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छत्तीसगढ़ एक खोज : चौथी किस्त
14-Feb-2021 5:26 PM
छत्तीसगढ़ एक खोज : चौथी किस्त

किशोर नरेंद्र की रायपुर यात्रा

-रमेश अनुपम

कोतवाली की स्थापना अंग्रेजों द्वारा सन् 1802 में ही हो चुकी थी। यहीं रायपुर कचहरी संचालित होती थी। कानूनी मुकदमेबाजी भी यहीं निपटाए जाते थे। जिसके चलते भूतनाथ डे ने कोतवाली के नजदीक ही घर खरीद लिया था। कचहरी घर से एकदम पास होने के कारण उन्हें आने-जाने में काफी सहूलियत होती थी। इसलिए वे विश्वनाथ दत्त के परिवार के लिए भी पास में ही कोई मकान किराए पर लेना चाहते थे।

भूतनाथ डे और विश्वनाथ दत्त के कारण डे भवन उन दिनों बांग्लाभाषी भद्र लोगों का केंद्र बिंदु बन चुका था। प्राय: सांयकाल होते-होते डे भवन भद्र बंगालियों का अड्डा बन जाता था।

तारादास बंद्योपाध्याय, कैलाशचंद्र बंद्योपाध्याय, बिनोद बिहारी राय चौधुरी, केदारनाथ बागची, पंचानन भट्टाचार्य तथा मन्मथनाथ सेन जैसे भद्र लोग उन दिनों डे भवन में सांयकाल जुटा करते थे।

उन दिनों बीस हजार की आबादी वाले रायपुर शहर में इने-गिने ही बंगाली समाज के लोग हुआ करते थे। जिनमें से तारादास बंद्योपाध्याय, कैलाश चंद्र बंद्योपाध्याय, बिनोद बिहारी राय चौधुरी, केदारनाथ बागची, पंचानन भट्टाचार्य तथा मन्मथनाथ सेन प्रमुख थे।

किशोर नरेंद्र के रायपुर प्रवास के दिनों में तारादास बैनर्जी उनके सबसे घनिष्ठ एवं आत्मीय मित्र हुआ करते थे। तारादास बैनर्जी डॉक्टर यू. डी.बैनर्जी के मंझले भाई थे। नरेंद्र और तारादास एक साथ घूमते, विभिन्न विषयों पर बातचीत करते, दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे। दोनों मित्र ज्ञान-विज्ञान के अलावा धर्म तथा दर्शन में भी रुचि रखते थे।

रायपुर आने के पश्चात् नरेंद्र में जिस बदलाव को उनके परिवार के सदस्यों द्वारा लक्ष्य किया गया वह था कोलकाता की तुलना में शारीरिक एवं मानसिक रूप से नरेंद्र का पहले से कहीं अधिक हृष्ट-पुष्ट होना। कहा जाए तो रायपुर की जलवायु और वातावरण सबसे अधिक नरेंद्र को ही रास आया था।

कोलकाता में प्राय: वे उदर रोग से पीडि़त होने के कारण अपने बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। रायपुर आने के कुछ दिनों पश्चात् ही उनका यह रोग दूर हो गया था और वे पूर्णत: रोग मुक्त हो गए थे। यह सब के लिए चकित करने वाला प्रसंग था।

तब रायपुर हर तरह के प्रदूषण से मुक्त हरे-भरे वृक्षों से घिरा हुआ एक सुरम्य शहर हुआ करता था और डे भवन साहित्य एवं संस्कृति का अभिनव केंद्र था।

मस्तिष्क और हृदय के लिए डे भवन उर्वर खाद का कार्य कर रहा था, तो शरीर के लिए रायपुर की उत्तम जलवायु उन दिनों किशोर नरेंद्र के लिए उपयोगी साबित हो रही थी। ये दोनों ही किशोर नरेंद्र के समग्र विकास के लिए बेहद जरूरी संसाधन थे ।

इस तरह रायपुर में रहते-रहते ही  किशोर नरेंद्र के भीतर भविष्य के स्वामी विवेकानन्द की रूपरेखा का आविर्भाव होना प्रारंभ हो चुका था।

एक नया और सुवासित पुष्प खिलने के लिए लगभग तैयार हो चुका था, जिसके मधुर सुवास से संपूर्ण विश्वरूपी उपवन सुवासित होने वाला था।

संपूर्ण विश्व को अपनी उज्ज्वल किरणों से आलोकित करने वाले एक नए सूर्य के उदय की पृष्ठभूमि का सूत्रपात भी रायपुर में रहते हुए ही संभव होने लगा था ।

डे भवन में तीन माह बीतते न बीतते विश्वनाथ दत्त के परिवार को वह घर कुछ छोटा प्रतीत होने लगा था। डे भवन के ऊपर के दो कमरों में विश्वनाथ दत्त की भरी पूरी गृहस्थी समा नहीं पा रही थी।

परिवार के पांच लोगों का गुजर-बसर वहां हो पाना मुश्किल जान पड़ रहा था।

घर आने-जाने वालों तथा अड्डेबाजी के लिए भी एक अलग कमरे की व्यवस्था डे भवन में संभव नहीं हो पा रही थी। बंगाल तथा बंगाल से बाहर बसे बंगालियों में अड्डेबाजी की एक खास परम्परा होती है। आपस में मिल बैठकर ‘चा’ के  साथ राजनीति, साहित्य, कला तथा संस्कृति पर गंभीर बहसें होती हैं।

इस अड्डेबाजी के बिना बांग्ला भाषियों की कल्पना ही असंभव है।

सो तय हुआ कि विश्वनाथ दत्त और उनके परिवार के लिए कहीं कोई अलग से एक ऐसे मकान की व्यवस्था की जाए जो सर्व सुविधा युक्त भी हो, साथ ही कोतवाली एवं डे भवन से ज्यादा दूर भी न हो।

कोतवाली की स्थापना अंग्रेजों द्वारा सन् 1802 में ही हो चुकी थी। यहीं रायपुर कचहरी संचालित होती थी। कानूनी मुकदमेबाजी भी यहीं निपटाए जाते थे। जिसके चलते भूतनाथ डे ने कोतवाली के नजदीक ही घर खरीद लिया था। कचहरी घर से एकदम पास होने के कारण उन्हें आने-जाने में काफी सहूलियत होती थी। इसलिए वे विश्वनाथ दत्त के परिवार के लिए भी पास में ही कोई मकान किराए पर लेना चाहते थे।

यह सत्य है कि डे भवन में विश्वनाथ दत्त तथा उनका परिवार केवल तीन-चार महीने ही रहा है। अर्थात् किशोर नरेंद्र का डे भवन में प्रवास केवल तीन-चार माह का  रहा है।

रायबहादुर भूतनाथ डे की धर्मपत्नी श्रीमती एलोकेसी डे ने पुष्पमाला देवी को दिए गए अपने साक्षात्कार में भी यह स्वीकार किया है कि ‘विश्वनाथ बाबू केवल तीन महीने ही डे भवन में रहे हैं।’ इस तरह यह कहा जाना विश्वनाथ दत्त अपने परिवार सहित डे भवन में छह माह या दो वर्ष तक रहे हैं उचित प्रतीत नहीं होता है।

सत्य यह है कि विश्वनाथ दत्त अपने परिवार के साथ शुरुआती दौर के तीन महीने तक ही डे भवन में निवासरत रहे हैं।

तीन महीने के पश्चात् उन्हें डे भवन छोडक़र एक अन्य मकान को किराए पर लेना पड़ा था। इस मकान को किराए से लेने में भूतनाथ डे की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

(बाकी अगले रविवार)

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