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हे राम! स्वार्थियों ने तो तुम्हारी छवि ही बदल दी, ‘रामराज्य’ में तो हर पंथ-विचार का स्वागत था
14-Aug-2020 11:06 AM
हे राम! स्वार्थियों ने तो तुम्हारी छवि ही बदल दी, ‘रामराज्य’ में तो हर पंथ-विचार का स्वागत था

-मीनाक्षी नटराजन

हे राम !

सारा बचपन तुम्हारी कथा को सुनते-सुनते बीता है। नानी की लोरियों के राम यानि तुम अलौकिक थे। जाहिर है कि कल्पना ने तुम्हारे कई चित्र उकेरे, कई तरह से तुम्हें गढ़ा।

तीसरी कक्षा की बात है। आज भी वे दिन बंद आंखों के सामने सजीव हो उठते हैं। घर के आंगन में हरसिंगार के फूल बिखरे रहते थे और मैं तुम्हें “अमर चित्र कथा’’ मे पढ़ती थी। जैसे ही तुम्हारे वन गमन का प्रसंग आता, मन भारी हो जाता। आंखें छलछला उठतीं। बाल मन ने पहली बार पीड़ा का अहसास किया था। “ओह ! सारा एरेंजमेंट वेस्ट हो गया।’’ यह पहली प्रतिक्रिया ज्यों की त्यों याद है। शब्द नहीं बदले। उन चित्रों को देखकर बहुत दुख हुआ था। तुम्हारा राज्याभिषेक धरा रह गया। किन्तु तुम हंसते-हंसते लेश मात्र गुस्से के बिना वन चले गये।

मैंने तरूणाई मे प्रवेश किया। मन आंगन मे सवाल हिलोर भरने लगे। तुम्हें खरी-खोटी सुनाने का मन करता। तुमने सीता के साथ अन्याय किया था। तुम तो युग पुरूष थे। तुमसे ही तो बदलाव की उम्मीद थी। शंबूक के साथ जो तुमने किया उससे मैं और विचलित हुई। वो उम्र ही ऐसी होती है।

फिर भी तुमसे कभी विरक्त नहीं हो सकी। जब-जब भी घर में माता-पिता, वृद्ध जनों से मुंहजोरी करती, फिर तुम्हें पढ़ती तो मन लज्जित हो उठता था। बार-बार तुम्हारा आवेशरहित मुखमंडल सामने आ जाता। लोगों के साझे सहज बोध में सदियों से आखिर तुम्हारी यही तो छवि बसी थी। कृपासिन्धु की छवि। निषादराज गुह को गले लगाते, माता शबरी की जूठन खाते, विमाता को प्रेम से तारते करूणानिधान की छवि अंतस में बसी थी।

एकाएक सब बदलने लगा। तुम्हारा इस्तेमाल वैमनस्य घोलने के लिए चंद स्वार्थी लोगों ने किया। बहुत रक्तपात हुआ। कृपासिन्धु की छवि बदली गई। अब जहां-तहां तुम्हें योद्धा के रूप में उकेरा जाने लगा।

उन्हीं दिनों महज संजोग से इस धरती के लाल उस अनन्त सत्यान्वेषी के सत्य प्रयोगी मार्ग को समझने की जिज्ञासा जाग उठी। वो जिसने जीवन का हर पल तुम्हें समर्पित कर दिया और अंतिम क्षण मे तुम्हें “हे राम’’ कहकर पुकारा। उन्होंने अपने लिए यही कसौटी मानी थी। तुम ही ने तो उन्हें भवसागर पार कराया। हां । सत्य ही तो है। ऐसी अनन्य आस्था रखने वाले को तुम्हीं तो संचालित करते हो। अन्य ज्यादातर मुझ जैसे लोग तो तुम्हें सुन ही नहीं पाते। उन्हें उनका अहं संचालित करता है।

उस महात्मन् के लिए तुम “सत्य’’ थे। दशरथी राम केवल सत्य का लोक प्रतीक। “राम’’ माने “सत्य’’ और कुछ नहीं। उसी सत्य में उनकी आस्था थी। वैसे भी संसार में बाकी तो सब क्षण-क्षण बदलते नाम रूपों का जंजाल भर हैं। उनके मार्ग को जानने की जिज्ञासा ने मन की अधीरता को शांत किया। सोचने की नई रीत सिखाई। कहीं न कहीं यह समझना शुरू किया की हर एक को उसी के नजरिये से देखना चाहिए।

तुमसे असहमत और नाराज आज भी हूं। लेकिन अब तुम्हारे “राजधर्म’’ को खारिज नहीं कर पाती। व्यक्तिगत त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किये बिना कोई बदलाव संभव नहीं। तुमने सुविधा नहीं, सत्य का कठिन क्रूर मार्ग चुना। लोगों की प्रतिक्रिया को “द्रोह’’ कहकर आसानी से दंड के सहारे मामले को टाल सकते थे। आज की व्यवस्था में तो आक्षेप लगाना बहुत दूर की बात है। यहां तो सवाल पूछना “द्रोह’’ कहलाता है।

शंबूक के प्रसंग को लेकर तो मेरा जी अब भी तुमसे झगड़ने को चाहता है। मैं जानती हूं कि यह तुम्हारे उदार बड़प्पन और क्षमाशीलता के कारण है। तुम अपने से लड़ने का हक जो देते हो। अब धीरे-धीरे सोच की दिशा बदलने लगी है। वैसे भी तुम्हारी कहानी कई तरह से कही गई है। वाल्मीकि “रामायण” लोकनायक की कथा अधिक लगती है। “अध्यात्म रामायण’’ से प्रेरित तुलसीकृत “मानस’’ में तुम “ब्रह्म’’ और सीता “जगत’’ के रूप में वर्णित किये गये हो। “मानस’’ में उपरोक्त दोनों ही प्रसंग नहीं है। “आनंद रामायण’’ में तो सीता हरण के पूर्व तुम्हारा एक सुंदर संवाद है। तुम सीता से कहते हो कि “रजो’’ रूप में वे अग्नि के पास संरक्षित रहें। “तम’’ रूप मे रावण द्वारा हरण कर ली जाये और “सत्व’’ के रूप में तुम्हारे हृदय में बसी रहें।

जैन परंपरा में “पौमचरियम्’’ और “त्रिषष्टीशलाका पुरूष चरितं’’ में तुम्हारी अलग दिव्य कथा है। सांख्य मत तो तुम्हें “पुरूष’’ और सीता को “प्रकृति’’ का प्रतीक मानता है। तुम्हें निर्गुण निराकार “सत्य’’ के लौकिक प्रतीक के रूप में देखती आई थी। अब भी देखती हूं। लेकिन अब तुम “सत’’ और सीता “चित्त’’ के रूप में दिखाई पड़ते हो। इस सत और चित्त का गठजोड़ ही “आनंद’’ मय होता होगा। सत और चित्त का परस्पर कभी त्याग नहीं हो सकता। वे दो कहां हैं? एक ही हैं। यह तो हुआ चैतन्य का बोध।

इतिहास कई राजाओं की कहानी कहता है। लोक मानस को तो “राम राज्य’’ याद है। कहते हैं कि “राम राज्य’’ मे कभी ताले नहीं लगते थे। बचपन में सोचती थी कि घर खुले रहते होंगे। चोरों का डर नहीं था। यह कितनी अद्भुत बात है। राम! तुम्हारे राज्य में सबके घर हर एक के लिए हमेशा खुले रहते थे। किसी के लिए किसी का भी घर कभी बंद नहीं होता था। वो चाहे कोई भी क्यूं न हो।

दरअसल “राम राज्य’’ में चित्त पर ताला नहीं लगता था। मन खुला हुआ था। हर पंथ, मार्ग, विचार, ख्याल के लिए हमेशा खुला था। तभी तो वह “राम राज्य’’ था। “सत्य’’ का राज्य ऐसा ही तो होगा। जहां विविध, विपरीत विपक्ष को विकार न माना जाये। “सत्य’’ की खोज बंद दिमाग से कहां हो सकती है।

कहते हैं कि रावण बड़ा मायावी था। कोई भी रूप धारण कर सकता था। फिर उसने राम का रूप धारण करके सीता को छलने का प्रयास क्यों नहीं किया? यह तो सही है कि सीता को तब भी छला नहीं जा सकता था। शायद रावण जानता था कि राम का तो रूप भी धारण करने से रावणत्व नष्ट हो जाएगा। वो “सत्’’ की ओर बढ़ जाएगा। सोचती हूं कि “राम’’ यदि कभी रावण का रूप धारण करते तो क्या होता? “सत्य’’ के प्रभाव से “दंभ’’ का दहन हो जाता। “राम’’! तुम्हारी यानि “सत्य’’ की ऐसी ही पावन महिमा है।

मुझे याद है कि तुम पर आधारित धारावाहिक प्रसारित हुआ, पुर्नप्रसारित भी हुआ। तुम पर लोकमानस की ऐसी श्रद्धा है कि सीरियल और गांवों, कस्बों में खेली जाती रामलीला के पात्रों को भी लोगों ने मान दिया। तुम्हारे चरित्र का अभिनय करना भी सम्मानजनक माना जाता है।

क्यूं न हो? तुम हो ही ऐसे। तुमसे विभीषण ने पूछा कि रावण का सामना कैसे करोगे? रथ तक तो है नहीं। तुमने शांत भाव से कह दिया कि तुम जिस रथ पर सवार हो, उसके बाद किसी भौतिक संसाधन की आवश्यकता नहीं। “धर्म’’ तुम्हारा रथ था। “धर्म’’ यानि “सत्य’’। कुछ दशक पहले “रथ यात्रा’’ कहलाता आधुनिक गाड़ी का कारवां तुम्हारी जन्मभूमि का अधिकार पाने के नाम पर निकला। जहां-तहां “सत्य’’ को रौंदता हुआ आगे बढ़ा । वहां धर्म यानि “सत्य’’ नहीं था। सत्य तो केवल प्रेम के कारवां में हो सकता है। विध्वंस मे नहीं।

“सत्य’’ की जन्मभूमि कहां है? मैं सोच रही हूं। तुम्हारा ही प्रसंग बरबस याद हो आया। तुमने सर्वथा अनजान बनकर ऋषि वाल्मीकि से पूछा कि मैं अपनी पत्नी और भाई के साथ कहां वास करूं? उन्होंने क्या खूब उत्तर दिया- “तुम्हारा वास कहां नहीं है राम ?’’

“काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें ह्दय बसहु रघुराया।।’’

आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि जाति, पाति, धन, धर्म, बड़ाई को छोड़कर जो अपने हृदय में तुमको धारण करे, वहीं बस जाओ रघुराई।

हां भौतिक स्थान चित्रकूट हो सकता है। अब तुम्हारा मंदिर बनने जा रहा है। लेकिन मैं जानती हूं कि तुम कहां वास करते हो। मेरा मंदिर वहीं होगा। पैदल चलते मजदूरों के पैर के छालों में, असंख्य बेदखल शबरियों की प्रेम कुटिया में, किसानों के पसीने में, सत्यान्वेषियों के बलिदान में, कबीरों के ताने-बाने में, मैं तुम्हें ढूंढ लूंगी। यही मेरे जीवन का लक्ष्य है, मेरी तपस्या, मेरी भक्ति है।(navjivan)

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