विचार / लेख
ध्रुव गुप्त
कल रात फिल्म ‘बैजू बावरा’ का एक गीत सुनते हुए मध्ययुग के इस रहस्यमय गायक और संगीतकार की स्मृतियां उभर आई। लोकमानस में गहराई तक धंसे बैजू बावरा के बारे में ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह एक काल्पनिक चरित्र का नाम है जिसे सदियों से चली आ रही किंवदंतियों और 1952 की हिंदी फिल्म ‘बैजू बावरा’ ने लोकप्रिय बना दिया था। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि बैजू बावरा मुग़ल सम्राट अकबर के महान दरबारी गायक तानसेन के समकालीन विख्यात ध्रुपद गायक थे। 1542 की शरद पूर्णिमा को चंदेरी में जन्मे बैजू बावरा का असली नाम पंडित बैजनाथ मिश्र और घरेलू नाम बैजू था। बचपन से ही संगीत में उनकी बेपनाह रुचि थी। चंदेरी की एक युवती कलावती से वे अथाह प्रेम करते थे और उसे अपने संगीत की प्रेरणा मानते थे। कलावती के प्रति जऩून के कारण उन्हें लोगों ने बावरा नाम दिया। प्रेम को संगीत का आठवां सुर मानने वाले बैजू ने यह नाम सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। बैजनाथ मिश्र ने तानसेन के साथ ही वृंदावन के स्वामी हरिदास से संगीत की शिक्षा पाई थी। शिक्षा पूरी होने के बाद तानसेन अकबर के दरबार में पहुंच गए और बैजू पहले चंदेरी के राजा और फिर ग्वालियर के महाराजा मानसिंह के दरबारी गायक बने। ग्वालियर के जयविलास महल में उपलब्ध ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार पं. बैजनाथ मिश्र की गायन प्रतिभा विलक्षण थी। वे राग दीपक गाकर दीये जला देते थे और राग मेघ मल्हार गाकर बादलों को आमंत्रित करते थे। इन विवरणों में अतिशयोक्ति हो सकती है, लेकिन इनसे उनकी गायकी के स्तर का पता तो चलता ही है।
उस काल के दो महानतम गायकों तानसेन और बैजू बावरा के बीच गायिकी का मुकाबला एक ऐतिहासिक तथ्य है। अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फज़ल और औरंगज़ेब के दरबार के इतिहासकार फक़़ीरुल्लाह ने अकबर के दरबार में आयोजित उस संगीत प्रतियोगिता का जि़क्र किया है जिसमें बैजू बावरा की गायिकी से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें सम्मानित किया था। वर्ष 1613 में लंबी बीमारी के चलते बैजू बावरा का निधन हुआ था। चंदेरी में उनकी समाधि मौज़ूद है जहां हर साल शरद पूर्णिमा को ध्रुपद समारोह का आयोजन होता है।
भारतीय संगीत के इस पुरोधा की स्मृतियों को नमन !