विचार / लेख
-रमेश अनुपम
मृणालिनी देवी सब कुछ भूलकर यहां तक कि अपनी बीमारी को भी भूलाकर जिस तरह से रूखमणी के बारे में गुरुदेव को बताती जा रही थी, गुरुदेव के सामने उसे सुनने के सिवाय और कोई दूसरा चारा नहीं था। अभी असली कहानी के बारे में गुरुदेव को जानना शेष था।
गुरुदेव मन ही मन उस कहानी का केवल अंदाजा भर लगा पा रहे थे कि न जाने इस कहानी का अंत किस दारुण विपदा से हो। किसी के अंतर्मन में झांक पाना इतने बड़े कवि के लिए भी संभव कहां था ?
और वह कथा जो मृणालिनी देवी सुनाने वाली थी उसी मूल कथा का गुरुदेव को इंतजार था, पर गुरुदेव को इसका तनिक भी आभास नहीं था कि वह मूलकथा कुछ अधिक ही महंगी सिद्ध होने वाली है।
‘फांकि’ कविता में इस घटना का चित्रण करते हुए गुरुदेव ने लिखा है :
‘आसाल कथा शेष छिलो
सेईटी किछू दामी।
कुलीर मेयेर बिए होबे ताई।
पेंचे ताबिज बाजूबंध गाडिये देअया चाई। अनेक टेने टूने ताबे पंचीश टका खरचे हबे तराई।’
(असली कहानी समाप्त हुई, जो गुरुदेव के लिए काफी महंगी साबित हुई। कुली की बेटी का ब्याह होने वाला है, इसलिए उसके लिए बाहों में पहने जाने वाले आभूषण बाउटी, ताबीज तथा बाजूबंद बनवाने के लिए रूखमणी को पच्चीस रुपए देना होगा)
रूखमणी की बेटी का ब्याह होने वाला है पर रूखमणी के पास इतने रुपए नहीं हैं कि वह अपनी प्यारी सी बेटी के लिए आभूषण बनवा सके।
रेल्वे स्टेशन पर झाड़ू पोंछा करने वाली तथा जिसका पति रेल्वे में कुली का काम करता हो, वह अपनी बेटी को उसकी शादी में भला क्या दे सकती थी। जैसे तैसे शादी हो जाए यही उनके लिए बहुत बड़ी बात थी।
पर बेचारे गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी करें तो क्या करें। उनकी मुसीबत भी कोई कम नहीं थी।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर चिकित्सा के लिए पेंड्रा रोड जा रहे थे, जहां उन्हें कब तक रहना पड़ेगा और इसमें कितने रुपए खर्च होंगे इसका कोई अनुमान ही नहीं था। ऐसी विपदा के समय आदमी ठोक बजा कर ही अपनी गांठ से रुपए निकालता है।
गुरुदेव यह भी जानते थे कि पेंड्रा रोड एक अपरिचित जगह है, जहां मुसीबत पडऩे पर कोई उसकी सहायता करने वाला नहीं मिलेगा। सन 1902 में पच्चीस रुपए कोई मामूली रकम भी नहीं थी।
इतनी बड़ी राशि वह भी परदेश में और वह भी जब ईलाज करवाने के लिए टी.बी. सेनेटोरियम जा रहे हों, गुरुदेव ने देना उचित नहीं समझा।
गुरुदेव मृणालिनी देवी के कोमल हृदय और उनकी करुणा से भली-भांति परिचित थे। वे जानते थे कि उन्हें हमेशा किसी की मदद करने में अपार सुख और संतोष मिलता है। इसलिए गुरुदेव उनकी भावनाओं का हमेशा ख्याल रखते थे।
पर बिलासपुर स्टेशन में जो कुछ घटित हो रहा था, उसे वे उचित नहीं मान पा रहे थे। मन ही मन वे रूखमणी देवी पर झुंझला भी रहे थे और इस विपदा से किस तरह से बाहर निकला जाए इसका जुगाड़ भी लगा रहे थे।
वे किसी भी कीमत में रेल्वे स्टेशन पर झाड़ू पोंछा करने वाली को पच्चीस रुपए जैसी बड़ी रकम नहीं देना चाहते थे। गुरुदेव यह भी सोच रहे थे कि रूखमणी भोली भाली मृणालिनी को अपनी बातों में फंसा कर उसे लूट रही है।
गुरुदेव सोच रहे थे कि ऐसे ही वह रुपए लुटाता रहा तो क्या होगा ?
गुरुदेव ने इससे बचने के लिए मृणालिनी देवी से झूठ बोला कि उसके पास सौ-सौ रुपए के नोट हैं, खुदरा राशि नहीं है।
इस प्रसंग के विषय में गुरुदेव
‘फांकि’ कविता में लिखते हैं :
‘जात्री घरेर करे झाड़मोंछा। पंचिस टका दिताई होबे ताके। एमन होले देउले होतो कोय दिन बाकी थाके।
अच्छा-अच्छा होबे-होबे।
आमी देखछी मोट।
एक सौ टकार आछे एकटा नोट।
(जो यात्री प्रतीक्षालय में झाड़ू पोंछा कर रही है, उसे अगर पच्चीस रुपए देना होगा तो उसके पास रखी जमा पूंजी ऐसे कितने दिन चलेगा।
अच्छा-अच्छा देखता हूं पर अरे मेरे पास तो सौ रुपए का नोट भर है, चिल्हर नहीं है)
पर मृणालिनी देवी तो मृणालिनी देवी थी, गुरुदेव के इस झांसे में भला कैसे आ जाती। उन्होंने गुरुदेव से कहा स्टेशन में कहीं से भी इस सौ रुपए को तुड़वाओ और रूखमणी को पच्चीस रुपए दो।
गुरुदेव अब करते तो क्या करते ?उनका शतरंज का दांव ही उल्टा पड़ गया था। गुरुदेव समझ गए थे कि अब मृणालिनी देवी को इधर उधर की बातों में उलझाए रखना और शतरंज की बिसात पर उन्हें बहलाए रखना कठिन है।
वह तो जैसे रूखमणी की बेटी के आभूषण बनवाने के लिए पच्चीस रुपए देने की जिद पर ही अड़ गई थी। गुरुदेव अब भला करते तो क्या करते ?
शेष अगले रविवार...