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कीटनाशकों का मंडराता संकट और घिसापिटा कानून
02-Apr-2021 9:13 PM
कीटनाशकों का मंडराता संकट और घिसापिटा कानून

दुनिया में कीटनाशकों का संकट स्वास्थ्य, जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा के लिये गंभीर संकट बन रहा है. भारत को इसे लेकर अपने घिसे-पिटे कानून को बदलने की जरूरत है.

      डॉयचे वैले पर हृदयेश जोशी की रिपोर्ट- 

फसलों में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल न केवल आपके स्वास्थ्य के लिये नुकसानदेह है बल्कि वह खेतों में काम कर रहे किसानों और मजदूरों के लिये भी जानलेवा होता है. इसके अलावा कीटनाशकों से भूजल और हवा प्रदूषित होती है और मिट्टी  में भी लम्बे समय तक इसका असर रहता है. अब नेचर जियोसाइंस में छपा शोध बताता है कि पूरी दुनिया में कृषि भूमि के 64 फीसदी हिस्से पर कीटनाशकों का कुप्रभाव पड़ रहा है जिससे मानव स्वास्थ्य के साथ जैव विविधता को खतरा बढ़ेगा. जानकार बताते हैं कि यह हालात भारत जैसे देश के लिये खासतौर पर चिन्ता का विषय है जहां कीटनाशकों को नियंत्रित करने के लिये कोई प्रभावी कानून नहीं है.

क्या कहता है नया शोध? 
इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने 168 देशों में नब्बे से अधिक कीटनाशकों के प्रभाव का अध्ययन किया और पाया कि दुनिया की करीब दो तिहाई कृषि भूमि (245 लाख वर्ग किलोमीटर) पर कीटनाशकों के कुप्रभाव दिख रहे हैं. इसमें से लगभग 30 प्रतिशत भूमि पर यह खतरे कहीं अधिक गहरे हैं. शोध में रूस और यूक्रेन जैसे देशों में कीटनाशकों के प्रभाव को लेकर चेतावनी दी गई है तो भारत और चीन भी उन देशों में हैं जहां जहरीले छिड़काव का खतरा सर्वाधिक है.

कीटनाशकों हवा और मिट्टी को प्रदूषित करने के साथ नदी, पोखर और तालाबों जैसे जलस्रोतों और भूजल (ग्राउंड वॉटर) को भी प्रदूषित कर रहे हैं. रासायनिक कीटनाशक फसलों के ज़रूरी मित्र कीड़ों को मार कर उपज को हानि पहुंचाते हैं और तितलियों, पतंगों और मक्खियों को मारकर परागण की संभावना घटा देते हैं जिससे जैव विविधता को हानि होती है. यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि दुनिया की आबादी साल 2030 तक 850 करोड़ को पार कर जायेगी और कीटनाशकों के असर खाद्य सुरक्षा के लिये गंभीर संकट पैदा कर सकते हैं.

भारत में अब भी घिसा-पिटा कानून
भारत में जनसंख्या दबाव और घटती कृषि योग्य भूमि के कारण कीटनाशकों का इस्तेमाल नियंत्रित किये जाने की ज़रूरत है लेकिन समस्या ये है कि यहां इसके लिये कोई प्रभावी नियम नहीं हैं क्योंकि देश में अब तक पांच दशक पुराना "इन्सेक्टिसाइड एक्ट – 1968” चल रहा है. इसमें किसी कीटनाशक के पंजीकरण से लेकर अप्रूवल, मार्केटिंग और इस्तेमाल के सख्त नियम नहीं हैं.

भारत अमेरिका, जापान और चीन के बाद दुनिया में कीटनाशकों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है. साल 2014-15 और 2018-19 के बीच भारत में कीटनाशकों का उत्पादन 30,000 टन बढ़ गया. भारत में कुछ बेहद हानिकारक कीटनाशकों (जिन्हें क्लास-1 पेस्टिसाइड की श्रेणी में रखा गया है) के कृषि में इस्तेमाल करने की भी अनुमति है जिन्हें दूसरे कई देशों में प्रयोग करने की इजाजत नहीं हैं. 

वर्तमान बिल की जगह एक नया बिल लाने की कोशिश यूपीए-1 सरकार के वक्त 2008 में की गई लेकिन तब बिल संसद में पेश नहीं किया जा सका. उसके बाद साल 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार ने बिल संसद में पेश किया लेकिन पास नहीं हो सका. पिछले साल सरकार ने फिर से "पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल -2020” संसद में पेश किया.  दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरेंमेंट (सीएसई) में फूड सेफ्टी और टॉक्सिन के प्रोग्राम हेड अमित खुराना कहते हैं,  "प्रस्तावित बिल को आदर्श क़ानून तो नहीं कहा जा सकता लेकिन कम से कम आज के हालात से निबटने के लिये यह 1968 के क़ानून की तुलना में बेहतर है. पिछले चार साल से नया क़ानून लाने की कोशिश ही हो रही है और वह पास नहीं हो रहा जबकि कीटनाशकों के कुप्रभाव हम सबके लिये गहरी चिंता के विषय बने हुये हैं.” 

जैविक खेती की ओर
साल 2018-19 में देश में 72,000 टन से अधिक रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ. देश के 8 राज्य कुल कीटनाशकों में का 70 प्रतिशत इस्तेमाल करते हैं. महाराष्ट्र, यूपी और पंजाब कीटनाशकों को इस्तेमाल करने वाली लिस्ट में सबसे ऊपर हैं. करीब 57 प्रतिशत कीटनाशक सिर्फ दो फसलों – कपास और धान – में इस्तेमाल होते हैं. इससे पता चलता है कि कीटनाशकों का उपयोग अवैज्ञानिक और अनियंत्रित तरीके से हो रहा है.

भारत में 1968 का जो कानून अभी लागू है उसके तहत उल्लंघन करने पर केवल 2000 रुपये का जुर्माना और 3 साल तक की सज़ा का प्रावधान है जबकि प्रस्तावित कानून में 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है और अपराधी को 5 साल की कैद हो सकती है. जानकार कहते हैं कि नया कानून बनने के बाद भी सरकार का काम कीटनाशकों को अनुमित देने भर का नहीं होना चाहिये बल्कि वह ऐसी कृषि नीति अपनाये जिससे कीटनाशकों का खेती में इस्तेमाल कम से कम हो. 

जैविक खेती यानी ऑर्गेनिक फार्मिंग इस दिशा में एक प्रभावी और टिकाऊ हल है लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इसके लिये सरकार को अधिक सक्रिय होना होगा. भारत में अब तक जैविक खेती चुनिंदा किसान आंदोलनों और सिविल सोसायटी के भरोसे आगे बढ़ी है.   हालांकि केंद्र सरकार ने 2015-16 में परम्परागत कृषि विकास योजना शुरू की लेकिन पूर्ण रूप से ऑर्गेनिक फार्मिंग करने वाले सूबे के रूप में एक राज्य सिक्किम का नाम ही गिनाया जाता है.

वैसे हिमाचल प्रदेश 2022 तक और आंध्र प्रदेश साल 2027 तक पूरी तरह नेचुरल खेती वाले राज्य बनने का दावा कर रहे हैं लेकिन अभी पूरे देश में कुल कृषि भूमि के महज़ 2 प्रतिशत पर ही जैविक खेती हो रही है. जानकार कहते हैं कि किसानों को अपनी ज़मीन को जैविक खेती के लिये तैयार करने (कन्वर्जन) में मदद चाहिये और सस्ते दामों में बायो प्रोडक्ट और जैविक खाद उपलब्ध करानी होगी. उन्हें उत्पादों के सर्टिफिकेशन और उचित दामों सुनिश्चित करने वाले बाज़ार से जोड़ना ज़रूरी है.

अमित खुराना के मुताबिक, "भारत सरकार को परम्परागत कृषि विकास योजना जैसे कार्यक्रम से आगे बढ़कर अधिक महत्वाकांक्षी होना होगा. इस कार्यक्रम का बजट कुछ सौ करोड़ का ही है जो कि रासायनिक खादों को दी जाने वाली 70,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी के आगे कुछ नहीं है. कोई हैरत की बात नहीं कि ऑर्गेनिक और नेचुरल फार्मिंग बहुत छोटे दायरे में सीमित है. इसे जन-आंदोलन बनाने के लिये एक मज़बूत नीतिगत फ्रेमवर्क और लागू करने में आने वाली अड़चनों से निपटने के लिये प्रोग्राम बनाना होगा.” (dw.com)

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