संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश को खतरे में डालने का एक गैरजिम्मेदार काम, दाखिला-इम्तिहान तुरंत टालें...
27-Aug-2020 5:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश को खतरे में डालने का एक गैरजिम्मेदार काम, दाखिला-इम्तिहान तुरंत टालें...

भारत सरकार जिस तरह से बड़े कॉलेजों में दाखिले के इम्तिहान लेने पर अड़ी हुई है, और उसे उसकी जिद पर सुप्रीम कोर्ट का साथ भी मिल गया है, वह देश के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है। कोरोना-महामारी का पूरा असर पहले कभी किसी का देखा हुआ नहीं है इसलिए खतरे का अंदाज लगा पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है, सुप्रीम कोर्ट के लिए भी नहीं। इस खतरे का अहसास कराने के लिए कुछ छात्रों का यह कहना काफी होना चाहिए कि मां-बाप बड़ी बीमारियों के मरीज हैं, संक्रमण का खतरा उठाते हुए वे कैसे इम्तिहान देने जाएं?

कोरोना के खतरे ने इस देश और इसके प्रदेशों को दाखिला-इम्तिहान जैसे तरीके के बारे में एक बार और सोचने का मौका भी दिया है। छत्तीसगढ़ सरकार इस बरस बी.एड. जैसे कड़े दाखिला-इम्तिहान की जगह ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट इम्तिहानों में मिले नंबरों के आधार पर दाखिला देने की सोच रही है। देश को यह भी सोचना चाहिए कि आज बड़े कॉलेजों की हर दाखिला-परीक्षा की तैयारी के लिए देश में ऐसे कारखाने चल रहे हैं जहां आबादी के सबसे ऊंचे एक चौथाई लोग ही अपने बच्चों को भेज पाते हैं। बाकी तीन चौथाई की तो ऐसे मुकाबलों में संभावना ही नहीं रहती क्योंकि वे बराबरी की तैयारी की सरहद तक भी नहीं पहुंच पाते।

लोगों को याद होगा कि जब कोरोना का हमला हुआ तो राजस्थान के कोटा शहर में दाखिलों की तैयारी के कारखानों में किस तरह लाखों बच्चे थे और उन्हें राज्य सरकारों ने घर वापिस लाने के इंतजाम किए थे। हर बरस के दाखिला-इम्तिहान देश में सामाजिक असमानता की खाई को और गहरा, और चौड़ा कर देते हैं। और यह खाई महज एक पीढ़ी तक नहीं रह जाती, वह आने वाली तमाम पीढिय़ों के लिए हो जाती है। कोरोना ने एक मौका दिया है कि बड़े कॉलेजों, या बाकी कॉलेजों में भी दाखिले के तरीकों के बारे में फिर सोचा जाए। अभूतपूर्व हालात अभूतपूर्व तरीकों को भी पैदा करते हैं। 

जानकार लोगों को एक ऐसा तरीका निकालना चाहिए कि स्कूली इम्तिहानों से लेकर कॉलेज के इम्तिहानों तक के चुनिंदा नंबरों को भी आगे के दाखिलों और नौकरियों में वजन मिले। यह महत्व मिले बिना पढ़ाई का महत्व खत्म हो चुका है और बस दाखिला-इम्तिहानों की ही अहमियत रह गई है। यह बात हिंदुस्तान को दुनिया के समझदार देशों के मुकाबिले हमेशा ही बहुत पीछे रखेगी। अगर स्कूलों के कुछ चुनिंदा बोर्ड इम्तिहानों और कॉलेज इम्तिहानों के औसत नंबरों को आगे दाखिले-नौकरी की पूर्व शर्त रखा जाए तो बच्चों की पढ़ाई की तरफ वापिसी हो सकती है। 

फिलहाल आज की बात करें तो देश का माहौल बिल्कुल भी इन परीक्षाओं के लायक नहीं है। यह सामान्य जिंदगी नहीं है कि इतना बड़ा इंतजाम किया जा सके, और उससे संक्रमण न फैले। कल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने और साथी मुख्यमंत्रियों के साथ यह सही पहल की है। बाकी राजनीतिक दलों को भी इस बारे में सोचना चाहिए। यह सबकी राजनीतिक जिम्मेदारी का वक्त है। आज जो पार्टी जलते-सुलगते मुद्दों पर चुप रह जाएंगी वो इतिहास में गैरजिम्मेदार दर्ज होगी। आज की महामारी ने देश को जिस हद तक बर्बाद किया है, उसे  और अधिक बढऩे देने के खतरे वाला कोई भी गैरजिम्मेदाराना काम नहीं करना चाहिए। कोरोना का टीका आने, सबको लगने में हो सकता है कि एक-दो और पन्द्रह अगस्त निकल जाए। टीके के लोकार्पण की जो हड़बड़ी आईसीएमआर दिखा रहा था, वह हड़बड़ी पढ़ाई के लिए दिखाना ठीक नहीं है। भारत की सबसे बड़ी चिकित्सा विज्ञान संस्था अपने फर्जी दावे के साथ जिस तरह औंधे मुंह गिरी है, वह नौबत भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की नहीं होनी चाहिए। नाजुक मौके के बीच ऐसी दाखिल परीक्षा से दसियों लाख छात्र-छात्राएं और उनके परिवारों के करोड़ों लोग एक गैरजरूरी और भयानक खतरे में पड़ेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 
 

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