विचार / लेख

विश्व रंगमंच दिवस आज
27-Mar-2021 1:58 PM
विश्व रंगमंच दिवस आज

देश के विख्यात रंगकर्मी और फिल्मकार अशोक मिश्र ने फेसबुक पर इस तस्वीर के साथ लिखा है- रंगमंच से जुडक़र आदमी अच्छा, मजबूत इंसान बनना, संघर्ष करना, हँसते हुए जहर के घूंट पीना, दूसरों और स्वयं को आनन्दित करना सीखता है। विश्व रंगमंच दिवस सभी को मुबारक। ये छत्तीसगढ़, रामगढ़ के सीताबेंगरा की प्राचीन रंगशाला है, जो गवाह है कालिदास और रंगमंच के आदि इतिहास की।

(अतिरिक्त जानकारी छत्तीसगढ़ न्यूज डेस्क से)
सीताबेंगरा गुफा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 280 किलोमीटर दूर रामगढ़ में स्थित है। अंबिकापुर-बिलासपुर मार्ग पर स्थित रामगढ़ के जंगल में तीन कमरों वाली यह गुफा देश की सबसे पुरानी नाटयशाला है। सीताबेंगरा गुफा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काट कर बनाई गयी है। यह गुफा प्रसिद्ध जोगीमारा गुफा के नजदीक ही स्थित है। सीताबेंगरा गुफा का महत्व इसके नाट्यशाला होने से है। माना जाता है कि यह एशिया की अति प्राचीन नाट्यशाला है। इसमें कलाकारों के लिए मंच निचाई पर और दर्शक दीर्घा ऊँचाई पर है। प्रांगन 45 फुट लंबा और 15 फुट चौड़ा है। इस नाट्यशाला का निर्माण ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का माना गया है, क्योंकि पास ही जोगीमारा गुफा की दीवार पर सम्राट अशोक के काल का एक लेख उत्कीर्ण है। ऐसे गुफा केन्द्रों का मनोरंजन के लिए प्रयोग प्राचीन काल में होता था।

रामगढ़ शैलाश्रय के अंतर्गत सीताबेंगरा गुहाश्रय के अन्दर लिपिबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर इस नाट्यशाला का निर्माण लगभग दूसरी-तीसरी शताब्दी ई.पू. होने की बात इतिहासकारों एवं पुरात्तवविदों ने समवेत स्वर में स्वीकार की है। सीताबेंगरा गुफा का गौरव इसलिए भी अधिक है, क्योंकि कालिदास की विख्यात रचना ‘मेघदूत’ ने यहीं आकार लिया था। यह विश्वास किया जाता है कि यहाँ वनवास काल में भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के साथ पहुंचे थे। सरगुजा बोली में ‘भेंगरा’ का अर्थ कमरा होता है। गुफा के प्रवेश द्वार के समीप खम्बे गाडऩे के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर श्रीराम के चरण चिह्न अंकित हैं। कहते हैं कि ये चरण चिह्न महाकवि कालिदास के समय भी थे। कालीदास की रचना च्मेघदूतज् में रामगिरि पर सिद्धांगनाओं (अप्सराओं) की उपस्थिति तथा उसके रघुपतिपदों से अंकित होने का उल्लेख भी मिलता है।

यह विश्वास किया जाता है कि गुफा का संचालन किसी ‘सुतनुका देवदासी’ के हाथ में था। यह देवदासी रंगशाला की रूपदक्ष थी। देवदीन की चेष्टाओं में उलझी नारी सुलभ हृदया सुतनुका को नाट्यशाला के अधिकारियों का ‘कोपभाजन’ बनना पड़ा और वियोग में अपना जीवन बिताना पड़ा। रूपदक्ष देवदीन ने इस प्रेम प्रसंग को सीताबेंगरा की भित्ति पर अभिलेख के रूप में सदैव के लिए अंकित कर दिया। यह भी कहा जाता है कि इस गुफा में उस समय क्षेत्रीय राजाओं द्वारा भजन-कीर्तन और नाटक आदि करवाए जाते रहे होंगे।

सीताबेंगरा गुफा का निर्माण पत्थरों में ही गैलरीनुमा कटाई करके किया गया है। यह 44 फुट लम्बी एवं 15 फुट चौड़ी है। दीवारें सीधी तथा प्रवेश द्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई 6 फ़ीट है, जो भीतर जाकर 4 फ़ीट ही रह जाती हैं। नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों को छेद दिया गया है। गुफ़ा तक जाने के लिए पहाडिय़ों को काटकर सीढिय़ाँ बनाई गयी हैं। सीताबेंगरा गुफ़ा में प्रवेश करने के लिए दोनो तरफ़ सीढिय़ाँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार से नीचे पत्थर को सीधी रेखा में काटकर 3-4 इंच चौड़ी दो नालियाँ जैसी बनी हुई है। इसमें सीढ़ीदार दर्शक दीर्घा गैलरीनुमा ऊपर से नीचे की और अद्र्धाकार स्वरूप में चट्टान को इस तरह काटा गया है कि दर्शक-दीर्घा में बैठकर आराम से कार्यक्रमों को देखा जा सके।

गुफ़ा के बाहर दो फुट चौड़ा गड्ढ़ा भी है, जो सामने से पूरी गुफ़ा को घेरता है। मान्यता है कि यह लक्ष्मण रेखा है। इसके बाहर एक पांव का निशान भी है। इस गुफ़ा के बाहर एक सुरंग है। इसे ‘हथफोड़ सुरंग’ के नाम से जाना जाता है। इसकी लंबाई कऱीब 500 मीटर है। यहाँ पहाड़ी में राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की 12-13वीं सदी की प्रतिमा भी है। चैत्र नवरात्र के अवसर पर यहाँ मेला लगता है। सीताबेंगरा गुफा को ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’ द्वारा संरक्षित किया गया है।

सीताबेंगरा गुफा के ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए अभिलेख का आशय है-
हृदय को देदीप्यमान करते हैं स्वभाव से महान् ऐसे कविगण रात्रि में वासंती से दूर हास्य एवं विनोद में अपने को भुलाकर चमेली के फूलों की माला का आलिंगन करता है।

दूसरे शब्दों में यह रचनाकार की परिकल्पना है कि ‘मनुष्य कोलाहल से दूर एकांत रात्रि में नृत्य, संगीत, हास्य-परिहास की दुनिया में स्वीकार स्वर्गिक आनन्द में आलिप्त हो। भीनी-भीनी खुशबू से मोहित हो, फूलों से आलिंगन करता हो।’

सीताबेंगरा गुफा का गौरव इसलिए भी अधिक है, क्योंकि कालीदास ने विख्यात रचना ‘मेघदूत’ यहीं लिखी थी। कालीदास ने जब उज्जयिनि का परित्याग किया था तो यहीं आकर उन्होंने साहित्य की रचना की थी। इसलिए ही इस जगह पर आज भी हर साल आषाढ़ के महीने में बादलों की पूजा की जाती है। भारत में संभवत: यह अकेला स्थान है, जहाँ कि बादलों की पूजा करने का रिवाज हर साल है। इसके लिए हर साल प्रशासन के सहयोग से कार्यक्रम का आयोजन होता है। इस पूजा के दौरान देखने में आता है कि हर साल उस समय आसमान में काले-काले मेघ उमड़ आते हैं। (भारतकोश से)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news