संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आंकड़ों की महिमा अपार, पर उनसे सवाल भी जरूरी
23-Sep-2020 6:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आंकड़ों की महिमा अपार, पर उनसे सवाल भी जरूरी

इन दिनों पत्रकारिता में एक नई शैली आगे बढ़ रही है, डाटा-जर्नलिज्म। आंकड़ों का विश्लेषण करके कोई नतीजा निकालना, और उसके आधार पर समाचार या रिपोर्ट तैयार करना, कोई विश्लेषण करना या विचार लिखना। डाटा-जर्नलिज्म के साथ दो चीजें जुड़ी रहती हैं जिनकी वजह से वह आम अखबारनवीसों या दूसरे किस्म के पत्रकारों के लिए, मीडियाकर्मियों के लिए कुछ मुश्किल होता है, उसके लिए गणित की जानकारी जरूरी है, और आंकड़ों के विश्लेषण के तरीके भी आने चाहिए। यह तो बुनियादी औजार हुए, इसके बाद फिर समाचार की एक समझ होनी चाहिए कि इन आंकड़ों से किया क्या जाए, इनसे कैसे नतीजे निकाले जा सकते हैं, इनके आधार पर कैसी तुलना हो सकती है। जिन लोगों को सांख्यिकी की समझ न हो, और अखबारनवीस की नजर न हो, उनके लिए आंकड़े ऊन का उलझा हुआ गोला रहते हैं जिन्हें सुलझाना उनके बस का नहीं रहता। 

आज इस पर चर्चा की जरूरत इसलिए हो रही है कि दुनिया और देश-प्रदेश में कोरोना से जुड़े हुए आंकड़ों को लेकर रोजाना खूब सारे ग्राफ और चार्ट बन रहे हैं, विश्लेषण हो रहे हैं कि किस प्रदेश में कोरोना सबसे अधिक रफ्तार से बढ़ रहा है, कहां पर मौतें अधिक हो रही हैं। लेकिन लोग संख्याओं की तुलना करते हुए अधिकतर जगहों पर इस बात की तुलना नहीं करते कि ये आंकड़े आबादी के अनुपात में हैं या नहीं। होता यह है कि सबसे अधिक आबादी वाले यूपी-बिहार के आंकड़ों की तुलना अगर सीधे-सीधे सिक्किम-अरूणाचल के आंकड़ों से कर दी जाएगी, तो उन आंकड़ों से कोई मतलब नहीं निकलेगा। चाहे कोरोना पॉजिटिव का मामला हो, चाहे मौतों का, इन तमाम आंकड़ों को जब तक प्रति लाख या प्रति दस लाख आबादी के साथ जोडक़र उनकी तुलना नहीं की जाएगी, वे एक झूठी तस्वीर पेश करने वाले आंकड़े रहेंगे। 

डाटा-जर्नलिज्म इसीलिए एक अपेक्षाकृत नई ब्रांच है, और वह लोगों के मन से लिखी जाने वाली बातों के मुकाबले अधिक वैज्ञानिक तथ्य सामने रखने वाली पत्रकारिता है। यह भी जरूरी है कि इस औजार के साथ-साथ सामाजिक जमीनी हकीकत की समझ भी हो, और उसे ध्यान में रखते हुए आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए। अब लगातार तरह-तरह के कोर्स हो रहे हैं कि डाटा-जर्नलिज्म कैसे हो। जो बड़े मीडिया हैं, उनमें रोज ही आंकड़ों के आधार पर चार्ट और ग्राफ, नक्शे और बक्से बनाए जाते हैं जिनसे एक नजर में लोग निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इंफोग्राफिक नाम से बहुत से ऐसे सांख्यिकीय तुलनात्मक अध्ययन इन दिनों चलन में है जिनसे लंबे-लंबे लिखे हुए तथ्यों के मुकाबले बात अधिक आसानी से समझ में आ जाती है। 

लेकिन डाटा-जर्नलिज्म का एक बड़ा खतरा यह है कि अगर कम समझ के साथ आंकड़ों से खिलवाड़ किया गया तो एक गलत तस्वीर निकलकर आ सकती है, और पाठकों में से तो बहुत ही कम लोग इतनी गहरी समझ वाले रहते हैं कि आंकड़ों के साथ-साथ देशों की आबादी, या प्रदेशों की आबादी के अनुपात में उन आंकड़ों को तौल सकें। इसलिए जहां कहीं कोई मीडिया आंकड़ों की अखबारनवीसी कर रहे हों, वहां उनमें एक गहरी समझ भी जरूरी है। आज तो हाल यह है कि भारत सरकार या प्रदेशों की सरकारें भी जिन आंकड़ों को सामने रख रही हैं, वे सही परिप्रेक्ष्य में नहीं तौले जाते हैं। अब जैसे प्रति दस लाख आबादी पर कोरोना के कितने टेस्ट हुए, यह बात तो इसी सही तरीके से इसलिए तौली जा रही है कि इसका एक अंतरराष्ट्रीय पैमाना चले आ रहा है, और बाकी दुनिया के आंकड़ों के विश्लेषण देखते हुए हिन्दुस्तान में भी आबादी और जांच का अनुपात देखा जा रहा है। लेकिन उससे परे जब प्रदेशों में मिलने वाले कोरोना के नए आंकड़े देखे जाएं, या होने वाली मौतों को लेकर प्रदेशों की तुलना हो, तो मामला गड़बड़ा जाता है। तीन करोड़ से कम आबादी वाला प्रदेश और दस करोड़ से अधिक आबादी वाला प्रदेश भी एक-एक प्रदेश ही गिनाते हैं, और उनमें मौतें भी अगल-बगल रखकर गिन दी जाती हैं, बिना यह देखे कि इनके आबादी का फर्क क्या है। छोटे अखबारों और दूसरे छोटे मीडिया कारोबार में सांख्यिकी के जानकार अलग से नहीं रखे जा सकते, इसलिए वहां तो दूर, बड़े-बड़े अखबारों में भी आंकड़ों की पकी-पकाई तुलना को परखने का काम कोई नहीं करते। कम से कम आम पाठक को इस बात के लिए जागरूक करना चाहिए कि वे बहुत से दूसरे पैमानों को ध्यान में रखते हुए ही पेश किए गए चुनिंदा आंकड़ों से कोई निष्कर्ष निकालें। पत्रकारिता की पढ़ाई में भी डाटा-जर्नलिज्म अनिवार्य रूप से पढ़ाना चाहिए क्योंकि अब कम्प्यूटरों के अधिक से अधिक इस्तेमाल के साथ यह काम बढ़ते जाना है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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