सामान्य ज्ञान
तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा से सम्बंधित है। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण आख्यान महर्षि भारद्वाज से संबंधित है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार मनुष्य का आचरण देवों के समान होना चाहिए। इस ग्रन्थ में मन को ही सर्वाच्च प्रजापति बताया गया है। कृष्ण-यजुर्वेदीय शाखा में एकमात्र यही ब्राह्मण अद्यावधि सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध है। ‘काठक-ब्राह्मण’ के केवल कुछ अंश ही प्राप्त हैं। शतपथ-ब्राह्मण के सदृश इसका पाठ भी सस्वर है। यह इसकी प्राचीनता का द्योतक है।
तैत्तिरीय-ब्राह्मण सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन काण्डों अथवा अष्टकों में विभक्त है। प्रथम दो काण्डों में आठ-आठ अध्याय अथवा प्रपाठक हैं। तृतीय काण्ड में 12 अध्याय (या प्रपाठक) है। भट्टभास्कर ने अपने भाष्य में इन्हें ‘प्रश्न’ भी कहा है। एक अवान्तर विभाजन अनुवाकों का भी है, जिनकी संख्या 353 है।
परंपरा से तैत्तिरीय-ब्राह्मण के प्रवक्ता के रूप में वैशम्पायन के शिष्य तित्तिरि की प्रसिद्धि है। नाम से भी यही प्रकट होता है। इसके अन्तर्गत सम्मिलित काठक-भाग 1 के प्रवचन का श्रेय भट्टभास्कर के अनुसार काठक को है। परम्परा के अनुसार आन्ध्र प्रदेश, नर्मदा की दक्षिण तथा आग्नेयी दिशा एवं गोदावरी के तटवर्ती प्रदेशों में तैत्तिरीय-शाखा का प्रचलन रहा है। बर्नेल ने इस दक्षिण भारतीय जनश्रुति को उद्धृत किया है, जिसके अनुसार दक्षिण की पालतू बिल्लियां भी तैत्तिरीय-शाखा से परिचित होती हंै।