साहित्य/मीडिया
-विष्णु नागर
जब रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था
तो मैंने ही कहा था- ‘वाह-वाह, क्या बात है सम्राट’
जब रोम जल रहा था
और गरीब रोमनों को जलाकर
उन्हें मशालों में तब्दील किया जा रहा था
तो इसके आर्तनाद और चीख के बीच
खाने -पीने का सबसे ज्यादा आनंद
मैंने ही उठाया था
जिसे दो हजार साल बाद भी भूलना मुश्किल है
मैं आज भी सुन रहा हूँ नीरो की बाँसुरी
वही गिलास और वही प्लेट मेरे हाथ में है
वैसा ही है रोशनी का प्रबंध
सम्राट ने अभी पूछा मुझसे : ‘कैसी चल रही है पार्टी
कैसा है प्रबंध, कुछ और पीजिए, कुछ और खाइये’
नीरो मरने के लिए पैदा नहीं होते
न उसकी पार्टी में शामिल होने वाले लोग
अभी कहाँ जला है पूरा रोम
अभी तो मेरा घर भी खाक होना बाकी है
बुझती मशालों की जगह
नई मशालें लाई जा रही हैं
अभी तो पार्टी और भी रंगीन होने वाली है!
22 मार्च को भारत में हुए जनता कर्फ्यू और 24 मार्च से लगातार चल रहे लॉकडाऊन के बीच साहित्य के पाठकों की एक सेवा के लिए देश के एक सबसे प्रतिष्ठित साहित्य-प्रकाशक राजकमल, ने लोगों के लिए एक मुफ्त वॉट्सऐप बुक निकालना शुरू किया जिसमें रोज सौ-पचास पेज की उत्कृष्ट और चुनिंदा साहित्य-सामग्री रहती थी। उन्होंने इसका नाम ‘पाठ-पुन: पाठ, लॉकडाऊन का पाठाहार’ दिया था। अब इसे साप्ताहिक कर दिया गया है। इन्हें साहित्य के इच्छुक पाठक राजकमल प्रकाशन समूह के वॉट्सऐप नंबर 98108 02875 पर एक संदेश भेजकर पा सकते हैं। राजकमल प्रकाशन की विशेष अनुमति से हम यहां इन वॉट्सऐप बुक में से कोई एक सामग्री लेकर ‘छत्तीसगढ़’ के पाठकों के लिए सप्ताह में दो दिन प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले दिनों से हमने यह सिलसिला शुरू किया है।
यह सामग्री सिर्फ ‘छत्तीसगढ़’ के लिए वेबक्लूजिव है, इसे कृपया यहां से आगे न बढ़ाएं।
-संपादक
'फर्जी खबरों का मायाजाल'
-त्रिलोकनाथ पांडेय
(त्रिलोक नाथ पांडेय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे। सराहनीय सेवाओं के लिए भारतीय पुलिस पदक एवं विशिष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुलिस पदक से सम्मानित किया जा चुका है। ‘प्रेमलहरी’ उनकी पहली औपन्यासिक कृति है, दूसरा उपन्यास ‘चाणक्य के जासूस’ राजकमल प्रकाशन से इसी माह प्रकाशित होगा।)
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मामृतं गमय
शान्ति शान्ति शान्ति:
(मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।)
यह पवमान मंत्र या पवमान अभयारोह मंत्र है, जिसे प्राचीन भारत में सोमयज्ञ की शुरुआती स्तुति केरूप मेंयजमान द्वारा गाया जाता था। फर्जी ख़बरों के मायाजाल में फँसे हुए व्यक्ति की मनोव्यथा को यह मंत्र भलीभाँति व्यक्त करता है। फर्जी खबरों के मायाजाल से उत्पन्न अंधकार से निकलने के लिए वह छटपटा रहा है, क्योंकि उसने देखा है कि किस प्रकार इस अंधकार की आड़ में मौत आ पहुँची और कईयों को लील गई।
गंगा-तट पर बसे प्राचीन भारत के एक बड़े गाँव का दृश्य है यह। गाँव के एक व्यक्ति ने अपने एक पड़ोसी पर आरोप लगाते हुए शोर मचाया कि उसकी दो गायों की मृत्यु पड़ोसी द्वारा विष दे देने के कारण हुई। उसने गाँव में कई जगह इस आरोप की चर्चा भी की। यह जानते हुए भी कि गायों की मृत्यु एक अनजान बीमारी से हुई और गोस्वामी पुरानी शत्रुता के कारण पड़ोसी पर दोष मढ़ रहा है, गोस्वामी के मित्रों ने आरोप को खूब हवा दी। इससे गाँव में तरह-तरह की अफवाह फैलने लगी। परिणामस्वरूप, पहले से ही गुटबंदी और वैमनस्य से ग्रस्त उस गाँव में विकट विषाक्तता व्याप्त हो गई। इसमें भयंकर हिंसा हुई और कई लोग मारेगये। बाद में, व्यथित ग्राम-प्रमुख नेदेवताओं केकोप को दूर करनेके लिए एक सोमयज्ञ का आयोजन किया, जिसमें बड़े भावुक मन से उसने यह मंत्र-गान किया कि हमें झूठ से सच्चाई की ओर ले चलो; झूठ से उपजे अँधेरे से सच्चाई के उजाले की ले चलो और इन परिस्थितियों से उपजे मौत से बचाकर हमें अमरत्व की ओर ले चलो।
दूसरा दृश्य देखिये। महाभारत का युद्ध चल रहा है। पन्द्रहवें दिन गुरु द्रोणाचार्य कौरवों की सेना के सेनापति बनाए गए हैं। द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों दोनों केगुरु थे। दोनों को उन्होंने अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी थी। यद्यपि वह कौरवों की ओर से लड़ रहे हैं, लेकिन उनका सहज स्नेह पांडवों की ओर है। यह बात दुर्योधन को खल गई। उसने गुरु पर आरोप लगाया कि मन से वह पांडवों की ओर हैं। आरोप से क्षुब्ध गुरु द्रोण ने पांडव सेना का संहार शुरू किया।
पांडवों के रणनीतिकार श्रीकृष्ण जानते थे कि द्रोण को सीधी लड़ाई मेंहरा पाना असंभव है। अत: उन्होंने उन्हें छलपूर्वक समाप्त करने की योजना बनाई। सबको मालूम था कि द्रोण अपने बेटे अश्वत्थामा को बहुत चाहते हैं। श्रीकृष्ण ने इसका लाभ उठाते हुए अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी खबर रच दी। उस झूठी खबर को पांडव सैनिकों ने चारों ओर फैला दिया।
द्रोण ने यह खबर सुनी तो उन्हें विश्वास न हुआ। ब्रह्मास्त्र को प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखा रखी थी। अश्वत्थामा अजेय और अमर था। अमर अश्वत्थामा आखिर कैसे मर सकता है! खबर की पुष्टि के लिए द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा, जो अपनी सत्यवादिता के लिए विख्यात थे। युधिष्ठिर बोले, ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा’ (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन पता नहीं कि वह नर था या हाथी।) ‘हाथी’ शब्द युधिष्ठिर ने बड़े धीमे से बोला और उसेकवर करनेके लिए श्रीकृष्ण नेजोर से अपना शंख बजा दिया। परिणामस्वरूप, द्रोण शोक में अस्त्र-शस्त्र त्याग कर चुपचाप बैठ जाते हैं और उसी समय उनका वध कर दिया जाता है।
अफवाह की प्रक्रिया को समझने के लिए यह कथा बहुत उपयुक्त है। अपनी षडय़ंत्रपूर्ण योजना के अंतर्गत श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा नामक एक हाथी को मरवा कर और जान-बझूकर कुटिलतापूर्वक इस दुष्प्रचार (डिसइनफार्मेशन) को प्रारंभ किया। यहाँ नीयत सबसे महत्वपूर्ण कारक है। जब शरारत की नीयत से कोई खबर गढ़ी जाय तो यह दुष्प्रचार (डिसइनफार्मेशन) है, जबकि गलत खबर (मिसइनफार्मेशन) किसी व्यक्ति या समूह द्वारा जाने-अनजाने में फैलाया जाता है। वह व्यक्ति या समूह किसी दुष्प्रचार अभियान (डिसइनफार्मेशन कैंपेन) का मात्र वाहक हो सकता है। वह अपने उस कृत्य के परिणामों से परिचित भी हो सकता है और जान बूझकर उसे फैलाने में शामिल हो सकता हैया निर्दोष और मूर्खतापूर्ण ढंग से भी उसमें शामिल हो सकता है। इस पूरी प्रक्रिया, जिसे अफवाह-चक्र चलाना (रनिंग द रयुमर मिल) कहते हैं, का नियंत्रण प्राय: उस व्यक्ति केहाथों में होता है जो डिसइनफार्मेशन कैंपेन शुरू करता है।
नीयत को ही आधार बनाकर अफवाह को तीन हिस्सों में बाँट सकते हैं। खतरनाक इरादे से फैलाई गई अफवाह रयुमर है; तो प्राय: प्रचार के उद्देश्य से प्रोपेगंडा चलाया जाता है, जबकि हलके-फुल्के ढंग से हाँ की गई बातें गप्पें (गॉसिप) कहलाती हैं।
इसी प्रकार, फर्जी ख़बरें दो तरह की होती हैं। पहली तो वे जो बिल्कुल ही फर्जी होती हैं, बिल्कुल मनगढ़ंत होती हैं और जिनका उद्देश्य लोगों को बहकाना; उनकी मति फेर देना या किसी प्रकार की गैरकानूनी गतिविधि में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करना। दूसरी तरह की फर्जी खबरें वे होती हैं जो पूरी सही नहीं होती हैं। उनमें सच और झूठ का घालमेल होता है। वे खबरें झूठी हो सकती है या आंशिक रूप से झूठी हो सकती हैं। अगर खबर सच भी हो तो उसका प्रस्तुतीकरण इस तरह से किया जाता है कि लक्षित व्यक्ति या समूह को वह अनुचित ढंग से प्रभावित करे। उदहारण के लिए, किसी सच्ची घटना के बारे रिपोर्टिंग करते समय कोई संवाददाता जान-बूझकर किसी ऐसे कोण को उभार (हाईलाइट कर) देता है कि घटना की जिम्मेदारी किसी खास व्यक्ति या वर्ग केऊपर आ जाय।
एक जमाने से अफवाहें संचार और संवाद के विभिन्न माध्यमों के जरिये फैलाए जाते रहे हैं। मौखिक संवाद तंत्र के अलावा पुस्तक/पुस्तिकाएँ, पत्रिकाएँ, पर्चे, लेख/आलेख, समाचार पत्र इत्यादि प्रमुख पारंपरिक माध्यम रहे हैं। यहाँ तक कि प्रायोजित पाठ्य सामग्री से लदे गुब्बारे और अन्य चीजें भी शत्रु के क्षेत्र में शरारतन उड़ाकर या फेंककर पहुँचा दी जाती हैं ताकि वहाँ के निवासियों/नागरिकों की निष्ठा (लॉयल्टी) को प्रभावित या पलटा (सबवर्ट) जा सके। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में मुख्य रहे हैं टीवी, रेडियो और लाउडस्पीकर वगैरह।
सोशल मीडिया का सहारा पाकर तो अफवाहों को जैसे पंख लग गये हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से तो कोई फेक न्यूज़ क्षण मात्र में दुनिया में फैल जाती है। व्हाट्सअप, ट्विटर, फेसबुक। लिंक्डइन, इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कोई कुछ भी बेरोकटोक डाल देता है। छेड़छाड़ की हुई विडियो, मेमे, उलटे-सीधे प्रचार और भडक़ाऊ संदेश सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चलते रहते हैं।
अफवाहों की समस्या सेपूरी दुनिया जूझ रही है, लेकिन भारत के सन्दर्भ में यह समस्या कुछ ज्यादा ही जटिल और विकट है। इसके कुछ कारण इस प्रकार हैं-
0 भारत में भीड़ तंत्र की प्रबलता है। यहाँ कभी गणेशजी दूध पीने लगते हैं; मुहनोचवा से लोग आतंकित हो जाते हैं; कोई फर्जी युवक वैज्ञानिक बन जाता है; किसी साधु के सपने के आधार पर सोना खोजने के लिए खुदाई होने लगती है। यह अंतहीन सिलसिला है और आये दिन इस प्रकार के नए-नए प्रकरण उभरते रहते हैं। इन सबके पीछे अफवाह काम करती है।
0 भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार अभी भी अपेक्षित स्तर का नहीं है, जिसकेकारण जागरूकता का अभाव हैऔर वैज्ञानिक सोच की कमी है।
0 बहुत से भारतीयों की सोच पर साम्प्रदायिकता और जातीयता इस कदर हावी रहती है कि वे सच्चाई को भी इन्हीं चश्मे से देखते हैं। स्वाभाविक है वे दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
0 अफवाह के स्रोतों को परखने और फर्जी खबरों से सच्ची खबरों को अलग करने की तकनीक की न समझ है और न इस तकनीक की सहज उपलब्धता है।
दुनिया भर के साइबर वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों और गुप्तचर विश्लेषकों ने अफवाह फैलने की प्रक्रिया के विभिन्न माडलों का अध्ययन और अनुसंधान किया है। इनमें से एक सरलीकृत मॉडल नीचे चित्रित है, जिसमें रेखाचित्रों के माध्यम से दिखाया गया है कि सोशल मीडिया के जरिये अफवाहें किस तरह फैलती हैं।
अफवाह फैलाने की प्रक्रिया ने आजकल बड़ी विशिष्टता हासिल कर ली है। बड़े सभ्य और शिष्ट (युफेमिस्टिक) ढंग से अब इसे ‘सार्वजनिक दृष्टिकोण का प्रबंधन’ (पब्लिक परसेप्शन मैनेजमेंट) भी कहा जाने लगा है। बड़े-बड़े विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं का दल रात-दिन लगा रहता है झूठी (फेक), ठगने वाली खबरें गढऩे और उन्हें बहुत शिष्ट और विश्वसनीय शब्दों में ढालने में। इनके मूल में दुर्भावना ही निहित होती है। यही डिसइनफार्मेशन का उद्भव-बिन्दु है। आगे की कार्रवाई मिसइनफार्मेशन ब्रिगेड जाने-अनजाने करता रहता है।
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कई बार सार्वजनिक दृष्टिकोण (पब्लिक परसेप्शन) को सुधारने के नाम पर गुप्तचर एजेंसियाँ परम गोपनीय ढंग से ‘मनोवैज्ञानिक अभियान’ (साइकोलॉजिकल ऑपरेशन/साई ओप्स) चलातेहैं। इस प्रक्रिया में प्राय: मनमाफिक लेख लिख/लिखवा कर बड़े पत्रकारों के नाम से मशहूर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाए जाते हैं। इन्हें टीवी के समाचारों, डिबेटों, प्रायोजित कार्यक्रमों और प्रचारों में भी चालाकी से घुसेड़ दिया जाता है। यही नहीं, साहित्य और संस्कृति के माध्यमों और मंचों सेभी इन्हें खूब हवा दी जाती है। कई बार अफवाहें विभिन्न स्तरों पर लोगों की भावनाओं को भडक़ाने में भी भरपूर सहायक होती हैं। विभिन्न वर्गों, जातियों, जनजातियों के मन में धार्मिक विद्वेष, वैचारिक मत-मतान्तर, भाषा-विवाद एवं क्षेत्रीयता तथा वर्ग विशेष के प्रति शोषण और अन्याय किए जाने की बातें उभारकर अफवाहें लक्षित व्यक्ति, समूह या वर्ग को भडक़ाती रहती हैं।
अफवाहों के बड़े घातक और गंभीर परिणाम होतेहैं। अफवाह के जरिये किसी झूठी या अर्धसत्य खबर फैलाकर ऐसा सनसनीखेज माहौल बना दिया जाता है कि लोग गैरकानूनी हरकतें करने पर उतारू हो जाते हैं। इससे सरकार के सामने क़ानून-व्यवस्था की भारी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। बच्चा चोरी, गोवंश की हत्या इत्यादि की अफवाहें अक्सर लोगों को मॉब लिंचिंग के लिए उकसा देती हैं। एक अनुमान 2 के अनुसार सन 2018 में सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहों के कारण देश में कम से कम 20 लोगों की मौत हो गई।
कई बार अफवाहों के माध्यम से सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील (सत्य, असत्य या अर्धसत्य) बातें ऐसी तेजी से फैलती हैं कि साम्प्रदायिकता का बवंडर खड़ा हो जाता है जिससे जबरदस्त सांप्रदायिक तनाव तथा हिंसा शुरू हो जाती है। जब तक लोगों को असलियत का पता चलता है काफी नुकसान हो चुका होता है। इसीलिए कहा जाता है कि जब तक सत्य अपने जूतों के फीते बाँधता है, झूठ शहर का पूरा चक्कर लगा आता है। इस वर्ष (2020) 23 फरवरी से 1 मार्च तक दिल्ली में हुए हिंसक उपद्रवों और सांप्रदायिक हिंसा में व्हाट्सएप के माध्यम से फैलाई जा रही अफवाहों की प्रमुख भूमिका रही।
अफवाहें फैलाकर लोगों को भडक़ाने की प्रवृत्ति कोई नई नहीं है। यह आदिमयुगीन है। इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है कि राजा की मृत्यु की झूठी ख़बरें या रानी का किसी अन्य व्यक्ति से अवैध संबंध की ख़बरें उड़ाकर प्रजा को बरगलाया जाता था। कहा जाता है कि जब 1657 में मुगल बादशाह शाहजहाँ दिल्ली के लालकिले में बीमार पड़ा था और अपने नियमित ‘झरोखा-दर्शन’ से कई दिन अनुपस्थित रहा तो अफवाह फैल गई थी कि बादशाह की मृत्यु हो गई। 3 कहते हैं इस आफवाह के निराकरण के लिए दारा शिकोह नेबीमार बादशाह को किलेकेझरोखेमेंबैठवा कर स्थानीय लोगों को दर्शन कराया।
इतिहास में अनेक दृष्टान्त उपलब्ध हैं जो साक्षी हैं कि युद्ध के समय अफवाहों को एक जबरदस्त सामरिक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। एक पक्ष अपने गुप्तचरों द्वारा चुपके से इस तरह की खबरें फैलवा देता था जिससे उसकी ताकत खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखे ताकि दुश्मन डर जाय, या ताकत इतनी कम दिखे कि दुश्मन भ्रम में पड़ जाय। यही नहीं, कई बार एक पक्ष युद्ध/आक्रमण संबंधी अपनी योजना/रणनीति के बारे में झूठी खबरें दुश्मन के खेमे में ऐसी होशियारी से डलवा देता था कि विरोधी उसके झांसे में आ जाय और उसे मुँह की खानी पड़े।
आधुनिक काल में अफवाहों की ताकत का एक बड़ा उदाहरण भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कारणों में देखा जा सकता है। 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों को इन्फ़ील्ड रायफल के लिए नए तरह के कारतूस दिए गए, जिन्हें लोड करने से पूर्व दांतों से फाडऩा था। उन कारतूसों के बारे में अफवाह फैल गई कि उनमें गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है। इससे हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के सिपाही भडक़ उठे। इसी बीच उनमें यह भी अफवाह फैल गई कि भविष्यवाणी हुई है कि कंपनी का राज सौ साल पूरा होते ही खत्म हो जायेगा। सिपाहियों को पूरा विश्वास हो गया कि 1757 में हुए प्लासी के युद्ध के बाद सत्ता में आई कंपनी का राज 1857 मेंसमाप्त हो जायेगा।
अफवाह-जनित अभियान का एक ज्वलंत उदाहरण अमेरिका द्वारा 2003 मेंइराक पर किया हुआ हमला है। व्यापक रूप से फैले अफवाह के आधार पर अमेरिका ने दुनिया को विश्वास दिलाया कि इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने जैविक हथियारों सहित सार्वजानिक विनाश के अस्त्र (मास डिस्ट्रक्शन वेपन्स) छिपा रखे हैं। इस अफवाह के चलते ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया सहित दुनिया के कई देश ईराक के विरुद्ध आक्रमण में अमेरिका के साथ शामिल हुए। इराक की हार के बाद वहाँ ऐसे हथियार मिले ही नहीं जिनके बारे में इतना हल्ला मचाया गया था। जाहिर है यह नाकामी अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की रही जो सच का समय से पता न लगा सकी थीं और अमेरिकी नेतृत्व ऐसी ही निराधार ख़बरों के आधार पर दिग्भ्रमित हुआ।
अफवाहों के कुछ सकारात्मक उपयोग भी हैं। यदि एक पक्ष किसी बात को जान-बूझकर छुपाये रखता है या किसी मुद्दे पर जान-बूझकर चुप्पी साधे रहता है तो दूसरा पक्ष अफवाहों द्वारा ऐसा माहौल बना देता है कि पहला पक्ष उस बात को जाहिर कर देने के लिए या उस मुद्दे पर अपना बयान देने के लिए विवश हो जाता है। उदहारण के लिए जब सरकार कर्मचारियों के वेतन या लाभ संबंधी माँगों को अनसुना करती रहती है या चुप्पी साधे रहती है तो कर्मचारी संगठन अक्सर अफवाहों का बाजार गर्म कर देते हैं जिससे कर्मचारियों में उहापोह उत्पन्न होने लगता है और सरकार की छवि बिगड़ती है तथा कार्यक्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा स्पष्टीकरण या नीतिगत निर्णय जल्दी आ जाता है। अभी हाल में ही यह अफवाह बड़े जोर-शोर से उठी कि केन्द्रीय कर्मियों की सेवानिवत्ति तीस वर्ष की सेवा या पचास वर्ष की आयुद्वारा निर्धारित होगी। इस अफवाह ने ऐसा जोर पकड़ा कि भारत सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है।
अभी जब उत्तरी कोरिया के शासक किम जोंग की मृत्यु को लेकर रहस्य का भारी पर्दा पड़ा हुआ था और दुनिया सच्चाई जानने को आतुर थी तो अन्तरराष्ट्रीय अफवाहों का ऐसा बवंडर उठा कि इस तरह के अन्तरराष्ट्रीय दबावों की परवाह न करने वाला उत्तर कोरिया भी मामले में सच्चाई जाहिर करने के लिए किम जोंग के विभिन्न फोटो और विडियो को रिलीज़ किया, यद्यपि उनकी विश्वसनीयता पर भी अफवाहें बहुत दिनों तक उड़ती रही थीं।
अफवाहों का गुप्तचर प्रणाली मेंभी एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। किसी वांछित तथ्य तक पहुँचने में गुप्तचरों के सारे उपाय असफल हो जाते हैं तो अफवाहों का सहारा लेकर उस तथ्य के संरक्षक पर चुपके से दबाव बनाया जाता ताकि अपने बचाव में उस तथ्य के बारे में कुछ बोलने के लिए उसे विवश किया जा सके। इसके अलावा गुप्तचरों द्वारा अफवाहों को कई अन्य रूपों में भी प्रयोग और उपयोग किया जाता है।
अफवाहें परेशानी का सबब तब बनना शुरू हुईं जब राजनीतिक दलों ने इन्हें अपने प्रचार के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया। यह प्रवृत्ति भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बड़े घातक ढंग से उभरी है। ऐसा माना जाता है कि कई राजनीतिक दलों ने अपने-अपनेआईटी सेल बना रखे हैं, जिनमें अफवाह गढऩे और उन्हें फैलाने के फन में माहिर लोगों की चुपकेसेबड़ी तादाद में भरती की जाती है। ये लोग विभिन्न मंचों पर फर्जी रूप धारण कर (जैसे सोशल मीडिया में फर्जी अकाउंट खोल कर) विरोधी पक्ष के विरुद्ध झूठ और नकारात्मकता फैलाने का काम करते हैं।
अफवाहों की यह प्रक्रिया कई बार बड़े स्तर पर दो प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच भी चलती है। इसे गौरवान्वित करने के लिए अक्सर मनोवैज्ञानिक युद्ध (साइकोलॉजिकल वार या साई वार) भी कहा जाता है। भारत पाकिस्तान के बीच अफवाहों का युद्ध निरन्तर चलता रहता है। कोरोना महामारी केदौर में भी पाकिस्तान भारत के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाने से बाज नहीं आ रहा है। एक समाचार पत्र (हिंदुस्तान) ने अभी हाल में (19 मई 2020) भारत के राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा समन्वयक लेफ्टिनेंट जनरल राजेश पन्त के हवाले से कहा है कि पाकिस्तान की तरफ से झूठे प्रचार का किम्पेंइन दिनों काफी तेज हो गया है। पाकिस्तान अब 500 से भी ज्यादा फेक ट्विटर हैंडल का इस्तेमाल करते हुए भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करनेलगा है। साइबर क्षेत्र के विशेषज्ञ अचिन जाखड के मुताबिक भारत के खिलाफ दुष्प्रचार से जुड़े तमाम समूह ट्विटर, दूसरे साइबर प्लेटफार्म के जरिये भारत पर लगातार हमले कर रहे हैं। इन्टरनेट पर भारतीय राजनीतिक दलों को निशाना बनाया जाता है तो कभी आफवाह फैलाई जाती है कि भारतीय लोग मुसलामानों से नफरत करते हैं। वहीं कभी कश्मीर को मुक्त करने के हैशटैग चलाये जाते हैं। जानकारों की राय में ऐसी आफवाह फैलाने वालों का लक्ष्य होता है कि भारत-विरोधी दो-तीन मुद्दे हर हफ्ते ट्रेंड कराए जायं। एक आंकलन के मुताबिक पाकिस्तान की तरफ से करीब सात लाख भारत-विरोधी ट्वीट किए जा चुके हैं। ट्वीट केलयेपाकिस्तान ने अपने प्रभावशाली व्यक्तियों का इस्तेमाल भी करना शुरू कर दिया है। (हिंदुस्तान, 19 मई 2020)। ऐसे समूहों को पाकिस्तान की ओर से आफवाहें फैलाने के लिए निर्देश मिलते रहते हैं। पहले यह अभियान टीवी पर प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिये चलता था, जो आज भी जारी है।
यह हो सकता है कि कुछ लोग खास तौर से दुष्प्रचार (डिसइनफार्मेशन) अभियान में लगाए जाते हों। हो सकता है वे बहुत प्रशिक्षित और वेतनभोगी लोग हों। हो सकता है वे किन्हीं लोगों के निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु या किसी एजेंडा विशेष के तहत फेक खबरें गढ़ते हों और उन्हें दुष्प्रचार अभियान की प्रक्रिया में फिट कर देते हों। यहाँ तक तो बात समझ में आती है, लेकिन यह विचार और विश्लेषण का बिन्दु बन जाता है कि आखिर क्यों जन सामान्य ऐसी फर्जी ख़बरों की पालकी ढोता रहता है। ऐसे लोगों के मनोविश्लेष्ण का यहाँ प्रयास किया गया है।
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हम अक्सर अपनी उम्मीदों, अपेक्षाओं और विश्वासों के आधार पर कुछ धारणाएँ बना लेते हैं। ये धारणाएँ हमारे दृष्टिकोण को जबरदस्त ढंग से प्रभावित करती हैं। ऐसी स्थिति मेंहम समस्या के वास्तविक स्वरूप को देखने के बजाय उसके उस पक्ष को ही सिर्फ देखने लगते हैंजो हम देखना चाहते हैं या जिसे हमारी धारणा दिखाना चाहती है। ऐसी अवस्था में हमें यथार्थ दिखना बंद हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि धारणाएँ हम जान बूझकर निर्मित करते हैं। यह अक्सर हमारी उस मानसिकता के कारण होता है जो हममें वर्षों से विकसित होती है। इसके विकास में कई कारक कार्यशील होते हैं, जैसे हमारा पारिवारिक परिवेश, हमारी शिक्षा-दीक्षा, किसी विशिष्ट विचारधारा के प्रति हमारा झुकाव और हमारी सांगठनिक या संस्थागत प्रतिबद्धता। सच कहें तो हमारी धारणा हमारे व्यक्तित्व का ही एक रूप है जिसे हम पूरी तरह त्याग नहीं पातेऔर हमारी धारणा (जो सहज और स्वाभाविक सी लगती है) किसी स्थिति? को परखने, उसका मूल्याँकन करने और उसके संबंध में निर्णय लेनेकी हमारी क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करती है।
हम अपनी मानसिकता और धारणाओं के अनुसार ही सूचनाओं की सत्यता को स्वीकार करते हैं। फिर उसी तरह की सूचनाओं का बहाव हमारी ओर होने लगता है और उन सूचनाओं की सत्यता पर विश्वास करके उन्हें हम दूसरों को अग्रसारित करने लगते हैं। इस प्रकार, बहुत सारी सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक चक्र चल पड़ता है। यही नहीं, हम अनजाने में अपने मन में एक प्रतिध्वनि-कक्ष (इको चैम्बर) निर्मित कर लेते हैं जिसमेंएक खास किस्म की सूचनाएँ ही बार-बार आती-जाती रहती हैं।
सामान्य जन का अपना कोई एजेंडा नहीं होता। इनके मन में कोई खास दुर्भाव नहीं होता। येबस एक खास तरह की मानसिकता से प्रेरित लोग होते हैं, जो ज्यादातर सहज विश्वासी होते हैं। ऐसे लोग बड़ी आसानी से दुष्प्रचार फैलाने वालों के हाथ का खिलौना बन जाते हैं। ये लोग थोड़ा ठहरकर सूचना की सत्यता के लिए प्रतीक्षा करने या स्वयं सत्यता का पता लगाने के लिए कुछ कोशिश करने के बजाय समान विचारधारा वाले लोगों और मित्रों की ओर सूचना को आगे बढ़ा देते हैं। इस तरह, एक-दूसरे से गुजरते हुए झूठी सूचना भी सच्चाई का बाना धारण कर घूमने लगती है।
सामान्य लोगों को सच्चाई का पता लगा पाना भी इतना आसन नहीं होता। न तो उनकेपास इतना धीरज होता है और न सच्चाई को खोज निकालने की इतनी ललक। पुराने जमाने के रोमन राजनीतिज्ञ और इतिहासकार पब्लिअस कोमेलिअस टीसीटस (56-120 ई.) ने सही ही कहा था कि सत्य का पता जांच और देरी से लगता है, जबकि झूठ का जल्दबाजी और अनिश्चितता से।
ऐसे लोग दूसरों को सनसनीखेज खबर जल्दी बता कर उन्हें प्रभावित करने के चक्कर में बिना सच्चाई जाने झूठी-सच्ची खबरों को आगे बढ़ाते रहते हैं। कई बार किसी ख़ास अजेंडे के तहत आई हुई सूचना को ये लोग जान-बूझकर अपने आका को खुश करने के लिए भी आगे बढ़ा देते हैं।
किसी आपातस्थिति मेंऐसेलोग दुष्प्रचार अभियान चलाने वाले लोगों का और जल्दी शिकार हो जाते हैं। भय, उत्तेजना और अधीरता के कारण ये सीधे सामान्य जन झूठी सनसनीखेज खबरों और झूठी चेतावनियों और आशंकाओं को अनजाने में फैलाकर पूरे माहौल में भय भर देते हैं।
इन्हीं में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो यह जानते हुए कि कोई खबर बिलकुल सच है, फिर भी उसको झूठ के रूप में प्रचारित करते हैं क्योंकि उस सच्ची खबर से उनके अपने हितों को हानि पहुँच सकती है या वह सच्ची खबर उन्हें नापसंद या मनमुताबिक नहीं है या उनकी विचारधारा में फिट नहीं बैठती है।
यह न है कि सिर्फ सामान्य लोग ही झूठी ख़बरों के शिकार हो जाते हैं। बहुत शिक्षित और सूचना के अनेक संसाधनों से सम्पन्न लोग भी जाने-अनजाने झूठी या निराधार सूचनाओं पर विश्वास कर लेते हैं और उन्हें अपनी अवधारणा गढऩे या अपने तर्क का आधार बनाने की भूल कर बैठते हैं। इस मामले में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक वाकये 4 का अक्सर उल्लेख किया जाता है। भारत में किसी सूचना की सत्यता का पता लगाने में भारत के प्रधानमंत्री से बढक़र कौन साधन-सम्पन्न हो सकता है भला! अपने बयान में सच्चाई पर टिके रहने की जिम्मेदारी भारत की सबसे पवित्र और जिम्मेदार मानी जाने वाली संस्था भारतीय संसद के आलावा कोई अन्य स्थान हो सकता है क्या भला! कहते हैं कि संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान 6 फरवरी, 2020 को बोलते हुए प्रधानमंत्री ने जम्मू व कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटाये जाने की चर्चा करते हुए उस राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के एक ट्वीट का हवाला दिया। उमर अब्दुल्ला के ट्वीट में दावा किया गया था कि अगर अनुच्छेद 370 हटाया गया तो ऐसा भूकम्प आ जायेगा कि जम्मू- कश्मीर भारत से अलग हो जायेगा। कहते हैं कि उमर अब्दुल्ला का ट्वीट व्यंग्यात्मक था जो कि व्यंग्य वेबसाइट ‘फेकिंग न्यूज़’ में 28 मई, 2014 को प्रकाशित एक लेख में उद्धृत हुआ था। बाद में पता चला कि प्रधानमंत्री फेक न्यूज़ के शिकार हो गयेथे। कहते हैं कि उमर अब्दुल्ला ने 27 मई, 2014 केअपने ट्वीट में‘भूकंप’ शब्द का कहीं उल्लेख ही नहीं किया था। उनका ट्वीट शब्दश: यूँ था,
“Mark my words & save this tweet—long after Modi Govt is a distant memory either J&K won’t be part of India or Art 370 will still exist 2/n” कार्यपालिका के प्रमुख केरूप मेंकार्य करने वालेव्यक्ति (प्रधानमंत्री) के लिए न जाने कितनी एजेंसियाँ होती हैं जो बड़ी फुर्ती सी ऐसी बातों फैक्ट-चेकिंग कर सकती हैं, जो जाहिर है नहीं हुआ होगा।
सही ख़बरों को लोगों तक पहुँचाने के महान दायित्व को वहन करने का दावा करने वाली मीडिया भी फेक न्यूज़ या अफवाहों से अपने को अक्सर बचा नहीं पाती। कई मीडिया चैनलों पर तो खुलेआम आरोप भी लगते रहते हैं कि वे किसी विशेष एजेंडे के तहत कुछ ख़ास तरह की ख़बरों को तरजीह देते हैं। विश्लेषण किया जाय तो इसके पीछे कई कारण नजर आते हैं। सिर्फ सत्य के प्रति प्रतिबद्ध रहने की जिनसे उम्मीद की जाती है उन्हें किसी न किसी राजनीतिक विचारधारा या एजेंडे को आगे बढ़ाते देखा जाता है। इनके पीछे मीडिया घरानों और पत्रकारों के निहित स्वार्थ की भूमिका मानी जाती है। कई बार टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में भी मीडिया के लोग फेक न्यूज़ के शिकार हो जाते हैं। कई बार कोई सनसनीखेज खबर जल्दी से अपने श्रोताओं/दर्शकों तक पहुँचाने के चक्कर में भी मीडिया अफवाहों का शिकार हो जाता है। कभी-कभी सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध करने के चक्कर मेंमीडिया के लोग उल-जुलूल खबरों का सहारा लेने लगते हैं। कभी ऐसा भी होता है कि किसी वर्तमान समाचार को किसी पुराने या हेरा-फेरी किए हुए विडियो के साथ इस प्रकार पेश किया जाता है कि समाचार का सन्दर्भ ही विकृत या विषाक्त हो जाता है।
अभी हाल के दिनों मेंसोशल मीडिया की नकारात्मकता ज्यादा उभर कर आई है। झूठ, अफवाह, नफरत और गलत धारणाओं को बढ़ावा देने वाली सामग्री की भरमार हो गई है। ट्रोल नामक एक नई प्रजाति प्रकट हो गई है, जो दूसरों को गालियाँऔर धमकियाँ देने में सक्रिय रहती है। इसके कारण कई गंभीर और विचारशील लोगों ने सोशल मीडिया से दूरी बनाना शुरू कर दिया है।
यहाँ एक महत्वपूर्ण मुद्दा उभरता है कि फेक न्यूज़ या अफवाह की पहचान कैसे की जाय। लगातार सामने आती रहने वाली खबरों में से फेक न्यूज़ को पहचान कर अलग कर पाना एक सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन कार्य है। आइये, पड़ताल करते हैं कि कैसे इस कठिनाई से पार पाया जाय।
यदि अग्रसारित होते हुए कोई खबर आप तक पहुँचेऔर वह खबर आपको उद्वेलित या भयभीत कर दे तो ऐसी खबर से चौकन्ना हो जाइये। थोड़ा रुककर विचार कीजिये कि ऐसी खबर या संदेश भेजने वाले की मंशा क्या हैयदि लगता है कि वह खबर लोगों की भावनाओं को भडक़ाने की नीयत से फैलाई जा रही है तो आप उस अभियान का हिस्सा मत बनिये। दूर रहिये ऐसे खबर या संदेश से।
इसी प्रकार, यदि कोई समाचार/संदेश आपको इतना सनसनीखेज लगे कि आप उस पर सहसा विश्वास न कर पायेंतो उस खबर की सत्यता जाने बिना उसे आगेमत अग्रसर करिये। यह मत सोचिये कि अगला व्यक्ति उसकी सच्चाई का पता लगायेगा और उसेआपको भी बतायेगा। आप पर विश्वास करके वह व्यक्ति उस खबर को आप की ही तरह आगेबढ़ा देगा। आपकी विश्वसनीयता की कीमत पर जो अविश्वसनीय खबर एक बार आगे बढ़ी तो उस शृंखला में कईयों की विश्वसनीयता को खाती-पचाती और मजबूत होती हुई एक झूठी बात भी एक जबरदस्त सच्चाई का रूप धारण कर लेती है। झूठ के परिचालन की इस शृंखला में अपनी कड़ी जोडऩे से बचिए, शृंखला टूट जायेगी या कम से कम कमजोर तो पड़ ही जायेगी।
आपके पास पहुँचने वाले संदेशों का रंग-ढंग यदि सामान्य संदेशों से भिन्न हो तो समझिये कहीं कुछ गड़बड़ है। उदाहरण के लिए शब्दों में वर्तनी-दोष हो या वाक्यों की बनावट ऊबड़-खाबड़ हो तो समझ लीजिये कि उस संदेश का सृजन किसी अनाड़ी नेया किसी दुर्भावनाग्रस्त व्यक्ति ने हड़बड़ी में किया है। इसी प्रकार, यदि संदेश में दिया हुआ लिंक किसी जाने-माने स्रोत या साईट का है, किन्तु उसमें कहीं स्पेलिंग की गलती या कुछ अक्षरों का संयोजन कुछ असामान्य ढंग से हुआ है तो सतर्क हो जाइये। वह स्रोत या साईट फर्जी हो सकता है। उसेभूल सेभी न खोलें, न अग्रसारित करें। पहली बात तो यह है कि अक्सर फर्जी संदेशों में किसी स्रोत या साईट का उल्लेख ही नहीं होता। अगर खुदा न ख्वास्ता विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए संदेश-प्रेषक ने स्रोत/साईट का उल्लेख किया हो तो उपर्युक्त सलाह पर जरूर गौर करिए।
कोई समाचार पाने पर थोड़ा रुकें, थोड़ा उस पर विचार करें। दूसरों को जल्दी से वह समाचार सुनाने के उतावलेपन के बजाय अन्य समाचार माध्यमों पर भी थोड़ा गौर कर लें। कोई घटना सच होगी तो जरूर वह किसी अन्य समाचार माध्यम पर भी उपलब्ध होगी या जल्दी ही उपलब्ध हो जायेगी। यदि अन्य माध्यमों और स्रोतों पर वह उपलब्ध नहीं हैतो उस समाचार के संदिग्ध होने संभावना बढ़ जाती है। लेकिन, यह भी संभव है कि कोई झूठी खबर कई माध्यमों से एक साथ परिचालित होने लगती है। ऐसी स्थिति में उस खबर की सच्चाई का पता लगा पाना मुश्किल होता है। ऐसी हालत में उस माध्यम पर भरोसा करिये जिसकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता सुस्थापित है।
यदि किसी व्यक्ति, संस्था या माध्यम ने समाचार की सत्यता के संबंध में कभी आपका विश्वास भंग किया है, तो उसेत्यागिये। तजिय ताहि कोटि वैरी सम, क्योंकि ऐसेलोग न जाने कब फर्जी खबरों के मायाजाल में आपको फँसा देंगे।
इस संबंध में मार्क ट्वेन की वह सलाह याद रखिये जो उन्होंने कभी भाषा में विशेषण के प्रयोग को अनुशासित करने के लिए दिया था- व्हेन इन डाउट, लीव इट आउट। अगर किसी खबर या संदेश की सत्यता पर जरा भी शक हो तो उससे बचिये। अपनी विश्वसनीयता की कीमत पर किसी फर्जी खबर को फैलाने के बजाय उससे दूर रहिये। थोड़ा इंतजार कीजिये। सच्चाई को सामने आने दीजिए।
ये तो कुछ सामान्य सलाह हैं सामान्य जन के लिए। इनके अलावा फैक्ट-चेकिंग के लिए ऑनलाइन कई एप्प भी हैं, जिनकी मदद सत्य का पता लगानेके लिए जा सकता है।
फर्जी खबरों के फैलाने के प्लेटफार्म केरूप में दुरूपयोग किए जाने के लिए व्हाट्सएप खासा बदनाम होता रहा है। आजिज आकर व्हाट्सएप अपने प्रयोगकर्ताओं को गाइडलाइंस और सलाह जारी करता रहा है। एक अनुमान के अनुसार भारत में बीस करोड़ 5 से भी ज्यादा लोग व्हाट्सएप का प्रयोग करते हैं। इतने बड़े मार्किट बेस को कोई-कोई दुरुपयोग किए जाने के आधार पर यूँ ही नहीं गंवाना चाहेगा। यही कारण है कि व्हाट्सएप अपने प्लेटफार्म का दुरूपयोग रोकने के लिए कदम उठता रहा है। इसकी शुरुआत व्हाट्सएप ने भारत भर में “Share Joy, Not Rumors” नामक अभियान से किया, जिसेदस सेज्यादा भाषाओं में देश के सारे संचार माध्यमों के जरिये प्रसारित किया गया। यही नहीं फेक न्यूज के प्रसारण को रोकने के लिए व्हाट्सएप ने कुछ फिल्मों का निर्माण भी कराया। व्हाट्सएप ने अपने प्रयोगकर्ताओं से वैकल्पिक तौर पर आग्रह भी किया है कि यदि कोई प्रयोगकर्ता चाहे तो किसी संदिग्ध संदेश को फैक्ट-चेकिंग के लिए उसके साथ शेयर कर सकते हैं या क़ानून-व्यवस्था देखने वाले अधिकारियों को सूचित कर सकते हैं। व्हाट्सएप ने अपने प्रयोगकर्ताओं की सुविधा के लिए Boom Live और Alt News जैसे वेबसाइट के साथ सहभागिता भी की है।
व्हाट्सएप पर संदेशों, खासकर कोरोना वायरस से संबंधित संदेशों, को अग्रसारित करने की आवृत्ति पाँच तक सीमित कर दी गई है। इस सीमा ने फर्जी खबरों के तीव्र प्रवाह पर रोक तो लगाई है, लेकिन फर्जी खबरों पर पूर्ण रोक लगा देने में इसकी सफलता अभी भी परखी जानी है। कोरोना वायरस के संबंध में फैलने वाली अफवाहों को रोकने के लिए व्हाट्सएप संदेशों को अग्रसारित करने की आवृत्ति को और कम कर रहा है। अब कोई यूजर एक बार में किसी संदेश को सिर्फ एक बार अग्रसारित कर सकता है। इससे स्वत: पता लग जाता है कि कोई संदेश विशेष एक साथ लगातार पाँच बार अग्रसारित हो गया है या नहीं।
गूगल न्यूज़ ने फेक न्यूज़ के प्रति जागरूकता लाने और सच का पता लगाने के तरीकों के बारे में 8000 पत्रकारों को अंग्रेजी सहित सात भारतीय भाषाओँ में सन् 2018 में एक प्रशिक्षण प्रारंभ किया, जो दुनिया में इस दिशा में अपनी तरह का सबसे बड़ा कदम माना गया। 6 व्हाट्सएप ने भी पाँच टिप्स जारी किए गये थे जो व्हाट्सएप यूजर को फर्जी ख़बरों/संदेशों को पहचानने में उपयोगी बताया गया। यहीं नहीं, जुलाई, 2018 में अपने प्लेटफार्म से फैल रहे फेक ख़बरों और अफवाहों को रोकने के लिए व्हाट्सएप ने अपने यूजरस को 10-बिन्दुओं वाले टिप्स जारी किए। व्हाट्सएप के इस प्रयास की समाचार माध्यमों में खूब चर्चा रही और कुछ विशेषज्ञों के हवाले यह दावा किया गया कि व्हाट्सएप पर परिचालित हो रहे फर्जी संदेशों को रोकने की जिम्मेदारी व्हाट्सएप और व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन लोगों की है क्योंकि इस संबंध में उनकी भूमिका मध्यस्थों (Intermediary) की है और वे मध्यस्थों से संबंधित उत्तरदायित्वों (Intermediary liability) के प्रति कानूनन बाध्य हैं। लेकिन, यहाँ ध्यान देने की बात है कि व्हाट्सएप या व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन को ग्रुप के किसी सदस्य द्वारा फेक संदेश पोस्ट किए जाने के लिए प्रतिनिधिक रूप से (vicariously) कानूनन उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। स्वामी-सेवक (master-servant) और कर्ता-अभिकर्ता (principal-agent) की तरह के संबंधों के लिए प्रतिनिधिक उत्तरदायित्व (vicarious liability) लागू होता है। ऐसा संबंध व्हाट्सएप और व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन गु्रप के किसी सदस्य साथ नहीं होता। इस संबंध में जारी किए गए सलाह (एडवाइजरी) नैतिक रूप से तो उचित हैं, किन्तु कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं दंडनीय अपराध। ऐसा कोई क़ानून भारत मेंअभी नहीं है जो इस प्रकार की साइबर गतिविधि को दंडनीय अपराध कह सके। इस संबंध में श्यामसुंदर एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1989) 4 SCC 630 तथा आर। कल्याणी बनाम जनक सी। मेहता (2009) 1 SCC5 16 में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ द्रष्टव्य हैं। यही नहीं, आशीष भल्ला बनाम सरेश चौधरी (2016) के मामले में भी दिल्ली उच्च न्यायलय ने माना कि ग्रुप के किसी सदस्य द्वारा मानहानिकारक संदेश पोस्ट किए जाने पर ग्रुप का एडमिन जिम्मेदार नहीं है।
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व्यावहारिक रूप से भी देखा जाय तो पता चलेगा कि ग्रुप के एडमिन ग्रुप के पास किसी सदस्य को हटाने का बहुत सीमित सामथ्र्य होता है। जब तक एडमिन खुद कोई आपत्तिजनक सन्देश नहीं पोस्ट करता वह किसी सदस्य की गलती के लिए कैसे जिम्मेदार हो सकता है! हाँ, यह बात अलग है कि किसी अवैध उद्देश्य से वह ग्रुप बनाता है तो एडमिन जरूर जिम्मेदार होगा। उदाहरण के लिए अभी बच्चों के शोषण वाली चाइल्ड पोर्नोग्राफी को प्रसारित करने वाला कोई ग्रुप।
अफवाह फैलाने वालों के विरुद्ध भारत में अब तक पुराना क़ानून ही काम करता रहा है। इस संबंध में न्यूज़18 में 7 जुलाई 2018 को प्रकाशित एक लेख में उद्धृत साइबर मामलों के सुप्रसिद्ध वकील पवन दुग्गल का एक कथन विचारणीय है। पवन दुग्गल कहते हैं, ‘सोशल मिडिया के आने से पहले बने भारतीय कानूनों में विशेषता की कमी होने के कारण ऐसे कानून इन समस्याओं को रोकने में असफल हैं। भारतीय आईटी क़ानून इससे निपटने में सक्षम नहीं है। व्हाट्सअप जैसे बिचौलिए भारतीय बाजारों का लाभ तो उठाना चाहते हैं, लेकिन भारतीय कानों का पालन नहीं।’ आगे जोर देते हुए दुग्गल कहते हैं कि आईटी एक्ट के सेक्शन 87 के तहत भारत सरकार फेक न्यूज़ की समस्या से निपटने के लिए कठोर बना सकती है। भारत को इन बिचौलियों के प्रति कठोर होना होगा और उन्हें भारतीय कानून के पालन के लिए झुकना होगा। हमें अपने साइबर स्पेस की शुचिता को बढ़ाना होगा और स्कूलों के पाठ्यक्रम में साइबर कानून संबंधी जागरूकता लाना होगा।’
यहाँयह उल्लेख करना समीचीन होगा कि भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 505 में सार्वजनिक शरारत करने के लिए किए गए कृत्यों से निपटने का प्रावधान किया गया है, हालाँकि अफवाह फैलाने के संदर्भ में इस धारा की उपधारा 2 प्रासंगिक है। धारा 505 (2) व्यक्तियों के वर्गों के बीच शत्रुता या शत्रुता की इच्छा को बढ़ावा देने या बढ़ावा देने के बयान से संबंधित है। यह प्रावधान उन मामलों से संबंधित है जहॉं बयानों को शरारत के इरादे से किया जाता है, साथ ही जहाँ संभावित प्रभाव शरारत का कारण बनता है।
कोविद-19 की भयावहता को फैलाने वाले अफवाहों पर अंकुश लगाने के लिए भारत सरकार ने 24 मार्च, 2020 से आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 54 के अंतर्गत झूठी चेतावनी फैलाने को दंडनीय अपराध बनाया है। कुछ समाचारपत्रों के अनुसार कोविद के संबंध में झूठी चेतावनी फैलाने के आरोप में कुछ लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी शुरू की है।
फेक न्यूज और अफवाहों से लोगों को बचने का सबसेबढिय़ा तरीका है कि उन्हें इस संबंध में जागरूक किया जाय। इसके लिए विभिन्न प्रचार माध्यमों के साथ-साथ स्कूलों की कक्षाओं में पढ़ाया जाय। पता लगा है कि सरकार इस तरह का कुछ ठोस कदम उठा रही है। केरल के कन्नूर सहित कुछ स्थानों पर इस तरह की जागरूकता कक्षाएँ 8 चलने की योजना है।
-दिनेश श्रीनेत
दुनिया की हर प्रेम कहानी साहचर्य की कामना या वादे के साथ खत्म होती है। मगर जब वही प्रेम कहानियां अपने वादे की स्वर्णिम रेखा से आगे का सफर तय करती है तो उसमें जाने कौन सा अवसाद और कड़वाहटें समा जाती हैं। याद करें वो फिल्में- ‘गॉन विथ द विंड’ हो, गाइड हो, ‘अभिमान’ या फिर इंग्मर बर्गमैन की ‘समर विद मोनिका’।
या फिर वो सारे उपन्यास ही क्यों न हों, जो प्रेम के ज्वार-भाटे से आगे की लहरों पर सफर तय करते हैं। हम पाते हैं कि उन लहरों पर नाव डगमगाने लगती है। वादे झूठे पडऩे लगते हैं। रूमान का तिलिस्म टूट जाता है। तो क्या प्रेम महज एक मृग मरीचिका है? एक छलना? जिसे पाने के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगता। फिर वे प्रेम के कौन से फूल हैं जो जीवन के लंबे अंतराल में खिलते हैं?
प्रेम टिका रहे, उसकी आद्रता बढ़ती रहे, घटे नहीं- इसे बहुत छोटी-छोटी बातें तय करती हैं। इसमें शायद सबसे पहला है; जिसे हमें प्रेम करते हैं उसे यह महसूस कराना कि हमारे जीवन में उसके होने की अहमियत है। जाहिर सी बात है कि इससे पहले आपको यह समझना होगा कि क्यों वह शख़्स आपके लिए इतना अहम है। इसे समझना बहुत आसान है। आप अपने प्रियजन के बिना जीवन की कल्पना करें और उस रीतेपन को टटोलें जो उसकी अनुपस्थिति से पैदा हो रहा है।
याद रखें इस सृष्टि के अन्य प्राणियों के मन में यह सवाल नहीं कौंधता कि वे इस धरती पर क्यों आए हैं और उनके जीने का मकसद क्या है। यह सवाल मनुष्य के मन में ही पैदा होता है और इसीलिए वह अपनी सार्थकता दूसरे मनुष्य में तलाशता है। प्रेम उसी सार्थकता को तलाशने का एक नाम है। आपको बताना होगा कि कोई और आपके जीवन को पूर्ण बनाने में मदद कर रहा है ताकि वह भी अपने जीवन की पूर्णता को समझ सके। इसे जाहिर करने के अनगिनत तरीके हो सकते हैं। छोटी-सी बात का ख्याल रखने से लेकर साथ वक्त गुजारने और उसके मन की आँखों से संसार को देखने तक-कुछ भी हो सकता है।
दूसरा; प्रियजन की निजता और एकांत का सम्मान करना। जब हम प्रेम में होते हैं तो जाने-अनजाने अक्सर यह अपराध करते हैं। हम अपने प्रेम के बदले सामने वालो को गुलाम समझ बैठते हैं। हम यह मान लेते हैं कि हम उसके लिए इतने अहम हैं कि उसका खुद का कोई अस्तित्व नहीं है। हमारा प्रेम इस कदर उमड़ता है कि वह तय करने लगता है कि सामने वाला किस तरह जीएगा। प्रेम किसी अन्य के जीवन की शर्तें तय करने के लिए नहीं है। प्रेम की उस देहरी पर आपको थोड़ा संकोच से ठिठकना होगा जहां से आप किसी अन्य के मन में प्रवेश कर रहे हैं। याद रखिए आपका स्वागत तभी होगा जब उस मेजबान मन की निजता को सम्मान देंगे।
तीसरी बहुत ही अहम बात हम भूल जाते हैं कि हमने जब किसी से प्रेम किया था तो वह हमें दुनिया में सबसे अनूठा लगा था। इसीलिए तो हमारे पास उसका कोई विकल्प नहीं था। उसके जैसा दुनिया में कोई और था ही नहीं। उसकी इस मौलिकता का पूरी जिंदगी सम्मान भी करना होता है। उसके सामने आइना बनकर उसे उसके खुद के चेहरे की याद दिलाना होता है।
चौथी बात; सामने वाले को अपेक्षाओं के बोझ से लादना सही नहीं। मैंने बचपन में एक रेडियो प्रोग्राम में किसी को कहते सुना था जब आपको किसी की कमियाँ भी सुंदर लगने लगें तो समझ लीजिए कि आपको उस शख़्स से प्रेम हो गया है। पूर्णता एक धोखा है। पूर्णता ही वह मरीचिका है जिसके पीछे हमें दौडऩा सिखाया गया है। इसलिए अधूरेपन का सम्मान करें। साथ मिलकर अपने संसार को विस्तार दें।
कभी आपने गौर किया है कि साथ मिलकर कुछ भी देखना कितना सुंदर होता है? हम हमेशा यही तो चाहते हैं। तभी तो हम खूबसूरत फूल, जंगल में भागते हिरन या चाँद को देखकर उछल पड़ते हैं, ‘वो देखो! कितना सुंदर...’ अगर इतना ही सुंदर है तो अकेले क्यों नहीं देखते। किसी और के देखने से उसकी सुंदरता बढ़ जाती है क्या? हां, बढ़ जाती है।
मेरी प्रिय गायिका सुमन कल्याणपुर ने एक गीत गाया है, ‘मन से मन को राह होती है / सब कहते हैं’। इसे लिखा है अख़्तर रूमानी ने। दूर से आती घंटियों जैसे मधुर स्वर में जो बोल हमें मिलते हैं वो बहुत सरल है, लेकिन कितनी गहरी बात कह जाते हैं। ‘मन से मन को राह होती है / सब कहते हैं / जैसे वो रहते हैं हममें / या हम भी उनमें रहते हैं’।
तो पांचवीं और आखिरी बात यही है कि जब हम कहते हैं कि ‘देखो, कितना सुंदर...’ तो मन से मन के बीच एक रास्ता खुल जाता है। हमें पता चलता है कि हम तो हमेशा से एक दूसरे के मन के भीतर रहते आए हैं। खिड़कियां-दरवाजे बंद रखेंगे तो कभी जानेंगे कैसे कि मन के भीतर था क्या? प्रेम अगर कुछ है तो बस यही है। यही सब कुछ उस ढाई आखर में समाया हुआ है।
नसीर की ‘एंड देन वन डे- अ मेमॉयर’ के संपादित अंश
नसीरुद्दीन शाह की जिंदगी का यह अध्याय उनके अभिनेता बनने के संघर्षों की बंबइया शुरुआत से बहुत पहले की कहानी बयां करता है. तब जब एक 19 वर्षीय नौजवान अभिनय के अपने सपनों को जीने के लिए कसमसा रहा था और पारिवारिक दबावों और अभिनय को बतौर एक करियर न देखने वाले समाज की धक्कामुक्की के बीच लिटरेचर की पढ़ाई करने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचा था. लेकिन यहीं पर पहुंचकर उसने पहली मर्तबा थियेटर को गंभीरता से लेना शुरू किया, नेशनल स्कूल आफ ड्रामा में जाने का सपना संजोया और अपने से 14 साल बड़ी पाकिस्तानी लड़की परवीन मुराद से शादी की. और एनएसडी पहुंचते ही पिता बना.
कम ही आधिकारिक आत्मकथाएं इतनी सच्ची और बेबाक होती हैं – फिल्मों से जुड़ी तो न के ही बराबर - जितनी नसीरुद्दीन शाह की ‘एंड देन वन डे- अ मेमॉयर’ थी. नसीर साहब के जन्मदिवस पर उसी किताब के तीन अध्यायों के संपादित अंश :
जब हम पहली दफा मिले परवीन 34 साल की थी और डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी. अपने उन्मुक्त ख्यालों और कई सालों से कैंपस में रहने के कारण वो यूनिवर्सिटी के अंदर एक जाना-पहचाना नाम थी. उसने पहले यहीं से बीएससी की, फिर पोस्ट ग्रेजुएशन और अब डॉक्टरी की पढ़ाई के पांचवें और अंतिम साल में ट्रेनिंग कर रही थी. लेकिन इतनी लंबी-चौड़ी पढ़ाई करने की वजह कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ हिंदुस्तान में लंबे समय तक रुके रहना था. परवीन पाकिस्तानी थी और पांच साल की उम्र से अपने पिता संग कराची में रहने के बाद अब अपनी मां के पास हिंदुस्तान आई थी. उसकी मां यूनिवर्सिटी में ही टीचर थीं और यहां उनकी काफी इज्जत थी. स्टूडेंट वीजा पर हिंदुस्तान आई परवीन उनके साथ रहने के मोह में एक के बाद एक डिग्रियां लेती जा रही थी. पिता के साथ ताल्लुकात ठीक नहीं थे और इसीलिए वो वापस लौटना नहीं चाहती थी. लेकिन डॉक्टरी की पढ़ाई खत्म होने को थी, इसके बाद कोई और कोर्स करने को नहीं था, और इसी के साथ उसका स्टूडेंट वीजा भी एक्सपायर होने वाला था.
वो मुझसे उम्र में बड़ी थी (तकरीबन 14 साल) और उस वक्त खुश भी नहीं दिख रही थी लेकिन मैं उसकी तरफ खिंच रहा था क्योंकि जिस तरह उसके बालों पर पड़कर धूप चमक रही थी, मुझे अच्छा लग रहा था
मुझे पहली ही नजर में वो भा गई थी. मैं तस्वीर महल मूवी हाउस के बाहर हमेशा की तरह फिल्मी पोस्टरों को निहार रहा था और वो जाहिर तौर पर किसी के आने का इंतजार कर रही थी. मुझे नहीं पता कि वो क्या था जिसने मुझे उसकी तरफ आकर्षित किया. वो देखने में बहुत खूबसूरत नहीं थी लेकिन उसके कपड़े पहनने का अंदाज मुझे भाया था, मुझसे उम्र में भी बड़ी थी (तकरीबन 14 साल) और उस वक्त खुश भी नहीं दिख रही थी. लेकिन मैं उसकी तरफ खिंच रहा था क्योंकि जिस तरह उसके बालों पर पड़कर धूप चमक रही थी, मुझे अच्छा लग रहा था.
परवीन और मैं जल्द ही दोस्त बन गए. वो ‘द चेयर्स’ नाम के नाटक की रिहर्सल में आई और पहले से तारूफ न होने के बावजूद हम अजनबियों की तरह नहीं मिले. गुजरते वक्त के साथ उसने मुझे सपने देखने के लिए प्रोत्साहित किया और यकीन दिलाया कि अभिनेता बनने का मेरा सपना सही राह पकड़ चुका है. वो हमेशा कहती कि मेरा व्यक्तित्व ऐसा नहीं है जो असफल हो जाए इसलिए मुझे अच्छा करना ही होगा. वो सिगरेट पीती और खूब हंसती, मुस्कुराती तो उसकी आंखें प्यारे अंदाज में सिकुड़ जातीं. उसे मेरा साथ पसंद था और वो मुझे ढूंढती थी ताकि हम साथ वक्त गुजार सकें. जल्द ही हम हर रोज शाम को मिलने लगे और मेरा इस अजनबी शहर में मौजूद रिश्तेदारों के यहां जाना लगभग बंद हो गया.
इसी दौरान मैंने कई विदेशी साहित्यकारों को पढ़ा और यूनिवर्सिटी के कुछ टीचरों की वजह से कई नाटकों में काम भी किया. इंग्लिश डिपार्टमेंट की जाहिदा जैदी ने खासकर मुझे शिक्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उनके साथ ही दिल्ली जाकर मैंने पहली दफा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में कुछ नाटक देखे. इससे पहले मैंने इस वृहद स्तर पर कभी नाटकों का मंचन नहीं देखा था और मेरे लिए यह एक फर्स्ट-क्लास थियेटर वर्क था, जिसमें उस स्तर की तकनीकी गुणवत्ता और चमक थी जो हिंदुस्तानी थियेटर में सिर्फ यहीं मिल सकती थी. ऐसी जगह पर काम करने का सोचकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए और यह अविश्वास भी हावी होने लगा कि क्या ऐसी कोई जगह सच में हो सकती है जहां एडमिशन पा जाने के बाद मैं कई नाटकों में लगातार काम कर सकूंगा और ‘सिर्फ यही’ हमेशा कर पाऊंगा? आंखों देखा सबकुछ अवास्तविकता के करीब लग रहा था लेकिन वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों से बातकर यह बात मेरी समझ में आ गई कि वे सभी खास नहीं बल्कि मेरी ही तरह आम हैं, और सभी अभिनय को लेकर वही सपने देखते हैं जो मैं देखता रहा हूं.
इसी दौरान मैं अलीगढ़ में परवीन की मां के घर ही ज्यादातर रहने लगा और यूनिवर्सिटी के अपने हॉस्टल में जाना कम कर दिया. जिंदगी में पहली बार मुझे लगा कि मैं भी किसी फैमिली का हिस्सा हूं
इसी दौरान मैं अलीगढ़ में परवीन की मां के घर ही ज्यादातर रहने लगा और यूनिवर्सिटी के अपने हॉस्टल में जाना कम कर दिया. जिंदगी में पहली बार मुझे लगा कि मैं भी किसी फैमिली का हिस्सा हूं. ऐसा मुझे इससे पहले कभी नहीं लगा, अपने माता-पिता के घर में तो बिलकुल भी नहीं. मुझे पहली बार परवीन के रूप में वो साथी मिला जिसे मैं चाहता था और जिससे मैं प्रभावित रहता था और आखिरकार ऐसा भी कोई मिला जो मुझे भी चाहता हो. मुझे यहां सराहना मिली, प्यार-सम्मान भी और दोनों ने ही मुझे मेरे सपनों को हासिल करने के लिए प्रेरित किया. अगर उस वक्त इन दोनों महिलाओं को मुझपर विश्वास नहीं होता, तो शायद मैं एनएसडी में भर्ती के लिए अप्लाई करने की हिम्मत जुटा भी नहीं पाता.
लेकिन इसी दौरान वह हुआ जिसने न सिर्फ मेरा जीवन बदल दिया बल्कि पूरी यूनिवर्सिटी को भौंचक करने के अलावा लंबे वक्त के लिए मेरे माता-पिता को भी गहरे अवसाद में झोंक दिया. एक तरफ तो परवीन को लेकर मेरी भावनाएं प्यार की सीमा-रेखा पार करने लगीं थीं तो दूसरी तरफ उसकी ऊर्जा, उसका अनुभव, जिंदगी के प्रति उसका नजरिया और मुझे हमेशा तवज्जो देने की उसकी आदत से मैं इतना ज्यादा प्रभावित था कि न सिर्फ उसकी यह दोस्ती मुझे कृतज्ञता से भर देती बल्कि उसके प्रति मेरा प्यार भी बढ़ता जाता. यह पहली बार था जब मैं किसी की जिंदगी में अहमियत रखता था. उस वक्त मैं अपनी सारी जिंदगी इसी लड़की के साथ बिताना चाहता था और जानता था कि यही लड़की मुझे हमेशा खुश रखेगी. मैं उसे खुश रख पाऊंगा या नहीं, यह ख्याल मेरे मन में कभी आया ही नहीं. आखिर मैं 19 साल का था और उस वक्त मेरे लिए मेरी खुशी ही सबकुछ थी.
इसी बीच, एक सुबह, जब मैंने परवीन के घर का दरवाजा खोला तो बाहर सफेद शर्ट, खाकी पैंट और पुलिसिया भूरे जूतों में दो सज्जनों को खड़े पाया. ‘सीआईडी’, एक बोला. उन दिनों बांग्लादेश विवाद तेजी पकड़ रहा था और पाकिस्तान से हमारे रिश्ते खट्टे हो चले थे. दोनों मुल्कों में संदेह पसरा था और भारत में रहने वाले पाकिस्तानियों को हर हफ्ते पुलिस स्टेशन जाकर रिपोर्ट करना होता था. दोनों सज्जनों के चले जाने के कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि परवीन की हिंदुस्तान में रहने की मियाद खत्म होने को है और उसे एक महीने के भीतर पाकिस्तान लौटना होगा. नहीं तो वो कभी दोबारा भारत वापस नहीं आ पाएगी और हमेशा के लिए उसपर बैन लगा दिया जाएगा. उसके भारत में रुके रहने का एक ही तरीका था कि वो भारतीय नागरिक बन जाए और ऐसा उन मुश्किल हालातों में सिर्फ एक ही तरीके से मुमकिन था. अगर परवीन किसी भारतीय नागरिक से शादी कर ले. मुझे इसमें कोई अड़चन नजर नहीं आई. मैं एक भारतीय नागरिक था जो उससे बेहद प्यार करता था और आज नहीं तो कल, मशहूर होने के बाद, उससे शादी करने ही वाला था!
परवीन के भारत में रुके रहने का एक ही तरीका था कि वो भारतीय नागरिक बन जाए और ऐसा उन मुश्किल हालातों में सिर्फ एक ही तरीके से मुमकिन था. अगर परवीन किसी भारतीय नागरिक से शादी कर ले
हमने एक नवम्बर, 1969 को निकाह कर लिया. निकाह परवीन के घर पर ही उसकी मां और मेरे एक दोस्त की मां की गवाही में हुआ. मेरे बाबा और अम्मी को इस निकाह के बारे में कोई भनक नहीं थी और हम दोनों ने भी इसे दुनिया से छिपाकर रखा. लेकिन दुनिया को कमतर समझने की गलती हम कर बैठे. कुछ ही दिनों में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में यह खबर फैल गई और फिर अलीगढ़ होते हुए मेरठ पहुंची और वहां से मेरे वालिद के घर. बाबा और अम्मी फिर कई सालों तक नाराज रहे और उस साल मेरा और परवीन का ईद पर घर जाना भी कुछ खास काम न आया.
शादी के कुछ हफ्तों पहले ही परवीन ने ऐलान कर दिया कि वो मां बनने वाली है. ऐसा कुछ होगा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था. 20 साल की उस उम्र में मेरे अंदर बच्चों को लेकर कोई प्यार नहीं था. असल में सिर्फ खुद से प्यार था. एक नई जिंदगी को संभालने के लिए मैं तैयार नहीं था और बाद में किया किसी भी तरह का पछतावा मेरे उस असंवेदनशील बर्ताव की खामियाजा नहीं भर सकता जो मैंने हीबा के पैदा होने पर दिखाया.
इसी दौरान मेरा दाखिला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हो गया और मैं शादी के बाद नौ महीने की गर्भवती परवीन को अलीगढ़ छोड़कर अकेला दिल्ली चला आया. मुझे एक नई आजादी मिली और इस तेज रफ्तार जिंदगी में मैं भूलने लगा कि मैं जल्द ही पिता बनने वाला हूं, जबकि न तो मैं आर्थिक रूप से मजबूत हूं और न ही मानसिक रूप से यह जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार.
शादी के कुछ हफ्तों पहले ही परवीन ने ऐलान कर दिया कि वो मां बनने वाली है. ऐसा कुछ होगा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था. 20 साल की उस उम्र में मेरे अंदर बच्चों को लेकर कोई प्यार नहीं था
वास्तविकता का थप्पड़ जल्द ही पड़ा जब हीबा का जन्म हुआ और मैंने उसे पहली बार देखा. मैं उसे छू नहीं पाया और जब वो सोकर उठी तो उसे हाथों में उठा भी नहीं पाया. मुझे बच्चे पसंद नहीं थे, क्योंकि वे शोर करते थे और गंदगी फैलाते थे. हीबा के पैदा होने पर मेरी तरफ से हटकर सबका ध्यान उसकी तरफ हो गया, परवीन का भी, और मैंने जिंदगी में पहली बार उस ईर्ष्या को भोगा जो सिर्फ आदमी के हिस्से में आती है. अपने बच्चे की वजह से उपेक्षित होने पर पैदा होने वाली ईर्ष्या.
हीबा के आने पर मैं और परवीन भी दूर होते गए. परवीन की जिंदगी अब हीबा थी और खुद में डूबे हुए मेरे जैसे इंसान की जिंदगी एक्टिंग. 21 साल की उम्र में मैं बतौर अभिनेता सिर्फ अपनी संतुष्टि तलाशने के प्रति आसक्त था और किसी भी तरह की जिम्मेदारी लेने से किनारा कर चुका था. बाप की तो बिलकुल भी नहीं. पहले हफ्ते दर हफ्ते अलीगढ़ जाना होता था जो धीरे-धीरे महीने में एक बार होता गया और रुकने का वक्त भी हर बार छोटा होता गया. फिर इतनी दूरियां बढ़ीं कि मैंने हीबा को अगले 12 साल तक नहीं देखा. मुझे नहीं पता कि मुझे किस तरह का आदमी समझा जाएगा अगर मैं कहूंगा कि मैं कई सालों तक हीबा के लिए कुछ भी महसूस नहीं कर पाया, लेकिन यह स्वीकार करना मेरे लिए जरूरी है. हीबा मेरी जिंदगी का कभी हिस्सा नहीं रही, जैसे कि वो मौजूद ही न हो.
बाद में परवीन और हीबा लंदन होते हुए ईरान बस गए और मैंने 12 साल बाद अपनी 14 साल की बेटी को तब देखा जब परवीन का फारसी में लिखा खत मिला. खत में लिखा था कि मेरी बेटी मुझसे मिलना चाहती है, अगर मैं इजाजत दूं तो. रत्ना पाठक और मैं तब तक शादी करके साथ रहने लगे थे और वो रत्ना ही थीं जिसने बाप-बेटी के इस टूट चुके रिश्ते को संभालने में मेरी मदद की. अब न सिर्फ हीबा हमारे साथ रहती है बल्कि एक सुलझी हुई अभिनेत्री होने के साथ हमारी थियेटर कंपनी मॉटली का भी अहम हिस्सा बन चुकी है. मुझे पता है कि मेरे दिए पुराने घावों के निशान पूरी तरह कभी नहीं मिटेंगे, लेकिन लगता है कि हीबा के पास इसकी शिकायतें कम हैं और इसका पूरा श्रेय रत्ना को जाता है.(satyagrah)
मंगल आयेगा तो हम फिर आदमी हो जायेंगे, हमारा फिर पड़ोस और मुहल्ला होगा और हम लोगों से मिलने से हिचकेंगे नहीं
-अशोक वाजपेयी
इन दिनों हम अक्सर मंगल कामना करते हैं क्योंकि हमें लगता है कि समूची पृथ्वी पर अमंगल की काली छाया मंडऱा रही है। हम जैसे लोग, जिन्हें आस्था का वरदान नहीं मिला है, सोचते हैं कि अनास्था से भी मंगल कामना की जा सकती है। ऐसी कामना आस्था या अनास्था का सत्यापन नहीं है। वह मंगल की वापसी के लिए समवेत आह्वान या प्रार्थना का हिस्सा है। हम भय से, सन्देह से, झूठ से, दुराचार और अन्याय से, झांसों और निराशा से घिर गये हैं। एक पूरी तिमाही बीत गयी है और हमें कोई राहत मिलती नजऱ नहीं आती। इस सारे घटाटोप के बीच यह तय है कि मंगल हमसे दूर भाग गया है। हम उसके वापस आने की अथक प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हम जानते हैं कि मंगल किसी दैवी आशीर्वाद की तरह नहीं आयेगा। वह किसी दिव्य रथ या वचन पर चढक़र भी नहीं आने वाला। वह ऐसी चकाचौंध करते हुए भी नहीं आयेगा जिसमें बाक़ी सारे आलोक बुझ जायें या फीके पड़ जायें। वह हमारी निपट साधारणता से, अदम्य मानवीयता से ही उभरेगा। वह आकाश से नहीं उतरेगा। वह हमारी, इन दिनों अकसर सूनी पड़ी गलियों और सडक़ों से, शायद कुछ लडख़ड़ाता हुआ आयेगा। वह जुलूस और भजन-कीर्तन के साथ या गाजे-बाजे का शोर करते हुए नहीं आयेगा। मंगल आयेगा हर घर पर एक सौम्य दस्तक, एक हलकी झलक, एक छाया की तरह। हो सकता है कि वह इतने धीरे से आये कि हमें पता ही न चले। वह आयेगा तो बहुत कुछ, जो हमसे दूर फिंक गया है, ‘इतने पास अपने’ आ जायेगा। हमारा फिर पड़ोस और मुहल्ला होगा। हम लोगों से मिलने, उनकी तकलीफ सुनने और कुशल-क्षेम पूछने, सौदा-सुलूफ लाने की अनाटकीय कार्रवाई करते हिचकेंगे नहीं। मंगल आयेगा तो हम फिर आदमी हो जायेंगे, यों आधे-अधूरे जैसे हमेशा से थे, पर आकांक्षा में पूरे।
मंगल को हम ही लायेंगे, अपनी जिजीविषा से, अपने साहस, अपनी कल्पना से। जब वह आयेगा तो हमें कोई द्वारचार या बन्दनवार नहीं करना-लगाना होगा। मंगल हमारे बीच ऐसे आयेगा जैसे अभी थोड़ी देर के लिए बाहर जाकर फिर वापस आ गया है।
पुरखों की परछी में-1
मैंने पहले भी यह लक्ष्य किया है कि कोरोना की वजह से हुई घरबन्दी ने हम सभी को अपने परिवारों में अधिक मिल-जुलकर रहने और सबको अधिक जानने का अवसर दिया है। मेरे बेटे कबीर और बहू प्रीति ने एक उपक्रम किया है। हर रविवार की शाम को हम लोग ‘जूम’ पर अपने भाई-बहनों और उनके बेटे-बेटियों के साथ एक संयुक्त संवाद करते हैं। हमारे माता-पिता को जिन्हें दिदिया-काका कहते थे, याद करते और उनसे हममें से हरेक ने क्या सीखा इस पर कुछ बताते हुए। एक सत्र इस पर भी कि युवा पीढ़ी के सदस्यों ने परिवार में किससे-क्या सीखा। एक और सत्र इस पर है कि हमने परिजनों के अलावा बाहर के किन से क्या सीखा।
यह स्पष्ट हुआ कि हम लगभग सभी यह मानते हैं कि हम अपने माता-पिता से कहीं कमतर हैं, भले हमारी भौतिक उपलब्धियां उनसे बेहतर रही हों। निजी और पारिवारिक जीवन में हम पूरे विनय के साथ इसका एहतराम करते हैं कि हमारे पुरखे हमसे बेहतर थे। हो सकता है कि इसमें कुछ आदर्शीकरण या रूमानीकरण हो जाता हो। पर ऐसा हम सहज भाव से करते हैं। साहित्य में पुरखों के साथ हमारा व्यवहार अकसर इससे ठीक उलट होता है। वहां हम अकसर ऐसी उद्धत हरकत करते हैं मानो हमें अपने पुरखों से कुछ खास मिला नहीं है। हम उनसे बेहतर, अधिक उन्मुक्त, अधिक निर्भीक, अधिक उत्तेजक कर पा रहे हैं ऐसी आत्मरति हमें घेरे रहती है। कई बार हम सीधे-सीधे ऐसा कहते तो नहीं हैं पर भाव ऐसा होता है कि पुरखों के संघर्ष और उपलब्धि दोनों को अतिरंजित किया जाता है।
परिवार में तो पुरखों की स्मृति, कुल मिलाकर, पिछली चार-पांच पीढिय़ों तक सीमित होती है और उससे पहले के पुरखों के हमें नाम तक पता नहीं होते। लेकिन, इसके उलट, साहित्य में तो हम अपने पुरखों की सूची बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक पीछे ले जा सकते हैं। अक्सर हम ऐसा अपनी वैधता की तलाश में करते भी हैं। कई बार किसी पुरखे पर हम नाटकीय ढंग से ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से आक्रमण भी करते हैं। उसके कुछ बने-बनाये विमर्श सहज उपलब्ध हैं - नारी-विरोध, दलित-विरोध, राज्याश्रय आदि। कम से कम जो युवा पीढ़ी आज बहुत सक्रिय और मुखर है उसे किसी पुरखे की न तो अपने कृतित्व में, न सार्वजनिक संवाद में कमी याद आती है। उसने अपने को पुरखों की तथाकथित गिरफ़्त से मुक्त कर लिया है। उसे अपने समवयसी ही याद आते हैं। पुरखे उसके न तो पैमाना हैं, न ऐसी उपस्थिति जिससे सर्जनात्मक और आलोचनात्मक स्तर पर संघर्ष करना ज़रूरी लगे।
पुरखों को भुलाना या सिर्फ़ कभी-कभार वैधता के लिए याद करना उस व्यापक स्मृतिवंचना का हिस्सा है जो हिन्दी समाज में तेज़ी से व्याप गयी है। हम निजी-पारिवारिक जीवन में पुरखों को याद करें और साहित्यिक जीवन में उन्हें भुला दें यह एक विडम्बना है। वैसे भुला देने से पुरखे इतिहास-परम्परा-दृश्य से ग़ायब नहीं हो जाते। यह भी कि उनका किया पैमाना तो बनता है और समय हमें उन पैमानों पर नापेगा ही। पैमाने बदलते हैं पर उनमें कुछ है जो टिकाऊ शाश्वत रहता है। हम इसका एहतराम भले न करें पर हम लिखते तो पुरखों की परछी में हैं।
पुरखों की परछी में-2
पुरखों से लगातार कुछ-न-कुछ सन्देश आते रहते हैं: उन पर ध्यान देने या उन्हें सुनने का हमारे पास धीरज, समय या जतन नहीं होता। फिर भी, कभी-कभार कुछ सन्देश पकड़ में आ जाते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
जैसे हम नश्वर थे, वैसे ही तुम भी नश्वर हो। लेकिन, अपनी नश्वरता से बिंधे रहकर भी, तुम कुछ अनश्वर रच सकते हो। जैसे हमारा, वैसे ही तुम्हारा, साहित्य में उत्तरजीवन हो सकता है।
हम तुम्हारी निगरानी नहीं करते पर तुम क्या करते हो हम पर हमारी नजऱ रहती है : इस पर भी हमारे से पहले के पुरखों की नजऱ रहती थी। यह मत भूलो कि तुम सिर्फ़ अपने समकालीनों और भविष्यवर्तियों के लिए नहीं हम जैसे पुरखों के लिए भी लिखते हो।
अगर तुम पुरखों की परछी में आ जाओ तो वहां जगह बन ही जाती है : तुम आओगे तो सीमित होते हुए भी परछी आंगन की तरह खुल-फैल सकती है। जैसे तुमको हमारे होने से फर्क़ पड़ता है, वैसे ही हमको तुम्हारे होने से फर्क़ पड़ता है।
हमको भी अपना समय बहुत असह्य और अभूतपूर्व लगता था: हमने धीरे-धीरे जाना-सीखा कि लिखने वालों के लिए हर समय ऐसा ही होता है।
अगर तुम हमारी कतार में आना-बैठना पसन्द न करो तो यह तुम्हारा निर्णय है। पर समय तुम्हें या तो इस क़तार में मिला देगा या हमेशा के लिए बाहर कर देगा। हमारे बहुत से साथ वाले इस क़तार में नहीं आ पाये।
तुम हमारी पुकार न भी सुनो या सुनकर भी उसका उत्तर न दो कोई हर्ज़ नहीं। पर जब या अगर तुम कभी हमें पुकारोगे तो हम ज़रूर उत्तर देंगे। पुकारना और उत्तर देना, बाद में आये के लिए जगह बनाना, हमारा स्वभाव है।
हम तुम्हारे संघर्ष और बेचैनी की, जोखिम और कल्पना की क़द्र करते हैं : इतना भर याद दिलाते हैं कि अपने समय में हम तुमसे कम संघर्षरत, बेचैन या निराश या आशान्वित नहीं थे। साहित्य बेचैनी, संघर्ष, जोखिम, आशा-निराशा और कल्पना की एक अटूट बिरादरी है।
मनुष्य, जीवन, अस्तित्व, सचाई, यथार्थ, कल्पना सभी लेखक के लिए रहस्य, जिज्ञासा और विस्मय का विषय रहे हैं। न हम अनहोने थे, न तुम अनहोने होगे।
हमसे अगर तुम कुछ उधार लो तो उसे हमें नहीं लौटाना होगा। वह तुम बाद वालों को लौटाओगे। ऐसे कर्ज होते हैं जिन्हें चुकाना नहीं होता।
हम कुछ दे नहीं सकते। लेकिन यह आशय नहीं कि तुम कुछ ले नहीं सकते।
हम आधे-अधूरे हैं और तुम मिल जाओ तब भी आधे-अधूरे ही रहेंगे। मनुष्यता कभी पूरी नहीं होती, वह असमाप्य है। (satyagrah.scroll.in)
पत्रकारिता के मौलिक सिद्धांतों का अंतिम संस्कार !
-रवीन्द्र वाजपेयी
वर्ष 2002 में जुलाई महीने की 28 तारीख थी। एक दिन पहले उस समय के उपराष्ट्रपति कृष्णकांत का निधन हो गया था। उनके दिल्ली स्थित आवास पर विशिष्ट जनों का आना-जाना लगा था। अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही थीं। अखबारी संवाददाताओं के अलावा टीवी चैनलों के रिपोर्टर आँखों देखा हाल देश और दुनिया तक पहुँचाने के लिए कैमरामैन के साथ जुटे थे। और वहां आती जा रही विशिष्ट हस्तियों द्वारा दिवंगत उपराष्ट्रपति के प्रति व्यक्त की जा रही श्रद्धांजलि को प्रसारित करते जा रहे थे। इसी दौरान एक चैनल के एंकर ने स्टूडियो से अपने रिपोर्टर को कहा जरा हमारे दर्शकों को ये भी दिखलाइये कि वहां का माहौल कैसा है? और रिपोर्टर ने भी कैमरा घुमा-घुमाकर उदास चेहरे दिखलाते हुए बताया कि सभी लोग गमगीन हैं।
बात आई-गई हो गई
लेकिन उसके बाद जनसत्ता नामक अखबार के प्रधान संपादक स्व. प्रभाष जोशी ने अपने साप्ताहिक स्तंभ कागद कारे में उक्त टीवी चैनल के एंकर की जबरदस्त खिंचाई करते हुए कटाक्ष किया कि जिस घर में किसी की लाश रखी हो और अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही हों वहां का माहौल कैसा होगा, ये भी क्या पूछने की चीज है? प्रभाषजी किसी भी विषय पर अपनी बात बहुत ही दबंगी से रखते थे । उस दौर में अखबार और टीवी समाचार चैनलों में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। ऐसे में प्रथम दृष्टया ये माना गया कि जोशी जी ने उस बहाने टीवी पत्रकारिता पर प्रहार किया जो कि व्यावसायिक प्रतिद्वन्दिता का हिस्सा कहा जा सकता था। लेकिन कालान्तर में ये बात खुलकर सामने आ गई कि टीवी पत्रकारिता के आने के बाद समाचारों के संकलन और प्रस्तुतीकरण में दायित्वबोध और सम्वेदनशीलता का अभाव होने लगा है। सबसे पहले और केवल हमारे चैनल या पत्र में जैसे दावों के बीच समाचार को भी बाजार की वस्तु बना दिया गया है।
ये कहना भी गलत नहीं होगा कि जिस तरह फिल्म निर्माता बॉक्स आफिस पर हिट होने के लिए फिल्म में अश्लीलता, हिंसा और सनसनी का सहारा लेते हैं, उसी तरह अब समाचार माध्यम विशेष रूप से टीवी समाचार चैनल भी समाचार के जरिये अपनी टीआरपी बढ़ाने का प्रयास करने लगे हैं। देखा-सीखी अखबार जगत के भी सरोकार बदलते जा रहे हैं।
गत दिवस इसका एक और उदाहरण सामने आया। हुआ यूं कि कानपुर के कुख्यात गुंडे विकास दुबे की एनकाउंटर में हुई मौत के बाद उसका अंतिम संस्कार हो रहा था। श्मसान भूमि में विकास की पत्नी भी मौजूद थी। पत्रकारगण भी वहां फोटोग्राफरों के साथ जा पहुंचे। विकास दुबे के मारे जाने के बाद उसका क्रियाकर्म विशुद्ध पारिवारिक विधि थी। यदि वह कोई विशिष्ट व्यक्ति होता जिसकी अंत्येष्ठि राजकीय सम्मान के साथ हो रही होती तब वह समाचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। लेकिन न जाने किस उद्देश्य से समाचार जगत के लोग श्मसान भूमि में अंतिम संस्कार वाली जगह पर झुण्ड बनाकर खड़े हो गए। जब विकास की पत्नी ने उनसे जाने के लिए कहा तब उसे सामने आकर अपनी शिकायत बताने जैसी बातें कही गईं, जिस पर वह बिफर उठी और उसके बाद उसने तेज आवाज में जमकर खरी-खोटी सुनाई जिसमें अनेक ऐसी बातें हैं जिनका उल्लेख शोभा नहीं देता। वैसे विभिन्न चैनलों पर उसके वीडियो मौजूद हैं।
मुझे लगता है उस महिला ने जो कहा, उस हालात में कोई दूसरा भी होता तो समाचार संकलन करने गए लोगों को हो सकता है उससे भी तीखी जुबान में झिडक़ता।
विकास दुबे को लेकर बीते दिनों जो भी घटनाक्रम घटित हुआ उसकी वजह से उप्र की योगी सरकार, राज्य की पुलिस-प्रशासन और राजनीतिक बिरादरी तो सवालों के घेरे में है ही लेकिन अनायास समाचार माध्यम भी आलोचनाओं का शिकार हो गए जिनके प्रतिनिधि अति उत्साह में श्मसान पत्रकारिता करने जा पहुंचे और बेइज्जत होकर लौटे। विकास की पत्नी से बातचीत कतई गलत नहीं थी। परन्तु उसके लिए क्या इन्तेजार नहीं किया जाना चाहिए था? ज्यादा न सही कम से कम उसके घर लौटने तक तो रुका ही जा सकता था ।
गत वर्ष एक प्रसिद्ध टीवी चैनल की तेज तर्रार एंकर अपनी टीम लेकर पटना के एक बड़े सरकारी अस्पताल के आईसीयू वार्ड में घुसकर वहां व्याप्त अव्यवस्था को लाइव दिखाते हुए एक चिकित्सा कर्मी से उलझ गईं । उसने कहा भी कि कृपया डाक्टर से बात करें लेकिन रिपोर्टर ने रौब झाडऩा जारी रखा। उल्लेखनीय है उस समय चमकी बुखार नामक संक्रामक बीमारी के कारण सैकड़ों मरीज वहां भर्ती थे। और बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था। बाद में उक्त रिपोर्टर की बिना अनुमति आईसीयू वार्ड में कैमरामैन सहित घुसने के लिए काफी आलोचना हुई।
लेकिन संभवत: भारतीय पत्रकारिता में ये पहला उदाहरण होगा जब श्मसान भूमि में अपने पति की लाश के बगल में खड़ी उसकी पत्नी से अपेक्षा की जा रही थी कि वह संवाददाताओं से मुखातिब होकर कैमरों के समक्ष पति की एनकाउंटर में हुई मौत के बारे में बतियाए। उसने गुस्से में उन सबको वहां से जाने के लिए कहा भी किन्तु उसके बाद भी कोई टस से मस नहीं हुआ।
पत्रकारिता के अपने अनुभव और वरिष्ठों से मिले ज्ञान के आधार पर मुझे लगता है कि पत्रकारिता के भीतर घुस आई जबरिया मानसिकता का भी एनकाउंटर किया जाना जरूरी है। पैपराजी कहलाने वाली फोटोग्राफरों की एक प्रजाति पूरी दुनिया में है। इनका काम विशिष्ट हस्तियों के निजी जीवन में ताक-झाँक करना होता है। टेनिस खिलाड़ी स्टेफी ग्राफ अपने बहुमंजिला निवास की छत पर बने स्वीमिंग पूल के किनारे कम कपड़ों में धूप ले रही थी। पैपराजी समूह ने हेलीकाप्टर किराये पर लेकर उनके चित्र खींचकर महंगे दाम में बेचे। कहा जाता है ब्रिटेन के युवराज चाल्र्स की पहली पत्नी डायना अपने पुरुष मित्र के साथ कार में जा रही थीं। पैपराजी उसके पीछे अपनी कार दौड़ा रहे थे क्योंकि वह फोटो उनके लिए लिए सोने का अंडा होती। उनसे बचने की लिए डायना के ड्रायवर ने कार की गति बढ़ाई। नतीजा कार दुर्घटना और डायना के मित्र सहित मारे जाने के रूप में सामने आया।
आज भारत में भी पैपराजी संस्कृति की पत्रकारिता ने पदार्पण कर लिया है। जिसमें किसी की भी निजता में अतिक्रमण करना अपना अधिकार मान लिया जाता है।
समय के साथ वाकई बहुत कुछ बदलता है। मर्यादाएं भी नए सिरे से परिभाषित होती हैं। लेकिन पत्रकारिता के जो मौलिक सिद्धांत हैं उनको यदि तिलांजलि दे दी गई तब वह अपनी उपयोगिता और सार्थकता दोनों खो बैठेगी। उसकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता तो पहले से ही सवालों के घेरे में आ चुकी हैं। ऐसे में विकास दुबे के अंत्येष्ठि स्थल पर जाकर उसकी पत्नी से बात करने की कोशिश में जो फजीहत हुई वह रोजमर्रे की बात बनते देर नहीं लगेगी।
बेहतर हो पत्रकारिता आत्मावलोकन करे कि खुद को पेशेवर साबित करने के लिए किसी के शोक का व्यवसायीकरण करना कहाँ तक उचित है?
अज्ञेय के ‘दिनमान‘ से जाने के समय उसमें तीन समकालीन-समवयस्क कवि काम कर रहे थे। रघुवीर सहाय संपादक, श्रीकांत वर्मा विशेष संवाददाता और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उपमुख्य संपादक। इससे पहले और बाद में भी किसी और पत्र-पत्रिका में ऐसा दुर्लभ संयोग रहा हो। उस समय तीनों की कवि के रूप में अपनी महत्वपूर्ण जगह और ख्याति थी। तीनों एकदूसरे को बरसों से जानते थे और तीनों के अपने-अपने अहम थे। शायद रघुवीर सहाय में सबसे कम।
कभी इलाहाबाद की वाम विरोधी लेखकों की संमूह ‘परिमल‘ में सक्रिय सर्वेश्वरजी अस्सी के दशक तक अतिवामपंथी तेवर में आ चुके थे। युवा वामपंथी कवियों में वह खासे लोकप्रिय थे। उनकी कविताओँ के अलावा उनके ‘बकरी’ नाटक ने भी तब अभूतपूर्व प्रसिद्धि पाई थी, हालांकि साहित्यकारों-आलोचकों के एक वर्ग उन्हें अधिक तवज्जो नहीं देता था,जो बाकी दोनों कवियों को देता था।
रघुवीर सहाय ‘सीढ़ियों पर धूप में ‘ और उसके बाद अपने पहले स्वतंत्र कविता संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध‘ के कारण चर्चा में थे।डा.नामवर सिंह की सबसे चर्चित पुस्तक ‘कविता के नये प्रतिमान‘ के केंद्र में जो कवि थे,उनमें रघुवीर सहाय का स्थान काफी ऊपर था। श्रीकांत वर्मा ने इस बीच अपने कविता संग्रह ‘माया दर्पण‘ के कारण अपनी एक जगह बनाई थी। वह कांग्रेस के नजदीक भी आ रहे थे। बाद में वह राज्यसभा सदस्य बने।
तीनों ‘दिनमान’ में रहकर भी एकदूसरे से एक हद तक असहज थे,हालांकि सर्वेश्वर जी और सहाय जी कामकाजी संबंध बेहतर थे। श्रीकांत वर्मा और रघुवीर सहाय में असहजता का भाव दफ्तर के भीतर-बाहर प्रकट था।वह किसी से छुपा नहीं था।
रघुवीर जी के संपादक बनने के बाद श्रीकांत जी कुछ देर के लिए कार्यालय आते। अज्ञेय जी के संपादक रहते उपसंपादक रहने तक उन्होंने ‘दिनमान‘ में कला की कवरेज का दायित्व बखूबी निभाया। उनके विशेष संवाददाता बनने पर यह जिम्मेदारी प्रयाग शुक्ल पर आ गई। अब श्रीकांत जी कुछ देर के लिए दफ्तर आते,प्रायः अपने कनिष्ठ कवि- सहयोगियों प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज से साहित्य-कला पर कुछ चर्चा करते और चले जाते। वैसे भी ‘दिनमान‘ में संपादकीयकर्मियों के लिए समय का कोई कड़ा बंधन नहीं था। वैसे भी विशेष संवाददाता की खूबी रोज समय पर आकर देर तक दफ्तर में रहना नहीं, ‘फील्ड‘ में रहना मानी जाती है। श्रीकांतजी सप्ताह में एक खास दिन राजनीतिक रिपोर्ट लिखवाते।विषय के निर्धारण की प्रक्रिया उनकी यह थी कि वह इसके लिए संपादक के पास एक पर्ची भेजकर दो- तीन विषय सुझाते। उनमें से जिस पर संपादक निशान लगा देते, उस पर पत्रकारिता की भाषा में जिसे स्टोरी कहा जाता है,उसकी डिक्टेशन दे देते। उस दिन वह अपने साथ संबंधित अखबारों की कुछ कतरनें भी लाते,ताकि कुछ बुनियादी तथ्यों में चूक न रहे। अपने अन्य सहयोगियों की तरह ही संपादक उनकी स्टोरी को भी यथावत छापते। श्रीकांत जी को शायद ही कभी शिकायत रही हो कि उनके लिखे के साथ संपादक ने ‘छेड़छाड़‘ की।
यह कहना कठिन है दोनों के संबंधों में खटास कैसे, कब और क्यों आई। प्रयाग शुक्ल को याद है कि शुरू के दिनों में इनमें से कोई एक विदेश यात्रा पर जा रहा था तो इस उपलक्ष्य में इसके जश्न में इन्होंने उन्हें भी शामिल किया। समाजवादी नेता रामनोहर लोहिया से दिल्ली में पहली बार रघुवीर जी को मिलवाने का श्रेय श्रीकांत जी लेते थे, हालांकि रघुवीर जी के एक लेख बताता है कि लोहिया जी से उनकी पहली मुलाकात 1967 में हुई थी। वैसे आरंभ में श्रीकांत वर्मा भी डॉ. लोहिया से प्रभावित थे।
श्रीकांत वर्मा ने शायद पहली बार रघुवीर सहाय की कविता का उल्लेख हरिशंकर परसाई द्वारा संपादित ‘वसुधा‘ पत्रिका के अक्टूबर, 1957 में किया था,ऐसा उनकी रचनावली से पता चलता है। रघुवीरजी की ताजा प्रकाशित कविता ‘एकांतवासी ‘ का उन्होंने अपने स्तंभ ‘ कलम की दिशा ‘ में नोटिस लेते हुए लिखा थाः ‘ निश्चय ही कवि(रघुवीर सहाय) ने इस अकेलेपन का अनुभव तीव्रता से किया होगा किंतु यह उस प्रखरता से व्यक्त नहीं हुआ है। यही कारण है कि कविता बहुत कुछ एकांत का घोषणापत्र बन गई है।‘ लेकिन यह एक कवि का अपने एक समकालीन की एक कविता के बारे में तटस्थ विश्लेषण है जिसमें कहीं कोई व्यक्तिगत कलुष नजर नहीं आता। इसके करीब चार महीने बाद डॉ. नामवर सिंह को लिखे एक पत्र (12 फरवरी,1958) में वह रघुवीर सहाय के ‘कल्पना‘ छोड़कर दिल्ली फिर से आ जाने की सूचना देते हैं मगर यह संयोग नहीं हो सकता कि न तो ‘श्रीकांत वर्मा रचनावली‘ में (इसके अलावा) और न ‘रघुवीर सहाय रचनावली‘ में एक दूसरे के प्रति कुछ सकारात्मक मिलता हो,नकारात्मक जरूर है। लिखित रूप में 1972 से ये कटुताएँ साफ नजर आती हैं। ‘श्रीकांत वर्मा रचनावली‘ में ऐसे डायरी अंश और पत्र हैं, जिनमें रघुवीर सहाय के प्रति व्यंग्यात्मकता और कटुता है। ‘रघुवीर सहाय रचनावली‘ में प्रकाशित 1989 के आसपास लिये गये एक साक्षात्कार में रघुवीरजी ‘दिनमान‘ के प्रसंग में श्रीकांत वर्मा के प्रति कटु नजर आते हैं।यह उस कटुता का प्रमाण है या नहीं, यह कहना मुश्किल है मगर रघुवीर सहाय ने अपने समय के कई साहित्यकारों के निधन के बाद उन्हें याद करते हुए उन पर लिखा है,जिनमें उनके सहयोगी कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तो हैं लेकिन श्रीकांत वर्मा की मृत्यु 1986 में होने पर भी वह मौन रहे,कहीं कुछ लिखा नहीं।संभव है किसी ने कहा न हो।
अरविंद त्रिपाठी द्वारा लिये गए एक साक्षात्कार में श्रीकांत वर्मा से अपने दौर के महत्वपूर्ण समकालीन कवियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाम लिया मगर रघुवीर सहाय का नहीं। 6 फरवरी 1972 को जर्मनी के हिंदी विद्वान लोठार लुत्से के दिल्ली के आयोजित एक भाषण का उल्लेख अपनी डायरी में करते हुए श्रीकांत वर्मा लिखते हैं- ‘रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर वहाँ अधिक आग्रह के साथ मौजूद थे। इनकी भावभंगिमा और व्यवहार से लग रहा था कि ये अपने लिए विशेष बर्ताव की माँग कर रहे हैं-ठीक अज्ञेय की तरह। अंतर केवल इतना है कि अज्ञेय अपने लिए विशेष बर्ताव की ‘व्यवस्था‘ कर लेते हैं,ये दोनों नहीं कर पाते। लगता है इन दोनों की सबसे बड़ी आकांक्षा अज्ञेय का प्रामाणिक संस्करण होने की थी।‘ इसके करीब छह माह बाद 18 अगस्त,1972 को अशोक वाजपेयी को लिखे एक पत्र में श्रीकांत वर्मा कहते हैं कि ‘पहचान सीरिज‘ (एक) की समीक्षा ‘धर्मयुग‘ में हो रही है और वह ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान‘ और ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में भी करवायेंगे मगर जहाँ तक ‘दिनमान‘ का प्रश्न है, वहाँ व्यक्तिगत मित्रता और शत्रुता ईमानदारी से निबाही जाती है(पहचान-1 इसमें श्रीकांत वर्मा द्वारा किया गया मायकोवस्की की कविता का अनुवाद भी प्रकाशित है) इसको लेकर पहले ही उनसे गरमागरमी हो चुकी है और कुछ अन्य साहित्यिक और राजनीतिक सवालों को लेकर मेरे और उनके बीच तनाव है। वह मुझे हरा तो नहीं सकते हैं मगर दिमागी परेशानियों में डालने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। खैर ‘ दिनमान‘ अपनी प्रतिष्ठा खो चुका है-साहित्यिक और राजनीतिक दोनों जगह-इसलिए पहचान की समीक्षा वहाँ निकले या न निकले, क्या फर्क पड़ता है?‘ इसके करीब तीन साल बाद 15 अप्रैल, 1975 को अशोक वाजपेयी को लिखे एक और पत्र में वह मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा प्रकाशित ‘पूर्वग्रह‘ पत्रिका के बारे में व्यंग्यकार शरद जोशी द्वारा ‘ धर्मयुग‘ में छेड़े गए विवाद कॆ प्रसंग में रघुवीरजी के संदर्भ में लिखते हैं- ‘चाहे ‘धर्मयुग‘ या ‘दिनमान‘ या कोई बड़ा पत्र, सभी कला परिषद की लोकप्रियता और ‘पूर्वग्रह‘ की कामयाबी से अपनी सत्ता को चुनौती का अनुभव करते हैं, इसलिए इनसे बहुत उम्मीद करना व्यर्थ है।‘ इसके नौ दिन बाद श्रीकांतजी फिर से अशोक वाजपेयी को पत्र में लिखते हैः ‘ दिनमान‘ ने अब ‘धर्मयुग‘ जैसा रवैया अपना लिय़ा है। आरंभ में जब तुम्हारे विरुद्ध पत्र आए, तब रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर उन्हें छापने को बहुत उत्सुक थे। बाद में समर्थन में कई पत्र आए, वे अब नहीं छाप रहे। ‘ वह यहाँ ही नहीं रुकतेः ‘ रघुवीर सहाय दस लोगों से दस तरह की बातें कह रहे हैं। मैंने जब उन्हें वक्तव्य दिया तो उन्होंने उस पर हस्ताक्षर कर दिये। अब वह कहते फिर रहे हैं कि मैं वक्तव्य से सहमत नहीं।‘ अशोक वाजपेयी स्पष्ट करते हैं कि श्रीकांतजी को रघुवीरजी से बहुत शिकायतें थीं मगर ‘दिनमान‘ में ‘पहचान‘ की कवरेज होने न होने से उनके प्रति सम्मान में कमी नहीं आई। उन पर पूर्वग्रह का एक विशेषांक निकला, वह विश्व कविता समारोह में भारत से बुलाये गए कुल छह कवियों में से एक और हिंदी से अकेले थे। और भी कई आयोजनों में वह आते रहे। वैसे जब ये दोनों कवि ‘दिनमान‘ में नहीं रहे तो संभवतः 1983 में भोपाल के एक आयोजन में दोनों ब्लड प्रेशर की कौनसी दवाई कितनी अच्छी है,इस पर बात कर रहे थे।जब बहुत देर तक यही बातें चलती रहीं तो अशोक वाजपेयी ने उन्हें टोका कि आप बहुत देर से यह क्या बात कर रहे हैं, आपकी बात सुनकर तो कोई अच्छा -भला आदमी भी बीमार हो जाए।
केंद्र में जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद श्रीकांत वर्मा को सांसद होने के बावजूद राजनीतिक दबाव में ‘दिनमान‘ से 31मई, 1977 को त्यागपत्र देना पड़ा था। उसके पीछे मैनेजमेंट पर राजनीतिक दबाव की बात को स्वीकार की मगर श्रीकांत जी इस प्रकरण में संस्थान के दोनों संपादकों- रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती के साथ ही टाइम्स समूह के ‘ कुछ हिंदी लेखकों ’ की भूमिका पर भी संदेह जाहिर करते हैं। वह दावे से कहते हैं- ‘ इमर्जेंसी के दौरान मैंने इन लोगों की मदद की थी, सरकारी व्यवस्था के खूनी पंजों से इन्हें बचाया था।‘ उन्हें हटाये जाने पर उनका संदेह वात्स्यायनजी तक जाता है, जिनकी उसी दौरान ‘ नवभारत टाइम्स ‘ का प्रमुख संपादक बनाने की चर्चा सार्वजनिक हो चुकी थी।
खैर श्रीकांत वर्मा की इन बातों की प्रामाणिकता पर चर्चा न करें, जो हमारा विषय नहीं है,फिर भी उनकी इस बात से तो शायद ही कोई सहमत हो कि 1975 में ‘दिनमान‘ ने अपनी ‘साहित्यिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा‘ खो दी थी। उधर रघुवीर सहाय भी एक साक्षात्कार में अपनी कटुता नहीं छिपाते और चूँकि वह खुद ‘ दिनमान ‘में बाद में आए थे, इसलिए तथ्यों के बारे में कुछ गड़बड़ कर जाते हैं। जैसे उनका यह कथन दुरुस्त नहीं है कि 1964 की शुरुआत से थोड़ा पहले श्रीकांत वर्मा के ‘ दिनमान ‘में शामिल होते समय वात्स्यायनजी उन्हें ‘ उपसंपादक या ऐसा ही कुछ रखना चाहते थे मगर श्रीकांत वर्मा का आग्रह बड़े पद के लिए था,इसलिए शुरु में ही रमाजी(बैनेट कोलमैन कंपनी के स्वामी साहू शांतिप्रसाद जैन की पत्नी, जो आधुनिक साहित्य में दिलचस्पी रखने के कारण समकालीन साहित्यकारों को नजदीकी से जानती थीं।) के कहने पर वात्स्यायनजी उन्हें विशेष संवाददाता के पद पर रखने को राजी हो गए।‘ तथ्य यह है कि श्रीकांत जी ने उपसंपादक के रूप में ‘दिनमान‘ में काम आरंभ किया था, उनकी पदोन्नति बाद में हुई। रघुवीर जी यह भी मानते हैं कि विशेष संवाददाता बनने के पीछे श्रीकांत वर्मा के ‘ बुनियादी मतलब‘ थे। ‘वह शुरू से ही एक कांग्रेस एम पी(मिनी माता) के साथ लगे हुए थे और उसकी बदौलत वह पार्लियामेंट के दफ्तरों में आया- जाया करते थे।.. पर वे प्रेस प्रतिनिधि नहीं थे।‘एक सवाल के जवाब में वह यह भी कहते हैं कि ‘ श्रीकांत वर्मा जर्नलिज्म के नाम पर पोलिटिक्स करना चाहते थे।‘
रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के मन में एकदूसरे के प्रति कटुता का एक प्रसंग विनोद भारद्वाज भी बताते हैः रघुवीरजी के बहुत बीमार होने पर श्रीकांत वर्मा उनका हालचाल जानने के लिए उन्हें भी साथ ले गए। रघुवीर जी के घऱ जाने से पहले रास्ते में श्रीकांतजी ने अशोका होटल में व्हिस्की के दो पैग लिए, फिर आरके पुरम नर्वस हालत में पहुँचे। चूँकि विनोद भारद्वाज वहीं पास में रहते थे, इसलिए श्रीकांत वर्मा के जाने के बाद भी वह रघुवीरजी के पास रुके रहे। तब रघुवीरजी बोलेः ‘ जिसकी वजह से मैं बीमार पड़ा हूँ, वही हालचाल पूछने आ गया।‘ कुँवर नारायण से वैसे मजाक में ही रघुवीरजी ने कहा था कि दोनों(श्रीकांत जी और सर्वेश्वर जी) उनका ब्लड प्रेशर बढ़ाते रहते हैं।)। अगर विश्वास करना चाहें कि श्रीकांत वर्मा के मन में आपातकाल के दौरान रघुवीरजी के प्रति कितनी कटुता और विद्वेष था, इसका कुछ जिक्र ‘दिनमान ‘ में वर्षों तक दिनमान के गैरसंपादकीय सहयोगी रहे तथा ‘ आडवाणी के साथ 32 साल ‘ के लेखक विश्वंभर श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक में श्रीकांत वर्मा को 18 जून, 1977 को लिखे एक पत्र का उल्लेख किया है।लेखक का दावा है कि आपातकाल के दौरान उन्हें जेल जाने से बचाने का दावा राज्यसभा में एक प्रसंग में श्री वर्मा ने किया,तो इसका खंडन करते हुए श्री श्रीवास्तव ने उन्हें यह पत्र लिखा था। उन्होंने कहा था कि आपने कम से कम तीन बार मुझसे उस दौरान कहा था कि मैं प्रधानमंत्री(इंदिरा गाँधी) को) को पत्र लिखूँ कि मैंने तो ‘दिनमान ‘ के संपादक रघुवीर सहाय की ‘प्रेरणा’ से जनसंघ अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के निजी सहायक का दायित्व स्वीकार किया था लेकिन मैंने आपकी राय स्वीकार नहीं की और न ही आपने मुझे जेल जाने से बचाया।‘
मंगलेश डबराल कहते हैं कि स्थिति यह थी कि ‘ दिनमान‘ के उन दिनों में लोग इन तीनों कवियों के बारे में एक मजाक चलता था कि ये तीनों बड़े कवि एकदूसरे की बीमारी का कारण हैं। मजाक छोड़ें मगर यह संयोग है कि ये तीनों इस दुनिया से समय काफी पहले चले गए। 1986 में श्रीकांत वर्मा मात्र 53 वर्ष की उम्र में, 1983 में सर्वेश्वर जी केवल 56 वें वर्ष में और 1990 में रघुवीर सहाय 61 वर्ष की उम्र में।
रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा दोनों के करीब रहे प्रयाग शुक्ल, श्रीकांत जी की इस बात से सहमत नहीं कि आपातकाल में उन्होंने रघुवीर सहाय समेत तमाम लोगों को ‘ सरकारी व्यवस्था के खूनी पंजों ‘ से बचाया था। प्रयागजी ने बताया कि खुद उनका एक बार श्रीकांत जी से इस पर विवाद हुआ था। फिर वह ऐसा दावा क्यों करते थे? क्या यह उनका कोई अपराध बोध था या अपने को जनता सरकार के संभावित कोप से बचाने की रणनीति या कोई ग्रंथि? प्रयागजी समेत ‘दिनमान‘ के अन्य सहयोगी भी नहीं मानते कि जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद श्रीकांतजी को ‘ दिनमान ‘ से हटाने में रघुवीर सहाय की कोई भूमिका हो सकती है। रघुवीर जी के सहयोगियों का अनुभव रहा है कि उन्होंने कभी अपने कितने भी बड़े विरोधी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया। यह अलग बात है कि श्रीकांत जी के मन में स्वभावगत आशंकाएँ रहा करती हों।
(रघुवीर सहाय की जीवनी- ' असहमति में उठा एक हाथ ' का एक अंश),राजकमल प्रकाशन।
(फेसबुक पर विष्णु नागर ने पोस्ट किया है)
-दिनेश श्रीनेत
साल था 1997 और मेरी उम्र थी करीब 25 वर्ष। मैं इलाहाबाद में था। नौकरी की तलाश थी। अखबारों में काम खोज रहा था। उन दिनों इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन की साप्ताहिक पत्रिका 'गंगा यमुना' निकलती थी। चर्चित कथाकार रवींद्र कालिया उसके संपादक थे। वही मेरे पहले संपादक भी थे। मुझे हर हफ्ते उस टेब्लॉयड साप्ताहिक के लिए खास खबर लिखनी होती थी। इसके बदले 175 रूपये मिलते थे। उन्हीं दिनों उपेंद्रनाथ अश्क की स्मृति में पहले अश्क सम्मान का आयोजन हुआ था। इसमें कृष्णा सोबती, अली सरदार जाफरी, उदय प्रकाश, वीरेन डंगवाल, अनामिका, कात्यायनी, पंकज विष्ट और खालिद जावेद जैसे साहित्यकारों ने शिरकत की थी। मेरा मन था कि मैं उदय प्रकाश का इंटरव्यू करूं। कालिया जी से पूछा तो उन्होंने तुरंत 'हां' कर दिया। वैसे भी बतौर संपादक वे कभी किसी बात के लिए ना नहीं करते थे। उस वक्त तक उदय प्रकाश की कहानियों की दो किताबें 'दरियाई घोड़ा' और 'तिरिछ' आ चुकी थीं। मैंने ग्रेजुएशन के दौरान ही 'तिरिछ' पढ़ा था और बहुत प्रभावित था। जब सत्र समाप्त होने पर मैंने उनसे बातचीत करनी चाही तो उन्होंने भी 'हां' कर दिया। जनवरी के दिन थे और बहुत अच्छी धूप खिली थी। हम हिन्दुस्तानी अकादमी के बाहर बागीचे में बैठकर बातचीत करते रहे। उदयजी बहुत खुश थे और बातचीत बहुत अच्छी रही। यह मेरे जीवन का सबसे पहला इंटरव्यू था। आज दो दशक पुरानी इस बातचीत को दोबारा पढऩा खासा दिलचस्प है। अतीत और वर्तमान की बहुत सी चिंताओं में साम्यता दिखती है हालांकि भविष्य के बारे में बहुत सी उम्मीदें समय की कसौटी पर सही नहीं साबित हुईं।
प्रश्न: आपने अपने लेखकीय संस्कार कैसे ग्रहण किए? किन रचनाओं व लेखकों ने आपको प्रभावित किया?
उदय प्रकाश: बचपन से ही अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण और विशेष रूप से अपने पिता जी के कारण रचनात्मक स्तर पर सबसे पहले मैंने चित्र बनाए फिर कैमरा और अंत में कविता। कहानी मैंने कभी नहीं लिखी। पढऩे की आदत शुरू से थी। जिन पुस्तकों को मैंने पढ़ा उनमें उपनिषद, महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथ भी थे। दूसरी तरफ आधुनिक लेखकों की रचनाएं थीं- जिनमें दोस्तोएवस्की, तोलस्तोय, श्रीलाल शुक्ल और धर्मवीर भारती से लेकर वे रचनाकार भी शामिल थे जो उन दिनों कल्पना, ज्ञानोदय जैसी पत्रिकाओं में छपते थे।
इसी दौर में मैंने सार्त्र की किताब 'एक्जिस्टेंशियलिज्म' का अनुवाद अपनी अधकचरी अंग्रेजी की समझ के साथ गांव में रहते हुए किया था। इसी दौरान मैंने मोपांसा को भी पढ़ा व अनुवाद किया। 1968 में जब मैं 16 वर्ष का था, मैं माक्र्सवादी साहित्य के संपर्क में आया और एआइएसएफ का सक्रिय सदस्य बना। बाद में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य बना। 1982 के बाद मैंने सभी राजनीतिक संगठनों से संबंध लगभग समाप्त कर लिए। लेकिन वह साहित्य जो किसी भी देश के समाज और उसकी साधारण जनता के जीवन संघर्षों और उसके अनुभवों को व्यक्त करता है वह आज भी मुझे एक नई राह देता है। माक्र्सवादी विचारधारा के सैद्धांतिक पक्षों की बजाय मुझे इन देशों का रचनात्मक साहित्य अपने लिए ज्यादा उपयुक्त लगता है। जैसे इन दिनों मैं एक सर्बियन कवि-उपन्यासकार मिलोराद पाविच से बहुत प्रभावित हूँ।
प्रश्न: आपकी कहानियों की संरचना जटिल व बहुस्तरीय है- यहां यथार्थ को बहुआयामी रूप में चित्रित करने का प्रयास किया जाता है- एक ही घटना या चरित्र को अनेक दृष्टिकोणों से देखा जाता है। क्या फार्म के स्तर पर अब तक विकसित शिल्प जिसका चरम निर्मल वर्मा में दिखता है- जहां शब्द उस पार के संसार को संप्रेषित करते हैं- बदलते हुए यथार्थ को संप्रेषित करने में समर्थ नही हैं?
उदय प्रकाश: निर्मल वर्मा मेरे बहुत प्रिय कथाकार हैं। भाषा, संरचना और रुप के स्तर वे नई कहानी के दौर के सबसे उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण कथाकार हैं। लेकिन उनकी कहानियां जिन अनुभवों और जिस जीवन को व्यक्त करती हैं वो मेरा अनुभव नहीं है। चेखोव से लेकर तीसरी दुनिया के लैटिन अमेरिकी देशों के महान कथाकारों व उपन्यासकारों ने जिस जटिल सामाजिक यथार्थ का वर्णन अपनी कहानियों व उपन्यासों में किया है- उनकी तुलना में मेरी रचनाओं का यथार्थ कम संश्ष्टि है।
मैं लगातार कोशिश करता हूँ पूरी ईमानदारी के साथ कि मेरी हर कहानी किसी प्रचलित कथारूढि़ का शिकार न होकर आज के किसी नए सामाजिक अंतर्विरोध और यथार्थ के नए पक्ष को सामने लाए। स्पष्ट है कि ऐसी कहानी से हिंदी के साधारण तथा अभ्यस्त हो चुके पाठकों की रूचि और सोच पर एक चोट पड़ती है। नतीजे में मेरी रचना प्रारंभ में कुछ समय तक विवादों और चर्चाओं का केंद्र बनती है। लेकिन धीरे-धीरे लोग उस रचना में अंतर्निहित गंभीर आशयों को और समकालीन मनुष्य के एक नए अप्रत्याशित गहरे सामाजिक या सांस्कृतिक संकट को समझ जाते हैं और उनकी दृष्टि रचना के प्रति बदल जाती है। यह मेरा आज तक का अनुभव रहा है।
प्रश्न: आपकी रचनाओं में दो संसार हैं- 'पाल गोमरा' का महानगरीय यथार्थ तथा 'द्द्दू तिवारी: गणनाधिकारी' का कसबा। 'पाल गोमरा' कहानी पढऩे के बाद गहरी निराशा पैदा करती है। वह जिन समसामायिक घटनाओं को पैरोडी में बदलकर 'ब्लैक ह्यूमर' प्रस्तुत करती है- वह स्थितियां भी। क्या यह सुनियोजित सा नहीं है? 'पाल गोमरा' का महानगरीय यथार्थ क्या इतना आतंककारी है कि इसे एक युग सत्य के रूप में स्वीकार किया जाए? अथवा भारतीय जीवन के यथार्थ को इसी रूप में परखा जाए? अपेक्षाकृत कम चर्चित कहानी 'दद्दू तिवारी...' इस यथार्थ को अधिक सूक्ष्म स्तर पर व्यक्त नहीं करती? आप एक अवधारणा के स्तर पर भारतीय जीवन के यथार्थ को किस रूप में महसूस करते हैं? जबकि आपके रचना संसार में वह ढहते हुए सामंतवाद, पूंजीवाद, जकडऩ व बाजार तक फैला है।
उदय प्रकाश: भारतीय यथार्थ किसी भी अन्य पश्चिमी अथवा एशियाई देश की तुलना में- आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक ही नहीं पर्यावरण, भाषा, खाना-पान हर स्तर पर बहुविध, बहुलतवादी, अनेकात्मक यथार्थ है। यहां महानगर भी है। शहर, कसबे, गांव और कबीलाई आदम बस्तियां भी।
बस्तर के या मयूरभंज के आदिवासी गांव उत्तर प्रदेश के गांव से बहुत भिन्न हैं। इसी तरह भी महानगर भी एक जैसे सपाट नहीं हैं- दिल्ली कलकत्ता से भिन्न है, उसी तरह जैसे बंगलूर बनारस से। यह हर कोई जानता है कि भारत में सभ्यता की तमाम अवस्थाएं आज भी मौजूद हैं। ऐसे भी जनसमूह जहां अभी व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा ही नहीं पैदा हुई। ऐसे क्षेत्र हैं जहां कृषि का भी आगमन नहीं हुआ। ऐसे गांव हैं जहां प्रेमचंद के उपन्यासों का सामंती और महाजनी यथार्थ है और ऐसे भी गांव हैं जहां नए जन-आंदोलन हो रहे हैं। लेकिन बहुत बड़े हिस्से में जहां हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, पीली क्रांति हो चुकी है वहां ऐसा भी समृद्ध किसान वर्ग है जो अमेरिकी या स्वीडेन के किसानों की संपन्नता से होड़ लेता है।
हमारे महानगरों में आने वाली अधिकांश जनसंख्या इन्हीं तमाम अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आई हुई प्रवासी जनसंख्या है- जिनमें से एक मैं भी हूँ। मैं लगातार प्रयत्न करता हूँ कि मैं लेखकों से नहीं बल्कि ऐसे तमाम लोगों से मिलूं, उनके जीवन के बारे में जानूं और संभव हो तो उनके इलाके में घुसूं। इसलिए मैं भारतीय समाज की किसी एक कट्टर व्याख्या से सहमत नहीं हूँ। महाश्वेता देवी के उपन्यास से लेकर कृश्न बलदेव वैद के उपन्यासों तक फैला हुआ कथा संसार हमारे देश की विराट सामाजिक विविधता को व्यक्त करता है।
भ्रष्टाचार, लोकतांत्रिक गद्दारी, संस्थानों का अध:पतन, शिखर संस्थाओं का निर्लज्ज और आपराधिक दुरुपयोग, सार्वजनिक कोषों से गबन इत्यादि 50 साल में उस औपनिवेशिक विरासत की कलई खोल डालते हैं- जिसका हम अब तक गुणगान करते आए हैं। इसलिए मेरी नई कहानी 'वारेन हेस्टिंग्ज का सांड़Ó इस आसन्न खतरे से अपने स्तर पर मुठभेड़ करने का एक नया प्रयत्न है-मुझे पूरी उम्मीद है इसे फिर विवाद का केंद्र बनाया जाएगा।
प्रश्न: यदि सांस्कृतिक पर्यावरण नष्ट हो रहा है तो क्या आज के माहौल में सांस्कृतिक प्रतिरोध या प्रतिरोध की संस्कृति के विकसित होने की उम्मीद कर सकते हैं?
उदय प्रकाश: सांस्कृतिक पर्यावरण इसलिए नष्ट हो रहा है या होता दिख रहा है- क्योंकि हमें पश्चिमी दुनिया के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का आदि बनाया जा रहा है। तीसरी दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले मध्यवर्ग की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही है। हमारी पिछली तमाम आर्थिक नीतियों के दौरान इसकी सुविधाओं व क्रय शक्ति में बढ़ोत्तरी हुई है।
नई हाईटेक कारों व घरेलू उपकरणों को ऋण में लेने की सुविधाएं इस वर्ग को प्रदान की जा रही हैं। विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में पढ़ाने वाले प्रोफेसरों के लिए यूजीसी पिछले तीन सालों से मारुति या एस्टीम खरीदने की सुविधा प्रदान करती है।
हमारे इस सांस्कृतिक पर्यावरण का क्षरण उसी पारंपरिक मूल्यों के टूटने से हो रहा है जो हमारी अब तक की जीवन शैली से थे। पश्चिम की क्रांति ने हमारे संयुक्त परिवारों को तोड़ा था, यह नई क्रांति हमारे दांपत्य जीवन में भी सेंध लगा रही है। औद्योगिक क्रांति ने हमारे दस्तकारों को नष्ट किया था, यह देसी उद्योगों को नष्ट कर रही है। पश्चिमीकरण सिर्फ मूल्य के रूप में सामने नहीं आता- वह साबुन, सेंट, तौलिया, दवाएं, गर्म-शीतल पेय, कपड़े-लत्ते व शिक्षा के साथ भी आता है। कानवेंट स्कूल पहले जा चुके थे पब्लिक स्कूलों की संख्या अब बढ़ी है।
लेकिन विश्वास रखिए जैसा कि पीसी जोशी कहते हैं, हमारे देश की गरीबी व विशाल जनसंख्या हमारे सामाजिक मूल्यों की व परंपराओं की सबसे बड़ी रक्षक है। हमारे प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर, हमारी धरती को खोखला व बंजर बनाकर, हमारे सामुदायिक रिश्तों को तोड़कर हमें भौतिक उपकरणों व पैसे का लोलुप बनाने वाला यह नया हमला बहुत कारगर नहीं हो पाएगा क्योंकि वह जनसंख्या जिसकी क्रय शक्ति दिनों-दिन घटती जा रही है- इस शीशे के घरों पर ढेले जरूर मारेगी। हमारी प्रतिरोध की संस्कृति और प्रतिरोध के नए सामाजिक तरीके इसी जटिल प्रक्रिया के बीच में जन्म लेंगे।
प्रश्न: क्या आप आज के समय से जूझने का कोई सकारात्मक मूल्य परंपरा और इतिहास में पाते हैं?
उदय प्रकाश: इतिहास हमेशा एक रोशनी देता है- लेकिन वह इतिहास जो वैज्ञानिक हो। कबीर नै उस वैभव को माया और ठगिनी कहा था जो 95वीं, 96वीं सदी में इस देश में आई थी। मखदूम मोइउद्दीन, दीनानाथ मित्र, सुकांत, निराला- तमाम ऐसे लोग थे जिन्होंने इसके बाद के पूंजी के वैभव व सत्ता का विरोध किया।
यह स्पष्ट है कि हमारी आर्थिक स्थितियां आज उसी रास्ते पर जा रही हैं- जिस रास्ते पर आज से पांच वर्ष पूर्व चिली, मैक्सिको व ब्राजील के देशों मे गई थीं। बेतहाशा बढ़ता कर्ज, गरीबी, घटती क्रय-शक्ति, मुद्रास्फीति, गावों में लोगों का लगातार उजडऩा व शहरों में जनसंख्या की बढ़ोत्तरी, सत्ता की संस्थाओं का पतन, भ्रष्टाचार व घोटालों के नए उदाहरण अभी और सामने आएंगे तब तक जब तक हम इन्हें बदल नहीं देते।
22 मार्च को भारत में हुए जनता कर्फ्यू और 24 मार्च से लगातार चल रहे लॉकडाऊन के बीच साहित्य के पाठकों की एक सेवा के लिए देश के एक सबसे प्रतिष्ठित साहित्य-प्रकाशक राजकमल, ने लोगों के लिए एक मुफ्त वॉट्सऐप बुक निकालना शुरू किया जिसमें रोज सौ-पचास पेज की उत्कृष्ट और चुनिंदा साहित्य-सामग्री रहती है। उन्होंने इसका नाम 'पाठ-पुन: पाठ, लॉकडाऊन का पाठाहार' दिया है। इन्हें साहित्य के इच्छुक पाठक राजकमल प्रकाशन समूह के वॉट्सऐप नंबर 98108 02875 पर एक संदेश भेजकर पा सकते हैं। राजकमल प्रकाशन की विशेष अनुमति से हम यहां इन वॉट्सऐप बुक में से कोई एक सामग्री लेकर 'छत्तीसगढ़' के पाठकों के लिए सप्ताह में दो दिन प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले दिनों से हमने यह सिलसिला शुरू किया है। सबसे पहले आपने इसी जगह पर चर्चित लेखिका शोभा डे का एक उपन्यास-अंश पढ़ा था। और उसके बाद अगली प्रस्तुति थी ज़ोहरा सहगल का आत्मकथा अंश। इसके बाद प्रस्तुत थी विख्यात लेखिका मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच है'। और उसके बाद हमने प्रस्तुत किया था सोपान जोशी की किताब, 'जल थल मल' पुस्तक का एक अंश। पिछले दिनों हमने प्रस्तुत किया था फणीश्वरनाथ रेणु की रचनावली से 'छेड़ो न मेरी जुल्फें, सब लोग क्या कहेंगे!' (भरत यायावर से बातचीत)।
आज हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं फिल्म संगीतकार अनिल विश्वास पर पंकज राग का लिखा- 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे'। यह अंश 'धुनों की यात्रा' पुस्तक से है।
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-संपादक
अनिल विश्वास : 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे'
-पंकज राग
[धुनों की यात्रा पुस्तक से]
हिंदी फि़ल्म संगीत में ऑरकेस्ट्रा और कोरस के प्रभाव को स्थापित करने का श्रेय यदि किसी को जाएगा तो वे अनिल विश्वास ही होंगे। अनिल विश्वास इतने विराट कम्पोजऱ थे कि उनकी विशेषताओं को वर्गीकृत करना आसान नहीं है। ऑरकेस्ट्रा की शैली एक तरफ़, बंगाल का लोकगान और लोकवाद्य शैली दूसरी तरफ़, गज़लों, ठुमरियों की विधा का प्रयोग अपनी जगह और हलके-फुलके फि़ल्मी माहौलानुकूल गीत भी अपनी जगह—क्या न था अनिल विश्वास के संगीत में! अनिल विश्वास ने ही फि़ल्म संगीत में अन्य विधाओं से अलग एक राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा के संगीत का सूत्रपात किया, और इसे बहुत आगे तक ले गए। लोकशैली की धुन को राजनीतिक अर्थव्यंजकता देने में कोरस का लाजवाब प्रयोग उन्हीं की देन है, जिसे आगे चलकर सलिल चौधरी ने एक नया विस्तार और नई दिशा दी।
अनिल विश्वास का जन्म बरीसाल (अब बाँग्लादेश) में 7 जुलाई, 1914 को हुआ था। उनकी माँ को संगीत में रुचि थी और उनकी प्रेरणा से ही अनिल विश्वास का संगीत-जीवन अपना सूत्रपात कर पाया। चार-पाँच साल की उम्र से ही गाना और तबला बजाना उन्होंने शुरू कर दिया था और कुछ ही वर्षों में नाटकों में काम करना भी प्रारंभ हुआ। कुछ और बड़े होने पर संगीत की महफि़लों में भी वे गाने लगे। उस समय से ही वे अपने गीत कम्पोज़ करके गाया करते थे। (स्वतंत्रता-आंदोलन की ललकार और विशेषकर क्रांतिकारी दलों के आह्नान से प्रभावित होकर उन्होंने मैट्रिक से ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी और क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। बम भी बनाए और जेल भी गए। अनिल विश्वास के मित्र प्रोफेसर सत्यव्रत घोष के अनुसार बरीसाल जेल में बहुत मच्छर थे और सोना बड़ा मुश्किल था। अत: समय बिताने के लिए संगीत ही सहारा बनता था और अनिल विश्वास इसमें स्वाभाविकत: अग्रणी भूमिका निभाते थे। एक विशेष गीत जो उस समय अक्सर गाया जाता था, वह था 'लाठी मार भाँगरे लाला, जोता सब बंद शाला', अर्थात् लाठी मारकर जेल के ताले तोड़ दो और मुक्त हो जाओ।
अपने पिता की मृत्यु (1930) के बाद अनिल विश्वास ने बरीसाल छोड़ दिया और वेश बदलकर कलकत्ता आ पहुँचे। जेब में पैसे बहुत कम थे और कलकत्ता पहुँचने के लिए भी कुली का काम करना पड़ा था। कलकत्ता में उनकी जानपहचान के मात्र पन्नालाल घोष (बाद के प्रसिद्ध बाँसुरीवादक) थे जो उनके बचपन के दोस्त और बहनोई थे, और उनकी बड़ी बहन और बहनोई के घर ही उन्हें ठहराया गया। कलकत्ते में भी एक होटल में वे आजीविका के लिए बर्तन धोने लगे। उसी होटल में मनोरंजन सरकार नामक एक जादूगर खाने के लिए आते थे। उन्होंने एक दिन अनिल विश्वास को गुनगुनाते सुना तो अपने साथ एक संगीत प्रेमी रामबहादुर अघोरनाथ के घर संगीत महफि़ल में ले गए। वहाँ कवि जीतेंद्रनाथ बागची और मेगाफ़ोन ग्रामोफ़ोन कम्पनी के मालिक जे.एन. घोष भी थे। अनिल विश्वास ने जब वहाँ श्यामा संगीत सुनाया तो सभी बड़े प्रसन्न हुए। रायबहादुर अघोरनाथ ने उन्हें अपने पौत्रों को संगीत सिखाने के लिए अपने घर ही रख लिया। पर कुछ दिनों में इस प्रकार की जि़ंदगी से ऊबकर अनिल विश्वास पाँच रूपए महीने पर एक अन्य जगह संगीत सिखाने चल पड़े।
पुलिस अब भी उनकी तलाश में थी, और एक दिन वे पकड़ में आ गए तथा चार महीने तक जेल में रहे। वहाँ पिटाई भी खूब हुई। पुलिस को उनके विरुद्ध कोई प्रमाण न मिला और उन्हें छोडऩा पड़ा। पर साथ ही पुलिस ने उनको सरकारी जासूस बनने का प्रलोभन दिया, ताकि वे क्रांतिकारियों के भेद दे सकें। चूँकि वह बेकार थे, इसलिए अनिल विश्वास ऊपर से मान गए, पर वस्तुत: पुलिस को गलत जानकारियाँ देते रहे। यह सिलसिला भी अधिक न चल सका। जल्दी ही पुलिस समझ गई कि जानकारियाँ गलत आ रही हैं, और विश्वास फिर बेकारों की कतार में शामिल हो गए।
उन दिनों काज़ी नज़रुल इस्लाम मेगज़ीन रेकॉर्ड कम्पनी में काम करते थे, और अनिल विश्वास बचपन से ही काज़ी के बड़े प्रशंसक रहे थे। वे काज़ी से मिले और उनकी मदद से उन्होंने कुछ गज़लों को गाकर रेकॉर्ड भी करवाया, लेकिन कम्पनी की अंदरूनी राजनीति की वजह से ये रेकॉर्ड नहीं बन पाए। लेकिन वहीं के एक संगीतकार मंजू खाँ साहब मुर्शिदाबादी के सम्पर्क में आकर गज़ल गायन की कई बारीकियाँ अनिल विश्वास ने ज़रूर सीख लीं। तत्पश्चात् निताई मोतीलाल ने अपने रंगमहल थियेटर में काम दिया, और उनके सहायक के रूप में अनिल विश्वास ने पाँच नाटकों में संगीत भी दिया, अभिनय भी किया और गीत भी गाए। जिस लोक रंग के संगीत को लेकर अनिल विश्वास आगे बहुत प्रसिद्ध होने वाले थे, उसका सूत्रपात उन्होंने इन नाटकों में पूर्वी बंगाल के लोकगीतों और प्रहसनों के अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे द्वारा सफलतापूर्वक किया। तीन वर्षों तक चालीस रूपए महीने पर वे वहाँ कार्यरत रहे। थियेटर के अनुभव से उन्हें लोगों के संगीत सम्प्रेषण की बारीकियों की अच्छी जानकारी होगी। संगीत में अनिल विश्वास अब अधिक समय देने लगे थे। हिंदुस्तान म्यूजि़कल कम्पनी के द्वारा पन्नालाल घोष के बाँसुरीवादन की पहली रेकॉर्डिंग के लिए गीत अनिल विश्वास ने ही लिखा था और एक छोटा-मोटा ऑरकेस्ट्रा भी इसकी रेकॉर्डिंग के लिए इस्तेमाल किया। वे एक बहुत अच्छे ढाक, ढोल, तबला और ढोलक वादक थे, और बंगाली ढोल को कुछ नाटकों और गीतों में उन्होंने अपने कलकत्ते के प्रवास के दौरान ही अपनाना शुरू कर दिया था। साथ ही खय़ाल, ठुमरी, दादरा एक तरफ़ और वैष्णव कीर्तन, लोकसंगीत और रवींद्र संगीत का ज्ञान दूसरी तरफ़—सभी कुछ उन्होंने बड़े लगन से अर्जित किया। आगे चलकर फि़ल्म 'हमदर्द' में उन्होंने खय़ाल, गज़ल, कव्वाली, गीत—सभी का उपयोग बड़े सिद्धहस्त ढंग से किया। रवींद्रनाथ टैगोर से विश्वास मिले भी थे। उन्होंने रवींद्रनाथ की कृतियों को एक ऐसे वितउंज में संगीतबद्ध किया, जैसा पहले नहीं किया गया था। गुरुदेव रवींद्रनाथ उनके इस कार्य से काफ़ी प्रभावित भी हुए थे।
इन्हीं दिनों अनिल विश्वास की मुलाकात फि़ल्म-निर्देशक हीरेन बोस से हुई। बोस ने उन्हें समझाया कि अगर कुछ बनना है तो बम्बई की फि़ल्मों में काम करना पड़ेगा। इस प्रकार अनिल विश्वास का पदार्पण बम्बई के फि़ल्म जगत में हुआ।
अनिल विश्वास का संगीत उल्लेखनीय इसलिए भी है कि उन्होंने उस समय तक प्रचलित शास्त्रीय राग आधारित रचनाओं से हटकर संगीत में लोकप्रियता के तत्त्वों का समावेश किया। यहाँ इस समय की संगीत रचनाओं में एक नीरसता और ढर्रे पर बँधे रहने की परम्परा थी, वहीं विश्वास ने फि़ल्म-संगीत को एक रस दिया। उन्होंने धुनों को मोहक बनाया, ऑरकेस्ट्रा को विस्तार दिया और लोकसंगीत से लेकर रंगमंचीय संगीत, हर विधा के लोकप्रिय अवयवों का अपने संगीत में सुंदर सम्मिश्रण किया। अनिल विश्वास ने न केवल पहली बार 12 सदस्यीय ऑरकेस्ट्रा का प्रयोग किया बल्कि वे पहले संगीतकार थे, जिन्होंने मेलोडी के साथ काउंटर मेलोडी को भी गीतों में इस्तेमाल किया। अपनी राजनीतिक और जागरूक पृष्ठभूमि के कारण ज्ञान मुखर्जी और महबूब की कई फि़ल्मों में संगीत पक्ष को उन्होंने एक सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा दी। उनका संगीत ऐसी फि़ल्मों में मात्र रोमांस, प्रकृति प्रेम या कोठों पर प्रचलित संगीत न होकर एक प्रगतिशील बयान का रूप लेने में भी सक्षम रहा। यहाँ तक कि जहाँ संगीत का आधार शास्त्रीय था, वहाँ भी परिस्थिति के हिसाब से अनिल विश्वास ने इसे बेहद सरल और सरस तरीके से प्रयुक्त किया।
बम्बई में 1934 में पदार्पण के बाद अनिल विश्वास पहले कुमार मूवीटोन के साथ जुड़े। कलकत्ते से वे अपने साथ चार साजिंदे भी लाए थे जो एक साथ कई वाद्य बजाना जानते थे—इस तरह वॉयलिन, पियानो, हवाइयन गिटार, ट्पेट, मैंडो रं लिन, चेलो जैसे वाद्यों के साथ अनिल विश्वास ऑरकेस्ट्रा के क्रांतिकारी शुरुआत की भूमिका तैयार करके ही आए थे। ऑरकेस्ट्रा का महत्त्व और पाश्चात्य संगीत के तत्वों के प्रयोग का महत्व विश्वास ने आरंभ से ही पहचाना। कुमार मूवीटोन के व्ही.एम. कुमार से मतभेद होने के बाद वे राम दरयानी की ईस्टर्न आर्ट सिंडिकेट के साथ सम्बद्ध रहे। मधुलाल मास्टर के साथ संगीतबद्ध 'बाल हत्या' (1935) में ही उन्होंने अपनी राजनीतिक चेतना का परिचय शक्ति की माता की आराधना वाले समूह गीत 'काली माँ तू प्यारी तुम जग जननी, माता दे शक्ति हमको' द्वारा स्पष्ट कर दिया था। 'भारत की बेटी' (1935) में उस्ताद झंडे खाँ के साथ संगीत देते हुए उन्होंने फि़ल्म के पार्श्वसंगीत के अलावा तीन गीत भी कम्पोज़ किए, जिनमें 'दीन दयाल दया करके भवसागर लेकर पार मुझे' और विशेषकर 'तेरे पूजन को भगवान बना है मंदिर आलीशान' उल्लेखनीय और लोकप्रिय थे। पर स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी प्रथम फि़ल्म ईस्टर्न आर्ट्स की हीरेन बोस निर्देशित 'धर्म की देवी' (1935) थी, जिसमें उन्होंने फ़कीर की भूमिका भी निभाते हुए 'क्षमा करो तुम क्षमा करो यह कहकर सब चिल्लाते हैं', 'कुछ भी नहीं भरोसा दुनिया है आनी जानी' और 'कर हाल पे अपने रहम जऱा यूँ कुदरत को तू यूँ नाशाद न कर' जैसे गीत स्वयं गाए। 'कुछ भी नहीं भरोसा' की रेकॉर्डिंग का शरद दत्त ने अनिल विश्वास पर लिखी अपनी पुस्तक में बड़ा रोचक वर्णन किया है। पाश्र्वगायन के अभाव में आउटडोर शूटिंग रात के वक्त इस तरह की जा रही थी कि फ़कीर की भूमिका में अनिल विश्वास को सड़क पर चलते हुए गाना था और माइक्रोफ़ोन सँभाले हुए एक आदमी और ट्राली पर वादक बैठकर पीछे-पीछे चल रहे थे। गाना लगभग खत्म होने को था कि बारिश शुरू हो गई, रात के अँधेरे में दिखाई नहीं दिया कि सामने गड्ढा है और विश्वास, साजिंदे—सभी उस पानी के गड्ढे में जा गिरे। चोट तो खास नहीं आई, पर पूरे गाने की रेकॉर्डिंग नए सिरे से करनी पड़ी। इस फि़ल्म के एकाध गाने में सिंधी लोकधुन की प्रेरणा उन्हें फि़ल्म के अभिनेता गोप ने दी थी। संगीत में सरस तत्वों के प्रवेश का आभास उन्होंने इस फि़ल्म के 'न भूलो न भूलो प्रिय आज को यह अर्पण अनुराग', 'जिधर देखो जहाँ देखो उसी शै में रमा वह है' और 'अजब हाल अपना होता जो विसाल यार होता' जैसे गीतों में दे दिया था। यही प्रवृत्ति हमें 'प्रेम-बंधन' (1936) के 'कैसे कटे मोरी सूनी रे सेजरिया', 'चैन न आए जब पिया मुध आती', 'बिन देखे तुम्हारे मैं मर जाऊँगी', 'प्रतिभा' (1936) के 'जा जा रे भौंरा' (सरदार अख्तर), 'झूला झूल झूल झूल' (सरदार अख्तर), 'आज देखी मैंने जीवन ज्योति' (नज़ीर, (रदार अख्तर), 'पिया की जोगन' (1936) के अति लोकप्रिय 'ये माना हमने मुहब्बत की दवा तुम हो' (सरदार अख्तर), 'बढ़कर परी से शक्ल मेरे दिलरूबा की है', 'साकी हो सहने बाग हो' (अनिल विश्वास, सरदार अख्तर), 'संगदिल समाज' (1936) के 'नैनों के तीर चलाओ न हम पर' (सरदार अख्तर), 'प्रीत की रीत बसी है मन में', 'वह मुहब्बत के मज़े और वह मुलाकातें गई', कव्वालीनुमा 'क्या लुत्फ जि़ंदगी का', 'शेर का पंजा' (1936) के 'ऐसी चलत पवन सुखदाई', 'साँवरिया बाँके मदमाते', 'क्या नैना मतवाले निकले', 'तोहार फुलवारिया में न जइहो रे' और कव्वाली की शैली के 'चिलम जो गाँजे की भरी पीते हैं सब यार', 'शोख़ दिलरूबा' (1936) के खुर्शीद के गाए (मयजोशी मदहोशी है जहाँ में जि़ंदगानी मस्तों की', 'बुलडॉग' (1937) के 'आशा आशा मोरे मुरझाए मन की आशा' (युसुफ़ एफेंदी), 'जेंटिलमैन डाकू' (1937) के 'हृदय सेज पर फूल बिछाए आओ बैठो', 'नदिया पे आजा सैंया सावन आया), 'इंसाफ़' (1937) के 'जल भरने को पनघट पे सखियाँ आती हैं' (सहगान), 'दिल की गहराइयों में छुपाएँ', 'हृदय में प्रेम बसाएँ' और 'आज बना सुंदर संसार' आदि में कहीं कम और कहीं अधिक नजऱ आती है। इस दौर में नई शैली की लोकप्रियता का चरम गीत था फि़ल्म 'मनमोहन' (1936) का—'तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया' (सुरेन्द्र, बिब्बो)। हालाँकि नाम संगीतकार के रूप में अशोक घोष का था, पर अनिल विश्वास के अनुसार इस गीत की धुन के सृजक वे स्वयं थे। सागर मूवीटोन की महबूब निर्देशित इस फि़ल्म का यह गीत 'क्या मैं अंदर आ सकती हँू?' संवाद की अदायगी से प्रारम्भ होता था, और यह अदा न सिफऱ् नवीन थी, बल्कि गीत की धुन भी अपनी सुगमता और सरसता से जनसाधारण के बीच बेहद लोकप्रिय रही।
दरअसल अनिल विश्वास की जिन विशेषताओं का जि़क्र हम पहले कर चुके हैं, वे परिपच् हुईं सागर मूवीटोन की उनकी संगीतबद्ध फि़ल्मों में। महबूब की आधुनिकता को संगीत के आधुनिक और लीक से हटेे मुहावरों के साथ अनिल विश्वास के संगीत ने भी बलवती किया। सुरेन्द्र, मोतीलाल और बिब्बो अभिनीत सामंतवादी मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाते फि़ल्म 'जागीरदार' (1937) में 'पुजारी मोरे मंदिर में आओ' (सुरेन्द्र, अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे बिब्बो), 'बाँके बिहारी भूल न जाना' (मोतीलाल, माया बनर्जी), 'नदी किनारे बैठ के आओ, खेल में जी बहलाएँ' (मोतीलाल, माया बनर्जी), 'अगर देनी है मुझको हुरे-जन्नत' (सुरेन्द्र), 'जिनके नैंनों में रहते हैं तारे' (सुरेन्द्र), 'वो ही पुराने खेल जगत के' (अनिल विश्वास) जैसे गीत खूब लोकप्रिय रहे थे। महबूब और अनिल विश्वास की दोस्ती भी खूब जमी और दोनों प्यार से एक दूसरे को 'मवाली' और 'बंगाली' पुकारा करते थे।
सागर मूवीटोन की ही हीरेन बोस निर्देशित 'महागीत' (1937) के जिया सरहदी के लिखे 'आए हैं घर महाराज मैं जाऊँ' (सुरेन्द्र, माया बनर्जी), 'प्रेम का पुष्प खिला मन मेरे' (सुरेन्द्र) में भी गीत-संगीत का वह सुलभ, सुगम्य सरल रूप मिलता है जो शास्त्रीय रागों और तानों की दुनिया से अलग एक अधिक जाने-पहचाने और नज़दीकी संसार से लोगों का परिचय कराता था। कहते हैं कि 'महागीत' के ही 'जीवन है एक कहानी' में अनिल विश्वास ने बंबई की फि़ल्म इंडस्ट्री में प्ले बैक उर्फ पाश्र्वगायन का पहला प्रयोग किया था (हालाँकि बम्बई की फि़ल्म नगरी में इसका श्रेय कई सरस्वती देवी को भी देते हैं)। महबूब निर्देशित 'हम, तुम और वह' (1938) में औरत की इस समय के समाज में दबी और दबाई पारम्परिक दायरों से अलग प्रेम की इच्छा की अभिव्यक्ति को साकार करते 'प्रेम का है संसार' (समूहगीत), 'सजनी प्रेम का राग सुना दो', 'हमें प्रीत किसी से नहीं करनी' (हरीश, माया बनर्जी) जैसे गीत भी ज़माने के हिसाब से नए और आधुनिक ही थे। जिय़ा सरहदी निर्देशित (महेन्द्र ठाकुर के साथ) 'पोस्टमैन' उर्फ 'अभिलाषा' (1938) के 'आओ सखी कहीं छुपकर बैठें' (बिब्बो, हरीश), 'बदली ओट छिप छिप जाए' (सितारा), 'दिल की कहानी दिल की जु़बानी' (बिब्बो), 'कामरेड्स' उर्फ 'जीवनसाथी' (1939) के 'मधुर मिलन का चित्र बनाएँ' (माया बनर्जी, सुरेन्द्र) या राजनीतिक अर्थव्यंजकता वाले 'हमें हुआ है देश निकाला' (सुरेन्द्र) या 'आन बसे परदेश सजनवा' (ज्योती, सुरेन्द्र) और धर्म तथा समाज के मापदंडों पर प्रश्नचिह्न लगाती महबूब की 'एक ही रास्ता' (1939) के 'मुझे मिल जाएगी उनकी उमरिया' (वहीदन, अनिल विश्वास) या बंगाली लोकशैली का 'भई हम परदेसी लोग' (अनिल विश्वास) जैसे गीतों में भी कहीं कथ्य, कहीं शैली, कहीं भाव में अनिल विश्वास का संगीत एक नया रास्ता बनाता नजऱ आता है। महबूब की ही 'वतन' (1938) में नज़रूल गीत की तर्ज पर 'रंगे जाँ से खूँ उछल पड़े' (बिब्बो, अनिल विश्वास, साथी), 'जहाँ तू है वही मेरा वतन है' (माया बनर्जी) और बहुलोकप्रिय 'क्यों हमने दिल दिया' (सितारा) आदि इसी रंग की दिलकश प्रस्तुतियाँ थीं। अनिल विश्वास के संगीत का यह पहलू सागर की सर्वोतम बादामी निर्देशित फि़ल्मों में भी नजऱ आता है। 'कोकिला' (1937) में कोरस गीतों का अपना अभिनव प्रयोग अनिल विश्वास ने 'नैनन के सैन से बुलाई हो शाम', 'सागर गाए पर्वत गाए', 'मोहे घर के द्वारे लागा जमुनिया का पेड़' जैसे गीतों में सफलता से किया था।
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कोरस गीतों के साथ यह निहित था कि जिस गीत को कई लोग गाते हैं, वह गीत जनता भी आसानी से गुनगुना सकती है। जनमानस एक तरह से इस कोरस का ही विस्तारित रूप बनकर अनिल विश्वास के संगीत को एक लोकप्रिय आधार प्रदान करनेवाला कारक बन गया। जनरल फि़ल्म्स की 'निराला हिंदुस्तान' (1938) का—'धनवानो धनवानो, गरीबों की परवाह करो' (समूहगीत) भी विश्वास के संगीत में एक राजनीतिक-सामाजिक महत्वपूर्ण बयान-सा दखल रखता था। '300 डेज़ एंड आफ़्टर' (1938) के मोतीलाल के गाए 'घर अपना ये कुर्सी अपनी' और 'इक तुम न हुईं तो क्या हुआ' भी अपनी आधुनिक शैली के कारण बेहद लोकप्रिय रहे थे। अनिल विश्वास के पास इस वक्त 12 साजिंदों का ऑरकेस्ट्रा था, जो उस समय के हिसाब से बड़ी चीज़ थी। चूँकि राजनीतिक-सामाजिक चेतना के गीतों में जीवंतता, जोश और तीव्रता का होना आवश्यक था, अत: यह भी कहा जा सकता है कि ऑरकेस्ट्रा का विस्तार इस तरह के गीतों अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे के लिए अनिवार्य था और इस प्रकार ऑरकेस्ट्रा के क्रांतिकारी परिवर्तन के पीछे यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा होगा।
सागर मूवीटोन की लुहार की निर्देशित स्टंट फि़ल्मों में अनिल विश्वास के संगीत की आधुनिकता या समकालीन सामाजिकता का रूप उतना मुखर नहीं है। 'डायनामाइट' (1938) के 'कलियाँ खिलीं' (बिब्बो, सुरेन्द्र), 'जा री सखी साजन से कह दे' (माया बनर्जी, सुरेन्द्र) जैसे गीत पारम्परिक मुहावरे के ही गीत थे। वहीं नंदलाल जसवंतलाल निर्देशित 'कॉमरेड्स' (1939) में यदि एक तरफ अपने ज़माने का लोकप्रिय परंतु पारम्परिक शब्दावली का गीत 'नाच नाच मन मोर' (ज्योति), 'आन बसे परदेस सजनवा' (सुरेन्द्र, ज्योति) तथा 'मधुर मिलन का चित्र बनाएँ' (सुरेन्द्र, माया बनर्जी) थे, तो दूसरी तरफ़ 'जागो जागो सोनेवालो अब तो हुआ सबेरा' और 'कर दे तू बलिदान' जैसे संदेशात्मक उत्प्रेरक गीत भी थे।
अनिल विश्वास के सुगम, लोगों की ज़ुबान पर चढऩेवाले संगीत का एक महत्वपूर्ण मील स्तम्भ था सागर की फि़ल्म 'ग्रामोफ़ोन सिंगर' (1938)। जिस सुगम संगीत को गैर फि़ल्मी गीतों से जगमोहन या पंकज मल्लिक ने लोकप्रिय बनाया, उसी रूप का अपने ज़माने का बेहद मक़बूल रहा राग मल्हार के स्पर्श के साथ सृजित गीत 'काहे अकेला डोलत बादल' (सुरेन्द्र) इस फि़ल्म की विशिष्ट उपलब्धि थी। 'मैं तेरे गले की माला' (सुरेन्द्र, बिब्बो) भी अपने ज़माने में जबर्दस्त लोकप्रिय रहा था। फि़ल्म के 'एक छोटा-सा मंदिर बनाएँगे' (सुरेन्द्र), 'वो दिल कि जिसको खुदा पर न एतबार आया' (सुरेन्द्र), 'मुझको मेरी ख़बर सुना जाते' जैसे जिया सरहदी के सीधे-सादे बातचीत के अंदाज के लिखे गीतों को मकबूल धुन देकर अनिल विश्वास ने जनसाधारण की रोजमर्रा की जि़ंदगी की सोच में शामिल करा दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का गाया प्रथम गीत 'पिया घर नाही अकेली मोहे डर-डर लागे' भी इसी फि़ल्म में था।
महबूब निर्देशित 'अलीबाला' (1940) का 'हम और तुम और ये खुशी' (वहीदन, सुरेन्द्र) तो हलके टुकड़ों पर विराम के साथ आगे बढ़ती अपनी अदायगी के कारण एक सदाबहार गीत ही बन चुका है। मूलत: राग सारंग पर आधारित इस गीत में अनिल विश्वास ने कहीं लगने ही नहीं दिया है कि हम कोई दुरूह, जटिल शास्त्रीय रचना सुन रहे हैं—ऐसी सरल और सरस रचनाओं को बिना शास्त्रीयता का आधार खोए शास्त्रीयता की पारम्परिक परिपाटियों से निकालकर जनमानस तक बोधगम्य तरीके से पहुँचाना ही अनिल विश्वास की ख़ासियत थी। 'अलीबाबा' में अरबी शैली के संगीत को अनिल विश्वास लेकर आए थे। 'दिल का साज बजाए जा' और 'तेरी आँखों ने किया बीमार हमें' जैसे सुरेन्द्र-वहीदन के गीत भी इसी शैली के थे। मैडोलिन और ट्रम्पेट का उपयोग भी पहली बार फि़ल्मों में इस फि़ल्म में उनके ही द्वारा किया गया। यह फि़ल्म हिंदी और पंजाबी दोनों में बनी थी, और शुरू में पंजाबी में संगीत देने से आनाकानी कर रहे विश्वास के अहम को उनके बारे में अखबारों में अनाप-शनाप छपवाकर और इस प्रकार चुनौती देकर पंजाबी में भी संगीत दिलवाने के वाकिये का शरद दत्त ने अपनी पुस्तक में दिलचस्प वर्णन किया है। महबूब की मशहूर फि़ल्म 'औरत' (1940—जिसे बाद में महबूब ने दोबारा 'मदर इंडिया' के नाम से करीब दो दशकों बाद बनाया) के ग्रामीण शोषण के कथ्य के बीच स्थित ग्रामीण राग-रंग की अभिव्यक्ति के लिए तो अनिल विश्वास ने जनमानस के बीच प्रचलित लोकरंग के गीतों की छटा ही विखेर दी। 'बादल आए गगरी सूखी' फि़ल्मों में ग्रामीण सामूहिक व्यथा की अपनी तरह की पहली लोक-अभिव्यक्ति थी। कोरस के लाजवाब प्रयोग के रूप में 'काहे करता देर बराती' (अनिल विश्वास, साथी), 'मोरे आँगना में लाया बबुआ', पारम्परिक शैली का 'मैं न कहूँगी मेरा भैया री अनोखा', होली गीत 'आज होली खेलेंगे साजन के संग' (अनिल विश्वास, साथी), 'मेरे बाँके साँवरिया' (हरीश, वत्सला कुमठेकर), 'बोल बोल रे बोल वन के पंछी' (सुरेन्द्र, ज्योति), 'सुनो पंछी के राग करे कोयल पुकार' (अनिल विश्वास, ज्योति, सरदार अख्तर, सुरेन्द्र, हरीश, साथी) जैसे गीत फि़ल्म की ग्रामीण पृष्ठभूमि के साथ खूब जमे थे। वहीं नौटंकी शैली में 'अपने मस्तों को बेसुध बना दे' (सुरेन्द्र, ज्योति) भी खूब हिट रहा था। 'तुम रूठ गईं प्यारी सजनिया' (सुरेन्द्र, ज्योति) एक लोकप्रिय प्रेम गीत की तरह वर्षों गाया जाता रहा।
सागर स्टूडियोज़ से अम्बालाल पटेल के जाने के बाद फज़़लभाई ने कार्यभार सँभाला। नाम भी बदलकर 'नेशनल स्टूडियोज़' कर दिया गया। 'औरत', जो सागर के पर्चम तले बनी थी, नेशनल के बैनर तले रिलीज़ हुई। ए.आर. कारदार की प्रगतिशील फि़ल्म 'पूजा' (1940) भी इसी के बैनर तले निर्मित हुई। हालाँकि फि़ल्म के 'एक बात कहूँ मैं साजन' (सरदार अख्तर, ज़हूर रजा), 'आज पिया घर आएँगे' (मितरा, सरदार अख्तर), 'लट उलझी सुलझा जा बालम' (ज्योति) जैसे गीत शृंगारप्रधान थे, पर संगीतकार अनिल विश्वास ने अब तक अपनी खास शैली और विशिष्ट पहचान बना ली थी।
पाँचवें दशक में तो अनिल विश्वास एक बहुत बड़ा नाम बन कर प्रतिष्ठित हो चुका था। एक तरफ़ प्रगतिशील गीतों—देश प्रेम और मानव-प्रेम की भावना से ओतप्रोत सामाजिक- राजनीतिक रूप से सजग गीत तो दूसरी तरफ़ लोक या शास्त्रीय आधार को लेकर अपनी ख़ास सरस सहज शैली में उसका रूपांतरण। और इन सबके पीछे ऑरकेस्ट्रा का विस्तार और 'रोटी' में सितारा और शेख मुख्तार कोरस का विलक्षण प्रयोग, जिन विधाओं का तो फि़ल्मी बम्बई संगीत की दुनिया में उन्हें संस्थापक ही माना जा सकता है। हम कह ही चुके हैं कि जनचेतना की अभिव्यक्ति के लिए कोरस का व्यापक प्रयोग सबसे पहले अनिल विश्वास ने ही किया।
दशक के उनके उल्लेखनीय प्रगतिशील राष्ट्रवादी गीतों में नेशनल स्टूडियो की 'अप्सरा' (1941) के 'कदम बढ़ाओ नारियो', 'हमारी बात' (1943)—जो देविका रानी की बतौर अभिनेत्री अंतिम फि़ल्म थी—के कोरस के अच्छे प्रयोग के साथ क्रांतिकारी गीत 'करवटें बदल रहा है आज सब जहान' (सुरैया, अरुण कुमार, साथी) और उत्प्रेरक, उत्तेजक मतवाला गीत 'बादल सा निकल चला यह दल मतवाला रे' (अनिल विश्वास, साथी) आज भी सुनने के बाद जोश और रोमांच से भर देते हैं। दरअसल अनिल विश्वास का संगीत एक तरह की राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा को फि़ल्म संगीत के मध्य परिभाषित करने का प्रयास बनकर अपनी ऐतिहासिक जगह रखता है। 'रोटी' (1942) के 'रोटी रोटी रोटी क्यूँ रटता' (अशरफ़ खान), 'हे मक्कार ज़माना' और 'गरीबों पर दया करके बड़ा एहसान काहे हो' (अशरफ़ खान) जैसे मौखिक संगीत का उपयोग फि़ल्मों में नया था और एक प्रकार से ठतमबीजपंद उवकम का भारतीय रूपांतरण भी कहा जा सकता है। यही अशरफ़ खान बाद में जाकर पीर बन गए थे। 'क्यूँ रहता रोटी रोटी' के दर्द को उभारने के लिए विश्वास द्वारा रचनात्मक तरीके से राग मिश्र मालकौंस का उपयोग किया गया।
अनिल विश्वास ने जिस राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा को स्थापित किया, उसकी सबसे बड़ी लहर बॉम्बे टॉकीज की अपने ज़माने की सुपरहिट फि़ल्म 'किस्मत' (1943) बनकर आई। इस लहर का एक अतरंग हिस्सा बने मध्यप्रदेश से हिंदी साहित्य की धारा को फि़ल्मों में ले कर आने वाले कवि प्रदीप। प्रदीप का लिखा 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है' (अमीरबाई, अन्य स्वर, कोरस) तो इतना मशहूर हुआ कि अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे इस गीत को सुनने के लिए सिनेमा हॉल में भीड़ उमडऩे लगी और लोग उत्साह और उत्तेजना से अपनी कुर्सियों पर खड़े होने लगे। यहाँ तक कि ब्रिटिश सरकार ने सी.आई.डी. को यह जाँच सौंप दी कि देखें कि इस गीत का क्या असर हो रहा है। पर ब्रजेन्द्र गौड़ के भाई धर्मेन्द्र गौड़ (जो सी.आई.डी. में थे और जिन्हें यह काम सौंपा गया था) ने हक़ीकत को दरकिनार कर रिपोर्ट ऐसी दी कि इस गीत को रंगमंच का हिस्सा बताते हुए इसका कोई ख़ास असर ही नहीं दर्शाया। इस गीत की धुन को बाद में वर्षों तक आकाशवाणी ने फौजी भाइयों के लिए कार्यक्रम में बजाया गया। अनिल विश्वास ने इस गीत में भी कोरस का लाजवाब प्रयोग किया था। जैसा पहले भी रेखांकित किया गया है, दरअसल अनिल विश्वास की राजनीतिक-सांस्कृतिक धारावाले संगीत में कोरस का प्रयोग एक विशिष्ट और ख़ास तत्व लगातार रहा। इस गीत के कोरस में स्वयं प्रदीप का भी स्वर था। 'किस्मत' के गीत ऐसे चले कि फि़ल्म कलकत्ते के रॉक्सी थियेटर में पूरे तीन वर्षतक चली। अनिल विश्वास की इस समाजवादी-साम्यवादी राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा के अन्य गीतों में 'भूख' (1947) के डॉ. सफ़दर आह लिखित 'सारे जग में पेट का धंधा' (अनिल विश्वास), 'जय जननी भारत माता', 'सोना-चाँदी खाओ अमीरो', 'इस जग के गरीबों का नहीं कोई ठिकाना' (गीता), 'दो सितारे' (1951) के 'सो जा सो जा बेटे गरीब के' (सुरैया) आदि गीतों को गिना जा सकता है।
'आसरा' के 'साँझ भई बंजारे' (अनिल विश्वास) की रेकॉर्डिंग का किस्सा कम रोचक नहीं है। इसी वक्त अनिल विश्वास को मुकेश से मोतीलाल ने मिलवाया था और अनिल विश्वास ने उस आवाज़ में एक गजब की कशिश और आकर्षण पर प्रशिक्षण का अभाव पाया था। कई रिहर्सलों के बाद भी मुकेश इस गीत में वह बंगाल की माटी मिश्रित दार्शनिकता नहीं ला पा रहे थे जो अनिल विश्वास चाहते थे। अंतत: यह गीत अनिल विश्वास ने अपने स्वर में ही रेकॉर्ड किया और गीत अमर भी हो गया। मुकेश काफ़ी निराश हुए और उन्होंने यह भी कहा कि अगर अनिल विश्वास अपने गीतों को स्वयं ही गाते रहेंगे तो उनके जैसे नए गायकों को मौका कैसे मिलेगा। पर अनिल विश्वास ने मुकेश को भुलाया नहीं और 'पहली नजऱ' के 'दिल जलता है तो जलने दे' की कहानी और उसका परिणाम तो सर्वविदित हो ही चुके हैं।
अनिल विश्वास के इस दौर के सरस मधुर गीतों में सागर की 'कामरेड्स' (1939) की ठुमरी 'मोपे डार गए' (वहीदन), नेशनल की 'बहन' (1941) के 'हवा बसंत की डोल रही है' (नलिनी जयवंत, हरीश) और 'नहीं खाते हैं भैया मेरे पान' (नलिनी जयवंत, शेख़ मुख्तार) तथा 'आई जवानी जिया लहराए' (शेख मुख्तार) जैसे हिट गीत, नेशनल की ही 'नई रोशनी' (1941) के 'वो पूछते हैं ऐ दिल' (सरदार अख्तर, हरीश), 'अपने पिया को रिझाऊँ मैं' (सरदार, अख्तर), 'गाओ गाओ प्रेम का राग' (हुस्न बानो, हरीश), 'गरीब' (1942) के 'मुहब्बत की दुनिया' (सुरेन्द्र) और 'मुझको जीने का बहाना' (सुरेन्द्र) तथा 'तेरी याद में वो मजा पा रहा हूँ' (सुरेन्द्र), 'विजय' (1942) का 'कौन है तेरा' (राजकुमारी, अनिल विश्वास) आदि के अलावा फि़ल्म 'बसंत' (1942) के गीतों की भी चर्चा की जानी चाहिए। हालाँकि नाम संगीतकार के रूप में पन्नालाल घोष का आता है पर घोष ने इसमें ऑरकेस्ट्रेशन और पाश्र्वसंगीत का काम किया था। गीतों की तजऱ् अनिल विश्वास की थी। यह प्रसिद्ध अभिनेत्री मधुबाला की भी पहली फि़ल्म थी, जिसमें उन्होंने बेबी मुमताज नाम से बाल कलाकार की भूमिका की थी और फि़ल्म में स्टेज पर 'मेरे छोटे से मन में मेरी छोटी-सी दुनिया' गाया था, और काफ़ी अच्छा गा दिया था। एक रोचक तथ्य यह भी है कि फि़ल्म में इस स्टेज शो के बाद छोटी मधुबाला दर्शकों से कहती है कि 'आप लोग कल आइए तो और सुनाऊँगी गाना'। अभिनेत्री निम्मी, जो उस वक्त उतनी ही छोटी रही होंगी, ने अपने माँ-बाप के साथ यह फि़ल्म देखी और मधुबाला के इस संवाद अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे को सुनकर कई दिनों तक अपनी माँ को छिप करके फि़ल्म को बार-बार दिखलाने ले जाती रही, क्योंकि आखिर पर्दे पर छोटी मधुबाला ने फिर आने को कहा था। 'बसंत' (1942) के कई अच्छे गीत 'तुमको मुबारक हो ऊँचे महल में' (पारुल घोष, साथी), 'काँटा लगो रे साजन का मोहे राह चली न जाए' (पारुल घोष, खान मस्ताना) जो कि उत्तरप्रदेश की लोक धुन पर आधारित था, गज़ल शैली में 'उम्मीद उनसे क्या थी और कर वो क्या रहे हैं' (पारुल घोष) आदि खूब ही कर्णप्रिय और खूब लोकप्रिय रहे थे। 'आया बसंत सखी' गीत में बाँसुरी के साथ अनिल विश्वास के ऑरकेस्ट्रा का पन्नालाल घोष ने सुंदर संयोजन किया था। नेशनल की 'अपना-पराया' (1942) में हल्के तरंगित ऑरकेस्ट्रा के साथ 'ओ परदेसी घर आजा' खूब लोकप्रिय रहा और आज भी राजकुमारी के गाए सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में इसकी गिनती होती है। इस गीत की विशेषता इसकी धुन से अधिक गीत के समानांतर निरंतर प्रवाहित होता ऑरकेस्ट्रा के विभिन्न टुकड़ों का बेजोड़ सम्मिश्रण है। 'जवानी' (1942) का सुरेन्द्र का गाया 'ध्यान उसका लगाए बैठे हैं' भी अपने ज़माने में खूब लोकप्रिय रहा था। गज़ल शैली के इस गीत में अंतरे के बोलों की अदायगी के बीच बाँसुरी का प्रयोग भाव अभिव्यक्ति को और भी सशक्त करता है। राग बसंत पर आधारित 'आई बसंत ऋतु मदमाती' (सुरेन्द्र, हुस्न बानो) और 'बदनाम न हो जाना' (सुरेन्द्र, हुस्न बानो) तथा इसी फि़ल्म का 'बीत गई बीत गई' (सुरेन्द्र, हुस्न बानो) भी अच्छे चले थे। फि़ल्म 'रोटी' (1942) न सिर्फ महबूब को कुशल फि़ल्मकार के रूप में स्थापित करनेवाली फि़ल्म के रूप में याद की जाती है, बल्कि समाज की आर्थिक-सामाजिक विषमता को अभिव्यक्त करनेवाली इस फि़ल्म में अनिल विश्वास ने अख्तरी फैजावादी उर्फ बेगम अख्तर से भी 'उलझ गए नैनवा', 'वो हँस रहे हैं आह किए जा रहा हूँ मैं', 'फिर फ़सले बहार आई दिले दीवाना', 'चार दिनों की जवानी मतवाले पी ले', 'ऐ प्रेम तेरी बलिहारी हो' और 'रहने लगा है दिल में अँधेरा तेरे बगैर' जैसे गीतों को ठुमरी, गज़ल शैली में लेकर ऐतिहासिक बना दिया है। यह दूसरी बात है कि बेगम अख्तर ने अपने अद्र्धशास्त्रीय गीतों का फि़ल्म में उपयोग देखकर मुकदमा कर दिया। 'रोटी' की कहानी अनिल विश्वास की ही लिखी थी और इसका विचार उन्हें तब आया था जब महबूब अस्पताल में थे और परहेज के कारण रोटी से महरूम होकर दही खाखरा खाते थे। फि़ल्म में सितारा के स्वर में बंगाली संगीत का प्रभाव लिए 'सजना साँझ भई, आन मिलो' भी एक उल्लेखनीय रचना थी, जिसमें सितार का बड़ा सुंदर प्रयोग था। यह गीत गुलाम हैदर का पसंदीदा गीत था। रोटी के ही 'मेघराज आए' (समूह गीत) में विश्वास ने अनोखे बोलों का उपयोग किया था। पर विशुद्ध संगीत की दृष्टि से बाम्बे टॉकीज लिमिटेड की 'हमारी बात' (1943) अनिल विश्वास की अधिक उल्लेखनीय फि़ल्म कही जाएगी। अनिल विश्वास ने भी नेशनल स्टूडियो छोड़कर बॉम्बे टॉकीज़ का दामन थामा, जहाँ वे वर्षों तक कार्यरत रहे। महबूब की महबूब स्टूडियो के लिए उनके पुराने दोस्त ने उन्हें बुलाया नहीं, वे खुद जाने में संकोच करते रहे और इस तरह महबूब के साथ और आगे काम वे न कर सके।
'हमारी बात' के क्रांतिकारी भावप्रधान गीतों का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं। पर पारुल घोष का गाया 'मैं उनकी बन जाऊँ रे' फि़ल्म का सबसे लोकप्रिय गीत साबित हुआ। 'इंसान क्या जो ठोकरें नसीब की न खा सके' (पारुल घोष, अनिल विश्वास), हलका-फुलका 'बिस्तर बिछा दिया है तेरे दर के सामने' (सुरैया, अरुण कुमार), और कर्णप्रिय 'ऐ वादे सबा इठलाती आ मेरा गुंचा-ए-दिल तो सूख गया' (पारुल घोष) जैसे अन्य अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे उल्लेखनीय गीतों के साथ यह फि़ल्म अनिल विश्वास की उपलब्धियों में गिनी जाएगी। 'हमारी बात' का एक और महत्त्व यह है कि इस फि़ल्म में चपरासी की भूमिका में राज कपूर ने फि़ल्मों में अपना पहला रोल किया था। 'किस्मत' (1945) को भी न सिफऱ् 'दूर हटो ऐ दुनिया वालो' बल्कि अनिल विश्वास की संगीतबद्ध रसपूर्ण 'धीरे-धीरे आ रे बादल' (अमीरबाई, अरुण कुमार) के लिए भी याद किया जाता है। प्रदीप पहली बार अनिल विश्वास जैसी बड़ी हस्ती के साथ काम कर रहे थे, और इस गीत को उन्होंने डरते-डरते ही लिखा था। पर अनिल विश्वाास ने भैरवी और एक ताल में इतनी अच्छी धुन बनाई कि खेमचंद प्रकाश ने भी मुक्तकंठ से गीत में सात मात्रा को आठ मात्रा में बदलने की प्रशंसा की। सीटी का भी पहला प्रयोग हमें इसी गीत में मिलता है। इसी प्रकार अपनी बहन पारुल घोष से अनिल विश्वास ने बड़ी मीठी कीर्तन और लोकमिश्रित तजऱ् में 'पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए' इसी फि़ल्म के लिए गवाया। यह इतनी सुंदर धुन थी कि इसका इस्तेमाल वर्षों बाद प्रदीप ने अपने गीत 'पिंजड़े के पंछी रे' के लिए कर डाला। अनिल विश्वास ने ही इस फि़ल्म में स्वरों के सुंदर उतार-चढ़ाव के साथ 'घर-घर में दीवाली है मेरे घर में अँधेरा' (अमीरबाई) रचा था। प्रदीप तो इस गीत के लिए पूरे बावन अंतरे लिख लाए थे—हर अंतरे के भाव अलग-अलग थे। बड़ी मुश्किल से अनिल विश्वास ने अंतरों को छाँटा—तीन हिस्सों में तीन प्रकार के भावों के लिए और फिर इसकी धुन बनाई। स्वयं अनिल विश्वास के अनुसार यह शैली गुलाम हैदर से आई—और इसे शास्त्रीय ढंग से 'स्थायी, अंतरा, संचारी और आभोग' के अनुसार इस गीत में उन्होंने ढाला। पर केवल रवींद्र संगीत का भी ऐसा ही ढाँचा रहा है। अनिल विश्वास पर केवल रवींद्र संगीत ही नहीं बल्कि बंगाल का लोक संगीत भी उतना ही असर करता था। यह 'किस्मत' के ही 'अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया' (अमीरबाई) सुनकर जाना जा सकता है। इस बंगाली शैली के भजन की पृष्ठभूमि में बाउल कीर्तन संगीत का बड़ा सुंदर प्रयोग है। 'किस्मत' के 'हम ऐसा किस्मत को क्या करें' (अमीरबाई, अरुण कुमार, साथी), 'तेरे हुस्न के दिन फिरेंगे' (अरुण कुमार) और भैरवी आधारित 'पिउ पिउ बोल प्राण' (प्रदीप) भी अपने ज़माने के लोकप्रिय गीत रहे थे।
यदि 'किस्मत' में अनिल विश्वास के साथ प्रदीप थे तो 'चार आँखें' (1944) और 'ज्वार भाटा' (1944) में उनका साथ गीतकार और रसपूर्ण रचयिता नरेन्द्र शर्मा ने दिया। 'चार आँखें' के तो शीर्षक संगीत का भी रेकॉर्ड निराला था। तारा, प्रताप के स्वरों में 'आँखों में आँखें डाल दो' के ऑरकेस्ट्रेशन में पार्श्व में घुँघरू के प्रयोग और धुन के अंतरों की बीच बदलाव इस गीत की विशेषता बन गया। तारा के स्वर में दादरा शैली में 'राम करे कहीं नैना ना उलझे' के साथ भी घुँघरू का प्रयोग लाजवाब था। दिलीप कुमार अभिनीत प्रथम फि़ल्म 'ज्वार भाटा' में 'किस्मत' जैसी बात तो नहीं बनी, पर फिऱ भी इस फि़ल्म का एक गीत 'भूल जाना चाहती हूँ भूल पाती ही नहीं' (पारुल घोष, चितलकर) तो अति सुंदर हैं। यह एक ििव इमंज अलग सी रचना है, बंगाली संगीत शैली का प्रभाव भी है और साथ ही वॉयलिन और पियानो के आधुनिक शैली के टुकड़ों से दर्द की अभिव्यक्ति बहुत खूबी से हुई है। 'ज्वार भाटा' के होली गीत 'सा रा रा' में शुद्ध ग्रामीण उल्लास की लाजवाब अभिव्यक्ति भी यादगार रही। दरअसल 'ज्वार भाटा' के गीत भले ही विश्वास के 'किस्मत' के गीतों के समान सुपरहिट न रहे हों, पर विश्वास की लाक्षणिक शैली-जो आगे के वर्षों में स्थापित होती गई-के सभी अवयव कमोबेश इस फि़ल्म के संगीत में हमें मिलते हैं—पूरबी लोकशैली, बंगाली कीर्तन का अंदाज़, पियानो का प्रयोग आदि।
यह वह दौर था जब अधिकांश कलाकार स्टूडियो प्रथा से अलग होकर स्वतंत्र पेशेवर रूप अख्तियार कर रहे थे। अनिल विश्वास भी बॉम्बे स्टूडियो से अलग अब एक स्वतंत्र संगीतकार बने। उनकी संगीतबद्ध मज़हर आर्ट प्रोडक्शन की 'पहली नजऱ' (1945) तो मुकेश के गाए प्रथम अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे पाश्र्वगीत 'दिल जलता है तो जलने दे' के कारण हिंदी फि़ल्म इतिहास में अमर हो चुकी है। निर्माता पहले इस गीत को किसी और से गवाना चाहते थे, पर फि़ल्म के नायक मोतीलाल (जिन्होंने मुकेश को दिल्ली में एक शादी में गाते सुना था और जिनके पास मुकेश दिल्ली से रहने और किस्मत आज़माने आए थे) अड़ गए कि यह गीत या तो वह स्वयं गाएँगे या फिर मुकेश। अनिल विश्वास मुकेश के ख़ैरख्वाह थे ही। इस गीत की रेकॉर्डिंग का समय, कहा जाता है, मुकेश के ज़हन से ही निकल गया था और वे काफ़ी देर से पहुँचे। कहते हैं, इस पर अनिल विश्वास को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने मुकेश को चाँटा मार दिया। मुकेश शर्म से अकेले जाकर फूट-फूटकर रोए, पर उसके बाद उन्होंने इस गीत को सहगल की शैली में ऐसा गाया कि राग दरबारी आधारित इस गीत ने उन्हें रातों-रात विख्यात कर दिया। लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि यह गीत सहगल ने नहीं बल्कि एक नए लड़के ने गाया है। यह तथ्य भी कम रोचक नहीं है कि रेकॉर्डिंग के बाद भी निर्माता इस गीत को फि़ल्म से निकालना चाहते थे। मुकेश को जब यह पता चला तो वे भागे-भागे निर्माता के पास गए, विनती की और बड़ी मुश्किल से निर्माता इसे फि़ल्म में रखने को राजी हुए। आज यदि 'पहली नजऱ' को याद किया जाता है तो इसी गीत के कारण—यह विडम्बना नहीं तो और क्या है! और यह भी विडम्बना देखिए कि 1976 में अमेरिका-कैनेडा की यात्रा पर गए मुकेश के आखिरी शो में पार्श्वगायक के रूप में उनका यह पहला गाना स्टेज पर उनका गाया आखिरी गीत साबित हुआ। स्टेज की उस रेकॉर्डिंग को सुनिए और लगता है जैसे गीत के अंत में 'दिल जलता है' के आरोह में मुकेश मानो ऊँचाई के चरम पर ही पहुँच गए हैं। हालाँकि यह गीत सहगल शैली में था और बहुत लोकप्रिय भी रहा ही, पर फिर भी मुकेश को सहगल की शैली से हटकर अपना अलग अंदाज़ विकसित करने की सलाह अनिल विश्वास ने दी जो आगे चलकर मुकेश को मुकेश के रूप में स्थापित करने में बहुत लाभकारी रही।
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'पहली नजऱ' के अन्य गीत आज़ हमसे खो गए हैं पर तेज रिद्म पर 'तय कर के बड़ी दूर की पुरपेच डगरिया' (मुकेश), 'पहली नजऱ का तीर रे' (मुकेश, नसीम अख्तर), 'जवानी ये भरपूर दिकलश अदाएँ' (मुकेश, नसीम अख्तर) जैसे गीत भी कर्णप्रिय ही थे। अनिल विश्वास के कुछ अच्छे मधुर गीतों में दिलीप कुमार अभिनीत बॉम्बे टॉकीज़ की 'मिलन' (1946) के क्लैरिनेट के सुंदर प्रयोग के साथ 'सुहानी बेरिया बीता जाए' (पारुल घोष), 'मैं किसकी लाज निभाऊँ' (पारुल घोष), भैरवी आधारित 'जिसने बजा दी बाँसुरी' (पारुल घोष), बंगाल की संगीत शैली का स्पर्श लिए 'भूख' (1947) का संजीदा सा 'आँखों में क्यों अश्क' (गीता) और तेज लय में 'देखो हरा हरा वन' (अनिल, शमशाद, साथी), पहाड़ी सी शैली में धीमी लहरों जैसा प्रभाव लिए 'मँझधार' (1947) के 'मेरा चाँद आ गया मेरे द्वारे' (सुरेन्द्र, खुर्शीद), 'नैया' (1947) के ज़ोहराबाई के गाए 'आई मिलन की बहार रे' और 'सावन-भादों नैन हमारे' शामिल किए जा सकते हैं। पर जिन फि़ल्मों से उनको सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, उनमें 'अनोखा प्यार' (1948) का नाम बहुत ऊपर आएगा। दिलीप कुमार और नर्गिस अभिनीत इस फि़ल्म में तो अनिल विश्वास ने खूबसूरत धुनों की झड़ी ही लगा दी। 'याद रखना चाँद-तारो इस सुहानी रात को' की सुंदर धुन तो भुलाए नहीं भूलती। इसे मीना कपूर ने भी गाया है, लता ने भी और मुकेश ने भी। दरअसल फि़ल्म के साउंड ट्रैक पर कई गीत मीना कपूर की आवाज़ में है पर उनके बीमार हो जाने के कारण रेकॉर्ड लता मंगेशकर की आवाज़ में जारी किए गए। ऐसे गीतों में यमन कल्याण पर आधारित 'एक दिल का लगाना बाकी था सो दिल भी लगाकर देख लिया', यमन कल्याण पर ही आधारित 'मेरे लिए वो ग़म-ए-इंतज़ार छोड़ गए', पारम्परिक दादरा ताल पर सृजित 'ऐ दिल मेरी वफ़ा में कोई असर नहीं है' और बेहद कर्णप्रिय 'अब याद न कर भूल जा ऐ दिल वो फ़साना' (मुकेश के साथ) को सुनकर ऐसा लगता है कि लता तो लता थी हीं, पर मीना कपूर भी कुछ कम नहीं थी। इसी आवाज़ पर मोहित होकर अनिल अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे विश्वास ने आगे चलकर अपनी पहली पत्नी आशालता विश्वास के रहते हुए भी मीना कपूर से विवाह किया। वैसे तो बड़ी मीठी सी धुन लिए 'मेरे फूलों में छिपी है जवानी', 'घड़ी-घड़ी पूछो ना जी' और लोक धुन पर आधारित 'भोला भाला री मोरा बलमा' जैसे लता के गीत भी अच्छे ही थे, पर पहले उल्लिखित गीतों के सामने फीके कहे जाएँगे। अलबत्ता मुकेश की परिचित शैली में 'जीवन सपना टूट गया' का स्थायी प्रभाव अभी तक क़ायम है। यह गीत मूलत: विश्वास ने सहगल-नूरजहाँ को लेकर बनने वाली एक फि़ल्म के लिए कम्पोज़ किया था जिसका निर्देशन नूरजहाँ के पति शौकत रिजबी करने वाले थे। पर शौकत के पाकिस्तान जाने के कारण फिल्म खटाई में पड़ गई, और इसी धुन को तब 'अनोखा प्यार' के लिए अनिल विश्वास ने लता और मुकेश से गवा लिया। इस दौर में नौशाद और अनिल विश्वास दोनों ने ही मुकेश के स्वर को दिलीप कुमार के लिए बखूबी इस्तेमाल किया। वैसे भी पर्दे के ट्रैजेडी किंग के लिए पाश्र्वगायन के दर्दीले सुरों के बादशाह की आवाज़ बेमेल तो कभी लग ही नहीं सकती थी, भले ही आगे इस द्वय को एक साथ कम ही प्रस्तुत किया गया हो।
मुकेश इस दौर में बिलकुल चोटी पर तेजी से पहुँच रहे थे, और इस दौर में उनके कई खूबसूरत गीत आए। अनिल विश्वास की संगीतबद्ध 'वीणा' (1948) में उनके गाए तीन दुर्लभ अमूल्य रत्न शामिल हैं। सन् 2000 में एक चैरिटी शो के सिलसिले में नितिन मुकेश जब बैतूल आए तो मैंने उन्हें 'वीणा' का ही 'गोकुल की एक नार छबीली जमुना तट पर आई रे' कैसेट पर बजाकर सुनाया। नितिन इस गीत को पहली बार सुन रहे थे और गीत की अद्भुत रिद्मिक धुन को सुनकर गद्गद हो उठे थे। 'वीणा' में ही गज़लनुमा शैली में कुछ तेज लय का समावेश करते हुए अनिल विश्वास ने मुकेश से 'वो तीखी नजऱों से मेरे दिल पर' बहुत आकर्षक तरीके से गवाया था। मुकेश के स्वर में ही 'मेरे सपनों की रानी रे तू लाखों में लासानी रे' उपरोक्त दोनों गीतों के सामने कुछ कमज़ोर लगता है। 'वीणा' में अनिल विश्वास ने चितलकर उर्फ सी. रामचंद्र से नरेन्द्र शर्मा का लिखा 'कोई श्याम रंग कोई भोरी' भी बड़े मोहक अंदाज़ में गवाया। 'राही चल तू प्रीत नगरिया' (मन्ना डे), विषादभरा सुंदर 'पंछी और परदेसी दोनों नहीं किसी के मीत' (शमशाद) और 'चंद्र किरण के डाल हिंडोले' (शमशाद) जैसे सुंदर गीत भी 'वीणा' में थे, पर 'पंछी और परदेसी' को छोड़कर अधिक लोकप्रियता इस फि़ल्म के संगीत को नहीं मिली। 'वीणा' ही वह अंतिम फि़ल्म थी जिसमें अनिल विश्वास और नरेन्द्र शर्मा ने एक साथ काम किया।
सुरैया, मोतीलाल अभिनीत 'गजरे' (1948) का अनिल विश्वास का संगीत अधिक लोकप्रिय रहा, विशेषकर सुरैया का गाया 'दूर पपीहा बोला रात आधी रह गई' और सुरों के बेहतरीन परिवर्तन और ऑरकेस्ट्रा के सुसंगत प्रयोगवाला 'कब आओगे बालमा बरस-बरस बदली भी बिखर गई' (लता)। 'अंदाज़' की रेकॉर्डिंग की तरह 'बरस-बरस बदली' की रेकॉर्डिंग पर भी राज कपूर मौजूद थे, और लता के अनुसार तो इसी गीत से प्रभावित होकर (हालाँकि 'अंदाज़' के गीतों का प्रभाव भी रहा ही होगा) राज कपूर ने 'बरसात' के लिए गाने का लता को आमंत्रण भेजा था। बहरहाल, धीमी लय में 'घर यहाँ बसाने आए थे' (लता), कर्णप्रिय 'प्रीतम तेरा मेरा प्यार' (लता), विरह की धीमी लहरों को बिखेरती 'कब तक करेगी जि़ंदगी' (लता), रसपूर्ण 'ओ दुपट्टा रंग दे मेरा रंगरेज' (सुरैया), 'जलने के सिवा मन क्या है यहाँ' (सुरैया) जैसे फि़ल्म गीत भी अनिल विश्वास के सहज लावण्य की छटा बिखेरते चलते हैं।
सुरैया, देव आनंद अभिनीत चर्चित फि़ल्म मोहन सिन्हा निर्देशित 'जीत' (1949) में श्यामबाबू पाठक के साथ अनिल विश्वास भी संगीतकार थे। लता का गाया मुरकियों से भरा 'हँस ले गा ले ओ चाँद' खूब लोकप्रिय रहा था। राजनीतिक-सामाजिक चेतना के प्रति विश्वास की प्रतिबद्धता दिखाने वाला गीत 'चाहे कितनी कठिन डगर' भी इसी फि़ल्म में था। वहीं 'गजऱे' की तरह सुरैया भी 'तुम मीत मेरे तुम प्राण मेरे' और 'कुछ फूल खिले अरमानों के' की प्रणय संवेदनाओं के साथ खूब जमी हैं। लता के स्वर की मिठास इस दौर में बड़ी लुभावनी लगती है—'मस्त पवन है चंचल धारा' में तो यह अपने चरम पर है। वहीं 'गल्र्स स्कूल' (1949) में दो संगीतकार थे—सी. रामचंद्र और अनिल विश्वास। दोनों ही शीर्षस्थ। पर सी. रामचंद्र के चुलबुले फड़कते गीतों के बीच भी अनिल विश्वास की कमसिन प्रेम भरी धुन 'नये रास्ते पे हमने रखा है कदम' (लता) अपना प्रभाव छोडऩे में सफल रही। 'गल्र्स स्कूल' के लिए ही अनिल विश्वास ने पहली बार लता को रेकॉर्ड किया था—'तुम्हीं कहो मेरा मन क्यों रहे उदास' के लिए—भले ही फि़ल्म 'अनोखा प्यार', 'गजरे' आदि के बाद रिलीज़ हुई हो।
लता मंगेशकर भी यह मानती हैं, रेकॉर्डिंग के समय इस तरह साँस लेना कि उसकी आवाज़ माइक्रोफ़ोन में न आए, यह उन्होंने अनिल विश्वास से ही सीखा। ऑरकेस्ट्रा के बीच आवाज़ के इंद्राज़ और फिर उसके फ़ेड आउट की ऐसी तकनीक कि साँस सुनाई न दे और ऑरकेस्ट्रा के प्रवाह में कोई कमी न आए, लता को अनिल विश्वास से ही मिली। लता के उच्चारण को बोलों के हिसाब से विकसित करने और मराठी लहजे से मुक्ति दिलाने में भी अनिल विश्वास का बड़ा योगदान था। मुकेश की तरह लता को भी नूरजहाँ के प्रभाव से मुक्त कराकर उनकी स्वतंत्र शैली विकसित कराने में अनिल विश्वास का ही सबसे बड़ा हाथ था। अनिल विश्वास ही वह संगीतकार थे जिन्होंने कभी यह बयान दिया था कि 'लता की आवाज़ में आत्मा है जब कि आशा की आवाज में शरीर'। लेकिन इस सब के बावजूद लता ने 1967 की अपनी पसंदीदा 10 गानों की फेहरिस्त में विश्वास का एक भी गीत नहीं रखा—कारण क्या था, यह तो विचार का ही विषय होगा वरना भले ही अपनी पत्नी मीना कपूर को भी विश्वास ने कई सुंदर गीत दिए हों, पर यह तो उन्होंने लता के लिए ही कहा था कि फिल्म-जगत में एक बार जब लता आ गईं तो फिर वे जटिल से जटिल रचनाएँ भी इस आत्मविश्वास से कम्पोज़ कर सकते थे कि लता उन्हें सहजता से गाने में पूर्णत: सक्षम रहेंगी। लता के गाए 'लाडली' (1949) के गीतों में गुरु अनिल विश्वास और शिष्या लता की युगल जोड़ी माधुर्य और सटीकता के उत्कर्ष पर है। भैरवी आधारित 'तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है' की मिठास तो आज तक कम नहीं हुई है। पियानो की तरंगों पर सजे इस गीत को कई श्रोता तो लता के साथ अनिल विश्वास का सर्वश्रेष्ठ गीत मानते हैं। यह गीत फि़ल्म के अन्य गीतों पर भारी पड़ता है वरना ढोलक के सुंदर प्रयोग वाला 'जि़ंदगी की रोशनी तो खो गई' (लता), चुलबुले भाव वाला 'कैसे कह दूँ बजरिया के बीच' (लता) और बेहद लोकप्रिय और प्रभावशाली 'आँखें कह गईं दिल की बात' (बातिश) भी इसी फि़ल्म की सुंदर प्रस्तुतियांँ थीं, जो 'तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है' की लावण्य-भरी विराटता के आगे दब-सी गईं।
तलत महमूद को भी बंबई की फि़ल्मी दुनिया में स्थापित करने का श्रेय भी अनिल विश्वास को ही जाता है। तलत कलकत्ते में तो गा चुके थे, पर शाहिद लतीफ़ निर्देशित 'आरज़ू' (1950) के लिए वे पहली बार बंबई की फि़ल्मी दुनिया में कदम रख रहे थे। तलत अपनी आवाज़ की जिस लजिऱ्श या कम्पन के लिए जाने जाते हैं, उसे कायम रखने की सलाह भी अनिल विश्वास ने ही दी थी, वरना दूसरों के कहने पर तलत अपने स्वर की स्वाभाविक कम्पन को दबाने में लग गए थे। और तलत का बंबई की फि़ल्मी दुनिया का वह पहला गीत भी क्या लाजवाब बना था! 'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो' के साथ तो तलत रातोंरात लोगों के दिलों में बैठ गए। दरबारी के सुरों के साथ तलत की आवाज़ की वह भावुक लजिऱ्श इस गीत को बेमिसाल बना गई। आज भी इसे एक बार सुनकर मन नहीं भरता—बार-बार सुनने को जी चाहता है।
आसावरी थाट के राग अनिल विश्वास के चहेते रहे हैं और 'आरज़़ू' (1950) का 'कहाँ तक हम उठाए ग़म' (लता) का शिल्प और हुनर इस तथ्य को भली भाँति रेखांकित करता है। क्या कशिश-भरी धुन है इसकी भी! 'आरज़़ू' के गीत बड़े मीठे थे। बाँसुरी की तानों के बीच 'मेरा नरम करेजवा डोल गया' (लता) धीमी लहराती तजऱ् लिए 'उन्हें हम जो दिल से' (लता), प्यार—भरे निवेदन के बीच बाँसुरी के मीठे छितराए टुकड़ों वाले 'आँखों से दूर जा के जाना न दिल से दूर' (लता) और 'आई बहार जिया डोले' (लता, साथी) इसके बहुत अच्छे उदाहरणों में गिने जाएँगे। अनिल विश्वास के स्वर में 'हमें मार चला ये खय़ाल ये ग़म' नौटंकी शैली का जबर्दस्त गीत था जो आज दुर्भाग्य से भुला दिया गया है। इसके अलावा तीन भागों में एक बहुत अच्छा स्टेज ड्रामा भी संगीत की विभिन्न शैलियों को समाहित करते हुए कम्पोज़ किया गया था—'जाओ सिधारो...लो ये आफ़त भी टली ...अपने पहलू में समझता था कि दिल रखती है तू' (शमशाद, बातिश, मुकेश, साथी)। इसी प्रकार 'बेकसूर' (1950) में भी कव्वालीनुमा 'ख़बर किसी को नहीं वो किधर को देखते हैं' (दुर्रानी, मुकेश, रफ़ी, साथी) भी बहुत आकर्षक कम्पोज़ीशन थी। पर अधिक मक़बूल हुई लता की गाई मिठास-भरी तीन धुनें—लोकशैली का ताल पक्ष पर जोर डालता अति सुंदर 'हुए उनसे नैना चार अब मैं क्या करूँ', मुजरा शैली में 'मतवाले नैनों वाले मैं वारी वारी जाऊँ', और शास्त्रीय रंग लिए हुए भैरव आधारित 'आई भोर सुहानी आई'। 'मतवाले नैनों वाले के मैं' गीत के पहले लता के स्वर में वही पँक्तियाँ हैं जो वर्षों बाद 'अनीता' में मुकेश के गाए गीत का मुखड़़ा बना—'गोरे-गोरे चाँद से मुख पर काली-काली आँखे हैं...'। आरज़ू लखनवी का क़लाम आनंद बख्शी का गीत बन गया।
'लाजवाब' (1950) में भी लता के कई गीत थे, पर सबसे मशहूर रहे लता-मुकेश का बेहतरीन ऑरकेस्ट्रेशन के साथ वाल्ट्ज की शैली में सदाबहार दर्दीला दोगाना 'ज़माने का दस्तूर है ये पुराना' और मीना कपूर के स्वर में बेहद मोहक सी कशिश लिए 'जब कारी बदरिया छाएगी और याद तेरी तड़पाएगी' जिसे अनिल विश्वास ने पूरब अंग में कम्पोज़ किया था। 'डिंगू नाचे रे गोरी डिंगू' (लता, अनिल विश्वास, साथी) भी लोकशैली की एक अच्छी रचना थी।
अनिल विश्वास ने अपनी आग़ामी फि़ल्मों में भी लता और मीना कपूर दोनों को ही बराबर का मौका दिया। अच्छी गायिका के अलावा मीना कपूर का व्यक्तिगत मोह तो था ही, और लता से तो कोई संगीतकार अलग रहना ही नहीं चाहता था। इसी प्रकार पुरुष गायकों में मुकेश और तलत अनिल विश्वास के पसंदीदा गायक बने रहे। डी.डी. कामथ की देव आनंद अभिनीत 'आराम' (1951) में एक तरफ़ पियानो और हारमोनियम की बेहतरीन संगत के साथ 'शुक्रिया ऐ प्यार, तेरा शुक्रिया' को लेकर तलत थे (पर्दे पर भी यह गीत तलत पर ही फि़ल्माया गया था) तो दूसरी ओर बड़ी दिलक़श सी धुन और आकर्षक अंदाज़ में 'ऐ जाने जिग़र दिल में समाने आ जा' के साथ मुकेश थे और इन सबके साथ इठलाती अदा के साथ 'रूठा हुआ चंदा है रूठी हुई चाँदनी', 'मन 'सीने में सुलगते हैं' की रेकॉर्डिंग पर अनिल विश्वास लता और तलत के साथ अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे में किसी की प्रीत बसा ले', काउंटर मेलोडी के इस्तेमाल के साथ 'मिल- मिलकर बिछड़ गये नैन' और जौनपुरी आधारित 'बालमवा नादान' जैसे लोकप्रिय गीतों को लेकर लता थीं। अनिल विश्वास के फि़ल्म निर्माण के क्षेत्र में पदार्पण को इंगित करती 'वेरायटी प्रोडक्शन्स' की आशालता विश्वास (उनकी पत्नी) द्वारा निर्मित 'बड़ी बहू' (1951) में पन्नालाल घोष की सुंदर शैली के इंटरल्यूड्स के साथ पंजाबी लोक 'बोलियाँ' की शैली पर 'काहे नैनों में कजऱा भरो' (लता, मुकेश), चाल की अलमस्ती को अभिव्यक्त करता अनूठे ताल में 'प्यार की राह पर क्या भटकने का डर' (लता, मुकेश), और मीठी-सी लोक धुन लिए 'निंदिया आई रे, नन्ही को मोरी' (राजकुमारी) तथा 'बदली तेरी नजऱ तो नज़ारे बदल गए' (लता) जैसे गीत भी खूब लोकप्रिय रहे थे। वहीं सुरैया, देव आनंद अभिनीत 'दो सितारे' (1951) में जलतरंग के सुंदर प्रयोग वाला 'मेरे दिल की धड़कन में ये कौन समा गया' (सुरैया), भड़कती रिद्म पर उछलती-कूदती लता की आवाज़ में 'इधर खो गया या उधर खो गया' या सुरैया के स्वर में 'मुझे तुमसे मुहब्बत है मगर अब तक कहाँ हो तुम' की आकर्षक धुनें भी अच्छी चली थीं। मीना कपूर और साथियों के स्वर में 'दे दे कन्हैया' लोकधुन पर आकर्षक रचना थी।
तलत अनिल विश्वास के लिए उतने ही प्रिय हो चले थे, जितने मुकेश। 'दोराहा' के गीत पहले रफ़ी के स्वर में रेकॉर्ड कराए गए थे पर हीरो शेखर के कथानक के हिसाब से उभरे चरित्र में जो नरमी, जो आभिजात्य आना चाहिए था, वह रफ़ी के स्वर में अनिल विश्वास नहीं खोज पाए। इसलिए वे गीत तलत के स्वर में पुन: रेकॉर्ड कराए गए, और 'दिल में बसा के मीत बना के' तथा 'तेरा खय़ाल दिल से भुलाया नहीं अभी' को आज सुनकर लगता है कि इन्हें तलत से बेहतर कोई गा ही नहीं सकता था। जो दर्द, जो संगीत के साथ अपनी कम्पित आवाज़ का तादात्म्य तलत स्थापित करते हैं, वह अनूठा ही है। 'दोराहा' का राग मल्हार की छाया लिए एक अन्य बेहद खूबसूरत गीत है 'मुहब्बत तर्क की मैंने' (तलत)। इस गीत का ऐतिहासिक महत्त्व भी है, क्योंकि सम्भवत: यह फि़ल्मों में साहिद लुधियानवी की लिखी पहली नज़्म है। दरअसल अनिल विश्वास ने रफ़ी को कभी भी अपने गीतों के लिए उपयुक्त नहीं समझा। बकौल उनके रफ़ी की खुली, उन्मुक्त आवाज़ उनके नर्म कोमल भावों को अभिव्यक्त करने के लिए उपयुक्त नहीं थी। यही कारण है कि दिलीप कुमार के लिए 'तराना' (1951) में उनकी आवाज़ बनकर तलत आए और क्या खूब आए! राम दरयानी की निर्देशित इस चर्चित फि़ल्म का संगीत तो आज तक सुपरहिट है—विशेषकर यमन कल्याण पर आधारित तलत (लता के साथ) के दर्दीले सोज़-भरे स्वर में 'सीने में सुलगते हैं अरमाँ'। यह गीत तलत के सर्वश्रेष्ठ गीतों में हमेशा ही शुमार होता रहेगा। इस गीत के सामने 'तराना' के अन्य उत्कृष्ट गीतों भी नहीं ठहर पाते वरना 'नैन मिले नैन हुए बावरे' (लता, तलत) की मदहोश करती तजऱ्, काफ़ी थाट पर आधारित 'बेईमान तोरे नैनवा' (लता) का शिल्प, 'एक मैं हूँ एक मेरी बेबसी' (तलत) और 'वो दिन कहाँ गए बता' (लता) का दर्द, 'मोसे रूठ गयो मोरा साँवरिया' (लता) और 'यूँ छुम-छुम के मेरा आना' (लता) की मिठास किसी भी तरह से कमतर नहीं थे। 'आराम' और 'तराना' फि़ल्मों के ऑरकेस्ट्रा के लिए अनिल विश्वास ने ए.बी. अल्ब्युकर्क, पीटर डोरैडो तथा राम सिंह (जिसे ए.आ.पी. पार्टी के नाम से जाना जाता था) जैसे गोवा के वादकों से बजवाया था। गोवा से फि़ल्म संगीत में कई वादक इस दौर में आए थे। दरअसल गोवा में संगीत लिपि भी शासकीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम में विषय के रूप में शामिल थी।
यह अफ़सोसजनक है कि तलत और मुकेश दोनों ने ही कम गीत गाए, वरना अनिल विश्वास के साथ हमें उनके और भी कई लाजवाब गीत सुनने की इच्छा तो होती है। तलत के स्वर में सुरैया के साथ उनकी अभिनीत 'वारिस' (1959) के गीत तो आज तक लोकप्रिय हैं। धीमी लय में मेलोडी से भरी गज़ल 'कभी है ग़म कभी खुशियाँ' (तलत), सितार के सुंदर प्रयोग के साथ गज़ल शैली में ही अति सुंदर 'दूर होते नहीं जो दिल में रहा करते हैं' (सुरैया, तलत), सुंदर ऑरकेस्ट्रेशन के साथ 'घर तेरा अपना घर लागे' (सुरैया, तलत), मुजरा शैली में गाई राजकुमारी की प्रसिद्ध ठुमरी 'सौतन घर न जा' और सबसे बढ़कर आज तक उतना ही लोकप्रिय रवींद्र संगीत पर आधारित 'राही मतवाले तू छेड़े इस बार' (तलत, सुरैया) इसके अनन्य उदाहरण हैं। अप्रदर्शित 'जासूस' में भी अनिल विश्वास से तलत एक बहुत ही सुकोमल सरस गीत गवाया था—'जीवन है मधुवन तू इसमें फूल खिला'। इस गीत की नर्म कम्पोज़ीशन को तो आज भी संगीतप्रेमी याद करते हैं। पियानो का प्रयोग इस गीत में बहुत ही सुंदर लगता है। मुकेश तो इस दौर में फि़ल्म-निर्माण के चक्कर में पाश्र्वगायन से लगभग दूर से ही गए थे और इस कारण हम अनिल विश्वास और मुकेश के साथ के बहुत से सम्भावित गीतों से वंचित रह गए। इस दौर में बस 'मान' (1954) में मुकेश और अनिल विश्वास एक साथ आए और 'दम भर का था दौर खुशी का' मुकेश की विशिष्ट शैली में आज तक लोकप्रिय है।
पर इस दौर की अनिल विश्वास की तीन सर्वाधिक उल्लेखीन फि़ल्मों—'हमदर्द' (1953), 'महात्मा कबीर' (1954) और 'फरेब' (1953)—में गायक तलत या मुकेश न होकर मन्ना डे और किशोर कुमार थे। 'हमदर्द' (1953) तो शास्त्रीय संगीत आधारित कम्पोज़ीशन्स के लिए हिंदी फि़ल्म संगीत के इतिहास में अमर हो चुकी है। स्वयं अनिल विश्वास की ही प्रोडक्शन 'वेरायटी प्रोडक्शन्स' (निर्मात्री—आशालता विश्वास) के बैनर तले बनी इस फि़ल्म में 'ऋतु आए ऋतु जाए सखी री' (मन्ना डे, लता) एक बेहतरीन रागमाला थी, जिसमें खय़ाल अंग का प्रयोग था और गौड़ सारंग, गौड़ मल्हार, जोगिया और बहार पर आधारित लाजवाब टुकड़े थे। कम्पोज़ीशन और गायकी के इतने सुंदर उदाहरण फि़ल्म संगीत में कम ही मिलते हैं। मन्ना डे के दो और बेजोड़ गीत इसी फि़ल्म से हैं—शास्त्रीय रंग पर द्रुत लय के ऑरकेस्ट्रेशन के इंटरल्यूड्स के साथ 'मेरे मन की धड़कन में कोई नाचे' और गज़ल शैली में मजरूह का अति सुंदर कलाम 'तेरा हाथ हाथों में आ गया'। लता का गाया दादरा ताल पर सृजित और सुंदर 'उधर तेरी नजऱ बदली' और मन्ना डे, साथियों की कव्वाली 'न तो हमसा ज़माने में', 'हमदर्द' के लाजवाब गीतों के अन्य उदाहरण हैं। 'तेरे नैना रसीले कटीले' (मन्ना डे), 'सपने तुझे बुलाएँ' (गीता), 'तेरे सब ग़म मिले' (लता) भी बड़े अच्छे गीत थे। 'हमदर्द' में विश्वास ने खय़ाल, गज़ल, रवीन्द्र संगीत, सुगम संगीत, कव्वाली—सभी विधाओं का प्रयोग किया था। इस फिल्म में पं. रामनारायण ने सारंगी बजाई थी। 'महात्मा कबीर' में पुन: मन्ना डे के स्वर में 'झीनी झीनी रे बीने चदरिया', 'घूँघट का पट खोल रे', 'बाबुल मोरा नैहर', 'मनुआ तेरा दिन-दिन बीता जाए' और 'सतगुरु मोरा रगरे ँ ज' (अनिल विश्वास के साथ) जैसी रचनाएँ निर्गुण भक्ति की एक बेहद प्रभावशाली संगीत धारा का सृजन करती हैं। फि़ल्म संगीत में कबीर के दोहों, भजनों का इतना सुंदर उदाहरण फिर नहीं मिलता है। सी.एच. आत्मा के स्वर में 'राम रस बरसे रे मन' चंद्रशेखर पांडे द्वारा लिखा गया था और अपने ज़माने में बेहद लोकप्रिय रहा था। 'मोरे मंदिर अब...घूँघट का पट' आशा और मन्ना डे के द्वारा राग जयजयवंती की बहुत सुंदर रसपूर्ण प्रस्तुति थी। अनिल विश्वास के संगीत की एक और विशिष्टता थी—बंगाली कीर्तन की ताल का प्रयोग। यह और भी दिलचस्प है कि इस ताल का प्रयोग उन्होंने कीर्तन गीतों के अलावा अन्य भावों के गीतों के लिए भी किया—उदाहरण के तौर पर 'फऱेब' का 'मेरे मन में समा', 'बड़ी बहू' का 'रमैया बिन नींद न आवे', 'दो सितारे' का 'सो जा रे सो जा', 'मेहमान' का 'आँखों में चितचोर समाए' और 'संस्कार' के 'दिल शाम में डूबा जाता है' के पृष्ठभूमि संगीत का जिक्र किया जा सकता है।
शाहिद लतीफ़ और इस्मत चुगतई की निर्देशित 'फरेब' (1953) के हीरो किशोर कुमार थे और ज़ाहिराना तौर पर गीत उनके ही स्वर में थे। नर्म और मुलायम अंदाज़ के दो लोकप्रिय गीत—'हुस्न भी है उदास उदास' और 'आ मुहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम' (लता के साथ), इस फि़ल्म की दो उत्कृष्ट उपलब्धियाँ रही हैं—शास्त्रीय आधार लेकर उसका इतना सुगम रूपांतर और वॉयलिन का कोमल उपयोग 'आ मुहब्बत की बस्ती' में शायद अनिल विश्वास से बेहतर कोई नहीं ला सकता था। लता के स्वर में 'जाओगे ठेस लगा के बहुत' भी अत्यंत सुंदर रचना थी।
यह अफ़सोसजनक है कि तलत और मुकेश दोनों ने ही कम गीत गाए, वरना अनिल विश्वास के साथ हमें उनके और भी कई लाजवाब गीत सुनने की इच्छा तो होती है। तलत के स्वर में सुरैया के साथ उनकी अभिनीत 'वारिस' (1959) के गीत तो आज तक लोकप्रिय हैं। धीमी लय अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे में मेलोडी से भरी गज़ल 'कभी है ग़म कभी खुशियाँ' (तलत), सितार के सुंदर प्रयोग के साथ गज़ल शैली में ही अति सुंदर 'दूर होते नहीं जो दिल में रहा करते हैं' (सुरैया, तलत), सुंदर ऑरकेस्ट्रेशन के साथ 'घर तेरा अपना घर लागे' (सुरैया, तलत), मुजरा शैली में गाई राजकुमारी की प्रसिद्ध ठुमरी 'सौतन घर न जा' और सबसे बढ़कर आज तक उतना ही लोकप्रिय रवींद्र संगीत पर आधारित 'राही मतवाले तू छेड़े इस बार' (तलत, सुरैया) इसके अनन्य उदाहरण हैं। अप्रदर्शित 'जासूस' में भी अनिल विश्वास से तलत एक बहुत ही सुकोमल सरस गीत गवाया था—'जीवन है मधुवन तू इसमें फूल खिला'। इस गीत की नर्म कम्पोज़ीशन को तो आज भी संगीतप्रेमी याद करते हैं। पियानो का प्रयोग इस गीत में बहुत ही सुंदर लगता है। मुकेश तो इस दौर में फि़ल्म-निर्माण के चक्कर में पाश्र्वगायन से लगभग दूर से ही गए थे और इस कारण हम अनिल विश्वास और मुकेश के साथ के बहुत से सम्भावित गीतों से वंचित रह गए। इस दौर में बस 'मान' (1954) में मुकेश और अनिल विश्वास एक साथ आए और 'दम भर का था दौर खुशी का' मुकेश की विशिष्ट शैली में आज तक लोकप्रिय है।
पर इस दौर की अनिल विश्वास की तीन सर्वाधिक उल्लेखीन फि़ल्मों—'हमदर्द' (1953), 'महात्मा कबीर' (1954) और 'फरेब' (1953)—में गायक तलत या मुकेश न होकर मन्ना डे और किशोर कुमार थे। 'हमदर्द' (1953) तो शास्त्रीय संगीत आधारित कम्पोज़ीशन्स के लिए हिंदी फि़ल्म संगीत के इतिहास में अमर हो चुकी है। स्वयं अनिल विश्वास की ही प्रोडक्शन 'वेरायटी प्रोडक्शन्स' (निर्मात्री—आशालता विश्वास) के बैनर तले बनी इस फि़ल्म में 'ऋतु आए ऋतु जाए सखी री' (मन्ना डे, लता) एक बेहतरीन रागमाला थी, जिसमें खय़ाल अंग का प्रयोग था और गौड़ सारंग, गौड़ मल्हार, जोगिया और बहार पर आधारित लाजवाब टुकड़े थे। कम्पोज़ीशन और गायकी के इतने सुंदर उदाहरण फि़ल्म संगीत में कम ही मिलते हैं। मन्ना डे के दो और बेजोड़ गीत इसी फि़ल्म से हैं—शास्त्रीय रंग पर द्रुत लय के ऑरकेस्ट्रेशन के इंटरल्यूड्स के साथ 'मेरे मन की धड़कन में कोई नाचे' और गज़ल शैली में मजरूह का अति सुंदर कलाम 'तेरा हाथ हाथों में आ गया'। लता का गाया दादरा ताल पर सृजित और सुंदर 'उधर तेरी नजऱ बदली' और मन्ना डे, साथियों की कव्वाली 'न तो हमसा ज़माने में', 'हमदर्द' के लाजवाब गीतों के अन्य उदाहरण हैं। 'तेरे नैना रसीले कटीले' (मन्ना डे), 'सपने तुझे बुलाएँ' (गीता), 'तेरे सब ग़म मिले' (लता) भी बड़े अच्छे गीत थे। 'हमदर्द' में विश्वास ने खय़ाल, गज़ल, रवीन्द्र संगीत, सुगम संगीत, कव्वाली—सभी विधाओं का प्रयोग किया था। इस फिल्म में पं. रामनारायण ने सारंगी बजाई थी। 'महात्मा कबीर' में पुन: मन्ना डे के स्वर में 'झीनी झीनी रे बीने चदरिया', 'घूँघट का पट खोल रे', 'बाबुल मोरा नैहर', 'मनुआ तेरा दिन-दिन बीता जाए' और 'सतगुरु मोरा रगरे ँ ज' (अनिल विश्वास के साथ) जैसी रचनाएँ निर्गुण भक्ति की एक बेहद प्रभावशाली संगीत धारा का सृजन करती हैं। फि़ल्म संगीत में कबीर के दोहों, भजनों का इतना सुंदर उदाहरण फिर नहीं मिलता है। सी.एच. आत्मा के स्वर में 'राम रस बरसे रे मन' चंद्रशेखर पांडे द्वारा लिखा गया था और अपने ज़माने में बेहद लोकप्रिय रहा था। 'मोरे मंदिर अब...घूँघट का पट' आशा और मन्ना डे के द्वारा राग जयजयवंती की बहुत सुंदर रसपूर्ण प्रस्तुति थी। अनिल विश्वास के संगीत की एक और विशिष्टता थी—बंगाली कीर्तन की ताल का प्रयोग। यह और भी दिलचस्प है कि इस ताल का प्रयोग उन्होंने कीर्तन गीतों के अलावा अन्य भावों के गीतों के लिए भी किया—उदाहरण के तौर पर 'फऱेब' का 'मेरे मन में समा', 'बड़ी बहू' का 'रमैया बिन नींद न आवे', 'दो सितारे' का 'सो जा रे सो जा', 'मेहमान' का 'आँखों में चितचोर समाए' और 'संस्कार' के 'दिल शाम में डूबा जाता है' के पृष्ठभूमि संगीत का जिक्र किया जा सकता है। शाहिद लतीफ़ और इस्मत चुगतई की निर्देशित 'फरेब' (1953) के हीरो किशोर कुमार थे और ज़ाहिराना तौर पर गीत उनके ही स्वर में थे। नर्म और मुलायम अंदाज़ के दो लोकप्रिय गीत—'हुस्न भी है उदास उदास' और 'आ मुहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम' (लता के साथ), इस फि़ल्म की दो उत्कृष्ट उपलब्धियाँ रही हैं—शास्त्रीय आधार लेकर उसका इतना सुगम रूपांतर और वॉयलिन का कोमल उपयोग 'आ मुहब्बत की बस्ती' में शायद अनिल विश्वास से बेहतर कोई नहीं ला सकता था। लता के स्वर में 'जाओगे ठेस लगा के बहुत' भी अत्यंत सुंदर रचना थी।
यह अफ़सोसजनक है कि वह राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा जिसके संगीत पक्ष का विश्वास पाँचवें दशक में प्रतिनिधित्व करते थे, अब उनके संगीत से लुप्त-सी हो गई। उस प्रकार की फि़ल्में एक तो स्वतंत्रता उपरांत कम बनने लगी थीं, क्योंकि नई-नई प्राप्त स्वतंत्रता का उत्साह और आशाओं की लहर ने कुछ अरसे तक समाज में व्याप्त विसंगतियों, वर्ग-विभेद, कुरीतियों आदि के आक्रोश को कुछ हद तक दबाए रखा, पर वक्त के साथ-साथ मोहभंग भी तेजी से होने लगा और सामाजिक विडम्बनाओं, आर्थिक विषमताओं को प्रकट करनेवाली फि़ल्मों और फि़ल्म-निर्माताओं को पुन: कुछ जगह मिलने लगी। ख्वाजा अहमद अब्बास की 'आकाश' (1953), 'राही' (1953) और गीतविहीन 'मुन्ना' (1954) जैसी फि़ल्मों में पुन: अनिल विश्वास को बतौर संगीतकार चुना गया। 'आकाश' में अनिल विश्वास ने शंकर दासगुप्ता से 'अजीब है जि़ंदगी की मंजिल' जैसे सुंदर गीत गवाए, मीना कपूर से भी पियानो के हलके सुरों पर पाश्चात्य शैली में 'भीगी भीगी रात आई' और 'मेरे दिल के गीत चुप के' जैसे कर्णप्रिय गीत गवाए, और इन सबसे बढ़कर नीची पट्टी पर लता के स्वर 'वारिश' में तलत और सुरैया में 'सो गई चाँदनी, जाग उठी बेकली' और 'सारा चमन था अपना' जैसे प्रभावशाली गीतों की सृष्टि की। मुल्क राज आनंद के उपन्यास पर बनी फि़ल्म 'राही' (1953) के संगीत में राजनीतिक-सामाजिक चेतना का पहलू अधिक मुखर था। लंबा गीत 'एक कली और पतियाँ...क्या क्या जुल्म हमपे ढाए रे विदेसिया...हमारे भी तो दिन हैं आने वाले...मशाल से मशाल जलाकर निकले' (हेमंत, लता, मीना, साथी) में हालाँकि प्रतीक विदेशी सत्ता का था, पर भोजपुरी लोकशैली के भिन्न प्रकारों से सँवारे इस गीत में जुल्म और सत्ता के विरुद्ध जिन सुंदर लाक्षणिक भावाभिव्यक्ति का प्रयोग किया गया था उनमें कई दूरगामी राजनीतिक चेतनाएँ निहित थीं। मार्चिंग सांग की बीट के बीच बाँसुरी के सुंदर मीठे टुकड़ों के संयोजन से सृजित 'ये जि़ंदगी है इक सफऱ' (हेमंत), अपने ज़माने में बेहद लोकप्रिय रहा। पंजाब की लोक धुन पर आधारित 'ओ जाने वाले राही इक पल रूक जाना' (लता) जैसे गीतों में भी अनिल विश्वास एक लम्बे अंतराल के बाद फिर अपनी चिर परिचित भारतीय ंअंदज हंतकम की ज़मीन पर लगते हैं। 'जालियाँवाला बाग की ज्योति' (1954) का 'मत रो धरतीमाता' (समूह गीत) भी इसी शैली का गीत था। वैसे 'राही' का सबसे लोकप्रिय गीत 'राही मतवाले, तू छेड़ इक बार मन का सितार' (तलत, सुरैया) अनिल विश्वास ने रवींद्र संगीत पर आधारित किया था और इसकी मधुर धुन आज तक लोगों के बीच गाई-गुनगुनाई जाती है।1 चाँद सो गया तारे सो गए' जैसी मधुर लोरी भी इसी फि़ल्म में थी जिसे विश्वास ने पूर्वोत्तर की खासी जनजाति की लोकधुन पर आधारित किया था। इसी प्रकार 'मुन्ना' हालाँकि गीतविहीन फि़ल्म थी, पर अनिल विश्वास ने इस फि़ल्म में अलग-अलग पात्रों के चरित्र को उभारने के लिए अलग-अलग वाद्यों को चुनकर एक नया प्रयोग किया।
पर यह भी सच है कि शंकर-जयकिशन, ओ.पी.नैयर और सचिन देव बर्मन की बढ़ती लोकप्रियता के बीच अनिल विश्वास की कुछ सुंदर रचनाओं के साथ श्रोताओं ने उतना न्याय नहीं किया जितना होना चाहिए था। 'मेहमान' (1954) का सुकोमल 'मन का पंछी मस्त पवन में उड़ता झोंके खाए' (मीना कपूर) और मेलोडी भरा 'आती है लाज' (लता), 'मान' (1954) का कशिश भरा 'मैं क्या करूँ रुकती नहीं अश्कों की रवानी' (मीना कपूर), राग देस पर आधारित 'मेरे प्यार में' (लता) तथा सामाजिकता से चैतन्य गीत 'ये पहाड़...कह दो कि मुहब्बत से', फ़णि मजुमदार द्वारा निर्देशित फऱार' (1957) का 'इक नया तराना, इक नया फ़साना' (गीता), 'पैसा ही पैसा' (1956) के किशोर के स्वर की पूरी संभावनाओं को प्रत्यक्ष करता 'पैसे का मंतर, पैसे का जंतर' और लता, साथियों के स्वर में नतृ्यात्मक 'पायल मोरी बाजे', महेश कौल की निर्देशित 'अभिमान' (1952) के घरेलू 'घर की रानी हूँ जी' (गीता) और शगारयु ृं क्त 'कल रात पिया ने बात कही कुछ ऐसी' (गीता) जैसे गीत आए-गए होकर ही रह गए। छठे दशक के मध्य से ही अनिल विश्वास को मिलनेवाली फि़ल्मों की संख्या भी तेजी से घटने लगी थी। वैसे 'मान' फि़ल्म में अनिल विश्वास का कम्पोज़ किया सुंदर-सा एक गीत था—'अल्लाह भी है मल्लाह भी है, कश्ती है कि डूबी जाती है' (लता)। दरअसल यह गीत अनिल विश्वास ने 'मुग़ल-ए-आज़म' के लिए रेकॉर्डकिया था। के.आसिफ़ ने 'मुगल-ए-आज़म' की योजना बहुत पहले ही बनाई थी, और बतौर संगीतकार गोविंदराम और फिर अनिल विश्वास को चुना था। पर जब 'मुगल-ए-आज़म' का निर्माण रुक गया तो अनिल विश्वास ने इस गीत को 'मान' के लिए ले लिया।
अनिल विश्वास पियानो का उपयोग भावनाओं को उभारने के लिए बहुत सुंदरता से करते थे। 'बसंत' के 'एक दुनिया बसा ले', 'आराम' के गीतों, 'आकाश' के 'भींगी-भींगी रात आई', 'लाडली' के 'तुम्हारे बुलाने को', 'जासूस' के 'जीवन है मधुवन', 'ज्वार भाटा' के 'भूल जाना चाहती है', 'फरेब' के 'हुस्न भी है' जैसे गीतों के अलावा 'नाज़' (1954) के 'झिलमिल सितारों के तले, आ मेरा दामन थाम ले' (लता) में भी इसका प्रयोग बेहतरीन था। गीत का आरम्भ पियानो के कोमल तरंगों से करके गीत में रिद्म परिवर्तन करते हुए आह्लाद भरे मूड का रूपांतरण भी अनिल विश्वास ने बड़े कलात्मक ढंग से किया है। 'नाज़' ऐसी पहली हिंदी फि़ल्म थी, जिसकी शूटिंग विदेश में की गई थी। फि़ल्म में लता के गाए 'ऐ दिन दुखड़ा किसे सुनाएँ', 'कहती है अब तो जि़ंदगी करने के इंतजार में' और ऊँची पट्टी पर गाया 'आँखों में दिल है होंठों पर जान' भी अच्छे गीत थे। वर्षों बाद अनिल विश्वास फिर इस फि़ल्म में अरबी संगीत का प्रभाव लेकर आए थे। अनिल विश्वास ने अपने कोमल रूमानी गीतों में अक्सर बहुत हलके ऑरकेस्ट्रेशन का प्रयोग किया। उदाहरण के तौर पर 'दोराहा' के 'लूटा है ज़माने ने' (लता) को सुनिए और संगीतकार का कौशल बिल्कुल प्रत्यक्ष हो जाएगा। भिन्न स्थायी के लिए भिन्न धुनों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं मिलता है। सैक्सोफ़ोन का प्रयोग उन्होंने कई बार धुन से अलग हटकर एक तरह की बवनदजमत.उमसवकल बनाते हुए बिलकुल स्वतंत्र रूप से किया।
'दोराहा' की ही तरह 'पैसा ही पैसा' में भी रफ़ी की रेकॉर्डिंग रद्द हुई थी। किशोर कुमार हीरो थे और उस वक्त कई फि़ल्मों में अभिनय की व्यस्तता के कारण वे रेकॉर्डिंग के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे। इसलिए उनके ही सुझाव पर 'पैसे का मंतर' गीत रफ़ी की आवाज़ में रेकॉर्ड कर लिया गया था। पर बाद में जब पिक्चराइज़ेशन का मौका आया तो किशोर अड़ गए कि इसे वे खुद गाएँगे। जब मनाने पर भी वे नहीं माने तो अंतत: रफ़ी की रेकॉर्डिंग रद्द की गई और किशोर ने इस गीत को गाया। पर यह रफ़ी की महानता थी कि दो-दो बार अनिल विश्वास के निर्देशन में उनके रेकॉर्ड किए हुए गीत कैंसिल होने के बावजूद जब 'हीर' (1956) के लिए अनिल विश्वास ने उन्हें बुलवाया तो वे बिना किसी गिला-शिकवा के चले आए।10 'हीर' में अनिल विश्वास के निर्देशन में 'ओ ख़ामोश ज़माना है' (गीता के साथ), बेहद प्रभावशाली 'ले जा उसकी दुआएँ' और 'अल्लाह तेरी ख़ैर करे' जैसे उनके गीत आए। 'हीर' की पंजाबी थीम के लिए रफ़ी की ख़ुली आवाज़ का कोई विकल्प अनिल विश्वास के पास भी न था। फि़ल्म की नामावली के साथ रफ़ी के स्वर में पंजाबी में भी कुछ पंक्तियाँ थीं—'जदों इश्क दे कम नूँ हथ लाइए'। 'बेकसूर' (1950) की कव्वाली, अप्रदर्शित 'शिकवा', 'पैसा ही पैसा' के अलावा 'हीर' और 'संस्कार' ही ऐसी फि़ल्में थीं, जिनमें अनिल विश्वास और रफ़ी साथ आए। 'संस्कार' (1958) में भी रफ़ी के स्वर में 'भगवान भी खुश-खुश, शैतान भी हो राजी' एक अच्छी रचना थी।
पर रफ़़ी के साथ अनिल विश्वास कभी भी जमे नहीं। 'हीर' में भी रफ़ी के गाए गीतों से अधिक (संभवत: 'ले जा उसकी दुआएँ' को छोड़कर) लोकप्रियता मिली 'ओ साजना छूटा है जो दामन तेरा' (हेमंत, गीता, साथी) की बहुत सुंदर धुन को। यह गीत आज तक लोकप्रिय है, और रेडियो पर फऱमाइशी गीतों के प्रोग्राम में अभी भी यदा-कदा सुनाई दे जाता है। हेमंत के गुंजायमान अंदाज़ में 'एक चाँद का टुकड़ा' की रूमानी धुन और एच.एम.व्ही. द्वारा गीता दत्त के 'रेयर जेम्स' कैसेट्स में शामिल 'बुलबुल में है चमन के' भी फि़ल्म की अच्छी कृतियाँ थीं। हेमंत कुमार के साथ एक और सुपरहिट गीत अनिल विश्वास ने 'जलती निशानी' (1957) में दिया था। 'कह रही है जि़ंदगी, जी सके तो जी' हेमंत के ख़ास आधुनिक अंदाज़ में खूब जमा और इस गीत को चाहने वाले आज तक हैं। इस फि़ल्म में अनिल विश्वास ने पृष्ठभूमि में कोरस का उयोग पुन: इस विधा में अपनी चिरपरिचित पारंगता से किया है। 'रूठ के तुम तो चल दिए' (लता) भी राग हेमंत पर आधारित इस फि़ल्म का एक मेलोडीप्रधान खूबसूरत गीत था जो लोकप्रिय भी रहा। 'ओ साकी रे ऐसा जाम पिला नजऱों से' (लता, हेमंत, साथी) में अनिल विश्वास ने पुन: आलाप और कोरस का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया था। इसी फि़ल्म में अपनी वापसी के लिए संघर्षरत मुकेश को अनिल विश्वास ने पुन: मौका दिया लता के साथ एक सुंदर दोगाने 'दिल है बेकरार क्यों' में।
फि़ल्मों में मामले में घटती संख्या के इस दौर में अनिल विश्वास के संगीत को सर्वाधिक सफलता मिली अपने मित्र निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास की नर्गिस, बलराज साहनी, ओलिग अभिनीत 'परदेसी' (1957) में। नेहरू-युग की भारतीय-रूस मैत्री के आधार पर भारत-सोवियत सहनिर्माण के बैनर तले इस फि़ल्म को संगीत-प्रेमी आज भी मीना कपूर के गाए सर्वाधिक लोकप्रिय गीत 'रसिया रे मनबसिया रे' के कारण याद करते हैं। इस गीत में पन्नालाल घोष की बाँसुरी, सितार और संतूर के इंटरल्यूड्स तो लाजवाब हैं ही, पर जयजयवंती की छाया लिए इस गीत की सबसे बड़ी ख़ासियत है इसकी लोकशैली लिए अतिकर्णप्रिय धुन और मीना कपूर की बेहद मीठी गायकी। यह गीत तो मन-मस्तिष्क पर जादू-सा कर देता है। 'परदेसी' के निर्माण के दौरान ही विश्वास और मीना कपूर की शादी भी हुई। फि़ल्म में मीना कपूर के गाए दो और बड़े सुंदर गीत थे—तानपूरे की पृष्ठभूमि में हलकी बाँसुरी के साथ सुकोमल लोकशैली की लोरी—'रो मत ललना, झुलाऊँ तोहे पलना' और मराठी लोक धुन पर मन्ना डे के साथ गाया 'रिम झिम झिम बरसे पानी'। सितार, तबले की अद्भुत संगत के साथ 'नादिर धीम ताना देरे ना...ना जा ना जा बलम' भी राग गौड़ सारंग पर आधारित लता की गाई एक अद्भुत शास्त्रीय रचना थी, जिसे लता के लिए अनिल विश्वास की बनाई श्रेष्ठ कम्पोज़ीशन्स में आसानी से गिना जा सकता है। 'परदेसी' का 'ये हिंदुस्तान है प्यारे' (मन्ना डे, साथी) भी लोक-शैली पर आधारित एक सशक्त रचना थी। 'फिर मिलेंगे जाने वाले यार दसवी दानिया' भी कव्वाली की शैली में एक अद्भुत कोरस गीत था।
अनिल विश्वास की लता के लिए बनाई सर्वश्रेष्ठ कम्पोज़ीशन पर तो विवाद हो सकता है, पर आशा के लिए उनकी कम्पोज़ की हुई सर्वश्रेष्ठ रचना को चुनने पर तो सभी 'संस्कार' (1958) के 'दिल शाम से डूबा अनिल विश्वास 'बादल-सा निकल चला, यह दल मतवाला रे जाता है' पर आसानी से सहमत होंगे। जयजयवंती का पुट लिए अद्भुत धुन, बेहद सुंदर गायकी और पृष्ठभूमि में बंगाली कीर्तन व बाउल गीतों में प्रयुक्त शैली की तबले की गत—कुल मिलाकर इसे अनिल विश्वास की एक उल्लेखनीय रचना बनाती है।
ख्वाजा अहमद अब्बास की चर्चित फि़ल्म 'चार दिल चार राहें' (1959) में गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार अनिल विश्वास का साथ हुआ। राज कपूर और मीना कुमारी अभिनीत इस फि़ल्म में पुराने संगीतकार बद्रीप्रसाद की भी एक प्रमुख भूमिका थी। फि़ल्म का सबसे चर्चित दृश्य था जब पूरा जनसमूह मिलकर एक समाजवादी गीत 'साथी रे कदम कदम से दिल से दिल मिल रहे हैं हम' (मुकेश, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, मीना कपूर, साथी) गाता है। इस गीत में अनिल विश्वास पुन: अपनी परिचित राजनीतिक-सामाजिक ज़मीन पर दिखाई देते हैं। फि़ल्म के अन्य गीत भिन्न प्रकृति के थे, जिनमें रागमाला की तरह यमन कल्याण, बिहाग, भैरव पर आधारित लता का लम्बे अंतरोंवाला गीत 'इंतज़ार और अभी और अभी' बहुत प्रभावशाली और लोकप्रिय रहा था। इस गीत के फि़ल्मांकन में हर अंतरे के पहले घड़ी के घंटों की ध्वनि का संगीत से सम्मिश्रण बहुत अच्छा बन पड़ा था। पंजाबी लोकशैली पर 'कच्ची है उमरिया' (मीना कपूर, साथी) तो बिलकुल अलमस्त करनेवाला गीत था। लोकसंगीत पर अनिल विश्वास की पकड़ का यह एक श्रेष्ठ उदाहरण है। 'नहीं किया तो कर के देख' (मुकेश), 'होली खेलें नंदलाल' (मीना कपूर, साथी), 'कोई माने न माने मगर जानेमन' (लता) भी ठीक-ठाक ही थे। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि भले ही इस प्रकार की फि़ल्मों के अभाव के कारण स्वतंत्रता के बाद के दशकों में विश्वास द्वारा कम्पोज़ किए गए राजनीतिक-सामाजिक चेतना के गीतों की संख्या कम हो गई हो, पर अन्य थीम के गीतों के लिए भी लोक शैली और कोरस का प्रयोग उन्होंने कायम रखा, और इस कारण उनका संगीत अभी भी इस दृष्टिकोण से जनमानस की आवाज़ को केंद्र में रखकर चलने वाला संगीत कहा जा सकता है। यदि स्वतंत्रता-पूर्व की 'ज्वार भाटा' के होली गीत 'सा रा रा' लोक अभिव्यक्ति का विशुद्ध रूप था, तो स्वतंत्रता पश्चात की 'राही' के रसिया गीत 'होली खेले नंदलाला' और 'महात्मा कबीर' की होरी 'सियावर रामचंद्र' भी ग्रामीण सामूहिक संस्कृति को उतनी ही कुशलता से उभारते थे। हालाँकि यदा-कदा उन्होंने पंजाबी लोकशैली ('कच्ची है उमरिया—चार दिल चार राहें'), गोआ की लोकशैली ('दिल चुरा लूँ—फऱार) या मराठी लावणी ('पल्ला डोरी पल्ला'—अभिमान) जैसी लोकशैलियों का भी प्रयोग किया पर ज्यादातर प्रेम उन्हें पूरबी या बाँग्ला लोकसंगीत से ही रहा। शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत के भेद को सुगम रचनाओं द्वारा किस तरह खत्म करके शास्त्रीय आधार को लोकरंग में समाहित किया जा सकता है, यह कल उन्होंने तिलंग और बिहाग जैसे रागों को पूरबी लोकरंग की ओर मोड़कर दिखा दिया। उसी प्रकार बाँग्ला लोकशैली के अंदर ख़माज राग के अंशों का भी रचना—निर्माण में उनका प्रयोग इसी कौशल को इंगित करनेवाला बना। उदाहरण के तौर पर 'मिलन' के 'सुहानी बेरिया नीली जाए' और अन्य कई गीतों में बिहाग तथा बाँग्ला लोकशैली का सुंदर सम्मिश्रित प्रयोग, 'हमारी बात' के 'इंसान क्या जो' में ख़माज आधारित बंगाली लोकशैली का प्रयोग और 'घर यहाँ बसा ले' (गजरे), 'आँखें भर-भर के जीने' (आकाश) और 'कुछ शरमाते' (गर्ल्स स्कूल) में बिहाग के प्रयोग से लोक रंग की खुशबू लाने में अनिल विश्वास की प्रयोगात्मकता अपने चरम पर थी।
राग बसंत के प्रति विश्वास के प्रेम के उदाहरण हम पहले देख ही चुके हैं। यहाँ यह भी इंगित करना आवश्यक है कि राग बसंत पर आधारित गीत बनाना तो एक तरफ़, विश्वास कई बार दूसरे रागों पर आधारित गीतों के बीच भी बसंत के टुकड़ों का मिश्रण बड़ी खूबी से करते थे। 'आ मुहब्बत की बस्ती' के यमन कल्याण में बसंत का पुट, 'ओ मेरे राँझना' के इंटरल्यूड के बीच बसंत का सुंदर टुकड़ा—ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। बिहाग, बसंत, ख़माज और आसावरी थाट के रागों के अतिरिक्त मल्हार और यमन कल्याण का स्पर्श भी विश्वास की कई रचनाओं में मिलता है। 'काहे अकेला डोलत बादल' (ग्रामोफ़ोन सिंगर), 'बदली तेरी नजऱ' (बड़ी बहूद्ध, 'सो गई चाँदनी' (आकाश), 'उधर तेरी नजऱ' (हमदर्द), 'मुहब्बत तर्क की मैंने' (दोराहा) आदि अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
अनिल विश्वास को भले ही अब इक्का-दुक्का फि़ल्में ही मिलती हों, पर संगीत वे अभी उत्कृष्ट ही दे रहे थे। विजय भट्ट की निर्देशित ऐतिहासिक फि़ल्म 'अंगुलिमाल' (1960) का अद्भुत शीर्षक गीत 'बुद्धम् शरणम् गच्छामि' इसका सशक्त उदाहरण है। आराधना के बौद्ध रूप को प्रकट करता यह गीत अंदर तक आंदोलित कर देता है—मन्ना डे की अभूतपूर्व गायकी और कोरस के अद्भुत प्रयोग दोनों ही गीत की रिद्म के साथ बढ़ते हुए मन को बड़ा सम्बल प्रदान करते हैं। राग बहार पर आधारित 'आई आई बसंती बेला' (लता, मन्ना डे, मीना कपूर) भी एक लोकप्रिय सराहनीय कम्पोज़ीशन की जो लोकप्रिय भी रही। गीत तो सभी अच्छे थे—चाहे आरती मुखर्जी का गाया प्रथम गीत 'धीरे धीरे ढल रे चंदा' हो, रवींद्र संगीत पर आधारित 'मेरे चंचल नैना, मधु रस के भरे' (मीना कपूर, साथी) और 'तेरे मन में कौन नैनन में कौन' (लता, मीना कपूर, साथी) हो या फिर 'मुरलीवाले गोपाल तेरी शरण में' (आशा) और 'बड़े आए शिकारी शिकार करने' (मन्ना डे, आशा) लेकिन इन लावण्य-भरे गीतों को अधिक लोकप्रियता नसीब नहीं हुई। अपने इस असफल दौर में अनिल विश्वास को 'रिटर्न ऑफ़ मिस्टर सुपरमैन' (1960), 'लकी नम्बर' (1961), 'हमें खेलने दो' (1962) जैसी स्टंट या बच्चों की फि़ल्मों से समझौता करना पड़ा। महेश कौल निर्देशित 'सौतेला भाई' (1962) में उन्होंने पुन: उत्कृष्ट संगीत दिया। मुजरा शैली में राग अडाना पर आधारित 'जा मैं तोसे नाही बोलूँ' (लता) तो लाजवाब शास्त्रीय आधारित कम्पोज़ीशन थी। मुजरे और कव्वाली की मिली-जुली शैली में 'अब लागी नाहीं छूटे रामा' ( मीना कपूर, लता, अनिल विश्वास), मीठे सुरों के साथ असमिया लोकशैली बीहू के खिलते सुरों को लेकर सृजित 'फूले बन बगिया खिली कली कली' (मीना कपूर, मन्ना डे) आदि भी बड़े अच्छे गीत थे। पर इस सबसे अनिल विश्वास के कैरियर को कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 'मीरा का चित्र' के भजन 'मैं तो गिरधर के घर जाऊँ' (मीना कपूर) और 'म्हाणे चाकर राखो जी' (मीना कपूर, स्वप्ना सेना) रेडियो पर खूब बजे पर फि़ल्म ही रिलीज़ नहीं हो पाई।
फि़ल्म-जगत में अनिल विश्वास की अंतिम फि़ल्म मोतीलाल द्वारा निर्मित और निर्देशित 'छोटी-छोटी बातें' (1965) रही। फि़ल्म मोतीलाल के सहज अभिनय के कारण भी यादगार बन गई है, इस फि़ल्म के तुरंत बाद मोतीलाल के निधन के कारण भी, और अनिल विश्वास के बेहतरीन संगीत के कारण भी। कोमल सारंग पर आधारित 'कुछ और ज़माना कहता है, कुछ और है जि़द मेरेे दिल की' मीना कपूर के स्वर में मुशायरे की शैली में ज़बर्दस्त असर करता है। सारंगी, तबले और सितार के साथ यह गीत अपनी सुंदर तर्ज़ और गायकी के कारण मीना कपूर और अनिल विश्वास दोनों की ही सर्वेश्रेष्ठ रचनाओं में अपना स्थान रखता है। बिहार की लोकशैली पर 'मोरी बाली रे उमरिया' (लता, साथी) और 'अंधी है दुनिया' (मन्ना डे, साथी) भी अच्छे गीत थे। 'मोरी बाली रे उमरिया' की धुन अपने कलकत्ता के दिनों में विश्वास ने बिहार के कुछ मजदूरों को आग तापते हुए गाते सुना था और यह धुन उनके मन में रच-बस गई थी। वहीं 'दिल का करे न कोई मोल' सिंधी लोकधुन पर आधारित था। राग नंद कल्याण पर 'जि़ंदगी का अजब फ़साना है' (मुकेश, लता) शायराना अंदाज़ में रचित एक अन्य बहुत सुंदर तजऱ् थी। इस फि़ल्म में शैलेन्द्र के लिखे कुछ गीतों को अनिल विश्वास ने बहुत अच्छी शायराना तर्ज दी थी। पर इस फि़ल्म का सबसे अच्छा गीत में दर्द से सराबोर मुकेश के स्वर में 'जि़ंदगी ख्वाब है या हमें भी पता' को मानूँगा। यह गीत एक तरह से मोतीलाल को श्रद्धांजलि की तरह था और कहते हैं कि इसे मुकेश ने खुद ही कम्पोज़ किया था पर नाम अनिल विश्वास का रहा। इस फि़ल्म के पाश्र्वसंगीत का काम बाकी था और मोतीलाल को अनिल विश्वास को कुछ पारिश्रमिक देना शेष रह गया था। उन्होंने इसके लिए अनिल विश्वास को दिल्ली से बुलवाया। पर जब अनिल विश्वास दिल्ली से फि़ल्म के रिलीज़ होने के समय बंबई पहुँचे, तो पहुँचकर पता चला कि मोतीलाल अत्यंत गंभीर हालत में हैं। विश्वास ने आनन-फानन में फि़ल्म का पाश्र्वसंगीत तैयार किया पर इसके एक दिन बाद ही मोतीलाल गुजऱ गए। विश्वास के लिए भी यह वक्त अच्छा नहीं था। फि़ल्मों की कमी तो थी ही, अचानक भाई और बड़े बेटे की हुई मौतों ने अनिल विश्वास को तगड़ा सदमा पहुँचाया। उन्होंने बम्बई पूरी तरह ही छोड़ दी और दिल्ली का रुख किया, जहाँ वे ऑल इंडिया रेडियो में चीफ़ प्रोड्यूसर बन गए।
ऑल इंडिया रेडियो में रहते हुए रूस की यात्रा के बाद अनिल विश्वास के मन में एक 'नेशनल ऑरकेस्ट्रा' बनाने की धुन सवार हुई, पर सरकारी तंत्र से अधिक सहयोग उन्हें नहीं मिल पाया। वैसे ऑल इंडिया रेडियो के लिए अनिल विश्वास ने नरेंद्र शर्मा के कुछ बेहद मधुर गीतों को संगीतबद्ध किया था जिसमें मन्ना डे के स्वर में शास्त्रीय बंदिश 'नाच रे मयूरा' बहुत मशहूर हुई थी। ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती सेवा के उद्घाटन के अवसर पर पहला गीत 'नाच रे मयूरा' ही प्रसारित किया गया था। ऑल इंडिया रेडियो में रहते हुए उन्होंने वाद्यवृंद की 21 रचनाएँ तैयार कर ली थीं जिसमें रवींद्रनाथ की कविता से प्रेरित 'वासवदत्ता' की बहुत तारीफ़ हुई थी। दिल्ली में स्टेज पर प्रस्तुत किए जानेवाले 'कृष्ण जन्माष्टमी' के पाश्र्वसंगीत का भार भी अनिल दा ने वर्षों तक सँभाला।
बाद में वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संगीत के सलाहकार भी रहे। संगीत की कक्षाएँ भी वे चलाते रहे और कलकत्ते की एक कम्पनी के लिए उत्तरी क्षेत्र में रेकॉर्डनिर्माण का दायित्व भी सँभाला। अंतरराष्ट्रीय बाल वर्ष में दिल्ली के विद्यालयों में बच्चों के समूहों का गान भी उन्होंने करवाया था। 'हम लोग', 'बैसाखी' और 'फिर वही तलाश' जैसे टी.व्ही. सीरियलों में उन्होंने संगीत दिया। 'हम लोग' के शीर्षक गीत के लिए अनिल विश्वास ने फ़ैज़ की रचना 'आइए हाथ उठाएँ हम भी' को लिया था। भारतीय वाद्यों के आकार में परिवर्तन कर उनसे ज्यादा सुर निकालने का उनका प्रयास भी इसी दौर में वर्षों चलता रहा। 'ऋतु आए ऋतु जाए' नाम से उन पर शरद दत्त द्वारा एक पुस्तक भी लिखी गई है। अनिल विश्वास ने खुद भी गज़ल पर बाँग्ला में एक पुस्तक लिखी है—'गज़लेर रंग'। गज़लों पर उनका शोध कार्य तो बहुत महत्त्वपूर्ण है, चाहे 'गज़लेर रंग' हो, या चुनिंदा गज़लों का संग्रह 'रंगे तजज्ज़ुल' हो। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ने उनका सम्मान करते हुए उन्हें 'नेशनल फ़ैलो एमेरिट्स' बनाया। मध्यप्रदेश शासन के लता मंगेशकर पुरस्कार से भी अनिल विश्वास को सम्मानित किया गया। दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन में रहते हुए ही 31 मई, 2003 को उनकी मृत्यु हुई।
संदर्भ
1. डॉ. श्याम परमार-0 माधुरी, 29 दिसम्बर, 1967
2. शरद दत्त- ऋतु आए, ऋतु जाए
3. वही
4. आशीष राज्याध्यक्ष और पॉल विलमैन : एन इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इंडियन सिनेमा
5. रजनी कुमार पंड्या : आपकी परछाइयाँ
6. हृषि दीक्षित- 'अभी तो मैं जवान हूँ' शृंखला, इंटरनेट
7. रजनी कुमार पंड्या-वही
8. वही
9. वही
10. वही
-विष्णु नागर
बात 1980 की है। 1974 में 'पहचान' सीरीज में मेरी कविता पुस्तिका आ चुकी थी मगर 1980 में 'कविता की वापसी' के उस दौर में जिन युवा कवियों के पहले कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे, उनमें एक मेरा भी था- 'तालाब में डूबी छह लड़कियाँ। मुझ जैसे नौसिखिया कवि के संग्रह का आवरण जे. स्वामीनाथन जैसे बड़े चित्रकार ने बनाया था। यह अलग बात है कि मध्य प्रदेश में बिक्री होने के कारण उसके फटाफट दो संस्करण प्रकाशक ने प्रकाशित किए। प्रकाशक महोदय की कृपा से पहले संस्करण में 30 गलतियाँ थीं। दूसरा संस्करण उन्हें बहुत जल्दी प्रकाशित करके सरकार को भेजना था, इसलिए उसमें गलतियों की संख्या बढ़कर दुगुनी यानी 60 हो गई।
आदर के साथ मैंने इस कविता संग्रह की प्रतियाँ,जिन्हें भेंट की थीं, उनमें हमारे वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे भी थे। उन्होंने इस संग्रह का स्वागत किया था। इसी दौरान जर्मन विद्वान और हिंदी कविताप्रेमी लोठार लुत्से भारत आए। खरे जी उनके बहुत निकट थे। उन्होंने जानना चाहा होगा कि इस बीच नये कविता संग्रह कौन-कौन से आए हैं तो खरे जी ने अपने पास से जो कविता संग्रह उन्हें भेंट किए, उनमें मेरी यह किताब भी थी। मुलाकात होने पर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हारे संग्रह की अपनी प्रति लुत्से को दे चुका हूँ तो तुम मुझे दूसरी प्रति उपलब्ध करवाना। मैं भी उस दौर में कंधे पर झोला लटकाए घूमता था, उसमें एक प्रति उनके लिए रख ली। मैं 10, दरियागंज स्थित 'दिनमान' के दफ्तर गया था और शाम को प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज का काम जब खत्म हुआ तो उनके साथ मैं लौट रहा था। बाहर निकलते ही विनोद भारद्वाज ने कहा कि वह अभी खरेजी से मिलने साहित्य अकादमी जा रहे हैं तो मैंने तुरंत कहा कि विनोद जी जब आप उनके पास जा ही रहे हैं तो खरेजी को यह प्रति भी दे दें। चूँकि पहले वाली प्रति पर मैंने लिखकर दिया था- 'आदरणीय खरेजी को सादर' तो अब इस बात को दूसरी बार लिखने में मुझे संकोच हो रहा है।संभव है ऐसा सोचना मेरा बचकानापन रहा हो। विनोदजी ने संग्रह खरे जी को वह संग्रह दे दिया। खरेजी ने उसी समय या बाद में संग्रह को उल्टा- पुल्टा होगा तो उस पर कुछ लिखा नहीं था, खाली प्रति थी। इसका आशय उन्होंने यह समझा कि इस लड़के का पहला कविता संग्रह आते ही इसे घमंड हो गया है। मैंने क्या सोचकर कुछ लिखा नहीं था, बाद में इसका स्पष्टीकरण देने का कोई फायदा उनकी अदालत में नहीं हुआ। उसके बाद उनके जीवन के आखिर तक मेरे और उनके संबंधों में तनावपूर्ण शांति बनी रही। हम आमने- सामने रहने लगे और एक ही अखबार नवभारत टाइम्स में काम करने लगे, तब भी स्थितियाँ बदली नहीं। इसके बावजूद अपने घर पर कुछ युवा मित्रों के कविता पाठ का सिलसिला मैंने कुछ समय चलाया था, तो वह उसमें आते थे और कभी संयोग बन गया रसरंजन का तो उसमें भी हिस्सा लेते थे। दीपावली पर हम पति पत्नी उनसे मिलने जाते थे। हमारी हाउसिंग सोसाइटी का मैं कुछ वर्षों तक सचिव रहा तो उस नाते भी मेरा उनके घर आना-जाना रहा और मुझे उनका पूरा सहयोग मिला। मेरे आग्रह को उन्होंने कभी टाला नहीं,मुझ पर अविश्वास नहीं किया।कभी कोई विवाद पड़ोसी के नाते उनसे हुआ नहीं। उनके परिवार से हमारे परिवार के संबंध एक स्तर पर बने रहे। उनका बेटा और मेरा बड़ा बेटा लगभग हमउम्र हैं और उनके घरेलू नाम भी संयोग से एक हैं-अप्पू। जब हम यहाँ रहने आए तो मेरा छोटा बेटा सात साल का था। कभी -कभी उससे सामना हो जाने पर बड़े प्रेम से उससे बातें करते थे।बाहर उनका जो आतंक हो मगर अपने बच्चों से उनके संबंध दोस्ताना थे।कभी बच्चों को डाँटते फटकारते नहीं सुना,मजाक करते ही सुना।
जब वह नवभारत टाइम्स में शुरू में सहायक संपादक होकर आए तो उनके आते ही एक प्रसंग ऐसा आया कि हमारे संबंधों का तनाव उभर आया।फ्रांस में होने जा रहे भारत महोत्सव के खिलाफ मैंने एक लेख लिखकर अपने संपादक राजेंद्र माथुर को प्रकाशन के लिए दिया था। उन्होंने इस पर विष्णु खरे से टिप्पणी माँगी। मेरे लेख को पूरा देखे बगैर खरेजी ने संपादक को यह लिख कर दिया कि इसके लेखक को इस महोत्सव की ठीक-ठीक तारीखों तक का पता नहीं है। ऐसा लेख प्रकाशन योग्य नहीं। संपादक ने वह लेख वापिस करने की बजाय मुझे अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि इस पर खरे जी की यह टिप्पणी है। मैंने माथुर साहब से कहा कि गलती तो नहीं होनी चाहिए मगर फिर भी एक बार चैक कर लेता हूँ। मैं उसी मंजिल पर स्थित लाइब्रेरी में गया। खबर की कतरन को देखा। मैंने तारीखें सही लिखी थीं। मैं कतरनों की वह फाइल लेकर सीधे खरेजी के कक्ष में गया।मैंने वह कतरन उनके सामने रखी और कहा कि आपने संपादक से ऐसा- ऐसा कहा था। यह देखिए फाइल। तारीखें बिल्कुल सही हैं।वह निरुत्तर थे।मैंने पहली बार उनसे कड़क शब्दों में कहा कि आइंदा ऐसी हरकत मत कीजिएगा। खैर वह लेख मैंने दुबारा संपादक को दिया और छपा।
एक समय हम विशेष संवाददाताओं की कापी चैक करने,संपादित करने का दायित्व उन्हें दिया गया था।एक बार मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने अपना मंत्रालय कवर करनेवाले कुछ संवाददाताओं को अपने कक्ष में बुलाया।मैं भी उनमें से एक था। आफिस आकर कापी लिखी और खरे जी के पास भिजवा दी। अगले दिन देखा तो वह खबर नदारद। मन मसोसकर रह गया क्योंकि उस दिन खबर नहीं छपी यानी खबर की हत्या हो गई, वह प्रकाशन योग्य नहीं समझी गई। ऐसा होता है कई बार संवाददाताओं के साथ। पूरे दिन की भागदौड़ पर पानी फिर जाता है। इसके एक या दो दिन के बाद देखता हूँ,वह खबर संपादकीय पृष्ठ पर आठवां कालम के रूप में प्रकाशित है। उसमें व्यंग्य का पुट सहज ही आ गया था।खबर से ज्यादा उसके लिखने के ढँग में रचनात्मकता थी। इसे खरेजी ने पकड़ा और इस तरह उसका उपयोग किया।
एक समय संभवतया 'आलोचना' पत्रिका में उन्होंने युवा कवियों की दो सूचियाँ बनाई थीं। एक में उन कवियों के नाम थे,जिन्हें वह कवि मानते थे।दूसरी सूची में उनके नाम थे,जिन्हें वह तो कवि नहीं मानते थे मगर दूसरे मानते थे। मेरा नाम दूसरी सूची में था। मेरा नाम उनकी नजर में शायद दूसरी सूची में ही हमेशा रहा। मेरी कविता के बारे में जो भी उनकी राय रही हो मगर दो बार ऐसे अवसर आए, जब उन्होंने इंटरकॉम से बात कर मेरी दो कविताओं की प्रशंसा की।इसमें एक कविता 'दोस्त की बड़ी बेटी अन्ना की स्मृति में' थी, दूसरी याद नहीं। मुझे याद है कि उन्होंने इस कविता के बारे में कहा था कि हिंदी में ऐसी शोक कविताएँ कहाँ हैं(निराला की सरोज स्मृति से बड़ी शोक कविता वैसे कहाँ है।) सब जानते हैं कि वह प्रशंसा और निंदा अक्सर अतिरेकपूर्ण ढँग से करते थे। यह उनका सहज ढँग था। अगर वह लिखित रूप से किसी कवि की प्रशंसा कर रहे होते तो किसी दूसरे की नाम लेकर या बिना नाम लिए निंदा का भाव होता।
तो ऊपरी तौर पर सारे विरोध के बावजूद एक महीन तार जुड़ा भी हुआ था। उनके संग्रह'सबकी आवाज़ के पर्द में' का मैं सक्रिय प्रशंसक रहा हूँ।अपने कवि आलोचक मित्र विजय कुमार सहित कई मित्रों का ध्यान उसकी तरफ दिलाया था। यह उन्होंने मुझे भेंट किया था,यह लिखते हुए ' श्री विष्णु नागर को '। इस कविता संग्रह ने एक तरह से रघुवीर सहाय के बाद फिर से कविता का ट्रेंड बदला था, हालांकि इसके सभी चिह्न पहले के संग्रह में मौजूद थे। कविता में बारीक कथात्मक विवरणात्मकता को कैसे नाजुक ढँग से ढाला जा सकता है, इसका उदाहरण उनकी बेहतरीन कविताएँ हैं।बाद में उनके अनुकरणकर्ता यह संतुलन नहीं रख पाए।
धीरे -धीरे उनकी दोनों बेटियों की शादियां हो गईं।बेटे ने फिल्मी दुनिया की राह पकड़ी और वह मुंबई चला गया।फिर कुमुद जी भी बेटे की देखरेख करने चली गईं। बीच-बीच में वह आती रहीं।खरे जी कुछ समय अकेले रहे।फिर वह भी मुंबई चले गए मगर उनकी आत्मा यहीं बसती थी। वह आते- जाते रहते थे। फिर दिल्ली हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में दिल्ली में कुछ महीने रहे और अंतिम साँस भी यहीं ली। पहले उनके घनिष्ठ देवताले गए,फिर उनके तेरह महीने बाद वह। दोनों का अंतिम कुछ समय तकलीफ़ में बीता। देवताले जी को तो अंत तक होश रहा,खरे जी कुछ समय अचेतावस्था में रहे।
(लेखक लंबे समय तक पत्रकार रहे हैं, और अब अपने को भूतपूर्व पत्रकार लिखते हैं)
मैक्सिम गोर्की की कहानियों और उपन्यासों के नायक सर्वहारा ही हैं. यह महान लेखक भी इसी समाज से उभरा था, इसलिए इतना पसंद किया गया
-अनुराग भारद्वाज
रूसी साहित्य के सबसे चमकते सितारे मैक्सिम गोर्की का अपने देश ही नहीं, विश्व में भी ऊंचा दर्ज़ा है. वे रूस के निझ्नी नोवगरद शहर में जन्मे थे. पिता की मौत के बाद उनका बचपन मुफ़लिसी और रिश्तेदारों के तंज़ खाते हुए गुज़रा में गुज़रा. गोर्की ने चलते-फिरते ज्ञान हासिल किया और पैदल घूम-घूमकर समाज और दुनियादारी की समझ हासिल की. 1892 में ‘मकार चुद्रा’ पहला उपन्यास था जिस पर उन्होंने एम गोर्की के नाम से दस्तख़त किये थे.
इससे पहले अलेक्सेई मक्सिमोविच पेश्कोव से गोर्की बनने तक उनका सफर कई ऊंचे नीचे-पड़ावों से गुज़रा. ‘मेरा बचपन’, ‘लोगों के बीच’ और ‘मेरे विश्वविद्यालय’ उपन्यास मैक्सिम गोर्की की आत्मकथायें हैं और इनमें उन्होंने अपना जीवन खोलकर रख दिया. ‘मेरा बचपन’ में उन्होंने अपने पिता की मौत से किताब का पहला पन्ना लिखा. इससे ज़ाहिर होता है कि अलेक्सेई को पिता से गहरा लगाव रहा होगा और मां से कुछ खौफ़. वे लिखते हैं ‘...नानी मां से डरती है. मैं भी तो मां से डरता था, इसलिए नानी के साथ अपनापन और गाढ़ा हो गया.’
पर गोर्की का सबसे यादगार उपन्यास ‘मां’ ही है जो रूस में ज़ार शासन के समय के समाज का हाल दर्शाता है. रूसी क्रांति के नेता व्लादिमीर लेनिन की पत्नी नदेज्श्दा कोस्तैन्तिनोवा क्रुप्स्केया ने लेनिन की जीवनी में लिखा है कि वे (गोर्की) ‘मां’(उपन्यास) को बेहद पसंद करते थे. वहीं, लेनिन की बहन उल्यानोवा भी लिखती हैं कि गोर्की को इसे बार-बार पढ़ना पसंद था. लेनिन ने भी इस किताब का ज़िक्र किया है. गोर्की ने लेनिन से हुए संवाद पर कुछ यूं लिखा; ‘बड़ी साफ़गोई से लेनिन ने अपनी चमकदार आंखों से मुझे देखते हुए इस किताब की ख़ामियां गिनायीं. संभव है उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट पढ़ी हो.’ ज़ाहिर था यह उपन्यास उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना थी.
दरअसल, गोर्की को इसलिए पसंद किया जाता है कि जो उन्होंने लिखा, अपने जैसों पर ही लिखा. उनकी कहानियों के किरदार उनके आस-पास के ही लोग हैं. या कहें कि गोर्की उसी समाज के हैं जिस समाज पर उन्होंने लिखा. ‘मां’ की आलोचना में कई टिप्पणीकारों ने कहा कि उपन्यास में जिन पात्रों का ज़िक्र है, वैसे पात्र असल ज़िंदगी में नहीं होते.’ इस आलोचना के बाद उन्होंने खुलासा किया कि ये कहानी एक मई, 1902 को रूस के प्रांत सोर्मोवो के निझ्नी नोवगरद इलाक़े में हुए मज़दूर आंदोलन से प्रभावित थी और इसके किरादर असल ज़िंदगी से ही उठाये हुए थे. मां, निलोव्ना और उसका बेटे पावेल के किरदार गोर्की के दूर की रिश्तेदार एक महिला एना किरिलोवना ज़लोमोवा और उसके बेटे प्योतोर ज़लोमोव से प्रभावित थे.
गोर्की ने इस उपन्यास में उस अवश्यंभावी टकराव को दिखाया है जो सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के बीच हुआ था. जानकार यह भी कहते हैं कि उपन्यास में दिखाया गया काल वह है जब रूस में क्रांति आने वाली थी. पर कुछ लोग कहते हैं कि ‘मां’ रूस की क्रांति की तैयारी को दिखाता है उस काल को नहीं, यानी क्रांति से कुछ पहले वाला समय. जो भी हो, यह तय है कि गोर्की सरीखे लेखकों ने क्रांति की आहट सुन ली थी. पर आश्चर्य की बात यह है कि अगर किसी उपन्यास को रूसी क्रांति का जनक कहा जाता है तो वो अपटन सिंक्लैर का ‘जंगल’ है. जबकि ‘जंगल’ बाद में रचा गया है. ‘मां’ 1906-1907 के दरमियान लिखा गया और जबकि ‘जंगल’ 1904 में. जहां ‘मां’ एक रूसी समाज में संघर्ष की दास्तान है, ‘जंगल’ में अमेरिकी पूंजीवाद और सर्वहारा के टकराव का बयान है.
तो क्या हम मान सकते हैं कि पश्चिमी दुनिया ने रूसी क्रांति का सेहरा अमेरिकी लेखकों के सिर बांधकर कुछ रुसी लेखकों के साथ अन्याय किया है? यकीन से तो नहीं कहा जा सकता पर बात फिर यह भी है कि गोर्की को पांच बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया, पर यह सम्मान उन्हें एक बार भी नहीं मिला. वहीं रूस से भागकर अमेरिका चले गये अलेक्सेंडर जोलज़ेनितसिन को यह सम्मान दिया गया था. दोनों ही लेखकों को अपने काल में जेल हुई थी. गोर्की को ज़ार शासन विरोधी कविता लिखने के लिए जेल में डाला गया तो जोलज़ेनितसिन को रूसी तानाशाह स्टालिन ने जेल भेजा.
गोर्की के साथ पश्चिम ने पहले भी बदसुलूकी की. अप्रैल 1906 में जेल से रिहा होने के बाद गोर्की और उनकी मित्र सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करने और अपने पक्ष में हवा बांधने के लिए अमेरिका गए. शुरुआत में तो उनकी बड़ी आवभगत की गई पर बाद में दोनों के संबधों के चलते अमेरिकी समाज ने उनकी फ़जीहत की. हालात इस कदर बिगड़ गए कि दोनों को होटल से बाहर फिंकवा दिया गया. गोर्की इस अपमान को कभी भुला नहीं पाए.
स्टालिन ने गोर्की के साथ अलग बर्ताव किया. उसने इटली में निर्वासित गोर्की को ससम्मान घर यानी रूस वापसी का न्यौता भेजा और वादा किया कि उन्हें राष्ट्र कवि की हैसियत दी जायेगी. स्टालिन ने ऐसा किया भी. गोर्की को आर्डर ऑफ़ द लेनिन के सम्मान से नवाज़ा गया और उनके जन्मस्थान का नाम बदलकर ‘गोर्की’ रखा गया. जानकार कहते हैं कि यह स्टालिन की रणनीति थी जिसके तहत वह गोर्की जैसे लेखक के ज़रिये विश्व को नव साम्यवाद का चेहरा दिखाना चाहता था. गोर्की ने रूस आने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और कई ऐसे लेख लिखे जिनमें स्टालिन का गुणगान किया था.
गोर्की ने ऐसा क्यों किया, यह समझ से परे है क्योंकि रूसी क्रांति के कुछ समय बाद वे लेनिन के कट्टर आलोचक बन गए थे. इसी बात से यह विवाद खड़ा हुआ कि क्या गोर्की जीनियस थे या उनके इर्द-गिर्द जीनियस होने का आभामंडल गढ़ा गया? शायद यही दाग़ गोर्की के जीवन पर लगकर रह गया है जो मिटाया नहीं जा सकता. गोर्की की मौत भी संदेह के घेरे में हैं. कुछ लोगों का मानना है कि स्टालिन ने अपने विरोधियों के सफ़ाए के लिए शुरू किये गए प्रोग्राम ‘दी ग्रेट पर्ज’ से पहले ही ख़ुफ़िया पुलिस के हाथों उन्हें मरवा दिया था.
गोर्की की ज़्यादातर रचनाओं में सर्वहारा ही नायक है. उनकी कहानी ‘छब्बीस आदमी और एक लड़की’ एक लड़की और 26 मज़दूरों की है जो उससे मन ही मन प्यार करते हैं. वह किसी से दिल नहीं लगाती पर उनसे बड़ी इज्ज़त से पेश आती है. एक दफ़ा मज़दूर एक सिपाही को उसका प्यार पाने को उकसाते हैं और वह सिपाही कामयाब हो जाता है. एकतरफ़ा प्यार करने वाले मज़दूर अपनी खीझ और भड़ास लड़की को तमाम गालियां तिरस्कार देकर निकालते हैं. कहानी में इंसान के टुच्चेपन के साथ-साथ दर्शन भी नज़र आता है. वे लिखते हैं कि ‘प्यार भी घृणा से कम सताने वाला नहीं. शायद इसलिए कुछ चतुर आदमी मानते हैं कि घृणा प्यार की अपेक्षा अधिक प्रशंसनीय है.’ एक जगह वे लिखते हैं, ‘कुछ आदमी ऐसे होते हैं जो जीवन में सर्वोत्तम और उच्चतम को आत्मा या जिस्म का एक प्रकार का रोग समझते हैं और जिसको साथ लेकर अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं.’
जहां तक गोर्की के काम की समालोचना का सवाल है तो कुछ जानकार कहते हैं कि गोर्की के जीवन और लेखन में विरोधाभास के साथ-साथ ‘क्लीशे’ नज़र आता है. गोर्की के साहित्य को खंगालने वाले आर्मीन निगी कहते हैं कि वे दोस्तोय्विसकी की तरह क्लासिकल राइटर तो नहीं थे, पर विश्व साहित्य के पुरोधा कहे जा सकते हैं. प्रेमचंद गोर्की के मुरीद थे. गोर्की की मौत पर उन्होंने कहा था, ‘जब घर-घर शिक्षा का प्रचार हो जाएगा तो गोर्की तुलसी-सूर की तरह चारों ओर पूजे जायेंगे’. पर ऐसा नहीं हो पाया क्यूंकि जिस आदर्श समाजवाद की परिकल्पना गोर्की ने की उसके क्रूरतम रूप यानी साम्यवाद ने दुनिया को ही हिलाकर रख दिया और नतीजन उसका ख़ात्मा हो गया.
पर पूंजीवाद ने भी सर्वहारा के दर्द को मिटाया नहीं बस एक ‘एंटीबायोटिक’ की तरह दबाकर रख छोड़ा. वह दर्द अब-जब भी कभी-कभी टीस बनकर उभरता है, तो कुछ ताकतें फिर उसे दबा देती हैं. शायद इसीलिए अब गोर्की नहीं पढ़े जाते हैं. (satyagrah.scroll.in)
(लवली गोस्वामी हिंदी की एक सुपरिचित कवियित्री हैं, उन्होंने अभी फेसबुक पर यह लिखा..)
हिंदी में लिखने के अक्सर पैसे नहीं मिलते. कविता/ निबन्धों के 5 सौ – हज़ार कुछ पत्रिकाओं को छोड़कर संपादक देने लायक नहीं समझते हैं. ऐसे में जब उत्साही युवा मित्र मुझसे पूछते हैं हिंदी में लिखने की और जीवन को जी सकने लायक चला पाने की क्या संभावना है ? मैं चुप हो जाती हूँ. क्योंकि मेरे पास कोई जवाब नहीं होता. सुन्दर प्रतिभाओं को पलायन करते निराश होते देखती हूँ. सोचती हूँ हिंदी में क्या कभी कोई बोर्हेस, कल्विनो, कुंदेरा नहीं हो पायेंगे?
उसपर हिंदी के नाशुक्रे पाठक हैं जो आपकी हर लाइन हर उक्ति अपने नाम से लगा देंगे लेकिन किताब खरीदने की और लेखक का नाम देने की बारी आने पर उनको न जाने क्या तकलीफ हो जाती है.
हिंदी के बलशाली समूह हैं जिनको क्रियेटिविटी और कविता के स्तर से कोई मतलब नहीं है, उनको हर दूसरे दिन उन्मादी ट्रोल्स की तरह आपसे सवाल करना है कि फलां सामाजिक मुद्दे पर आप क्यों नहीं बोले ? भले ही अतीत में आप लाख बोलते रहे हों. ये लोग इससे व्यवहार करेंगे जैसे असुरक्षित प्रेमी/प्रेमिका बार - बार सबके सामने आपसे आपके प्रेम का “प्रदर्शन” कराना ज़रूरी समझते हैं. अगर आपने यह प्रदर्शन हर दूसरे सप्ताह नहीं किया तो आप जन विरोधी हैं. लेकिन यही लोग आपका लिखा एक वाक्य पुनरुत्थानवादी विचारधारा के समर्थन में दिखा नहीं पायेंगे.
इतनी स्तरहीनता है, इतना शोर है, इतनी मजबूरियां है कि मैं किसी से कह नहीं पाती कि दोस्त सब छोड़ कर अपना जीवन साहित्य को समर्पित कर दो. करके भी क्या हासिल होगा? उपेक्षा, अपशब्द और दरिद्रता ?
वह दुश्चक्र है कि अच्छे कवियों को घर का किराया देने के लिए चिंतित होते देखती हूँ. महीने का खर्चा चलाने में माथे पर शिकन पड़ती है . घर वालों के ताने, परिवार का दुःख, साहित्यिक बहिष्कार, चरित्रहनन यही मिलता है हमारी भाषा के साहित्य में.
फिर भी लिखते जाना एक जिद है. एक साधना है. एक ज़रुरत है. इसलिए ज़ारी है.
-लवली गोस्वामी
मैं लगभग हर दिन खुद से सवाल पूछती हूँ कि मुझे इस सरकार से क्या दिक्कत है और मैं इसका विरोध क्यों करती हूँ?
बीते पांच सालों में एक-एक करके सारे रिश्तेदार दूर होते चले गए हैं। बचपन के दोस्तों ने ब्लॉक कर दिया कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दोस्तों ने कन्नी काटनी शुरू कर दी है। दफ्तर के साथी राजेश की लिस्ट में हैं मेरी नहीं। जो लोग मेरी नॉन पोलिटिकल पोस्ट के प्रशंसक थे, उनमें से कई मुझे अनफ्रेंड कर चुके हैं, कइयों ने अनफॉलो किया हुआ है।
मेरा शहर मुझे नहीं जानता है और जो जानता है वो मानता नहीं है। शहर में तमाम आयोजन होते हैं, कहीं से मुझे कोई बुलाता नहीं है।
अब तो हाल ये हो गए हैं कि कई बार राजेश भी चिढ़कर कह देते हैं कि तुम भयानक पॉलिटिकल हो रही हो।
मैं हर दिन खुद से सवाल पूछती हूँ कि मैं सरकार का विरोध क्यों करती हूँ?
मेरी प्रतिबद्धता किसी विचारधारा के प्रति नहीं, किसी दल और किसी व्यक्ति के प्रति भी नहीं है।
मेरी प्रतिबद्धता बेंथम के अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के प्रति है।
गाँधी के अंतिम व्यक्ति के प्रति है।
नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिकता के आग्रह के प्रति है।
अंबेडकर के सामाजिक न्याय और मार्क्स की आर्थिक समानता के प्रति है।
मिल की स्वतंत्रता के प्रति है। एवलिन की इक्वेेलिटी इन डिग्निटी के प्रति है।
मेरी प्रतिबद्धता, नदी-पहाड़-हवा-पंछी के प्रति है। आदिवासियों और उनकी संस्कृति के प्रति है। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक विरासत के प्रति है। इस देश की विविधता के प्रति है। परंपरा, संस्कृति, दर्शन, समाज के प्रति है।
नहीं जानती कि कौन-सी विचारधारा इसे समेटे हैं। यह भी नहीं जानती कि कौन-सा दल या कौन-सी व्यवस्था इसे पूरा कर पाएगी। आपको ये यूटोपिया लग रहा होगा, मुझे भी लगता है। मगर ये मेरा चुनाव नहीं है। यदि मुझे चुनने का मौका मिलता तो मैं भी सत्ता के साथ खड़ा होना ही चुनती, क्योंकि उसमें ही सबसे ज्यादा सुविधा है। उसमें सारे मौके मिलते हैं, बहुत सारे अवसर और बहुत सारी प्रतिष्ठा। प्रतिरोध में लगातार अकेले पड़ते जाते हैं।
मैं लगातार अकेली होती जा रही हूँ।
अभी जब मैं अपनी ही लिखी प्रेम कहानियों को या फिर दार्शनिक पीसेस को पढ़ती हूँ तो यकीन नहीं कर पाती हूँ कि ये मैंने ही लिखे हैं। इन पांच सालों में मेरे भीतर की सारी सरसता सूख गई है। अब ये कल्पना भी नहीं कर पाती कि कभी कोई प्रेम कहानी लिख पाऊँगी। कभी प्रकृति को लेकर मीठा और सरस पीस लिख पाऊँगी। अजीब-सी नकारात्मकता में रहने लगी हूँ।
इस प्रतिरोध में जितना परिश्रम और जितनी ऊर्जा खर्च हो रही है उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। मेरी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। कोई आए, रहे ज्यादा फर्क नहीं।
फिर भी क्यों विरोध करती हूं!
क्योंकि मेरी प्रतिबद्धता मेरा चुनाव नहीं है, मेरी आंतरिक मजबूरी है। (फेसबुक पोस्ट)
-अमिता नीरव