विचार / लेख

वो हरसिंगार का पेड़ और मौन संवाद
20-Oct-2020 11:57 AM
वो हरसिंगार का पेड़ और मौन संवाद

शायद ही कोई ऐसा इंसान हो, जिसने हरसिंगार के फूलों की मनमोहक आभा को महसूस न किया हो

-स्वास्ति पचौरी

बीते दिन पारिजात का पेड़ बहुत चर्चा में रहा। इस पेड़ को हरिसंगार के नाम से भी जाना जाता है। 2017 में एक ट्रेनिंग के दौरान, किन्ही सज्जन से मुलाकात हुई थी, जिनका नाम पारिजात था। वे बचपन से ही अमेरिका में रहे थे। लोगों के पूछने पर उन्होंने बहुत ही मधुर वाणी में अपने नाम का मतलब हिंदी में समझाया था और मैंने तभी जाना था कि हरसिंगार को ही पारिजात कहा जाता है! आजकल इस पेड़ पर फिर फूलों की बहार आयी है। ट्विटर और फेसबुक पर हर कोई हरसिंगार के लुभावने चित्र लगा रहा है। इस पेड़ के फूलों को 'शेओली' और 'प्राजक्ता' के नाम से भी जाना जाता है। शायद ही कोई ऐसा इंसान हो, जिसने इन फूलों की मनमोहक आभा को महसूस न किया हो।

मेरे घर के सामने एक हरसिंगार का खूबसूरत पेड़ था। बचपन से ही एक अनूठा रिश्ता सा रहा है, मेरा हरसिंगार के साथ। अक्टूबर-नवंबर की ठंड में हरसिंगार के मोती जैसी फूलों से सजी हुई घर के सामने की वह सड़क। सुबह-सुबह, सीमेंट-कंक्रीट की हलकी काली सड़कों को हरसिंगार अपने फूलों से भर दिया करता। जैसे मानो, तारों से भरे काले आकाश का एक टुकड़ा कोई नीचे ले आया हो। हरसिंगार के फूल तो लगते भी तारे जैसे हैं। वैसे भी श्वेत रंग के फूलों की बात ही कुछ और होती है। पॉपुलर कल्चर में अनगिनत कहानियां, कविताएं एवं संगीत इन फूलों को समर्पित हैं। फिर चाहे चंपा हो, या चमेली, मोगरा, रजनीगंधा। या फिर अपना हरसिंगार!

घर के नीचे सुजाता आंटी रहा करती थीं। हरसिंगार का यह पेड़ बिलकुल उनके घर के सामने था। सुबह-सुबह मैं एक प्लेट लेकर झट से नीचे जाती और इन फूलों को बीन लाती। गजरा बनाने के लिए। भैया चीखते, स्कूल के लिए लेट हो जाओगी। लेकिन मुझे इसकी कहां परवाह होती थी। वैसे भी गलती चाहे किसी की भी हो, छोटे होने के नाते सारी डांट-डपट तो बड़े भाई- बहनों को ही पड़ा करती है। मेरे सामने तो बस एक ही लक्ष्य होता। जल्दी से सारे हरसिंगार बटोर लाऊं। कितनी ही बार पापा को आवाज दिया करती कि आकर जरा इस पेड़ की शाखाओं को झकझोर जाओ, ताकि सारे फूल एक ही बार में नीचे गिर जाएं, लेकिन वे ऐसा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने से क्या पता उस पेड़ को कोई तकलीफ होती हो?
 
एक बार सुजाता आंटी ने मुझे बांस की छोटी टोकरी दी और कहा इसमें फूल रख लो तो और भी सुन्दर लगेंगे। फूल बीनने के बाद मैं सुई-धागे से गजरा बना लेती और हर रोज़ किसी न किसी टीचर को वह गजरा गिफ्ट में दे दिया करती। हरसिंगार के फूल अत्यंत ही सौम्य होते हैं। इसलिए गजरा बहुत ध्यान से बनाना होता। गजरा बनाना मुझे लक्ष्मी दीदी, जो हमारे यहां मदद करने आया करती थीं, उन्होंने सिखाया था। वह बालों में मोगरा के फूलों का गजरा लगाती थीं, और मेरे लिए भी कई बार ले आती थीं।

फूल बीनने का यह सिलसिला कुछ सालों चला। फिर फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स में जिंदगी उलझती चली गई। इंजीनियरिंग करनी है, कि आर्ट्स पढ़नी है? रेसनिक हॉलीडे कितनी सुलझा ली? ठंड के मौसम में रात में रेडियो सुनते-सुनते इंटीग्रेशन और केमिस्ट्री के न्यूमेरिकल्स सुलझाते हुए, मुझे याद भी नहीं रहा था वो हरसिंगार, जिसको एक समय में मैं कितना हक से अपना माना करती थी। 

मैं धीरे-धीरे उस पेड़ को भूल गयी थी। 

एक बार मुंबई से वापिस आयी तो चाय पीते हुए उस कोने पर नजर एकाएक ही पड़ी थी। वहां कुछ मिस्त्री कंक्रीट का काम कर रहे थे।सुजाता आंटी भी घर छोड़ कर जा चुकी थीं। मेरी नजर धीरे-धीरे जब उधर से गुजरी तो मैंने पाया था कि मेरा वो हरसिंगार तो अब वहां था ही नहीं। थोड़ी बेचैनी हुई थी। दिल न जाने क्यों भर सा आया था। शाम को मां जब ऑफिस से वापिस आयीं तो मैंने पूछा कि वह पेड़ कहां गया? मां कुछ लिखते हुए बोली थीं कि उसको किन्ही कारणों की वजह से वहां से लोगों ने 'हटा' दिया। यानी शायद काट दिया। मां ने 'काट' शब्द का इस्तेमाल इसीलिए नहीं किया था, क्योंकि वो तो शायद हमारे परिवार का ही एक हिस्सा बन चुका था।

मन व्यथित हो उठा। थोड़ा इसलिए कि पता नहीं, उस पेड़ को वहां से क्यों हटाया गया? या पता नहीं, उसको कितनी पीड़ा हुई होगी? पापा तो उसकी शाख तक छेड़ने को राजी नहीं होते थे, लेकिन ज़्यादा व्याकुल अपनी शर्मिंदगी के कारण हो उठी थी। इसलिए कि उस पेड़ के साथ-साथ मेरे बचपन का एक बहुत अहम अंश भी मुझसे अलग हो गया था, मेरे खुद के कारण, क्योंकि मैंने एक स्वार्थी इंसान होने की भूमिका बखूबी निभाई थी। इतने सालों में मुझे क्या मतलब रहा था उससे? कभी उस पेड़ के बारे में सोचा तक नहीं, उसे याद तक नहीं किया। जिसके साथ इतने अनगिनत मौन संवाद और निःशब्द कड़ियों के बीच मैंने अपना बचपन संवारा था। मुझे क्या मतलब किसी पेड़ से! मैं तो उड़ान भरते-भरते चली गयी थी न यहां से! ऐसे किस-किस को याद रखती फिरुं? 

स्वार्थ खोजना कोई मुश्किल नहीं। स्वयं के प्रतिबिम्बों में यदि झांक के टटोला जाए, तो आसानी से मिल जाया करते हैं स्वार्थ। फिर मूक वृक्ष, पेड़, पौधे, पक्षी हमसे कभी कुछ कहते ही कहां हैं? लेकिन हमें अपना साथ अवश्य ही दे जाते हैं। सिर्फ अपने होने भर से, बिना कुछ कहे, हमें आश्वासित कर जाते हैं। चाहे हमारी सुबह की चाय को अपनी हरीतिमा से और सुहाना ही बनाना क्यों न हो, या कंक्रीट की सड़कों के बीचों-बीच हमें "कोएक्सिस्टेंस" का मतलब ही समझाना क्यों न हो? या फिर चंद मिनटों के लिए  हमें " अर्बन फार्मिंग"  या  "अर्बन फॉरेस्ट्री" से रूबरू ही कराना क्यों न हो!

आजकल इन 'मास्क' के पीछे होने वाले मौन अनुभवों के बीच ऐसे तमाम हरसिंगारों की याद आया करती है। उस पेड़ ने मुझे सिर्फ गजरा बनाना नहीं सिखाया था, मुफ्त ही अपनी बाहों की छाया तले सींचा भी था। मेरी तमाम अनुभूतियों के समक्ष सबसे ज़्यादा गहरी यादें तो उन्हीं मौन संवादों की थीं जो आंखों से हुआ करते थे। जब हम किसी की पीड़ा को बिना कुछ कहे-सुने ही अपनी आँखों से समझ लेते हैं। इस सन्दर्भ में तो हरसिंगार ने ही मुझे बिना कुछ कहे-सुने समझा था। मैं उसको देख बड़ी हुई थी, तो क्या उसने भी कभी मुझे महसूस किया होगा? क्या उसने जाने से पहले मुझे याद किया होगा? या क्या उसकी आवाज़ ही मेरे कानों तक नहीं पहुंची थी? या अगर पहुंची भी हो, तो क्या जानबूझ के मैंने उन आवाजों को अनसुना कर दिया था? मुझे नहीं समझ आता। आखिर आजतक उसने मुझसे मांगा ही क्या था? 

प्रकृति की नीरव शान्ति को आँखों, आवाजों एवं स्पर्श से ही महसूस किया जा सकता है। ख़ास तौर पर कोरोना में लॉकडाउन में ऐसे इकतरफा, निःशब्द संवाद बालकनी से या खिड़कियों से कितनी ही बार महसूस करने को मिले। वैसे भी आजकल की टीवी पर बहस और चीखने- चिल्लाने के शोर ने इस शान्ति को और नीरस बना दिया है। कोरोना से पहले भी तो सड़क पर चलते किसी व्यक्ति से आँखें मिल जाया करती थीं, सफर करते वक़्त किसी की बात को सुनकर अमूमन मुस्कुरा दिया करते थे, और फिर आँखों से ही उस शख्श को देख उस संवाद से विदा ले लिया करते थे!

शायद इसीलिए हरसिंगार जैसे पेड़ हमें इन्हीं अनकही, मानवीय संवेदनाओं को सिखाने के लिए हमसे रूबरू हुआ करते हैं। जिन्हें हम भूल जाते हैं,या अनदेखा कर देते हैं। या तभी याद करते हैं, जब स्वार्थ हमें स्वार्थ से मिलाता है कभी, और मजबूर कर देता है जीवन की लय को उस अनंत मौन की गहराईयों के बीच महसूस करने के लिए। 

शायद इसलिए उन हरसिंगरों को आज हरदम ढूंढ़ा करती हूं, लेकिन ढूंढ़ते नहीं मिलते वो हरसिंगार! (downtoearth.org.in)

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