विचार / लेख
-रितेश मिश्रा
फिऱाक़ साहेब पीने के बाद थोड़ा बहक जाते थे। एक बार हॉलैंड हॉल में फिऱाक़ साहेब को एक जिरह में बुलाया गया। चूँकि फिऱाक़ साहेब ने शराब पी थी तो उन्होंने जिरह के शुरुआत में ही उस समय के कुलपति अमर नाथ झा को उल्टा सीधा कहने लगे। सुबह जब झा साहेब को पता लगा तो उन्होंने एक आदेश निकाला कि अगर फिऱाक़ साहेब को किसी आयोजन में बुलाया जाय तो दिन में ही और दिन ढलने के बाद उनको किसी भी आयोजन का निमंत्रण न दिया जाय। न फिऱाक़ ने कभी वो आदेश माना न किसी और ने। सब को फिऱाक़ साहेब को सुनना बहुत पसंद था।
एक किस्सा और है । 1950 में एक बार अली सरदार जाफरी साहेब एक मुशायरे में शिरकत करने इलाहाबाद आये। पहले तो फिऱाक़ साहेब और जाफरी ने पी और उसके बाद जब मुशायरे में पहुंचे। अली सरदार जब बोलने लगे तो फिऱाक़ साहेब उनको पीछे से गरियाने लगे। शायद कोई गज़़ल पे मसला हो गया था। आयोजकों ने बहुत समझाया फिऱाक़ साहेब को, माने नहीं और अंत में फिऱाक़ साहेब को घर छोड़ दिया गया।
बहुत देर तक जब फिऱाक़ साहेब की आवाज़ जाफरी साहेब के कानों में नहीं आई तो उन्होंने आयोजकों से पूछा तो उन्हें बताया गया कि फिऱाक़ घर छोड़ दिया गया है। उस समय माइक्रोफोन उनके हाथ में था और उन्होंने मंच से कहा ‘हरामजादों, वो मुझे गाली दे रहा था या तेरे माँ -बाप को, उसका हक़ है मुझे गाली देना, तुम बीच में कौन होते हो। तेरे मुशायरे की ऐसी कि तैसी मुझे मेरे फिऱाक़ के पास ले चलो’
जाफरी साहेब ने मुशायरा वहीं छोड़ दिया और फिऱाक़ के घर पहुंचे। फिऱाक़ साहेब अपने लॉन में टहल रहे थे। जाफरी साहेब उनके पास पहुंचते ही उनको गले लगा लिया। दोनों रोने लगे। जाफरी साहेब बोले ‘हरामज़ादे, न हम दोनों को गाली देने देते हैं , न हंॅसने देते हैं न रोने देते हैं।’ दोनों तब तक गले मिलते रहे जब तक पड़ोसी अपने घर से बाहर नहीं निकल आये।