विचार / लेख
-परिवेश मिश्र
कुछ सप्ताह पहले मेरे पते पर स्पीड पोस्ट के जरिये दिल्ली से एक लिफाफा रवाना हुआ। मैं नेट पर ट्रैक कर रहा था। ठीक ठाक चलते हुए लिफाफा 50 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय रायगढ़ तक पंहुचा और वहीं अटक गया। एक दो करते जब दस दिन हो गये तो अपने पोस्टमास्टर से फोन करवाया वजह जानने के लिये। रायगढ़ वालों ने कन्फर्म किया लिफाफा उनके पास है लेकिन वे इंतजार कर रहे थे कि कुछ और डाक आ जाए (संख्या सम्मानजनक हो जाए) तो भेजें।
मुझे वो जमाना याद आ गया जब मेरे शहर में कुछ सिनेमा हॉल (तब टॉकीज शब्द प्रचलित था) की रेपुटेशन थी कि वे पर्याप्त दर्शक इक_ा हो जाने के बाद ही शो शुरू करते थे। (और पर्याप्त संख्या न हो पाये तो जो आ चुके हों उन्हें टिकट के पैसे लौटा कर घर भेज दिया जाता था)। पर्याप्त यात्री न होने पर कभी कोई बस या ट्रेन ने रवाना होना कैन्सिल कर दिया हो ऐसी जानकारी अलबत्ता मुझे नहीं है, गनीमत है।
सत्तर के दशक के मध्य तक रायगढ़ और सारंगढ़ के बीच बिना पुल की एक बड़ी नदी थी। रायगढ़ से आने वाली बस बीच के स्थान चन्द्रपुर में नदी के उत्तरी तट पर रुक जाती थी। कंडक्टर सवारियों में से सबसे विश्वसनीय दिखते व्यक्ति को चुन कर डाक का झोला पकड़ा देता था। पैदल चलती नदी पार करती सवारी के साथ में भीगते भागते, झूलते झालते झोला नदी के दक्षिण तट पर प्रतीक्षा कर रही दूसरी बस के कंडक्टर के हाथ में पंहुच जाता था।
पीछे की ओर चलते हुए कंडक्टर और झोला वाली ये व्यवस्था जिस दिन फिर मिल जाएगी मेरा लिफाफा जल्दी आने लगेगा।
वैसे पूरा देश इन दिनों समय की उंगली पकड़े पीछे की ओर चल रहा है। यात्रा यूं ही जारी रही तो बादशाहों को ख़त पंहुचाते बेगमों के कबूतरों और कालीदास के संदेस ले जाते मेघों को पार करते हुए महाभारत काल के इंटरनेट की रेन्ज में भी पंहुच ही जाऊंगा। फिर संचार व्यवस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं होगी। किसी भी व्यवस्था से नहीं होगी। मैं तो तब रामराज्य में पंहुच चुका होऊंगा।