संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : टीवी चैनलों की बहस के बाद मौत से उपजे सवाल
13-Aug-2020 6:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : टीवी चैनलों की बहस के  बाद मौत से उपजे सवाल

कांग्रेस पार्टी के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी की कल मौत हो गई। वे एक समाचार चैनल की बहस पर थे, और वहां भाजपा के एक प्रवक्ता अपनी आदत के मुताबिक कांग्रेस प्रवक्ता पर जहरीले आरोप लगा रहे थे। जिससे कि हो सकता है वे विचलित भी हुए हों, लेकिन इसी वजह से उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे, और इसे लेकर भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा पर जुर्म कायम करने की मांग कुछ कांग्रेस समर्थक, और कुछ भाजपा-पात्रा विरोधी कर रहे हैं। कांग्रेस के भूतपूर्व, और शायद भावी, अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने इस प्रवक्ता के जाने पर ट्वीट किया है कि कांग्रेस ने आज अपना एक बब्बर शेर खो दिया। हालांकि उन्होंने भाजपा प्रवक्ता या चैनल के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है। देश के बहुत से समझदार लोगों ने सोशल मीडिया पर तुरंत ही यह मांग की है कि समाचार चैनलों पर ऐसी जहरीली बहसें बंद की जाएं जो कि दर्शक संख्या बढ़ाने के मकसद से स्टूडियो में इस किस्म की नफरती जंग छिड़वाती हैं। अभी कुछ ही वक्त हुआ है जब हिन्दुस्तानी फौज के एक रिटायर्ड जनरल ने ऐसी ही एक बहस के बीच एक दूसरे पैनलिस्ट को मां की गाली दी, और वह टेलीकास्ट भी हुई। उस वक्त हमने इस अखबार में यह लिखा भी था कि बाकी समाचार चैनलों के सामने यह गाली एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है कि इससे आगे वो और कौन सी गाली किससे किसे दिलवा सकते हैं। पाकिस्तान इस मामले में हिन्दुस्तान से जरा सा आगे है, जरा अधिक कामयाब है, वहां टीवी स्टूडियो में पैनलिस्ट एक-दूसरे से मारपीट करने पर उतर आते हैं, और वह नजारा टेलीकास्ट से परे भी चारों तरफ समाचार चैनल के शोहरत दिलवाता है। यह धंधा ही ऐसा है कि जिसमें बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ, का फॉर्मूला चलता है। हिन्दुस्तानी समाचार चैनलों में से अब काफी कुछ ऐसे हो गए हैं जो कि अर्नब गोस्वामी को आदर्श मानकर लाईफ टेलीकास्ट में अधिक से अधिक हिंसा की, अधिक से अधिक फूहड़, और अधिक से अधिक गंदी, साम्प्रदायिक बातें करते हैं, कि शायद इन्हीं तौर-तरीकों से वे राज्यसभा में जा सकेंगे, या पद्मश्री पा सकेंगे। कुछ चैनलों के लोग तो हर घंटे इतना साम्प्रदायिक जहर आसमान में तरंगों के रास्ते फैलाते हैं जितना कि कानपुर के सारे कारखाने महीने भर में भी गंगा में नहीं डाल सकते। 

अब इस सिलसिले में कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर कई तरह की सलाह भी दी है। एक सलाह यह है कि कांग्रेस ऐसे चैनलों पर अपने प्रवक्ता भेजती ही क्यों है जहां पर लोगों को घोर साम्प्रदायिक, घोर हिंसक, और घोर धर्मान्ध बातें कहने के लिए छूट मिलती है, या बढ़ावा मिलता है। कुछ चैनलों पर मुर्गा लड़ाई की तरह लोगों को भिड़ाया जाता है, और पुराने जमाने के एक आदिम खेल की तरह मजा लिया जाता है, खून के प्यासे दर्शकों की प्यास बुझाई जाती है, या उन्हें इस खून की लत लगाई जाती है। दूसरी तरफ जिस तरह स्पेन में बुलफाईट होती है, और एक लड़ाका सांड को तलवार से कोंच-कोंचकर मारता है, और इस खूनी खेल को देखने के लिए पूरा स्टेडियम खून के आदी लोगों से भरा रहता है। जिस तरह लोगों ने इतिहास में पढ़ा है कि इटली के रोम में कोलोसियम में स्टेडियम की तरह दर्शक भरे रहते थे, और बीच में एक गुलाम और शेर के बीच लड़ाई करवाई जाती थी, जिसका अंत, जाहिर है कि गुलाम की मौत ही होता था। और लोग इसका मजा उठाते थे। वैसा ही कुछ हिन्दुस्तानी टीवी चैनलों में से अधिकतर की बहस के साथ होता है, और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाए हुए कुछ ऐसे धर्मान्ध और साम्प्रदायिक टीवी चैनल भी हैं जिन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में हमेशा के लिए उसके संपादक के साथ बंद कर देना चाहिए, लेकिन उसका हाल के बरसों में बड़ा बोलबाला है। 

ऐसे खूनी माहौल में लोगों के पास बड़े आसान विकल्प भी हैं। राजनीतिक दलों के पास भी, और टीवी के दर्शकों के पास भी। लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान में मनोहर कहानियां नाम की एक अपराध कथा पत्रिका निकलती थी। जिसे लोग आमतौर पर सफर के लिए खरीदते थे, या अकेले पढऩे के लिए। इसे कभी इज्जतदार पत्रिका नहीं माना गया, और सेलून-पानठेला छोड़ दें, तो और किसी भी जगह इस पत्रिका को खुले में नहीं रखा जाता था। एक वक्त ऐसा था जब इस पत्रिका का प्रसार इंडिया टुडे जैसी प्रतिष्ठित और अच्छी समाचार पत्रिका से भी अधिक था। लेकिन धीरे-धीरे लोगों को समझ आया कि गंदगी से अधिक यारी उन्हें, उनकी सोच को गंदा बनाकर छोड़ेगी, तो उन्होंने यह पत्रिका पढऩा बंद कर दिया, और अब तो 10-20 बरस से इसका कोई नामलेवा भी कहीं नहीं दिखा है। जो दर्शक टीवी की ऐसी हिंसा-साम्प्रदायिकता, और फूहड़-अश्लीलता से थके हुए हैं, उनके सामने ऐसे चैनल देखने की कोई मजबूरी तो है नहीं। वे अपना वक्त कुछ दूसरे बेहतर चैनलों, या टीवी से परे इंटरनेट पर बेहतर समाचार-विचार पाने में लगा सकते हैं। हिन्दुस्तान में आज भी आम अखबार आम टीवी चैनलों के मुकाबले अधिक जिम्मेदार हैं, और इंटरनेट पर बहुत सारे समाचार-माध्यम बहुत अच्छे विचार भी रखते हैं, और लोग अपनी जरूरत की जानकारी, और सोच वहां से पा सकते हैं। लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिंदगी के रोज के चौबीस घंटों में से आठ घंटे तो सोते निकल जाते हैं, आठ घंटे औसतन काम रहता ही है, बचे आठ घंटों में भी रोज के कुछ जरूरी काम आधा वक्त ले ही लेते हैं। इस तरह इंसान के पास अपनी पसंद के अधिक से अधिक चार घंटे ही पढऩे, लिखने, देखने के लिए बचते हैं। इन चार घंटों में वे कैसा साहित्य पढ़ें, कौन से अखबार देखें, वॉट्सऐप पर आने वाली गंदगी के लिए कितना वक्त रखें, अपने सोशल मीडिया के लिए कितना वक्त रखें, और टीवी चैनल या इंटरनेट पर कितना वक्त लगाएं, उन पर किस पर वक्त लगाएं, यह एक बहुत बड़ा सवाल है। लोग टीवी चैनल पर औसतन अधिक से अधिक एक घंटा लगा पाते हैं, और इसी एक घंटे में अगर वे गंदगी और बहते हुए लहू को देखना चाहते हैं, एक नफरतजीवी रिटायर्ड फौजी जनरल के मुंह से अपने बच्चों सहित बैठकर मां की गालियां सुनना चाहते हैं, तो वे हमारी हमदर्दी के हकदार हैं। उन्हें दिमागी इलाज की जरूरत है, क्योंकि एक वक्त हिन्दुस्तान में अपराध की पत्रिकाओं को खरीदकर लोग हत्या और बलात्कार का ब्यौरा बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते थे, फिर वही तबका टीवी समाचार चैनलों के आखिर में अपराध पर आने वाले बुलेटिन के लिए आंखों को धोकर तैयार बैठता था। ऐसे लोगों के लिए हमारे पास हमदर्दी है कि उनकी मानसिक स्थिति के इलाज के लिए हिन्दुस्तान में पर्याप्त मनोचिकित्सक नहीं है। यही बात हम कुछ गंदे और घटिया समाचार चैनलों की बहसों पर टकटकी लगाने वाले लोगों के बारे में कहना चाहेंगे कि अगर उनके पास फीस देने की ताकत है, तो दिमाग के किसी डॉक्टर से उनको इलाज जरूर कराना चाहिए। 

दूसरी तरफ कांग्रेस या दूसरे राजनीतिक दल, जिनको भी यह लगता है कि टीवी चैनलों में से अधिकतर उनके खिलाफ एक अभियान चलाने का कारोबार कर रहे हैं, उन्हें भी अपने हिसाब से आजादी है कि वे ऐसे चैनलों पर न जाएं। गंदगी में शामिल होना किसी की मजबूरी नहीं है, और लोकतंत्र हर पार्टी को यह आजादी तो देता ही है कि वे ऐसे चैनलों का, ऐसी बहसों का बहिष्कार करें जो कि असहमति पर लोगों को आनन-फानन गद्दार, देशद्रोही करार देते हैं, और हिंसक फतवों से अपना टीआरपी बढ़ाते हैं। 

बात महज कुछ, या अधिक चैनलों के खिलाफ नहीं है, अगर अखबारों और पत्रिकाओं में भी कुछ लोगों का धंधा महज ब्लैकमेल करना है, तो उनसे भी लोगों को बात क्यों करनी चाहिए? उन्हें क्यों खरीदना चाहिए? लोकतंत्र में गंदगी के ऊपर एक सीमा से अधिक रोक नहीं लग सकती। इस देश में प्रेस कौंसिल बरसों से एक मुर्दे से भी कम हलचल वाली संस्था है, अदालतें ऐसी हैं कि जहां आधी सदी पुराने केस चल रहे हैं, ऐसे में मीडिया के खिलाफ और कोई तरीका नहीं हो सकता सिवाय इसके कि लोग बुरे मीडिया का बहिष्कार करें, और सरोकार वाले, जिम्मेदार, ईमानदार मीडिया का साथ दें। अगर मुंबई में लोग दाऊद के मालिकाना हक वाले रेस्त्रां जाना बंद नहीं करेंगे, तो शरीफों के रेस्त्रां तो बंद होंगे ही होंगे। यही हाल मीडिया का भी है, मीडिया के गंदे हिस्से का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए, तभी बेहतर मीडिया जिंदा भी रह पाएगा। फिलहाल आज का यह लिखना जिस घटना की वजह से हो रहा है, उस बारे में भी समझ लेना चाहिए कि हम पार्टियों के पेशेवर राष्ट्रीय प्रवक्ताओं को इतने कच्चे दिल का नहीं मानते कि उन्हें कोई गद्दार कह दे, देशद्रोही कह दे, और वे इस सदमे में चल बसें। आज बहुत से हिन्दुस्तानी टीवी चैनलों का हाल यह है कि वहां जाने वाले पैनलिस्ट को मां-बहन की गालियां भी सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। भाजपा से असहमत, या कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता को गद्दार सुनने से कोई सदमा नहीं लग सकता, यह तो आज देश की तमाम असहमत आबादी के लिए एक आम विशेषण बन चुका है, हाल के कुछ बरसों से। यह मौत ऐसी बहस के तुरंत बाद जरूर हुई है, लेकिन संबित पात्रा जैसों की मौजूदगी में ऐसी गालियां उम्मीद से परे तो नहीं ही रही होंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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