संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : न्यायपालिका को खबरों से अधिक अपनी साख की फिक्र करनी चाहिए
16-Sep-2020 5:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : न्यायपालिका को खबरों  से अधिक अपनी साख  की फिक्र करनी चाहिए

आन्ध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने मीडिया और सोशल मीडिया पर एक रोक लगाई है कि राज्य के एक भूतपूर्व एडवोकेट जनरल के खिलाफ दर्ज एक एफआईआर को प्रकाशित या प्रसारित न किया जाए। अदालत ने यह भी कहा है कि इस एफआईआर के बारे में भी न छापा जाए, या सोशल मीडिया पर पोस्ट भी न किया जाए। इस बारे में कानूनी खबरों की एक वेबसाईट बारएंडबेंचडॉटकॉम में जानकारी दी है कि इस भूतपूर्व एजी ने अदालत में अपील की है कि राज्य सरकार उनके खिलाफ बदनीयत से ऐसा कर रही है। खबर में यह भी है कि पहले यह अपील जिस जज के पास गई थी उसने इसे सुनने से इंकार कर दिया था, और इसे मुख्य न्यायाधीश को भेजने कहा था। दूसरी तरफ कुछ पत्रकारों ने ट्विटर पर यह बात भी लिखी है कि आन्ध्र की इस बनने जा रही राजधानी अमरावती में सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज की दो बेटियों द्वारा जमीन खरीदने में गड़बड़ी इस मामले में है, और इस वजह से इसकी खबरों का गला घोंटा जा रहा है। कुछ प्रमुख और भरोसेमंद वेबसाईटों ने इस एफआईआर के आधार पर जो खबरें छापी हैं, उनमें इस बात का खुलासा है। 

किसी दर्ज एफआईआर की जानकारी के प्रकाशन पर रोक अपने आपमें कुछ अटपटी बात है। एक तो कुछ एफआईआर ऐसी होती हैं जिनमें खुद पुलिस या जांच एजेंसी उन्हें उजागर होने से रोकती हैं, और उसके लिए अलग कानूनी प्रावधान है। महिला और बच्चों से जुड़े हुए कुछ किस्म के मामले और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए कुछ मामले इस तरह से रोके जाते हैं कि उनकी एफआईआर इंटरनेट पर अपलोड नहीं की जाती। लेकिन बाकी तमाम एफआईआर 24 घंटे के भीतर अपलोड करने की स्थायी व्यवस्था है, और यह जांच एजेंसियों का जिम्मा है। ऐसे में जमीन खरीदी के किसी मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों पर खुद सरकार द्वारा दर्ज की गई एफआईआर पर कोई खबर बनाने, या सोशल मीडिया पोस्ट बनाने पर रोक एक अजीब बात है, और पहली नजर में यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने वाला आदेश लगता है। खासकर तब जब यह एफआईआर एक राज्य शासन ने खुद दर्ज की है जो कि एक जवाबदेह संस्था है। अगर राज्य सरकार अपनी ही किसी योजना में जमीन खरीदी-बिक्री या आबंटन में गड़बड़ पा रही है, तो उसकी एफआईआर में ऐसा क्या गोपनीय है जिसे जनता के जानने के हक से ऊपर माना जा रहा है? 

इस मामले की अधिक जानकारी पर चर्चा किए बिना हम इस अदालती सोच पर चर्चा कर रहे हैं जिसे लेकर जिम्मेदार मीडिया ने बड़ा साफ-साफ लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज की दो बेटियों द्वारा वहां पर जमीन खरीदी के खिलाफ यह एफआईआर है। आज देश में अदालतों को लेकर आम जनता का क्या सोचना है यह प्रशांत भूषण के मामले में खुलकर सामने आ चुका है जिसमें जजों ने प्रशांत भूषण की सोशल मीडिय-टिप्पणियों को अदालत की अवमानना मानते हुए एक रूपए का जुर्माना सुनाया है, और प्रशांत भूषण अपनी बात पर कायम रहते हुए इसके खिलाफ अपील करने जा रहे हैं। लोगों को याद है कि प्रशांत भूषण ने कई बरस पहले सुप्रीम कोर्ट के कई मौजूदा और भूतपूर्व जजों के बारे में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, और उस अलग मामले में उनके खिलाफ अवमानना का पुराना केस खोलकर ताजा किया जा रहा है। पिछले कुछ महीनों में प्रशांत भूषण की वजह से, उनके मामले पर देश का जो रूख सामने आया है, उसे देश भर की बड़ी अदालतों को देखना चाहिए, और जनता की लोकतांत्रिक-उम्मीदों को समझना चाहिए। आज अगर न्यायपालिका अपने से जुड़े हुए लोगों की जानकारी सार्वजनिक होने से रोकने की कोशिश करती है, तो ऐसी राहत लोगों को सदमा जरूर देगी। न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि निजी और सरकारी, अदालती और संसदीय, संवैधानिक या कारोबारी, किसी भी किस्म की ताकत की जगहों पर लोग जिस तरह से गलत कर भी रहे हैं, और अपने से जुड़ी जानकारियों को छुपाने में भी कामयाब हो रहे हैं, वह लोकतंत्र की एक बड़ी शिकस्त है। इस देश में बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोगों की छोटी-छोटी सी डिग्रियां भी देने से मना किया जा रहा है, और लोकतंत्र की कोई व्यवस्था जनता के हक की मदद नहीं कर पा रही है। अब अगर किसी भूतपूर्व महाधिवक्ता, या वर्तमान जज की बेटियों की जमीन खरीदी-बिक्री के मामले को भी अगर जनता के जानने के हक से ऊपर करार दिया जा रहा है, तो यह बहुत ही निराशा की बात है, और आने वाले वक्त में इस रोक के खिलाफ जनमत तैयार होगा। ऐसी कोई रोक पूरी जिंदगी तो चल नहीं सकती क्योंकि सरकार ने अगर एफआईआर दर्ज की है तो सरकार तो आगे कार्रवाई भी करेगी, और उस पर तो अदालत अभी तक कोई रोक लगा नहीं पाई है। आगे की किस-किस कार्रवाई पर मीडिया के कवरेज या सोशल मीडिया पर टिप्पणियों को रोका जा सकेगा? यह सिलसिला न्यायपालिका की साख को घटाने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। आज न्यायपालिका जिस तरह बहुत से अप्रिय विवादों से घिर गई है, उसके सामने विश्वसनीयता का एक संकट खड़ा हुआ है, जिस तरह आज सोशल मीडिया पर लोग कई बरस पहले की अरूण जेटली की संसद की एक टिप्पणी का वीडियो पोस्ट किए जा रहे हैं कि रिटायर होने के बाद दिल्ली के आलीशान इलाके में सरकारी बंगले में काबिज बने रहने के लिए सुप्रीम कोर्ट जजों के रिटायरमेंट के पहले के फैसले प्रभावित हो रहे हैं, उन्होंने काफी दम-खम के साथ यह बात कही थी, और लोग उनकी उस समय की बात को आज के संदर्भ में और अधिक सही पा रहे हैं, और अब तो मीडिया में रिटायर हुए कुछ जजों के फैसलों को लेकर लंबे-लंबे विश्लेषण भी हो रहे हैं कि किस तरह वे फैसले कुछ तबकों को सुहाने लगने वाले हैं। 

अदालत को अपने आपको किसी परदे में रखने के किसी विशेषाधिकार का दावा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब सुप्रीम कोर्ट के जज इस बात पर अड़ गए थे, कि वे सूचना के अधिकार के तहत अपनी संपत्ति की घोषणा करने की बंदिश नहीं मानेंगे, तब दिल्ली हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट जजों के इस रूख के खिलाफ एक फैसला दिया था, और कहा था कि जजों को अपनी संपत्ति तो उजागर करनी ही होगी। 

लोकतंत्र में जब-जब जनता के जानने के हक को कुचलने की कोशिश होती है, वह कुचलने वाले पैरों का ही चिथड़ा उड़ा देती है। आन्ध्र हाईकोर्ट का यह आदेश आने वाले दिनों में लंबे पोस्टमार्टम से गुजरेगा, और हमारा यह मानना है कि जानकारी छुपाने की अपील करने वाले लोगों का और बड़ा भांडाफोड़ होगा जब यह आदेश हटेगा, और सरकार कार्रवाई करेगी। न्यायपालिका को खबरों से अधिक अपनी साख की फिक्र करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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