सामान्य ज्ञान
चर्मण्वती नदी को वर्तमान समय में चम्बल नदी के नाम से जाना जाता है। यह नदी मध्य प्रदेश में बहती हुई इटावा, उत्तर प्रदेश के निकट यमुना नदी में मिलती है। पुराणों और महाभारत में इस नदी के किनारे पर राजा रन्तिदेव द्वारा अतिथि यज्ञ करने का उल्लेख मिलता है। यह माना जाता है कि बलि पशुओं के चमड़ों के पुंज से यह नदी बह निकली, इसीलिए इसका नाम चर्मण्वती पड़ा। किन्तु यह पुराणों की गुप्त या सांकेतिक भाषा-शैली की उक्ति है, जिससे बड़े-बड़े लोग भ्रमित हो गए हैं। राजा रन्तिदेव की पशुबलि और चर्मराशि का अर्थ केला (कदली) स्तम्भों को काटकर उनके फलों से होम एवं अतिथि सत्कार करना है। केलों के पत्तों और छिलकों को भी चर्म कहा जाता था। ऐसे कदलीवन से ही चर्मण्वती नदी निर्गत हुई थी।
महाभारत के अनुसार राजा रन्तिदेव के यज्ञों में जो आर्द्र चर्मराशि इक_ी हो गई थी, उससे यह नदी का जन्म हुआ है। महाकवि कालिदास ने भी अपनी रचना मेघदूत में चर्मण्वती को रन्तिदेव की कीर्ति का मूर्तस्वरूप कहा है। इससे यह जान पड़ता है कि रन्तिदेव ने चर्मण्वती के तट पर अनेक यज्ञ किए थे। चर्मण्वती नदी को वनपर्व के तीर्थ यात्रा अनुपर्व में पुण्य नदी माना गया है।
इस नदी का उद्गम जनपव की पहाडिय़ों से हुआ है। यहीं से गंभीरा नदी भी निकलती है। यह यमुना की सहायक नदी है। महाभारत, वनपर्व में अश्वनदी का चर्मण्वती में, चर्मण्वती का यमुना में और यमुना का गंगा में मिलने का उल्लेख मिलता है।
दंडनायक
दंडनायक प्राचीन भारतीय शासनतंत्र का एक अधिकारी था। प्राय: इस पदवी का प्रयोग किसी सेनाधिकारी (दंड = सेना अथवा बल का नायक = नेता या अधिकारी) के लिये किया जाता था। किंतु दंडनायक से तात्पर्य हमेशा किसी सैनिक अधिकारी से ही होता हो, ऐसी बात नहीं। उसका प्रयोग आधुनिक मजिस्ट्रेट अथवा मध्यकालीन फौजदार जैसे अधिकारियों के लिये भी कभी-कभी किया जाता था।
कभी - कभी दंडनायक के कार्यक्षेत्र में कुछ गांवों के समूह की रक्षा का भी कार्य होता था। प्राचीन भारतीय अभिलेखों में दंडनायकों के उल्लेख प्राय: मिलते हैं,हालांकि उनके कार्यों का कोई निश्चित स्वरूप बता सकना कठिन है। बड़ी-बड़ी सेनाओं के संचालन के कार्यभार के कारण साधारण दंडनायकों से बड़े अधिकारी भी होते थे, जिन्हें महादंडनायक, महाप्रचंडदंडनायक अथवा सर्वदंडनायक कहा जाता था।