विचार / लेख
दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र भारत में कई जनतांत्रिक देशों से प्रेरणा और प्रावधान लेकर रचे शासन में जन अधिकारों का अनंत आकाश बुना तो गया है। अनुभव में लेकिन आया है कि बोलने और प्रतिरोध करने का लोकमत तो क्या सोचने तक की मानसिकता को एक तरह से सत्तानशीन हुक्मनामे के नागपाश में बांध दिया गया है। किसी ने नहीं सोचा होगा कि भारत में जम्हूरियत लागू होकर भी राजशाही से ज्यादा क्रूर तानाशाही के तेवर टर्राने लगेंगे कि हर मनुष्य अभिव्यक्ति को कोलाहल कह दिया जाएगा। जीवन को तानाशाही के तेवरों की मिन्नतें करनी पड़ेंगी, बल्कि देश के क्रमश: बड़े होते जाते जनतांत्रिक हुकूमतशाह के सामने उसी अनुपात में नाक तक रगड़नी पड़ेगी। यह तो आईन बनाने वाले वसीयतकारों ने अपनी मासूमियत के चलते सोचा ही नहीं होगा कि जिन्हें नागरिकों की अस्मिता के रक्षा के लिए मुकर्रर कर रहे हैं, वे जल्लाद की भूमिका चुनकर अपने रचे अहंकारमहल में अट्टहास करते खुद अपने को अमर होने का प्रमाणपत्र जारी करेंगे।
मुख्यतः अमेरिका के फिलाडेल्फिया के घोषणापत्र से मनुष्य को नागरिक बनाते रहने के समीकरण को हल करने के सूत्र लम्बी बहस के बाद आयातित और अंगीकृत किए गए। प्रशासन को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के त्रिभुज, त्रिदेव, त्रिलोक में प्रशासन प्रबंध को त्रिशंकु बनने से रोकने के लिए कई नसीहतें भी दी गईं। मामला फिर भी तो सिफर होता गया। 137 करोड़ों की नागरिक-यात्रा तेज ढलान पर ही है। आगे घुमावदार अंधा मोड़ है। अगले छोर पर हिन्दू-मुस्लिम नफरत, गरीबों का काॅरपोरेटी-शोषण, संसदीय बहुमत का धनुष टंकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंधुआ मीडियाकर्मियों का हुजूम, पुलिस, गुंडे, सेना और हर तरह के सत्ताई अत्याचार-कुल की अंधभक्ति की खाई लोकतंत्र के भविष्य का अंत पाने की सुगबुगाहट में है। साफ लिखा है इस देश की सबसे मुकम्मिल, प्रतिनिधिक जनतांत्रिक पोथी में ‘हम भारत के लोगों का ऐलान है कि देश समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, आर्थिक समानता और हर तरह के मतभेद को दरकिनार कर हर मनुष्य की बराबरी के अधिकारों का देश है।'
13 नवम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के मकसद वाला प्रस्ताव रखा। सार्थक आपत्ति डाॅ0 अंबेडकर ने की कि लोकतंत्र और समाजवाद शब्दों को साफ साफ अभिव्यक्त नहीं किया गया है। लोकतंत्र शब्द तो जुड़ा। समाजवाद का तेवर संविधान की इमला में होने के बावजूद देश की आर्थिक हालत, पूंजीवादियों और सामंतवादियों के गठजोड़ की संदिग्ध भूमिका और अंतरराष्ट्रीय व्यापार बाजार में स्वायत्त हैसियत नहीं होने से पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को मुखर नहीं किया गया। 1973 में सुप्रीम कोर्ट में अपने सबसे बड़े मुकदमे केशवानंद भारती में 13 जजों की बेंच ने पत्थर की लकीर उकेर दी कि पंथनिरपेक्षता भारत के संविधान का बुनियादी ढांचा है। उसे संविधान संशोधन के जरिए भी नहीं बदला जा सकता। भारत दुनिया के सामने अपनी पंथनिरपेक्षता का चेहरा उजला कर दिखाता रहता है। इंदिरा गांधी ने तो उसके चार वर्ष बाद पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को संविधान के मुखड़े में जोड़ा। ऊहापोह, मतभेद और प्रयोगमूलक शास्त्रार्थ के चलते अनुच्छेद 39 में साफ लिखा कि देश की प्राकृतिक संपदा का दोहन इस तरह ही होगा कि कुदरती दौलत देश के सभी लोगों के काम आए। कहीं नहीं लिखा कि राष्ट्रीयकरण को नेस्तनाबूद करते सारी दौलत काॅरपोरेटियों को सौंप सकें। अमीरों को देश की संपत्ति का ट्रस्टी कहते हुए भी गांधी ने दो टूक कहा था बड़े उद्योगों और चुनिंदा कार्य व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया जाए।
अभिव्यक्ति और आंदोलन आदि की आजादी के अमेरिकी तत्व संविधान की वाचालता में गूंजते हैं। निजाम का लेकिन तंत्र इतना अकड़ गया है कि अनुच्छेद 19 में सरकार के सीमित प्रतिबंधात्मक अधिकारों को भी आकाश समझ कर अपनी हेकड़ी को अनंत कर लिया है। बिल्कुल साफ है कि नागरिकों को हर सरकारी हुक्म बल्कि विधायिका के विधायन के खिलाफ आवाज उठाने और आंदोलन करने का पूरा हक है। सुप्रीम कोर्ट को असाधारण अधिकार हैं कि नुकीले सरकारी तेवरों को जनता की समझ के खिलाफ होने पर भोथरा कर दे। पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट ने रहस्य की चादर ओढ़ रखी है। उसने अपनी अभिव्यक्ति के जनाभिमुखी चेहरे पर सरकारी नस्ल का नकाब झिलमिला लिया है। सुप्रीम कोर्ट नागरिक आजादी का कैदघर या अनाथालय नहीं उसका गुरुकुल कहा गया है। यह समीकरण उलझ क्यों रहा है?
राज्यों की सीमाओं में घटबढ़ करने का संसद के जरिए केन्द्र को अधिकार है। उसका यह अर्थ नहीं कि प्रभावित प्रदेशों के नागरिकों की आवाज को गूंगा समझ या बना लिया जाए। भारतीय नागरिकता अपनी उदारता के लिए जगत प्रसिद्ध है। नागरिकों में मजहब, जाति, कुल, गोत्र की मानसिकता उन कंकड़ों की तरह है जो अपने चावल के दानों के बीच घुसकर पक जाएं तो दांतों और पेट तक में गड़ते हैं। केन्द्र सरकार को मसलन अमेरिका के भी मुकाबले भारत में ताकतवर बना दिया गया। देश तब भारत-पाक विभाजन के कारण खूंरेजी, हिंसा और बटवारे की आग में राख होने को उद्यत था। फिर भी परन्तुक लगाया कि अभिभावक भूमिका वाला केन्द्र राज्यों के साथ सौतेले पिता की तरह आचरण नहीं करेगा। केन्द्र बाद में करता रहा है। फेडरल नस्ल के देश के प्रदेश केन्द्र के अनुचर नहीं अनुज हैं। कहते हैं बड़े भाई राम ने छोटे भाई के हक में राजगद्दी छोड़ दी। छोटे भाई भरत ने लेकिन खंड़ाऊ राज्य स्थापित किया। बड़ा भाई केन्द्र प्रदेशों का सब कुछ लूट खसोट कर काॅरपोरेटियों को देता चला जा रहा है। भरत भूमिका के प्रदेश भी असहयोग लेकिन असमर्थता के बावजूद बड़े भाई से अधिकारों से खुलासा और बटवारा चाहते हैं।
दुनिया की भी हालत ऐसी है कि प्रकट युद्ध नहीं होने पर भी शांति नहीं है। राज्य और केन्द्र के अधिकारों में पहले ही संविधान ऋषियों ने पुख्ता बटवारा कर दिया है। फिर भी कहीं ज़्यादा अधिकार प्राप्त केन्द्र प्रदेशों के इलाकों में इस तरह घुसता रहता है जैसे गायों के रेवड़ में कोई उन्मत्त सांड़ घुसने की कोशिश करे। संविधान हर नागरिक को व्यापार करने की अनुमति देता है लेकिन मध्यवर्ग, मुफलिसों और गरीबों की सांसों की कीमत पर नहीं। रेलगाड़ी, वायुयान, अस्पताल, स्कूल, काॅलेज, दवाएं, पेट्रोल, डीजल, खाद्य सामग्री सबके बाजार निजी हाथों में सत्तापुरुषों द्वारा दहेज की तरह सौंपे जा रहे हैं। मुनाफाखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी कुछ लोगों के जीवन का मकसद हैं। वह हविश सरकार की गोद में बैठकर आंकड़ों की अंकगणित से चलते चलते बदनाम रिश्तों की बीजगणित में तब्दील हो गई है। दुनिया के सामने भारत का चेहरा विज्ञानसम्मत, प्रोन्नत, आधुनिक लेकिन मर्यादा कुल के देश की तरह हो पाना संभावित और आशान्वित किया गया था। कहां गए वे लोग जिन्होंने अपनी संवैधानिक औलादों पर भरोसा किया था? उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि उनके बाद की नागरिक पीढ़ियां भी नपुंसकता को नए भारत का चरित्र बनाएंगी। इतिहास अलबत्ता कुरबानी और अच्छाई करने वालों का ही यादनामा होता है। अपने पुरखों के रहमोकरम से ग़ाफिल रहकर करोड़ों भारतीय फकत जिंदा रहने भर को जीवन कैसे समझ सकते हैं।