विचार / लेख
-रमेश अनुपम
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर केवल रूखमणी से मिलने के लिए ही कोलकाता से इतनी दूर आए हैं। उस जमाने में कोलकाता से बिलासपुर की ट्रेन यात्रा आज की तरह निरापद और शीघ्रगामी कहां रही होगी।
हम कल्पना कर सकते हैं उस समय कोलकाता से बिलासपुर की यात्रा कितनी कठिन तथा दूभर रही होगी। तब भी गुरुदेव ने रूखमणी से मिलने और जितनी भी राशि उनके पास है, वह सब उसे दे देने के लिए ही इस दुर्गम यात्रा का चुनाव किया था।
रेलवे स्टेशन के बड़े बाबू गुरुदेव पर कुपित हो रहे थे कि रूखमणी जैसी साधारण कुली की पत्नी, जो स्टेशन पर झाड़ू पोंछा किया करती थी, वह कहां गई? इसके बारे में भला कौन बता सकता है ?
गुरुदेव बड़े बाबू के सामने तब भी इस आशा के साथ खड़े हुए हैं कि शायद रूखमणी के बारे में कुछ पता चल सके, ताकि वे जिसकी खोज में इतनी दूर आए हैं, उससे उनकी भेंट संभव हो सके।
बड़े बाबू और गुरुदेव की बात सुनकर वहीं खड़ा हुआ टिकट बाबू हंसने लगा, फिर उसने बताया कि महीने भर पहले ही वे लोग शायद दार्जिलिंग या खुसरूबाग या पता नहीं कहां चले गए हैं। आगे टिकट बाबू ने यह भी जोड़ा कि उनके और कितने ठिकाने होंगे, यह कौन जानता है।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में इस प्रसंग का इस तरह से चित्रण किया है-
‘टिकट बाबू बलले हेंसे
तारा मासेक आगे
गेछे चले दार्जिलिंग
किंबा खसरूबागे
किम्बा आराकाने
शुधई जतो ठिकाना
तारा केऊ कि जाने’
रेल्वे स्टेशन के बड़े बाबू, टिकट बाबू और वहां बैठे सभी लोग विरक्त हो रहे हैं। गुरुदेव से कह रहे हैं वे यहां से कहां गए इसे भला कोई जान सकता है। उनके नए ठिकाने से किसी को क्या मतलब होगा।
गुरुदेव कैसे अपने हृदय को चीर कर दिखाएं, कैसे अपने हृदय में संचित भावनाओं को किसी के सामने प्रकट करें, कि रूखमणी को खोजते हुए वे यहां तक क्यों आए हैं ?
अपनी भावनाओं को प्रकट कर देने पर भी लोग क्या उसे ही मूर्ख सिद्ध करने नहीं लग जायेंगे ? क्या उसका ही उपहास नहीं उड़ायेंगे, कि रेल्वे स्टेशन पर झाड़ू पोंछा करने वाली एक अत्यंत साधारण सी महिला के लिए वे इतनी दूर से क्यों आए हैं।
यह जानकर तो लोग खुश ही होंगे कि उन्होंने अपनी पत्नी की बात न मान कर कम से कम पच्चीस रुपए तो बचा ही लिए। हर समझदार आदमी यही करता है, तो गुरुदेव ने भला क्या गलत किया। यह दुनिया तो ऐसे ही दुनियादारों से अटी पड़ी है, जिनके लिए भावनाओं और करुणा का कोई मोल ही नहीं।
उन सबके लिए अपने स्वार्थ तथा धन संग्रहण ही पृथ्वी की सबसे अनमोल संपत्ति है। संगीत, नृत्य चित्रकला, कविता, प्रकृति उनके लिए अर्थहीन है। ऐसे लोग गुरुदेव की पीड़ा को, उसके मर्म को भला कैसे समझ सकते हैं।
गुरुदेव की पीड़ा तो क्या किसी भी मनुष्य की पीड़ा और संवेदना को भी ऐसे लोग क्या कभी समझ पाते हैं ?
अपनी इस अथाह वेदना को गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में कुछ इस तरह से व्यक्त किया है-
‘तार ठिकानाय कार आछे
कोन काज
केमन करे बोझाई आमि
ओगो आमार आज’
गुरुदेव की वेदना को केवल गुरुदेव ही समझ सकते थे, गुरुदेव के हृदय सागर में उठ रही भावनाओं के ज्वारभाटा को गुरुदेव के अतिरिक्त कोई और नहीं जान सकता था।
गुरुदेव बिलासपुर रेल्वे स्टेशन पर अपार वेदना के भार में डूबे हुए समझ नहीं पा रहे हैं कि वे जीवनपर्यंत इस भार से कैसे मुक्त हो सकेंगे।
बिलासपुर रेल्वे स्टेशन पर अपना माथा किसी दीवार पर टिका कर गुरुदेव मन ही मन सोच रहें हैं, रूखमणी अगर मिल जाती तो उसे अपना सब कुछ सौंप कर निश्चिंत हो जाते और वापस कोलकाता लौट जाते।
मृणालिनी से किए गए छल से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते। पर हाय रे दुर्भाग्य ! उसे यह कौन सा दिन दिखला रहा है। हे निष्ठुर विधाता ! उसे कौन से पाप की इतनी बड़ी सजा दे रहा है।
गुरुदेव इस छोटे से रेल्वे स्टेशन की न जाने कितनी बार परिक्रमा कर चुके हैं, पर रूखमणी आज उन्हें स्टेशन पर कैसे मिल सकती थी, वह तो महीने भर पहले ही बिलासपुर छोड़ कर अपने पूरे परिवार के साथ न जाने कहां चली गई थी।
गुरुदेव का हृदय क्लांत है, चोखेर जल पलकों से बाहर आकर कभी भी भूमि पर टपक सकते हैं। गुरुदेव की आंखें जैसे किसी शून्य में विलीन हो गई हैं।
गुरुदेव केवल और केवल रूखमणी के बारे में ही सोच रहें हैं। उसकी फूल सी बेटी का ब्याह हुआ या नहीं, हुआ भी होगा तो वह अपनी बेटी को कोई आभूषण कैसे दे पाई होगी।
कोई माता-पिता अपनी बेटी के ब्याह में एक छोटा सा भी आभूषण न दे सके, तो उन पर क्या बीतती होगी? गुरुदेव सोच रहें है और उनकी आंखों से चोखेर जल किसी उद्दाम नदी की भांति बहता चला जा रहा है । (शेष अगले हफ्ते)