं, "यह 100 प्रतिशत अपसाइकल सामग्री है, 100 फीसदी प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ से बना है, हम कुछ एडिटिव्स और रंग भी शामिल करते हैं. यह सड़न-मुक्त, रखरखाव-मुक्त और किरच मुक्त है."
रणनीति चाहिए
अब तक 100 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा इकट्ठा करने के बाद सामाजिक उद्यम एक स्थानीय समस्या का समाधान करने के लिए अपना काम कर रहा है. सिर्फ फिलीपींस ही नहीं प्लास्टिक के कचरे से फिलहाल पूरी दुनिया प्रभावित है.
ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के अवर वर्ल्ड इन डेटा की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक महासागरीय प्लास्टिक का लगभग 80 फीसदी एशियाई नदियों से आता है और अकेले फिलीपींस इसमें एक तिहाई योगदान देता है.
फिलीपींस के पास अपनी प्लास्टिक समस्या से निपटने के लिए कोई स्पष्ट रणनीति नहीं है और इसके पर्यावरण विभाग ने कहा है कि वह कचरे के प्रबंधन के तरीकों की पहचान करने के लिए निर्माताओं के संपर्क में है.
'हमें दें अपनी प्लास्टिक'
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का कहना है कि हर साल 30 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है. यह वह समस्या जो महामारी से और विकराल हो गई है. महामारी के दौरान प्लास्टिक की फेस शील्ड, दस्ताने, खाने के पैकेट और ऑनलाइन शॉपिंग बढ़ने से बबल रैप पैकिंग में वृद्धि हुई है.
द प्लाफ के मार्केटिंग सहयोगी एलिसन टैन के मुताबिक, "लोग इस प्लास्टिक का निपटारा करने के तरीके से अनजान हैं." वे कहते हैं, "हम वह रास्ता देते हैं कि इसे लैंडफिल या महासागरों में डालने के बजाय आप इसे हमारे जैसे रिसाइक्लिंग केंद्रों को दें और हम उन्हें बेहतर उत्पादों में बदल देंगे."
अपशिष्ट समस्याओं से निपटने के साथ-साथ समूह का कहना है कि वह अन्य गैर-सरकारी संगठनों के साथ बातचीत कर रहा है ताकि उनकी टिकाऊ निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करके चक्रवात से नष्ट हुए घरों के पुनर्निर्माण में मदद मिल सके.
एए/वीके (रॉयटर्स)
पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर के जरिए अनधिकृत निगरानी के आरोपों की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के एक दिन बाद इसराइल के राजदूत नाओर गिलोन ने इसे भारत का अंदरूनी मामला करार देते हुए कोई और टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी एनएसओ ग्रुप को इसराइल सरकार की तरफ़ से लाइसेंस की ज़रूरत होती है और ये लाइसेंस केवल सरकारों को निर्यात के लिए दिया जाता न कि ग़ैरसरकारी तत्वों को बेचने के लिए.
भारत में इसराइल के राजदूत नाओर गिलोन ने इस हफ़्ते की शुरुआत में कार्यभार संभालने के बाद गुरुवार को पहली बार मीडिया से रूबरू हुए थे.
दरअसल, इसराइली राजदूत से ये सवाल पूछा गया था कि पेगासस जासूसी मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश से गठित कमेटी के साथ इसराइल की सरकार सहयोग करेगी?
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इस सवाल पर एम्बैसडर नाओर गिलोन ने कहा, "एनएसओ इसराइल की एक प्राइवेट कंपनी है. एनएसओ द्वारा किए जाने वाले हरेक निर्यात के लिए इसराइली सरकार से लाइसेंस की ज़रूरत होती है. हम केवल सरकारों को निर्यात के लिए लाइसेंस देते हैं. भारत में जो कुछ हो रहा है, वो भारत का आंतरिक मामला है और मैं आपके आंतरिक मामलों में नहीं पड़ना चाहूंगा." (bbc.com)
दुनिया में बढ़ती जनसँख्या के कारण कई देशों ने बच्चों के ऊपर बैन लगा दिया था. चीन में जहां कुछ समय तक एक बच्चे की पॉलिसी रखी गई वहीं बाकी एक देशों में भी जनसंख्या विस्फोट पर लगाम लगाने के लिए कई रूल्स बनाए गए. इसमें कांट्रेसेप्टिव तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना शामिल था. लोगों को जनसंख्या नियंत्रण के कई तरीकों से अवगत किया गया. इसमें कंडोम का इस्तेमाल सबसे ज्यादा प्रभावशाली और सुरक्षित माना जाता है. अभी तक मेल और फीमेल के अलग कंडोम आते थे. लेकिन हाल ही में मलेशिया के एक गायनकालॉजिस्ट ने दावा किया है कि उसने एक ऐसा कंडोम बनाया है जो महिला और पुरुष दोनों एक ही काम आएगा. यानी उसने दुनिया का पहला यूनिसेक्स कंडोम बना लिया है.
इस कंडोम को दोनों जेंडर्स के द्वारा पहना जा सकता है. साथ ही इसे ऐसे मेटेरियल से बनाया गया है, जिसका इस्तेमाल घाव को भरने में मदद करता है.इसे बनाया है मलेशिया के गायनकोलॉजिस्ट जॉन टांग इंग चिन्ह ने. जॉन का मानना है कि ये यूनिसेक्स कंडोम औरतों और मर्दों में और जोश भरेगा. जॉन के मुताबिक़, इस कंडोम से सेक्सुअल हेल्थ को और ज्यादा प्रमोट किया जा सकेगा. मेडिकल सप्लाई फर्म ट्विन कैटेलिस्ट के लिए काम करने वाले इस गायनकोलॉजिस्ट ने बताया कि ये कंडोम रेगुलर से ज्यादा प्रोटेक्शन का वादा करता है. ये मेल और फीमेल बॉडी पार्ट को और भी ज्यादा कवरेज देगा.
वाटरप्रूफ कंडोम लांच से पहले ही चर्चा में है
जॉन ने बताया कि ये कंडोम polyurethane से बनाया गया है. इसका इस्तेमाल घाव को ढंकने के लिए किया जाता है. साथ ही इसे ऐसे बनाया गया है कि ये जल्दी फटेगा नहीं. साथ ही ये वाटरप्रूफ भी है. जॉन के मुताबिक़, इसे पहनने के बाद इसका अहसास नहीं होगा कि आपने कंडोम लगाया है. ये काफी पतला है और इसे किसी भी साइड से किसी भी सेक्स द्वारा पहना जा सकता है. इसे इस साल दिसंबर से सेल के लिए मार्केट में उतरा दिया उन्हें उम्मीद है कि आने वाले समय में ये कंडोम काफी ज्यादा यूज किया जाने लगेगा.
कंपनी द्वारा बनाए एक डिब्बे में दो कंडोम होंगे. इसका दाम करीब दो सौ साठ रुपए रखा गया है. इससे ना सिर्फ प्रेग्नेंसी से बचा जाएगा बल्कि कई तरह के सेक्सयुअल बीमारियां भी कंट्रोल की जाएगी.
अमेरिकी विदेश विभाग ने घोषणा की कि उसने लिंग के लिए "एक्स" वाला पहला पासपोर्ट जारी किया है. एलजीबीटीक्यू अधिकारों के लिए विदेश विभाग के विशेष दूत ने कहा कि यह कदम "जीवित वास्तविकता" के अनुरूप है.
अमेरिकी विदेश विभाग ने 28 अक्टूबर को घोषणा की कि उसने उन लोगों के एक्स लिंग पहचान के साथ अपना पहला पासपोर्ट जारी किया है. यह पासपोर्ट उन लोगों के लिए है जो खुद को महिला या पुरुष के रूप में उल्लेखित नहीं करते हैं.
विदेश विभाग को विदेश में पैदा हुए अमेरिकी नागरिकों के पासपोर्ट और जन्म प्रमाण पत्र पर अगले साल अधिक व्यापक रूप से विकल्प की पेशकश करने में सक्षम होने की उम्मीद है.
जून में विदेश विभाग ने घोषणा की थी कि वह गैर-बाइनरी, इंटरसेक्स और लिंग-गैर-अनुरूपता वाले व्यक्तियों के लिए तीसरे लिंग विकल्प को जोड़ने पर काम कर रहा है, लेकिन उसने बताया कि इसमें समय लगेगा क्योंकि मौजूदा कंप्यूटर सिस्टम में व्यापक तकनीकी अपग्रेडेशन की जरूरत है.
हालांकि पहला पासपोर्ट जारी किया जा चुका है, पासपोर्ट आवेदन और सिस्टम अपडेट को अभी भी प्रबंधन और बजट कार्यालय द्वारा अनुमोदित करने की जरूरत होगी जो उनके जारी होने से पहले सभी सरकारी फॉर्मों को मंजूरी देता है. विदेश विभाग को उम्मीद है कि अगले साल की शुरुआत में व्यापक रूप से विकल्प उपलब्ध हो जाएगा.
विदेश विभाग ने यह भी घोषणा की कि अब उसे लिंग विकल्प चुनने वालों के लिए मेडिकल सर्टिफिकेशन की आवश्यकता नहीं होगी जो अन्य मौजूदा दस्तावेजों जैसे कि ड्राइविंग लाइसेंस या जन्म प्रमाण पत्र से अलग है.
एलजीबीटीक्यू अधिकारों के लिए विदेश विभाग की विशेष दूत जेसिका स्टर्न ने इस कदम को ऐतिहासिक और उत्सवपूर्ण और लोगों की "जीवित वास्तविकता" के अनुरूप बताया है.उन्होंने समाचार एजेंसी एपी से कहा, "जब कोई व्यक्ति पहचान दस्तावेज हासिल करता है जो उनकी वास्तविक पहचान को दर्शाता है, तो वे अधिक सम्मान और गरिमा के साथ रहता है."
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एलजीबीटीक्यू अधिकारों को अपने प्रशासन की प्रमुख प्राथमिकता बनाने का वादा किया था. यह कदम विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन के पूर्ववर्ती माइक पोम्पेओ की ओर से एक नीतिगत बदलाव है, जिन्होंने अमेरिकी दूतावासों को इंद्रधनुषी झंडा फहराने से मना किया था.
विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा, "मैं इस पासपोर्ट जारी करने के अवसर पर एलजीबीटीक्यूआई+ व्यक्तियों समेत सभी लोगों की स्वतंत्रता, गरिमा और समानता को बढ़ावा देने के लिए देश की प्रतिबद्धता को दोहराना चाहता हूं."
एए/सीके (एएफपी, एपी)
भारत ने कार्बन उत्सर्जन शून्य किए जाने के लिए लक्ष्य तय करने की मांग को खारिज कर दिया है. उसका कहना है कि इस बारे में एक रास्ता सुनिश्चित करना ज्यादा जरूरी है.
दुनिया के तीसरे सबसे बड़े ग्रीनहाउस उत्सर्जक देश भारत से उम्मीद की जा रही है कि वह ग्लासगो में बताए कि कब तक शून्य उत्सर्जन हासिल कर लेगा. भारत ने अब तक तय नहीं किया है कि शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य कब तक पूरा होगा. भारत ने इस मांग को खारिज कर दिया है.
भारत के पर्यावरण सचिव आरपी गुप्ता ने कहा कि शून्य उत्सर्जन जलवायु संकट का हल नहीं है. उन्होंने कहा, "जरूरी यह है कि शून्य उत्सर्जन पर पहुंचने के दौरान आप कितनी कार्बन उत्सर्जित करते हैं.” भारत सरकार की गणना का हवाला देते हुए आरपी गुप्ता ने कहा कि अब से 2050 तक अमेरिका पर्यावरण में 92 गीगाटन कार्बन उत्सर्जित करेगा और यूरोप 62 गीगाटन. उन्होंने कहा कि चीन 450 गीगाटन कार्बन छोड़ चुका होगा.
भारत कब करेगा वादा?
अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म कर देने का लक्ष्य तय किया है. यानी 2050 के बाद ये देश उतनी ही कार्बन वातावरण में छोड़ेंगे, जितनी जंगलों, मिट्टी और अन्य कुदरती साधनों द्वारा सोखी जा सकती है.
चीन और सऊदी अरब ने भी अपने लक्ष्य घोषित कर दिए हैं. उन्होंने 2060 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन हासिल करने का वादा किया है. वैसे, 2060 को भी लक्ष्य के तौर पर प्रभावहीन माना जा रहा है और आलोचकों का कहना है कि अगर अभी प्रभावशाली कदम नहीं उठाए जाते तो ये लक्ष्य बेकार हैं.
31 अक्टूबर से ग्लासगो शुरू होने वाले COP26 सम्मेलन में लगभग 200 देशों के प्रतिनिधि पहुंच रहे हैं. यहां 2015 के पेरिस समझौते से आगे की रणनीति पर चर्चा होनी है. इस बैठक में भारत की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिस्सा लेंगे. भारतीय अधिकारी कहते हैं कि मोदी का बैठक में हिस्सा लेना इस बात का प्रतीक है कि भारत जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से ले रहा है. चीन के राष्ट्रपति शी
जिनपिंग का इस सम्मेलान में आना अभी भी तय नहीं है.
पर्यावरणविद उम्मीद कर रहे हैं कि ग्लासगो में विभिन्न देश उत्सर्जन घटाने के लिए अपनी नई रणनीतियां और नए लक्ष्य घोषित करेंगे. लेकिन भारत ने पहले ही कह दिया है कि वह कोयले के उपभोग में कमी नहीं करेगा. बीबीसी ने लीक हुई एक रिपोर्ट के हवाले से खबर दी है कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र को स्पष्ट कह दिया है कि अगले कुछ दशकों तक वह कोयले का इस्तेमाल जारी रखेगा. भारत उन देशों में शामिल है जो जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल एकदम बंद करने के खिलाफ हैं.
भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि 2015 के पेरिस सम्मेलन में जो लक्ष्य तय किए गए थे, उन्हें भारत समय से पूरा कर लेगा. लक्ष्यों में बदलाव के सवाल पर उन्होंने कहा कि सारे विकल्प खुले हुए हैं. पेरिस में भारत ने 2030 तक उत्सर्जन को 2015 के स्तर के 33-35 प्रतिशत तक ले जाने की प्रतिबद्धता जताई है.
कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि भारत अपने उत्सर्जन लक्ष्य को 40 फीसदी तक ले जा सकता है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कितना धन और नई तकनीक उसके लिए उपलब्ध है. यादव कहते हैं कि ग्लासगो सम्मेलन की सफलता इस बात से तय होगी कि विकासशील देशों को उत्सर्जन कम करने के बावजूद अपनी आर्थिक वृद्धि बनाए रखने के लिए कितना धन मिलता है.
वीके/एए (रॉयटर्स)
उत्तरी त्रिपुरा में कई मुस्लिम व्यापारियों की दुकानें जलाने और एक मस्जिद पर हमले की घटनाओं के बाद धारा 144 लगा दी गई है. ये घटनाएं उसी इलाके में विश्व हिंदू परिषद की एक रैली के बाद हुईं.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
मामला त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से अरीब 155 किलोमीटर दूर स्थित पानीसागर इलाके का है जहां बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान हुई हिंसा के विरोध में विश्व हिंदू परिषद ने 26 अक्टूबर को एक रैली निकाली थी. रैली के दौरान कुछ मुस्लिम व्यापारियों के घरों और दुकानों में तोड़फोड़ की गई और फिर उन्हें जला दिया गया. आरोप है कि एक मस्जिद में भी तोड़फोड़ की गई.
स्थानीय पुलिस का कहना है कि विश्व हिंदू परिषद की रैली में करीब 3,500 कार्यकर्ता शामिल थे. हिंसा के संबंध में दो मामले दर्ज किए हैं लेकिन अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. पानीसागर और आस पास के इलाकों में धारा 144 लागू कर दी गई है. हालांकि कई लोगों का कहना है कि 26 अक्टूबर का घटनाक्रम छिटपुट नहीं था और राज्य के कई इलाकों में कई दिनों से हिंसक घटनाएं हो रही हैं जिनमें मुस्लिमों को निशाना बनाया जा रहा है.
नफरती अपराधों का सिलसिला
पत्रकार समृद्धि सकुनिया ने एक ट्वीट में बताया कि पिछले एक हफ्ते में पूरे राज्य में नफरती अपराधों के कम से कम 21 मामलों की पुष्टि हुई है. इनमें से 15 मामले अलग अलग मस्जिदों के तोड़ फोड़ के थे. उन्होंने यह भी कहा कि कुछ दूर दराज इलाकों की कम से कम तीन मस्जिदों को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया है.
हालांकि त्रिपुरा पुलिस का कहना है कि सोशल मीडिया पर झूठी खबरें, तस्वीरें और वीडियो फैला कर मामले को और भड़काने की कोशिश की जा रही है. पुलिस ने कहा है कि झूठी खबरों को फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी.
बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान 13 अक्टूबर से लेकर कई दिनों तक पूजा के पंडालों और हिंदु परिवारों के घरों पर हमले किए गए और उन्हें जला दिया गया. इस तरह की हिंसा देश के कई इलाकों में हुई. हालांकि बांग्लादेश सरकार ने हिंसा के तुरंत बाद देश के अल्पसंख्यक हिंदू समाज को सुरक्षा का आश्वासन देने के लिए कई कदम उठाए.
सत्तारूढ़ पार्टी अवामी लीग ने हिंसा के विरोध में रैलियां निकालीं. मीडिया रिपोर्टों में सामने आया है कि बांग्लादेश पुलिस ने 693 लोगों को हिरासत में लिया है. हालांकि भारत में विश्व हिंदू परिषद और अन्य हिंदूवादी दक्षिणपंथी संगठनों तब से इन घटनाओं पर आक्रोश प्रकट कर रहे हैं. परिषद ने इन घटनाओं को बांग्लादेश में "हिंदुओं का नरसंहार" बताते हुए, इसे रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र को भी चिट्ठी लिखी है. त्रिपुरा की रैली भी इसी अभियान का एक हिस्सा थी. (dw.com)
इस साल विभिन्न व्यवसायों में वरिष्ठ प्रबंधन पदों पर रहने वाली जर्मन महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है. एक सितंबर तक दो दर्जन से अधिक महिलाओं को कार्यकारी पदों पर नियुक्त किया गया जा चुका है.
एक गैर-लाभकारी संगठन ऑल ब्राइट फाउंडेशन द्वारा संकलित एक रिपोर्ट के मुताबिक इस साल अब तक 25 महिलाएं विभिन्न व्यावसायिक कंपनियों में कार्यकारी पदों पर बैठ चुकी हैं. ये महिलाएं बड़ी कंपनियों से संबंधित हैं जो फ्रैंकफर्ट स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हैं और व्यापारिक समुदाय में एक प्रमुख जगह रखती हैं.
ऑल ब्राइट फाउंडेशन की रिपोर्ट कहती है जर्मनी में व्यापार में वरिष्ठ पदों पर महिलाओं के रोजगार की दर में इस साल 3.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो कुल मिलाकर 13.4 प्रतिशत की दर तक पहुंच गई है. 19 महिलाएं भी विभिन्न संगठनों के प्रबंधन बोर्डों का हिस्सा बनीं. इस बढ़ोतरी को असामान्य बताया गया है. हालांकि यह संख्या अभी भी बहुत कम मानी जाती है क्योंकि उच्च पदों पर 603 पुरुष हैं. अब भी आधे से अधिक जर्मन कंपनियों के बोर्ड में कोई महिला नहीं है.
महिलाओं को कार्यकारी पदों पर प्रमोशन करने या उन्हें प्रबंध मंडल का हिस्सा बनाने में जर्मनी कई अन्य विकसित देशों से पीछे है. उदाहरण के लिए अमेरिका में शीर्ष 30 कंपनियों में महिला अधिकारियों की संख्या 31 प्रतिशत से अधिक है. कार्यकारी पदों पर 27.4 प्रतिशत महिलाओं के साथ यूके दूसरे स्थान पर है. तीसरे स्थान पर स्वीडन है.
ऑल ब्राइट फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक विब्के अंकर्सन का कहना है, "कंपनियों को एक-दूसरे के पीछे छिपने की जरूरत नहीं है. उन्हें कार्रवाई करने की जरूरत है." उन्होंने यह भी कहा कि कंपनियों का परीक्षण इस संदर्भ में किया जाएगा कि क्या उनमें कोई वास्तविक परिवर्तन हुआ है.
हाल ही के एक कानून के बाद 2,000 या अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों के पास अपने गवर्निंग बोर्ड में कम से कम एक महिला बोर्ड सदस्य होना चाहिए. इसी तरह जिन कंपनियों के गवर्निंग बोर्ड को महिला सदस्य की आवश्यकता नहीं लगती है, उन कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों के लिए अब कानूनी रूप से अनिवार्य है कि वह इसका कारण सरकारी प्राधिकरण को बताएं.
एए/सीके (डीपीए)
अमेरिका से भारत स्थित अपने घर जाने के बजाय तीन महीने तक शिकागो हवाई अड्डे पर ही टिके रहे एक व्यक्ति को अदालत ने बरी कर दिया है. आदित्य सिंह को जनवरी में गिरफ्तार किया गया था.
कुक काउंटी की जज एड्रिएने डेविस ने आदित्य सिंह को अनधिकृत प्रवेश के आरोपों से बरी कर दिया. शिकागो ट्रिब्यून अखबार ने लिखा है कि इसके लिए सिंह के वकील को जिरह तक नहीं करनी पड़ी. हालांकि 37 वर्षीय आदित्य सिंह का अदालत में आना जाना अभी लगा रहेगा. उन पर अपने इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटिरिंग सिस्टम का उल्लंघन करने का भी आरोप है. अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि जज डेविस ने किस आधार पर सिंह को बरी किया है.
आदित्य सिंह को 16 जनवरी को गिरफ्तार किया गया था. हालांकि शिकागो हवाई अड्डे का प्रबंधन देखने वाली ट्रांसपोर्टेशन सिक्यॉरिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने कहा था कि उन्होंने एयरपोर्ट के किसी नियम का उल्लंघन नहीं किया था.
कुछ गलत नहीं किया
विमानन विभाग की प्रवक्ता क्रिस्टीन कैरिनो ने उनकी गिरफ्तारी के बाद बताया था, "श्री सिंह ने ना तो किसी नियम का उल्लंघन किया ना किसी जगह अवैध प्रवेश किया. वह उसी तरह आए जैसे दसियों हजार लोग रोज आते हैं.”
कैरिनो ने कहा था कि हम श्री सिंह के मकसद को लेकर कोई अटकल नहीं लगाएंगे. उन्होंने कहा, "उनके मकसद का हमें नहीं पता. उन्होंने सुरक्षित क्षेत्र में रुके रहने का फैसला किया और अपनी गिरफ्तारी तक एक यात्री के तौर पर माहौल में घुलने-मिलने की पूरी कोशिश की.”
जब पहली बार सिंह को अदालत में पेश किया गया था तो कुक काउंटी जज सुजाना ऑरटिज ने काफी हैरत जताई थी. उन्होंने तब कहा था, "तो, अगर मैं ठीक समझ रही हूं, आप मुझे बता रहे हैं कि एक अनधिकृत व्यक्ति, जो कर्मचारी भी नहीं है, कथित तौर पर ओ हेयर हवाई अड्डे के टर्मिनल पर 19 अक्टूबर 2020 से 16 जनवरी 2021 तक रहता रहा और किसी को पता भी नहीं चला. मैं इसे ठीक से समझना चाहती हूं.”
जज ऑर्टिज ने कहा था, "जितनी देर का यह मामला है, उसके लिए अदालत इन तथ्यों और हालात को बेहद हैरतअंगेज पाती है. चूंकि हवाई अड्डे को लोगों की सुरक्षित यात्रा के लिए एकदम सुरक्षित होना चाहिए, मुझे तो इन आरोपों से लग रहा है कि वह (आदित्य सिंह) समुदाय के लिए खतरा हैं.”
क्या है कहानी?
आदित्य सिंह लगभग छह साल पहले अमेरिका गए थे. वह अपनी मास्टर्स डिग्री के लिए वहां पढ़ाई कर रहे थे और कैलिफॉर्निया के ऑरेंज में रह रहे थे. पिछले साल अक्टूबर में उन्होंने भारत जाने के लिए लॉस एंजेलिस से फ्लाइट ली. शिकागो उनका पहला स्टॉप था. लेकिन वहां से आगे सिंह कभी नहीं गए और एयरपोर्ट पर ही तीन महीने तक रुके रहे.
जनवरी में पुलिस ने सिंह को तब गिरफ्तार किया जब युनाइटेड एयरलाइन्स के कर्मचारियों ने देखा कि उन्होंने एक बैज पहना हुआ है, जिसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट एक एयरपोर्ट ऑपरेशंस मैनेजर ने की थी.
सिंह ने पुलिस को बताया कि वह एयरपोर्ट पर इसलिए रहे क्योंकि कोरोनावायरस महामारी के कारण उन्हें विमान में उड़ान भरने से डर लग रहा था. उन्होंने कहा कि आने-जाने वाले यात्रियों से मिले खाने पर ही इतने दिन तक जिंदा रहे.
सिंह की एक दोस्त ने शिकागो ट्रिब्यून अखबार को बताया कि मेसेज पर उनकी बातचीत हुई और उस बातचीत में सिंह ने बताया कि वह लोगों के साथ अपने हिंदू और बौद्ध विश्वासों के बारे में बात करने का आनंद ले रहे थे. ऐसे ही एक मेसेज में सिंह ने लिखा था, "इस अनुभव के कारण मैं आध्यात्मिक रूप से बढ़ रहा हूं. मुझे पता है कि मैं ज्यादा मजबूत होकर बाहर आऊंगा.”
वीके/सीके (एपी)
पोलैंड पर यूरोपीय कोर्ट ऑफ जस्टिस ने करीब नौ करोड़ रुपये रोजाना का जुर्माना लगाया है. कोर्ट के फैसले को ना मानने पर यह सख्त सजा दी गई है, जो अब तक का सबसे बड़ा जुर्माना है.
यूरोपीय संघ के कोर्ट ऑफ जस्टिस (ECJ) ने पोलैंड पर एक मिलियन यूरो यानी लगभग नौ करोड़ रुपये प्रतिदिन का जुर्माना लगाया है. ऐसा पोलैंड द्वारा कुछ विवादित कानून पास करने के कारण किया गया. माना जाता है कि यूरोपीय संघ के किसी सदस्य पर अब तक का यह सबसे बड़ा जुर्माना है.
जब तक पोलैंड अदालत के फैसले का पालन नहीं करता, तब तक उस पर लगीं पाबंदियां जारी रहेंगी. ये पाबंदिया बीती जुलाई में लगाई गई थीं क्योंकि पोलैंड ने अपने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए एक व्यवस्था बनाई है. आलोचकों का कहना है कि यह व्यवस्था राजनीतिक आधार पर जजों को हटाने का रास्ता है.
क्यों लगा जुर्माना?
जुलाई में यूरोपीय कोर्ट ने पोलैंड को यह व्यवस्था खत्म करने का आदेश दिया था. कोर्ट का कहना था कि यह व्यवस्था निष्पक्ष न्याय के रास्ते में बाधा है. चूंकि पोलैंड ने आदेश का पालन नहीं किया, इसलिए कोर्ट ने अब उस पर जुर्माना लगाया है.
बुधवार को जारी एक बयान में यूरोपीयन यूनियन कोर्ट ऑफ जस्टिस ने कहा, "यूरोपीय संघ की न्याय व्यवस्था और कानून के राज पर आधारित यूरोपीय संघ के मूल्यों को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए यह जुर्माना लगाया जाना जरूरी था.”
यूरोपीय आयोग ने 9 सितंबर को पोलैंड पर जुर्माने की सिफारिश की थी. यूरोपीय संघ के अन्य सदस्यों का कहना है कि संघ के सिद्धांतों की अनदेखी करने वाले पोलैंड को ईयू से मिलने वाली सब्सिडी बंद होनी चाहिए. बेल्जियम के प्रधानमंत्री आलेक्जांडर डे क्रू ने बुधवार को इस बात का जिक्र किया किया कि पोलैंड यूरोपीय संघ से फंड पाने वाले सबसे बड़े दशों में से है. उन्होंने कहा, "आपको पैसा तो चाहिए पर मूल्यों को खारिज कर देंगे, ऐसा नहीं चल सकता. पोलैंड यूरोपीय संघ को कैश मशीन समझकर नहीं चल सकता.”
नाराज हैं यूरोपीय देश
पोलैंड को यूरोपीय संघ से सालाना 12 अरब यूरो का फंड मिलता है. पोलैंड की सत्ताधारी दक्षिणपंथी पार्टी के प्रवक्ता रादोस्लाव फोगिएल ने दावा किया पोलैंड जितना यूरोपीय संघ से पाता है, उससे ज्यादा का योगदान करता है. देश, यूरोप के बर्ताव को ब्लैकमेल बता रहा है. ट्विटर पर पोलैंड के न्याय उप-मंत्री सेबास्टियान कालेटा ने जुर्माने को ‘वसूली और ब्लैकमेल' बताया. लेकिन इस बात का विरोध करने वाले देश के अंदर भी बहुत से लोग हैं.
डॉयचे वेले से बातचीत में यूरोपीय संसद में पोलैंड के सदस्य रादोस्लाव सिकोरस्की ने कहा वे सरकार के रुख का विरोध करते हैं. वह कहते हैं कि सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कुछ नियम होते हैं जिन्हें तोड़े जाने पर सजा भी हो सकती है. उन्होंने कहा, "मैं उम्मीद करता हूं कि पोलैंड न्यायालय के फैसले का पालन करेगा. इसका कोई विकल्प नहीं है. हमने अपनी इच्छा से यूरोपीय न्याय व्यवस्था पर दस्तखत किए थे.”
सिकोरस्की ने कहा कि पोलैंड की सत्ताधारी पार्टी देश की संवैधानिक अदालत पर पहले ही लगाम लगा चुकी है और अब वह बाकी अदालतों पर भी नकेल कसना चाहती है.
विवाद की जड़
पोलैंड ने देश के सुप्रीम कोर्ट में अनुशासनात्मक चैंबर 2018 में शुरू किया था. इसके तहत जजों और वकीलों को बर्खास्त किया जा सकता है. ईसेजे को डर है कि इस चैंबर की ताकतों का इस्तेमाल निष्पक्षता बरतने वालों और राजनेताओं की मर्जी के आगे ना झुकने वालों के खिलाफ किया जा सकता है. तभी से यह चैंबर विवाद की जड़ बना हुआ है.
इसी महीने की शुरुआत में पोलैंड की संवैधानिक अदालत ने फैसला दिया कि विवाद की स्थिति में देश का कानून यूरोपीय कानून से बड़ा माना जाएगा. पिछले हफ्ते पोलिश प्रधानमंत्री मातेउश मॉरुविएत्सकी ने यूरोपीय संसद को भरोसा दिलाया था कि चैंबर को खत्म कर दिया जाएगा. लेकिन उन्होंने कोई समयसीमा नहीं बताई.
यूरोपीयी देश पहले भी पोलैंड पर न्यायालयों और मीडिया की आजादी पर हमले करने के आरोप लगाते रहे हैं. यूरोपीय संघ का कहना है कि पोलैंड ने न्यायपालिका का राजनीतिकरण कर दिया है और उन जजों जो नियुक्त कर दिया है जो सत्ताधारी लॉ एंड जस्टिस पार्टी के प्रति निष्ठावान हैं.
वीके/एए (एपी, डीपीए, रॉयटर्स)
चीन ने बहुत लंबी गगनचुंबी इमारतें बनाने पर कई तरह के प्रतिबंध लागू कर दिए हैं. इसे स्थानीय सरकारों की उन परियोजनाओं पर कम्युनिस्ट पार्टी का अंकुश माना जा रहा है जिन्हें वो अनावश्यक और दिखावे से भरा मानती है.
आवास और शहरी-ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कहा है कि अब से बिना विशेष अनुमति लिए 30 लाख से कम आबादी के शहरों को 150 मीटर से लंबी और इससे ज्यादा आबादी वाले शहरों को 250 मीटर से लंबी इमारतें बनाने से मना कर दिया गया है.
देश में पहले से 500 मीटर से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने की मनाही है लेकिन नए नियम और ज्यादा कड़े हैं. नए नियमों के हिसाब से प्रतिबंधित इमारतों के निर्माण की इजाजत देने वाले अधिकारियों को इसके लिए "जिंदगी भर के लिए जवाबदेह ठहराया जाएगा."
अंधाधुंध निर्माण
इसका मतलब है अधिकारियों को भविष्य में तय होने वाली कोई भी सजा दी जा सकती है. चीन में दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में से कई हैं. इनमें 632 मीटर ऊंचा शंघाई टावर और शेनजेन का 599.1 मीटर पिंग आन फाइनेंस सेंटर शामिल हैं.
चीन यह मानता तो है कि उसकी ऊंची इमारतें जमीन के और ज्यादा वृद्धिकर इस्तेमाल को बढ़ावा देती हैं, लेकिन अब इस बात की चिंताएं बढ़ रही हैं कि स्थानीय अधिकारी अंधाधुंध निर्माण करवाते जा रहे हैं और व्यावहारिकता और सुरक्षा पर ध्यान नहीं दे रहे हैं.
कुछ महीनों पहले शेनजेन में 356 मीटर ऊंची 71 मंजिला इमारत बार बार हिल गई थी जिसकी वजह से सुरक्षा को लेकर चिंताएं पैदा हो गई थीं. जांच के बाद पता चला था कि इसका कारण इमारत के ऊपर लगा हुआ 50 मीटर से भी ऊंचा एक खंभा था जो तेज हवा से हिलने लगा था.
कड़े नियम
उस हादसे के बाद ही पूरे देश में 500 मीटर से ज्यादा लंबी इमारतें बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. शेनजेन वाली इमारत से खंभे को हटाने के बाद उसे सितंबर में फिर से खोला गया.
पाकिस्तान में प्रतिबंधित धार्मिक और राजनीतिक दल तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान ने इमरान ख़ान हुकूमत के साथ बातचीत में नाकाम होने का दावा करते हुए बुधवार को राजधानी इस्लामाबाद और जीटी रोड पर अपने कार्यकर्ताओं के काफिले के साथ अपना 'लॉन्ग मार्च' फिर से शुरू कर दिया है.
इस काफ़िले को पुलिस आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश कर रही है, वहीं गुजरांवाला प्रशासन ने भी रेंजर्स की मदद लेने का फैसला किया है. बीबीसी के शहजाद मलिक से बात करते हुए, तहरीक-ए-लब्बैक के नेता मुफ्ती उमर अल-अज़हरी ने दावा किया कि उनके कार्यकर्ताओं ने रास्ते की सभी बाधाओं को हटा दिया और आगे बढ़ गए.
संवाददाता तरहाब असगर के मुताबिक़, मार्च फिर शुरू होने के बाद साधुकी नाम की जगह पर पुलिस ने फिर से काफिले को रोकने की कोशिश की और आंसू गैस के गोले छोड़े. पुलिस और तहरीक-ए-लब्बैक कार्यकर्ताओं के बीच भी झड़पें हुई हैं.
पुलिस प्रवक्ता के मुताबिक ताज़ा झड़पों में कसूर पुलिस के एएसआई अकबर की मौत हो गई और 64 अन्य घायल हो गए, जबकि तहरीक-ए-लब्बैक ने पुलिस पर तेज़ाब की बोतलें फेंकने और फायरिंग करने का आरोप लगाया है. गुजरांवाला पुलिस के अनुसार, घायल पुलिस कर्मियों को स्थानीय अस्पतालों में भर्ती किया गया है.
शुक्रवार को लॉन्ग मार्च शुरू होने के बाद से झड़पों में तीन पुलिसकर्मियों की मौत हो चुकी है और 100 से अधिक घायल हो गए हैं. तहरीक-ए-लब्बैक ने यह भी दावा किया है कि उसके दस से अधिक कार्यकर्ता मारे गए और सैकड़ों घायल हुए, लेकिन स्वतंत्र स्रोतों से इस दावे की पुष्टि नहीं हो सकी है.
फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन की मांग
तहरीक-ए-लब्बैक के इस मार्च के कारण गुजरांवाला ज़िले में मोबाइल इंटरनेट सेवा भी बंद कर दी गई है. फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन और साद रिज़वी की रिहाई की मांग को लेकर तहरीक-ए-लब्बैक ने 22 अक्टूबर को लाहौर से एक जुलूस निकालना शुरू किया और 23 अक्टूबर की रात को गुजरांवाला जिले के मुरीदके इलाके में पहुंचा.
सरकार और तहरीक-ए-लब्बैक के बीच शुरुआती बातचीत के बाद, तहरीक-ए-लब्बैक ने अपने काफिले को मुरीदके में रहने की घोषणा की और सरकार को 26 अक्टूबर की शाम तक मांगों को पूरा करने की मोहलत दी.
तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के नेता मुफ्ती उमर अल-अजहरी ने बीबीसी उर्दू के शहजाद मलिक से बात करते हुए कहा कि सरकार की मांगें पूरी नहीं होने के बाद बुधवार सुबह पार्टी ने कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि इस्लामाबाद की ओर आगे बढ़े.
इस आदेश के बाद हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता जीटी रोड पर मुरीदके से इस्लामाबाद की ओर यात्रा करने लगे हैं. काफिले को रोकने के लिए इस्लामाबाद की ओर जाने वाली सड़कों पर भी नाकाबंदी कर दी गई है, जबकि साधुकी के पास सड़क पर बड़े-बड़े गड्ढे खोद दिए गए हैं.
इस्लामाबाद और रावलपिंडी
साधुकी में जीटी रोड को पहले ही कंटेनरों से बंद कर दिया गया था. इस्लामाबाद और रावलपिंडी के प्रवेश और निकास पर कंटेनर और बैरियर लगाने का सिलसिला मंगलवार शाम से शुरू हो गया था. हालांकि सरकार और टीएलपी के बीच बातचीत शुरू होते ही बाधाओं को अस्थायी रूप से हटाने के आदेश जारी किए गए थे.
इमरान ख़ान हुकूमत के अनुसार इस्लामाबाद और रावलपिंडी को जोड़ने वाले फैज़ाबाद चौक को चारों तरफ़ से पूरी तरह से बंद कर दिया गया है जबकि रावलपिंडी के मुख्य मार्ग मर्री रोड पर भी कंटेनर रखे गए हैं. दोनों शहरों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है.
पुलिस अधिकारियों के मुताबिक इस्लामाबाद में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारी संख्या में पुलिस बलों और रेंजर्स को तैनात किया गया है. सिविल एडमिनिस्ट्रेशन के मुताबिक़, बुधवार सुबह से दोनों शहरों में मेट्रो बस सेवा और मोबाइल फोन सेवा बंद करने का फैसला किया गया है.
मुरीदके में तहरीक-ए-लब्बैक के प्रदर्शनस्थल पर मौजूद मुफ्ती उमर ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उनकी पार्टी के नेतृत्व ने सरकार को उनकी मांगों को मानने के लिए मंगलवार रात तक का समय दिया था, जो अब ख़त्म हो चुका है.
तहरीक-ए-लब्बैक की चेतावनी
इन मांगों में सबसे बड़ी थी पाकिस्तान में फ्रांसीसी राजदूत का निर्वासन. मुफ्ती उमर अल-अजहरी ने कहा कि इस्लामाबाद की ओर फिर से मार्च करने का फ़ैसला पार्टी के केंद्रीय नेताओं ने आम सहमति से लिया. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ता इस्लामाबाद ज़रूर पहुंचेंगे भले ही इसमें कुछ हफ्ते लग जाएं.
तहरीक-ए-लब्बैक के एक सदस्य का कहना था कि मंगलवार को गृह मंत्री शेख रशीद ने पार्टी के मजलिस-ए-शूरा के केवल एक सदस्य पीर इनायत शाह के साथ बैठक की थी, जबकि मंगलवार की रात को उन्हें फिर बुलाया गया था जिसमें कोई प्रगति नहीं हुई.
मुफ्ती उमर ने कहा कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो जाती, पार्टी अपना मार्च खत्म नहीं करने वाली है. उन्होंने कहा कि कुछ दिनों पहले केंद्रीय गृह मंत्री के नेतृत्व में उनकी पार्टी के शीर्ष नेताओं के साथ बातचीत हुई थी जिसमें सरकारी प्रतिनिधिमंडल ने आश्वासन दिया था कि उनकी मांगों को लागू किया जाएगा लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ.
टीएलपी की मजलिस-ए-शूरा के सदस्य पीर इनायत शाह ने बीबीसी को बताया कि सरकार की टीम ने वार्ता करने वाले दल के सदस्यों को आश्वासन दिया था कि टीएलपी के अनुरोध पर फ्रांसीसी राजदूत की नियुक्ति के संबंध में राजनयिक स्तर पर किए गए पत्राचार का आदान-प्रदान टीएलपी नेतृत्व के साथ भी किया जाएगा, लेकिन कोई दस्तावेज़ अब तक उनकी पार्टी को नहीं दिया गया है.
इंटीरियर मिनिस्टर शेख राशिद का बयान
पीर इनायत ने कहा कि उन्होंने सरकारी प्रतिनिधिमंडल को सुझाव दिया था कि फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन का मामला नेशनल असेंबली की समिति को भेजा जाना चाहिए और समिति जो भी फैसला करेगी, उनकी पार्टी इसे स्वीकार करेगी.
तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) के नेताओं ने दावा किया है कि संघीय गृह मंत्री ने मंगलवार को मामलों को सुलझाने के लिए गलत बयानी का इस्तेमाल किया.
गृह मंत्री शेख रशीद ने मंगलवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "फ्रांस के राजदूत का निष्कासन टीएलपी की पहली और सबसे बड़ी मांग है, जिसे पूरा करना हमारे लिए मुश्किल है."
उन्होंने ये भी कहा कि वह ऐसी कोई अशांति नहीं चाहते जो पाकिस्तान की अखंडता और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करे.
इसके पहले तहरीक-ए-लब्बैक के अमीर (प्रमुख) साद रिज़वी ने पैगंबर मोहम्मद की ईशनिंदा के मुद्दे पर फ्रांसीसी राजदत के निष्कासन की मांग करते हुए इस्लामाबाद की ओर एक 'लॉन्ग मार्च' की धमकी दी थी. जिसके बाद लाहौर पुलिस ने उन्हें हिरासत में लिया था. वे अभी भी क़ैद हैं.
साद रिज़वी पर सरकार के विरोध में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को उकसाने का आरोप लगा था, इस दौरान हिंसा में कई लोग मारे गए और घायल हुए थे.
साद रिज़वी की गिरफ्तारी के बाद, तहरीक-ए-लब्बैक ने देश भर के कई शहरों में हिंसक विरोध प्रदर्शनों की एक श्रृंखला शुरू की, जिसमें कम से कम चार पुलिसकर्मी मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए. (bbc.com)
न्यूयॉर्क, 28 अक्टूबर | एक नए अध्ययन के अनुसार, तीन किशोरों में आत्मघाती विचार 'व्यामोह जैसा भय', भ्रम और 'धुंधला मस्तिष्क' की पहचान की गई है। इन्हें हल्के या बिना लक्षण वाले कोविड-19 का संक्रमण था। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया सैन फ्रांसिस्को के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए गए अध्ययन ने एंटी-न्यूरल एंटीबॉडीज - 'टर्नकोट' एंटीबॉडीज को देखा जो मस्तिष्क के ऊतकों पर हमला कर सकते हैं - बाल रोगियों में जो सार्स-कोव-2 से संक्रमित थे।
अध्ययन में, जामा न्यूरोलॉजी में प्रकाशित, शोधकर्ताओं ने तीन रोगियों के मस्तिष्कमेरु द्रव की जांच की, जो काठ का पंचर के माध्यम से प्राप्त किया, और पाया कि दो रोगियों, जिनमें से दोनों में अनिर्दिष्ट अवसाद और/या चिंता का इतिहास था। इनमें एंटीबॉडी थे जो इंगित करते हैं कि सार्स-कोव 2 ने केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर आक्रमण किया हो सकता है।
टीम ने कहा कि वही रोगी, जिनके पास हल्के/स्पशरेन्मुख कोविड था, उनके मस्तिष्कमेरु द्रव में तंत्रिका-विरोधी एंटीबॉडी भी थे, जिनकी पहचान मस्तिष्क के ऊतकों को प्रतिरक्षित करके की गई थी। यह एक प्रतिरक्षा प्रणाली का सुझाव देता है जो अमोक चल रही है, गलती से संक्रामक रोगाणुओं के बजाय मस्तिष्क को लक्षित कर रही है।(आईएएनएस)
ईरान में मंगलवार को बड़े पैमाने पर साइबर हमले से गैस स्टेशन प्रभावित हुए. इससे ईंधन की बिक्री पर बुरा असर पड़ा.
ईरान के सरकारी टेलीविजन ने पुष्टि की है कि मंगलवार को देश भर के गैस स्टेशनों पर साइबर हमले हुए, जिससे कुछ गैस स्टेशनों पर ईंधन की बिक्री बंद हो गई. हमले के कारण होर्डिंग पर संदेश बदल गए और ईंधन वितरित करने की सरकार की क्षमता को चुनौती दी.
ईरान के प्रसारक आईआरआईबी के मुताबिक, "मंगलवार को साइबर हमले से गैस स्टेशनों की ईंधन भरने की व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई. तकनीशियन समस्या को ठीक कर रहे हैं और जल्द ही ईंधन भरने का काम शुरू होगा." ईरान के तेल मंत्रालय ने कहा कि वह इस समस्या को सुलझाने के लिए एक आपात बैठक कर रहा है.
टेलीविजन फुटेज में हमले के बाद गैस स्टेशनों पर लंबी कतारें दिखाई दे रही हैं. किसी भी समूह ने फौरन हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है. इसका मकसद जाहिर तौर पर ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अली खमेनेई की सर्वोच्चता को चुनौती देना है. होर्डिंग पर संपादित संदेश कुछ इस तरह थे: "खमेनेई! हमारा गैसोलीन कहां है?" एक अन्य बिलबोर्ड पर लिखा था, "जमरान गैस स्टेशन पर मुफ्त गैस!"
ईरानी सुप्रीम काउंसिल में साइबरस्पेस के सचिव सैयद अब्दुल हसन फिरोजाब्दी ने देर रात एक संदेश में कहा कि साइबर हमलों को रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं. ईरानी समाचार एजेंसी ने कहा कि हमले से देश भर में लगभग 1,400 गैस स्टेशन प्रभावित हुए हैं.
अर्ध-आधिकारिक समाचार एजेंसी आईएसएनए ने इस घटना को साइबर हमला बताया. आईएसएनए ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में कहा कि जब लोगों ने सरकार द्वारा जारी कार्ड से ईंधन खरीदने की कोशिश की, तो उन्हें "साइबर हमले 64411" संदेश मिलने लगे. हालांकि, बाद में आईएसएनए ने अपनी वेबसाइट से इस खबर को हटा दिया और कहा कि वह खुद हैक हो गई है.
इससे पहले जुलाई में ईरान के रेलवे सिस्टम को निशाना बनाकर इसी तरह के साइबर हमले में 64411 नंबर का इस्तेमाल किया गया था. यह नंबर खमेनेई के कार्यालय द्वारा संचालित एक हॉटलाइन से जुड़ा है. ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण देश वर्तमान में गंभीर आर्थिक कठिनाई का सामना कर रहा है. अधिकांश ईरानी अपने वाहनों के लिए सरकारी सब्सिडी वाले ईंधन पर निर्भर हैं.
फिरोजाब्दी ने कहा, "यह हमला संभवत: किसी विदेशी देश ने किया है. किस देश द्वारा और किस तरह से यह घोषणा करना जल्दबाजी होगी."
साइबर हमले ऐसे समय में हुआ जब देश दो साल पहले 2019 में ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी का विरोध झेल चुका है. सरकार के इस कदम का विरोध करने के लिए ईरानी सड़कों पर उतर आए थे.
मानवाधिकार समूह एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक ईरानी सुरक्षा बलों ने विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया था, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे. ईरान पहले भी कई साइबर हमलों का शिकार हो चुका है. वह हमलों के लिए अमेरिका और इस्राइल को जिम्मेदार ठहराता आया है.
एए/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)