विचार / लेख
अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी द्वारा जदयू में टूट को अंजाम देने के बाद बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चला रहे एनडीए के इन दोनों घटक दलों के बीच रिश्तों में आई तल्खी से अफवाहों का बाजार गर्म है.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा -
2020 के विधानसभा चुनाव के समय से ही भाजपा का लोजपा प्रेम जदयू को सताता रहा है. राजनीतिव नौकरशाही के गलियारे में यह चर्चा आम है कि आखिरकार भाजपा-जदयू का साथ कब तक चल सकेगा, हालांकि दोनों ही पार्टियों के नेता इस तरह की स्थिति आने से साफ तौर पर इनकार कर रहे हैं, किंतु इतना तो जाहिर है कि जदयू कहीं न कहीं बड़े से छोटे भाई की भूमिका में आने से आहत जरूर है.
बीते दिनों जदयू की प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में पराजित उम्मीदवारों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पार्टी अध्यक्ष आरसीपी सिंह की मौजूदगी में हार का ठीकरा भाजपा के माथे फोडने से परहेज नहीं किया. कई प्रत्याशियों ने साफ कहा कि भाजपा ने साजिशन उन्हें हरवाया है. नई सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर भी बात आगे नहीं बढ़ सकी है.
मुख्यमंत्री पहले ही इसके लिए भाजपा की ओर से देरी की बात कह चुके हैं. नीतीश कुमार को जानने वालों का कहना है कि वे अपने स्वभाव के विपरीत नजर आ रहे हैं. लगता है कहीं न कहीं कशमकश की स्थिति है. यह स्थिति गठबंधन धर्म के अनुकूल कतई नहीं कही जा सकती. विश्वास का संकट दोनों ही दलों के लिए किसी भी सूरत में मुफीद तो नहीं ही है. ऐसी स्थिति में राजनीतिक परिदृश्य पर सवाल उठना लाजिमी है.
खूबचल र हेहैं बयानों के तीर
हाल के दिनों में बिहार में राजनीतिक बयानबाजी चरम पर रही. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने पहले ही जदयू से कहा था कि बिहार में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाएं, वे नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाएंगे. हालांकि नए साल में राजद ने साफ कहा कि जदयू से गठजोड़ का सवाल ही नहीं है. जिस दल का कोई सिद्धांत नहीं, उसके साथ राजद नहीं जाएगा.
बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने तंज कसते हुए कहा, "भाजपा को कई फैसले नीतीश कुमार से कराने हैं, जिसकी चिंता साफ दिख रही है. रस्साकशी के साथ यह सरकार ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है. हम मध्याविधि चुनाव के मद्देनजर तैयारी कर रहे हैं."
बनी रहेगी एनडीए की सरकार
243 सदस्यों की विधान सभा में 125 सीटें जीत कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में बनी रहेगी. लेकिन राज्य में पहली बार बीजेपी जेडीयू को पीछे कर एनडीए का बड़ा दल बन गई है. बीजेपी का संख्या-बल 2015 की 53 सीटों से बढ़ कर 74 पर पहुंच गया है और जेडीयू का 71 से गिर कर 43 पर आ गया है.
इस बीच कांग्रेस के एक नेता भरत सिंह का बयान आया, "कांग्रेस के आधे से अधिक विधायक दल बदलने को तैयार हैं." पार्टी के विधायक दल के नेता अजीत शर्मा ने इसका कड़ा प्रतिकार किया और बयान देने वाले नेता के वजूद पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया.
राजद के तंज का अंतत: प्रतिकार करते हुए भाजपा ने भी पलटवार किया और इशारों-इशारों में ही लोजपा को भी घेरा. भाजपा के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने दावा किया, "खरमास (मकर संक्रांति) के बाद तेजस्वी अपनी पार्टी बचा लें. राजद में परिवारवाद के प्रति बौखलाहट है." वहीं लोजपा को घेरते हुए कहा कि जो हमारा साथ छोड़ गए, उन्हें जनता ने सचाई से अवगत करा दिया.
भूपेंद्र यादव के इस बयान का समर्थन जदयू नेता केसी त्यागी ने भी किया. उन्होंने कहा, "मैं भूपेंद्र यादव के आकलन से सहमत हूं. बिना सत्ता के कांग्रेस और आरजेडी के लोग ज्यादा दिन रह ही नहीं सकते. जैसे जल के बगैर मछली नहीं रह सकती है."
बिहार सरकार के मंत्री ललन सिंह ने तो और एक कदम आगे जाकर कहा, "भूपेंद्र यादव जिस दिन चाहेंगे पूरी आरजेडी का भाजपा में विलय हो जाएगा." राजद भी कहां तक चुप रहती. पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने पलटवार करते हुए कहा, "राजद पर कृपा न करें, तोड़ सकें तो तोड़ कर दिखाएं."
पार्टियों की हालिया बयानबाजी तो यही बता रही कि खरमास के खत्म होने यानी 14 जनवरी के बाद प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलट-फेर होने वाला है. पत्रकार अमित भूषण कहते हैं, "इतना तो तय है कि जो भी होना है, वह कांग्रेस में ही होना है. भाजपा-जदयू का यही सॉफ्ट टारगेट भी है. अगर जदयू इसे तोड़ने में कामयाब होती है तो निश्चय ही एनडीए में उसकी बारगेनिंग पोजीशन बढ़ जाएगी."
हारे हुए जदयू नेता बोले, सारा खेल भाजपा का
2020 के विधानसभा चुनाव में 115 सीटों पर चुनाव लड़कर जदयू महज 43 सीट जीत सकी. यह संख्या 2015 के चुनाव की तुलना में 28 कम रही. ऐसी स्थिति क्यों और कैसे आई, इस पर पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में विमर्श किया गया. बैठक में विधानसभा चुनाव में पराजित प्रत्याशियों ने साफ कहा कि हमारी हार भाजपा की वजह से हुई और उनकी पीठ में छुरा घोंपा गया.
इन नेताओं ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की उपस्थिति में अपनी भड़ास निकालते हुए यहां तक कह दिया कि राजधानी में भाजपा के बड़े नेता जो कहें, क्षेत्र में बीजेपी-एलजेपी भाई-भाई का नारा लगाया जा रहा था. भाजपा का वोट जदयू को ट्रांसफर कराने की बजाय लोजपा को दिलवाया गया. पार्टी के निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने भी पीठ में छुरा भोंकने की बात इशारों में ही की, "हमें दूसरों के द्वारा धोखा दिया जा सकता है, हम किसी को धोखा नहीं देते. यह हमारा चरित्र है."
नाम की कहानी
बिहार प्राचीन काल में मगध कहलाता था और इसकी राजधानी पटना का नाम पाटलिपुत्र था. मान्यता है कि बिहार शब्द की उत्पत्ति बौद्ध विहारों के विहार शब्द से हुई जो बाद में बिहार हो गया. आधुनिक समय में 22 मार्च को बिहार दिवस के रूप में मनाया जाता है.
सबकी बातों को सुनने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चुनाव के नतीजों को भूलकर काम में जुटने की सलाह दी, "पराजित हुए नेता भी अपने क्षेत्र में विधायक की तरह ही काम करें. उनकी सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी." भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं, "नीतीश कुमार कैसे कह सकते हैं कि उन्हें भाजपा ने धोखा दिया है. अगर आप चुनाव के आंकड़ों को देखें तो साफ है कि करीब पचास से ज्यादा सीटों पर जदयू की हार बीस हजार से ज्यादा वोटों से हुई है. ऐसी स्थिति किसी पार्टी की वजह से नहीं आई. उन्हें भली-भांति पता है कि उनके खिलाफ एंटी इन्कमबैंसी थी और इसी वजह से कई जगहों पर जदयू को पराजित होना पड़ा."
साथ चलना दोनों की मजबूरी
जानकार बताते हैं कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर नीतीश कुमार ने फिर से मुख्यमंत्री का पद स्वीकार किया. नीतीश यह भी जानते हैं कि पिछले चुनाव में भाजपा ने परोक्ष नुकसान नहीं किया, किंतु स्वभाव के अनुरूप वे कितने दिनों तक सहयोगी दलों का दबाव झेल पाएंगे यह कहना मुश्किल है. यह देखने की बात होगी कि मंत्रिमंडल विस्तार का काम वे कितनी आसानी से कर पाएंगे.
हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के प्रमुख जीतनराम मांझी ने अपने स्वभाव के अनुरूप एक और मंत्री पद तथा एमएलसी सीट की मांग कर दी है. ऐसे दबाव तो बढ़ेंगे ही. अगर जदयू के लिए विकल्पों को देखा जाए तो राजद के साथ जाना उनके लिए थोड़ा मुश्किल है. इसे लेकर पार्टी की पहले ही काफी किरकिरी हो चुकी है कि जिस लालू प्रसाद का विरोध ही उनकी राजनीतिक धुरी थी, उसे त्याग कर वे उनके साथ चले गए. इसलिए जदयू पर सिंद्धांतविहीन राजनीति करने का भी आरोप लगा और फिर बहुत दिनों तक राजद-जदयू एकसाथ चल भी नहीं सके. अंतत: फिर भाजपा के साथ आना पड़ा.
इसी तरह भाजपा के लिए भी नीतीश कुमार अपरिहार्य हैं. उन्हें पता है कि अगर लालू प्रसाद को रोकना है तो नीतीश कुमार का साथ जरूरी है. शायद इसी वजह से भाजपा ने यह तय कर लिया था कि सीट चाहे जिस दल को जितनी भी आए, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे. पत्रकार एसके पांडेय कहते हैं, "राजनीति में ट्यूनिंग शब्द का बड़ा महत्व है और सुशील मोदी का साथ छूटने के बाद नीतीश कुमार इसे भली-भांति समझ भी रहे हैं. सुशील मोदी पार्टी व मुख्यमंत्री के बीच बेहतर कोर्डिनेशन का काम कर रहे थे. लिहाजा अब बहुत प्रश्नों का जवाब तो आने वाला समय ही देगा."
वैसे गठबंधन के दोनों प्रमुख दल अपनी-अपनी तैयारी में जुटे हैं. एक ओर भाजपा प्रशिक्षण शिविर के नाम पर कार्यकर्ताओं को अपनी रीति-नीति बता रही है, तो वहीं दूसरी ओर जदयू अपने परंपरागत वोट समेटने की कोशिश कर रही है. यही कारण है कि लव-कुश समीकरण को फिर से मजबूत करने के लिए पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह को बनाने के बाद जदयू ने उमेश कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है.
वाकई, यह कहना मुश्किल है कि एनडीए की सरकार का हश्र क्या होगा. नीतीश कुमार व भूपेंद्र यादव के दावे के अनुरूप सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी या फिर दोनों के रास्ते जुदा हो जाएंगे. लेकिन इतना तो तय है कि स्वार्थ व जाति का समीकरण जब तक खांचे में फिट बैठेगा तब तक गठबंधन धर्म का निर्वहन होता रहेगा. वैसे, राजनीति वर्जनाओं के टूटने व जुड़ने का एक ऐसा खेल है जिसमें कुछ भी संभव है.