संपादकीय
इन दिनों बाकी दुनिया के साथ-साथ, शायद बाकी दुनिया से अधिक, हिन्दुस्तान का मीडिया एक पल-पल मीडिया बन गया है। एक झलक, एक सुर्खी, एक शब्द आगे रहने के लिए लोगों में गलाकाट मुकाबला हो रहा है। आज कोरोना के फैलाव से बचने के लिए लोगों पर जिस तरह की जिम्मेदारी है, उसे तोड़ते हुए मीडिया के लोग जिस तरह अनैतिक सीमा जाकर काम कर रहे हैं, वह भयानक है। और इसके लिए मीडिया के भीतर जिंदगी गुजार देने वाले हमारे सरीखे लोगों की भी जरूरत नहीं रह गई है, अब आम लोग भी मीडिया को जमकर गालियां देने लगे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि मीडिया को जिस सोशल मीडिया पर गालियां दी जा रही हैं उसकी अपनी विश्वसनीयता बहुत अधिक नहीं है क्योंकि वह गैरजिम्मेदार भी है, अराजक भी हैं, और वह कोई एक चेहरा नहीं है। सोशल मीडिया पर बाकी मीडिया कहे जाने वाले तबके का जितना भांडाफोड़ होता है, उसे जितना कोसा जाता है, उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं बन पाती है। ऐसे में लंबे समय से चले आ रहे एक शब्द को जिंदा करने की जरूरत है, वॉच-डॉग।
वैसे तो मीडिया को ही समाज में, समाज पर निगरानी रखने वाला कुत्ता कहा जाता था, लेकिन अब मीडिया पर नजर रखने के लिए एक थोड़े से संगठित और व्यवस्थित तरीके की जरूरत है। कहने के लिए हिन्दुस्तान में सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज की अगुवाई में प्रेस कौंसिल दशकों से बनी हुई है, लेकिन वह किसी काम की नहीं है। वहां तक कोई शिकायतें पहुंचे तो उस पर मीडिया संस्थान तो एक नोटिस जारी हो जाता है, और अगर सुनवाई के बाद लगता है कि मीडिया ने गलत किया था तो उसे चेतावनी जारी हो जाती है, उसे खंडन, स्पष्टीकरण या माफी छापने को कह दिया जाता है, जिसे कोई गंभीरता से नहीं लेते, और शायद ही कोई प्रेस कौंसिल के निर्देशों पर अपने समाचार-विचार के खिलाफ ऐसा कुछ छापते हैं।
दूसरी तरफ हाल के बरसों में आल्ट न्यूज नाम की एक वेबसाईट ने काम करना शुरू किया जो जाहिर तौर पर आल्टरनेटिव न्यूज जैसी किसी बुनियाद से शुरू हुई है, और जो खबरों में चल रहे, सोशल मीडिया में चल रहे झूठ को उजागर करने का काम करती है। धीरे-धीरे ऐसा काम कई और मीडिया संस्थान भी करने लगे हैं, जिनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो कि खुद गैरजिम्मेदारी से झूठ फैलाते हैं, लेकिन साथ-साथ अपनी साख बनाने के लिए वे इस तरह झूठ-उजागरी की बाजीगरी भी करते हैं। वे कुछ चुनिंदा खबरों के झूठ को उजागर करने के लिए जांच करते हैं, और अपने मकसद, अपनी नीयत के साथ पकड़े गए झूठ को सामने रखते हैं। इसमें भी कोई बुराई नहीं है अगर उनकी उजागरी-बाजीगरी चुनिंदा मामलों में ही हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के संविधान में लोकतंत्र के तीन स्तंभ बनाए गए, उनमें कहीं भी अमरीकी संविधान की तरह प्रेस की जगह नहीं थी। प्रेस के किसी किस्म के मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में नहीं है, जबकि दुनिया के कई लोकतंत्रों में उसे अलग से जगह दी गई है। लेकिन धीरे-धीरे मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने लगा, फिर एक वक्त आया कि एनजीओ काम करने लगे, और वे लोकतंत्र के न पहले तीन स्तंभों को बनाते समय सोचे गए थे, न ही चौथे स्तंभ का अस्तित्व मानते हुए सोचे गए थे। कुछ वक्त के लिए ऐसा लगा था कि वे भारतीय लोकतंत्र में पांचवां स्तंभ बन सकते हैं। लेकिन ऐसे औपचारिक लेबल की बात छोड़ दें, तो आज जरूरत एक ऐसे वैकल्पिक मीडिया की है जो कि मीडिया पर खुर्दबीनी नजर रखे, और उसके झूठ को उजागर करे, उसका भांडाफोड़ करे, उसे कसौटी पर कसे। यह इसलिए भी जरूरी है कि जब मीडिया, और खासकर आज जिस तरह का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो गया है, वह मीडिया, अपनी मनमानी पर उतर जाता है, अपनी नंगई और हिंसा पर उतर जाता है, तो फिर किसी के लिए करने का कुछ नहीं बचता। यह सिलसिला टूटना चाहिए। जो मीडिया रात-दिन लोगों के सामने गैरजरूरी सवाल खड़े करने में लगे रहता है, उस मीडिया की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए।
पहले कई देशों में मीडिया-वॉच नाम के कॉलम प्रचलित थे जो कि समाज के वॉच-डॉग पर भी नजर रखते थे। वह सिलसिला छोटे पैमाने पर अभी भी कहीं-कहीं पर चलता है, लेकिन वह इतना छोटा है कि वह कोई असर नहीं डाल पाता। दूसरी तरफ आल्ट न्यूज जैसी जो नई कोशिशें हैं, वे बुनियादी रूप से झूठ के भांडाफोड़ के लिए हैं, वे मीडिया की किसी तरह की समीक्षा के लिए नहीं है, उसकी आलोचना के लिए नहीं है। इसलिए आज यह बात बहुत जरूरी है कि मीडिया की जवाबदेही बढ़ाने के लिए अधिक संगठित कोशिशें होनी चाहिए। आज इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाईन मीडिया अपनी तकनीकी खूबियों की वजह से जब जो चाहे बदल लेते हैं, और वे अखबारी कतरनों की तरह हमेशा के लिए शर्मिंदगी बनकर खड़े नहीं रहते। यह तकनीकी खूबी कामकाज की जिम्मेदारी में एक बड़ी खामी है। और ऐसी खामी वाले मीडिया की जवाबदेही कुछ अधिक हद तक तय करना जरूरी है। यह बात हम सिर्फ टीवी या इंटरनेट के लिए नहीं लिख रहे हैं, हम इसे प्रिंट के लिए भी लिख रहे हैं कि देश के मानहानि कानून से परे, प्रेस कौंसिल जैसी कागजी संस्था से परे, मीडिया के बीच से ही ऐसी कोशिशें होनी चाहिए कि झूठ का भांडाफोड़ हो सके, बदनीयत उजागर हो सके। और यह काम फैक्ट-चेक से अधिक है, यह महज सफेद झूठ पकडऩे वाला काम नहीं है, यह अर्धसत्य को भी पकडऩे की बात है, बदनीयत को पकडऩे की बात है। ऐसी वेबसाईटें ये सवाल उठा सकें कि मीडिया के कौन-कौन से काम गलत हैं, अनैतिक हैं, अमानवीय हैं, बेईमान हैं। यह जवाबदेही अगर नहीं बढ़ेगी, तो हिन्दुस्तानी मीडिया के कम से कम एक बड़े हिस्से की साख मिट्टी में मिल चुकी है, और मिट्टी के नीचे वह कहां तक जाएगी यह आसानी से सोचा जा सकता है। इसकी बहुत छोटी सी शुरुआत कुछ वेबसाईटों ने की है, और दुनिया में जो लोग, जो कंपनियां, जो संगठन लोकतंत्र को बढ़ाना चाहते हैं, बेइंसाफी को घटाना चाहते हैं, यह उनकी भी जिम्मेदारी है कि ऐसी कोशिशों को मदद करे। आज भी हिन्दुस्तान में ऐसी शुरुआत हो चुकी है, और कुछेक मीडिया वेबसाईटों को दानदाताओं का सहयोग मिल रहा है, लेकिन वे भी मीडिया वेबसाईट ही हैं, वे मीडिया पर वॉच-डॉग की तरह काम करने का काम नहीं कर रही हैं। आज जरूरत ऐसी गंभीर और मजबूत कोशिशों की है जो कि मीडिया की साख मिट्टी से और नीचे गटर तक जाने से रोक सके, और लोकतंत्र को और अधिक नुकसान से बचाएं।